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पर्यावरण के लिए अमीर देशों की उदासीनता खतरनाक

ललित गर्ग

जलवायु संकट से निपटने के लिए अमीर एवं शक्तिशाली देशों की उदासीनता एवं लापरवाह रवैया को लेकर भारत की चिंता गैरवाजिब नहीं है। ग्लासगो में आयोजित हुए अंतरराष्ट्रीय जलवायु सम्मेलन (सीओपी 26) में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बढ़ते पर्यावरण संकट में पिछड़े देशों की मदद की वकालत की ताकि गरीब आबादी सुरक्षित जीवन जी सके। मोदी ने अमीर देशों को स्पष्ट संदेश दिया कि धरती को बचाना उनकी प्राथमिकता होनी ही चाहिए, वे अपनी इस जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। दरअसल कार्बन उत्सर्जन घटाने के मुद्दे पर अमीर देशों ने जैसा रुख अपनाया हुआ है, वह इस संकट को गहराने वाला है। जलवायु परिवर्तन के घातक प्रभावों ने भारत ही नहीं पूरी दुनिया की चिंताएं बढ़ा दी हैं।
भारत में ग्लोबल तापमान के चलते होने वाला विस्थापन अनुमान से कहीं अधिक है। मौसम का मिजाज बदलने के साथ देश के अलग-अलग हिस्सों में प्राथमिक आपदाओं की तीव्रता आई हुई है। भारत में जलवायु परिवर्तन पर इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फार एनवायरमेंट एंड डवलपमेंट की हाल ही में जारी की गई रिपोर्ट में कहा गया है कि बाढ़-सूखे के चलते फसलों की तबाही और चक्रवातों के कारण मछली पालन में गिरावट आ रही है। देश के भीतर भू-स्खलन से अनेक लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। भू-स्खलन उत्तराखंड एवं हिमाचल जैसे दो राज्यों तक सीमित नहीं बल्कि केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, सिक्किम और पश्चिम बंगाल की पहाड़ियों में भी भारी वर्षा, बाढ़ और भूस्खलन के चलते लोगों की जानें गई हैं, इन प्राकृतिक आपदाओं के शिकार गरीब ही अधिक होते हैं, गरीब लोग प्राथमिक विपदाओं का दंश नहीं झेल पा रहे और अपनी जमीनों से उखड़ रहे हैं। गरीब लोग सुरक्षित स्थानों की ओर पलायन कर चुके हैं। विस्थापन लगातार बढ़ रहा है। महानगर और घनी आबादी वाले शहर गंभीर प्रदूषण के शिकार हैं, जहां जीवन जटिल से जटिलतर होता जा रहा है।
एक बड़ा सवाल उठना लाजिमी है कि शून्य कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य आखिर हासिल कैसे होगा? पर्यावरण के बिगड़ते मिजाज एवं जलवायु परिवर्तन के घातक परिणामों ने जीवन को जटिल बना दिया है। गौरतलब है कि जलवायु संकट से निपटने के लिए विकसित देशों को गरीब मुल्कों की मदद करनी थी। इसके लिए 2009 में एक समझौता भी हुआ था, जिसके तहत अमीर देशों को हर साल सौ अरब डालर विकासशील देशों को देने थे। पर विकसित देश इससे पीछे हट गए। इससे कार्बन उत्सर्जन कम करने की मुहिम को भारी धक्का लगा। इसलिए अब समय आ गया है जब विकसित देश इस बात को समझें कि जब तक वे विकासशील देशों को मदद नहीं देंगे तो कैसे ये देश अपने यहां ऊर्जा संबंधी नए विकल्पों पर काम शुरू कर पाएंगे।
वैज्ञानिक और पर्यावरणविद चेतावनी दे रहे हैं कि आने वाले दशकों में वैश्विक तापमान और बढ़ेगा इसलिए अगर दुनिया अब भी नहीं सर्तक होगी तो इक्कीसवीं सदी को भयानक आपदाओं से कोई नहीं बचा पाएगा। रोम में सम्पन्न हुए जी-20 सम्मेलन में सभी देश धरती का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस कम करने पर राजी हुए हैं। इसके अलावा उत्सर्जन को नियंत्रण करने के तथ्य निर्धारित किये गए हैं। जी-20 ने तो शताब्दी के मध्य तक कार्बन न्यूट्रेलिटी तक पहुंचने का वादा भी किया है। ग्लासगो सम्मेलन में भी भारत की रणनीति धनी देशों पर सौ अरब डालर की आर्थिक सहायता और खाद्य तकनीक के हस्तांतरण का दबाव बनाने की रही। अमीर देश कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लक्ष्य विकासशील और गरीब देशों पर थोपने लगे हैं। अमेरिका, चीन और ब्रिटेन जैसे देश भी कोयले से चलने वाले बिजली घरों को बंद नहीं कर पा रहे। यह चिंता इसलिए भी बढ़ गई है कि इस सम्मेलन से ठीक पहले इटली में समूह-20 के नेताओं की बैठक में सदस्य देशों के नेता इस बात पर तो सहमत हो गए कि वैश्विक तापमान डेढ़ डिग्री से ज्यादा नहीं बढ़ने देना है, पर 2050 तक कार्बन उत्सर्जन शून्य करने को लेकर कोई सहमति नहीं बन पाई।
अमेरिका की नैशनल इंटेलिजेंस इस्टीमेट रिपोर्ट में भारत को पाकिस्तान और अफगानिस्तान सहित उन 11 देशों में शामिल किया गया है, जो जलवायु परिवर्तन के लिहाज से चिंताजनक श्रेणी में माने गए हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, ये ऐसे देश हैं, जो जलवायु परिवर्तन के कारण सामने आने वाली पर्यावरणीय और सामाजिक चुनौतियों से निपटने की क्षमता के लिहाज से खासे कमजोर हैं। संयोग कहिए कि यह रिपोर्ट ऐसे समय आई है, जब उत्तराखंड में लगातार बारिश के चलते बाढ़ और भूस्खलन के रूप में आई त्रासदी ने पूरे देश को भयभीत किये हुए है। जाहिर है, हमें इन चुनौतियों के मद्देनजर अपनी तैयारियों पर ज्यादा ध्यान देना होगा। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि आने वाले समय में विश्व तापमान की दशा तय करने में चीन और भारत की अहम भूमिका रहने वाली है। आखिर चीन दुनिया का सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक देश है। भारत भले चैथे नंबर पर है, लेकिन चीन के साथ जुड़ इसलिए जाता है क्योंकि इन दोनों ही देशों में उत्सर्जन की मात्रा साल-दर-साल बढ़ रही है। दूसरे और तीसरे स्थान पर मौजूद अमेरिका और यूरोपियन यूनियन (ईयू) अपना उत्सर्जन कम करते जा रहे हैं। हालांकि यह भी कोई छुपा तथ्य नहीं है कि भारत जैसे देशों के लिए उत्सर्जन कम करना आसान नहीं है। इसके लिए जिम्मेदार सबसे बड़ा कारक कोयले का बहुतायत में इस्तेमाल है, जिसे रातोरात कम करना संभव नहीं। क्योंकि इसके सारे विकल्प अपेक्षाकृत महंगे पड़ते हैं।  
विडम्बना की बात यह है कि अमेरिका जैसे विकसित देशों को जो पहल करनी चाहिए, वह होती दिख नहीं रही। अब तक जितने भी सम्मेलन हुए, उनका निष्कर्ष है कि कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लक्ष्य हासिल करने के लिए अमीर देश विकासशील देशों पर ही दबाव डालते रहे हैं। जबकि संसाधनों के घोर अभाव के बावजूद भारत जैसे विकासशील देश ने ऊर्जा के विकल्पों पर अच्छा काम करके दिखाया है। ग्लासगो सम्मेलन तार्किक नतीजे पर पहुंचे, इसके लिए विकसित राष्ट्रों को नजरिया बदलने की जरूरत है। यह सर्वविदित है कि इंसान व प्रकृति के बीच गहरा संबंध है। इंसान के लोभ, सुविधावाद एवं तथाकथित विकास की अवधारणा ने पर्यावरण का भारी नुकसान पहुंचाया है, जलवायु संकट एवं बढ़ते तापमान के कारण न केवल नदियां, वन, रेगिस्तान, जलस्रोत सिकुड़ रहे हैं बल्कि ग्लेशियर भी पिघल रहे हैं, जो विनाश का संकेत तो है ही, जिनसे मानव जीवन भी असुरक्षित होता जा रहा है।
वर्तमान समय में पर्यावरण के समक्ष तरह-तरह की चुनौतियां गंभीर चिन्ता का विषय बनी हुई हैं। ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से ग्लेशियर तेजी से पिघल कर समुद्र का जलस्तर तीव्रगति से बढ़ा रहे हैं। जिससे समुद्र किनारे बसे अनेक नगरों एवं महानगरों के डूबने का खतरा मंडराने लगा है। दुनिया ग्लोबल वार्मिंग, असंतुलित पर्यावरण, जलवायु संकट एवं बढ़ते कार्बन उत्सर्जन जैसी चिंताओं से रू-ब-रू है। ग्लासगो में आयोजित हुआ अंतरराष्ट्रीय जलवायु सम्मेलन अमीर राष्ट्रों को संवेदनशील एवं उदार होने के साथ-साथ प्रकृति के साथ तालमेल बिठाने एवं उसके प्रति जागरूक होने के लिए प्रेरित करता है, ताकि हम जलवायु महासंकट से मुक्ति पा जाये एवं 2050 तक शून्य कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्य को प्राप्त कर सके। ग्लोबल वार्मिंग का खतरनाक प्रभाव अब साफतौर पर दिखने लगा है। देखा जा सकता है कि गर्मियां आग उगलने लगी हैं और सर्दियों में गर्मी का अहसास होने लगा है। इसकी वजह से ग्लेशियर तेजी से पिघल कर समुद्र का जलस्तर तीव्रगति से बढ़ा रहे हैं। पर्यावरण के निरंतर बदलते स्वरूप ने निःसंदेह बढ़ते दुष्परिणामों पर सोचने पर मजबूर किया है। औद्योगिक गैसों के लगातार बढ़ते उत्सर्जन और वन आवरण में तेजी से हो रही कमी के कारण ओजोन गैस की परत का क्षरण हो रहा है। इस अस्वाभाविक बदलाव का प्रभाव वैश्विक स्तर पर हो रहे जलवायु परिवर्तनों के रूप में दिखलाई पड़ता है। सार्वभौमिक तापमान में लगातार होती इस वृद्धि के कारण विश्व के पर्यावरण पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है, उससे मुक्ति के लिये जागना होगा, संवेदनशील होना होगा एवं विश्व के शक्तिसम्पन्न राष्ट्रों को सहयोग के लिये कमर कसनी होगी तभी हम जलवायु संकट से निपट सकेंगे अन्यथा यह विश्व मानवता के प्रति बड़ा अपराध होगा। प्रे्रेषकः

प्रियंका गाँधी वाड्रा का सियासी जुआ

-प्रो. रसाल सिंह

प्रियंका

फरवरी 2022 में होने वाले उत्तर प्रदेश विधान-सभा चुनाव में जीत के लिए कांग्रेस पार्टी ने अपनी राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गाँधी वाड्रा पर दाँव लगाया हैI स्वयं प्रियंका इस चुनावी वैतरणी से पार उतरने के लिए ‘घोषणाबाजी’ की लोक-लुभावन राजनीति का जुआ खेल रही हैंI उन्होंने पिछले एक-डेढ़ महीने में लोक-लुभावन घोषणाओं की झड़ी लगाकर लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचने की कोशिश की हैI उन्होंने उत्तर प्रदेश विधान-सभा की 403 सीटों पर 40 फीसद महिला उम्मीदवार लड़ाने की घोषणा के साथ इसकी शुरुआत कीI इसके बाद उन्होंने कांग्रेस की सरकार बनने पर किसानों के कर्ज और और बिजली बिल माफ़ करने की घोषणा कीI तीसरी बड़ी घोषणा लड़कियों को स्मार्टफोन और स्कूटी देने की और चौथी घोषणा नागरिकों को 10 लाख रुपये तक के मुफ्त इलाज  की सुविधा देने की हैI उन्होंने महिलाओं के लिए तीन रसोई गैस सिलेंडर और बस पास मुफ्त देने और बिजली बिल आधा करने  जैसी घोषणाएं  भी की हैं। शिक्षा, रोजगार, व्यापार के सम्बन्ध में भी वे बहुत जल्द ऐसी कुछ लोक-लुभावन घोषणाएं करने वाली हैंI लेकिन इन घोषणाओं के बारे में आम मतदाताओं और अधिकांश चुनाव विश्लेषकों की स्वाभाविक प्रतिक्रिया यह है कि ‘न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी’; अर्थात् न तो कांग्रेस की सरकार बनेगी, और न ही इन हवा-हवाई घोषणाओं को पूरा करने की नौबत आएगीI ऐसा नहीं है कि स्वयं प्रियंका या उनकी पार्टी इस सच्चाई से अवगत नहीं हैंI फिर यह प्रश्न उठता है कि वे यह जुआ क्यों खेल रही हैं? दरअसल, उप्र में मरणासन्न कांग्रेस की जान बचाए रखने के लिए उनके पास इस तरह का जुआ खेलने के अलावा और कोई उपाय नहीं हैI लेकिन जुए ही की तरह इस दाँव का खतरा यह है कि ‘छब्बे बनने चली कांग्रेस कहीं दुबे’ बनकर न रह जाये!

प्रियंका गाँधी की इन घोषणाओं से एक सवाल यह भी उठता है कि उनकी पार्टी यह घोषणाएं पंजाब, उत्तराखंड, गोवा या मणिपुर जैसे अन्य चुनावी राज्यों में क्यों नहीं कर रही है? क्या वहाँ की महिलाओं, किसानों और गरीबों को इसकी जरूरत नहीं है? जरूरत तो है लेकिन वहाँ कांग्रेस चुनावी गुणा-गणित में है। इसलिए जुआ खेलने से परहेज कर रही है। उप्र में कांग्रेस की दुर्दशा जगजाहिर हैI इसीलिए जुआ खेला जा रहा हैI यह सवर्ण मतदाताओं को फुसलाकर भाजपा को कमजोर करने की सुचिंतित रणनीति भी हैI उल्लेखनीय है कि कांग्रेस के परंपरागत वोटबैंक रहे सवर्ण मतदाता 1989 में उसके क्रमिक अवसान के बाद भाजपा की ओर चले गये हैं। भाजपा के उभार में हिंदुत्ववादी राजनीति और सवर्ण जातियों के ध्रुवीकरण की निर्णायक भूमिका रही है।

उप्र के पिछले विधान-सभा चुनाव में समाजवादी पार्टी की बैसाखी के सहारे कांग्रेस 7 सीट और 5 फीसद मत प्राप्त कर सकी थीI इसबार समाजवादी पार्टी ने उसे झटक दिया हैI 2019 के लोकसभा चुनाव में सिर्फ सोनिया गाँधी चुनाव जीत सकी थींI तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी तक कांग्रेस परिवार की परम्परागत सीट से बड़े अंतर से चुनाव हार गए थेI इस तरह के निराशाजनक चुनाव परिणामों के बावजूद कांग्रेसियों द्वारा पिछले 4-5 साल में जमीनी स्तर पर संगठन खड़ा करने या फिर जनता के बीच जाने की जहमत नहीं उठाई गयीI पार्टी की इसी निष्क्रियता और किंकर्तव्यविमूढ़ता से त्रस्त होकर जितिन प्रसाद जैसे बड़े नेता कांग्रेस से किनारा करके सत्तारूढ़ भाजपा की नैया पर सवार हो गए हैंI कांग्रेस के निराशाजनक वातावरण के चलते कांग्रेस के अनेक छोटे-बड़े नेता अपने भविष्य की चिंता में अलग-अलग राजनीतिक दलों  की ओर खिसक रहे हैंI वे सब अपने राजनीतिक भविष्य के प्रति आशंकित हैंI आज उप्र में कांग्रेस की हालत यह है कि उसके पास न तो नेता है, न नीति है, न संगठन है, न ही कार्यकर्त्ता हैI लल्लू के नेतृत्व में कांग्रेस आज भाजपा, सपा, बसपा जैसी पार्टियों के बाद दूरस्थ चौथे स्थान पर हैI  राष्ट्रीय लोकदल,आम आदमी पार्टी, पीस पार्टी और ए आई एम आई एम जैसे छोटे दल आगामी चुनाव में उससे आगे निकलकर चौथे स्थान पर आने की फिराक में हैंI इस परिस्थिति में प्रियंका के पास ‘घोषणाबाजी’ के जुए के अलावा विकल्प ही क्या बचता है?

प्रियंका गाँधी वाड्रा द्वारा की जा रही इन घोषणाओं के वास्तविक मायने क्या हैं? दरअसल, किसी जमाने में दक्षिण भारत से शुरू हुई लोक-लुभावन घोषणाओं और मुफ्तखोरी की यह राजनीति आज दिल्ली तक पैर पसार चुकी हैI वोट के बदले फ्री साड़ी, टी.वी, फ्रिज और बिजली-पानी देने की रणनीति यदा-कदा और यत्र-तत्र सफल भी हुई हैI संभवतः प्रियंका की प्रेरणा भी यही हैI

प्रियंका ने महिलाओं को लुभाने के लिए उन्हें 40 फीसद पार्टी टिकिट देने का जो दाँव खेला है, उससे न तो महिलाओं का भला होने वाला है, न ही कांग्रेस पार्टी को कुछ लाभ मिलने वाला हैI कांग्रेस पार्टी के लिए चुनाव लड़ सकने वाली 161 महिला प्रत्याशियों का जुगाड़ करना टेढ़ी खीर साबित होने वाली हैI जो पार्टी ‘न तीन में है, न तेरह में है’, उसके टिकिट पर चुनाव लड़कर कोई महिला अपने राजनीतिक भविष्य को भला क्योंकर स्वाहा करेगी! यह घोषणा खाना-पूरी से अधिक कुछ नहीं हैI विडम्बनापूर्ण ही है कि जिस मंच से उन्होंने यह घोषणा की थी, उसपर मौजूद 15 लोगों में प्रियंका सहित कुल तीन ही महिलायें थींI अगर कांग्रेस पार्टी महिला सशक्तिकरण के प्रति वास्तव में गंभीर थी तो उसने यू पी ए सरकार के 10 साल के कार्यकाल में महिला आरक्षण विधेयक पास क्यों नहीं किया? या फिर सांगठनिक पदों की नियुक्तियों में महिलाओं की भागीदारी क्यों नहीं बढ़ायी? अगर ऐसा किया होता तो आज उन्हें 161 सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए दमखम वाली प्रत्याशियों का टोटा न पड़ता!

उत्तर प्रदेश मंडल और कमंडल की कोख से निकली जातिवादी और हिंदुत्ववादी आधारित राजनीति की प्रयोगशाला हैI 2014 और 2019 के  लोकसभा चुनावों और पिछले विधान-सभा चुनाव में जाति का जादू नहीं चलाI लोगों ने विकास और बदलाव के लिए मतदान कियाI यह देखना दिलचस्प होगा कि आगामी विधान-चुनाव में उप्र का मतदाता फिर से विकास और सुशासन के लिए मतदान करता है या फिर जातिवादी राजनीति की ओर वापसी करता हैI वर्तमान परिदृश्य में कांग्रेस के साथ न तो कोई जाति जुड़ती दिखती है और न ही उनके पास विकास एवं बदलाव का कोई विश्वसनीय मॉडल हैI प्रियंका को यह समझने की आवश्यकता है कि उप्र में कांग्रेस शून्य है और उसे किसी निर्णायक भूमिका में आने के लिए दूरगामी नीति और लम्बे संघर्ष की आवश्यकता हैI क्या प्रियंका के पास उतना धैर्य, समय और इच्छाशक्ति है? दो-चार महीने मीडिया और सोशल मीडिया में सक्रिय रहने मात्र से उप्र जैसे राजनीतिक रूप से जागरूक राज्य में चुनाव जीतने के मंसूबे ख्याली पुलाव पकाने से अधिक कुछ नहीं हैंI महज जबानी जमा खर्च से न तो जनता को लुभाया जा सकता है, न ही भरमाया जा सकता हैI प्रियंका इस बात से अनभिज्ञ नहीं हैं कि भाजपा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, सपा अखिलेश यादव और बसपा मायावती के नेतृत्व में चुनाव लड़ रही हैI यह जानते हुए भी वे अपने चुनाव लड़ने के सवाल पर कन्नी काट रही हैंI ऐसा इसलिए है क्योंकि वे स्वयं आगामी चुनाव में होने वाले कांग्रेस के हश्र से आशंकित हैंI नेतृत्वविहीन कांग्रेस भला क्या चुनाव लड़ेगी? इसलिए प्रियंका हारते हुए जुआरी की तरह ‘घोषणाबाजी’ का दाँव खेल रही हैंI 

चुनाव लड़ने-न लड़ने को लेकर प्रियंका का ‘दोचित्तापन’ उनके वादों और दावों को संदिग्ध बनाता हैI इससे उनकी चुनावी रणनीति कमजोर पड़ती हैI उन्हें जल्दी से जल्दी निर्णय लेकर या तो खुद के चुनाव  लड़ने की स्पष्ट घोषणा करनी चाहिए या फिर सपा-बसपा जैसी किसी पार्टी की पूँछ पकड़कर यह चुनावी वैतरणी पार करने का जतन करना चाहिएI प्रियंका के इस ‘दोचित्तेपन’ और सियासी जुए के चलते साख-संकट से जूझती कांग्रेस शून्य पर सिमट जाये तो अचरज नहीं होना चाहिएI 

दशकों पहले गांव से निकला था शहर

—विनय कुमार विनायक
दशकों पहले गांव से निकला था शहर
अपनी खिचड़ी आप पकाने के लिए
अपना एक आशियाना बनाने के लिए!

पर अबतक कोई अपना बन न सका
अब भी हूं अनजानापन को साथ लिए
आत्ममुग्ध होकर जिए खुद के लिए!

एक शहर से कटकर दूसरा महानगर
आता-जाता रहा हूं स्थानांतरित होकर
पद प्रतिष्ठा की चाहत में छूटा घर!

क्वार्टर से दफ्तर, दफ्तर से क्वार्टर
आने-जाने में बीती उम्र साठ से ऊपर
अब सेवा निवृत्त होकर घर के बाहर!

बाट निहारता हूं, ताकता हूं,इधर-उधर
पड़ोसी को, पर कोई आता नहीं नजर
मनमाफिक अपना मित्र-कुटुम्ब रहबर!

मुद्दत के बाद से आने लगी है यादें
पीछे छूटे गांव, पीपल की छांव बराबर
मां की ममता पिता का दुलार मित्र यार!

बड़े छोटे भाई बहन का प्यार व मनुहार
सुबह गोहाल से बथान जाती हुई गौएं
शाम हाट से लौटते पिता मिठाई लेकर!

याद आती है बेशुमार दादी के सिर पर
सफेद हो चुके चूल जिसे चुनने के बहाने
मैं बच जाता था स्कूल जाने से अक्सर!

अब तो सिर्फ यादें ही बची रह गई है
शायद ही लौट के आऊंगा गांव का घर
जहां आज भी मां पिता स्मृतिशेष हैं!

बचपन के कुछ दोस्त अब भी शेष हैं
और शेष है वह स्कूल जहां से पढ़कर
मैं बना था एक अदद सरकारी नौकर!

पुश्तैनी खेती किसानी से बचने के लिए
जीवन के कुछ नवीन छंद रचने के लिए

भारत को दबने की जरुरत नहीं

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इस बार ग्लासगो में होनेवाले जलवायु-परिवर्तन सम्मेलन शायद क्योतो और पेरिस सम्मेलनों से ज्यादा सार्थक होगा। उन सम्मेलनों में उन राष्ट्रों ने सबसे ज्यादा डींगें हांकी थीं, जो दुनिया में सबसे ज्यादा गर्मी और प्रदूषण फैलाते हैं। उन्होंने न तो अपना प्रदूषण दूर करने में कोई मिसाल स्थापित की और न ही उन्होंने विकासमान राष्ट्रों के लिए अपनी जेबें ढीली कीं ताकि वे गर्मी और प्रदूषित गैस और जल से मुक्ति पा सकें। संपन्न राष्ट्रों ने विकासमान राष्ट्रों को हर साल 100 बिलियन डाॅलर देने के लिए कहा था ताकि वे अपनी बिजली, कल-कारखानों और वाहन आदि से निकलनेवाली गर्मी और प्रदूषित गैस को घटा सकें। वे सौर-ऊर्जा, बेटरी और वायु-वेग का इस्तेमाल कर सकें ताकि वातावरण गर्म और प्रदूषित होने से बच सकें। लेकिन डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिका ने तो पेरिस समझौते का ही बहिष्कार कर दिया। ये सब संपन्न देश चाहते थे कि अगले तीस साल में जलवायु प्रदूषण याने कार्बन-डाइआक्साड की मात्रा घटे और सारे विश्व का उष्मीकरण ज्यादा से ज्यादा 2 डिग्री सेल्सियस तक हो जाए। इस विश्व-तापमान को 1.5 डिग्री तक घटाने का लक्ष्य रखा गया। अमेरिका और यूरोपीय देश, जो सबसे ज्यादा गर्मी फैलाते हैं, उनका दावा है कि वे 2050 तक अपने तापमान को शून्य तक ले जाएंगे। वे ऐसा कर सकें तो यह बहुत अच्छा होगा। वे यह कर भी सकते हैं, क्योंकि उनके पास वैसी तकनीक है, साधन हैं, पैसे हैं लेकिन यही काम वे इस अवधि में वैश्विक स्तर पर हुआ देखना चाहते हैं तो उन्हें कई वर्षों तक 100 बिलियन नहीं, 500 बिलियन डाॅलर हर साल विकासमान राष्ट्रों पर खर्च करने पड़ेंगे। ये राष्ट्र अफगानिस्तान जैसे मामलों में बिलियनों नहीं, ट्रिलियनों डाॅलर नाली में बहा सकते हैं लेकिन विकासमान राष्ट्रों की मदद में उदारता दिखाने को तैयार नहीं हैं। क्या वे नहीं जानते कि सारी दुनिया में तापमान-वृद्धि का दोष उन्हीं के माथे है? पिछले दो-ढाई सौ साल में एशिया, अफ्रीका और लातीनी अमेरिका का खून चूस-चूसकर उन्होंने जो अपना अंधाधुंध औद्योगीकरण किया और उपभोक्तावाद की ज्वाला भड़काई, उसने ही विश्व-तापमान उचकाया और उसी की नकल दुनिया के सारे देश कर रहे हैं। लगभग 50-55 साल पहले जब मैं पहली बार अमेरिका और यूरोप में रहा तो मैं वहां यह देखकर दंग रह जाता था कि लोग किस लापरवाही से बिजली, पेट्रोल और एयरकंडीशनिंग का दुरुपयोग करते हैं। अब इस मामले में चीन इन देशों को मात दे रहा है लेकिन भारत में प्रति व्यक्ति ऊर्जा का उपयोग सारी दुनिया के कुल औसत से सिर्फ एक-तिहाई है। भारत यदि कोयला और पेट्रोल आधारित अपनी ऊर्जा पर उतना ही नियंत्रण कर ले, जितना विकसित राष्ट्र दावा कर रहे हैं तो उसकी औद्योगिक उन्नति ठप्प हो सकती है, कल-कारखाने बंद हो सकते हैं और लोगों का जीवन दूभर हो सकता है। इसीलिए भारत को इस मामले में बड़ा व्यावहारिक होना है। किसी के दबाव में नहीं आना है और यदि संपन्न राष्ट्र दबाव डालें तो उनसे ऊर्जा के वैकल्पिक स्त्रोतों को विकसित करने के लिए अरबों डाॅलरों का हर्जाना मांगना चाहिए। भारत ने पिछले 10-12 वर्षों में जलवायु परिवर्तन के लिए जितने लक्ष्य घोषित किए थे, उन्हें उसने प्राप्त करके दिखाया है।

वेब सीरीज से सनातन हिन्‍दू व्‍यवस्‍था ”आश्रम” पर प्रहार

डॉ. मयंक चतुर्वेदी

हिन्‍दू सनातन धर्म में ”आश्रम” वह अरण्‍य संस्‍कृति से उपजी व्‍यवस्‍था है, जिसमें भारत की अति प्राचीन संस्‍कृति के बीज बोए गए और जहां से वेद, उपनिषद, पुराण, निरुक्‍त, छंद, व्‍याकरण, तत्‍व, ज्ञान और मूल मीमींसा, ज्‍योतिष, प्राचीन विज्ञान धाराओं से लेकर अधिकांश अब तक के हुए अविष्‍कार, सनातन धर्म के वैश्‍विक शांति सूत्रों की खोज और उनकी स्‍थापना की गई है।  किंतु दुर्भाग्‍य है कि इस प्राचीनतन और अधुनातन संस्‍कृति पर हर तरफ से योजनाबद्ध घात-प्रतिघात जारी हैं।

आधुनिक दौर के इस समय में जहां बहुत कुछ बदला है वहीं, यदि कुछ नहीं बदला तो वह सनातन हिन्‍दू संस्‍कृति पर नए-नए प्रहार किस तरह से किए जा सकते हैं, उसकी योजना एवं षड्यंत्र । आज संचार के शस्‍त्र प्रभावी हैं,  इसके प्रयोग से कैसे हिन्‍दू सनातन संस्‍कृति को माननेवालों के मन में उनकी सांस्‍कृतिक पुरासंपदा और सिद्धान्‍तों के प्रति विष भरा जा सकता है इस दिशा में किए जा रहे प्रयास हर तरफ दिखाई दे रहे हैं।

कल्‍पना कीजिए, जब आप किसी घर के बारे में सोचते हैं तो सबसे पहले उसमें रहनेवाले परिवार का सजीव दृष्‍य मन में उपजता है, छोटे-छोटे बच्‍चे, माता-पिता, दादा-दादी, बुआ, चाची, भाई-बहन, ताऊ, आंगन, पूजा स्‍थल इत्‍यादि एकदम छाया रूप में हमारे सामने जैसे साक्षात प्रकट हो जाते हैं । वस्‍तुत: इसी तरह मंदिर के विचार से स्‍वभाविक है उस मंदिर के देवता, आरती, गीत और पुजारी के साथ तमाम मंदिर से जुड़ी अच्‍छी बातें विचारों में आती हैं। ऐसे ही सनातन काल से चली आ रही ‘आश्रम’ व्‍यवस्‍था है, जिसके विचार मात्र से ही विद्यार्थी, संत, मुनी, महात्‍मा, सत्‍संग, पूजा, जप, नियम, आसन का ध्‍यान सहज रूप से आता है। लेकिन जब इस ”आश्रम व्‍यवस्‍था” को दृष्‍यों के माध्‍यम से मनोरंजन की आड़ में खण्‍डित करने का प्रयास किया जाए तो निश्‍चित ही हिन्‍दू समाज को उसका प्रतिकार बड़े स्‍तर पर करना चाहिए।

आश्रम भारतीय सनातन समाजिक व्‍यवस्‍था की वह कड़ी है, जिसके अनुपालन से मनुष्‍य जन्‍म से आरंभ हुए कर्मों को मृत्‍यु पर्यन्‍त किए जाने के पश्‍चात अंत में मोक्ष को प्राप्‍त करता है। आश्रम शब्द संस्‍कृ‍त की श्रम धातु से निकला है जिसका अर्थ होता है प्रयत्न या परिश्रम। अमरकोश में ‘आश्रम’ शब्द की व्याख्या इस प्रकार से दी गई, आश्राम्यन्त्यत्र। अनेन वा। श्रमु तपसि। घां। यद्वा आ समंताछ्रमोऽत्र। स्वधर्मसाधनक्लेशात्‌।

अर्थात्‌ आश्रम जीवन की वह स्थिति है, जिसमें कर्तव्यपालन के लिए पूर्ण परिश्रम किया जाए। आश्रम का अर्थ ‘अवस्थाविशेष’,  ‘विश्राम का स्थान’, ‘ऋषिमुनियों के रहने का पवित्र स्थान’ इस अर्थ में लिया गया है। इस प्रकार ‘आश्रम’ मनुष्य जीवन यात्रा का वह पड़ाव या विश्राम स्थल है, जहाँ मनुष्य धर्मानुसार एक सामाजिक दायित्व (आश्रम) को पूर्ण कर अगले आश्रम की तैयारी करता है और धीरे-धीरे अपने जीवन के अन्तिम लक्ष्य मोक्ष की ओर बढ़ता है। इसीलिए महाभारत के शान्तिपर्व में लिखा गया कि ‘आश्रम’ ब्रह्मलोक तक पहुचनें के मार्ग की चार सीढि़यां हैं।

संपूर्ण जीवन के यह चार आश्रम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यास हैं । वैदिक व्यवस्था इन चार आश्रमों के लिए मनुष्य की आयु 100 वर्ष निर्धारित करती है । जिसमें कि प्रत्येक आश्रम की अवधि 25 वर्ष है। ऋषियों ने मनुष्य जीवन के प्रथम 25 वर्ष ब्रह्मचर्य, द्वितीय 25 वर्ष की आयु अर्थात् 50 वर्ष तक गृहस्थ, तीसरे 25 वर्ष वानप्रस्थ तथा अन्तिम 25 वर्ष सन्यास आश्रम में जीवन जीने के लिए कहा है । संपूर्ण आश्रमधर्म की प्रतिष्ठा और उनके क्रम की अनिवार्यता सनातन धर्म में किस तरह से स्‍व संचालित थी, वह मनु के इस सिद्धांत ‘आश्रमात्‌ आश्रमं गच्छेत्‌’ अर्थात्‌ एक आश्रम से दूसरे आश्रम में जाना चाहिए के दिए गए निर्देश से भी दिखाई देता है।

छांदोग्य उपनिषद् में गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा ब्रह्मचर्य तीन आश्रमों का उल्लेख हुआ है। आपस्तंब धर्मसूत्र के अनुसार गृहस्‍थ, आचार्यकुल यानी ब्रह्मचर्य, मौन और वानप्रस्थ चार आश्रम थे। गौतम धर्मसूत्र  में ब्रह्मचारी, गृहस्थ, भिक्षु और वैराग्‍य चार आश्रम बतलाए गए । वसिष्ठ धर्मसूत्र के अनुसार गृहस्थ, ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ तथा परिव्राजक ये चार आश्रम हैं, तैत्तरीय संहिता, शतपथ ब्राह्मण, एत्तरेय ब्राह्मण, इत्‍यादि अनेक ग्रंथों में आश्रम व्यवस्था के बारे में विस्‍तार से दिया गया है।

इन सभी शास्त्रों में ‘आश्रम’ के संबंध में कई दृष्टिकोण हैं जिनको तीन वर्गों में विभक्त किया गया है। समुच्चय, विकल्प और बाध। समुच्चय का अर्थ है सभी आश्रमों का समुचित समाहार, अर्थात्‌ चारों आश्रमों का क्रमश: और समुचित पालन होना चाहिए। इसके अनुसार गृहस्थाश्रम में अर्थ और काम संबंधी नियमों का पालन उतना ही आवश्यक है जितना ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ एवं संन्यास में धर्म और मोक्ष संबंधी धर्मों का पालन। दूसरे सिद्धांत विकल्प का अर्थ यह है कि ब्रह्मचर्य आश्रम के पश्चात्‌ व्यक्ति को यह विकल्प चुनने की स्वतंत्रता है कि वह गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करे अथवा सीधे संन्यास ग्रहण करे।

इसमें तीसरा वर्ग बाध, उन व्यक्तियों के लिए है जो अपने पूर्वसंस्कारों के कारण सांसारिक कर्मों में आजीवन आसक्त रहते हैं और जिनमें विवेक और वैराग्य का यथा समय उदय नहीं होता। इस आधार पर कह सकते हैं कि सनातन हिन्‍दू व्‍यवस्‍था में सभी की दृष्टि का बराबर से सम्‍मान था। वस्‍तुत:  भारतीय मनीषियों ने मानव जीवन को केवल प्रवाह न मानकर उसको सोद्देश्य माना और उसका ध्येय तथा गंतव्य मोक्ष प्राप्‍ति को निश्चित किया । इसीलिए ही दुनिया के प्राय: सभी विद्वानों को यह स्‍वीकारना पड़ा है कि हिन्‍दू सनातन संस्‍कृति के चार पुरुषार्थ-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष और चार आश्रम ब्रह्मचर्य, गृहस्‍थ, वानप्रस्‍थ और सन्‍यास इसकी सर्वश्रेष्‍ठ सामाजिक रचना व्‍यवस्‍था है।

इस विषय पर डॉयसन (एनसाइक्लोपीडिया ऑफ रेलिजन ऐंड एथिक्स) को भी कहना पड़ा कि मनु तथा अन्य धर्मशास्त्रों में प्रतिपादित आश्रम की प्रस्थापना से व्यवहार का कितना मेल था, यह कहना कठिन है,  किंतु यह स्वीकार करने में हम स्वतंत्र हैं कि हमारे विचार में संसार के मानव इतिहास में अन्यत्र कोई ऐसा (तत्व या संस्था) नहीं है जो इस सिद्धांत की गरिमा की तुलना कर सके।

अब ब‍ताइए यदि कोई इस श्रेष्‍ठ व्‍यवस्‍था को ही ध्‍वस्‍थ करने का कुचक्र रचे, तब क्‍या उसे नहीं समझाना चाहिए? पिछले अनकों वर्षों से भारत में यही तो हो रहा है। जो इस मत के नहीं या जिन्‍हें इसकी समझ नहीं, वे  लगातार प्रचार-मनोरंजन एवं अन्‍य माध्‍यमों का उपयोग कर इस व्‍यवस्‍था पर प्रहार कर रहे हैं। जिसमें कि आश्‍चर्य यह है कि यह सब उस देश में हो रहा है, जहां सबसे अधिक ‘आश्रम’ व्‍यवस्‍था को माननेवाली हिन्‍दू जनसंख्‍या रहती है और उन्‍होंने अपने देश के लिए जो संविधान स्‍वीकार्य किया है वह भी इसकी इजाजत नहीं देता कि आप किसी के धर्म, उसके प्रतीक, आदर्श एवं सिद्धांतों का मखौल उड़ाओ। लेकिन यह क्‍या? कुछ लोग अपने फायदे के लिए किसी भी सीमा तक जा सकते हैं, जैसे इन दिनों  फ़िल्म निर्देशक प्रकाश झा गए हुए हैं।

वस्‍तुत: उनके द्वारा निर्देशित ”वेब सीरीज आश्रम” इसी प्रकार के कंटेंट से भरी हुई है, जिसे आज कोई भी जागृत सनातनी स्‍वीकार्य नहीं करेगा । वे पूर्व में इस नाम से सिरीज एक और दो रिलीज करने के बाद आश्रम सीजन-3 को रिलीज करने जा रहे हैं। इस सीरीज में बॉबी देओल काशीपुर वाले बाबा निराला की भूमिका में हैं और जो यह बता रहे हैं कि कैसे धर्म ”आश्रम” की आड़ में बाबा ने अपनी काली दुनिया का विस्तार किया है। संपूर्ण सिरीज में वह सब दिखाने का प्रयास हुआ है, जिसका कि हिन्‍दू सनातन व्‍यवस्‍था आश्रम से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। बल्‍कि इन सभी स्‍व कमियों से मुक्‍त होने के लिए ही लोग सदियों से ”आश्रम” की शरण लेते आए हैं।

साधु-संतों की कड़ी प्रतिक्रिया भी इस वेब सिरीज को लेकर अब सामने आ चुकी है। इसमें भोपाल गुफा मंदिर के महंत रामप्रवेश दास महाराज की बातों के दर्द को आज सभी महसूस करें, इसकी आवश्‍यकता अधिक है। वह कह रहे हैं कि सीरीज बनाने वाले कोई धर्मात्मा नहीं है। आश्रम हिंदू संस्कृति में एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं, जहां सनातन धर्म और संस्कृति की शिक्षा दी जाती है। संत समाज लोकहित के लिए पूर्जा-अर्चना और आराधना करते हैं। आश्रमों में संत का जीवन हमेशा विश्व कल्याण के लिए होता है। प्रकाश झा द्वारा निर्मित वेब सीरीज ‘आश्रम-3’ में सनातन धर्म के विरूद्ध दृश्यों को शामिल किया जा रहा है। इस सीरीज में आश्रम के महत्व को गलत ढंग से दिखाने की कोशिशें की गई हैं। जबकि आश्रम क्या है और उसका क्या महत्व है। यह दुनिया जानती है।

यहां बाबाजी कह तो सच रहे हैं। यह सच है कि कुछ दशक पूर्व से यह देखा जा रहा है कि यहां के तथाकथित बालीवुड के लोग भारतीय परंपराओं, सनातन संस्कृति पर कुठाराघात करने की दृष्टि से फिल्मों में गलत तरीके से साधु-संतों और आश्रमों का बिगड़ा स्वरूप दिखा रहे हैं। ये दूसरे धर्मों को लेकर कुछ नहीं दिखाते, क्योंकि उनसे ऐसे लोगों को मृत्‍यु होने तक का भय होता है। वस्‍तुत: इस संदर्भ में सरकार तय करें कि इस तरह की फिल्में और वेब सीरीज भविष्य में ना बन सकें।  आश्रम वेब सीरीज सनातन धर्म और संस्‍कृति को बदनाम करने का षड्यंत्र तो नजर आ ही रही है, साथ ही यह संविधान के अनुच्छेद 25-28 का हनन भी है । जिसे केंद्र के साथ सभी राज्‍य सरकारों को गंभीरता से लेना चाहिए ।

भारत-मोदी को एक समझने की गलती न करें विपक्ष

  संजय सक्सेना
     कांग्रेस के एक नेता हुआ करते थे देवकांत बरूआ।बरूआ कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे थे। बरूआ की पहचान कांग्रेस के दिग्गज नेता सहित पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा के वफादारों में भी होती थी।बरूआ ने ही आपातकाल के दौरान 1975 में नारा दिया था,‘इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा’।यह नारा उस वक्त इंदिरा गांधी की ताकत को दिखाता था। एक समय इंदिरा को ‘कामराज की कठपुतली’ और ‘गूंगी गुड़िया’ कहा जाता था। लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद दुनिया ने उनका एक अलग रूप देखा। बैंकों का राष्ट्रीयकरण, पूर्व रजवाड़ों के प्रिवीपर्स समाप्त करना, 1971 का भारत-पाक युद्ध और 1974 का पहला परमाणु परीक्षण… इन फैसलों से इंदिरा ने अपनी ताकत दिखाई। हालांकि 1975 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उनके निर्वाचन को रद्द कर दिया। इसकेे बाद इंदिरा ने आपातकाल लागू कर दिया। इसी समय आया था ‘इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा’ का नारा।हालांकि,इसके ठीक बाद 1977 में हुए चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह हार गई थी। यहां तक की प्रधानमंत्री रहते इंदिरा गांधी तक को हार का सामना करना पड़ा था। देश में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी थी। कांग्रेस ने 1977 की हार के लिए मंथन किया तो इसके कारणों में आपातकाल के साथ ही विमर्श में यह बात भी निकल कर आई कि ‘इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा’ के नारे का वोटरों के बीच काफी गलत प्रभाव पड़ा था और एक बड़ा वर्ग इससे बेहद नाराज भी था। इसी लिए इस नारे ने भी कांग्रेस की हार में प्रमुख भूमिका निभाई थी।कांग्रेस पर हमला करने के लिए विपक्ष आज भी इस नारे को उसक(कांग्रेस)े खिलाफ जुमले की तरह इस्तेमाल करता है।
   यह सिक्के का एक पहलू है,सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि कांग्रेस नेता ने 1975 में जो नारा(इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा’) इंदिरा गांधी के पक्ष में लगाया था ,उसी नारे को अब 2021 में कांग्रेसी प्रधानमंत्री मोदी पर ‘फिट’ करने की कोशिश में लगी हैं। कांग्रेसी ऐसा माहौल बना रहे हैं जैसे ‘मोदी ही भारत हैं,भारत ही मोदी हैं।’कांग्रेसियों द्वारा कई बार ऐसा माहौल बनाया जा चुका है,जहां मोदी से लड़ते-लड़ते कांग्रेसी भारत के विरोध पर उतर आते हैं।पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक के समय, कश्मीर से धारा 370 हटाये जाने के मौके पर,नागरिक सुरक्षा काननू(सीएए), चीन से विवाद के वक्त, नये कृषि कानून के विरोध के नाम पर या फिर टी-20 वर्ल्ड कप में पाकिस्तान के हाथों भारत को मिली शिकस्त के समय कांग्रेसी जैसा प्रलाप कर रहें हैं,उससे तो यही लगता है कि मोदी राज में भारत की अंतरराष्ट्रीय पटल पर जब कभी किरकिरी होती है तो कांग्रेसियों को मानों ‘जश्न’ मनाने का मौका मिल जाता है। इसी लिए कांग्रेसी और गांधी परिवार के लोग सर्जिकल स्ट्राइक का सबूत मांगते हैं। कश्मीर से अस्थायी रूप से जारी धारा-370 हटाये जाने के मोदी सरकार के साहसिक फैसले के खिलाफ ‘मातम’ मनाते हैं। हाल यह है कि किक्रेट के मैदान में भारतीय क्रिकेट टीम को पाकिस्तान के हाथों शिकस्त मिलती है तो कांग्रेसी नेता सोशल मीडिया पर चटकारे लेते हैं। पाकिस्तान से भारतीय किक्रेट टीम को मिली हार के बाद कांग्रेस की नेशनल मीडिया कोऑर्डिनेटर राधिका खेड़ा ने अपने ट्वीट में लिखा, ‘क्यों भक्तो, आ गया स्वाद? करवा ली बेइज्जती???’ बता दें कि सोशल मीडिया पर मोदी समर्थकों के लिए इस टर्म का इस्तेमाल किया जाता है. लिहाजा, कांग्रेस लीडर ने एक तरह से टीम इंडिया की हार को मोदी से जोड़ने का प्रयास किया. हालांकि, ये बात अलग है कि ये ‘प्रयास’ उन्हें बहुत भारी पड़ा है। वैसे यह भूलना नहीं चाहिए कि जिस ट्वीट को लेकर राधिका खेड़ा ट्रोल हो रही हैं,उस तरह के ट्वीट के ‘जनक’ गांधी परिवार और खासकर राहुल गांधी ही हैं,जिनसे प्रेरणा लेकर ही उनकी पार्टी के अन्य नेता भारत को मोदी समझने की भूल करते जा रहे हैं।  
      यह सिलसिला 2014 से मोदी के पीएम बनने से शुरू हुआ था जो आज तक जारी है और 2024 के लोकसभा चुनाव तक जारी ही रहेगा, इसको लेकर किसी में कोई संदेह नहीं है।क्योंकि मोदी विरोधी विमर्श खड़ा करने वालों की आतुरता लगातार बढ़ती जा रही है। यह लोग मोदी फोबिया के चलते देशहित में भी कुछ सुनने को ही तैयार नहीं हैं।गांधी परिवार को लगता है कि मोदी की इमेज को खंडित करके वह कांग्रेस के सुनहरे दिन वापस ला सकते हैं,लेकिन यह फिलहाल तो सपने जैसा ही लग रहा है। चुनावी रण्नीतिकार प्रशांत किशोर(पीके)ने इसको लेकर सटीक भविष्यवाणी की है।प्रशांत का कहना है कि भाजपा आने वाले कई दशकों तक भारतीय राजनीति में ताकतवर बनी रहेगी।वहीं राहुल के संबंध में प्रशांत का कहना था कि वह(राहुल गांधी) पीएम मोदी को सत्ता से हटाने के भ्रम में न रहें,जबकि राहुल गांधी कहते रहते हैं कि मोदी की सत्ता खत्म होना समय की बात है।
     भारतीय राजनीति का स्तर इतना गिर गया है कि माओवादियों के खिलाफ कार्रवाई करना अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला बताया जाता है। एक तरफ कहा जाता है कि आतंकियों का कोई धर्म नहीं होता है तो दूसरी ओर आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई होती है तो इसे सांप्रदायिकता से जोड़ दिया जाता है।वहीं जब कोई हिन्दू देशद्रोह के मामले में पकड़ा जाता है तो उसकी जाति बताई जाती है। इसी तरह से अपराध के किसी मामले में आरोपित यदि मुसलमान होता है, तो उसे साजिश के तहत फंसाये जाने की बात होने लगती है।उसे कोर्ट में ट्रायल से पहले ही बेगुनाह साबित कर दिया जाता है। आरोपित कोई हिंदू है तो उसे अदालत के फैसले से पहले ही अपराधी घोषित कर दिया जाता है।सबसे खास बात यह है कि मोदी के नाम पर भारत की छवि को चोट पहुंचाने की साजिश में नेता ही नहीं कई गणमान्य हस्तियां भी बढ़-चढ़कर लाबिंग करती हैं। इसी लिए कोई कहता है कि भारत अब रहने लायक नहीं रहा तो किसी को हिन्दुस्तान में डर लगता है।कोई व्यक्ति या कानून अच्छा है या बुरा, यह इस आधार पर तय होता है कि उसके तहत कार्रवाई किस पर हो रही है? सुशांत राजपूत के मामले में यह नहीं कहा गया कि एनडीपीएस एक्ट में खराबी है। जब एक पिता शाहरूख खान अपनेे बेटे के बारे में टीवी इंटरव्यू में कहता है कि वह चाहता है कि बेटा बड़ा होकर नशे का अनुभव ले, तो नतीजा तो यही होना था।बात यहीं तक सीमित नहीं है जब अपने स्टारडम को भुनाते हुए जब शाहरूख खान खतरनाक और जानलेवा पान मसाले का विज्ञापन करते हुए लोगों को इसे खाने के लिए  प्रोत्साहित करते हैं तो फिर बेटे पर इसका प्रभाव कैसे नहीं पड़ता होगा।इसी के चलते वह चार कदम आगे निकल गया। यहां एक और दिलचस्प बात का जिक्र करना जरूर है। आर्यन खान को बचाने में वरिष्ठ अधिक्ता मुकुल रोहतगी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिसे कल तक भाजपा का एजेंट बताया जाता था।आर्यन खान की जमानत के लिए सुनवाई के समय जिस तरह से रोहतगी ने दलीले दी यानी शब्दों के बाण चलाए उससे शाहरूख के चाहने वाले लहालोट हुए जा रहे थे,आर्यन को जमानत मिलने से मुकेश रोहतगी के ‘माथे’ पर लगा साम्प्रदायिक का दाग भी धुल गया।
   हालात यह है कि  देश की सर्वाेच्च अदालतों तक को कुछ खास केसों में फैसला लेने में काफी कुछ सोचना पड़ता है। इसी के चलते कभी वह सीएए का विरोध करने वालों के खिलाफ कोई आदेश नहीं पारित कर पाती है तो कभी किसान आंदोलन को लेकर मूकदर्शक बनी रहती है। अब न्यायपालिका को निशाने पर लेने में किसी को गुरेज नहीं होता है। हाल है कि कोर्ट के दरवाजे भले ही आम हिन्दुस्तानी के लिए रात में नहीं खुले,लेकिन यदि आतंकियों/अपराधियों को सजा से बचाने की कोशिश करने वालों के लिए आधी रात को कोर्ट बैठने से इंकार कर देती है तो मोदी विरोधी लोगों की नजरों में उसकी(कोर्ट की) प्रतिष्ठा गिर जाती है।न्यायपालिका के फैसले इस वर्ग को तभी स्वीकार होते हैं, जब वह इनके मन मुताबिक हो। मन मुताबिक की परिभाषा बहुत सरल है। वह केन्द्र की मोदी सरकार, प्रदेश की भाजपा सरकारों और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खिलाफ होना चाहिए। चुनाव आयोग भाजपा के खिलाफ हो तो निष्पक्ष है। जनादेश भाजपा के खिलाफ है तो जनतंत्र को मजबूत करता है और पक्ष में हो तो जनतंत्र ही खतरे में है। व्यक्ति और संस्था छोड़िए, इस पूर्वाग्रह से मशीन भी नहीं बची है। इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन से भाजपा विरोधी वोट निकलें तो ठीक, अन्यथा मोदी सरकार ने उसे हैक करवाया। तर्क एक ही है कि भाजपा कैसे जीत सकती है? 

आतंक के खिलाफ दुनिया को संगठित होना होगा

-ललित गर्ग-

अफगानिस्तान को आतंकवाद के लिये इस्तेमाल किये जाने की घटनाओं को लेकर भारत और अमेरिका का चिन्तित होना स्वाभाविक है। हकीकत यह है कि अफगानिस्तान लंबे समय से आतंकी संगठनों एवं आतंकवादी गतिविधियों का बड़ा केंद्र बना हुआ है, जो समूची दुनिया के लिये एक गंभीर खतरा है। अब अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता में आने के बाद यह खतरा और बढ़ गया। यह खतरा सिर्फ भारत और अमेरिका के लिए नहीं, पूरी दुनिया के लिए चिंता की बात है। भारत के लिये यह अधिक चिन्ताजनक इसलिये है कि पाकिस्तान इसका इस्तेमाल कश्मीर में आतंकवाद को उग्र करने में करेंगा। इसलिए दुनिया की बड़ी शक्तियों को मिल कर इससे निपटने की जरूरत है। आतंकवाद के खतरे को लेकर भारत और अमेरिका के बीच दो दिन की रणनीतिक स्तर की वार्ता में इस बात पर सहमति बनी कि आतंकी गतिविधियों पर लगाम के लिए अफगानिस्तान पर लगातार दबाव बनाया जाना बड़ी आवश्यकता है।
अफगानिस्तान में आतंक का नंगा नाच होने लगा है, हो रहा है। वहां अराजकता एवं बर्बरता की कालिमा छा गयी है, अब वहां मजहब के चश्मे से विभिन्न देशों के साथ अपने संबंध तय करने की कोशिशें होने लगी है, महिलायें-बच्चे तालिबानी क्रूरता के शिकार हो रहे हैं, इन विडम्बनापूर्ण स्थितियों के आभास मात्र से  भारतीय ही नहीं, दुनिया के अन्य देशों के लोग भी चिन्तित हैं। भारत की चिन्ता इसलिये बड़ी है कि अफगानिस्तान की जमीन का उपयोग अब कश्मीर को अशांत एवं आतंकित करने में होगा। भारत को अधिक सावधान एव सतर्क होने की जरूरत है। आतंकवाद के खतरे की संभावनाओं को देखते हुए भारत ने अफगानिस्तान पर दबाव बढ़ा दिया है। भारत ने अफगानिस्तान से साफ कहा है कि उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि वह अपनी जमीन का इस्तेमाल आतंकवाद के लिए न होने दे। साथ ही, अलकायदा, लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकी संगठनों के खिलाफ कार्रवाई भी करे। दरअसल, आतंकवाद को लेकर भारत की चिंता बेवजह नहीं हैं। भारत ने लंबे समय से आतंकवाद के खतरे को झेला है एवं कश्मीर की मनोरम वादियां सहित भारत के भीतरी हिस्सों ने तीन दशक से भी ज्यादा समय तक सीमा पार आतंकवाद झेला है।
मानवता की रक्षा एवं आतंकवाद मुक्त अफगानिस्तान की संरचना की कोशिश होनी चाहिए। यह इसलिये अपेक्षित है कि अफगानी युवाओं को बंदूकों के सहारे ही जिंदगी न काटनी पडे़। महिलाओं की तौहीन एवं अस्मत न लुटी जाये। अफगानिस्तान दुनिया में नफरत और हिंसा बढ़ाने की वजह न बने। कुल मिलाकर, मानवीयता, उदारता और समझ की खिड़की खुली रहनी चाहिए, ताकि इंसानियत शर्मसार न हो, इसके लिये समूची दुनिया को व्यापक प्रयत्न करने होंगे। इसके साथ अफगानिस्तान की ऐसी शक्तियां जो आतंकवाद के खिलाफ है, उनको भी सक्रिय होना होगा। क्योंकि उनकी जमीन को कलंकित एवं शर्मसार करने का षडयंत्र हो रहा है। अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता में आने के बाद से ही यह आशंका बढ़ती जा रही है कि यह मुल्क अब आतंकियों का गढ़ बन जाएगा। ये आशंकाएं बेबुनियाद नहीं हैं। तालिबान का उदय एक मजहबी संगठन के तौर पर हुआ था, लेकिन इसकी बुनियाद तो आतंकी संगठनों पर ही टिकी है। अमेरिका तो तालिबान को आतंकी संगठन कहता भी है। दो दशक पहले भी जब अफगानिस्तान में तालिबान का राज कायम हुआ था, तो इसके पीछे अलकायदा की ताकत थी। तालिबान भारत-विरोधी है, पाकिस्तान अपने मनसूंबों को पूरा करने के लिये तालिबान की इस विरोधी मानसिकता का उपयोग करते हुए अफगानिस्तान की भूमि से भारत पर निशाने साधेगा। तालिबान ने विगत दशकों में एकाधिक आतंकी हमले सीधे भारतीय दूतावास पर किए हैं। कंधार विमान अपहरण के समय तालिबान की भूमिका भारत देख चुका है। इन स्थितियों को देखते हुए आतंकवाद को पनपने की आशंकाएं बेबुनियाद नहीं है। बड़ा प्रश्न है कि क्या दुनिया के आतंकवादियों को अफगानिस्तान में सुरक्षित ठिकाना मिल जाएगा? क्या ये पैसे लेकर सभ्य देशों को परेशान करने और निशाना बनाने का ही काम करेंगे? जो देश प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से तालिबान की पीठ पीछे खड़े हैं, उनकी भी मानवीय जिम्मेदारी बनती है कि वे दुनिया को अशांति, हिंसा, साम्प्रदायिक कट्टरता एवं आतंकवाद की ओर अग्रसर करने वाली इस कालिमा को धोये।
इस बार आतंकवाद के अधिक उग्र एवं घातक होने आशंका इसलिये भी है कि तालिबान लड़ाकों के साथ अलकायदा, जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-तैयबा जैसे कई आतंकी संगठन हैं। पाकिस्तान ने तालिबान की जड़ें जमाने के लिए कितने आतंकी तैयार किए और अफगानिस्तान भेजे, यह जगजाहिर है। सभी जानते हैं कि पाकिस्तान अब भी पूरी तरह से तालिबान के साथ खड़ा है, सहयोग कर रहा है। बल्कि अफगानिस्तान की वर्तमान सरकार एक तरह से पाकिस्तान की ही सरकार है। हैरत की बात यह कि जिस हक्कानी नेटवर्क ने मुखिया सिराजुद्दीन हक्कानी को अमेरिका ने बड़ा इनामी आतंकी घोषित कर रखा है, वही अफगानिस्तान का गृहमंत्री है। ऐसे में यह उम्मीद कैसे की जाए की जाए कि तालिबान अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल आतंकी गतिविधियों के लिए नहीं होने देगा?
अफगान में हिंसा, आतंक, स्वार्थ, साम्प्रदायिकता, व्यभिचार, शोषण और क्रूरता आदि के दंश मानवता को मूर्च्छित कर रहे हैं एवं आतंकवाद की जमीन को उर्वरा बना रहे हैं। इस मूर्च्छा को तोड़ने के लिए एवं जटिल-आतंकग्रस्त होती विश्व-संरचना को मोड़ देना होगा। इसके लिये न केवल अफगानिस्तान-तालिबान बल्कि पाकिस्तान पर दबाव बनाना होगा। हमने तालिबानियों को इतने संवेदनशून्य होते हुए देखा हैं कि उन्हें औरों का दुःख-दर्द, अभाव, पीड़ा, औरों की आहें कहीं भी पिघलाती नहीं। वहां निर्दोष लोगों की हत्याएं, हिंसक वारदातें, आतंकी हमले, अपहरण, जिन्दा जला देने की रक्तरंजित सूचनाएं, महिलाओं के साथ व्यभिचार-बलात्कार की वारदातें पढ़ते-देखते रहे हैं, पर तालिबानियों का मन इतना आतंकी बन गया कि यूं लगता है कि यह सब तो रोजमर्रा का काम है। न आंखों में आंसू छलकें, न पीड़ित मानवता के साथ सहानुभूति जुड़ी। न सहयोग की भावना जागी और न नृशंस क्रूरता पर खून खौला। दुनिया की बड़ी शक्तियां सिर्फ स्वयं के वर्चस्व को स्थापित करने की चिन्ता करती रही है। तभी औरों का शोषण करते हुए नहीं सकुचाते। दुनिया में संवेदना को जगाना होगा।
दुनिया में मानवीयता, अहिंसा, शांति और सह-अस्तित्व का मूल्य बढ़ाना होगा तथा सहयोग एवं संवेदना की पृष्ठभूमि पर स्वस्थ विश्व-संरचना की परिकल्पना को आकार देना होगा। दूसरों के अस्तित्व के प्रति संवेदनशीलता मानवता का आधार तत्व है। जब तक व्यक्ति अपने अस्तित्व की तरह दूसरे के अस्तित्व को अपनी सहमति नहीं देगा, तब तक वह उसके प्रति संवेदनशील नहीं बन पाएगा। जिस देश और संस्कृति में संवेदनशीलता का स्रोत सूख जाता है, वहाँ मानवीय रिश्तों में लिजलिजापन आने लगता है। अपने अंग-प्रत्यंग पर कहीं प्रहार होता है तो आत्मा आहत होती है। किंतु दूसरों के साथ ऐसी घटना घटित होने पर मन का एक कोना भी प्रभावित नहीं होता, यह संवेदनहीनता की निष्पत्ति है। इस संवेदनहीन मन की एक वजह सह-अस्तित्व का अभाव एवं कट्टर मजहबी भावना भी है। यह संवेदनहीनता ही है कि पाकिस्तान दिनोंदिन बद से बदतर होती अपने देश की स्थितियों के बादजूद आतंकवाद को पोषित एवं पल्लवित करने में अपनी शक्तियों को उपयोग कर रहा है। अब पाकिस्तान तालिबानी अफगानिस्तान के माध्यम से भारत में भी अशांति एवं आतंक फैलाने की कुचेष्ठा करेगा, उससे भारत को सावधान रहने की जरूरत है।

दीपावली समृद्धि ही नहीं शांति का पर्व

-ललित गर्ग-

भारतभूमि का सबसे बड़ा पर्व है दीपावली। गत दो वर्षों में हमने कोरोना महामारी के कारण यह पर्व यथोचित तरीके से नहीं मना पाये, इसलिये इस वर्ष का दीपावली पर्व अनेक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इस वर्ष दीपावली के महानायक श्रीराम का मन्दिर अयोध्या में बनने लगा है, इसलिये भी महत्वपूर्ण है। अयोध्या में तो दीपावली के अनूठे रंग दिखेंगे ही, देश में भी उत्साह एवं उत्सव की अनेक कड़ियां जुडे़ंगी, जिनमें इंसानी मेलजोल के नये आयाम होंगे, तम को, दरिद्रता को, महंगाई को, अराष्ट्रीयता को, महामारी को दूर करने की मिलीजुली कोशिश होगी। तम को जीवन के हर होने से बुहारा जायेगा। जैसे लक्ष्मी पूजन कर ऐश्वर्य की कामना की जायेगी, वैसे ही मनो-मालिन्य एवं कलुषताओं को मिटाने के प्रयत्न होंगे। दीपावली आत्मा को मांजने एवं उसे उजला करने का उत्सव है। अमावस की रात को हर दीप रोशनी की लहर बनाता है, उजाले की नदी में अपना योगदान देता है। दीपोत्सव के लिये हर अंजुरी महत्वपूर्ण है। हमें चीन-निर्मित कृत्रिम प्रकाश-बल्बों की बजाय एक बाती, अंजुरी-भर तेल और राह-भर प्रकाश करना है। दीपक जिस ज्वलंत शिखा को उठाये जागृत होते हैं, वह महज समृद्धि की कामना या विजयोत्सव का ही प्रतीक नहीं है, बल्कि वह भारतीय संस्कृति एवं उसकी जीवंतता का उद्घोष है। यह एक कालजयी ऐलान है विजय का, स्व-पहचान का, स्व-संस्कृति का एवं अपनी जड़ों से जुड़ने का, आत्म-साक्षात्कार का।
आत्मा का स्वभाव है उत्सव। प्राचीन काल में साधु-संत हर उत्सव में पवित्रता का समावेश कर देते थे ताकि विभिन्न क्रिया-कलापों की भाग-दौड़ में हम अपनी एकाग्रता या फोकस न खो दें। रीति-रिवाज एवं धार्मिक अनुष्ठान (पूजा-पाठ) ईश्वर के प्रति कृतज्ञता या आभार का प्रतीक ही तो हैं। ये हमारे उत्सव में गहराई लाते हैं। दीपावली में परंपरा है कि हमने जितनी भी धन-संपदा कमाई है उसे अपने सामने रख कर प्रचुरता (तृप्ति) का अनुभव करें। जब हम अभाव का अनुभव करते हैं तो अभाव बढ़ता है, परन्तु जब हम अपना ध्यान प्रचुरता पर रखते हैं तो प्रचुरता बढ़ती है। चाणक्य ने अर्थशास्त्र में कहा है, धर्मस्य मूलं अर्थः अर्थात सम्पन्नता धर्म का आधार होती है। जिन लोगों को आध्यात्मिक ज्ञान नहीं है, उनके लिए दीपावली वर्ष में केवल एक बार आती है, परन्तु ज्ञानियों के लिए हर दिन और हर क्षण दीपावली है। हर जगह ज्ञान की आवश्यकता होती है। यहाँ तक कि यदि हमारे परिवार का एक भी सदस्य दुःख के तिमिर में डूबा हो तो हम प्रसन्न नहीं रह सकते। हमें अपने परिवार के प्रत्येक सदस्य के जीवन में, और फिर इसके आगे समाज के हर सदस्य के जीवन में, और फिर इस पृथ्वी के हर व्यक्ति के जीवन में, ज्ञान का प्रकाश फैलाने की आवश्यकता है। जब सच्चे ज्ञान का उदय होता है, तो उत्सव को और भी बल मिलता है।
यजुर्वेद में कहा गया है-तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु- हमारे इस मन से सद् इच्छा प्रकट हो। वह दीपावली ज्ञान के साथ मनाएँ और मानवता की सेवा करने का संकल्प लें। अपने हृदय में प्रेम का एवं घर में प्रचुरता-तृप्ति का दीपक जलाएं। इसी प्रकार दूसरों की सेवा के लिए करुणा का एवं अज्ञानता को दूर करने के लिए ज्ञान का और ईश्वर द्वारा हमें प्रदत्त उस प्रचुरता के लिए कृतज्ञता का दीपक जलाएं। यह बात सच है कि मनुष्य का रूझान हमेशा प्रकाश की ओर रहा है। अंधकार को उसने कभी न चाहा न कभी माँगा। ‘तमसो मा ज्योतिगर्मय’ भक्त की अंतर भावना अथवा प्रार्थना का यह स्वर भी इसका पुष्ट प्रमाण है। अंधकार से प्रकाश की ओर ले चल इस प्रशस्त कामना की पूर्णता हेतु मनुष्य ने खोज शुरू की। उसने सोचा कि वह कौन-सा दीप है जो मंजिल तक जाने वाले पथ को आलोकित कर सकता है। अंधकार से घिरा हुआ आदमी दिशाहीन होकर चाहे जितनी गति करें, सार्थक नहीं हुआ करती। आचरण से पहले ज्ञान को, चारित्र पालन से पूर्व सम्यक्त्व को आवश्यक माना है। ज्ञान जीवन में प्रकाश करने वाला होता है। शास्त्र में भी कहा गया-‘नाणं पयासयरं’ अर्थात ज्ञान प्रकाशकर है। इसलिये सूनी राह पर, अकेले द्वार पर, कुएं की तन्हा मेड़ पर और उजाड़ तक में दीप रखने चाहिए। कोई भूले-भटके भी कहीं किसी राह पर निकले, तो उसे अंधेरा न मिले। इस रात हरेक के लिये उजाला जुटा दे, ताकि कोई भेदभाव न रहे, कोई ऊंच-नीच न रहे, अमीरी-गरीबी का भेद मिट जाये।
हमारे भीतर अज्ञान का तमस छाया हुआ है। वह ज्ञान के प्रकाश से ही मिट सकता है। ज्ञान दुनिया का सबसे बड़ा प्रकाश दीप है। जब ज्ञान का दीप जलता है तब भीतर और बाहर दोनों आलोकित हो जाते हैं। अंधकार का साम्राज्य स्वतः समाप्त हो जाता है। ज्ञान के प्रकाश की आवश्यकता केवल भीतर के अंधकार मोह-मूर्च्छा को मिटाने के लिए ही नहीं, अपितु लोभ और आसक्ति के परिणामस्वरूप खड़ी हुई पर्यावरण प्रदूषण, राजनीतिक प्रदूषण, भ्रटाचार और अनैतिकता जैसी बाहरी समस्याओं को सुलझाने के लिए भी जरूरी है। आज विज्ञान का युग है। सारी मानवता विनाश के कगार पर खड़ी है। मनुष्य के सामने अस्तित्व और अनस्तित्व का प्रश्न बना हुआ है। विश्वभर मे हत्या, लूटपाट, दिखावा, छल-फरेब, बेईमानी, युद्ध एवं आतंकवाद का प्रसार है। मानव-जाति अंधकार में घिरती जा रही है। विवेकी विद्वान उसे बचाने के प्रयास में लगे भी हैं। सत्य, दया, क्षमा, कृपा, परोपकार आदि के भावों का मूल्य पहचाना जा रहा है। ऐसी स्थिति में उपनिषद का ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ वाक्य उनका मार्गदर्शन करने वाला महावाक्य है। उस ज्योति की गंभीरता सामान्य ज्योति से बढ़कर ब्रह्म तक पहुँचनी चाहिए। उस ब्रह्म से ही सारे प्राणी पैदा होते हैं, उसमें ही रहते हैं और मरने के बाद उसमें ही प्रवेश कर जाते हैं। उस दिव्य ज्योति की अभिवंदना सचमुच समय से पहले, समय के साथ जीने की तैयारी का दूसरा नाम है।
जीवन के हृस और विकास के संवादी सूत्र हैं- अंधकार और प्रकाश। अंधकार स्वभाव नहीं, विभाव है। वह प्रतीक है हमारी वैयक्तिक दुर्बलताओं का, अपाहिज सपनों और संकल्पों का। निराश, निष्क्रिय, निरुद्देश्य जीवन शैली का। स्वीकृत अर्थशून्य सोच का। जीवन मूल्यों के प्रति टूटती निष्ठा का। विधायक चिन्तन, कर्म और आचरण के अभाव का। अब तक उजालों ने ही मनुष्य को अंधेरों से मुक्ति दी है, इन्हीं उजालों के बल पर उसने ज्ञान को अनुभूत किया अर्थात सिद्धांत को व्यावहारिक जीवन में उतारा। यही कारण है कि उसका वजूद आजतक नहीं मिटा। उसकी दृष्टि में गुण कोरा ज्ञान नहीं है, गुण कोरा आचरण नहीं है, दोनों का समन्वय है। जिसकी कथनी और करनी में अंतर नहीं होता, वही समाज में आदर के योग्य बनता है।
हम उजालों की वास्तविक पहचान करें, अपने आप को टटोलें, अपने भीतर के काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि कषायों को दूर करें और उसी मार्ग पर चलें जो मानवता का मार्ग है। हमें समझ लेना चाहिए कि मनुष्य जीवन बहुत दुर्लभ है, वह बार-बार नहीं मिलता। समाज उसी को पूजता है जो अपने लिए नहीं दूसरों के लिए जीता है। इसी से गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-‘परहित सरिस धरम नहीं भाई’। स्मरण रहे कि यही उजालों को नमन है और यही उजाला हमारी जीवन की सार्थकता है। जो सच है, जो सही है उसे सिर्फ आंख मूंदकर मान नहीं लेना चाहिए। खुली आंखों से देखना परखना भी चाहिए। प्रमाद टूटता है तब व्यक्ति में प्रतिरोधात्मक शक्ति जागती है। वह बुराइयों को विराम देता है। इस पर्व के साथ जुड़े मर्यादा पुरुषोत्तम राम, भगवान महावीर, दयानंद सरस्वती, आचार्य तुलसी आदि महापुरुषों की आज्ञा का पालन करके ही दीपावली पर्व का वास्तविक लाभ और लुफ्त उठा सकते हैं।
इस वर्ष दीपावली का पर्व मनाते हुए हम अधिक प्रसन्न एवं उत्साहित है, क्योंकि सदियों बाद हमारे आराध्य भगवान श्रीराम का मन्दिर अयोध्या में बन रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रयासों से इस वर्ष दीपावली का पर्व वास्तविक एवं सार्थक होने जा रहा है। हर हिन्दू एवं आस्थाशील व्यक्ति श्रीराम के अखंड ज्योति प्रकट करने वाले संदेश को अपने भीतर स्थापित करने का प्रयास करें, तो संपूर्ण विश्व में, निरोगिता, अमन, अयुद्ध, शांति, सुशासन और मैत्री की स्थापना करने में कोई कठिनाई नहीं हो सकेगी तथा सर्वत्र खुशहाली देखी जा सकेगी और वैयक्तिक जीवन को प्रसन्नता और आनंद के साथ बीताया जा सकेगा।

भाजपा से क्यों नाराज हैं वरुण गाँधी ?

                      प्रभुनाथ शुक्ल

उत्तर प्रदेश की राजनीति में वरुण गाँधी कभी भाजपा की बड़ी उम्मीद रहे। भाजपा कभी उनमें अपना भविष्य देख रही थी। कांग्रेस में नेहरू और गाँधी परिवार की काट के लिए भाजपा ने मेनका गाँधी को लाया गया था। बाद में इस जिम्मेदारी को वरुण गाँधी ने आगे बढ़ाया। भाजपा गांधी परिवार के खिलाफ, गाँधी परिवार को ही आगे रख काँटे से काँटा निकालने की नीति अपनायी। जब उत्तर प्रदेश में वरुण गांधी हिंदुत्व के फायर ब्रांड नेता के रूप में उभर रहे थे तो भाजपा उनमें अपनी नई जमींन तलाश रहीं थीं। वरुण गांधी को अपने विवादित बयानों की वजह से काफी चर्चित भी हो गए। वरुण गांधी को लोग उत्तर प्रदेश के भविष्य का मुख्यमंत्री भी बताने लगे थे। लेकिन भाजपा में मोदी और शाहयुग की शुरुवात के बाद गांधी परिवार हाशिए पर चला गया।

पीलीभीत से भाजपा सांसद वरुण गाँधी पार्टी लाइन से हटकर सीधे किसानों का समर्थन कर रहे हैं। उनकी मुखरता भाजपा को पच नहीं रहीं है। वरुण गांधी हमेशा किसानों की बातें करते रहे हैं। वह एक लेखक और कवि भी हैं। कृषि की समस्याओं और नीतिगत मामलों लेकर उन्होंने कई आर्टिकल लिखें। लखीमपुर की घटना के बाद वह अपने बयानों से भाजपा की मुश्किल बढ़ा दिए हैं। भाजपा वरुण गांधी को कितना बर्दास्त कर पाएगी यह वक्त बताएगा। लेकिन वर्तमान में भाजपा में मेनका और वरुण गांधी के हैसियत हासिए पर है। मां मेनका गांधी के साथ वरुण गांधी को राष्ट्रीय कार्यकारिणी से बाहर निकाल दिया गया। हालांकि इसमें और राजनेता शामिल हैं। लेकिन पार्टी का तर्क है कि नए लोगों को लाने के लिए इस तरह के फैसले लेने पड़ते हैं। किसान आंदोलन को लेकर वरुण गांधी ने हमेशा पार्टी लाइन से हटकर बात की है। केंद्र सरकार और किसानों के बीच बढ़ते तकरार पर भी उन्होंने केंद्र सरकार से लचीला रुख अपनाने की बात कही थी। केंद्र सरकार से उन्होंने कई बार इस गतिरोध को दूर करने के लिए भी कहा, लेकिन उनकी बात को कभी गंभीरता से नहीं लिया। लखीमपुर हादसे को लेकर वह काफी परेशान दिखे। उन्होंने उसका घटना का वीडियो भी ट्वीट करते हुए दोषियों को सजा दिलाने की मांग रखी।

पश्चिमी यूपी की एक मंडी में किसान धमोह सिंह 15 दिन चक्कर लगाता रहा लेकिन उसकी धान की फसल नहीं खरीदी गईं।  बाद में किसान ने ऊबकर धान की फसल की उपज में खुद आग लगा दिया। जिसका वीडियो ट्वीट करते हुए उन्होंने लिखा कि हमें ऐसी नीति पर पुनर्विचार करना चाहिए। इस तरह की नीतियां हमें कहां लाकर खड़ी करती हैं। वरुण गांधी गन्ना मूल्य को लेकर भी उत्तर प्रदेश सरकार को पत्र लिखा था। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को लिखे पत्र में गन्ने का मूल्य ₹400 प्रति कुंतल करने की मांग की थी। मुजफ्फरपुर में हुई किसान महापंचायत पर भी अपनी सरकार से उन्होंने समझौता वादी रुख अपनाने की अपील की थी। इस तरह देखा जाए तो वरुण गांधी हमेशा किसानों के पक्ष की बातें करते रहे हैं। उन्होंने इसकी चिंता कभी नहीं की कि पार्टी का रूख उनके पक्ष में है या खिलाफ। वह हमेशा एक जिम्मेदार सांसद के रूप में जमीनी मुद्दे उठाते रहे हैं। किसानों के मुद्दों को उन्होंने प्रमुखता से उठाया है।

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस जब मजबूत स्थिति में थीं तो उस समय गाँधी परिवार की काट के लिए भाजपा ने गांधी परिवार को ही आगे रखा। भाजपा में अटल युग के दौरान मेनका गांधी भाजपा में शामिल हुई थी। लेकिन मेनका और वरुण गांधी ने कभी भी रायबरेली और अमेठी में राजनीतिक रूप से हस्तक्षेप नहीं किया। राजीव गांधी, सोनिया और राहुल एवं प्रियंका गांधी की तरफ से भी अपनी चाची मेनका और चचेरे भाई वरुण गांधी पर कभी भी सियासी हमला नहीं बोला गया। अलग-अलग पार्टी की विचारधाराओं में रहते हुए भी गांधी परिवार ने इस खासियत को बनाए रखा। दोनों परिवारों की तरफ से सियासी लड़ाई को गांधी बनाम गांधी नहीं होने दिया गया। बदलते राजनीतिक परिदृश्य में दोनों परिवारों के लिए बहुत बड़ी बात रहीं है।

गांधी परिवार की संस्कृत और संस्कार को हमेशा सियासत से अलग रखा गया। एक दूसरे की मर्यादा और सम्मान के खिलाफ दोनों परिवारों की तरफ से गलत टिप्पणी बेहद कम सुनी गई। राजनीतिक दल इन्हें अपने लिहाज से मोहरा बनाना चाहे, लेकिन गांधी परिवार इसका शिकार नहीं हुआ। सामान्य बातों को छोड़ दिया जाय तो परिवारिक संबंधों को हमेशा राजनीति से अलग रखा गया। गांधी परिवार के तीन युवा चेहरे राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और वरुण गांधी इस स्थिति को आज भी बनाए हैं।सोनिया गांधी और मेनका गांधी आपस में देवरानी और जेठानी होते हुए भी कभी सियासत के नीचले पायदान पर नहीं उतरी। गांधी परिवार की राजनीति एक अलग तरह की मिसाल है।

उत्तर प्रदेश के बदले राजनीतिक हालात में भाजपा के लिए वरुण और मेनका गांधी अब उतने प्रासंगिक नहीं रह गए। क्योंकि कांग्रेस के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए उन्हें भाजपा में लाया गया था। अब खुद कांग्रेस कमजोर हो चली है जिसकी वजह से उनके सियासी मायने भी बदल गए हैं। मेनका और वरुण गांधी भाजपा को छोड़कर कहीं जा भी नहीं सकते हैं। हालांकि राजनीति में कुछ कहना संभव नहीं है। लेकिन सवाल उठता है कि अगर वह भाजपा छोड़ेंगे भी तो कहां जाएंगे। कांग्रेस में जा नहीं सकते हैं। सपा और बसपा उनके राजनैतिक कैडर के लिहाज से मेल नहीं खाती। इस हालात में भाजपा में बने रहना उनकी मजबूरी है। भाजपा उन्हें कब तक ढोएगी यह देखना होगा।

वरुण गांधी भाजपा में होते हुए भी किसानों के मुद्दे को लेकर अलग नजरिया क्यों रखते हैं। वरुण वरुण गांधी जहाँ से चुनाव जीत कर आए हैं वह इलाका किसान बाहुल्य है।  पश्चिमी यूपी का पूरा बेल्ट कृषि प्रधान है। किसान आंदोलन को जमीनी धार देने वाले राकेश टिकैत भी पश्चिमी यूपी से आते हैं। पंजाब और पश्चिमी यूपी में किसानों की बड़ी तादात है। वरुण गांधी इन्हीं किसानों के बीच से चुनकर आए। वह जिस पीलीभीत से चुनकर आए हैं वह इलाका गन्ना गेहूं और धान की उपज के लिए जाना जाता है। गन्ने की खेती वहां व्यापक पैमाने पर होती है। वरुण गांधी को जीत दिलाने वाले वहां के किसान ही है। उस हालात में वरुण गांधी को किसानों का समर्थन करना ही पड़ेगा। सरकार और किसानों के बीच गतिरोध को लेकर वरुण गांधी बीच का रास्ता निकालने के लिए आग्रह भी कर चुके हैं। लेकिन सरकार ने उनकी बातों का संज्ञान नहीं लिया।

जब भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह थे उस दौरान वरुण गांधी को विशेष अहमियत मिली थी। उन्हें पश्चिम बंगाल का पार्टी प्रभारी और पार्टी का महासचिव बनाया गया था। लेकिन भारतीय जनता पार्टी की कमान जब अमित शाह के हाथ आई तो वरुण गांधी का पत्ता साफ हो गया। भाजपा में मोदी और शाहयुग आने के बाद से ही गांधी परिवार हाशिए पर है। क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दे चुके हैं। कांग्रेस और गांधी परिवार एक दूसरे की आत्मा है। फिर भाजपा में गांधी परिवार की बेल मोदी और अमितशाह की मौजूदगी में भला कैसे पनप सकती है। मेनका गांधी को मंत्रिमंडल से भी हटा दिया गया। वैसे देखा जाए तो भाजपा के लिए अब  मेनका और वरुण गांधी की अहमियत खत्म हो चुकी है। अगर दोनों भाजपा छोड़ भी देते हैं तो उसकी सेहत पर कोई असर पड़ने वाला नहीं है। लेकिन वरुण गाँधी अगर इसी तरह बयानबाजी करते रहे तो राज्य विधानसभा चुनाव में भाजपा की मुश्किल बढ़ सकती है। क्योंकि किसान आंदोलन को लेकर पश्चिमी यूपी का किसान नाराज चल रहा है।

गिलगित बलतीस्तान को लेकर जाँच आयोग की जरुरत

डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

            केन्द्र शासित लद्दाख क्षेत्र का बहुत बड़ा भूभाग गिलगित और बलतीस्तान पाकिस्तान के कब्जे में है जो उसने 1948 में भारत पर आक्रमण कर हथिया लिया था । उसके बाद इस क्षेत्र को पाकिस्तान के कब्जे से छुड़ाने का भारत सरकार ने कोई उपक्रम नहीं किया । अलबत्ता देश की जनता के आक्रोश को शान्त करने के लिए उस समय के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु ने संयुक्त राष्ट्र संघ में जाकर जरुर निवेदन करना शुरु कर दिया कि आप हमारा यह इलाक़ा पाकिस्तान से छुडवा कर वापिस हमें दीजिए । अब जवाहर लाल नेहरु इतने भोले तो नहीं थे कि वे जानते न हों कि जिन शक्तियों ने गिलगित बलतीस्तान भारत से छीन कर पाकिस्तान के हवाले किया था , वही शक्तियाँ संयुक्त राष्ट्र संघ का संचालन कर रही थीं । सुरक्षा परिषद ने भारत को गिलगित बलतीस्तान वापिस दिलवाने की बजाए , भारत को ही आदेश देना शुरु कर दिया कि लोगों की राय ले ली जाए । पंडित नेहरु तो लगभग इस बात पर सहमत ही हो गए थे लेकिन लोगों के ग़ुस्से को देखते हुए , उन्हें पीछे हटना पड़ा । मृत्यु से पहले उन्होंने एक बार फिर शेख मोहम्मद अब्दुल्ला को लाहौर भेज कर यह प्रयास किया कि गिलगित बलतीस्तान पाकिस्तान को ही देकर , शान्ति संधि कर ली जाए । लेकिन इस तथाकथित शान्ति सन्धि से पूर्व ही नेहरु का स्वर्ग वास हो गया ।
                        उसके बाद पाकिस्तान ने गिलगित बलतीस्तान का अस्तित्व ही समाप्त करने के लिए नई नीति अपनाई । दरअसल  गिलगित बलतीस्तान में इस्लाम मजहब को मानने वालों की संख्या तो नगण्य है , वहाँ के अधिकांश निवासी  शिया मजहब को मानने वाले  हैं । शिया मजहब के लोग क़ुरान शरीफ़ को तो मानते हैं लेकिन हज़रत मोहम्मद के उन तीन उत्तराधिकारियों यानि अबू बकर, उमर और उस्मान को स्वीकार नहीं करते जिन्हें इस्लाम मजहब को मानने वाले मुसलमान स्वीकारते हैं । शिया मजहब को मानने वाले हज़रत मोहम्मद के बाद हज़रत अली को उत्तराधिकारी मानते हैं और उसके बाद शिया मजहब में इमामों की लम्बी परम्परा चलती है । यह कुछ कुछ उसी प्रकार है जिस प्रकार यहूदी मजहब को मानने वाले ओल्ड टैसटामैंट को तो मानते हैं लेकिन न्यू टैसटामैंट को नहीं मानते । लेकिन ईसाई मजहब को मानने वाले ओल्ड टैस्टामैंट और न्यू टैसटामैंट दोनों को ही मानते हैं । शिया मजहब को मानने वाले लोग हज़रत  हुसैन की शहादत की स्मृति में ताजिया निकालते हैं , जिसे इस्लाम मजहब को मानने वाले मुसलमान  मूर्ति पूजा कहते हैं ।लेकिन शिया मजहब को मानने वाले इस मूर्ति पूजा को किसी भी हालत में छोड़ने को तैयार नहीं हैं ।  ध्यान रहे हुसैन को मुसलमानों की सेना ने कर्बला के मैदान में पूरे परिवार सहित मार डाला था ।
                      अब पाकिस्तान सरकार ने पिछले कुछ अरसे से गिलगित बलतीस्तान की पहचान , संस्कृति  और भाषा को ही समाप्त करने पर ज़ोर देना शुरु कर दिया है । सबसे पहले उसने 1970 में गिलगित बलतीस्तान का नाम ही बदलकर उसे नार्दर्न एरिया या उत्तरी क्षेत्र का नया नाम दे दिया । लेकिन सरकार की इस करतूत का बलतियों और गिलगितियों ने डट कर विरोध किया । अन्तत सरकार को झुकना पड़ा और 2009 में इस क्षेत्र का नाम पुन: गिलगित-बलतीस्तान किया गया । उसके बाद पाकिस्तान ने नई चाल चली , यानि जनसांख्यिकी परिवर्तन । पंजाब और खैवर पखतूनख्वा से इतने मुसलमानों को लाकर गिलगित बलतीस्तान में  बसा रही है ताकि वहाँ मुसलमानों की संख्या ज्यादा हो जाए और शिया मजहब को मानने वाले गिलगिती और बलती अल्पसंख्यक हो जाएँ। । यह वही नीति है जो चीन सरकार तिब्बत को समाप्त करने के लिए उपयोग में ला रही है । तिब्बत में साठ लाख तिब्बती हैं । चीन की नीति है कि वहाँ तीन चार करोड़ चीनी लाकर बसा दिए जाएँ तो स्वभाविक ही तिब्बत अल्पसंख्यक हो जाएँगे और कालान्तर में उनकी पहचान समाप्त हो जाएगी । चीन यह नीति मंचूरिया में सफलता पूर्वक अपना चुका है । अब पाकिस्तान उसी नीति: को गिलगित बलतीस्तान में अपनाना चाहता है । लेकिन इसके साथ साथ शिया मजहब के मानने वालों को डरा धमका कर शिया मजहब से इस्लाम मजहब में दीक्षित किया जाए । सप्त सिन्धु क्षेत्र पिछली कई शताब्दियों से इस नीति का शिकार हो रहा है । लगता है अब पाकिस्तान सरकार आधुनिक युग में भी यही नीति आज़माना चाहती हैं ।
                इसी नीति के अन्तर्गत गिलगित बलतीस्तान में शिया मजहब के लोगों पर हमले हो रहे हैं । पूजा पाठ या इबादत कर रहे शियाओं को उनके इबादतखानों में ही बम फेंक कर मारा जा रहा है , ताकि वे भय से शिया मजहब छोड़ कर इस्लाम मजहब को अपना लें ।
             इतना ही नहीं चीन की वन बैल्ट वन रोड योजना के अन्तर्गत इस क्षेत्र में चीनियों का जमावड़ा भी लग रहा है । पिछले कुछ समय से गिलगित-बलतीस्तान के लोगों का आक्रोश सड़कों पर उतर आया है । वे पाकिस्तान सरकार के ख़िलाफ़ सार्वजनिक प्रदर्शन कर रहे हैं । वहाँ यह माँग बराबर उठ रही है कि यह हिस्सा भारत का है तो भारत सरकार अपने नागरिकों की मुक्ति के लिए कोई प्रयास क्यों नहीं कर रही ? ख़ास कर जो चक और बलती अमेरिका इत्यादि देशों में जाकर बस गए हैं वे यह माँग बड़े ज़ोर से उठा रहे हैं । आशा करना चाहिए की भारत सरकार इस दिशा में गम्भीरता से सोच विचार करेगी ही ।
                     लेकिन गिलगित बलतीस्तान को पाकिस्तान के हवाले करने का जो षड्यन्त्र 1947-48 में रचा गया , उसकी जाँच करवाना जरुरी हो गया है , क्योंकि गिलगित बलतीस्तान पाकिस्तान के हाथों में दे दिए जाने के कारण ही आज भारत मध्य एशिया से कट गया है और इसी कारण से चीन को कराकोरम राज मार्ग बना कर बलूचिस्तान में गवादर बंदरगाह बनाने का अवसर प्राप्त हो गया है । दर असल पंडित नेहरु का वह पत्र एक बार फिर चर्चा में आ गया है जो उन्होंने  अपनी बहन श्रीमती विजय लक्ष्मी पंडित को उन दिनों लिखा था , जब जम्मू को लेकर भारत का पाकिस्तान के साथ विवाद चल रहा था  । इस पत्र में उन्होंने कहा था कि यदि पाकिस्तान से समझौता करने की नौबत आ ही गई तो मैं गिलगित पाकिस्तान को देने को तैयार हूँ । अंग्रेज़ों ने भारत छोड़ने से कुछ दिन पहले तीन जून 1947 को गिलगित एजेंसी की लीज़ समाप्त कर  गिलगित एजेंसी महाराजा हरि सिंह के सुपुर्द कर दी थी । महाराजा हरिसिंह ने तो घनसारा सिंह को गिलगित का राज्यपाल भी नियुक्त कर दिया था और उन्होंने वहाँ कार्यभार भी संभाल लिया था । अंग्रेज़ों ने गिलगित एजेंसी में गिलगित स्काऊटस के नाम से सुरक्षा बल की स्थापना कर रखी थी । पच्चीस वर्षीय मेजर विलियम एलकजैंडर ब्राउन इसके प्रमुख थे  । घनसारा सिंह द्वारा कार्यभार संभाल लेने के बाद गिलगित स्काऊट्स भी रियासत की सेना का हिस्सा हो गए थे और मेजर ब्राउन भी रियासत के कर्मचारी हो गए थे । 22 अक्तूबर 1947 को पाकिस्तान की सेना ने जम्मू कश्मीर को बलपूर्वक हथियाने के लिए भारत पर आक्रमण कर दिया । उसके नौ दिन बाद ही मेजर ब्राउन ने राज्यपाल घनसारा सिंह और वज़ीरे वजारत को गिरफ़्तार कर लिया और एजेंसी के मुख्यालय पर पाकिस्तान का झंडा फहरा दिया । पाकिस्तान सरकार ने तुरन्त वहाँ अपना  रैजीडैंट कमिश्नर नियुक्त कर दिया था ।
                               दरअसल  गिलगित स्काऊट्स के सैनिक महाराजा से अपना वेतन बढ़ाने की माँग कर रहे थे । वहाँ कुछ दूसरी स्थानीय समस्याएँ भी थीं ।  घनसारा सिंह ने उनकी ये माँग स्वीकार कर लेने का आग्रह भी रियासत के प्रशासन से किया था । लेकिन दरबारियों ने घनसारा सिंह के पत्र महाराजा हरि सिंह तक पहुँचने ही नहीं दिए । आख़िर महाराजा हरि सिंह के ही प्रशासन में कौन सी शक्तियाँ थीं , जो घनसारा को कामयाब नहीं होने देना नहीं चाहती थीं । प्रधानमंत्री के पद से हटाए जा चुके  रामचन्द्र काक फिर एक बार संदेह के घेरे में आते हैं । लार्ड माऊंटबेटन ने तो बाद में इस बात को छुपाया भी नहीं कि वे जम्मू कश्मीर पाकिस्तान को देना चाहते थे । जब वे इसके लिए किसी भी तरह महाराजा हरि सिंह को तैयार नहीं कर सके तब जितना हाथ आ सके ,उतना ही लाभदायक हो सकता है , ही विकल्प बचा था । क्या मेजर ब्राउन की गिलगित पाकिस्तान के हवाले करने की योजना उसी विकल्प का नतीजा था ? क्या  पंडित नेहरु  माऊंटबेटन की इस योजना को जानते थे ? यदि वे जानते थे तो उन्होंने इस षड्यन्त्र को निष्फल करने का प्रयास करने की बजाए , इसमें भागीदारी का रास्ता क्यों चुना ? उस वक़्त यह  संदेह और भी गहरा हो जाता है जब भारतीय सेना कारगिल को तो दुश्मन के कब्जे से छुड़वा लेती है परन्तु गिलगित तक जाने से रोक दी जाती है ।ये सभी प्रश्न ऐसे हैं जिनका सही उत्तर जानना भारत के भविष्य और सुरक्षा से जुड़ा हुआ है ।लेकिन ऐसे तमाम प्रश्नों का उत्तर कोई निष्पक्ष जाँच आयोग ही दे सकता है । अब वैसे भी उस समय के बहुत से दस्तावेज जो  इंग्लैंड ने अब तक डीकलासीफाई कर दिए हैं , इस जाँच को आगे बढ़ा सकते हैं । भारत सरकार यदि ऐसा आयोग नियुक्त करती है तो निश्चय ही कई चेहरों से पर्दा उठ जाएगा ।  गिलगित बलतीस्तान के लोग भी शायद इस जाँच आयोग का स्वागत करेंगे ।

इंडोनेशिया के पूर्व राष्ट्रपति की बेटी ने अपनाया हिंदू धर्म

प्रमोद भार्गव
इंडोनेशिया के पूर्व राष्ट्रपति सुकर्णो की छोटी पुत्री सुकमावती सुकर्णपुत्री ने आखिरकार हिंदू धर्म स्वीकार लिया। एक तरह से यह उनकी 70वें जन्मदिन पर समारोहपूर्वक सुखद घर वापसी हुई है। समूचे विश्व में हिंदू धर्म उदारता, नैतिकता, विविधता एवं जिज्ञासा का कारण बन रहा है। दुनिया में हिंदू धर्म ही एकमात्र ऐसा धर्म रहा है, जिसका विस्तार तलवार की धार और धन के प्रलोभन से नहीं हुआ। इसके समाज के लिए जो अपेक्षित मानवीय मूल्य हैं, वे हर कालखंड में आकर्षण का केंद्र बिंदू रहे हैं। यही वजह रही कि जब सशक्त महिला सुकमावती के साथ धार्मिक भेदभाव प्रताड़ना की हद तक हुआ तो उन्होंने इस्लाम धर्म नकार दिया। यह घटना उस दक्षिण एशियाई देश में घटी, जहां मुस्लिमों की आबादी तो सर्वाधिक है, किंतु सांस्कृतिक रूप से प्रभुत्व हिंदुत्व और उसके राम व कृष्ण जैसे ईश्वरीय नायकों का है। 2018 की जनगणना के अनुसार यह विश्व का चैथा ऐसा देश है, जहां सर्वाधिक दो प्रतिशत हिंदू हैं। इंडोनेशिया की कुल आबादी लगभग 24 करोड़ है, जो विश्व की आबादी की करीब 12.7 प्रतिशत हैं। इंडोनेशिया संवैधानिक रूप से भारत की तरह धर्मनिरपेक्ष देश है। लेकिन यहां के सभी धर्मों के नागरिक ईश्वर में विश्वास करते हैं। रामायण और महाभारत के पात्रों व घटनाओं पर आधारित यहां के मंदिर इंडोनेशिया के पर्यटन व आजीविका के प्रमुख आधार हैं। विदेशी मुद्रा कमाने और अर्थव्यवस्था को गतिशील बनाए रखने में भी इन्हीं मंदिरों की अहम् भूमिका है। भारत की तरह यहां प्रतिवर्ष रामलीलाएं भी मंचित होती हैं।
निसंदेह सुकमावती का हिंदू धर्म अपनाना एक ऐसी घटना है, जो यह संदेश देती है कि हिंदू धर्म ही सकारात्मक व समन्वयवादी है। इस्लाम को जहां कट्टरता के रूप में हिंसा की इबारत लिखता आतंकवाद नुकसान पहुंचा रहा है, वहीं ईसाई धर्म ने भी विस्तार के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य के बहाने कमजोर वर्ग के लोगों को सुनियोजित ढंग से लुभाकर धर्मांतरण कराया है। अलबत्ता हिंदू धर्म का आध्यात्मिक दर्शन आत्मिक संतोष और अलौकिक आनंद की अनुभूति देता है। व्यक्ति में सद्भाव और सौहाद्र्र की यह ऐसी निर्मीति है, जो एक राष्ट्र प्रमुख की हर तरह से सक्षम व समर्थ बेटी को हिंदू धर्म की सनातन श्रृंखला से जोड़ने की पर्याय बनी।
इस्लाम और ईसाईयत में जहां वैचारिक भिन्नता की अस्वीकार्यता है, वहीं हिंदू धर्म अपनी आलोचना को न केवल सहन करता है, बल्कि बदलाव का शालीन रुख भी अपनाता है। अतएव वहां न केवल ईश्वर के विभिन्न रूपों में दस से लेकर चैबीस अवतार हैं, बल्कि विभिन्न पंथों के अनुसार ऐसी अनेक पूजा पद्धतियां हैं, जो दर्शन में अत्यंत मनोहारी हैं। वाराणसी और हरिद्वार की गंगा आरतियां इसी श्रेणी में आती हैं। यही वजह है कि हिंदू धर्म में पाकिस्तान जैसे ‘ईशनिंदा’ कानून का कोई वजूद नहीं है। हिंदू व ईसाई अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित करने के लिए ‘ईशनिंदा कानून’ क्रूर शासक जिया-उल-हक के शासनकाल में ‘पाकिस्तान पेनल कोड’ के अनुभाग 295-बी और 295-सी जोड़कर अस्तित्व में लाया गया था। दरअसल पाकिस्तान को यह कानून फिरंगी हुकूमत से विरासत में मिला है। 1860 में ब्रिटिश शासन ने धर्म संबंधी अपराधों के लिए एक कानून बनाया था, उसी का परिवर्तित रूप पाक का ईशनिंदा कानून है। इस कानून में हिंदू व ईसाई नाबालिग बच्चों को भी न केवल अपराधी बनाने का प्रावधान है, बल्कि अदालतों को मौत की सजा देने का भी अधिकार है। दुनिया के मानवाधिकार संगठन इस कानून को बदलवाने में नाकाम रहे हैं।
सुकमावती भी इस्लाम धर्म की रुढ़िवादिता से प्रताड़ित हुई हैं। उदारमना सुकमावती ने 2018 में संपन्न हुए एक फैशन शो में स्वरचित कविता का वाचन किया। जिसमें सामाजिक व धार्मिक कूरितियों के विरुद्ध आवाज उठाई गई थी। दरअसल सुकमावती को मुस्लिम चरमपंथियों द्वारा महिलाओं पर लादी जाने वाली पाबंदियां पसंद नहीं हैं। इस कविता में उन्होंने मुसलमानों से प्रार्थना करने की अपील भी की थी। गोया, धर्म के छिद्रांवेशियों और संकीर्ण बौद्धिकों ने इस कविता को शरिया कानून और हिजाब की निंदा से जोड़ दिया। पुलिस को शिकायत दर्ज करा दी। इसी तरह 2019 में एक बार फिर उन पर अपने पिता सुकर्णों की तुलना पैगंबर मोहम्मद से करने का आरोप लगा। कट्टरपंथी ताकतों ने इतना बवाल मचाया कि वे इस्लाम से विमुख होने के रास्ते खोजने लगीं। अंततः इस प्रगतिशील हस्ति की यह तलाश हिंदू धर्म की उदार विशालता में पूरी हुई। गीता का दर्शन कहता है कि व्यक्ति का मूल उसके अवचेतन में जन्म-जन्मांतर तक विद्यमान रहता है और अनुकूल अवसर पाकर मूलचेतना में लौट भी आता है। संभव है, सुकमावती की यही नियति रही हो ? उनके अवचेतन में अंतर्निहित इस संस्कार की पुष्टि उनके पिता के नामाकरण से भी होती है। उनके पिता का नाम महाभारत के उपेक्षित किंतु दानवीर येद्धा कर्ण के नाम से अभिप्रेरित है। सुकमावती के दादा ने जब पिता का नाम कर्ण रखना चाहा तो उनके राजदरबार के विद्वानों ने सलाह दी कि चूंकि कर्ण अन्याय और अत्याचारियों के पक्ष में खड़े थे, इसलिए इस नाम का सकारात्मक पक्ष मजबूत करने की दृष्टि से नाम में ‘सु’ जोड़ दिया जाए। ‘सुकर्णों’ अर्थात सत्य के पक्ष में खड़ा कर्ण ! यह संभवतः हिंदू धर्म की वंशानुगत सनातन विरासत से मिला वही संस्कार है, जो मन की अवचेतन अवस्था में उद्वेलित होता रहता है। गोया, इस भाव के अभाव में सत्य की और पलायन संभव ही नहीं था ?
इंडोनेशिया नामाकरण दो युनानी शब्दों के योग से बना है। ‘इंडो’ अर्थात इंडिया या भारत और ‘नेसॅस’ अर्थात द्वीप, यानी द्वीपों का भारत ! इंडोनेशिया का आदर्श वाक्य ‘भिन्नता में एकता’, अर्थात भारतीय नारे ‘विविधता में एकता’ का ही पर्याय है। यह नारा इस देश की अखंंडता व संप्रभुता के इसलिए अनुरूप है, क्योंकि यहां के छोटे-बड़े द्वीप इसी मंत्र वाक्य से परस्पर जुड़े रहकर गणतंत्र की स्थापना करते हैं। एक समय ये सभी द्वीप सनातन संस्कृति और हिंदू आध्यात्मिकता के केंद्र रहे हैं। इस सभ्यता और संस्कृति के संस्कारों से अभिप्रेरित होकर यहां के राष्ट्रपति और सुकमावती के पिता सुकर्णों ने नेहरू को लिखा था, ‘आपका देश और जनता इतिहास के प्रारंभिक काल से ही हमारे रक्त और संस्कृति दोनों से संबद्ध है। इंडिया शब्द नाम को हम एक पल के लिए भी विस्मृत नहीं कर सकते हैं, क्योंकि यह हमारे देश का पूर्वाद्र्ध है। आपके प्राचीन देश की संस्कृति का उत्तराधिकार हमें कहां तक प्राप्त हुआ है, इसका ज्वलंत उदाहरण तो मेरा अपना नाम ही है।’ अर्थात इस देश की गर्भनाल भारत में गढ़ी हुई है। सूकर्णो के कथन के यथार्थ का सत्यापन रामायण, महाभारत और बौद्ध ग्रंथों के अध्ययन से होता है। ईसाई और इस्लाम धर्मों के जन्मने के पहले से ही भारत के व्यापारी और नाविक इंडोनेशिया जाते रहे हैं। इनके बसने के साथ ही यहां हिंदू मंदिर और स्मारक बनाए जाने लगे। यहां का बाली राज्य हिंदू बहुल राज्य है। राजधानी जाकार्ता में महाभारत के नायक अर्जुन की विशाल प्रतिमा स्थापित है। साफ है, इंडोनेशिया, आर्यावर्त कहे जाने वाले हिंदू राष्ट्र का हिस्सा था। दरअसल तलवार के बूते मुस्लिम आक्रांताओं के भारत में आगमन से पहले इंडोनेशिया और दक्षिण एशियाई सभी द्वीप भारतीय साम्राज्य के अंतर्गत थे। इसीलिए इन द्वीपों में आज भी सभ्यता और संस्कृति के अवशेष के रूप में वैदिक संस्कृति के चिन्ह आसानी से मिल जाते हैं।
पृथ्वी के जिस भू-खंड को आज हम ‘एशिया’ नाम से जानते है, उसे एक समय ‘जम्बूद्वीप’ कहा जाता था। श्रीमद् भागवत और महाभारत में स्पष्ट उल्लेख है कि स्वयंभू मनु के पुत्र प्रियव्रत ने समूची पृथ्वी को सात भागों में विभाजित कर दिया था। इन द्वीपों के नाम जम्मूद्वीप, प्लाशवश, पुष्कर, क्रोंच, शक, शाल्मली, तथा कुश हैं। जिस द्वीप में आज हम रहते हैं, वहीं जम्बूद्वीप एशिया है। इसीलिए इस भूखंड की संस्कृति का आदि स्रोत एक ही भारतीय वैदिक संस्कृति है। जिन आर्यों के भारत में बाहर से आने की बात वामपंथी करते हैं, वास्तव में वे ‘आर्य’ भारत से ही इन द्वीपों में गए थे। भारत से गए पृथु ने इन सातों द्वीपों में बंटी पृथ्वी पर ग्राम नगर और बस्तियां बसाईं। इन ग्राम और नगरों के अस्तित्व में आते जाने के साथ-साथ मनु और शतरूपा की संतानें बसती चली बईं और उन्होंने ही सनातन वैदिक संस्कृति के मूल की स्थापना के लिए प्रकृति की प्रार्थनाएं और मानवीय मूल्यों की संहिताएं रचीं। यही सनातन, वैदिक या फिर हिंदू धर्म की नींव बनी। सनातन का अर्थ है, जो था, जो है और कालांतर में भी रहेगा। अर्थात प्रकृति और मानवीय मूल्य अनवरत रहेंगे।
कालांतर में जैसे-जैसे समय व्यतीत होता गया, इन द्वीपों पर जलवायु की भिन्नता और भिन्न प्रकृति के प्रभाव के चलते भारत से पहुंचे मनुष्यों के वर्ण और आकृति में भिन्नता आती चली गई। जलवायु का प्रभाव खान-पान, रहन-सहन और आचार-विचार पर भी पड़ा। फिर यातायात की दुर्लभता के चलते संबंधों में दूरी बनती चली गई, जो अजनबी हो जाने का कारण बनी। आखिरकार अपने ही देश के लोग विदेशी बन गए। बावजूद इंडोनेशिया समेत पूर्वी एवं दक्षिण एशिया के सभी देश बर्मा, थाइलैंड, लाओस, कंबोडिया, मलेशिया, श्रीलंका, नेपाल, जापान और चीन राम और कृष्ण की लीलाओं अथवा बौद्ध धर्म के दर्शन के माध्यम से आज भी सनातन भारतीय वैदिक संस्कृति से जुड़े हुए हैं। सुकमावती के हिंदू धर्म में पुनर्गामन के बाद इंडोनेशिया में पांच सौ साल पहले की गई उस भविष्यवाणी के भी सत्य होने की बात की जाने लगी है, जिसमें कहा गया था कि इंडोनेशिया में फिर से हिंदू धर्म की वापसी होगी। लेकिन अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में जिस तरह से कट्टरपंथी ताकतें वजूद जमा रही हैं, उसके चलते यह कहना एकाएक मुश्किल ही है कि मानवीय मूल्यों के पैरोकार इस धर्म का विस्तार इस्लामिक चरमपंथियों के बीच हो पाएगा। बावजूद सुकमावती की घर वापसी से स्पष्ट है कि वहां के लोग अपना अस्तित्व सनातन धर्म की जड़ों में तलाशकर इसे अपनाने को प्रेरित हो रहे हैं।

धार्मिक जन होते हैं ईश्वर के शांति दूत

—विनय कुमार विनायक
धर्म में दिखावे की कोई चीज होती नहीं,
धर्म में अलगाववाद का बीज होता नहीं!

धर्म है धारण करने की मानवीय शक्ति,
धर्म है मानवता की सफल अभिव्यक्ति!

धर्म में मजहबी फिरकापरस्ती नहीं होती,
धर्म है मानव की उच्च मानसिक स्थिति!

धार्मिक जन होते हैं ईश्वर के शांति दूत,
धार्मिक हस्ती होते ईश्वर के सच्चे सपूत!

धर्मप्राण मानव कभी भेदभाव नहीं करते,
अपने व विपरीत स्वभाव के मनुष्यों से!

धार्मिक इंसान कभी दुर्भावना नहीं पालते,
विश्व भर के विभिन्न मानव समुदाय से!

धार्मिक जन दुखित मानव जन-जीवन में,
सर्वदा खुशियां भरते अपने सद् उपाय से!

धर्म में मजहबी बाह्य प्रवर्जना नहीं होती,
धर्म में अंतर्मन की हार्दिक साधना होती!

धर्मप्राण मानव अपने अंतःकरण मन में,
दूसरों के प्रति हिंसाचार भाव नहीं रखते!

धर्मप्राण रहमदिल औ भावुक इंसान होते,
वे किसी जीव जंतुओं की जान नहीं लेते!

धर्मप्राण प्राणी मनुष्य को सद् ज्ञान देते,
धर्मप्राण मानव सार्वकालिक महान होते!

धर्मप्राण हस्ती कभी उम्मीद नहीं करते,
हरकोई अनुयायी व अंधभक्त हों उनके!

धार्मिक इंसान वैसी गतिविधि नहीं करते,
जिससे हो देश की क्षति,मानवीय दुर्गति!

धर्मात्मा गुटबंदी व दुर्भिसंधी नहीं करते,
धर्मात्मा देश धर्म संस्कृति खातिर जीते!

धर्मानुरागी व्यक्ति नहीं चाहते सब लोग,
उनकी तरह हावभाव वेशभूषा धारण करे!

धर्मप्रेमी मानवों की चाहत ऐसी होती है,
कि हर मानव मानव जाति से प्यार करे!

स्वदेश की प्रगति,अपनी उन्नति के लिए
चाहिए स्वदेशी धर्म आस्था स्वीकार करें!
—-विनय कुमार विनायक