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दुनिया में तेजी से बढ़ रहा है इस्लाम छोड़ने का अनोखा अभियान

अति सर्वत्र वर्जेते। किसी भी क्षेत्र में अति का दुष्परिणाम खतरनाक, भयानक और भस्मासुर वाला ही निकलता है। इसीलिए अति से लोग बचने की सीख देते हैं। फिर भी लोग अति से बाज नहीं आते हैं। अभी-अभी अमेरिका और यूरोप के अंदर में इस्लाम के अति को लेकर एक अद्भुत अभियान चल रहा है, अभियान को गति मिल रही है, हवा भी मिल रही है, तलवार और शक्ति के बल पर इस्लाम के विस्तार की मानसिकता को चुनौती मिल रही है। यह चुनाती कोई बाहरी तत्वों और किरदारों से नहीं मिल रही है बल्कि यह चुनौती इस्लाम के भीतर से मिल रही है। चुनौती देने वाले इस्लाम के ही सहचर हैं, इस्लाम के अनुयायी रहे हैं, लेकिन अब उनके लिए इस्लाम खुशी और खुशहाली के लिए नहीं बल्कि दुख और संहार और पिछड़ापन, हिंसा व खूनखराबा का प्रतीक बन गया है। इस अभियान का नाम एवोसोम विदाउट अल्लाह दिया है। यानी इस्लाम से मुक्त होने, इस्लाम छोड़ने का अभियान। यह सिर्फ एक अभियान भर नहीं है। इस अभियान के साथ बहुत बडी संख्या में इस्लाम के अनुयायी जुड़े हुए हैं, अभियान को गति दे रहे हैं, अभियान को हवा दे रहे हैं।
यह प्रचारित किया जा रहा है कि इस्लाम से मुक्त होने के बाद ही खुशहाली संभव है, शांति संभव है, हिंसा से मुक्ति संभव है, आतंकवाद से मुक्ति संभव है, मजहबी विसंगतियों से मुक्ति संभव है, जिहाद की मानसिकताओं से मुक्ति संभव है, विभिन्न धर्मो, मजहबों के बीच जारी धृणा से मुक्ति संभव है। इस्लाम छोड़ने के अभियान को ईसाइयत या फिर अन्य किसी धर्म की साजिश बता कर खारिज नहीं किया जा सकता है, क्योंकि जब कोई अभियान गंभीर हो जाता है, दबाव या फिर लोभ-लालच से मुक्त होकर लोगों को आकर्षित करने लगता है, लोगों को जुड़ने के लिए प्रेरित करने लगता है तब उस अभियान पर लांक्षणा लगाने या फिर उस अभियान पर प्रत्यारोपित आरोप लगाने का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। आंकडे कहते हैं कि अमेरिका में जन्में हर चार में से एक मुसलमान इस्लाम का त्याग कर चुका है, वह या तो अन्य धर्म को स्वीकार कर लिया या फिर नास्तिक बन गया। इस्लाम के नियामकों और झंडाबदार लोगों को यह सोचना जरूर चाहिए कि आखिर अमेरिका और यूरोप के मुसलमान इस्लाम छोड़ने के इस अभियान के साथ जुड़ क्यों रहे हैं, खासकर पढे-लिखे लोग लगातार इस्लाम का त्याग क्यों कर रहे है?

क्या सही में इस्लाम के मूल्यों में अति है? क्या सही में इस्लाम के मूल्यों में हिंसा निहित है? क्या सही में इस्लाम के मूल्यों में आतंकवाद निहित है? क्या सही में इस्लाम के मूल्यों मे आतंकवाद निहित है? क्या सही में इस्लाम के मूल्यों से ही जिहाद की भावनाएं हिंसक होती हैं? क्या इस्लाम में विभिन्न धर्मो और मजहबों के बीच में घृणा, विवाद और तनाव के तत्व निहित है? क्या इस्लम के मूल्यों में सही में अमेरिका और यूरोप की बहुलतावाद में जहर घोलने के तत्व निहित हैं? इस्लाम के मूल्यों ने क्या सही में अमेरिका और यूरोप के अंदर में दहशतगर्दी और मजहबी अधेरगर्दी के तत्व निहित है? क्या इस्लाम के मूल्यों में पढे-लिखें मुस्लिम वर्ग को पृथक करने के तत्व निहित है? क्या इस्लाम के मूल्यों से अब मुसलमान डरे हैं, भयभीत है? क्या अब इस्लाम के मूल्यों को अमेरिका-यूरोप और अन्य लोकतांत्रिक देश के मुसलमान अपने लिए घातक और धृणा युक्त समझ बैठे हैं? क्या इस्लाम के मूल्यों के खिलाफ यह अभियान अमेरिका-यूरोप की परिधि से बाहर निकलकर लोकतांत्रिक देशों तक नहीं पहुंचेगा? क्या यह अभियान मुस्लिम देशों की शांति और सदभाव पंसद मुस्लिम वर्ग को भी आकर्षित करेगा? क्या इस अभियान को इस्लाम के मूल्यों को थिथिल करने जैसी कोई मजहबी शक्ति मिलेगी? इन सभी प्रश्नों का उत्तर खोजा ही जाना चाहिए।
मजहबी-धार्मिक मूल्यों का तुलनात्मक अध्ययण क्या है? तुलनात्मक अध्ययण की कसौटी पर जहां अन्य धर्मो में बहुलतावाद की काफी उम्मीद होती है, सर्व धर्म समभाव की उम्मीद होती है, शांति की उम्मीद होती है, हिंसा को कम करने की उम्मीद होती है, विज्ञान की कसौटी पर धर्म को परिभाषित करने की उम्मीद होती है, विज्ञान की कसौटी पर धर्म कंे मूल्यों को खारिज करने की उम्मीद होती है, धर्म के मूल्यों को खारिज कर आगे बढने की उम्मीद होती है। पर इस्लाम के मूल्यों के साथ ऐसी उम्मीद कदापि नहीं होती है? इस्लाम के मूल्य अन्य धर्मो से कहीं भी मेल नहीं खाते हैं। इस्लाम के मूल्यों में नरमी या बहुलता वाद की कोई उम्मीद ही नहीं होती है। इस्लाम के मूल्यों की वर्तमान काल की कसौटी पर व्याख्या नहीं हो सकती है, इस्लाम के मूल्यों की विज्ञान की कसौटी पर व्याख्या नहीं हो सकती है। इस्लाम के मूल्यों को विज्ञान की कसौटी पर खारिज करने की मनाही है। इस्लाम के मूल्यों के खिलाफ बोलने की मनाही है। इस्लाम के मूल्यों के खिलाफ आचरण करने की स्वीकृति नहीं है। इस्लाम के मूल्यों से इतर व्यवहार पर दंड की खतरनाक और हिंसक प्रक्रिया की धमकी निहित है। कहने का अर्थ है कि इस्लाम के मूल्यों का हर हाल में पालन करने और उस पर चलने की अनिवार्यता है।
इस्लाम के मूल्यों के खिलाफ करने, इस्लाम के मूल्यों के खिलाफ लिखने, इस्लाम के मूल्यों के खिलाफ बोलने या फिर इस्लाम के मूल्यों के खिलाफ आचरण करने पर कैसी हिंसा, कैसा आतंकवाद और कैसी धृणा उत्पन्न होती है, किस तरह से इस्लाम के अनुयायी बर्बर और हिंसक होकर खून खराबा करने ही नहीं बल्कि निर्दोष लोगों को भी मौत का घाट उतारने के लिए प्रेरित होते है, सामने आते हैं, यह सब जगजाहिर है। इसके कोई एक नहीं बल्कि अनेकानेक उदाहरण उपस्थित है। कभी महान साहित्यकर्मी सलमान रश्दी ने इस्लाम के मूल्यों के खिलाफ साहित्य सृजन को गति दी थी। आज लगभग चालीस सालों से सलमान रश्ती कडी सुरक्षा के बीच जीवन जीने के लिए बाध्य है, दुनिया की कई मुस्लिम देशों की सरकारों ने सलमान रश्दी की हत्या का फतवा दी थी। बांग्लादेश की विख्यात लेखिका तसलीमा नसरीन ने इस्लामिक मूल्यों में स्त्री के प्रश्न पर साहित्य समालोचना की थी। इस्लाम के सहचरों ने तसलीमा नसरीन के खिलाफ किस प्रकार से हिंसा बपपाने की कोशिश की थी, यह भी जगजाहिर है। तसलीमा नसरीन को बांग्लादेश छोडने के लिए बाध्य होना पड़ा था। आज तसलीमा नसरीन दुनिया में छिप-छिप कर रह रही है। फ्रांस की पत्रिका शाली एब्डों पर हमला कर एक दर्जन से अधिक पत्रकारों को मौत का घाट उतार दिया गया। फ्रांस के एक शिक्षक को सिर्फ पढाने मात्र से ही बर्बर हत्या कर दी गयी। भारत में कमलेश तिवारी की हत्या भी उल्लेखनीय है। सबसे बडी बात ईश निंदा कानून की है। ईशं निंदा कानून के तहत बर्बर भीड़ ही क्यों बल्कि इस्लामिक कानूनी नियामकों द्वारा सरेआम हत्याएं होती है। मुस्लिम देशों के अंदर हर साल ऐसी हत्याएं बडी संख्या में होती हैं।
संज्ञान लेने वाली खतरनाक एक बात और यह है कि इस्लाम छोड़ना आसान भी नहीं है। कोई भी इस्लाम स्वीकार तो कर सकता है पर आसानी के साथ इस्लाम का त्याग नही कर सकता है। अमेरिका और यूरोप के अंदर में सरकारी तौर पर कोई भी मुसलमान इस्लाम से अलग हो सकता है, अमेरिका और यूरोप का कानून इस्लाम त्यागने से मना नहीं करते पर इस्लाम के अनुयायी इसे स्वीकार नहीं करते, बरदास्त नहीं करते हैं और इस्लाम को त्याग करने वाले का खून तक कर देते हैं। इसके अतिरिक्त मुस्लिम देशों में इस्लाम छोड़ने का अर्थ होता है साक्षात मौत का आमंत्रण देना। ईरान, कतर, सोमालिया, सूडान, सउदी अरब, अफगानिस्तान, लीबिया, सीरिया आदि मुस्लिम देशों में किसी मुसलमान को इस्लाम छोड़ने की काूननी अधिकार नही है, अगर इन मुस्लिम देशों में कोई भी मुसलमान इस्लाम का त्याग करता है तो उसकी सजा सिर्फ और सिर्फ मौत होती है। मौत या तो पत्थरों से मार कर होगी या फिर सीधे फांसी पर लटका दिया जाता है। इस कारण मुस्लिम देशों का कोई इस्लाम का सहचर इस्लाम छोड़ने से पहले अमेरिका या फिर यूरोप में शरण लेना चाहता है।
एंथिस्ट मुस्लिम के लेखक अली रिजवी कहते हैं कि इस्लामिक मूल्यों में सख्ती और हिंसा की डर दिखा कर पालन कराने की दंड व्यवस्था कायम करना खतरनाक है। ऐसी प्रवृति हानिकारक है। आधुनिक और विज्ञान के दौर में ऐसी प्रवृतियां मुनष्य को मनुष्यता से दूर करती है। पर दुखद यह है कि ऐसी प्रवृति का उदार होना संभव नहीं है। वास्तव में अमेरिका और यूरोप के अंदर में इस्लाम के रूढिवादियों ने एक तरह से अंधेरगर्दी मचायी है, इस्लाम की रूढियों का खतरनाक तौर पर प्रचार-प्रसार किया है। छोटी उम्र के बच्चों और बच्चियों को इस्लाम के मूल्यों के प्रति हिंसक होने और आतंकवादी होने तक की मानसिकताएं भरी गयी। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि अमेरिका और यूरोप के अंदर भी अफगानिस्तान, सूडान, सामालिया, नाइजीरिया, सीरिया, लेबनान जैसी मानसिकताएं पसर गयी। सीरिया और इराक में अमेरिका व यूरोप से बडी संख्या में मुस्लिम युवक युवतियां आईएस की ओर से लडने गयी थी। स्थिति यहां तक पहुंच गयी है कि मुस्लिम माता-पिता अपने बच्चों को सीरिया, इराक आदि देशों में जाकर आतंकवाद का सहचर बनने रोक नहीं पा रहे हैं, घर के अंदर में भी बच्चे इस्लाम की रूढियों के सहचर होकर सरेआम अंधेरगर्दी मचा रहे हैं। इससे बचने के लिए ही अमेरिका और यूरोप मे जन्में मूसलमानों ने इस्लाम छोडने का अभियान चलाया है। खास कर अमेरिका में जन्में चार में एक मुसलमान इस्लाम का त्याग कर चुके हैं। यह आंकडा आगे और भी बडा होगा।

माई एहों पूत जण जेंहो दुर्गादास

भारतीय इतिहास में वीर शिरोमणि दुर्गादास के नाम को कभी परिचय की आवश्यकता नहीं रही. मारवाड़ के इस वीरपुत्र और मातृभूमि पर अपने सम्पूर्ण जीवन को न्यौछावर कर देने वाले जुझारू यौद्धा को केवल मारवाड़ की धरती और सम्पूर्ण देश में फैले राठौर बंधू ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण हिंदू समाज और इस राष्ट्र का कण कण उन्हें याद करके धन्य हो उठता है. आज उनके जन्मदिवस पर पूरा देश और विशेषतः मारवाड़ की धरती इस महान यौद्धा को कृतज्ञतापूर्वक याद करके उसे नमन करती है. आज भी मारवाड़ के गाँवों में बड़े-बूढ़े लोग बहू-बेटी को आशीर्वाद स्वरूप यही दो शब्द कहते हैं और वीर दुर्गादास को याद करते है कि “माई ऐहा पूत जण जेहा दुर्गादास, बांध मरुधरा राखियो बिन खंभा आकाश” अर्थात् हे माता! तू वीर दुर्गादास जैसे पुत्र को जन्म दे जिसने मरुधरा (मारवाड़) को बिना किसी आधार के संगठन सूत्र में बांध कर रखा था. दुर्गादास को वीर दुर्गादास बनाने का श्रेय उसकी माँ मंगलावती को ही जाता है जिसने जन्मघुट्टी देते समय ही दुर्गादास को यह सीख दी थी कि “बेटा, मेरे धवल (उज्ज्वल सफेद) दूध पर कभी कायरता का काला दाग मत लगाना.”

मुगलों के दमनकारी कालखंड में जब13 अगस्त1638 को जोधपुर रियासत के सालवा कला में वीर दुर्गादास का जन्म हुआ. उस समय समृद्ध,संपन्न, और विशाल धनाड्य राज्य मारवाड़ का कोई स्वामी, सामंत या सेनापति नहीं था. चारों ओर औरंगजेब के कुटिल विश्वासघात की भेंट चढा समाज त्राहि त्राहि कर रहा था जनता कठोर दमन चक्र में फंसी थी. सर्वत्र आतंक लूट-खसोट, हिंसा और भय की विकराल काली घटा छाई थी. उस समय मारवाड़ ही नहीं पूरा भारत मुग़ल आक्रान्ताओं के अत्याचार, शोषण,दमन,जबरन धर्मांतरण,धर्म स्थलों ऊपर हमले और उनके खजानों को लूटने की घटनाओं को सहन कर कर के घोर आर्तनाद कर रहा था. भारत माता के छलनी आँचल की संकटमय स्थिति में वीर दुर्गादास राठौर के पौरुष और पराक्रम की आंधी चली. इस वीर की चमकती तलवार और अनथक परिश्रम का परिणाम था कि मारवाड़ आजाद हुआ और खुले आकाश में सुख की सांस लेने लगा. दुर्गादास एक ऐसे देशभक्त का नाम है जिनका जन्म से मृत्यु पर्यंत संघर्ष का जीवन रहा. इस बालक की कहानी ऐसे कठोर तप और कर्मयुद्ध की श्रेष्ठ कहानी है जो शिशु दुर्गादास व उसकी माँ को घर से निकालने से शुरू होती है.

जन्म से ही माँ के हाथ से निडरता की घुट्टी पीने वाला दुर्गादास अपनी इस जन्मजात निडरता के कारण ही महाराजा जसवंत सिंह का प्रमुख अंगरक्षक बन गया था और यही अंगरक्षक आगे चलकर उस समय संपूर्ण मारवाड़ का रक्षक बन गया था जब जोधपुर के महाराज जसवंत सिंह के इकलौते पुत्र पृथ्वीसिंह को औरंगजेब ने षड्यंत्र रचकर जहरीली पोशाक पहनाकर मार डाला. इस आघात को जसवंत सिंह नहीं सह सके और स्वयं भी मृत्यु को प्राप्त हो गए थे. इस अवसर का लाभ उठाते हुए औरंगजेब ने जोधपुर पर कब्जा कर लिया और सारे शहर में लूटपाट, आगजनी और कत्लेआम होने लगा और देखते ही देखते नगर को उजाड़ बना दिया गया. मारवाड़ के मूल निवासी भय और आतंक के मारे शहर छोड़ अन्यत्र चले गए थे. इस काल में ही हिंदु भूमि के मूल निवासियों पर इन बाहरी विदेशी आक्रमणकारी शासको ने शोषण की पराकाष्ठा स्वरुप औरंगजेब ने जजिया लगा दिया था; राजधानी जोधपुर सहित सारा मारवाड़ तब अनाथ हो गया था.

मारवाड़ के प्रतिष्ठित राजा पृथ्वी सिंह को कुटिलता पूर्वक धोखे से जहरीली पोशाक पहनाकर मारने की दुखद घटना के पश्चात जब रियासत के सरदारों ने मुग़ल आक्रांता औरंगजेब से से आग्रह किया कि वे पृथ्वीसिंह के पुत्र अजीतसिंह को मारवाड़ की गद्दी का उत्तराधिकारी स्वीकार करें तब औरंगज़ेब ने योजनापूर्वक ऐसा नहीं किया क्योंकि वह तो मारवाड़ को मुग़ल साम्राज्य में मिलाना चाहता था, अतएव उसने यह शर्त रखी कि अजीतसिंह मुसलमान बन जाएँ तो उसे मारवाड़ की गद्दी का उत्तराधिकारी माना जा सकता है. इस बात से नाराज वीर दुर्गादास ने वीरता पूर्वक औरंगज़ेब के समक्ष चुनौती प्रस्तुत कर दी और उससे युद्ध के लिए उद्दृत हो गए. तब मुग़ल आक्रांता और बर्बर शासक औरंगजेब ने अजीतसिंह और उसकी विधवा माँ को पकड़ने के लिए मुग़ल सैनिक भेजे, किन्तु चतुर वीर दुर्गादास ने औरंगज़ेब की यह चाल विफल कर दी. दुर्गादास ने कुछ राठौर सैनिकों को मुग़ल सैनिकों का सामना करने के लिए भेज दिया तथा स्वयं रानियों और शिशु को दिल्ली स्थित महल से निकालकर सुरक्षित जोधपुर ले गया. औरंगज़ेब ने जोधपुर पर क़ब्ज़ा करने के लिए विशाल मुग़ल सेना से हमला कर दिया तब 1680 में जो युद्ध हुआ, उस में मारवाड़ की तरफ से राठौरों का नेतृत्व दुर्गादास ने बड़ी ही बहादुरी से किया. दुर्गादास के कुशल और रणनीतिक चातुर्य का ही कमाल था कि औरंगज़ेब का पुत्र शहजादा अकबर राजपूतों से मिल गया. किन्तु वीर दुर्गादास के सामने समस्याएँ ही समस्याएँ थीं. सबसे बड़ी समस्या तो जहाँ भावी राजा के लालन-पालन व पढ़ाई-लिखाई की थी औरउनको औरंगजेब की नजरों से बचाने व उनकी सुरक्षा की थी. इतिहास साक्षी है कि दुर्गादास ने विपरीत परिस्थितियों में भी उनकी वे संपूर्ण व्यवस्थाएँ की. भले ही इस कार्य के संपादन में दुर्गादास को अपने माँ -भाई-बहनों, यहाँ तक कि पत्नी तक का भी बलिदान देना पड़ा. अरावली पर्वत श्रृंखला की वे कंदराएँ, गुफाएं और जंगल उन वीर और वीरांगनाओं के शौर्यपूर्ण बलिदान की साक्षियाँ दे रही हैं, जहाँ अजीत सिंह की सुरक्षा के लिए राठौरों योद्धाओं और वीर दुर्गादास के परिवार ने दुश्मनों से संघर्ष करते हुए उन्होंने अपने आपको बलिदान कर दिया था. इतिहास कुछ और होता यदि मराठा राजा सम्भा जी ने वीर दुर्गादास का कहा मानकर मुगलों से संघर्ष की राह पकड़ी होती किन्तु खेद कि ऐसा हो न पाया. दक्षिण में शिवाजी महाराज के पुत्र संभाजी से मिलकर और पंजाब के गुरुओं का आशीर्वाद लेकर संगठित रूप में परकीय सत्ता को उखाड़ फेंकने की योजना थी दुर्गादास की. परंतु औरंगजेब की पौत्री सिफतुन्निसा के प्रेम में पड़कर राजा अजीत सिंह ने अपने ही संरक्षक का निष्कासन करके इतिहास में काला धब्बा लगा दिया. किन्तु धन्य है वीरवर दुर्गादास जिन्होंने उस वक्त भी अजीत सिंह को आशीर्वाद और मंगलकामना करते हुए ही वन की ओर प्रस्थान किया था. उज्जैन में क्षिप्रा के तट पर 22 नवम्बर 1718 को इस महान देशभक्त ने अंतिम सांस ली.

वीर शिरोमणि दुर्गादास कहीं के राजा या महाराजा नहीं थे परंतु उनके चरित्र की महानता इतनी ऊंची उठ गई थी कि वह अनेक पृथ्वीपालों,प्रजापतियों,राजों,महाराजोंऔर सम्राटों से भी ऊंचे हो गये और उनका यश तो स्वयं उनसे भी ऊंचा होकर अजर अमर गाथा बन गया है. आज उनकी जयंती के अवसर पर उन्हें सादर नमन,प्रणाम और कृतज्ञ राष्ट्र की ओर से पुण्य स्मरण. 

अंगदान मरते को नयी जिन्दगी देने का पुण्य

अंग दान दिवस-13 अगस्त 2021 पर विशेष
-ः ललित गर्ग :-

अंग दान दिवस भारत में प्रतिवर्ष 13 अगस्त को मनाया जाता है। किसी व्यक्ति के जीवन में अंग दान के महत्व को समझने के साथ ही अंग दान करने के लिये आम इंसान को प्रोत्साहित करने के लिये सरकारी संगठनों, सार्वजनिक संस्थानों और दूसरे व्यवसायों से संबंधित लोगों द्वारा हर वर्ष यह दिवस मनाया जाता है। इंसान की सम्पत्ति का कोई मतलब नहीं अगर उसे बांटा और उपयोग में नहीं लाया जाए, चाहे वे शरीर के अंग ही क्यों न हो। इस दृष्टि से अंगदान एक महान् दान है, जो हमें स्वर्ग-पथ की ओर अग्रसर करता है। ऐसा दानदाता समाज, सृष्टि एवं परमेश्वर के प्रति अपना कत्र्तव्य पालन करता है। अंग दान-दाता कोई भी हो सकता है, जिसका अंग किसी अत्यधिक जरुरतमंद मरीज को दिया जा सकता है। मरीज में प्रतिरोपण करने के लिये आम इंसान द्वारा दिया गया अंग ठीक ढंग से सुरक्षित रखा जाता है, जिससे समय पर उसका इस्तेमाल हो सके। किसी के द्वारा दिये गये अंग से किसी को नया जीवन मिल सकता है, उसकी जिन्दगी में बहार आ जाती है।
‘अंग दान दिवस‘ पूरे भारत में मनाये जाने वाले महत्त्वपूर्ण दिवसों में से एक है। कोई भी व्यक्ति चाहे, वह किसी भी उम्र, जाति, धर्म और समुदाय का हों, वह अंगदान कर सकता है। किसी व्यक्ति के जीवन में अंग दान के महत्व को समझने के साथ ही अंगदान करने के लिये आम इंसान को प्रोत्साहित करना इस दिवस को मनाने का उद्देश्य है। भारत महर्षि दधीचि जैसे ऋषियों का देश है, जिन्होंने एक कबूतर के प्राणों व असुरों से जन सामान्य की रक्षा के लिये अपना देहदान कर दिया था। परंतु समय के साथ भारत में अंगदान की प्रवृत्ति में गिरावट देखी गई। निश्चित तौर पर अंगदान करके किसी अन्य व्यक्ति की जिंदगी में नई उम्मीदों का सवेरा लाया जा सकता है। इस तरह अंगदान करने से एक प्रेरणादायी शक्ति पैदा होती है, जो अद्भुत होती है, यह ईश्वर के प्रति सच्ची प्रार्थना है। इस तरह की उदारता व्यक्ति की महानता का द्योतक है, जो न केवल आपको बल्कि दूसरे को भी प्रसन्नता, जीवनऊर्जा प्रदान करती है।
अंगदान ऐसी प्रक्रिया है जिसमें किसी जीवित या मृत, दोनों तरह के व्यक्तियों से स्वस्थ अंगों और ऊतकों को लेकर किसी अन्य ज़रूरतमंद व्यक्ति के शरीर में प्रत्यारोपित कर दिया जाता है। प्रत्यारोपित होने वाले अंगों में दोनों गुर्दे (किडनी), यकृत (लीवर), हृदय, फेफड़े, आंत और अग्न्याशय शामिल होते हैं। जबकि ऊतकों के रूप में कॉर्निया, त्वचा, हृदय वाल्व कार्टिलेज, हड्डियों और वेसेल्स का प्रत्यारोपण होता है। आँख, पाचक ग्रंथि, आँत, अस्थि ऊतक, हृदय छिद्र, नसें आदि अंगों का भी दान किया जा सकता है। पूरे देश में ज्यादातर अंग दान अपने परिजनों के बीच में ही होता है अर्थात् कोई व्यक्ति सिर्फ अपने रिश्तेदारों को ही अंग दान करता है। विभिन्न अस्पतालों में सालाना सिर्फ अपने मरीजों के लिये उनके रिश्तेदारों के द्वारा लगभग 4000 किडनी और 500 कलेजा दान किया जाता है। जबकि भारत में ही प्रतिवर्ष लगभग 5 लाख लोग अंग प्रत्यारोपण की प्रतीक्षा कर रहे हैं। प्रत्यारोपण की संख्या और अंग उपलब्ध होने की संख्या के बीच एक बड़ा अंतराल है। अंगदान जीवन के लिये अमूल्य उपहार है। अंगदान उन व्यक्तियों को किया जाता है, जिनकी बीमारियाँ अंतिम अवस्था में होती हैं तथा जिन्हें अंग प्रत्यारोपण की आवश्यकता होती है। जीवित व्यक्ति के लिये अंगदान के समय न्यूनतम आयु 18 वर्ष होना अनिवार्य है। साथ ही अधिकांश अंगों के प्रत्यारोपण का निर्णायक कारक व्यक्ति की शारीरिक स्थिति होती है, उसकी आयु नहीं। जीवित अंगदाता द्वारा एक किडनी, अग्न्याशय, और यकृत के कुछ हिस्से दान किये जा सकते हैं। कॉर्निया, हृदय वाल्व, हड्डी और त्वचा जैसे ऊतकों को प्राकृतिक मृत्यु के पश्चात् दान किया जा सकता है, परंतु हृदय, यकृत, गुर्दे, फेफड़े और अग्न्याशय जैसे अन्य महत्त्वपूर्ण अंगों को केवल ब्रेन डेड के मामले में ही दान किया जा सकता है।
अंगदान और प्रत्यारोपण ‘मानव अंग प्रत्यारोपण अधिनियम (टीएचओए) 1994 के अंतर्गत आता है, जो फरवरी 1995 से लागू हुआ। इस अधिनियम के अनुसार अंगदान सिर्फ उसी अस्पताल में ही किया जा सकता है, जहां उसे ट्रांसप्लांट करने की भी सुविधा हो। यह अपने आप में बेहद मुश्किल नियम था। इस नियम से दूर-दराज के इलाकों के लोगों का अंगदान तो हो ही नहीं पाता था। इस समस्या को देखते हुए सरकार द्वारा 2011 में इस अधिनियम को संशोधित किया गया। नए नियम के मुताबिक अंगदान अब किसी भी आईसीयू में किया जा सकता है अर्थात उस अस्पताल में ट्रांसप्लांट न भी होता हो, लेकिन आईसीयू है, तो वहां भी अंगदान किया जा सकता है।
अंगदान की अहमियत और प्रक्रिया के बाबत लोगों को जागरूक करने के लिये ही अंगदान दिवस मनाया जाता है। एक दाता आठ जरूरतमंदों की जान बचा सकता है। कोई भी व्यक्ति इस पुनीत कार्य से जुड़ कर जीवन सार्थक बना सकते हैं। एक जीवित व्यक्ति के लीवर का अंश दो व्यक्तियों को प्रत्यारोपित किया जा सकता है। लीवर की भांति पैंक्रियाज का आंशिक दान किया जाता है, फिर भी दाता का यह अंग बखूबी कार्य करता रहेगा। केवल भारत में ही नहीं दुनिया में हर साल लाखों लोगों के शरीर के अंग खराब होने के कारण मृत्यु हो जाती है।
दुनियाभर में रक्तदान के प्रति जागरूकता की वजह से बड़े पैमाने पर लोगों ने इसका महत्व समझा और आगे आकर स्वेच्छा से रक्तदान करने लगे हैं, उसी प्रकार अंगदान के प्रति वैश्विक जागरूकता की महत्ती आवश्यकता है। रक्तदान के बाद दूसरे स्थान पर है नेत्रदान। लोग अब नेत्रदान के लिए भी आगे आने लगे हैं। तथ्य बताते हैं कि वैश्विक स्तर पर अंगदान में भारत की हिस्सेदारी बहुत ही कम है। यहाँ प्रति 10 लाख पर मात्र 0.15 लोगों द्वारा ही अंगदान किया जाता है। जब की प्रति 10 लाख पर अमेरिका में 27, क्रोएशिया में 35 एवं स्पेन में 36 लोग अंगदान करते हैं। अंगदान का पूरा रिकार्ड संधारित किया जाता है जिसकी जानकारी ‘‘नेशनल ऑर्गन एंड टिश्यू ट्रांसप्लांट ऑर्गेनाइजेशन‘‘ को दी जाती है। 65 वर्ष उम्र तक के वे व्यक्ति जिनका ब्रेन डेड घोषित कर दिया गया हैं वे अंगदान कर सकते हैं। ऐसे व्यक्ति का 4 घंटे तक दिल एवं फेफड़े, 6 से 12 घंटे तक किडनी, 6 घंटे तक लिवर, 24 घंटे तक पेनक्रियाज एवं 5 साल तक टिश्यू को सुरक्षित रख जा सकता है। प्राकृतिक मौत पर दिल के वाल्व, कॉर्निया, त्वचा एवं हड्डी जैसे ऊतकों का दान किया जा सकता है।
भारत के आम नागरिकों में अंग दान को लेकर उचित शिक्षा और जागरूकता का अभाव है। में अधिकांश लोग मृत्यु के बाद जीवन एवं पारलौकिक विश्वासों में जीता है। अतः शरीर के अंगों में काट-छाँट उन्हें प्रकृति व धर्म के विपरीत लगता है। इसके अलावा समाज में व्याप्त अंधविश्वास, अंगदान के प्रति लोगों में स्पष्ट अवधारणा का अभाव में भय एवं मिथक, दूर दराज क्षेत्रों में सुविधाओं का अभाव, मानसिक तौर पर मृत व्यक्ति के परिजनों की सहमति नहीं मिल पाना, अस्पताल में अंग लेने के साधनों का अभाव और सबसे ऊपर जागरूकता का अभाव ऐसी चुनौतियां है जिन पर गहन चिंतन-मनन करते हुए अंगदान को व्यापक बनाया जा सकता हैं। लोगों को खासकर ब्रेन डेड मरीज के परिजनों को समझना होगा कि अंगदान सबसे बड़ा दान एवं पुण्य का काम है। अंगदान कर आप किसी जरूरतमंद व्यक्ति का जीवन बचा कर पुण्य कमाने में पहल कर समाज में उदाहरण बन सकते हैं।

‘जय जवान’ -‘जय किसान’ ही नहीं ‘ओलम्पिक पदकों का सिरताज’ भी बना हरियाणा

                                                                                          निर्मल रानी
  ओलम्पिक के इतिहास में भारत अब तक कुल दस स्वर्ण पदक जीत चुका है जिसमें आठ स्वर्ण पदक भारतीय हॉकी टीम को उसके 1920-1950  मध्य के स्वर्णिम युग के दौरान प्राप्त हुए हैं जबकि दो व्यक्तिगत स्वर्ण पदक में से एक 11 अगस्त 2008 को बीजिंग में आयोजित शूटिंग में अभिनव बिंद्रा को पुरुषों की दस मीटर एयर राइफ़ल प्रतियोगिता में हासिल हुआ था जबकि दूसरा व्यक्तिगत स्वर्ण पदक पिछले दिनों  नीरज चोपड़ा ने टोक्यो ओलिंपिक में भारत के लिए ट्रैक एंड फील्ड प्रतियोगिता में भाला फेंकने की प्रतिस्पर्धा में जीता। नीरज चोपड़ा के स्वर्ण पदक को ओलंपिक के  एथलेटिक्स वर्ग में 121 वर्षों के इतिहास में भारत को मिले सबसे पहले  स्वर्ण पदक के रूप में भी देखा जा रहा है। निःसंदेह टोक्यो में पहला एथिलीट ओलंपिक स्वर्ण पदक जीतने से पूरा देश ख़ुशी से झूम रहा है परन्तु चूँकि नीरज चोपड़ा उस हरियाणा का बेटा है जिसके बारे में  कहावत मशहूर है कि -‘म्हारा देस हरियाणा -जहाँ दूध दही का खाना ‘,इसलिए हरियाणा के लोगों का उत्साह कुछ अधिक है। वैसे भी टोक्यो ओलम्पिक में जो कुल 7 पदक प्राप्त हुए हैं उनमें स्वर्ण सहित 3 पदक अकेले हरियाणा के खिलाड़ियों ने जीते, शेष 4 पदक पूरे देश के खिलाड़ियों ने मिलकर जीते। सातवां पदक हॉकी टीम का कांस्य पदक है जिसमें हरियाणा सहित पूरे  देश के खिलाड़ी शामिल हैं। हरियाणा के सपूत व भारतीय सेना में राजपूताना रेजिमेंट में सूबेदार नीरज चोपड़ा ने भाला फेंकने में स्वर्ण पदक जीता तो पहलवान बजरंग पूनिया ने कुश्ती में भारत को कांस्य पदक दिलाया। हरियाणा के ही पहलवान रवि दहिया ने कुश्ती में ही रजत पदक अपने नाम किया था और इसी राज्य के दूसरे पहलवान दीपक पूनिया पदक के बिल्कुल क़रीब पहुंचकर हार गए।
            दुर्भाग्यवश हरियाणा के और भी कई खिलाड़ी पदक के क़रीब पहुंचकर हार गए अन्यथा यदि यह खिलाड़ी भी पदक जीत लाते तो देश के पदकों की संख्या लगभग दोगुनी हो सकती थी। पदक से चूकने वाले खिलाड़ियों में हरियाणा के ही युवा निशानेबाज मनु भाकर, सौरभ चौधरी, पहलवान विनेश फ़ोगाट जैसे नाम शामिल हैं। महिला हॉकी टीम जो पदक से बाल बाल चूक गयी उसमें भी अकेले हरियाणा राज्य की 9 बेटियां शामिल थीं। इनमें में कप्तान रानी रामपाल तो इस राज्य की थी हीं साथ ही सविता पूनिया जो ‘हॉकी की दीवार’ के नाम से प्रसिद्ध हो चुकी हैं वह भी  हरियाणा की ही बेटी हैं । हरियाणा के ही साक्षी मलिक, सुशील कुमार, विजेंद्र कुमार, गीता व बबीता फोगाट जैसे अनेक खिलाड़ी इससे पूर्व भी अपनी प्रतिभाओं का लोहा मनवाकर राष्ट्र का नाम रोशन कर चुके हैं। अब टोक्यो ओलम्पिक में एक बार फिर हरियाणा के खिलाड़ियों के शानदार व गौरवपूर्ण प्रदर्शन के बाद यह चर्चा होने लगी है कि जब देश के सबसे छोटे राज्यों में गिना जाने वाला हरियाणा जैसा अकेला राज्य ओलम्पिक में इतना शानदार प्रदर्शन कर सकता है फिर आख़िर उत्तर प्रदेश,बिहार,मध्य प्रदेश,महाराष्ट्र जैसे और भी कई बड़े राज्य अंतर्राष्ट्रीय खेलों व एथेलीट प्रतियोगिताओं में क्यों पीछे रह जाते हैं ? हरियाणा की गिनती अन्न उत्पादन के क्षेत्र में भी पंजाब के बाद दूसरे नंबर पर होती है। इतना ही नहीं बल्कि यह देश का वह गौरवशाली राज्य भी है जिसके अधिकांश किसानों के बच्चे देश की सरहद के प्रहरी के रूप में भारतीय सेना में अपनी सेवाएं दिया करते हैं और ज़रूरत पड़ने पर अपनी शहादत भी पेश करते हैं ।                                                                          लगभग मृत प्राय हो चुकी भारतीय हॉकी की वह टीम जिसके प्रदर्शन से दुनिया घबराती थी उसे प्रोत्साहित करने का ‘ज़ोखिम’ उठाने के लिये कोई राज्य तैयार नहीं। जबकि हरियाणा में हॉकी के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर के प्रशिक्षण की पूरी सुविधा उपलब्ध है। उधर इस बार उड़ीसा के मुख्य मंत्री नवीन पटनायक ने भी भारतीय हॉकी टीम को प्रायोजित करने का बीड़ा उठाया इसका परिणाम सामने है कि भारतीय महिला हॉकी टीम को जहां हरियाणा ने 9 खिलाड़ी दिये वहीं पुरुष हॉकी टीम ने भी गत वर्षों की तुलना में अच्छा प्रदर्शन किया। हरियाणा के खिलाड़ियों की सफलता के पीछे उनके सांस्कारिक खान पान का भी योगदान है। यहाँ ग़रीब से ग़रीब किसान परिवार का व्यक्ति अपने घरों में दुधारू पशु पालने की कोशिश अवश्य करता है। व्यवसाय के लिये कम परिवार के खान पान के लिये अधिक। हरियाण-पंजाब में शहरों में भी दूध-घी-दही-लस्सी-मट्ठा आदि खाने पीने का ख़ूब चलन है। यही वजह है कि भारत में हरियाणा राज्य ‘जय जवान’ -‘जय किसान’ ही नहीं ‘ओलम्पिक पदकों  का भी सिरताज’ भी बना है।

ब्राह्मणत्व को जाति में ढ़ालनेवाले

—विनय कुमार विनायक

ब्राह्मणत्व को जाति में ढालने वाले,

अभिजात वर्ग के अधिकारी!

क्या तुम इसकी परिधि में समा जाते

अगर ब्राह्मण में द्विजत्व की

पराकाष्ठा का अमृतत्व है,

तो लघुता का विष,पतितों का अस्तित्व

और शूद्रत्व का हलाहल भी है!

जिसे मुश्किल हैतुम्हें पचा जाना!

तुम महारस पायी देव हो!

क्षुद्रता के रसपान से

तुम्हारी हाजमा शक्ति बिगड़ जाती!

फिर हलाहल का हलचल,

तुम्हें अस्तित्वहीन कर देगा,

उसे तो कोई शंकर ही पी सकता है!

हां शंकर या घोषित वर्णसंकर

जिसे ना उच्चता का गर्व

और ना गिरने का डर!

दुर्भाग्य कि तुम शंकर नहीं हो!

किंतु घोषित वर्णसंकर जिसकी उद्घोषणा तो

ईमानदार पूर्वजों ने बार-बार की है

क्या तुम्हें पता नहीं था

कि ब्राह्मणत्व की आभा

गणिकगर्भ से निकलकर

अक्षत यौवना की कुक्षिद्वार तक पहुंची थी!

अक्षत यौवना भी क्या

आज की तथाकथित सवर्ण जाति

या ब्राह्मण वर्ग की कुमारियां?

कदापि नहीं, दासी अक्षमाला,

स्वपाकीकुमारिकाया धीवरवाला!

हे तथाकथित सवर्ण केलाल!

कुवर्ण श्वपाक्यास्तुपराशरः

या किविवर्ण व्यासास्तुकैवर्त्या की

परंपरा के ब्रह्मणत्व के उत्तराधिकारी!

जब हमसब सवर्ण,असवर्ण,

हरिजन, आदिवासीसभी मनु पुत्र हैं!

मानव जन हैं!

फिर क्यों?

अभिजात भेड़िए की खाल पहनकर

सबके हिस्से की अमृतधार को

खुद पी लेते हो?

और विष पिछड़े सर्वहारा की झोली में,

डाल देते हो!

अवर्ण!कुवर्ण!विवर्ण!

वर्णसंकर!शूद्दर!कहकर!

भारत में वेटिकन के नेतृत्व में दलित चर्च क्यों बनाया जाए ?

अब स्वाभाविक रूप से सवाल उठता है कि अगर वर्तमान में वेटिकन भारतीय कैथोलिक चर्च में सुधार करने और उसे मानवतावादी विचारधारा में ढालने में विफल रहा है, तो क्यों न उसे कराेड़ाें धर्मान्तरित ईसाइयों की आस्था से विश्वासघात करने के लिए कटघरे में खड़ा किया जाए। ईसाइयत जब हर प्रकार के भेदभाव, जाति और नस्ल काे नकारते हुए मसीहियत में सभी काे समान मानती है तो फिर भारत में वेटिकन के नेतृत्व में दलित चर्च क्यों बनाया जाए ? कहीं ऐसा तो नहीं कि हिंदू दलितों में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए इस कार्य योजना काे आगे बढ़ाया जा रहा है।

तमिलनाडु के दलित ईसाई संगठनों ने भारत में एक नया चर्च शुरू करने का प्रस्ताव रखा है। उनकी पीड़ा है कि कैथोलिक चर्च में दलित ईसाइयों के खिलाफ जातिवाद और भेदभाव को समाप्त करने की उनकी मांग पर ध्यान नहीं दिया जा रहा। पिछले साल 5 सितंबर 2020 काे आयोजित एक ऐसी ही बैठक में दलित कैथोलिक नेताओं ने कहा था कि अगर वेटिकन ने दलित पादरियाें की उपेक्षा करने वाले बिशप चुनने की भेदभावपूर्ण प्रक्रिया को तुरंत नहीं हटाया, तो हम अपने खुद के भारतीय दलित कैथोलिक चर्च या भारतीय दलित कैथोलिक संस्कार (संप्रदाय) की घोषणा कर सकते हैं। 

इस विचार को लागू करने के लिए इसी साल 4 अगस्त को एक प्रस्ताव रखा गया था, कि नवगठित भारतीय दलित कैथोलिक संस्कार (संप्रदाय) वेटिकन या पोप के प्रत्यक्ष शासन के तहत ही कार्य करेगा। लेकिन इसके पहले नेशनल कौंसिल ऑफ दलित क्रिश्चियन (NCDC) के संयोजक, फ्रैंकलिन सीजर थॉमस ने कहा था, कि “नया चर्च भारतीय कैथोलिक चर्च के जातिवादी नेतृत्व से दलित कैथोलिक ईसाइयों को अलग करेगा।”

अब स्वाभाविक रूप से सवाल उठता है कि अगर वर्तमान में वेटिकन भारतीय कैथोलिक चर्च में सुधार करने और उसे मानवतावादी विचारधारा में ढालने में विफल रहा है, तो क्यों न उसे कराेड़ाें धर्मान्तरित ईसाइयों की आस्था से विश्वासघात करने के लिए कटघरे में खड़ा किया जाए। ईसाइयत जब हर प्रकार के भेदभाव, जाति और नस्ल काे नकारते हुए मसीहियत में सभी काे समान मानती है तो फिर भारत में वेटिकन के नेतृत्व में दलित चर्च क्यों बनाया जाए ? कहीं ऐसा तो नहीं कि हिंदू दलितों में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए इस कार्य योजना काे आगे बढ़ाया जा रहा है।

स्वाभाविक है कि जब नवगठित भारतीय दलित कैथोलिक पोप के प्रत्यक्ष शासन के तहत ही कार्य करेगा, तो उसे खड़ा करने में वेटिकन निवेश भी करेगा। नया संगठनात्मक ढांचा, नए चर्च, डायसिस और कई तरह के सामाजिक -अनुसंधान संगठन बनाने का भी काम करेगा। जाहिर है कि इसमें पादरियों और बिशप की नियुक्ति भी सीधे तौर पर वेटिकन के पास ही रहेगी। फिर क्यों न माैजूदा कैथोलिक चर्च में डाइवर्सिटी काे लागू कर धर्मान्तरित ईसाइयों काे उचित भागीदारी दी जाए।

दलित कैथोलिक चर्च का विचार दलित ईसाइयों के साथ किसी विश्वासघात से कम नहीं है, जिसका लाभ कम नुकसान ज्यादा दिखाई दे रहा है। अगर भविष्य में कभी किसी षड्यंत्र के तहत ऐसा हाेता है ताे उस से धर्मान्तरित ईसाइयों काे क्या लाभ ? कैथोलिक चर्च में दलित ईसाइयों की संख्या 50 प्रतिशत से भी ज्यादा है, इसलिए यह दलित चर्च ही है। भारत में सदियों से ऊंच-नीच, असमानता और भेदभाव का शिकार और सामाजिक हाशिए पर खड़े करोड़ों दलितों ने चर्च / क्रूस को चुना है लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि चर्च उनके जीवन स्तर को सुधारने की जगह अपने साम्राज्यवाद के विस्तार में व्यस्त है।

कैथोलिक चर्च के विशाल संसाधनों का लाभ दलित ईसाई इसलिए नहीं उठा पा रहे, क्योंकि वह चर्च के चक्रव्यूह में फँस गए हैं। ईसाई समाज में सामाजिक आंदोलन नहीं के बराबर है। धर्मान्तरित ईसाई पिछली कई शताब्दियों से चर्च के लिए अपना खून -पसीना बहा रहे हैं, और बदले में चर्च नेतृत्व से उन्हें मिला क्या? एक षड्यंत्र के तहत कैथोलिक बिशप कॉन्फ्रेंस ऑफ इंडिया और नेशनल काउंसिल फार चर्चेज इन इंडिया ने वर्ल्ड चर्च काउंसिल, वेटिकन और कई अंतरराष्ट्रीय मिशनरी संगठनों के सहयोग से पिछले पचास वर्षों से धर्मान्तरित ईसाइयों काे अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करवाने का तथाकथित आंदोलन चला रखा है।

एक तरफ वह हिंदू दलितों काे अपने बाड़े में ला रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ वह इनके ईसाइयत में आते ही उन्हें दोबारा हिंदू दलितों की सूची में शामिल करने की मांग करने लगते हैं, अगर उन्हें अनुसूचित जातियों की श्रेणी में ही रखना है तो फिर यह धर्मांतरण के नाम पर ऐसी धोखाधड़ी क्यों ? आधे से ज्यादा अपने अनुयायियों को अनुसूचित जातियों की श्रेणी में रखवा कर वह इनके विकास की ज़िम्मेदारी सरकार पर डालते हुए हिन्दू दलितों को ईसाइयत का जाम पिलाने का ताना-बाना बुनने में लगे हुए हैं।

कैथोलिक बिशप कॉन्फ्रेंस ऑफ इंडिया और नेशनल काउंसिल फार चर्चेज इन इंडिया के इस एजेंडे का खुला समर्थन कांग्रेस, वामपंथी, उतर और दक्षिण भारत की कई राजनीतिक पार्टियां करती है। वह समय – समय पर चर्च की इस मांग काे हवा देते रहते हैं और बदले में दलित ईसाइयों का वोट उन्हें थोक में मिलता रहता है। इस पूरे मामले में चर्च और समर्थन करने वाले राजनीतिक दल फायदे में हैं, नुकसान केवल दलित ईसाइयों का हो रहा है। चर्च के इस एक ऐजडें के चलते ईसाइयत में काेई सुधारवादी आंदोलन खड़ा नहीं हो पा रहा। यहां तक कि धर्मान्तरित ईसाइयों की हर समस्या का इसे एकमेव हल बताया जा रहा है।

यह सच है कि वे इन समुदायों की जातिवादी व्यवस्था से विद्रोह कर ईसाइयत में आए हैं, लेकिन उससे भी बड़ा सच यह है कि वर्तमान में उनका गैर-ईसाई दलितों के साथ कोई खास रिश्ता नहीं रहा। यहां तक कि उनकी पूजा-पद्धति, प्रतीक, रहन-सहन और जीवन जीने का ढंग सब बदल गया है। उनकी समस्याओं और तकलीफों को गैर-ईसाई दलितों के समान नहीं देखा जा सकता।

कैथोलिक चर्च ने 2016 में अपने ‘पॉलिसी ऑफ दलित एम्पावरमेंट इन द कैथोलिक चर्च इन इंडिया’ रिपोर्ट में यह माना,  कि चर्च में दलितों से छुआछूत और भेदभाव बड़े पैमाने पर मौजूद है इसे जल्द से जल्द खत्म किए जाने की जरूरत है। हालांकि इसकी यह स्वीकारोक्ति नई बोतल में पुरानी शराब भरने जैसी ही है। क्योंकि यहां भी वह इसका एकमेव हल धर्मान्तरित ईसाइयों काे हिंदू दलितों की श्रेणी में रखने काे ही मानता है। 

दरअसल पिछले सात दशक से चर्च ने धर्मान्तरित ईसाइयों के लिए विकास का कोई मॉडल ही नहीं अपनाया, उसने उन्हें अपने साम्राज्यवाद के विस्तार में औज़ार की तरह इस्तेमाल किया है। आज ईसाई युवाओं में सामाजिक एवं राजनीतिक मामलों काे लेकर काेई जागरूकता नहीं है। चर्च लीडर युवाओं के बीच सामाजिक एवं राजनीतिक दर्शन काे नहीं रख पा रहे है, केवल चर्च दर्शन से अवगत करा रहे है। इस कारण ही बड़ी संख्या में ईसाई युवा स्वतंत्र धार्मिक प्रचारक बन रहे हैं।

इस कारण तेजी से छाेटे – छाेटे चर्च भी खड़े हो रहे हैं, ऐसे छाेटे- छाेटे स्वतंत्र चर्चो  के पीछे एक पूरा अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क काम करता है, हाल ही में उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों के अधिकतर चर्च तनाव के चलते बंद हाे गए थे  या करवा दिए गए, इन  बंद कराए गए चर्चों को दोबारा खुलवाने के लिए अमेरिकी दूतावास आगे आया और उसने बंद पड़े सभी चर्च फिर से खुलवा दिए। स्वतंत्र चर्च कुकुरमुत्ते की तरह उगते जा रहे हैं।

इनमें प्रचार करने के लिए अंतरराष्ट्रीय ईसाई संगठन बड़ी संख्या में विदेशी नागरिकों विशेषकर युवाओं काे भेजते हैं जिसका स्थानीय कलीसिया पर गहरा प्रभाव पड़ता है। विदेश से आने वाले अनेक भारत काे ही अपनी कर्मभूमि मानकर यही रह जाते हैं। ओडिशा के ग्राहम स्टेंस और ग्लैडिस स्टेंस भी ऐसे ही मिशनरी थे (ग्राहम स्टेंस और उसके बच्चों के साथ जो अमानवीय कृत्य हुआ उसकी काेई भी सभ्य समाज इजाज़त नहीं देता ) श्रीमती ग्लैडिस स्टेंस अपने अनुभव में लिखती हैं कि 1981 में ऑपरेशन मोबिलाइजेशन के तहत जब वह पंजाब, बिहार, ओडिशा की गाँव – गाँव की यात्रा कर रही थी, तभी ओडिशा में उनकी मुलाकात ग्राहम स्टेंस से हुई थी, हालांकि ऑस्ट्रेलिया में उन दोनों के घर तीस कि.मी. की दूरी पर ही थे, पर वह वहां कभी नहीं मिले थे।

भारत में जिस तेजी से छाेटे – छाेटे चर्च खड़े किए जा रहे हैं,  वह कुछ- कुछ चीनी मॉडल जैसा ही है। चीन में ईसाई धर्म प्रचार करने पर पाबंदी है, वहां बड़े चर्च सरकारी नियंत्रण में काम करते है। ऐसे चर्च धर्म परिवर्तन पर काेई जोर नहीं देते। अपना संख्या बल बढ़ाने के मकसद से मिशनरी सरकार से छिप कर घर कलीसियाएं चलाते है।

परंतु भारत में ऐसी काेई बात नहीं हैं, यहाँ मेन-लाइन के लाखाें चर्च है। जिन्हें धर्म प्रचार करने, अंतरराष्ट्रीय मिशनरियों से जुड़े रहने व सहायता पाने और देश में अपने संस्थान चलाने की पूरी स्वतंत्रता है। इसके बावजूद अगर स्वतंत्र चर्च कुकुरमुत्ते की तरह उगते जा रहे हैं, तो इस पर अवश्य ही विचार करने की जरूरत है। क्योंकि यह भारतीय ईसाइयों के हित्त में भी नहीं हैं।

भारतीय दलित कैथोलिक चर्च का विचार दलित ईसाइयों की संघर्ष क्षमता काे ही कम करेगा। अलग चर्च क्यों बनाया जाए,  पलायन का रास्ता क्यों ? जबकि वर्तमान में उनकी संख्या ज्यादा है, अलग चर्च बनाने से होगा क्या ? घूम फिर कर नया चर्च भी अपनी संख्या बल बढ़ाने के खेल में लग जाएगा।

जहां तक दलित ईसाइयों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने का सवाल है, इस पर आज के दिन भारतीय राजनीति में कोई सुगबुगाहट नहीं है। देश के उच्चतम न्यायालय ने इस मुद्दे को केंद्र सरकार पर छोड़ दिया है। जाति के आधार पर ईसाइयों को नहीं बाँटा जाना चाहिए, बल्कि उनके कल्याण के लिए ऐसे समाधान खोजे जाएं जिनमें जाति-विहीन सिद्धांत का आधार तो बना ही रहे, आर्थिक रूप से पिछड़े ईसाइयों को भी लाभ हो। इसके लिए चर्च अपने विशेष अधिकारों के तहत चलाए जा रहे संस्थानों में डायवर्सिटी को लागू करे।

आर एल फ्रांसिस

आदिवासी नहीं कोई जाति यह एक अवस्था है

—विनय कुमार विनायक
आदिवासी नहीं कोई जाति यह एक अवस्था है,
आदिवासी जनजातिकीअवस्था से
हर नस्लवर्णजातिवर्गकोगुजरना होता है!

आज की वर्तमानवर्णाश्रमी जाति
कल कबिलाईआर्यआदिवासी जनजातिथी!

एक समय में अनेक आदिवासी जनजाति होसकती,
वर्णाश्रमी जातियों जैसीसमकालीन
आदिवासी जनजातियों मेंसमानता नहीं होती!

आज भारतीय आदिवासी हैं
संथाल,पहाड़िया, मुंडा, उरांव,हो,कोल,भील,
किरात,खरबार, मीना आदिजनजाति,
जो आपस में तनिक मेल नहीं खाती!

खरबार,मीना, मुंडा जनजाति का रीति रिवाज
मिलता है वर्णाश्रमीहिन्दू समाज से
वो छठ आदि सारे हिन्दू के व्रत पालन करते!

संथाल और पहाड़िया आदिवासी में मेल नहीं,
एकआदिवासी की बोली दूसरे से मिलती नहीं!

हर आदिवासी का अपना अलग संगठन होता,
कुछ आदिवासियों का अपना आदिम धर्मभीहोता,
अधिकांशआदिवासियों काधर्महिन्दू हीहोता!

मीनाअपना उद्भव मीनावतार भगवान विष्णु से मानते,
मीना जनजाति की कद काठी आर्य क्षत्रियों जैसी आकर्षक होती
मीनाब्राह्मणसे अधिक शुद्ध, शाकाहारी, सात्विकहोते!
मीना का निवासप्राचीनमत्स्यदेश संप्रति भरतपुर राजस्थान है,
अभिमन्यु केश्वसुरमत्स्यराज विराट मीना जाति के पूर्वज थे!

एक आदिवासीको दूसरे आदिवासी से सहानुभूति नहीं होती,
आजभिन्न भिन्नआदिवासियों में अगर एकता है
तो उनके अनुसूचित जनजातियों मेंआरक्षित होने की वजह से!

पूर्व मेंविदेशी शासकों द्वारा क्रूरतापूर्वकप्रताड़ित जातियों को
सरकार द्वाराचिन्हित करजनजातिकीदर्जा दी जाती
अस्तु आदिवासी नहीं कोई जाति, वहजनजातिअवस्था है!

सात मनुओं का काल कहलाता है सात मन्वन्तर

—विनय कुमार विनायक
सात मनुओं का काल कहलाता हैसात मन्वन्तर,
पहला मनु स्वायंभुव, फिरस्वारोचिष,उत्तम,तामस,
रैवत,चाक्षुष औरवैवस्वत मनु का यह मन्वन्तर!

स्वायंभुव मनु से चाक्षुष मनु तक सभी मनु थे
प्रथमस्वायंभुव मनु और शतरुपा के ही वंशधर!

चाक्षुष मनु के काल में हुआ था महा जल प्रलय
और पूरी मनुर्भरती संस्कृति का हो गया था लय!

अबकथा हैवैवश्वत मनु केवर्तमान मन्वंतर का
ब्रह्माके मानस पुत्र सप्त ऋषियों के वंशधर का!

ब्रह्मा केदैहिकपुत्रदक्ष प्रजापतिऔरवीरणीकी
पचास पुत्रियांकहलातीहैसृष्टि कीआदि माताएं!

जिनमें तेरह बहनें ब्याही गईब्रह्मा केमानसपुत्र
मरीचि तनय कश्यप ऋषि से,जिनके वंशधरसारे
आदित्य-देव-मानव-आर्य,अनार्य-नाग-दैत्य-दानवादि
आदिवासी;सबथे आपसी मौसेरे दायाद बंधु-बांधव!

कश्यप-अदिति की संततिकहलाती थीआदित्यदेव,
कश्यप-दिति केवंशधरसारेकहलाने लगे थेदैत्य,
कश्यप-दनु के पुत्र हीबन गएथेपौराणिकदानव!

ऐसे ही तेरहो बहनों की संततियों को मिल गई थी
अपनी-अपनीमातासे अलग-अलगजातिगतनाम,
परसबके पिता एकहीथे,वेकश्यपऋषिमहान,
सभीकहलाने लगेकाश्यपयाकश्यपवंशी संतान!

कश्यप ऋषि के नाम पर है एक कैस्पियन सागर,
जम्बूद्वीपभारतकाहै जम्मू-कश्मीर राज्य नगर!

पिता एक माता अनेक, मातृसत्तात्मकव्यवस्था में
माता की संज्ञा से उनकी बनी थी आदिमपहचान!

अदिति के पुत्र आदित्यदेवोंऔरदिति-दनुके पुत्रों;
दैत्य-दानवों के बीचहो गई थीआपसीशत्रुता भारी,
आदित्यबन गएथे देव, दैत्य-दानव बन गए असुर,
इन दोनोंके बीचमच गयाथाबारहदेवासुर संग्राम,
देवहैंइन्द्र,वरुण,मित्र,अग्नि,वायु, विष्णुभगवान!

दैत्यहिरण्यकशिपु,हिरण्याक्ष,प्रहलाद,बलि,विरोचन,बाण
और दानव शम्वर,तारक,वृषपर्वा, विप्रचित्तिथेमहान!

स्वर्ग लोककी लड़ाई आज धरती तक चली आई है,
स्वर्गलोक में रहतेथे देव,नाग,यक्ष, गंधर्व, किन्नर!

अदिति के श्रषि कश्यप से जन्मे थे बारह आदित्य,
अष्ट वसु, औरग्यारह रुद्र,ये सभी देव कहलाते थे!

नाग,यक्ष,गंधर्व,किन्नरजातियां देवों की सहायक थी,
देवलोक,नागलोक,यक्षलोक,गंधर्वलोकवकिन्नरलोक
हिमालय केइसपार,उसपार,कैश्पियन सागरतकफैले,
नन्दन-कानन, कैलाश-मानसरोवर, कश्मीर, अलकनंदा,
लद्दाख, तिब्बत,गांधार,अलकापुरी,पुष्कलावतीतक
सब मिलकर बृहत्तर भारत का स्वर्गराज कहलाता था!

देवराज इन्द्र, नागनाथ शिव,यक्ष-किन्नरराज कुबेर!
आज भीबैरी नाग, शेषनाग, कश्मीर का अनंतनाग
शिव के नाग वंशियोंकेआदिनिवास को बतलातेहैं!

गंधर्व लोक की राजधानी पुष्कलावतीवह रणक्षेत्र है
जहां देवता और असुर देवासुर संग्राम लड़ा करते थे!

अशोक का शिलालेख है उस लाहुल यानि कुल्लू में,
जहां शकदेशी राक्षस-पिशाच भारतीय देवों से हारके
‘लाहौल विला कुब्बत’ कहकर भाग जाया करते थे!

आज भी इन्हीं क्षेत्रों मेंचल रही है वर्चस्व कीलड़ाई,
धर्म बदल गए हैं सबके, पर सब हैंएक गोत्रजभाई!
स्वर्गलोक की लड़ाई आज धरती तक ऐसे उतर आई!

कोरोना काल में शिक्षा के स्तर में गिरावट हुई है

मनोहर लाल

जैसलमेर, राजस्थान

सभी बच्चों में गुणवत्तापूर्ण स्कूली शिक्षा को एक समान और समावेशी बनाने के उद्देश्य से केंद्र सरकार ने समग्र शिक्षा योजना के विस्तार को मंज़ूरी दे दी है। इसके तहत कैबिनेट ने तक़रीबन तीन लाख करोड़ रूपए खर्च को भी स्वीकृति दी है। इसे समग्र शिक्षा योजना 2.0 का भी नाम दिया गया है। इस योजना के तहत प्रस्तावित स्कूली शिक्षा के बुनियादी ढांचे के विकास, मूलभूत साक्षरता, समान, समावेशी और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, नवाचार तथा डिजिटल पहल जैसे प्रमुख उद्देश्य शामिल हैं। योजना की ख़ास बात यह है कि इसके तहत अब निजी विद्यालयों की तरह सरकारी स्कूलों में भी प्ले स्कूल खोले जायेंगे।

दरअसल इस योजना के विस्तार के तहत स्कूलों में ऐसा समावेशी वातावरण तैयार करने पर ज़ोर दिया गया है, जो विविध पृष्ठभूमियों, बहुभाषी ज़रूरतों और बच्चों की विभिन्न अकादमिक क्षमताओं का ख्याल रखता हो। इसके साथ साथ बालिकाओं की मदद, सीखने की प्रक्रियाओं की निगरानी और शिक्षकों की क्षमता के विकास और उनके प्रशिक्षण पर विशेष ज़ोर देना है। माना जा रहा है कि यह योजना न केवल शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने में कारगर सिद्ध होगा बल्कि भविष्य में छात्रों को रोजगारोन्मुख भी तैयार करने में महत्वपूर्ण होगा। 

भविष्य की योजना को लेकर तैयार किए गए इस पॉलिसी से कितना फायदा होगा, यह भविष्य के गर्त में छिपा हुआ है। लेकिन वर्त्तमान परिस्थिति अर्थात कोरोना काल में देखा जाये तो ऐसा लगता है कि शिक्षा की नीति को एक बार और दिशा देने की ज़रूरत है। विश्व में फैली महामारी कोविड-19 के कारण एक तरफ जहां लोगों का सामान्य जनजीवन प्रभावित हुआ है वहीं दूसरी ओर शिक्षण व्यवस्था पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। विशेषकर देश के ग्रामीण और दूर दराज़ क्षेत्रों की बात की जाए तो यह प्रतिकूल प्रभाव और भी गहरा नज़र आता है। बच्चे न केवल गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से वंचित होकर रह गए हैं बल्कि बिना पढ़े औसत अंकों के आधार पर उन्हें अगली कक्षा में प्रवेश देने की प्रक्रिया के कारण उनकी बौद्धिक क्षमता भी प्रभावित हो रही है।

देश के अन्य राज्यों की भांति राजस्थान भी इस प्रक्रिया से अछूता नहीं है। राज्य में लॉकडाउन के बाद से ही सभी शिक्षण संस्थाएं (निजी व सरकारी विद्यालय) पूरी तरह से बंद हैं। विद्यार्थियों को ऑनलाइन शिक्षा दी जा रही है, लेकिन इसका प्रभाव ऑफलाइन यानी स्कूल में क्लास के माध्यम से दी जाने वाली शिक्षा की तुलना में कई गुना कम साबित हो रहा है। भारत-पाक सीमा पर स्थित जैसलमेर जिले की बात करे तो यहां की भौगोलिक परिस्थितियां बहुत ही विषम हैं। शिक्षा के क्षेत्र में यह राज्य के अन्य जिलों की तुलना में अधिक पिछड़ा हुआ है। वहीं कोरोना महामारी और उसके बाद लगातार हो रहे लॉकडाउन के कारण भी जैसलमेर जिला शिक्षा के क्षेत्र में और भी पीछे हो गया है। आर्थिक रूप से भी अति पिछड़ा होने के कारण यहां ऑनलाइन शिक्षा प्राप्त करने के लिए विद्यार्थियों को अनेकों समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

जैसलमेर जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकांश अभिभावकों के पास एंड्राइड फ़ोन नही है। यदि गिने-चुने अभिभावकों के पास मोबाइल फ़ोन है तो ग्रामीण क्षेत्रों में मोबाइल टॉवर एक बड़ी समस्या है। वहीं दूसरी ओर अभिभावकों की आर्थिक स्थिति दयनीय होने के कारण कई बार वह रिचार्ज करवा पाने में भी सक्षम नहीं होते हैं। इसके अतिरिक्त ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली की समस्या भी अधिक रहती है, जिससे वह अपना मोबाइल फोन चार्ज भी नहीं कर पाते हैं। यह वह प्रमुख समस्याएं हैं जिसके कारण ग्रामीण क्षेत्रों में निवास कर रहे विद्यार्थियों के लिए ऑनलाइन शिक्षा प्राप्त करना कठिन हो जाता है। ऐसा नहीं है कि छात्रों को होने वाली इन कठिनाइयों से शिक्षा विभाग अवगत नहीं है, लेकिन इसके बावजूद इन्हें दूर नहीं करने का उसका प्रयास उसकी उदासीनता को दर्शाता है।   

छात्रों को अगली कक्षा में प्रोन्नत करने से पहले परीक्षा आयोजित की जाती है। जिसके माध्यम से उनकी बौद्धिक क्षमता का मूल्यांकन किया जाता रहा है। लेकिन इस कोरोना काल के कारण राज्य में कक्षा एक से बारह तक अध्ययन कर रहे समस्त विद्यार्थियों को बिना परीक्षा के ही अगली कक्षा में प्रमोट कर दिया गया है। वहीं बोर्ड का परिणाम भी ऐसे ही जारी किया गया जिसमें कोई भी बच्चा फेल नहीं हुआ, अर्थात सभी विद्यार्थियों को अच्छे अंकों के साथ पास किया गया जिससे  राज्य के कई स्कूलों का पिछले कई वर्षों का रिकॉर्ड भी टूट गया। माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान द्वारा 10वीं व 12वीं कक्षा का परिणाम घोषित किया गया। बोर्ड के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि जिसमे बोर्ड का नतीजा 99 प्रतिशत रहा। यह परिणाम अपने आप में एक ऐतिहासिक परिणाम है और सभी छात्र-छात्राओं, गुरुजनों, माता-पिता द्वारा एक दूसरे को बधाई दी जा रही है।

लेकिन प्रश्न यह उठता है कि क्या यह बधाई वास्तविक है या कोरोना की देन है? जिस प्रकार ऑफलाइन अध्ययन बंद होने के बाद ऑनलाइन अध्ययन द्वारा छात्रों ने जो अंक हासिल किए हैं, क्या उसे वाकई में छात्रों की मेहनत का परिणाम कहा जाना चाहिए? ऑनलाइन कक्षाओं का हाल किसी से छुपा हुआ नहीं है। अधिकतर ऑनलाइन कक्षाओं में उपस्थिति 10 से 15 प्रतिशत रहती है। इसके बावजूद छात्र-छात्राओं द्वारा 99 प्रतिशत अंक हासिल करना कैसी उपलब्धि है? इस समय हमें यह मंथन करना है कि छात्रों के अंक प्राप्त करने से हमें खुश होना है या छात्रों को जो ज्ञान प्राप्त हुआ है वह अधिक ख़ुशी की बात है?

वर्तमान में शिक्षा एक ऐसे खतरनाक मोड़ पर आ चुकी है जिसके लिए हम सबको चिंतन करने की आवश्यकता है कि किस प्रकार छात्रों को गुणवत्तापूर्ण अध्ययन उपलब्ध कराई जाये, जिससे उनका पूर्ण रूप से बौद्धिक विकास हो, न कि केवल पास और फेल तक सीमित रह जाये? बिना पढ़े और बिना परीक्षा दिए अंक प्राप्त करने पर हम गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं जबकि यह एक छलावा मात्र है। इससे विद्यार्थी अगली कक्षा में प्रवेश तो पा रहे हैं और उनका साल भी बर्बाद नहीं हो रहा है, लेकिन इससे कहीं न कहीं शिक्षा के प्रति उनकी गंभीरता को ख़त्म कर रहा है। हालांकि एक भी बच्चा का फेल नहीं होना अच्छी बात है, लेकिन शैक्षणिक उत्थान की दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह रिकॉर्ड एक चिंता का विषय बन जाता है। हमें यह सोचना चाहिए कि यह अंक सिर्फ काल्पनिक है, स्कूलों द्वारा फीस प्राप्त करने एवं सरकार द्वारा कोरोना से निपटने का एकमात्र साधन है। 

ज़रुरत है कोरोना के इस दौर में भी एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था तैयार करने की, जिसमें विद्यार्थियों में सीखने की क्षमता को बढ़ाया जा सके। यदि डिजिटल तकनीक के माध्यम से हम ऑनलाइन शिक्षा उपलब्ध करा सकते हैं तो इसी ऑनलाइन माध्यम से ही बुनियादी ढांचे को मज़बूत करने की किसी योजना को मूर्त रूप क्यों नहीं दे सकते हैं? एक ऐसी योजना जिससे जैसलमेर के दूर दराज़ ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चे भी शिक्षा में समान और समावेशी भागीदारी निभा सकें? जिससे इस क्षेत्र भी अन्य ज़िलों की तरह ही शैक्षणिक पिछड़ापन को कम किया जा सके। 

ऋषि दयानन्द का निर्माण स्वामी विरजानन्द की शिक्षा ने किया

मनमोहन कुमार आर्य

                ऋषि दयानन्द विश्वदिग्विजयी ऋषि हैं। उन्होंने सभी मतों के आचार्यों को शंका समाधान, वार्ता तथा शास्त्रार्थ का अवसर देकर एवं साथ ही सभी मतों के आचार्यों की शंकाओं का समाधान कर तथा 55 से अधिक शास्त्रार्थों में विजयी होकर वह विश्व गुरु दिग्विजयी विद्वान् बने हैं। उन्होंने सत्यार्थप्रकाश रूपी जो अनूठा धर्मग्रन्थ लिखा वह भी उन्हें विश्व गुरु सहित दिग्विजयी बनाता है। ऋषि दयानन्द ने अपने इस विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ में वैदिक सिद्धान्तों मान्यताओं पर तर्क युक्तियों सहित प्रकाश डाला है और प्रायः सभी विषयों पर उठने वाली शंकाओं का समाधान किया है। उन्होंने संसार के सभी मतों की समीक्षा कर उनमें अविद्या के अंश को भी सभी लोगों के सामने रखा है। उनकी समीक्षायें अकाट्य हैं जिनका समाधान विभिन्न मत-मतान्तरों के आचार्य नहीं कर पाये हैं। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के लेखन और वेद प्रचार कार्यों का उद्देश्य सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों के आधार पर देश व संसार के लोगों को संगठित करना था जिससे सब मित्र-बन्धु-कुटुम्बियों की तरह संसार में रहते हुए एक दूसरे के दुःखों के निवारण तथा सुखों में वृद्धि करने में सहयोगी बन सकें। स्वामी दयानन्द जी को यदि समझना है तो उन्हें उनके सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, पत्र और विज्ञापन, वेदभाष्य, ऋषि जीवन चरित आदि ग्रन्थों के माध्यम से जाना जा सकता है। वह संसार में किसी मनुष्य या मत के विरोधी नहीं थे परन्तु सत्य के अवश्य ही साधक व प्रचारक थे। ईश्वर, जीव व प्रकृति का सत्यस्वरूप उन्होंने उपस्थित किया है। वह ईश्वर के सत्यस्वरूप की मनुष्यों द्वारा उपासना करने के प्रति दृण प्रतिज्ञ थे। उनका यह कार्य संसार के सभी कार्यों में सबसे महान प्रतीत होता है क्योंकि इससे मनुष्य का वर्तमान व शेष जीवन एवं मृत्यु के बाद का जीवन भी सुधरता व उन्नति को प्राप्त होता है।

                ऋषि दयानन्द को सद्ज्ञान से अलंकृत करने वाले उनके विद्यागुरु प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती, मथुरा थे। स्वामी विरजानन्द जी ने दयानन्द जी को केवल विद्यादान दिया अपितु उन्हें देशोपकार तथा विश्व में सत्य मत के प्रचार द्वारा सुख शान्ति का विस्तार करने की प्रेरणा करने वाले भी वही थे। स्वामी विरजानन्द जी का जन्म सारस्वत ब्राह्मण कुल में पिता श्री नारायणदत्त शर्मा के घर पर अग्रेजी वर्ष 1778 ईसवी अथवा विक्रम सम्वत् 1835 के उत्तरार्ध में पौष मास में हुआ था। स्वामी विरजानन्द जी का जन्म स्थान जालन्धर नगर के करतारपुर कस्बे का गंगापुर ग्राम है। बचपन में ढाई से छः वर्ष की अवस्था के बीच आपको शीतला रोग हुआ था जिससे आपकी नेत्रज्योति समाप्त प्रायः हो गई थी। विरजानन्द जी को उर्दू-फारसी के लेखन-पठन का सम्यक् ज्ञान था। ऐसा अनुमान किया जाता है कि विरजानन्द जी की नेत्र-ज्योति उनकी 6 वर्ष की अवस्था के कुछ वर्ष बाद नष्ट हुई थी। विरजानन्द जी के पिता संस्कृत के विद्वान थे। इन्होंने अपने पिता से ही संस्कृत का आरम्भिक ज्ञान प्राप्त किया था। पिता के देहान्त से पूर्व आपने अमर-कोष कण्ठस्थ कर लिया था। सारस्वत व्याकरण को हलन्त पुल्लिंग तक साधनिका सहित आप पढ़ चुके थे। यह भी अनुमान किया जाता है कि विरजानन्द जी ने घर पर कुछ पंचतन्त्र एवं हितोपदेश भी पढ़ा था। उन्होंने जब घर छोड़ा था तो वह संस्कृत-भाषण कर लेते थे। इस समय से ही इन्होंने संस्कृत को अपने व्यवहार की भाषा बना लिया था।

                विरजानन्द जी के पिता के देहान्त के स्वल्प काल बाद माताजी का भी देहावसान हो गया था। आयु के बारहवें वर्ष में वह अपने भाई भावज के आश्रित हो गये थे। भाईभावज को इनके प्रति कर्तव्यों का निर्वाह करने में किसी प्रकार का उत्साह नहीं था। स्वामी विरजानन्द जी के जीवनीकार पं0 भीमसेन शास्त्री लिखते हैं  कि भाईभावज के दुव्र्यवहार की मात्रा बढ़ती गई। विरजानन्द जी बचपन से ही तेजस्वी, आत्मगौरव के भाव से पूर्ण और उग्र प्रकृति के थे। भाईभावज के व्यवहार से कुपित दुःखी होकर विरजानन्द जी ने अपने ग्राम गंगापुर का त्याग कर दिया था और वह ऋषिकेश पहुंच गये थे। ऋषिकेश में आपने गंगा नदी में खड़े होकर लम्बी अवधि तक गायत्री मन्त्र का जप किया। तीन वर्ष ऋषिकेश में रहते हुए आपने गंगा नदी में खड़े होकर गायत्री जप आदि कार्य किये। एक दिन आपने रात्रि में स्वप्न देखा। स्वप्न में ‘आपने सुना कि कोई कह रहा है कि तुम्हारा जो होना था हो चुका। अब तुम यहां से चले जाओ।’ इसके बाद निद्रा भंग हो गई। आपने स्वप्न पर विचार किया और ऋषिकेश से हरिद्वार आ गये।

                हरिद्वार में आपने स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती जी से संन्यास आश्रम की दीक्षा ली और साधक युवक ब्रजलाल से स्वामी विरजानन्द बन गये। स्वामी विरजानन्द जी ने संवत् 1856 से 1868 तक 12 वर्ष काशी में निवास किया। काशी से आप धर्मनगरीगयापहुंचे और वहां संवत् 1868 से 1871 तक तीन वर्ष रहे। इसके बाद आप कोलकत्ता जाते हैं और यहां सम्वत् 1872 से 1878 तक लगभग 6 वर्ष तक रहते हैं। काशी आदि स्थानों पर आपने अपने अध्ययन का विस्तार किया। कोलकत्ता से आप हरिद्वार पहुंचे थे और वहां से सोरों आकर यहां ठहरे। हरिद्वार में आप अपने संन्यास गुरु स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती से भी मिले थे। ऐसा अनुमान किया जाता है कि पूर्णानन्द जी अपने शिष्य विरजानन्द जी की विद्या की उन्नति की बातें जानकर प्रसन्न एवं सन्तुष्ट हुए होंगे। स्वामी विरजानन्द जी सोरों से अलवर पहुंचे और वहां से पुनः सोरों आये। कुछ समय सोरों रुककर आप मथुरा आ गये जहां आपने सन् 1845 ईसवी में वह संस्कृत पाठशाला खोली जहां सन् 1860 में आकर स्वामी दयानन्द ने तीन वर्ष आपसे आर्ष व्याकरण एवं शास्त्रीय ग्रन्थों का अध्ययन किया था। मथुरा आने का कारण यह था कि यहां संस्कृत की अनेक पाठशालायें थी। 800 से 1200 बच्चे संस्कृत का अध्ययन करते थे। यहां अन्य स्थानों से अधिक योग्य विद्यार्थी उपलब्ध हो सकते थे। दानी महानुभाव भी यहां संस्कृत अध्यापन में सहायता देते थे। वह बालकों की पठन पाठन सहित भोजन के प्रबन्ध द्वारा सहायता करते थे। स्वामी विरजानन्द जी का लक्ष्य एक योग्य शिष्य प्राप्त करना व उसे अपनी समस्त ज्ञान-सम्पदा प्रदान करना भी था। यह सम्भावना उन्हें मथुरा में ही दिखाई दी थी। यहां आपके विद्याध्ययन काल के दो सहपाठी भी निवास करते थे जिनका आमंत्रण आपको प्राप्त होता रहता था। यही सब कारण मथुरा आकर पाठशाला खोलने व अध्यापन कराने की भूमिका बने थे।

                स्वामी दयानन्द जी योग्यतम गुरु स्वामी विरजानन्द जी के योग्य अपूर्व शिष्य थे। स्वामी दयानन्द जी के विरजानन्द जी के पास मथुरा पहुंचने की कथा का वर्णन हम पं0 भीमसेन शास्त्री के शब्दों में कर रहे हैं। इसमें स्वामी दयानन्द अपने परिवारजनों का वर्णन भी सम्मिलित है। स्वामी दयानन्द जी का जन्म टंकारा, मोरवी राज्य के वैभटदार श्री कर्षनजी तिवारी के घर फाल्गुन बदि 10 शनिवार, मूल नक्षत्र में (12-2-1825 को) हुआ था। इनका नाम मूलशंकर रखा गया था। मूलशंकर के पश्चात् इनसे दो वर्ष छोटी बहिन थी, उसकी विशूचिका से मृत्यु हो गई। मृत्यु का भयंकर दृश्य प्रथम बार देख, इनका मन सांसारिक जीवन से हट गया। भगिनी की मृत्यु के 3 वर्ष पश्चात् इनके सुहृद चाचा की मृत्यु ने इनके वैराग्य को अति दृढ़ कर दिया। इनका विवाह होने को था कि इससे कुछ दिन पूर्व सं0 1903 के प्रारम्भ में गृहस्थ-बन्धन से बचने के लिये यह घर से चले गये और योगियों को ढूंढते फिरे। सायला में नैष्ठिक ब्रह्मचारी बन ‘शुद्ध चैतन्य’ नाम पाया। कार्तिक स्नान के अवसर पर मूलशंकर सिद्धपुर पहुंचे। वहां इनके पिता ने इन्हें जा पकडा़ पर ये चौथी रात को फिर भाग गए। अनेक स्थानों पर विद्याग्रहण व राजयोग सीखते हुए सं0 1905 की ग्रीष्म ऋतु में चाणोद-करनाली में श्री पूर्णानन्द सरस्वती से संन्यास लिया और दयानन्द सरस्वती नाम पाया। छः मास तक दण्ड धारण कर विसर्जन कर दिया। वे स्थान-स्थान पर जाकर विद्याग्रहण व योग-साधना परायण रहे। सम्वत् 1910 के आरम्भ में चाणोदकन्याली में दो अच्छे योगी ज्वालानन्द पुरी तथा शिवानन्द गिरि मिले। इन्होंने स्वामी दयानन्द की परीक्षा कर इन्हें अधिकारी जान योग की उत्तम शिक्षा दी। इसके उपरान्त आबू पर्वत पर योगाभ्यास करके कुछ और भी योग तत्वों को प्राप्त करते हुए ये सं0 1911 के अन्त में हरिद्वार के कुम्भ मेले पर पहुंचे। संवत् 1912 में ज्ञान सम्पन्न योगियों व गुरुओं की खोज में केदारनाथ, बदरीनाथ आदि की यात्रा की। इस यात्रा में जोशीमठ के शंकराचार्य ने इन्हें हरिद्वार में स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती से पढ़ने की सम्मति दी। स्वामी दयानन्द उत्तराखण्ड के पर्वतों की यात्रा से लौटकर संवत् 1912 में लगभग 108 वर्ष के अतिवृद्ध स्वामी पूर्णानन्दजी के पास पहुंचे। वे अतिवृद्ध हो मौनी बन गये थे, पढ़ाते न थे। उन्होंने लिखकर दयानन्द को अपने शिष्य विरजानन्द जी के पास मथुरा जाने की प्रेरणा की।

                स्वामी दयानन्द संवत् 1917 कार्तिक शुक्ला 2 बुधवार (14-11-1860) को स्वामी विरजानन्द जी के शिष्य बने। उन्होंने इनसे व्याकरण वेदानन्तदर्शन का अध्ययन किया। व्याकरण के विशेष सूत्रों पर दार्शनिक चर्चायें काशी के कौमुदी के अध्यापन में भी आती हैं। इन चर्चाओं का भी विस्तारसंकोच गुरुशिष्य की योग्यतानुसार हो सकता है। जब विरजानन्द जैसे दार्शनिक गुरु थे, और दयानन्द जैसे दार्शनिक शिष्य थे, तो दर्शन के प्रायः सभी मार्मिक स्थलों की आलोचना व्याकरण व वेदान्त के अध्ययन में ही आ गई होगी। दयानन्द के बुद्धि-विकास में विरजानन्द का विशेष भाग था। विरजानन्द व दयानन्द का संयोग मणि-कांचन था। दोनों ने परस्पर संयोग से अपने जीवनों को सफल माना।

                विद्या समाप्ति पर, मुमुक्षुवय, अकिंचन दयानन्द सरस्वती गुरुदक्षिणानियमनिर्वाहार्थ लौंगे, गुरुदक्षिणा के रूप में लेकर उपस्थित हुए। विरजानन्द स्वछात्रों से गुरुदक्षिणा के रूप में कुछ लेते थे। वे बोले-‘‘दयानन्द, तुम्हारी यह भक्तिपूर्ण भेंट स्वीकार है, रख दो। पर इतने मात्र से गुरुदक्षिणा होगी। गुरुदक्षिणा में मुझे तुमसे कुछ और मांगना है, और वह तुम्हारे पास है भी। क्या तुम मेरी मांगी वस्तु मुझे दे सकोगे?’’ दयानन्द बोले-‘‘मेरा रोमरोम आपके आदेशार्थ समर्पित है। आप निःसंकोच आदेश करिये।देशदशा चिन्तित विरजानन्द ने कहा-‘‘दयानन्द! देश में घोर अज्ञान फैला हुआ है। स्वार्थी लोग जनता को पथभ्रष्ट कर रहे हैं। तुम इस व्यापक अन्धकार के निवारणार्थ सर्वात्मना प्रयत्न करो।दयानन्द ने ‘‘तथास्तुकहकर गुरु निर्देश को शिरोधार्य किया और सम्पूर्ण जीवन देशोद्धार में होम दिया। मोक्ष-प्राप्ति के स्थान में देशोद्धार मुख्य लक्ष्य बन गया। पं0 भीमसेन शास्त्री द्वारा लिखित यह कथा स्वामी दयानन्द जी के विद्याध्ययन एवं देश हित में वेदों के पुनरुद्धार व उनके प्रचार की इतिहास-कथा है। गुरु-शिष्य के सान्निध्य ने देश का अपूर्व कल्याण किया और देश धार्मिक दृष्टि से अनिश्चितता के वातावरण से बाहर आया और अब विश्वगुरु बनने के पथ पर अग्रसर है। स्वामी विरजानन्द जी का जीवन बहुआयामी था। उन्होंने अलवर नरेश को संस्कृत पढ़ाई थी। मथुरा की पाठशाला के लिये अलवर नरेश से आर्थिक सहायता भी प्राप्त होती थी। स्वामी विरजानन्द जी ने व्याकरणाचार्यों व पौराणिक मतों के आचायों से व्याकरण सम्बन्धी विषयों पर कई शास्त्रार्थ भी किये। देश के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम सन् 1857 में उनका गुप्त योगदान था, ऐसी चर्चा पढ़ने को मिलती है। स्थानाभाव से उन सबका उल्लेख सम्भव नहीं है। ईश्वर-भक्ति तथा आर्ष-ग्रन्थाध्ययन-अध्यापन की पवित्र साधना में अपना जीवन व्यतीत करते हुए नब्बे वर्ष की आयु में उदरशूल से पीड़ित रहते हुए संवत् 1925 आश्विन बदि 13, सोमवार (14-9-1868) को दण्डीजी ने मथुरा में अपनी विनश्वर देह का त्याग किया। स्वामी दयानन्द जी को जब यह समाचार शहबाजपुर में कार्तिक मास में मिला तो कहा जाता है कि वह इस वज्राहत समाचार को सुनकर स्तब्ध रह गये। कुछ देर बाद वह बोले ‘व्याकरण का सूर्य अस्त हो गया।’ उस दिन दयानन्द जी ने जल भी ग्रहण नहीं किया था, ऐसा बताया जाता है। स्वामी दयानन्द का निर्माण स्वामी विरजानन्द की शिक्षा व सान्निध्य की देन थी। इन दोनों महापुरुषों को सादर नमन है। दयानन्द जी के द्वारा वैदिक धर्म का पुनरुद्धार एवं रक्षा हुई है और देश का अपूर्व कल्याण हुआ है।

परम दयालु, कृपालु और हमारा हितैषी परमेश्वर

मनमोहन कुमार आर्य

      यदि हम विचार करें कि संसार में हमारे प्रति सर्वाधिक प्रेम, दया, सहानुभूति कौन रखता है, कौन हमारे प्रति सर्वाधिक सम्वेदनशील, हमारे सुख में सुखी दुःखी में दुखी, हमारे प्रति दया, कृपा हित की कामना करने वाला है, तो हम इसके उत्तर में अपने मातापिता, आचार्य और परमेश्वर को सम्मिलित कर सकते हैं। इसमें कहीं कोई अपवाद भी हो सकता है। हम जब इस प्रश्न पर विचार करते हैं तो हमें मनुष्य वा मनुष्य शरीर में निवास कर रही जीवात्मा का सर्वाधिक हितैषी जो इसे प्रेम करने के साथ इस पर मित्र भाव रखकर असीम दया कृपा करता है, वह सत्ता एकमात्र परमेश्वर ही है। अतः हमें उसके प्रति उसी के अनुरूप भावना के अनुसार प्रेम, मित्रता व कृतज्ञता का व्यवहार करना चाहिये। यदि ऐसा नहीं करेंगे, संसार में अधिकांश अज्ञान व अन्य कारणों से ऐसा ही करते हैं, तो हम कृतघ्न होंगे जिस कारण हमें जन्म-जन्मान्तरों में अपने इस मूर्खतापूर्ण आचरण व व्यवहार की भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। अतः हमें अपने इस जीवन में प्रतिदिन समय निकाल कर इस प्रश्न पर अवश्य विचार करने के साथ इसका समाधान खोजना चाहिये।

                पहला प्रश्न है कि ईश्वर हमारा परम हितैषी किस प्रकार से है? इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए हमें ईश्वर आत्मा के स्वरुप को जानना होगा। ईश्वर का स्वरूप हम आर्यसमाज के पहले दूसरे नियम को पढ़ समझकर जान सकते हैं। पहला नियम है किसब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सबका आदि मूल परमेश्वर है।दूसरा नियम है किईश्वर सच्चिदानन्दस्वरुप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकत्र्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है। पहले नियम में समस्त विद्या व समस्त सांसारिक पदार्थों, सूर्य, चन्द्र, पृथिवी व पृथिवीस्थ सभी पदार्थों, का आदि मूल परमेश्वर को कहा गया है। जहां तक विद्या का प्रश्न है, यह परमेश्वर में सदा सर्वदा अर्थात् अनादिकाल से विद्यमान है। इस विद्या का मनुष्यों के लिए जो उपयोगी भाग है उसे ईश्वर बीज रुप में चार वेदों के माध्यम से सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों द्वारा प्रदान करता है। वेदों के मन्त्रों में जो शब्द, अर्थ और सम्बन्ध हैं, उनका अर्थ व उदाहरणों सहित ज्ञान भी परमेश्वर उन ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को कराता है। अतः मनुष्यों को प्राप्त होने वाली समस्त विद्याओं का आदि मूल परमात्मा ही निश्चित होता है जिसका आधार वेद है। मनुष्य समय समय पर अपने ऊहापोह व चिन्तन मनन आदि कार्यों से उसका विस्तार कर उससे लाभ लेने के लिए नाना प्रकार के सुख-सुविधाओं के साधन आदि बनाते रहते हैं। हमें लगता है कि मनुष्य तो केवल अध्ययन, चिन्तन-मनन व पुरुषार्थ करते हैं परन्तु उनके मस्तिष्क में जो नये विचार व प्रेरणायें होती हैं वह ईश्वर के द्वारा उनके पुरुषार्थ आदि के कारण होती हैं। इसी प्रकार से ज्ञान-विज्ञान का विस्तार होकर आज की स्थिति आई है। आर्यसमाज के दूसरे नियम में ईश्वर के इतर स्वरूप पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। यह सब बातें वेदों के आधार पर निश्चित की हुईं हैं। वेदों में इनका यत्र-तत्र वर्णन पाया जाता है। इसमें हम यह भी जोड़ सकते हैं कि जीवात्मा को उसके जन्म-जन्मान्तरों के अवशिष्ट कर्मों का सुख-दुःख रूपी फल प्रदान करने के लिए ही ईश्वर इस सृष्टि को बनाकर उसमें मनुष्यों व अन्य प्राणियों को उत्पन्न करता है। मनुष्य व इतर प्राणी योनियां भी जीवात्मा के पूर्व जन्म के कर्मों के आधार पर ही उन्हें परमेश्वर से प्राप्त होती हैं। ईश्वर ने जीवात्माओं के लिए इस सृष्टि को बनाया, आदि सृष्टि में वेदों का ज्ञान देकर मनुष्यों को उनके कर्तव्य-अकर्तव्य वा धर्म-अधर्म से परिचित कराया और जीवात्मा को जन्म देकर उन्हें नाना व विविध प्रकार के सुखों से पूरित किया, इन व ऐसे अनेक उपकारी कार्य करने के लिए ईश्वर सभी जीवात्माओं व मनुष्यों का परम हितकारी व हितैशी सिद्ध होता है। जीवात्मा का स्वरुप भी वेदों में तर्कपूर्ण शब्दों में बताया गया है जो कि अनादि, अविनाशी, अनुत्पन्न, अमर, नित्य, सूक्ष्म, अल्पज्ञ, एकदेशी, जन्म-मरण वा सुख-दुख रूपी कर्म-फल के बन्धनों में बन्धा हुआ है। असत्य व अधर्म का पूर्णतः त्याग कर  जीवात्मा जन्म-मरण के बन्धनों से छूट कर मुक्ति को प्राप्त करता है।

                मनुष्य का शरीर संसार के सभी प्राणियों के शरीरों में सर्वोत्तम है। इसकी रचना अद्भुत है। मनुष्य वा अन्य प्राणियों के शरीरों की रचना का कार्य ईश्वर के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं कर सकता। आईये, इस मानव शरीर का वर्णन भी ऋषि दयानन्द के शब्दों में देखे लेते हैं। सत्यार्थ प्रकाश के अष्टम् समुल्लास में ऋषि दयानन्द लिखते हैं कि ‘(प्रलय की अवधि समाप्त होने के बाद) जब सृष्टि का समय आता है तब परमात्मा (सत्व, रज तम गुणों वाली कारण प्रकृति के) परमसूक्ष्म पदार्थों को इकट्ठा करता है। स को प्रथम अवस्था में जो परमसूक्ष्म प्रकृतिरूप कारण से कुछ स्थूल होता है उस का नाम महत्तत्व और जो उस से कुछ स्थूल होता है उसका नाम अहंकार और अहंकार से भिन्न-भिन्न पांच सूक्ष्मभूतः श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, घ्राण पांच ज्ञानेन्द्रियां, वाक्, हस्त, पाद, उपस्थ, और गुदा ये पांच कर्म-इन्द्रियां हैं और ग्यारहवां मन कुछ स्थूल उत्पन्न होता है। और उन पंचतन्मात्राओं से अनेक स्थूलावस्थाओं को प्राप्त होते हुए क्रम से पांच स्थूलभूत जिन को हम लोग प्रत्यक्ष देखते हैं उत्पन्न होते हैं। उन से नाना प्रकार की ओषधियां, वृक्ष आदि, उन से अन्न, अन्न से वीर्य और वीर्य से शरीर होता है। परन्तु आदि सृष्टि मैथुनी (स्त्री-पुरुष संसर्ग द्वारा) नहीं होती। क्योंकि जब स्त्री पुरुषों के शरीर परमात्मा बना कर उन में जीवों का संयोग कर देता है तदनन्तर मैथुनी सृष्टि चलती है।’

                इसी क्रम में ऋषि दयानन्द आगे लिखते हैं किदेखो ! (ईश्वर ने) शरीर में किस प्रकार की ज्ञानपूर्वक सृष्टि रची है कि जिस को विद्वान् लोग देखकर आश्चर्य मानते हैं। भीतर हाड़ों का जोड़, नाड़ियों का बन्धन, मांस का लेपन, चमड़ी का ढक्कन, प्लीहा, यकृत्, फेफड़ा, पंखा कला का स्थापन, रुधिरशोधन, प्रचालन, विद्युत् का स्थापन, जीव का संयोजन, शिरोरूप मूलरचन, लोम, नखादि का स्थापन, आंख की अतीव सूक्ष्म शिरा का तारवत् ग्रन्थन, इन्द्रियों के मार्गों का प्रकाशन, जीव के जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति अवस्था के भोगने के लिये स्थान विशेषों का निर्माण, सब धातु का विभागकरण, कला, कौशल, स्थापनादि अद्भुत सृष्टि को विना परमेश्वर के कौन कर सकता है?’

                इस प्रकार ईश्वर ने मनुष्य का शरीर बनाकर हम पर जो उपकार किया है, उसका हम किसी प्रकार से भी प्रतिकार वा ऋण, दया, कृपा आदि से उऋ़ण नहीं हो सकते। हम ईश्वर के इन सब उपकारों के लिए कृतज्ञ हैं और यही भाव जीवन भर बना रखें तभी हम मनुष्य कहलाने के अधिकारी हो सकते हैं। कृतघ्न मनुष्य को मनुष्य नहीं कहा माना जा सकता। इतना ही नहीं, वेदों वैदिक साहित्य का अध्ययन कर हम अपनी इस मनुष्य योनि में संसार के यथार्थ स्वरूप को जान सकते हैं अर्जित ज्ञान से ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र यज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथि यज्ञ और बलिवैश्वदेव यज्ञ सहित परोपकार, सेवा, दान आदि कार्यों को करके जन्ममरण के दुःखों से मुक्त हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त वैदिक जीवन का अवलम्बन कर हम मुक्ति को प्राप्त कर 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों तक बिना जन्म व मृत्यु के ईश्वर के सान्निध्य को प्राप्त कर उसके आनन्द का भोग कर सकते हैं। ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन के उदहारण से मनुष्यों को धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की शिक्षा दी और इसके साथ सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थ लिख कर मोक्ष के सभी साधनों पर व्यापक रूप से प्रकाश डाला है। मोक्ष के साधनों को व्यवहार में लाना असम्भव नहीं तो कुछ असुविधाजनक तो है ही। इसी को धर्म व तप कहते हैं और यही हमारे भावी जन्म को सुधारने के साथ हमें मोक्ष की ओर अग्रसर करता है। मोक्ष में असीम सुख प्राप्त करना ही प्रत्येक जीवात्मा का लक्ष्य है। यह भी एक तथ्य है कि हम सभी जीवात्मायें अनेक बार मोक्ष में रहे हैं और इसके अतिरिक्त अनेक बार अधर्म के कार्य करके नाना व प्रायः सभी पाप योनियों में रहकर हमने अनेक दुःखों को भी भोगा है। हमें यह भी जानना है कि माता-पिता और आचार्य हमारे मित्रवत् हितकारी एवं कृपालु हैं परन्तु इन्हें प्रदान कराने वाला भी वही एक ईश्वर है। यह लोग भी हमारी ही तरह ईश्वर के कृतज्ञ हैं। अतः हम इन सभी के भी ऋणी हैं परन्तु ईश्वर का ऋण सबसे अधिक है। हमें इन सबके ऋणों से उऋण होने के लिए प्रयास करने हैं।  ईश्वर का सत्य स्वरुप वेद, वैदिक साहित्य व महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों में वर्णित है। इसे पढ़कर ईश्वर के यथार्थ स्वरूप और उसके गुण-कर्म-स्वभाव को विस्तार से जाना जा सकता है। इससे ईश्वर की जीवों पर दया, कृपा व हित की कामनाओं के प्रति कृतज्ञता का भाव प्रकट करके उसकी स्तुति, प्रार्थना उपासना आदि के द्वारा अपने मानव जीवन को उन्नत बनाने के साथ भावी जन्मों में सुखों की प्राप्ति के लिए धर्म व सुखदायक कर्मों की पूंजी संचित की जा सकती है जो जन्म जन्मान्तरों में हमें मोक्ष प्रदान करा सकती है। आईये ! ईश्वर की दया, कृपा व हितकारी भावना के प्रति अपनी नित्यप्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए वेद एवं वैदिक ग्रन्थों के स्वाध्याय सहित ईश्वर की ऋषियों के विधान के अनुसार स्तुति, प्रार्थना व उपासना करने का संकल्प लेकर उसे अपने जीवन में चरितार्थ करें। इसी से हमारा मानव जीवन सफल हो सकता है। नान्यः पन्था विद्यते अयनायः। जीवन की उन्नति का इससे अधिक उत्तम अन्य कोई मार्ग नहीं है।

स्वागतम् हिन्द का गौरव बढ़ाने वालों…

स्वागतम् सुस्वागतम्

हिन्द का गौरव बढ़ाने वालों

गगनभेदी उद्घोषों में

विजयी पताका चहुंओर फहराकर

राष्ट्रगान का मान बढ़ाने वालों।

स्वर्ण, रजत, कांस्य में कोई फर्क नहीं,

सब मातृभूमि के चरणों में हैं अर्पण।

दृढ़ संकल्पित स्वर्ण लक्षित

लबरेज उन्माद,विजयी प्रमाद

हताशा निराशा से करो दूर

अब अपना मन मस्तिष्क।

जो गए थे सबके सब हैं

मातृभूमि का मान बढ़ाने वाले।

कुछ ने इस बार फहराई पताका

शेष अगली बार छू लेंगे शिखर।

देख लेना अपने दम से 

सीना फिर कर देंगे गर्वित।

और.. अतीत कर देंगे विस्मृत।

विश्व सरोवर में और प्रस्फुटित होंगे

जलजात सरसिज नीरज पंकज।

रोशन करने और उदित होंगे

भास्कर दिनकर रवि प्रभाकर।

और अधिक क्या बखान करूँ

नग रत्न मणि अचल नगीना

कष्ट हरेंगे ‘नवीन’ बन संकटमोचक

बजरंग सिंधु मीरा और लवलीना। 

– सुशील कुमार ‘नवीन’