Home Blog Page 539

भिक्षा मांगने की त्रासदी को जीना राष्ट्रीय शर्म है

  • ललित गर्ग –
    एक आदर्श शासन व्यवस्था की बुनियाद होती है समानता, स्वतंत्रता, भूख एवं गरीबी मुक्त शांतिपूर्ण जीवनयापन। राष्ट्र एवं समाज में भूख एवं गरीबी की स्थितियां एक त्रासदी है, विडम्बना है एवं दोषपूर्ण शासन व्यवस्था की द्योतक है। आजादी के बहत्तर वर्षों के बाद भी यदि भीख मांगने एवं भिखारियों के परिदृश्य देखने को मिलते हैं, तो यह शर्मनाक है। इन शर्म की रेखाओं का कायम रहना हमारी शासन व्यवस्था पर एक बदनुमा दाग है, शर्म की इन रेखाओं को तोड़ने के लिए जिस श्रेष्ठ संवेदना का प्रदर्शन देश की सर्वोच्च अदालत ने किया है, वह न केवल स्वागत-योग्य है, बल्कि अनुकरणीय भी है। अदालत ने साफ शब्दों में कह दिया कि वह सड़कों से भिखारियों को हटाने के मुद्दे पर तथाकथित धनाढ्य एवं सम्पन्न वर्ग का नजरिया नहीं अपनाएगी, क्योंकि भीख मांगना एक सामाजिक और आर्थिक समस्या एवं विवशता है। न्यायमूर्ति डी. वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति एम. आर. शाह की बेंच ने कहा कि वह सड़कों और सार्वजनिक स्थलों से भिखारियों को हटाने का आदेश नहीं दे सकती, यह कहकर अदालत ने शर्मी और बेशर्मी दोनों को मिटाने, भूख, गरीबी का संबोधन मिटाने की दिशा में सार्थक पहल की है।
    अदालत ने भिखारियों एवं भीख मांगने की विवशता को भोग रहे लोगों के दर्द को समझा है। उसने इन शर्मनाक स्थितियों के कायम रहने के कारणों की विवेचना करते हुए कहा कि शिक्षा और रोजगार की कमी के चलते बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए ही लोग आमतौर पर भीख मांगने को मजबूर हो जाते हैं। अदालत का इशारा साफ था कि भीख मांगने पर प्रतिबंध लगाने की बजाय भीख मांगने के कारणों को मिटाने पर ध्यान देना होगा। विदित हो कि याचिकाकर्ता ने सर्वोच्च अदालत का दरवाजा इस उम्मीद से खटखटाया था कि सर्वोच्च अदालत सड़कों-चैराहों पर लोगों को भीख मांगने से रोकने के लिए कोई आदेश या निर्देश देगी। अदालत ने समस्या की व्याख्या जिस संवेदना एवं मानवीयता के साथ की है, वह गरीबी हटाने की दिशा में आगे के फैसलों के लिए महत्वपूर्ण सिद्ध होगी। अदालत ने पूछा कि आखिर लोग भीख क्यों मांगते हैं? गरीबी के कारण ही यह स्थिति बनती है।
    एक आजाद मुल्क में, एक शोषणविहीन समाज में, एक समतावादी दृष्टिकोण में और एक कल्याणकारी समाजवादी व्यवस्था में यह भूख एवं भिक्षा मांगने की त्रासदी को जीना ऐसी बेशर्मी की रेखा है जिसे मिटाना हमारे शासन-व्यवस्था की प्राथमिकता होनी चाहिए। यह रेखा सत्ता एवं शासन के कर्णधारों के लिए ”शर्म की रेखा“ होनी ही चाहिए, जिसको देखकर उन्हें शर्म आनी ही चाहिए। कुछ ज्वलंत प्रश्न है कि जो रोटी नहीं दे सके वह सरकार कैसी? जो अभय नहीं बना सके, वह व्यवस्था कैसी? जो इज्जत, स्नेह एवं दो वक्त की रोटी नहीं दे सके, वह समाज एवं शासन कैसा? अगर तटस्थ दृष्टि से बिना रंगीन चश्मा लगाए देखें तो हम सब गरीब एवं भिक्षुक हैं। गरीब, यानि जो होना चाहिए, वह नहीं हंै। जो प्राप्त करना चाहिए, वह प्राप्त नहीं है। एक तरफ अतिरिक्त संसाधनों का अम्बार है तो दूसरी ओर भूख एवं गरीबी है, दो वक्त की रोटी जुटाने के लिये सड़कों-चैराहों पर हाथ फैलाने की विवशता है।
    अदालत ने समस्या की व्याख्या जिस संवेदना एवं मानवीयता के साथ की है, वह गरीबी हटाने की दिशा में आगे के फैसलों के लिए मील का पत्थर साबित होगी। अदालत ने पूछा कि आखिर लोग भीख क्यों मांगते हैं? गरीबी, अभाव एवं सरकार की असंतुलन नीतियों के कारण ही यह स्थिति बनती है। आज की कूटनीति की यह बड़ी हैरत और आश्चर्य की बात है कि वह भूख को नहीं भिखारी को, गरीबी को नहीं गरीब को मिटाने की योजनाएं लागू करती है। वह यह सोचने में बहुत अच्छा लगता है कि सड़कों पर कोई भिखारी न दिखे, लेकिन सड़कों से भिखारियों को हटाने से क्या गरीबी दूर हो जाएगी? क्या जो लाचार हैं, जिनके पास आय का कोई साधन नहीं, जो दो वक्त की रोटी नहीं जुटा पा रहे हैं, क्या उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया जाएगा? गरीबी से भी ज्यादा भयावह है भूख एवं भीख मांगने की स्थितियां।
    भले ही सरकार भी ऐसे लोगों को गरीब मानती है जिनकी वार्षिक आय सरकार के निर्धारित आंकड़ों से कम हो। लेकिन जिनकी आय का कोई जरिया ही न हो, उनके लिये सरकार ने क्या श्रेणी निर्धारित की है? बुद्धिजीवी हर आदमी को, यहां तक कि हर देश को, तुलनात्मक दृष्टि से गरीब मानते हैं। दार्शनिक गरीब उसको मानता है जो भयभीत है, जो थक गया है, जो अपनी बात नहीं कह सकता। साधारण आदमी, झोंपड़ी में रहने वाले को, अभाव एवं भूख को जीने वाले को गरीब और महल में रहने वाले को अमीर मानता है। खैर! यह सत्य है कि भिखारी की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं है। तब भीख एवं भिखारी की रेखा क्या? क्यों है? किसने खींची यह लक्ष्मण रेखा, जिसको कोई पार नहीं कर सकता। जिस पर सामाजिक व्यवस्था चलती है, जिस पर राजनीति चलती है, जिसको भाग्य और कर्म की रेखा मानकर उपदेश चलते हैं। वस्तुतः ये रेखाएं तथाकथित गरीबों, भूखों ने नहीं खींचीं। आप सोचिए, भला कौन दिखायेगा अपनी जांघ। यह रेखाएं उन्होंने खींची हैं जो अपनी जांघ ढकी रहने देना चाहते हैं। इस रेखा (दीवार) में खिड़कियां हैं, ईष्र्या की, दम्भ की, अहंकार की। पर दरवाजे नहीं हैं इसके पार जाने के लिए। अब अदालत इसके पार जाने का रास्ता बना रही है तो यह उसकी जागरूकता है, मानवीय सोच है।
    जस्टिस चंद्रचूड़ ने याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ वकील चिन्मय शर्मा से यह भी कहा कि कोई भीख नहीं मांगना चाहता। मतलब, सरकार को भीख मांगने की समस्या से अलग ढंग एवं ईमानदार तरीके से निपटना होगा। इसमें कोई शक नहीं कि सरकार असंख्य भारतीयों तक नहीं पहुंच पा रही है। मुख्यधारा से छिटके हुए वंचित लोग भीख मांगने को विवश हैं। ऐसे लोगों तक जल्दी से जल्दी सरकारी योजनाओं का लाभ पहुंचना चाहिए। जहां तक चैराहों पर भीख की समस्या है, तो स्थानीय प्रशासन इस मामले में कदम उठा सकता है। सड़क पर भीख मांगने वालों को सचेत किया जा सकता है कि वे किसी सुरक्षित जगह पर ही भीख मांगने जैसा कृत्य करें। भीख मांगना अगर सामाजिक समस्या है, तो समाज को भी अपने स्तर पर इस समस्या का समाधान करना चाहिए। समाज के आर्थिक रूप से संपन्न और सक्षम लोगों को स्थानीय स्तर पर सरकार के साथ मिलकर भीख जैसी मजबूरी एवं त्रासदी का अंत करने के लिये पहल करना चाहिए।
    कोरोना महामारी के मद्देनजर भिखारियों और बेघर लोगों के पुनर्वास और टीकाकरण का आग्रह करने वाली एक याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने मंगलवार को केंद्र और दिल्ली सरकार को नोटिस जारी करके उचित ही जवाब मांगा है। इस याचिका की प्रशंसा की जानी चाहिए कि उसमें महामारी के बीच भिखारियों और बेघर लोगों के पुनर्वास, उनके टीकाकरण, आश्रय व भोजन उपलब्ध कराने का प्रशंसनीय आग्रह किया गया है। भीख मांगने वाले और बेघर लोग भी कोरोना महामारी के संबंध में अन्य लोगों की तरह चिकित्सा एवं अन्य सुविधाओं के हकदार हैं। केंद्र सरकार के साथ तमाम राज्य सरकारों को स्वास्थ्य और रोजगार का दायरा बढ़ाना चाहिए, ताकि जो बेघर, निर्धन हैं, उन तक मानवीयता का एहसास पुरजोर पहुंचे एवं एक आदर्श समाज संरचना का सूर्योदय हो।

बूढ़ा पेड़ बरगद का


तल्खियां मौसम की,
हवाओं के थपेड़े,
जाने और क्या – क्या
सहा उसने
मगर रिश्ता कमजोर
नहीं पड़ने दिया
धरती से अपना!

ज्यों – ज्यों
उम्रदराज हुआ
रिश्ता और भी
आगाध हुआ
उनका!

हर मुसीबत को सह गया
पर धरती को
अपने आलिंगन से
मुक्त ना होने दिया
उसने!

यही वज़ह है शायद…
आज भी मुस्कुरा रहा है
मेरे गांव में बूढ़ा पेड़
बरगद का!

आशीष “मोहन”

पर्यावरण संरक्षण की चिंताओं के बीच बढ़ रहा है इलेक्ट्रिक वाहनों के प्रति रुझान

ताज़ा सर्वे के मुताबिक पर्यावरण संरक्षण के प्रति जिम्मेदारी और आधुनिक टेक्नोलॉजी को लेकर उत्साह इलेक्ट्रिक वाहनों के बारे में सोचने के दो प्रमुख कारण हैं

भारत समेत पूरी दुनिया में इलेक्ट्रिक वाहनों को लेकर आकर्षण बढ़ रहा है मगर विशेषज्ञों का मानना है कि इस सकारात्‍मक पहलू के बीच कई बुनियादी और व्‍यावहारिक समस्‍याएं भी मौजूद हैं जिनकी वजह से इन वाहनों को अपनाने के प्रति लोगों में हिचक भी बरकरार है।

क्‍लाइमेट ट्रेंड्स ने इस महत्‍वपूर्ण मुद्दे पर विचार-विमर्श के लिये गुरुवार को एक वेबिनार आयोजित किया, जिसमें इलेक्ट्रिक वाहनों को लेकर लोगों के रवैये और उपयोग सम्‍बन्‍धी व्‍यवहार को समझने के मकसद से किये गये एक सर्वे की रिपोर्ट भी जारी की गयी। इस सर्वे के जरिये उन खामियों को पहचानने, उस मनोदशा और अन्‍य कारकों को समझने की कोशिश की गयी जो लोगों को इलेक्ट्रिक वाहन खरीदने के लिये प्रेरित या हतोत्‍साहित करते हैं।

क्‍लाइमेट ट्रेंड्स की मधुलिका वर्मा ने इलेक्ट्रिक वाहनों के प्रति लोगों के रवैया और उपयोग संबंधी बर्ताव को समझने के लिए दो पहिया तथा चार पहिया वाहनों के उपयोगकर्ताओं पर किए गए सर्वे के निष्कर्षों को सामने रखा। सर्वे के मुताबिक इन दोनों ही श्रेणियों के लोगों ने इलेक्ट्रिक वाहनों को पर्यावरण संरक्षण के प्रति अनुकूल और वायु प्रदूषण को कम करने वाला बताया। इसके अलावा लोगों में नई प्रौद्योगिकी को लेकर काफी उत्साह भी देखा गया। उनका मानना था कि आधुनिक और स्मार्ट टेक्नोलॉजी की वजह से लोग इलेक्ट्रिक वाहनों की तरफ रुख कर रहे हैं।

हालांकि अध्ययन में कुछ रुकावटों का भी जिक्र किया गया है। सर्वे के दायरे में लिए गए उत्तरदाताओं ने इलेक्ट्रिक वाहनों को बार बार चार्ज करने की जरूरत को लेकर आशंकाएं जाहिर की। इसके अलावा उनकी रीसेल वैल्यू और पिक अप पावर को लेकर कुछ चिंताएं भी व्यक्त की। साथ ही लंबी दूरी तय करने के मामले में मूलभूत ढांचे की कमी और उसके गैर भरोसेमंद होने की बातें भी सामने आयीं। बहरहाल, दोनों ही वर्गों में इलेक्ट्रिक वाहन के मालिकों ने अपने चार्जिंग अनुभव पर गहरा संतोष व्यक्त किया जो इलेक्ट्रिक वाहनों की चार्जिंग को लेकर उभरने वाले सामान्य भ्रमों को तोड़ने के लिए एक अच्छा प्रमाण है।

सर्वे में फोर व्हीलर के वर्ग में यह यह पाया गया कि इलेक्ट्रिक कारों को स्वीकार करने वालों में से ज्यादातर लोग पुरुष हैं और अपेक्षाकृत अधिक उम्र के हैं। इसके अलावा नकारात्मक जवाब देने वाले लोगों में से 17% के पास अभी कोई कार नहीं है। इससे यह संकेत मिलता है कि पहली बार कार खरीदने जा रहे लोगों की नजर में इलेक्ट्रिक कार कम आकर्षक विकल्प है। वहीं इसके ठीक विपरीत टू व्हीलर सेगमेंट में इलेक्ट्रिक वाहन खरीदने वालों में से ज्यादातर महिलाओं के होने की संभावना है। मगर फोर व्हीलर सेगमेंट के मुकाबले अधिक उम्र के लोगों में इलेक्ट्रिक दो पहिया वाहन की स्वीकार्यता अधिक नजर आती है। सर्वे के मुताबिक पर्यावरण संरक्षण के प्रति जिम्मेदारी और आधुनिक टेक्नोलॉजी को लेकर उत्साह इलेक्ट्रिक वाहनों के बारे में सोचने के दो प्रमुख कारण हैं।

नीति आयोग के सीनियर स्पेशलिस्ट रणधीर सिंह ने वेबिनार में कहा कि कोई भी चीज़ आसान होने से पहले मुश्किल ही होती है। ठीक यही बात इलेक्ट्रिक वाहनों के मामले में हमारे देश पर लागू होती है। वर्ष 2021 में बैटरी की कीमत 135 डॉलर प्रति किलो वाट के स्तर को छूने लगी है। भारत के मामले में यह बहुत उपयुक्त नहीं है। हमें 50 गीगावॉट जैसे बड़े कार्यक्रम की जरूरत है। उत्पादन के इस स्तर पर इकोनॉमिस्ट सेल को हासिल किया जा सकता है और हम भी इसी मूल्य बिंदु पर आ सकते हैं। इस वक्त हमारे देश में बैटरी की कीमत 165 से 200 डॉलर प्रति किलोवाट है।

उन्‍होंने कहा कि हाल के एक अध्ययन के मुताबिक 40% उपभोक्ताओं का कहना है कि वह जब अगला वाहन खरीदेंगे तो वह इलेक्ट्रिक ही होगा। इसका सबसे बड़ा कारण पर्यावरण संरक्षण की भावना है। इसके अलावा उपलब्ध वित्तीय प्रोत्साहन भी एक बड़ा कारण है। कॉस्ट ऑफ ओनरशिप भी एक बड़ा मसला है। वर्ष 2035 तक इंजन से चलने वाले इंजनों के निर्माण को पूरी तरह से रोकने की बात हो रही है। ऐसे में वाहन निर्माताओं के सामने इलेक्ट्रिक विकल्प को चुनने के अलावा और कोई चारा नहीं होगा। भारत में भी यही स्थिति पैदा हो सकती है।

सिंह ने कहा कि भारत में इलेक्ट्रिक व्हीकल क्षेत्र के सामने पर्याप्त चार्जिंग व्यवस्था ना होना, महंगे वाहन तथा कुछ अन्य मसले हैं। सबसे पहले तो हमें चार्जिंग की व्यवस्था को बेहतर करना होगा। भारत में 81% वाहन बाजार दोपहिया वाहनों का है और 3% तिपहिया वाहनों का है। इन वाहनों का रोजाना औसत उपयोग 17 से 21 किलोमीटर के बीच है। फेम-2 के तहत सड़क पर जो भी इलेक्ट्रिक वाहन उतारे जाएंगे उनकी न्यूनतम रेंज 80 किलोमीटर और रफ्तार 45 किलोमीटर प्रति घंटा होनी चाहिए। अगर दो पहिया वाहनों को देखें तो 90% से ज्यादा वाहनों की न्यूनतम रेंज कवर हो जाती है, इसलिए ऐसे वाहनों को घर या दफ्तरों में ही चार्ज किया जा सकता है। इसके लिए बिल्डिंग बाइलॉज में बदलाव की जरूरत होगी और पार्किंग स्थल का 20% हिस्सा इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए आरक्षित करना होगा। फेम-2 के तहत 1000 करोड़ रुपए चार्जिंग इंफ्रास्ट्रक्चर पर खर्च किए जाने हैं। हमारा मुख्य ध्यान चार्जिंग स्टेशंस नहीं बल्कि चार्जिंग पॉइंट पर है।

उन्‍होंने कहा कि दूसरा मुद्दा मानकीकरण का है मानकीकरण इसलिए जरूरी है ताकि उसका अनुकूलतम उपयोग किया जा सके। इस वक्त हम बसों तथा सार्वजनिक परिवहन के वाहनों की सार्वजनिक खरीद योजना पर ध्यान दे रहे हैं। साथ ही उद्योगों को इस बात की अनुमति दी गई है कि वे बल्क ऑर्डर का उत्पादन कर उनकी सप्लाई भी करें। पिछले महीने हमने कोविड-19 महामारी से लिए गए सबक के आधार पर फेम-2 में बदलाव किए हैं। सबसे पहले तो दोपहिया वाहनों के लिए सब्सिडी को 10,000 रुपए प्रति किलो वाट से बढ़ाकर 15000 प्रति किलोवाट किया गया। इस तरह 3 किलोवाट बैटरी वाले वाहन पर कुल सब्सिडी 45000 रुपए हो जाएगी। हमें लोगों को इलेक्ट्रिक वाहन अपनाने के प्रति जागरूक करना होगा। पर्यावरण संरक्षण तो एक मुद्दा है लेकिन लोग स्वामित्व के कुल मूल्य रूपी वित्तीय प्रभाव के बारे में भी जानना चाहते हैं। हमें उन्हें इसके बारे में बताने की जरूरत है। ऐसे में नीतिगत उपाय करना जरूरी है।

इलेक्ट्रिक वाहन क्षेत्र की अग्रणी कंपनी ‘आथेर एनर्जी’ के चीफ बिजनेस ऑफिसर रवनीत फोकेला ने इलेक्ट्रिक वाहन खरीदने को लेकर उपभोक्ताओं के मन में व्याप्त आशंकाओं का जिक्र करते हुए कहा कि वैसे तो उपभोक्ताओं में पर्यावरण के प्रति जागरूकता है और वे इलेक्ट्रिक वाहनों को पसंद भी कर रहे हैं मगर निश्चयात्मकता के नजरिए से देखें तो इन वाहनों को अपनाने के प्रति उनका रवैया कुछ दूसरा ही होता है। बहुत कम लोग ही ‘इको वारियर’ होते हैं और अगर हम एडॉप्शन के नजरिए से देखें तो जागरूकता का स्तर बहुत कम है।

उन्होंने कहा कि इलेक्ट्रिक वाहनों की भरोसेमंद आपूर्ति की कमी एक मूलभूत मुद्दा है। अगर हम इलेक्ट्रिक वाहनों के बाजार को देखें और कोई भी कैटेगरी ले लें तो फर्क नजर आता है। अगर हम पेट्रोल या डीजल से चलने वाले किसी वाहन को खरीदने जाएं तो हमारे पास 40-50 विकल्प होते हैं लेकिन इलेक्ट्रिक वाहनों के मामले में अभी ऐसा बिल्कुल भी नहीं है।

रवनीत ने सरकार द्वारा फेम-टू के तहत इलेक्ट्रिक वाहनों पर सब्सिडी को बढ़ाए जाने की सराहना की लेकिन साथ ही यह भी कहा कि आपूर्ति श्रंखला को और विस्तार दिया जाना भी बहुत महत्वपूर्ण पहलू है। इसके अलावा इलेक्ट्रिक वाहनों की रीसेल का मुद्दा भी बहुत बड़ा है। वर्तमान में कोई भी इलेक्ट्रिक व्हीकल रीसेल मार्केट नहीं है। हमें होड़ में बने रहने के लिए बेहतर ‘बाई बैक पॉलिसी’ की जरूरत है।

क्लाइमेट ट्रेंड्स की निदेशक आरती खोसला ने कहा कि इलेक्ट्रिक वाहनों की घरेलू स्तर पर ही नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर भी स्वीकार्यता लगातार बढ़ रही है। अब इलेक्ट्रिक वाहनों का इको सिस्टम सुर्खियों में है और सरकारें भी इलेक्ट्रिक वाहनों को लेकर जोरदार नीतियों के साथ सामने आ रही हैं। पिछले कुछ समय में इलेक्ट्रिक वाहनों को बाजार में उतारे जाने और चार्जिंग नेटवर्क को विस्तार दिए जाने के काम में उल्लेखनीय रूप से तेजी आई है। हालांकि इन सकारात्मक पहलुओं के बावजूद भारत में वाहनों के कुल विक्रय में इलेक्ट्रिक वाहनों की हिस्सेदारी एक प्रतिशत से भी कम है।

उन्होंने कहा कि इलेक्ट्रिक वाहनों को अपनाने की धीमी रफ्तार और उपभोक्ताओं में इन वाहनों की स्वीकार्यता की कमी की समस्याएं बरकरार हैं। इस रूपांतरण के प्रति उपभोक्ताओं का विश्वास बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। इसके अलावा इलेक्ट्रिक मोबिलिटी को व्यापक रूप से अपनाने को बढ़ावा देने के लिए इन वाहनों की उपलब्धता का दायरा भी बहुत बढ़ाने की जरूरत होगी।

एनआरडीसी के लीड कंसलटेंट नीतीश अरोरा ने कहा कि भारत में इलेक्ट्रिक वाहनों की चार्जिंग का इन्फ्राक्चर बेहतर हो रहा है। मगर जब हम इलेक्ट्रिक वाहनों के वाणिज्यिक इस्तेमाल के परिप्रेक्ष्य में बैटरी स्वैपिंग की बात करते हैं तो मानकीकरण एक बहुत बड़ी समस्या है। क्योंकि जब सरकार जब बैटरी पैक्स के मानकीकरण की बात करती है तो कुछ शर्तें लगा देती है।

उन्होंने कहा कि अगर हम फोर व्हीलर सेगमेंट की बात करें तो ऐसा भ्रम है कि इसमें चार्जिंग की मूलभूत सुविधा की स्थापना करने का काम धन कमाने के लिहाज से बिल्कुल भी उपयुक्त नहीं है, क्योंकि इसमें बेतहाशा निवेश की जरूरत है और चार्ज करने वाले वाहनों की तादाद बहुत कम है। ऐसे में इस क्षेत्र को लेकर दूरदर्शिता का पहलू बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। सरकार को इस दिशा में दूरगामी नीतियां बनानी चाहिए।

सीईईडब्ल्यू के प्रोग्राम एसोसिएट अभिनव सोमन ने इलेक्ट्रिक वाहनों को लेकर लोगों की राय का जिक्र करते हुए देश के छह महानगरों समेत 60 शहरों में किए गए सर्वे को सामने रखा। उन्होंने कहा कि सर्वे के दायरे में लिए गए 90% लोगों ने बताया कि वे इलेक्ट्रिक वाहनों के बारे में अच्छी तरह जानते हैं। इसके अलावा 70% लोगों ने कहा कि अब वे जब भी अगला वाहन खरीदेंगे तो वह इलेक्ट्रिक ही होगा। वहीं, 95% लोगों ने इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा देने के लिए केंद्र तथा राज्य सरकारों की नीतियों को सराहा।

हालांकि सर्वे में यह भी बात सामने आई कि इलेक्ट्रिक वाहनों की बैटरी चार्ज करने का मूलभूत ढांचा पर्याप्त नहीं है। इसके अलावा चार्जिंग में लगने वाला समय भी बहुत ज्यादा है। इसके अलावा बाजार में इलेक्ट्रिक वाहनों के विकल्प भी बहुत कम हैं। साथ ही डीजल और पेट्रोल से चलने वाले वाहनों के मुकाबले इलेक्ट्रिक वाहनों की कीमत भी ज्यादा है।

उन्होंने बताया कि ज्यादातर लोगों की नजर में कार खरीदते वक्त उसकी कीमत और माइलेज को सबसे ज्यादा अहमियत होती है। हमने वैल्यू एडिशन चेंज को लेकर के कुछ ऐस्टीमेशन किए हैं। कुछ नकारात्मक पहलू भी है लेकिन अगर ओवरऑल पिक्चर को देखें तो यह सकारात्मक ही है। जहां तक रीसेल वैल्यू की बात है तो यह निश्चित रूप से एक मुद्दा है।

अखिलेश मागल ने कहा कि गुजरात सरकार द्वारा इलेक्ट्रिक वाहनों को लेकर नीति जारी किए जाने के बाद न सिर्फ इन वाहनों के प्रति दिलचस्पी बढ़ी है बल्कि उनकी मांग भी बढ़ी है। यह बहुत महत्वपूर्ण है। डिमांड इंसेंटिव भी एक बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा है। अब मसला इलेक्ट्रिक वाहनों के प्रति जागरूकता का नहीं है बल्कि अवसर का है। लोग इंतजार कर रहे हैं कि कब सही मौका मिले और वह इलेक्ट्रिक वाहन को अपना लें।

उन्होंने उपभोक्ताओं की मन: स्थिति का जिक्र करते हुए कहा कि अक्सर दो चीजों को ध्यान में रखकर वाहन खरीदे जाते हैं। पहला यह कि यह मेरे भाई के पास भी है और दूसरा उसका अनोखापन। इलेक्ट्रिक वाहनों के मामले में इन दोनों पहलुओं का खास ख्याल रखने की जरूरत है। मुझे लगता है कि आने वाले दो साल में तस्वीर बहुत बदल जाएगी।

जनसमर्थन से हो जनसंख्या नियंत्रण।

उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा जनसंख्या नियंत्रण नीति लागू करने के फैसले ने इस विषय को राजनैतिक गलियारों में चर्चा से लेकर आम लोगों के बीच सामाजिक विमर्श का केंद्र बना दिया है। राजनैतिक दल और अन्य संगठन अपने अपने वोटबैंक और राजनैतिक नफा नुकसान को ध्यान में रखकर इसका विरोध अथवा समर्थन कर रहे हैं। लेकिन अगर राजनीति से इतर बात की जाए तो यह विषय अत्यंत गम्भीर है जिसे वोटबैंक की राजनीति ने संवेदनशील भी बना दिया है।

दरअसल आज भारत जनसंख्या के हिसाब से विश्व में दूसरे स्थान पर आता है और यूएन की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2027 तक भारत विश्व की सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश बनकर इस सूची में पहले स्थान पर आ जाएगा। लेकिन क्या हमने कभी सोचा है कि जनसंख्या के विषय में पहले स्थान पर आने वाले भारत के पास इतने संसाधन और इतनी जगह है जिससे यह भारतमूमि अपने सपूतों को एक सम्मान एवं सुविधाजनक जीवन दे सके ? तो आइए इसे कुछ आंकड़ों से समझने की कोशिश करते हैं। भारत के पास विश्व की कुल भूमि क्षेत्र का मात्र 2.4 प्रतिशत है जबकि भारत की आबादी दुनिया की कुल आबादी का 16.7 प्रतिशत है। यहाँ यह बता दिया जाए कि विश्व के डेवलप्ड यानी विकसित देशों की सामूहिक जनसंख्या 17 प्रतिशत के आसपास है और अकेले भारत की जनसंख्या 16.7 प्रतिशत । इस विषय का इससे भी अधिक चिंताजनक पहलू यह है कि भारत के एक राज्य की जनसंख्या की तुलना कई देशों की कुल जनसंख्या से की जा सकती है। जैसे उत्तरप्रदेश की जनसंख्या ब्राजील, महाराष्ट्र की मेक्सिको, बिहार की फिलीपींस, पश्चिम बंगाल की वियतनाम, मध्यप्रदेश और तमिलनाडु की तुर्की, कर्नाटक की इटली के बराबर आदि।

यह आंकड़े बता रहे हैं कि स्तिथि कितना गंभीर रूप ले चुकी है। ऐसे ही कुछ और दिलचस्प आंकड़ों की बात की जाए तो विश्व का सबसे अधिक क्षेत्रफल वाला देश रूस जनसंख्या के मामले में नौंवे स्थान पर है। और जो चीन जनसंख्या के मामले में पहले स्थान पर आता है वो चीन क्षेत्रफल के हिसाब से विश्व में चौथे स्थान पर आता है जबकि भारत आठवें स्थान पर। यानी भारत के पास भूमि कम है लेकिन जनसंख्या ज्यादा है। कल्पना कीजिए कि जब भारत यूएन की रिपोर्ट के अनुसार इन्हीं सीमित संसाधनों के साथ चीन को पछाड़ कर विश्व की सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश बन जाएगा तो क्या स्थिति होगी। क्या इन परिस्थितियों में कोई भी देश गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा जैसी समस्याओं से लड़कर अपने नागरिकों के जीवन स्तर में सुधार लाने की कल्पना भी कर सकता है? लेकिन इसे भारत का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि इस देश की राजनीति उस मोड़ पर पहुंच गई है जहाँ हर विषय वोटबैंक से शुरू हो कर वोटबैंक पर ही खत्म हो जाता है। खेती किसानी हो या फिर शिक्षा स्वास्थ्य अथवा जनसंख्या जैसे मूलभूत विषय ही क्यों न हो सभी को वोटबैंक की राजनीति से होकर गुजरना पड़ता है। हमारे राजनेता अपने राजनैतिक स्वार्थ से ऊपर उठकर कुछ सोच ही नहीं पाते। विगत कुछ समय से यह देखा जा रहा है कि सत्ता धारी दल अगर किसी समस्या का समाधान खोजने के प्रयास में कोई कानून या नीति लेकर आता है तो विपक्ष उसके विरोध में उतर आता है। इस समय देश वाकई में अजीब दौर से गुज़र रहा है जहाँ समस्या से अधिक विकट देश के मौजूदा हालात हो गए हैं। क्योंकि एक तरफ देश में जनसंख्या नियंत्रण के लिए कानून लाना वर्तमान परिस्थितियों में आवश्यक प्रतीत हो रहा है तो दूसरी तरफ इस विषय का राजनीतिकरण कर बड़े पैमाने पर इसका विरोध होने की आशंका भी बनी हुई है। इसलिए जनसंख्या से संबंधित कोई भी कानून बनाने से पहले आवश्यक है कि इस विषय में जन जागरूकता लाई जाए। इससे लोग बढ़ती जनसंख्या के दुष्प्रभावों और सीमित परिवार के फायदों से परिचित ही नहीं होंगे बल्कि इस विषय में दुष्प्रचार से भृमित होने से भी बचेंगे। हालांकि उत्तरप्रदेश सरकार की प्रस्तावित जनसंख्या नियंत्रण नीति में जनसंख्या नियंत्रित करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करने की दिशा में सोचा गया है। इसलिए प्रस्तावित नीति में परिवार नियोजन करने वाले परिवारों को सरकार की ओर से विशेष सुविधाएं दी जा रही हैं तो अधिक बच्चों वाले परिवारों को इन सुविधाओं से वंचित रखा जा रहा है। लेकिन इस विषय को लेकर राजनैतिक बयानबाजी अपने चरम पर है। उत्तरप्रदेश के उलट अगर भारत के ही राज्य केरल का उदाहरण लिया जाए तो केरल में सबसे कम सकारात्मक जनसंख्या वृद्धि दर होने के साथ साथ उच्चतम जीवन प्रत्याशा और उच्चतम लिंगानुपात है। यानी जनसंख्या की वृद्धि नियंत्रण में है, लोगों का जीवन स्तर बेहतरी की ओर अग्रसर है और लड़का लड़की का अनुपात भी देश में सबसे अधिक है। गौरतलब है कि केरल केवल जनसंख्या के मामले में ही बेहतर नहीं है वो साक्षरता के मामले में भी सबसे अधिक साक्षरता दर के साथ भारत का अग्रणी राज्य है। जबकि उत्तरप्रदेश ना सिर्फ जनसंख्या के मामले में 29 वें पायदान पर आता है बल्कि लिंगानुपात में भी 26 वें पायदान पर आता है। यहाँ यह बता दिया जाए कि केरल में जनसंख्या नियंत्रण के लिए कोई कानून नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि अगर हम यह समझें कि जनसंख्या को कानून से ही नियंत्रित किया जा सकता है तो ऐसा नहीं है। कानून अपने आप में अपर्याप्त रहेगा जब तक लोग उसे स्वेच्छा से स्वीकार न करना चाहें। इसलिए सरकार चाहे किसी राज्य की हो या केंद्र की जनसंख्या नियंत्रण जैसे विषय पर जल्दबाजी में कानून लाकर जनसंख्या को कितना नियंत्रित कर पाएगी यह तो समय बताएगा लेकिन बैठे बिठाए विपक्ष को एक मुद्दा जरूर दे देगी।

जैसे हमने प्लास्टिक को कानूनी तौर पर बैन करने से पहले से देश में प्लास्टिक मुक्ति को जन आंदोलन बनाया, देश को स्वच्छ रखने के लिए स्वच्छता को भी जन आंदोलन बनाकर उसमें जन जन की भागीदारी सुनिश्चित की उसी प्रकार जनसंख्या नियंत्रण के लिए भी कानून के साथ साथ जनजागरूकता के लिए विभिन्न अभियान चलाए ताकि लोग स्वेच्छा से इसमें भागीदार बनें और विपक्ष अपने मंसूबों में कामयाब नहीं हो सके। जम्मू कश्मीर इसका सबसे बेहतर उदाहरण है। चूँकि वहाँ के लोग जागरूक हो चुके थे इसलिए जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटने के समय विपक्षी दलों के विरोध को जनता का समर्थन नहीं मिला। इसी प्रकार जम्मु कश्मीर के जिला विकास परिषद के चुनावों में भी स्थानीय लोगों ने राजनैतिक स्वार्थ से प्रेरित गुपकार गठबंधन को नकार दिया था। इसलिए जनसंख्या विस्फोट के दुष्परिणामों और सीमित परिवार के फायदों के प्रति अगर लोग जागरूक होंगे तो कोई दल कोई संगठन वोट बैंक की राजनीति नहीं कर पाएगा। अतः वर्तमान परिस्थितियों में जनसंख्या नियंत्रण के लिए कानून जितना जरूरी है उतना ही जनसमर्थन भी जरूरी है जो जनजागरण से ही संभव है।

डॉ नीलम महेंद्र

केरल के एक चर्च ने 5 से अधिक बच्चा पैदा करने पर की पुरस्कार देने की घोषणा

डॉ॰ राकेश कुमार आर्य

भारतवर्ष में देश और समाज को आगे बढ़ाने के लिए भी कोई सरकार दिल से काम करती है तो चर्च और इसी प्रकार के दूसरे मजहबी संगठन सरकार के कार्यों में रोड़ा अटकाने के लिए सामने आ जाते हैं। इससे पता चलता है कि भारतवर्ष की संसद से भी ऊपर चर्च और यह मजहबी संगठन अपने आप को दिखाने का प्रयास करते हैं । अब एक दैनिक समाचार पत्र में छपी खबर के अनुसार यूपी-असम जैसे राज्यों में जनसंख्या नियंत्रण के लिए उठाए जा रहे कदमों के बीच केरल में चर्च ने अधिक बच्चे वाले ईसाई परिवारों को आर्थिक मदद देने का एलान किया है। इसके तहत पांच या अधिक बच्चाें वाले परिवार को हर महीने 1500 रुपये मिलेंगे। सुविधा वर्ष 2000 के बाद शादीशुदा जोड़ाें को मिलेगी।
योजना का मकसद ईसाई समुदाय को आबादी बढ़ाने के लिए प्रेरित करना है। वैसे इसका तात्कालिक लक्ष्य महामारी से प्रभावित परिवारों को मदद पहुंचाना बताया गया है। सिरो-मालाबार कैथोलिक गिरजाघर के पाला डायोसिस के फैमिली अपोस्टोलेट के अनुसार ‘ईयर ऑफ द फैमिली सेलिब्रेशन’ के तहत बीते सोमवार को बिशप जोसेफ कलरंगट की ऑनलाइन बैठक में यह घोषणा हुई।
फैमिली अपोस्टोलेट के फादर कुट्टियानकल ने बताया कि आर्थिक मदद अगस्त से शुरू की जा सकती है। जब उनसे पूछा गया कि क्या यह योजना 2019 में चांगानाचेरी आर्चडायोसिस द्वारा जारी पत्र के तहत चलाई जा रही है? तो उन्होंने कहा कि पत्र में उठाया गया मामला आज की सच्चाई है। दरअसल, उस पत्र में कहा गया था कि केरल में ईसाई समुदाय की आबादी तेजी से घट रही है।
दूसरी सर्वाधिक आबादी थी ईसाइयों की, अब तीसरी 2019 में जोसेफ पेरूंथोत्तम द्वारा लिखे पत्र में बताया गया कि एक समय केरल में ईसाई समुदाय राज्य की दूसरी सबसे बड़ी आबादी था। अब यह तीसरे स्थान पर है। आबादी घटकर 18.38 फीसदी रह गई है।
ये दो घोषणाएं भी महत्वपूर्ण
चौथे बच्चे के जन्म पर मुफ्त इलाज चौथे या उससे ज्यादा बच्चाें को जन्म देने वाली ईसाई समुदाय की महिलाओं को चर्च के अधीन चलने वाले अस्पतालों में प्रसूति देखभाल निशुल्क करने की घोषणा की गई है।
जाहिर है कि इस प्रकार की सोच भारत और भारतीयता को नष्ट करने के लिए ही विकसित की जा रही है । चर्च और ऐसे ही मजहबी संगठनों पर सरकार को जितना जल्दी हो सकता है उतना जल्दी रोक लगाने के लिए कारगर कदम उठाने चाहिए। अन्यथा ये लोग आने वाले समय में देश के लिए सिरदर्द बन जाएंगे । वैसे भी इन संगठनों को भारत में अफरा-तफरी फैलाने और देश की सरकार के नियमों को या कानूनों को तोड़ने के लिए विदेशों से भी फंडिंग की जाती है और भरपूर प्रोत्साहन दिया जाता है। उन सारे हाथों को और षड़यंत्रों को बेनकाब करने की जरूरत है जो इस प्रकार के कार्यों में लगे हुए हैं।

नेहरू से लेकर मनमोहन तक फोन टैपिंग के पाप से रंगे हैं कांग्रेस के हाथ

जिस तरह एक चोर अपने साये से भी डरता है, ठीक वही स्थिति आज कांग्रेस और अन्य मोदी विरोधियों की है। जिस पार्टी ने राष्ट्रपति और सेना तक को नहीं बक्शा, वही पार्टी किस मुंह से वर्तमान पर फोन टैपिंग का आरोप लगा रही। सूची लम्बी है। जरुरत है, बस थोड़ा पीछा इतिहास जानने की। इसीलिए शुरू में कहा है कि चोर अपने साए तक से डरता है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत ने दुनिया में अपनी नई और मजबूत साख बनाई है। प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार की बढ़ती लोकप्रियता से कांग्रेस और देश विरोधी ताकतें परेशान हैं। क्योंकि उनका अस्तित्व अब खतरे में दिखाई दे रहा है। इसलिए कांग्रेस एक खास एजेंडे और साजिश के तहत मोदी सरकार को बदनाम करने की कोशिश कर रही है। लेकिन कांग्रेस का इतिहास ही विरोधियों के खिलाफ साजिश करने, जासूसी करने और सरकार गिराने का रहा है। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने करीब दो दशकों तक नेताजी सुभाष चंद्र बोस के रिश्तेदारों की जासूसी करवाई थी। 2015 में गुप्त सूची से हटाई गईं इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) की दो फाइलों से खुलासा हुआ कि 1948 से 1968 के बीच सुभाष चंद्र बोस के परिवार पर अभूतपूर्व निगरानी रखी गई थी। 

फोन टैपिंग की शुरूआत भी जवाहरलाल नेहरू के जमाने में ही हो गई थी। उस समय यह आरोप खुद संचार मंत्री रफी अहमद किदवई ने लगाए थे। इसी तरह आपाताकल के दौरान विपक्षी दलों के नेताओं की जासूसी की गई और उन्हें गिरफ्तार कर जेल में डाला गया। बीजेपी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने लोकसभा में आपातकाल की 20वीं वर्षगांठ पर 25 जून, 1975 के अटलबिहारी वाजपेयी के एक वक्तव्य का उल्लेख किया, जिसमें उन्होंने इंदिरा गांधी पर चन्द्रशेखर सहित कुछ नेताओं और पत्रकारों के फोन टैप किए जाने का आरोप लगाया था। प्रधानमंत्री रहते हुए राजीव गांधी पर राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह का फोन टैप करने का आरोप लगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के शासनकाल में सारे नियमों को ताक पर रखकर फोन टैपिंग के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए गए। 2013 में दायर एक आरटीआई के जवाब से पता चला कि केंद्र की यूपीए सरकार 9,000 फोन और 500 ईमेल अकाउंट्स की बारीकी से निगरानी कर रही थी । यहां तक कि मनमोहन सरकार ने तो अपनों तक को नहीं बख्शा।

कांग्रेस का फोन टैपिंग और जासूसी का काला इतिहास

  • सेना प्रमुख जनरल केएस थिमाया ने 1959 में अपने और आर्मी ऑफिस के फोन टैप होने का आरोप लगाया था।
  • नेहरू सरकार के मंत्री टीटी कृष्णामाचारी ने 1962 में फोन टैप होने का आरोप लगाया था।
  • लालकृष्ण आडवाणी ने इंदिरा गांधी सरकार पर आपातकाल के दौरान विपक्षी नेताओं का फोन टेप करने का आरोप लगाया।
  • ज्ञानी जैल सिंह ने राष्ट्रपति रहते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी पर राष्ट्रपति भवन के फोन टैप करने का आरोप लगाया था।
  • अमर सिंह ने 2006 में दावा किया था कि इंटेलीजेंस ब्यूरो (IB) उनका फोन टैप कर रही है।
  • अक्टूबर 2007 में सरकार ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के फोन भी टेप करवाए।
  • 2008 में सीपीएम नेता प्रकाश करात ने अपना फोन टेप करने का आरोप लगाया था।
  • 2009 में समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव और अमर सिंह के बीच एक बातचीत टेप की गई थी।
  • पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने वित्तमंत्री रहते हुए उस वक्त के गृहमंत्री चिदम्बरम के खिलाफ जासूसी का आरोप लगाया था।
  • 22 मई, 2011 को यूपीए सरकार ने सीबीडीटी को फोन टैपिंग जारी रखने का आदेश दिया।
  • 23 जून 2011 को सीबीईसी के चेयरमैन एस. दत्त ने डीआरआई पर अपने फोन टैप करने का आरोप लगाया।
  • 6 फरवरी, 2013 को एसपी लीडर अमर सिंह ने यूपीए पर फोन टैप करने का आरोप लगाया।
  • फरवरी 2013 में अरुण जेटली ने अपना फोन टैप करने का आरोप लगाया था। इस मामले में करीब दस लोगों को गिरफ्तार किया गया था।
  • 13 जून, 2021 को बीजेपी ने राजस्थान की गहलोत सरकार पर फोन टैप करने का आरोप लगाया।

राहुल गाँधी हो रहे ट्रोल कांग्रेस नेता राहुल गांधी को मंगलवार को एक बार फिर सोशल मिडिया प्लेटफॉर्म ट्वीटर पर ट्रोलिंग का शिकार होना पड़ा। दरअसर अपनी आदत के मुताबिक राहुल गांधी ने भारतीय जनता पार्टी पर निशाना साधते हुए ट्वीट कर उसे भारतीय जासूस पार्टी करार दिया।लेकिन ट्वीटर यूजर्स को राहुल गांधी का यह ट्वीट रास नहीं आया और बड़ी संख्या में लोगों ने गांधी परिवार और कांग्रेस के विरोध में ट्वीट करना शुरू कर दिया। विद्यापति ठाकुर नाम के एक यूजर्स ने तो गांधी परिवार की पूरी जन्मकुंडली ही खोलकर रख दी। उसने ट्वीट किया- “आपदा मे अवसर ढूंढना काग्रेंस से सीखे, आखिर 70year का अनुभव है। सत्ता गई, दलाली गई, कमीशन गया, कुछ नहीं मिला तो विदेशी वैक्सीन के लिए लॉबिंग करने लगे।” उसने आगे लिखा कि राहुल का नाना हिटलर का जासूस, मां रूस की एजेंट थी, बेटा चीन का जासूस, जाशूसी करना पुश्तैनी धंधा है।

नेहरू की इतिहास दृष्टि, भाग – 1

डॉ. शंकर शरण
बहुतेरे विदेशी लोग, और बड़ी संख्या में भारतीय उच्च-शिक्षित लोग भी भारत में ब्रिटिश राज से पहले के शासन को सामान्यतः ‘मुगल शासन’ के रूप में ही जानते हैं। वे समझते हैं कि ब्रिटिश साम्राज्य वस्तुत: मुगल साम्राज्य का उत्तराधिकारी था। उन्हें यह मोटा सा तथ्य ध्यान नहीं रहता कि ब्रिटिश विजय के आरंभिक काल में अंग्रेजों का संघर्ष किसी मुगल के साथ नहीं, बल्कि मराठी के साथ होता रहा था। इतिहास के सम्बन्ध में दूसरी भ्रांत धारणा यह है कि भारत के बड़े हिस्से में प्रायः पाँच सौ वर्ष तक राज्य करने वाले विविध मुस्लिम शासक कोई ‘विदेशी’ नहीं, बल्कि ‘भारतीय’ थे, जिनके विरुद्ध लड़ने वाले मराठे, जाट, राजपूत और सिख आदि स्थानीय ‘विद्रोही’ मात्र थे।

आधुनिक भारत में इन दोनों भ्रातियों का प्रचार करने वालों में जवाहरलाल नेहरू का नाम सर्वप्रथम है। यह अनायास नहीं कि भारत के अधिकांश मार्क्सवादी इतिहासकार अपनी विभिन्न ऐतिहासिक-राजनीतिक प्रस्थापनाओं को चलाने के लिए निरंतर नेहरू की आड़ लेते हैं, क्योंकि प्रथम प्रधानमंत्री और लंबे समय तक देश के सत्ता-तंत्र पर उनका तथा उनके वंशजों का अधिकार होने के कारण नेहरू नाम का एक वजन बना रहा है। इसी बहाने नेहरू को इतिहास के तथ्यों के लिए भी मानो किसी ‘आधिकारिक स्त्रोत’ के रूप में लिया जाता रहा है।

भारतीय शिक्षित वर्ग में इतिहास के प्रति जितनी भी भ्रातियाँ पाई जाती है, वह वस्तुत: सबसे पहले नेहरू जी की पुस्तक ‘ग्लिप्सेस ऑफ वड हिस्टरी’ से ही प्रचारित हुई हैं। भारत में बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी से लेकर सत्रहवी-अठारहवीं शताब्दी तक सत्तासीन रहे विविध मुस्लिम शासक ‘स्वदेशी’, ‘भारतीय’ शासक थे, यह प्रस्थापना पहले-पहल नेहरू से ही शुरू हुई। बाद में वामपंथी इतिहासकारों ने उस में उसी तरह के और भी तक-कुतर्क जोड़े।

विचित्र बात यह है कि उस प्रस्थापना क लिए नेहरू का मुख्य, और लगभग एक मात्र तर्क यह था कि कई बाहरी मुसलमान शासकों, बादशाहों ने हिन्दू स्त्रियों से विवाह किया था। उदाहरण के लिए, अफगान शासकों का स्वदेशीकरण करते नेहरू ने लिखा, “हम देखते हैं कि भारत ने धीरे-धीरे इन नृशंस योद्धाओं को नम्र बना दिया है और सुसंस्कृत कर लिया है। वे लोग यह अनुभव करने लगे हैं कि वे भारतीय ही हैं, विदेशी आक्रमणकारी नहीं। वे लोग इस देश की स्त्रियों से विवाह करते हैं, और धीरे-धीरे विजित और विजेता के बीच का विभेद लुप्त होने लगता है।”

तुर्क-अफगान आक्रांता अलाउद्दीन खिलजी के बारे में भी नेहरू वही कहते है, “अलाउद्दीन अन्य (मुसलमानों) के समान असहिष्णु था, किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि मध्य एशिया के इन शासकों की दृष्टि में परिवर्तन होने लगा था। वे लोग भारत को अपना स्वदेश मानने लगे थे। वे अब इस देश में विदेशी नहीं रह गए थे। अलाउद्दीन ने एक हिन्दू स्त्री से विवाह किया था, और उसके पुत्र ने भी।” यह सब कहते हुए नेहरू कोई तत्कालीन प्रमाण या संकेत तक ढूँढने की चिंता नहीं करते जिस से उनकी परिकल्पना की पुष्टि होती हो। जिस से दिखता हो कि वे आक्रांता, या उनके सहयोगी, दरबारी, तारीखनवीस, आदि में से कोई भी वह भावना रखते थे जो नेहरू उनमें अपनी ओर से डाल रहे हैं।

दूसरे तुर्क शासक फिरोजशाह तुगलक के बारे में भी नेहरू फिर वही दुहराते हैं, “फिरोजशाह की माँ बीबी नैला नाम की एक राजपूत स्त्री थी… इस प्रकार फिरोजशाह की शिराओं में भी राजपूत रक्त था। मुसलमान शासकों तथा राजपूत स्त्रियों के बीच होने वाले इन विवाह-सम्बन्धों की संख्या बढ़ती गई। इस के फलस्वरूप (हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच) एक उभय-सम्मत राष्ट्रवाद की मनोभावना को सहायता मिली होगी।” इस प्रकार, एक ही बात अपनी ओर से दुहराते हुए, और बिना किसी प्रमाण की परवाह करते हुए, नेहरू स्वयं कल्पना करके निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि पंद्रहवीं सदी आते-आते मुसलमान शासक विदेशी नहीं रह गए थे। नेहरू के अनुसार, “इस्लाम भारत में अब एक विदेशी अथवा नवागत तत्व नहीं रह गया है। वह पूरी तरह पैर जमा चुका है… मुसलमान बादशाह अब वैसे ही हिन्दुस्तानी है जैसी कि उनकी हिन्दू प्रजा… मुसलमान बादशाह बहुधा हिन्दू स्त्रियों से विवाह करते हैं… उन दोनों के बीच विजेता और विजित की अथवा शासक और शासित की भावना का पूर्ण लोप हो चुका है।”

नेहरू यह मामूली सत्य भी देखने-परखने की चिन्ता नहीं करते कि क्या हिन्दू, राजपूत स्त्रियाँ स्वेच्छा से मुस्लिम शासकों की पत्नियाँ बनी थी? अथवा क्या उन्हें जबरन विवाह करना पड़ा था? दूसरे, विवाह के उपरांत क्या वे हिन्दू रह गई थीं या उन्हें विधिवत् मुसलमान बनाया जा चुका था? चूँकि पाँच-छ: सदियों के गजनी, घूरी, खिलजी, लोदी, तुगलक और मगुल शासकों में केवल बादशाह अकबर की बेगम जोधाबाई द्वारा अपने महल में मंदिर में पूजा करते रहने का उल्लेख मिलता है, इसलिए यह स्पष्ट झलकता है कि दूसरी राजपूत, हिन्दू स्त्रियों को किसी मुस्लिम शासक द्वारा ऐसी छूट नहीं रही थी। तब वह सब विवाह था या बलात्कार?

यह प्रश्न इसलिए भी उठता है कि कोई नहीं देखता कि उन्हीं सदियों में क्या किसी हिन्दू राजा ने भी किसी मुस्लिम शाहजादी से विवाह किया था? साथ ही, क्या कथित हिन्दू माताओं से पैदा होने वाली मुगल संतानों में कोई हिन्दू भाव या सहानुभूति भी पाई गई है? यदि इन सभी मोटे-मोटे प्रश्नों को भी नजरअंदाज किया गया तो इसका अर्थ है कि नेहरू इतिहास नहीं, अपना लज्जास्पद प्रमाद और राजनीतिक मतवाद फैलाने में मशगूल थे। उनमें इतिहास लिखने, समझने की कोई योग्यता नहीं थी।

यदि नेहरू का तर्क माना जाए तब तो कहना होगा कि अंग्रेजों का भी भारतीयकरण हो गया। जाने-माने ब्रिटिश इतिहासकार विलियम डालरिंपल ने मुगलकाल के अंतिम दौर में अनेकानेक अंग्रेज अधिकारियों को यहाँ भारतीय-मुस्लिम बीवियाँ, रखैलियाँ रखते हुए पाया ही है। आखिर भारत का ‘एंग्लो-इंडियन’ समुदाय क्या था, और कैसे बना था? जिस बड़ी संख्या में यहाँ एंग्लो-इंडियन समुदाय बना, उसी की जरूरत थी कि स्वतंत्र भारत में संसद में इस समुदाय के दो सदस्यों को नामित करने की व्यवस्था की गई। जब तक ब्रिटिश शासन रहा, तब तक यहाँ एंग्लो-इंडियन लोग प्राय: अपने आपको अन्य भारतीयों से कुछ ऊपर मानते थे।

अतः ब्रिटिश राज में अंग्रेजों और भारतीयों के भी विवाह होते रहने के तथ्य के मद्देनजर, नेहरू के तर्क से, अंग्रेजों को ही विदेशी क्यों माना जाए? नेहरू भारत में कई अंग्रेज अधिकारियों द्वारा भारतीय स्त्रियों से विवाह या साथ रहने के तथ्य से परिचित थे। तब अंग्रेजी राज के संबंध में वही तर्क न लगाना यही संकेत करता है कि नेहरू ने अपना कथित इतिहास किसी सुसंगत तर्क से नहीं लिखा था, बल्कि विविध यूरोपीय इतिहासकारों ने जो सब लिख रखा था उन्हीं से मनमाना चुनाव कर, तथा उन बातों को अपना रंग देकर नेहरू ने मनमाना निष्कर्ष प्रचारित किया। चार-पाँच सौ सालों के सल्तनत-मुगल शासन में, गजनवी, तुगलक, खिलजी, आदि से लेकर औरंगजेब तक नेहरू किन तथ्यों को चुनते और छोड़ते है, इसे सरलता से परखा जा सकता है। उन तमाम मुस्लिम शासकों द्वारा किए गए हत्याकांडों, विध्वंस, जबरन धर्मातरण, बलात्कार, अत्याचार, आदि कुछ भी नेहरू के लिए महत्वपूर्ण नहीं है। (क्रमशः…)
(स्रोत: ‘नेहरूवाद की विरासत’, पृ. 23-43)
✍?डॉ0 शंकर शरण

सहारनपुर के मौलाना अब्दुल लतीफ़ ने बद्रीनाथ धाम पर ठोका मुस्लिमों का दावा

जैसे-जैसे उत्तर प्रदेश चुनाव निकट आ रहे हैं, वोट ध्रुवीकरण की सियासत भी तेज होनी शुरू हो गयी है। पहले उत्तर प्रदेश समेत समस्त भारत को रामजन्मभूमि को विवादित बनाकर साम्प्रदायिकता की आग में झोंक रखा था, उसी तर्ज पर पर बद्रीनाथ को विवादित बनाकर देश को साम्प्रदायिकता की आग में झोंकने का प्रयास किया जा रहा है।ज्ञात हो, यूपीए के कार्यकाल में कश्मीर में शंकराचार्य हिल्स को भी सुलेमान हिल्स बनाने का काम किया गया था, पुरातन विभाग द्वारा भी सुलेमान का पत्थर लगा दिया गया था, लेकिन भाजपा के घोर विरोध के बाद पत्थर हटाकर शंकराचार्य हिल्स का पत्थर दुबारा लगाया गया था।उत्तर प्रदेश स्थित सहारनपुर के एक मौलाना का वीडियो वायरल हो रहा है, जिसमें वो एक पवित्र हिन्दू तीर्थ स्थल पर मुस्लिमों का दावा ठोकता हुआ दिख रहा है। देवबंदी मौलाना अब्दुल लतीफ़ के इस वायरल वीडियो में वो कहता दिख रहा है कि बद्रीनाथ धाम हिन्दुओं का नहीं तीर्थ स्थल, मुस्लिमों का है। सोशल मीडिया पर इस वीडियो के सामने आने के बाद लोगों ने यूपी पुलिस से उसकी गिरफ़्तारी की माँग की है। 

इस वीडियो में मौलाना अब्दुल लतीफ़ कहता है, “असली बात तो ये हैं कि वो बद्रीनाथ नहीं, बदरुद्दीन शाह हैं। ये मुस्लिमों का धार्मिक स्थल है, इसीलिए इसे मुस्लिमों के हवाले कर दिया जाना चाहिए। ये बद्रीनाथ नहीं हैं। नाथ लगा देने से वो हिन्दू हो गए क्या? वो बदरुद्दीन शाह हैं। तारीख़ उठा कर देखिए। इतिहास का अध्ययन कीजिए, फिर बकवास कीजिए। मुस्लिमों को उनका धार्मिक स्थल चाहिए।”

इतना ही नहीं, उक्त मौलाना इस वीडियो में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री से भी माँग करता है कि मुस्लिमों को बद्रीनाथ धाम सौंप दिया जाए। साथ ही उसने मंदिर प्रबंधन से भी मंदिर को खाली करने के लिए कहा। अंत में धमकाते हुए वो कहता है, “अगर मुस्लिमों को उनका धार्मिक स्थल नहीं मिला तो हम बद्रीनाथ धाम की तरफ मार्च करेंगे। मुस्लिम वहाँ मार्च कर के बद्रीनाथ धाम पर कब्ज़ा करेंगे।”

लोगों ने उसके इस बयान पर आक्रोश जताया। ‘ज़ी मीडिया’ के पत्रकार तेजपाल रावत ने कहा, “अभी तो ये लोग देवभूमि में ही बसे हैं। अब इन लोगों का कहना यह भी है कि बद्रीनाथ हमारा है। ईद के दिन इन लोगों ने बद्रीनाथ पर जाकर नमाज अदा की। आगे आप लोग जागे नहीं तो क्या-क्या हो सकता है!” इस वीडियो को पोस्ट करते हुए उन्होंने उत्तराखंड में भू-कानून की माँग की। हालाँकि, ऑपइंडिया इस बात की पुष्टि नहीं करता कि ये वीडियो कब का है। ये पुराना भी हो सकता है, जो अब वायरल हो रहा हो।

सुप्रीम कोर्ट में गोवा के स्टैंडिंग काउंसल प्रशांत पटेल उमराव ने कहा कि मौलाना अब्दुल लतीफ़ का वक्तव्य प्रदेश की कानून व्यवस्था के लिए खतरा पैदा कर सकता है, इसीलिए इसकी शीघ्र गिरफ्तारी हो। उन्होंने सोशल मीडिया पर सहारनपुर पुलिस और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को टैग कर के उसकी गिरफ़्तारी की माँग की। लोगों ने उसके बयान को हिन्दुओं को ठेस पहुँचाने वाला और सामाजिक एकता भंग करने वाला बताया।

नवंबर 2017 में भी मौलाना अब्दुल लतीफ़ का बद्रीनाथ धाम को लेकर इसी तरह का बयान वायरल हुआ था। वो सहारनपुर के मदरसा दारुल उलूम निश्वाह का मौलाना है। तब उसने पीएम मोदी को पत्र लिख कर इस बारे में माँग की थी। तब बद्रीनाथ के पुजारियों ने उसे पागल करार दिया था। योग गुरु बाबा रामदेव ने तब इस पर तीखी प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि बद्रीनाथ धाम की स्थापना इस्लाम के जन्म से भी सैकड़ों वर्ष पूर्व हुई थी।

कुछ ही दिनों पहले हिंदुओं के पवित्र तीर्थ स्थल बद्रीनाथ धाम में 15 मुस्लिम श्रमिकों द्वारा ईद की नमाज अदा किए जाने के मुद्दे ने अब जोर पकड़ लिया था। कार्रवाई की माँग करते हुए हिन्दू संगठनों ने उत्तराखंड के पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज को ज्ञापन दिया है, जिस पर उन्होंने चमोली के पुलिस अधीक्षक को जाँच के आदेश दिए थे। आरोप है कि वहाँ चल रहे निर्माण कार्य में संलग्न श्रमिकों में से कुछ मुस्लिम समुदाय के लोगों ने नमाज पढ़ी थी।

उत्तराखंड में स्थित बद्रीनाथ मंदिर मुख्यतः भगवान विष्णु को समर्पित है। संतों द्वारा वर्णित भगवान विष्णु के पवित्र 108 धामों में इसका नाम आता है। साथ ही ये जगद्गुरु शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार मठों में से भी एक है। ये सिर्फ अप्रैल से नवंबर तक श्रद्धालुओं के लिए खुला रहता है क्योंकि बाकी महीनों में काफी ठंड पड़ती है। दिलचस्प बात ये है कि इसके मुख्य पुजारी दक्षिण भारतीय राज्य केरल से चुने जाते है।

त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था है भ्रष्टाचार की उद्गम स्थली

                                                                                    -प्रो. रसाल सिंह 

प्रयागराज के नव-निर्वाचित जिला पंचायत अध्यक्ष और सदस्यों के शपथ ग्रहण समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में शामिल हुए उप्र के उपमुख्यमंत्री केशवप्रसाद मौर्या ने जो बात कही, वह गौरतलब और विचारणीय हैI उन्होंने कहा कि अगली बार जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुख के चुनाव सीधे जनता द्वारा कराये जायेंगेI इसबार भी सरकार की मंशा ये चुनाव अप्रत्यक्ष मतदान की जगह सीधे जनता से कराने की ही थी, किन्तु कोरोना महामारी के चलते पर्याप्त तैयारियों का समय न मिलने से परम्परागत तरीके से ही ये चुनाव कराये गएI उल्लेखनीय है कि अभी जनता द्वारा चुने गए जिला पंचायत सदस्य और क्षेत्र पंचायत सदस्य क्रमशः जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुख का चुनाव करते हैंI डेलिगेटों द्वारा होने वाले इन चुनावों में धनबल और बाहुबल का अत्यधिक दुरुपयोग होता हैI धनबल और बाहुबल के अत्यधिक प्रयोग के अलावा इन चुनावों में सत्तारूढ़ दल के पक्ष में शासन-प्रशासन की मशीनरी का भी खूब प्रयोग होता हैI इसलिए इन चुनावों के परिणाम वास्तविक जनादेश की अभिव्यक्ति नहीं करतेI महज उप्र ही नहीं, बल्कि पश्चिम बंगाल,राजस्थान, बिहार, पंजाब, हरियाणा, उड़ीसा और जम्मू-कश्मीर आदि जहाँ भी त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था लागू है, वहाँ की कमोबेश यही कहानी हैI यह सर्वविदित है कि सत्तारूढ़ दल ही इनमें से अधिकांश पदों को जीतते हैंI विपक्ष या
सन् 2015-16 में तत्कालीन सत्तारूढ़ दल समाजवादी पार्टी ने जिला पंचायत अध्यक्ष की 75 सीटों में से कुल 63 सीटें और ब्लॉक प्रमुख की 826 सीटों में से 623 सीटें जीतकर नया कीर्तिमान बनाया थाI भाजपा, बसपा, और कांग्रेस जैसे अन्य प्रमुख दल उसके आस-पास भी न थेI सन 2010 के चुनावों में सत्तारूढ़ बहुजन समाज पार्टी ने भी लगभग यही हाल किया थाI सन् 2021 के हालिया संपन्न चुनावों में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने उस कीर्तिमान को ध्वस्त करते हुए जिला पंचायत अध्यक्ष की 67 सीटें और ब्लॉक प्रमुख की 648 सीटें जीतकर नया इतिहास रच दिया हैI गौरतलब यह भी है कि पंचायत चुनावों में इतनी शानदार और धमाकेदार जीत हासिल करने के बावजूद साल-डेढ़ साल के बाद संपन्न हुए विधान-सभा चुनावों में सत्तारूढ़ दलों का हश्र बहुत बुरा हुआI सत्ता-परिवर्तन के साथ ही ब्लॉक प्रमुखों और जिला पंचायत अध्यक्षों के विकेट गिरने लगते हैंI अविश्वास प्रस्तावों की झड़ी लग जाती है और नए सत्तारूढ़ दल के लोग इन पदों को हथिया लेते हैंI इसप्रकार ये पद प्रायः सत्तामुखी होते हैंI इस आधार पर यह निष्कर्ष निकालना मुश्किल नहीं है कि ये चुनाव वास्तविक जनादेश की अभिव्यक्ति नहीं करते, बल्कि वास्तविक जनादेश से इतर जब अध्यक्ष और प्रमुख पदों का परिणाम आता है तो जनता में जनादेश के अपहरण का सन्देश जाता है और परवर्ती चुनावों में इसकी स्वाभाविक प्रतिक्रिया भी होती ही हैI सन् 2018 में पश्चिम बंगाल के पंचायती चुनावों में हुई छीना-झपटी और जनादेश के अपहरण की प्रतिक्रिया 2019 के लोकसभा चुनावों में दिखाई पड़ी थीI ऐसे और भी अनेक उदाहरण हैंI
24 अप्रैल,1993 को 73 वें संविधान संशोधन के परिणामस्वरूप त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा प्राप्त हुआI इसीलिए भारत में प्रत्येक वर्ष 24 अप्रैल को पंचायती राज दिवस के रूप में मनाया जाता हैI पंचायती राज व्यवस्था को लागू करने की सबसे बड़ी वजह गाँधी जी की ग्राम स्वराज की अवधारणा थीI गाँधी जी मानते थे कि ‘सच्चा लोकतंत्र केंद्र में बैठकर राज्य चलाने वाला नहीं होता, अपितु यह तो गाँव के प्रत्येक व्यक्ति के सहयोग से चलता हैI’ दरअसल, गांधीजी की लोकतंत्र की अवधारणा में शासन-प्रशासन का विकेंद्रीकरण अन्तर्निहित हैI उनके इसी सपने को साकार करने के लिए और लोकतंत्र और विकास को ऊपर से नीचे की जगह नीचे से ऊपर की संभव करने के लिए पंचायती राज व्यवस्था लागू की गयीI इसमें ग्राम पंचायत, क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत को शामिल किया गयाI ग्राम पंचायत के अध्यक्ष अर्थात प्रधान या सरपंच का चुनाव तो ग्राम पंचायत के मतदाता प्रत्यक्ष मतदान के द्वारा करते हैंI किन्तु क्षेत्र पंचायत अध्यक्ष अर्थात ब्लॉक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष अर्थात जिला प्रमुख का चुनाव जनता द्वारा चुने हुए सदस्य करते हैंI इस अप्रत्यक्ष चुनाव के कारण ही पंचायती राज व्यवस्था के दूसरे और तीसरे पायदान इतने प्रदूषित और तमाम बुराइयों के उद्गमस्थल बन गये हैंI
क्षेत्र पंचायत सदस्यों और जिला पंचायत सदस्यों की क्रमशः ब्लॉक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव में मतदान के अलावा कोई सक्रिय और व्यावहारिक भूमिका नहीं होती हैI उनके पास कोई कार्यकारी शक्ति, बजट आदि भी नहीं होता हैI इसलिए वे प्रमुख और अध्यक्ष के चुनाव में प्रायः अपने मत को एकमुश्त रकम लेकर बेच देते हैंI इसी से ये चुनाव बहुत अधिक खर्चीले हो जाते हैंI इसी खरीद-फरोख्त के कारण इन सदस्यों की सामाजिक छवि भी बहुत अच्छी नहीं मानी जातीI सदस्यों की खरीद-फरोख्त में करोड़ों रुपये लगाकर चुनाव जीते हुए प्रमुख और अध्यक्ष विकास की जगह अपने खर्च की भरपाई में जुट जाते हैंI ये संस्थाएं विकास के नाम पर सफ़ेद हाथी बन जाती हैं और भ्रष्टाचार, गबन और खाने-पीने के बड़ेअड्डे बन जाती हैंI क्षेत्र पंचायत प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष का कोई प्रत्यक्ष निर्वाचक मंडल न होने से इनकी उसके प्रति जवाबदेही भी नगण्य होती हैI इसलिए ये विकास-कार्यों के लिए आवंटित राशि का कहाँ,कितना और कैसा प्रयोग करते हैं, उसका ज़मीनी हिसाब-किताब न होकर कागजी लेखा-जोखा ही अधिक होता हैI विकास-राशि के बड़े हिस्से का गुप-गपाड़ा हो जाता हैI क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत के चुनावों का गन्दा नाला अंततः विधान-सभा और लोक-सभा चुनावों की नदी में ही मिलता है और उसे भी गँदला कर देता हैI इस व्यवस्था में आंशिक परिवर्तन करके क्षेत्र पंचायत सदस्यों और जिला पंचायत सदस्यों के गैरजरूरी और बेवजह खर्चीले चुनाव से बचा जा सकता हैI ग्राम पंचायत पंचायती राज व्यवस्था की वास्तविक रीढ़ हैI केंद्र सरकार और राज्य सरकार की तमाम विकास योजनाओं और नीतिगत निर्णयों के जमीनी कार्यान्वयन में ग्राम पंचायतों की ही निर्णायक और निर्विकल्प भूमिका होती है। उन्हें ही सर्वाधिक मजबूत, महत्वपूर्ण और साधन-संपन्न बनाने की आवश्यकता हैI प्रधान/सरपंच का चुनाव जनता सीधे करती हैI उसके पास कार्यकारी अधिकार और वित्तीय शक्तियां और संसाधन होते हैंI उसकाअपने निर्वाचकों के साथ सीधा संपर्क और संवाद तथा उनके प्रति प्रत्यक्ष जवाबदेही भी होती हैI इसलिए उसी की तर्ज पर क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत सदस्यों के चुनाव की जगह जनता द्वारा सीधे ब्लॉक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव कराया जाना चाहिएI ब्लॉक के सभी प्रधानों को क्षेत्र पंचायत का सदस्य बनाकर और जिले के सभी ब्लॉक प्रमुखों को जिला पंचायत का सदस्य बनाकर क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत का गठन किया जा सकता हैI
साथ ही, इन चुनावों को राजनीतिक दलों के आधार पर नहीं लड़ा जाना चाहिएI राजनीतिक दल इन चुनावों के परिणामों से अपने प्रदर्शन को जोड़कर एड़ी चोटी का जोर लगाते हैं और साम,दाम,दंड, भेद- सब हथकंडे अपनाते हैंI अपनी प्रतिष्ठा से जोड़कर धनबल, बाहुबल और शासन-प्रशासन की मशीनरी का भी जमकर दुरुपयोग करते हैंI परिणामस्वरूप, इन चुनावों की निष्पक्षता और पारदर्शिता बुरी तरह प्रभावित होती हैI ये चुनाव वास्तविक जनाकांक्षा और जनादेश की अभिव्यक्ति में पूर्णतः असफल सिद्ध होते हैंI जब ये चुनाव भी ग्राम प्रधान की तरह गैर-राजनीतिक आधार पर होंगे और राजनीतिक दलों के प्रत्यक्ष हस्तक्षेप से मुक्त होंगे तो जमीनी स्तर पर जनता के बीच सक्रिय और लोकप्रिय नेताओं की नयी पौध तैयार हो सकेगीI यह संयोग मात्र नहीं है कि सन् 1993 में त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था प्रारम्भ होने के बाद से राजनीति में धनबल और बाहुबल का प्रयोग और वर्चस्व क्रमशः बढ़ता गया हैI दरअसल, ब्लॉक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष पद के चुनाव राजनीति में धनपशुओं और बाहुबलियों के प्रवेश-द्वार हैंI ये चुनाव जीतकर वे अपने धनबल और बाहुबल के प्रदर्शन से राजनीतिक दलों को प्रभावित करते हैं और विधान-सभा और लोक-सभा के टिकट मार लेते हैंI राजनीति के इन गंदे नालों को बंद करने या इनकी चुनाव-प्रक्रिया में तत्काल बदलाव करने की जरूरत हैI
इनकी वर्तमान चुनाव-प्रक्रिया में एक और समस्या हैI इन पंचायतों में संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार महिलाओं, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था हैI इसलिए लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में वंचित वर्गों की व्यापक भागीदारी होती हैI ग्राम पंचायत सदस्य, ग्राम प्रधान, क्षेत्र पंचायत सदस्य और जिला पंचायत सदस्य के रूप में इन वंचित वर्गों के अनेक लोग चुनकर आते हैंI ये चुनाव प्रत्याशी विशेष के लिए आवंटित चुनाव-चिह्न पर मोहर लगाने वाली मतदान प्रणाली से संपन्न होते हैंI इसलिए मतदाताओं और प्रत्याशियों की शैक्षणिक योग्यता से निर्वाचन-प्रक्रिया प्रभावित नहीं होती, लेकिन ब्लॉक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव चुनाव-चिह्न आवंटित न करके प्रत्याशी के नाम के सामने वाले खाने में वरीयता क्रम में 1,2,3 लिखकर होता हैI परिणामस्वरूप, अनेक निरक्षर या कम पढ़े-लिखे क्षेत्र पंचायत सदस्य और जिला पंचायत सदस्य सही से मतदान नहीं कर पाते और उनके मत बड़ी संख्या में निरस्त हो जाते हैंI इसप्रकार उनकी निरक्षरता न सिर्फ उनकी भागीदारी को सीमित कर देती है, बल्कि जिस मतदाता वर्ग (वार्ड) ने उन्हें चुना है; उनके जनादेश की भी सही अभिव्यक्ति और भागीदारी नहीं हो पाती हैI इसलिए यथाशीघ्र पंचायती राज व्यवस्था में चुनाव लड़ने के लिए न्यूनतम शैक्षिक योग्यता का प्रावधान किया जाना चाहिएI साथ ही, ब्लॉक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष पद के चुनाव भी चुनाव-चिह्न आवंटित करके ही कराये जाने चाहिए; ताकि वंचित वर्गों के लोगों के कम से कम मत निरस्त होंI
अगर सचमुच सरकार का विकेंद्रीकरण करना है और लोकतंत्र को जमीनी स्तर पर मजबूत बनाना है तो उपरोक्त सुधारों की दिशा में पहलकदमी करने की आवश्यकता हैI ऐसा करके ही इन पंचायती राज संस्थाओं में जनता की वास्तविक भागीदारी सुनिश्चित हो सकेगी और लक्षित परिणाम प्राप्त होने की सम्भावना भी बनेगीI

   

इस्लामिक चक्रव्यूह में भारत…एक और चुनौती

क्या मूस्लिम समाज वास्तव में भयभीत है या फिर सवा करोड़ के मुस्लिम युवाओं के क्लब के गठन द्वारा आक्रांताओं की जड़ों को गहरा करके अपने पूर्वाग्रहों के कारण इस्लामिक चक्रव्यूह में घेरने के लिये भारत को एक और चुनौती दे रहा है ?

समाचारों से ज्ञात हुआ है कि इस्लामिक संस्था : दारुल-उलूम, देवबंद में पिछले दिनों (24 जुलाई 2018) को जमीयत उलेमा-ए-हिंद के राष्ट्रीय महासचिव मौलाना सैय्यद महमूद मदनी सहित अनेक उलेमाओं और मौलानाओं के समक्ष एक सौ मुस्लिम युवकों द्वारा शारीरिक शक्ति का प्रदर्शन किया गया है। लेकिन उसकी तुलना देश की किसी सैनिक अकादमी में हुई “पास आउट परेड” के प्रशिक्षित सैन्य अधिकारियों से की जाय तो संभवतः कुछ अतिशयोक्ति हो सकती है ?

वैसे पूर्व राज्यसभा सांसद मौलाना मदनी ने 100 मुस्लिम युवाओं का विश्व के एक प्रमुख इस्लामी केंद्र देवबंद (भारत) में तथाकथित कला का प्रदर्शन कराकर अपनी अराष्ट्रीय मानसिकता का परिचय कराया है। देश के पांच राज्यों के ‘मेवात’ सहित 16 जनपदों से आये हुए इन प्रशिक्षित युवकों के कला प्रदर्शन के माध्यम से ‘जमीयत उलेमा-ए-हिन्द’ ने “जमीयत यूथ क्लब” के गठन व उसकी भावी योजनाओं को संभवतः पहली बार उजागर किया है।

जमीयत की इस योजनानुसार प्रति वर्ष साढ़े बारह (12.5) लाख मुसलमान नवयुवकों को “विशेष प्रशिक्षण” देकर तैयार किया जा रहा है। मौलाना मदनी का मानना है कि ऐसा प्रशिक्षण पाने से कोई भी बाहरी शक्तियां इन मुस्लिम युवकों का कुछ भी नहीं बिगाड़ पायेगी। इस प्रकार आगामी दस वर्षों में अर्थात सन 2028 तक देश के एक सौ जनपदों के सवा करोड़ (1.25 करोड़) मुस्लिम नवयुवकों को विशेष प्रशिक्षित किया जायेगा।समाचारों के अनुसार जमीयत की इस योजना में मान्यता प्राप्त ‘भारत स्काउट व गाइड’ का भी सहयोग लिया जा रहा है। इसके पीछे यह तर्क दिया जा रहा है कि जमीयत उलेमा-ए-हिन्द, जमीयत युथ क्लब व भारत स्काउट व गाइड मिलकर देश की सेवा करेंगे। इन योजनाओं पर होने वाला सारा व्यय केवल जमीयत उलेमा-ए-हिन्द ही वहन करेगी।

ऊपरोक्त परिप्रेक्ष्य में ऐसा प्रतीत होता है कि जमीयत देश की वर्तमान शासकीय व प्रशासकीय व्यवस्थाओं को अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में बाधक मानकर मुस्लिम समुदाय को भ्रमित करके देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को बिगाड़ना चाहती है। धर्म या सम्प्रदाय विशेष को ऐसा सशक्त बल या समूह या क्लब बनाने को क्या हमारा संविधान अनुमति देगा ? क्या इस प्रकार ‘भारत स्काउट व गाइड’ के नाम का सहारा लेकर व सुरक्षा के बहाने देश को भ्रमित किया जा सकता है ? जबकि वर्षों से यह स्पष्ट है कि भारतीय मुसलमानों को आम नागरिकों से अधिक अधिकार मिले हुए हैं। उनको लाभान्वित करने के लिये अल्पसंख्यक आयोग व मंत्रालय सहित अनेक संस्थाएं कार्यरत हैं, फिर भी उनको अपनी सुरक्षा के प्रति “भय” क्यों ? क्या यह “भय” मुस्लिम समाज को भयभीत करके देश में साम्प्रदायिक वातावरण बिगाड़ने के लिये तो नहीं ?

यदि मुस्लिम समाज अपनी इस्लामिक विचारधारा को ही सत्य मानेगा और विश्व के अन्य समाजों की विचारधाराओं और संस्कृति को अपने अनुरूप बनाने की अंतहीन जिहादी सोच में परिवर्तन नहीं करेगा तो उनमें अन्यों के साथ जियो और जीने दो की सुखद भावना का विकास कैसे होगा? मानवीय सिद्धान्तों और नैतिक मूल्यों को इस्लामी जगत को स्वीकार्य होना ही चाहिये। आज सभ्य समाज को यह स्वीकार नहीं है कि कोई आतंकियों की तरह उन्हें भयभीत करें और उनको क्षति पहुंचाता रहे। यह सर्वथा अनुचित है कि सहिष्णुता के नाम पर विध्वंसात्मक प्रवृत्तियों के प्रति भारतीय समाज सहनशील बना रहे ?

कुछ षड्यंत्रकारी जमीयत यूथ क्लब की तुलना राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से करके इसे उचित ठहराने का प्रयास कर रहे हैं। जबकि संघ दशकों से भारतीय मूल्यों की रक्षा के साथ- साथ सम्पूर्ण भारतीय समाज, उसमें हिन्दू-मुस्लिम- सिख-ईसाई आदि सभी की अनेक प्रकल्पों द्वारा सेवा करता आ रहा है।

इसके अतिरिक्त ‘मॉब लिंचिंग’ का भी भय दिखा कर इस प्रकार के संगठन के गठन को उचित बताने वाले भी हिन्दू विरोध की अवधारणाओं से ग्रस्त है। जबकि ‘मॉब लिंचिंग’ या ‘भीड़ हत्या’ या “सामूहिक अत्याचारों” से भरे मुगलकालीन इतिहास व वर्तमान को भुला कर चालबाज बुद्धिजीवियों ने “लव जिहाद व गौहत्या” आदि के विवादों में हिंदुओं को ही दोषी मानकर भ्रमित प्रचार करने का माध्यम बना दिया है।

क्या यह सर्वविदित नहीं है कि हिन्दू समाज उदार व अहिंसक होने के कारण मुस्लिम कट्टरपंथियों व आतंकवादियों की हिंसात्मक गतिविधियों का वर्षो से शिकार होता आ रहा है ? ऐसे में हैदराबाद के अकबरुद्दीन ओवैसी की विषैली फुफकार को भी भुलाया नहीं जा सकता जब उसने आदिलाबाद में 24 दिसम्बर 2012 को एक सार्वजनिक सभा में कहा था कि पंद्रह मिनट को पुलिस हटा लो हम मुसलमान करोडों हिंदुओं पर भारी पड़ेंगे।फिर भी मुस्लिम समाज अपनी तथाकथित सुरक्षा के नाम पर सशक्त सेना के समान एक विशाल संगठन खड़ा कर रहा है, क्यों ? क्या यह भारत के इस्लामीकरण करने की जिहादी सोच के मिशन का भाग तो नहीं ?

आपको स्मरण रखना होगा कि काग्रेसी नेता और भारत सरकार के प्रथम शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की सोच थी कि “भारत जैसे देश को जो एक बार मुसलमानों के शासन में रह चुका है, कभी भी त्यागा नहीं जा सकता और प्रत्येक मुसलमान का कर्तव्य है कि उस खोयी हुई मुस्लिम सत्ता को फिर प्राप्त करने के लिये प्रयत्न करे”। जमायते इस्लामी के संस्थापक मौलाना मौदूदी ने पाकिस्तान बनने का विरोध तो नहीं किया परंतु थोड़ा दुख व्यक्त करते हुए कहा था कि “हम तो पूरे भारत को ही इस्लामी देश बनाना चाहते थे”। विभिन्न मुस्लिम नेताओं के अनेक ऐसे ऐतिहासिक कथन अभी तक मुसलमानों के अन्तःस्थल में छलकते रहते हैं। क्योंकि इस्लाम का संकल्प है जिहाद और अंतिम लक्ष्य भी परंतु यह अन्तहीन संघर्ष मानवता विरोधी है।

अतः जब संसार को दारुल-हरब और दारुल-इस्लाम में विभाजित करके देखने वालों की देशभक्ति स्वाभाविक रूप से संदेहात्मक हो तो उसका दोषी कौन होगा ?

निःसंदेह कट्टरपंथी मौलानाओं ने जमीयत यूथ क्लब के नाम से सवा करोड़ की एक प्रशिक्षित इस्लामिक फौज की तैयारी का अपना गुप्त एजेंडा उजागर करने से पहले विचार-विमर्श अवश्य किया होगा।

क्या ऐसे में यह सोचना अनुचित होगा कि इस क्लब को देशव्यापी विभिन्न आतंकवादी संगठनों व उनके स्लीपिंग सेलों तथा ओवर ग्राउंड वर्करों का जो पहले से ही प्रशिक्षित हैं, सहयोग मिलेगा ? इसके अतिरिक्त यह भी संभावना हो सकती है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान व इस्लामिक स्टेट आदि के आतंकी और पाकिस्तानी गुप्तचर संस्था आई.एस.आई. आदि जिहाद के लिये इस यूथ क्लब से जुड़ कर देश के अनेक भागों में आतंकवादी घटनाओं द्वारा राष्ट्रीय वातावरण को दूषित करने में सफल हो सकेंगे ?

यह कितना विचित्र व दुखदायी है कि इस्लाम में धर्मांतरित होने वाले भारतीय नागरिक अपने पूर्वजों व अपनी मूल संस्कृति एवं इतिहास में कोई आस्था नहीं रखते बल्कि अपने ही गैर मुस्लिम देशवासियों के प्रति घृणा करने के साथ साथ लूटमार व मारकाट आदि अत्याचारों से उनको भयभीत करने से भी नहीं चूकते। ऐसा कहा जाता है कि इस प्रकार के अत्याचारों के लिये आक्रामक बने रहने वालों को ही सच्चा मुसलमान माना जाता है।

अतः कोई इस धोखे में न रहे कि इस्लाम शांति व प्रेम का संदेश देने वाला धर्म/मज़हब है। ये तथाकथित शांतिदूत अपनी अपरिवर्तनीय कट्टरपंथी विद्याओं से यही सीखते और सिखाते है कि दुनिया में गैर ईमानवालों और अविश्वासियों को जीने का अधिकार ही नहीं। देवबंद में स्थित इस्लाम जगत की प्रमुख संस्था दारुल-उलूम व अन्य इस्लामिक संस्थाओं से प्रेरित होकर देश-विदेश के विभिन्न भागों में लाखों मकतब, मदरसे व मस्जिदें स्थापित हो चुकी हैं जिनका मुख्य उद्देश्य जिहाद के लिये जीना और जिहाद के लिये ही मरना माना जाता है।

क्या ऐसे में जमीयत उलेमा-ए-हिन्द द्वारा पोषित यूथ क्लब से सैकड़ों-हज़ारों मौलानाओं को यह आशा बंधी होगी कि ऐसे प्रशिक्षित युवक इस्लामिक चक्रव्यूह में भारत को घेरने में उनका सहयोग करेंगे और भारत को दारुल-इस्लाम बनाने का उनका सदियों पुराना सपना सच हो सकेगा ? क्या भारत सरकार देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को बिगाड़ने वाले ऐसे षड्यंत्रकारियों के प्रति कोई वैधानिक कार्यवाही कर सकती है ?

जब सामान्यतः विवादित मठों और मंदिरों का सरकार अधिग्रहण कर लेती है तो फिर देश की मुख्य धारा से दूर करके देशवासियों में अलगाववादी भावना भरने वाले मदरसों व मस्जिदों का अधिग्रहण राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से और भी आवश्यक हो जाता है। आज सम्पूर्ण राष्ट्रवादी समाज देश के इस्लामीकरण या दारुल-इस्लाम बनाये जाने के विरुद्ध है परंतु ऐसे सशक्त इस्लामिक चक्रव्यूह की बढ़ती एक और चुनौती का सामना कैसे किया जायेगा, इसका चिंतन आवश्यक व अनिवार्य है ?

अतः आज यह सोचना अति महत्वपूर्ण है कि क्या भारतीय मुस्लिम समाज अपने बच्चों को भारतीय संस्कृति व नैतिक मानवीय मूल्यों पर आधारित शिक्षा देकर उनमें गैर मुस्लिमों के प्रति घृणा की भावना को समाप्त करने के आवश्यक उपाय करेगा ? क्या जमीयत उलेमा हिन्द व अन्य मुस्लिम संस्थायें कभी ऐसे प्रशिक्षण केंद्रों की स्थापना करेंगी जिसमें ऐसा मुस्लिम युवा तैयार हो जो “अरब व पाकिस्तान” के स्थान पर “भारत” को अपना आदर्श मान कर अपने पूर्वजों की संस्कृति को अपनाये। क्यों नहीं कोई मुस्लिम सुधारवादी व बुद्धिजीवी नेता मदरसों को केवल राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति के अनुरूप बना कर इस्लामिक आतंकवाद पर अंकुश लगाने का साहस करता ?

इस्लामिक चक्रव्यूह में भारत को घेरने की बार-बार चुनौती देने वाले कट्टरपंथी मुस्लिम समाज को अपने धर्म ग्रंथ कुरान की उन आपत्तिजनक आयतों में संशोधन करना होगा जो अविश्वासियों के प्रति जिहाद करने को उकसाती हैं। जमीयत उलेमा-ए-हिन्द को राष्ट्र की मुख्य धारा में जोड़ने के लिये मुस्लिम समाज को ऐसा प्रशिक्षण देना चाहिये जिससे वे देश के संविधान का सम्मान करे और भारत की ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की संस्कृति को अपनाते हुए “सर्वजन हिताय व सर्वजन सुखाय” में विश्वास करना सीखे। अतः वर्तमान आधुनिक युग में परिवर्तित परिस्थितियों के अनुकूल स्वयं को ढालना ही जीवन को भयमुक्त करके सुरक्षित रखने व सेवा करने का सर्वोत्तम उपाय है।

विनोद कुमार सर्वोदय

मध्य-प्रदेश में जहर बनती शराब

प्रमोद भार्गव
चंबल क्षेत्र के बाद मध्य-प्रदेश के मालवा-निमाड़ अंचल में भी जहरीली शराब ने 6 लोगों के प्राण हर लिए हैं। आखिर आबकारी विभाग और पुलिस का बड़ा अमला होने के बावजूद कैसे मंदसौर जिले के ग्रामों में परचूनी की दुकानों पर खुलेआम नकली एवं जहरीली शराब की थैलियां बिक रही थीं ? वह भी उस विधानसभा क्षेत्र में जहां से आबकारी मंत्री विधायक हैं। साफ है, शराब माफिया, सरकारी अमला और राजनीतिक गठजोड़ से यह कारोबार फल-फूल रहा है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान ने जिले के आबकारी अधिकारी को हटा दिया है और आबकारी उपनिरीक्षक व पिपलिया मंडी के थाना प्रभारी और एक उपनिरीक्षक को निलंबित भी कर दिया हैं, सब जानते हैं कि निलंबन किसी प्रकार का दंड नहीं है। कुछ ही दिनों में बहाली हो जाती है। मुख्यमंत्री कानून में बदलाव कर कठोर दंड देने की बात तो कह रहे हैं, लेकिन क्या वे इस कानून में जुम्मेदार अधिकारियों को भी नौकरी से बर्खास्त करने के प्रावधान करेंगे ? क्योंकि प्रदेश में सुनियोजित ढंग से पुलिस और आबकारी महकमा नशे के कारोबार को संरक्षण दे रहा है। शिवपुरी में तो इस कारोबार ने किशोर और युवाओं की एक पूरी पीढ़ी को ही गिरफ्त में ले लिया है। इसमें लड़कियां भी शामिल हैं।
तमाम दावों और घोषणाओं के बावजूद प्रदेश समेत देश में जहरीली शराब मौत का पर्याय बनी हुई है। न तो इसके अवैध निर्माण का कारोबार बंद हुआ और न ही बिक्री पर रोक लगी। नतीजतन हर साल जहरीली शराब से सैंकड़ों लोग बेमौत मारे जाते हैं। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य-प्रदेश, पंजाब, आंध्र-प्रदेश, असम और बिहार में बड़ी संख्या में इस शराब से मरने वालों की खबरें रोज आती हैं। लॉकडाउन के दौरान पंजाब और आंध्र-प्रदेश में करीब सवा सौ लोग सेनेटाइजर पीने से ही मर गए थे। लेकिन तमाम हो-हल्ला मचने के बावजूद राज्यों के शासन-प्रशासन ने इन हादसों से कोई सबक नहीं लिया। बिहार में यह स्थिति तब है, जब वहां पूर्ण शराब बंदी है। साफ है, शराब लॉबी अपने बाहू और अर्थबल के चलते शराब का अवैध कारोबार बेधड़क करने में लगी है। राज्यों की पुलिस और आबकारी विभाग या तो कदाचार के चलते इस ओर से आंखें मूंदे हुए हैं अथवा वे स्वयं को इस लॉबी के बरक्श बौना मानकर चल रहे हैं। इसीलिए गांव-गांव देशी भट्टी पर कच्ची शराब बन और बिक रही हैं। बिहार की तरह गुजरात में भी शराबबंदी है, बावजूद सीमावर्ती राज्य मध्य-प्रदेश और राजस्थान से तस्करी के जरिए शराब खूब लाई और बेची जाती है। लिहाजा शराबबंदी व्यावहारिक नहीं है। इस पर रोक अपराध बढ़ाने का काम भी करते हैं।
बिहार में जब पूर्ण शराबबंदी लागू की गई थी, तब इस कानून को गलत व ज्यादितिपूर्ण ठहराने से संबंधित पटना हाईकोर्ट में जनहित याचिका पटना विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफेसर राय मुरारी ने लगाई थी। तब पटना हाईकोर्ट ने शराबबंदी संबंधी बिहार सरकार के इस कानून को अवैध ठहरा दिया था। इस बाबत सरकार का कहना था कि हाईकोर्ट ने शराबबंदी अधिसूचना को गैर-कानूनी ठहराते समय संविधान के अनुच्छेद 47 पर ध्यान नहीं दिया। जिसमें किसी भी राज्य सरकार को शराब पर प्रतिबंध लगाने का अधिकार है। बिहार सरकार ने हाईकोर्ट के फैसले को विसंगतिपूर्ण बताते हुए यह भी कहा था कि पटना उच्च न्यायालय की दो सदस्यीय पीठ का जो फैसला आया है, उसमें एक न्यायाधीश का कहना था कि ‘शराब का सेवन व्यक्ति का मौलिक अधिकार नहीं है।’ वहीं दूसरे न्याधीश का मानना है कि ‘शराब का सेवन मौलिक अधिकार है।’ ऐसे विडंबना पूर्ण निर्णय भी शराबबंदी के ठोस फैसले पर कुठाराघात करते हैं।
देश के संविधान निर्माताओं ने देश की व्यवस्था को गतिशील बनाए रखने की दृष्टि से संविधान में धारा 47 के अंतर्गत कुछ नीति-निर्देशक नियम सुनिश्चित किए हैं। जिनमें कहा गया है कि राज्य सरकारें चिकित्सा और स्वास्थ्य के नजरिए से शरीर के लिए हानिकारक नशीले पेय पदार्थों और ड्रग्स पर रोक लगा सकती हैं। बिहार में शराबबंदी लागू करने से पहले केरल और गुजरात में शराबबंदी लागू थी। इसके भी पहले तमिलनाडू, मिजोरम, हरियाणा, नागालैंड, मणिपुर, लक्ष्यद्वीप, कर्नाटक तथा कुछ अन्य राज्यों में भी शराबबंदी के प्रयोग किए गए थे, लेकिन बिहार के अलावा न्यायालयों द्वारा शराबबंदी को गैर-कानूनी ठहराया गया हो, ऐसे देखने में नहीं आया था। अलबत्ता राजस्व के भारी नुकसान और अर्थव्यवस्था गड़बड़ा जाने के कारण प्रदेश सरकारें स्वयं ही शराबबंदी समाप्त करती रही हैं।
इस समय देश में पुरुषों के साथ महिलाओं में भी शराब पीने की लत बढ़ रही है। पंजाब में यह लत सबसे ज्यादा है। निरंतर बढ़ रही इस लत की गिरफ्त में बच्चे व किशोर भी आ रहे हैं। इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए ही बिहार विधानसभा के दोनों सदनों में बिहार उत्पाद (संशोधन) विधेयक-2016, ध्वनिमत से पारित हो गया था। यही नहीं, दोनों सदनों के सदस्यों ने संकल्प लिया था कि ‘वे न शराब पियंेगे और न ही लोगों को इसे पीने के लिए अभिप्रेरित करेंगे।’ इस विधेयक के पहले चरण में ग्रामीण क्षेत्रों में देसी शराब पर और फिर दूसरे चरण में शहरी इलाकों में विदेशी मदिरा को पूरी तरह प्रतिबंधित करने का प्रावधान कर दिया गया था। इस पर रोक के बाद यदि बिहार में कहीं भी मिलावटी या जहरीली शराब से किसी की मौत होती है तो इसे बनाने और बेचने वाले को मृत्युदंड की सजा का प्रावधान किया गया था, लेकिन यहां किसी को फांसी की सजा हुई हो, इसकी जानकारी नहीं है।
शराब के कारण घर के घर बर्बाद हो रहे हैं और इसका दंश महिला और बच्चों को झेलना पड़ रहा है। साफ है, शराब के सेवन का खामियाजा पूरे परिवार और समाज को भुगतना पड़ता है। शराब के अलावा युवा पीढ़ी कई तरह के नशीले ड्रग्स का भी शिकार हो रही है। पंजाब और हरियाणा के सीमांत क्षेत्रों में युवाओं की नस-नस में नशा बह रहा है। इस सिलसिले में किए गए नए अध्ययनों से पता चला है कि अब पंजाब और हरियाणा के युवाओं की संख्या सेना में निरंतर घट रही है। वरना एक समय ऐसा था कि सेना के तीनों अंगों में पंजाब के जवानों की तूती बोलती थी। नशे का दुर्भाग्यपूर्ण पहलू अब यह भी देखने में आ रहा है कि आज आधुनिकता की चकाचैंध में मध्य व उच्च वर्ग की महिलाएं भी शराब बड़ी संख्या में पीने लगी हैं, जबकि शराब के चलते सबसे ज्यादा संकट का सामना महिला और बच्चों को ही करना होता है।
शराबबंदी को लेकर अकसर यह प्रश्न खड़ा किया जाता है कि इससे होने वाले राजस्व की भरपाई कैसे होगी और शराब तस्करी को कैसे रोकेंगे ? ये चुनौतियां अपनी जगह बाजिव हो सकती हैं, लेकिन शराब के दुष्प्रभावों पर जो अध्ययन किए गए हैं, उनसे पता चलता है कि उससे कहीं ज्यादा खर्च, इससे उपजने वाली बीमारियों और नशा-मुक्ति अभियानों पर हो जाता है। इसके अलावा पारिवारिक आर सामाजिक समस्याएं भी नए-नए रूपों में सुरसामुख बनी रहती हैं। घरेलू हिंसा से लेकर कई अपराधों और जानलेवा सड़क दुर्घटनाओं की वजह भी शराब बनती है। यही कारण है कि शराब के विरुद्ध खासकर ग्रामीण परिवेश की महिलाएं मुखर आंदोलन चलातीं, समाचार माध्यमों में दिखाई देती हैं। इसीलिए माहात्मा गांधी ने शराब के सेवन को एक बड़ी सामाजिक बुराई माना था। उन्होंने स्वतंत्र भारत में संपूर्ण शराबबंदी लागू करने की पैरवी की थी। ‘यंग इंडिया’ में गांधी ने लिखा था, ‘अगर मैं केवल एक घंटे के लिए भारत का सर्वशक्तिमान शासक बन जाऊं तो पहला काम यह करूंगा कि शराब की सभी दुकानें, बिना कोई मुआबजा दिए तुरंत बंद करा दूंगा।’ बावजूद गांधी के इस देश में सभी राजनीतिक दल चुनाव में शराब बांटकर मतदाता को लुभाने का काम करते हैं। ऐसा दिशाहीन नेतृत्व देश का भविष्य बनाने वाली पीढ़ियों का ही भविष्य चैपट करने का काम कर रहा है। पंजाब इसका जीता-जागता उदाहरण है। शराब से राजस्व बटोरने की नीतियां जब तक लागू रहेंगी, मासूम लोगों को शराब का लती बनाया जाता रहेगा। निरंतर शराब महंगी होती जाने के कारण गरीब को भट्टियों में बनाई जा रही देशी शराब पीने को मजबूर होना पड़ता है। सैनेटाइजर में 70 प्रतिशत से ज्यादा एल्कोहल होने का प्रचार हो जाने के कारण, लाचार लोग इसे भी पीकर मौत के मुंह में समा रहे हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने शराब पर अंकुश लगाने की दृष्टि से राष्ट्रीय राजमार्गों पर शराब की दुकानें खोलने पर रोक लगा दी थी। किंतु सभी दलों के राजनीतिक नेतृत्व ने चतुराई बरतते हुए नगर और महानगरों से जो नए वायपास बने हैं, उन्हें राष्ट्रीय राजमार्ग घोषित करने की अधिसूचना जारी कर दी और पुराने राष्ट्रीय राजमार्गों का इस श्रेणी से विलोपीकरण कर दिया। साफ है, शराब की नीतियां शराब कारोबारियों के हित दृष्टिगत रखते हुए बनाई जा रही हैं। जाहिर है, शराब माफिया सरकार पर भारी हैं।

हर डिग्री सेल्सियस वार्मिंग में बढ़त के साथ मानसून वर्षा में लगभग 5% वृद्धि की संभावना

अब समय है स्वीकारने का कि जलवायु परिवर्तन हमारी रोज़मर्रा की जिंदगी पर दिखा रहा है असर, ग्लोबल वार्मिंग भारत में मानसून की बारिश को उम्मीद से कहीं ज्यादा बढ़ा रहा है

भारत के पश्चिमी तटीय राज्यों महाराष्ट्र और गोवा के साथ-साथ हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र में चरम मौसम की घटनाओं का एक सिलसिला देखा गया है। घातक बाढ़, क्लाउड बर्सट (बादल फटने) और लैंडस्लाइड (भूस्खलन) के कारण सैकड़ों लोग अपनी जान गंवा चुके हैं।

पश्चिमी तट के कुछ हिस्सों में रिकॉर्ड तोड़ बारिश की सूचना के साथ, 22 जुलाई से अब तक हजारों लोगों को इवेक्युएट किया गया है। रिलीफ़ एंड रीहैबिटीलेशन डिपार्टमेंट (सहायता एवं पुनर्वास विभाग) – महाराष्ट्र के अनुसार, बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों से लगभग 229,074 लोगों को इवेक्युएट किया गया है। 26 जुलाई तक कुल 164 मौतें रिपोर्ट की गई हैं और 25,564 जानवरों की मौत हुई है। 56 लोग घायल हुए थे और 100 अभी भी लापता हैं। कुल 1028 गांव प्रभावित हुए हैं, जिनमें से रायगढ़ ज़िला सबसे ज्यादा बुरी तरह से प्रभावित है, और इसके बाद रत्नागिरी और सतारा ज़िले ।

इस बीच, हिमाचल प्रदेश ने 25 जुलाई को भूस्खलन की सूचना दी, जिसमें 9 की मौत हुई और कई घायल हुए। उत्तराखंड में महीने की शुरुआत से लगातार भूस्खलन की खबरें आ रही हैं।

विशेषज्ञों का कहना है कि अब समय आ गया है कि हम स्वीकार करें कि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव हमारी रोज़मर्रा की जिंदगी पर दिखाई दे रहा है। ग्लोबल वार्मिंग तीव्र होने के साथ, भारतीय मानसून का मौसम अस्थिर हो गया है। वैज्ञानिक पहले ही चेतावनी दे चुके हैं कि वैश्विक तापमान में वृद्धि के साथ मॉनसून की बारिश और बढ़ेगी।

AVM (एवीएम) जी.पी. शर्मा, अध्यक्ष – मौसम विज्ञान और जलवायु परिवर्तन, स्काईमेट वेदर ने कहा, “सीज़न के आधे ख़त्म होने से भी पहले हमने अभी ही मौसमी वर्षा लक्ष्य हासिल कर लिया है। जलवायु परिवर्तन इस समय की वास्तविकता है। मौसम की संवेदनशीलता बढ़ रही है, चाहे वह क्लाउड बर्स्ट की तीव्रता या आवृत्ति हो, भूस्खलन, भारी वर्षा, चक्रवात या अन्य घटना। मानसून अस्थिर हो गया है और हम मानसून के मौसम के पैटर्न में, जिसे कभी सबसे स्थिर माना जाता था, एक बड़ा परिवर्तन देख रहे हैं। यह अब मौसम विशेषज्ञों का डोमेन नहीं है और इसके लिए मल्टीडिसिपलीनरी (बहु-विषयक) या मल्टी-स्पेशियलिटी (बहु-विशिष्ट) फ़ोकस की आवश्यकता है, जिसे सभी हितधारकों के बीच एकीकरण की आवश्यकता है।”

आगे, पॉट्सडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च के एक हालिया अध्ययन के अनुसार, ‘जलवायु परिवर्तन भारतीय मानसून के मौसम को और ज़्यादा गड़बड़ बना रहा है’, हर डिग्री सेल्सियस वार्मिंग के लिए, मानसून की वर्षा में लगभग 5% की वृद्धि होने की संभावना है। ग्लोबल वार्मिंग भारत में मानसून की बारिश को पहले जो सोचा गया था उस से कहीं ज्यादा बढ़ा रही है। यह 21वीं सदी के मानसून की डायनैमिक्स (क्रियाशील) पर हावी है। जलवायु परिवर्तन अप्रत्याशित मौसम चरम सीमाओं और उनके गंभीर परिणामों की ओर ले जा रहा है। भारतीय उपमहाद्वीप की सामाजिक-आर्थिक भलाई वास्तव में लाइन पर (ख़तरे में) है। एक ज़्यादा गड़बड़ मानसून का मौसम क्षेत्र में कृषि और अर्थव्यवस्था के लिए खतरा बन गया है और नीति निर्माताओं के लिए दुनिया भर में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में भारी कटौती करने के लिए एक वेक उप कॉल (जगाने की पुकार) होना चाहिए।

महेश पलावत, उपाध्यक्ष – मौसम विज्ञान और जलवायु परिवर्तन, स्काईमेट वेदर ने कहा, “चार महीने लंबे दक्षिण-पश्चिम मानसून के मौसम के लिए जुलाई सबसे ज़्यादा बारिश वाला महीना है। देश भर में ज़ोरदार मॉनसून की स्थिति के साथ, हम पूरे महाराष्ट्र में भारी बारिश की उम्मीद कर रहे थे, लेकिन इस चरम मौसम की श्रृंखला की उम्मीद नहीं की गयी थी। इसमें कोई शक नहीं कि हम जलवायु परिवर्तन की चपेट में हैं और परिणाम हमारे सामने हैं। वनों की कटाई और तेज़ी से शहरीकरण के साथ पश्चिमी घाट की नाज़ुक प्रकृति के कारण भूस्खलन और बड़े पैमाने पर विनाश हुआ है। वायुमंडल के गर्म होने से हवा की नमी धारण करने की क्षमता बढ़ जाती है, जिससे तीव्र क्यूम्यलोनिम्बस बादल या लंबवत रूप से विकसित बादल बनते हैं, जिससे इस क्षेत्र में लगातार भारी बारिश होती रहती है। इसके अलावा, जब वातावरण अस्थिर होता है, तो ये बादल बार बार बनते रहते हैं और यह बादल के बनने की एक श्रृंखला में बदल जाता है जिससे लगातार वर्षा होती है।”

हिमालयी क्षेत्र में मौसम के पैटर्न के बारे में बात करते हुए, पलावत ने आगे कहा, “पहाड़ी क्षेत्र में मौसम अधिक संवेदनशील हो जाता है, क्योंकि पहाड़ मौसम के प्रति अधिक तेज़ी से प्रतिक्रिया करते हैं। जैसा कि पहले दोहराया गया है, तेज़ ऊपरी हवा के अभाव में क्यूम्यलोनिम्बस बादलों के बनने पर, वे बहुत लंबी यात्रा करने की प्रवृत्ति नहीं रखते हैं या हम कह सकते हैं कि वे फंस जाते हैं। ये बादल तब एक निश्चित क्षेत्र में सारा पानी छोड़ देते हैं, जिसे क्लाउड बर्स्ट (बादल फटना) कहते हैं। वनों की कटाई और हाइड्रोपावर (जलविद्युत) संयंत्रों, सड़कों, होटलों या घरों के निरंतर निर्माण से मिट्टी अस्थिर (ढीली) हो गयी है, जिसके परिणामस्वरूप थोड़ी ही बारिश होने से भी बार-बार भूस्खलन होते हैं। साथ ही, हमारी हिमालय पर्वतमाला पारिस्थितिक रूप से भुरभुरी है, जलवायु परिवर्तन का बहुत कम प्रभाव भी पहाड़ी इलाक़ों में घातक घटनाओं का कारण बन सकता है।”

IPCC के पांचवें आकलन रिपोर्ट चक्र में यह निष्कर्ष निकाला गया कि जलवायु प्रणाली पर मानव प्रभाव “स्पष्ट” है। तब से, एट्रिब्यूशन पर साहित्य – जलवायु विज्ञान का उप-क्षेत्र जो देखता है कि कैसे (और कितना) मानव गतिविधियों से जलवायु परिवर्तन होता है – का काफी विस्तार हुआ है। आज, वैज्ञानिक पहले से कहीं ज़्यादा निश्चित हैं कि जलवायु परिवर्तन हमारे कारण होता है। हाल के एक अध्ययन में पाया गया है कि पूर्व-औद्योगिक काल से सभी वार्मिंग का कारण मानव हैं, जिससे इस बहस के लिए कोई गुंजाइश नहीं बचती है कि जलवायु क्यों बदल रहा है। AR5 के बाद से, क्षेत्रीय प्रभावों पर भी ध्यान केंद्रित किया गया है, वैज्ञानिकों द्वारा उनके मॉडलों में सुधार और वैश्विक जलवायु परिवर्तन के प्रभाव क्षेत्रीय स्तर पर किसे दिखेंगे इसकी समझ में सुधार के साथ।

प्रभावित जिलों में 1 जून से 26 जुलाई तक बारिश के आंकड़े नीचे दिया गया हैं। स्रोत: भारत मौसम विज्ञान विभाग

जलवायु लचीलेपन के निर्माण के बग़ैर निष्क्रियता की लागत अधिक है

अगर ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन अनियंत्रित चलता रहे तो भारत, एक अरब से अधिक आबादी के साथ दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक, गंभीर परिणाम भुगतने की कगार पर है। प्राकृतिक आपदाओं के अलावा, इन आपदाओं की आर्थिक लागत विकासशील अर्थव्यवस्था पर और भी बोझ डाल रही है। विभिन्न अध्ययनों की ख़ूब अत्यधिक गीले वर्षों की भविष्यवाणी के साथ, लोगों की भलाई, अर्थव्यवस्था, कृषि और खाद्य प्रणाली पर बड़ा खतरा मंडरा रहा है।

इससे पहले कि बहुत देर हो जाए, पर्यावरणविदों, वैज्ञानिकों और अन्य संबंधित हितधारकों के समुदायों के बीच ग्राउंड लेवल (ज़मीनी स्तर) पर समुदायों को शामिल करते हुए कई चरणों में कार्य योजनाओं को विकसित करने और लागू करने के लिए सहमति बनी है। “हम न केवल भारत में बल्कि यूरोप और चीन के कुछ हिस्सों में भी इन चरम मौसम की घटनाओं का अनुभव कर रहे हैं। हम चीन और जर्मनी में तबाही की भयावह तस्वीरें देखते रहे हैं, जो दर्शाती हैं कि जलवायु परिवर्तन यहीं और अभी है। यह अब केवल एक विकासशील देश की समस्या नहीं है, बल्कि यह अब जर्मनी, बेल्जियम और नीदरलैंड जैसे औद्योगिक देशों को भी अपनी चपेट में ले रही है। IPCC के वैज्ञानिक पिछले कुछ सालों से इन मुद्दों को लेकर आगाह कर रहे हैं। महासागरों और क्रायोस्फीयर पर नवीनतम IPCC रिपोर्ट (SROCC) हमें इस बात का विस्तृत विवरण देती है कि कैसे ग्लोबल वार्मिंग से महासागरों का ताप बढ़ रहा है और कैसे मानसून के पैटर्न तेज़ी से बदल रहे हैं। ग्लोबल वार्मिंग के कारण भारतीय उपमहाद्वीप की मानसून प्रणाली में भारी बदलाव आया है। (आपके पास) या तो लंबे समय तक सूखा पड़ता है या भारी बारिश होती है। यह नयी सामान्य स्थिति होने जा रहा है। भारतीय शहरों, कस्बों और गांवों को एडाप्टेशन के लिए तत्काल योजनाओं की आवश्यकता है। जलवायु के प्रति एक लचीला बुनियादी ढांचे और जोखिम प्रबंधन योजनाओं के निर्माण पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए क्योंकि ये बढ़ती चरम घटनाएं जीवन के साथ-साथ हमारी अर्थव्यवस्थाओं को भी प्रभावित करेंगी। दूसरे, भारत को वैश्विक दक्षिण में हरित विकास मॉडल की ओर देशों को प्ररित करने और और ग्रह का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने का नेतृत्व करना चाहिए। लोगों, लाभ और ग्रह के बीच संतुलन बनाना संभव है,” डॉ अंजल प्रकाश, अनुसंधान निदेशक और सहायक एसोसिएट प्रोफेसर, भारती इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक पॉलिसी, इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस और IPCC की छठी मूल्यांकन रिपोर्ट में प्रमुख लेखक, ने कहा।