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महामारी बनाम दुकानदारी,बहुत खतरनाक!

देश आज जिस कगार पर खड़ा हुआ है उससे प्रत्येक नागरिक पूरी तरह से डरा एवं सहमा हुआ है। इसके पीछे का मुख्य कारण यह है कि कोई ठोस व्यवस्था का न होना। देश में महामारी ने जिस तरह का कोहराम मचा रखा है उससे प्रत्येक व्यक्ति पूरी तरह से घबराया हुआ है। इसके पीछे का कारण यह है कि किसी ने अपने परिवार के सदस्य को खोया है तो किसी ने अपने रिश्तेदार को। किसी ने अपने परिचित को खोया है तो किसी ने अपने सहकर्मी को। इसलिए देश का प्रत्येक नागरिक पूरी तरह से घबराया हुआ है। क्योंकि अपनी खुली हुई आँखों के सामने अपने परिवार के सदस्य को तड़प-तड़पकर मरते हुए इन्हीं आँखों से देखा गया है। जोकि बहुत ही दुखद है। जिसे शब्दों के माध्यम से कागज पर उकेर पाना असंभव है। सारी कोशिशों के बाद भी जान बचा पाने में अस्मर्थ परिवार अब पूरी तरह से डरा एवं सहमा हुआ है। क्योंकि तमाम प्रयासों के बाद भी वह अपने परिवार के सदस्य को नहीं बचा पाया। छोटे-छोटे मासूम बच्चे पूरी तरह से डरे एवं सहमें हुए हैं क्योंकि उन्होंने अपने पिता अथवा माता को इस महामारी में खो दिया। बिखरे एवं टूट चुके हुए परिवार के सामने कोई सहारा नहीं है। अब आँखों के नीचे अंधेरा छाया हुआ है। वृद्ध पिता अपने जवान पुत्र को खो चुका है। अब अनाथ पौत्रों की चिंता बूढ़े दादा के कंधों पर आ टिकी है। जोकि बहुत ही अधिक संकट का समय है। इससे उबर पाना बहुत ही कठिन कार्य है। क्योंकि बूढ़ा पिता अपने जवान पुत्र को खोने के बाद अपने आपको ऐसे कगार पर खड़ा पा रहा है जिससे उबर पाना किसी युद्ध को जीतने जैसा है। क्योंकि एक ओर मुँह फैलाए हुए महामारी खड़ी है तो दूसरी ओर अनाथ पौत्रों की चिंता। ऐसी जटिल समस्या है जिससे उबर पाने के लिए कोई ठोस विकल्प नहीं है। इस समय जान बचा पाना बहुत बड़ा चैलेंज है जिससे निपट पाने के लिए कोई किरण कहीं दूर-दूर दिखाई नहीं दे रही। 
देश का जर्जर चिकित्सीय ढ़ाँचा जिस प्रकार से हाँप रहा है वह किसी से भी छिपा हुआ नहीं है। इस हाँफते हुए ढ़ाँचे ने जिस प्रकार से देश की जनता का भरोसा छीना है उससे प्रत्येक व्यक्ति पूरी तरह से आहत है। प्रत्येक पीड़ित व्यक्ति की आत्मा इस प्रकार की जर्जर व्यवस्था को कोस रही है। इसी कारण है कि देश की जनता पूरी तरह से डरी एवं सहमी हुई है। इस जर्जर हुए ढ़ाँचे पर कोई विश्वास करे तो कैसे करे जहाँ आम जनमानस कि चिंता करने वाला कोई है ही नहीं। ऑक्सीज़न एवं दवाई तो दूर की बात है अस्पताल में बेड प्राप्त कर पाना किसी बड़े युद्ध को जीतने जैसा है। जो व्यक्ति इस समय अस्पताल में बेड प्राप्त कर लेता है वह अपने आपको बहुत ही भाग्यशाली समझता है। क्योंकि एक बेड के लिए वह कहाँ-कहाँ अथवा किस-किसके की चौखट पर गिड़गिड़ाने नहीं गया।   
सबसे अधिक चिंता का विषय यह है कि इस महामारी में कुछ लोगों ने दुकानदारी का अवसर खोज निकाला है। सभी प्रकार की छोटी से छोटी मेडिकल संबन्धी आपूर्ति अब मुँह माँगे दामों में बेची जा रही है। जोकि बहुत ही खतरनाक है। महामारी को जिस प्रकार से दुकानदारी का रूप दिया जा रहा है उससे और भय व्याप्त है। क्योंकि जिस प्रकार से सरकारी अस्पतालों ने अपने हाथ खड़े कर दिए हैं उससे आम आदमी की सांसे थमने लगी हैं। क्योंकि प्राईवेट अस्पातालों जिस प्रकार से एक-एक बेड की मुँह माँगी कीमत वसूल कर रहे हैं। वह बिल्कुल साफ दिखाई दे रहा है। आम आदमी के सामने अब क्या विकल्प रह गया है। कुछ नहीं। मध्यम एवं न्यूनतम व्यक्ति के पास न तो पैसा है और न ही उसके पास किसी प्रकार का सत्ता का विटो पावर। इसलिए साधारण व्यक्ति अपनी खुली हुई आँखों से साक्षात यमराज को देख रहा है। क्योंकि जिस प्रकार से देश का चिकित्सीय ढ़ाँचा अपनी तस्वीर प्रस्तुत कर रहा है वह बहुत ही भयावह है।
शमशान घाट एवं कब्रिस्तानों की स्थिति किसी से भी छिपी हुई नहीं है। अस्पतालों की बदहाल तस्वीर से देश का प्रत्येक व्यक्ति पूरी तरह से घबराया हुआ है। दवाईयों एवं मेडिकल से संबन्धित सभी प्रकार की आवश्यक्ताओं का जिस प्रकार से बाजार बनाया जा रहा है वह बहुत ही घातक है। बेचारा पीड़ित व्यक्ति करे तो क्या करे। एक ओर प्राण बचाने के लिए मेडिकल से संबन्धित सभी प्रकार की आवश्यकताएं तो दूसरी ओर खाली जेब। अब ऐसी दो धारी तलवार पर व्यक्ति फंसा हुआ है जिसके पास कोई रास्ता ही नहीं है बचता। अब करे तो क्या करे। क्योंकि अपनी आँखोँ के सामने अपने परिवार के सदस्य को मरता हुआ नहीं देखा जा सकता। तो दूसरी ओर उपचार के लिए इतना भारी भरकम खर्च का बोझ सहन करने की क्षमता ही नहीं है। क्योंकि अगर प्राण बचाने हैं तो खर्च करने की बाध्यता है। अब खर्च करने की बाध्यता का पूरक होना सामर्थ पर निर्भर करता है। तो सामर्थ है ही नहीं। अब कोई रास्ता नहीं बचा इसलिए पूरे देश के अंदर बहुत भय का माहौल व्याप्त है।
अतः इस दुकानदारी की मानसिकता पर लगाम लगाने की सख्त जरूरत है। क्योंकि भारत का संविधान प्रत्येक व्यक्ति को इस बात का अधिकार प्रदान करता है वह अपना उचित उपचार करवाने का भागीदार है। संविधान का मौलिक अधिकार शिक्षा तथा उपचार की स्पष्ट रूप से व्याख्या करता है।  इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को उचित इलाज का प्रबंध होना चाहिए। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि इस दुकानदारी पर लगाम कैसे लगाई जा सकती है तो इसके लिए किसी वैज्ञानिक विधि की आवश्यकता नहीं है। इस दुकानदारी को समाप्त करने के लिए सरकार को ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है। भाषणों एवं प्रचारों से बाहर निकलकर धरातल पर कार्य करने की आवश्यकता है। जितना पैसा प्रचार एवं प्रसार पर खर्च हो रहा उसी पैसे को चिकित्सीय व्यवस्था के बुनियादी ढ़ाँचे में खर्च करने की जरूरत है। अस्पतालों की उचित व्यवस्था होनी चाहिए। चिकितिसालयों में उचित उपचार का प्रबंध होना चाहिए। ऑक्सीजन से लेकर सभी प्रकार की व्यवस्था अस्पतालों के अंदर स्वयं की मौजूद होनी चाहिए। प्रत्येक अस्पताल इस प्रकार से डेवलेप होना चाहिए कि वह किसी भी प्रकार की परिस्थिति का सामना कर सके। प्रत्येक जनपद के अंदर आबादी के अनुपात के अनुसार अस्पाताल में बेड से लेकर सभी प्रकार की व्यवस्थाओं का उचित प्रबंध होना चाहिए। यदि सरकार इस प्रकार का ढ़ाँचा खड़ा कर देती है तो निश्चित यह दुकानदारी पूरी तरह से चरमा जाएगी। क्योंकि जब साधारण व्यक्ति को उचित उपचार सरकारी अस्पतालों में सरलता पूर्वक प्राप्त हो जाएगा तो प्राईवेट अस्पतालों के चक्कर कोई नहीं लगाएगा जिससे देश की जनता के अंदर एक बड़ा मैसेज जाएगा और जो यह भय व्याप्त है वह पूरी तरह से समाप्त हो जाएगा।
इसलिए सरकार को इस ओर तुरंत ध्यान देने की जरूरत है कि देश के चिकित्सीय ढ़ाँचे को तुरंत मजबूत किया जाए। देश के अंदर अनेकों प्रकार के और कार्यों को कुछ समय के लिए रोका भी जा सकता है लेकिन चिकित्सा से संबन्धित कार्य को तुरंत युद्ध स्तर पर खड़ा करने की जरूरत है।
                       

कोरोना की काली रात में एक संत का उजाला

-ललित गर्ग –

छोटी-सी उम्र में आदिवासी जनजाति मंे जन्म लेकर जैन संत बने गणि राजेन्द्र विजय ने अपनी साधना-साधुता जीवन एवं आदिवासी उद्धारक के सफर में महानता का वरण किया, भले ही इसके लिये उन्होंने तमाम उतार-चढ़ाव देखे, तकलीफें सही, संघर्ष किया। अपनी अपार जिजीविषा, अदम्य उत्साह, सेवाभावना, कठोर साधना, आदिवासी उत्थान एवं उन्नयन की ललक द्वारा वे जहां इक्कीसवीं सदी के आदिवासी जनजीवन के मसीहा संत बनकर उभरे वहीं अपने मूल्यवान अवदानों से भारत की आध्यात्मिक परम्परा को समृद्ध किया है। इनदिनों वे गुजरात के आदिवासी क्षेत्रों में कोरोना महामारी से पीड़ित परिवारों को आध्यात्मिक, चिकित्सीय एवं जीवन-निर्वाह के जरूरी सामानों-साधनों की सहायता उपलब्ध कराकर महान् कोरोना योद्धा के रूप में जीवन में बिखरी काली रात को उजालों की भोर में बदलने को तत्पर हैं। 19 मई 2021 को गणिजी अपने जीवन के 47वें बसंत में प्रवेश कर रहे हैं।
गणि राजेन्द्र विजयजी टेढ़े-मेढ़े, उबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरते हुए, संकरी-पतली पगडंडियों पर चलकर सेवा भावना से भावित जब उन गरीब आदिवासी बस्तियों तक पहुंचते हैं तब उन्हें पता चलता है कि कोरोना महामारी में इनका जीवन कितना संकटपूर्ण बन गया है, वैसे भी सामान्य दिनों गरीबी रेखा से नीचे अभावों एवं तकलीफों में जीवन जीने के मायने क्या-क्या हैं? इन अनुभवों ने न केवल उनके आध्यात्मिक सफर को तीक्ष्णता दी बल्कि सेवा के उपक्रमों को भी गति दी। कहीं भूख मिटाने के लिए दो जून की रोटी जुटाना सपना है, तो कहीं सर्दी, गर्मी और बरसात में सिर छुपाने के लिए झौपड़ी की जगह केवल नीली छतरी (आकाश) का घर उनका अपना है। भले ही गणिजी आज सफल शख्सियतों में शुमार किये जाते हों, लेकिन आदिवासी जीवन ने उन्हें कई थपेड़े दिये, कई बदरंग जीवन की तस्वीरों से बार-बार रू-ब-रू कराया और इन थपेड़े एवं भौंथरी तस्वीरों ने उन्हें झकझोरा भी – जीवन को हिला भी दिया।
गणि राजेन्द्र विजय एक ऐसा व्यक्तित्व है जिसने एक बार फिर साबित किया है कि जो खराब हालात में धैर्य, लगन, आत्मविश्वास, दृढ़ संकल्प के साथ खुद को बुलन्द रखता है, उसके रास्ते से बाधाएं हटती ही है और संभावनाओं का उजाला होता ही है। चुनौतीभरे रास्तों में आदिवासी उत्थान के प्रतीक बनने वाले गणिजी का व्यक्तित्व आध्यात्मिक विकास और नैतिक उत्थान के प्रयत्न में तपकर और अधिक निखरा है। वे आदिवासी जनजीवन के उत्थान और उन्नयन के लिये लम्बे समय से प्रयासरत हैं और विशेषतः आदिवासी जनजीवन में शिक्षा की योजनाओं को लेकर जागरूक हैं, इसके लिये सर्वसुविधयुक्त एकलव्य आवासीय माॅडल विद्यालय का निर्माण उनके प्रयत्नों से हुआ है, वहीं कन्या शिक्षा के लिये वे ब्राह्मी सुन्दरी कन्या छात्रावास का कुशलतापूर्वक संचालन कर रहे हैं। इसी आदिवासी अंचल में जहां जीवदया की दृष्टि से गौशाला का संचालित है तो चिकित्सा और सेवा के लिये चलयमान चिकित्सालय भी अपनी उल्लेखनीय सेवाएं दे रहा है। आदिवासी किसानों को समृद्ध बनाने एवं उनके जीवन स्तर को उन्नत बनाने के लिये उन्होंने आदिवासी क्षेत्र में सुखी परिवार ग्रामोद्योग को स्थापित किया है। वे आदिवासी अधिकारों के लिये व्यापक संघर्ष कर रहे हैं, उन्हें संगठित कर रहे हैं, उनका आत्म-सम्मान जगा रहे हैं। गणिजी गुजरात के आदिवासी जनता के लिये ही एक नया सवेरा, नई उम्मीद और नई प्रेरणा बनकर नहीं उभरे, बल्कि देश के तमाम आदिवासी जनजीवन के लिये भी एक नई प्रेरणा सिद्ध हुए हैं।
गणि राजेन्द्र विजयजी द्वारा संचालित प्रोजेक्ट एवं सेवा कार्यों की मोटी सूची में मानवीय संवेदना की सौंधी-सौंधी महक फूट रही है। लोग गांवों से शहरों की ओर पलायन रहे हैं, लेकिन गणि राजेन्द्र विजयजी की प्रेरणा से कुछ जीवट वाले व्यक्तित्व शहरों से गांवों की ओर जा रहे हैं। मूल को पकड़ रहे हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी कहते थे-‘भारत की आत्मा गांवों में बसती है।’ शहरीकरण के इस युग में इन्सान भूल गया है कि वह मूलतः आया कहां से है? जिस दिन उसे पता चलता है कि वह कहां से आया है तो वह लक्ष्मी मित्तल बनकर भी लंदन से आकर, करोड़ों की गाड़ी में बैठकर अपने गाँव की कच्ची गलियों में शांति महसूस करता है। स्कूल, हाॅस्पीटल व रोजगार के केन्द्र स्थापित कर सुख का अनुभव करता है।
गणि राजेन्द्र विजयजी अपने इन्हीं व्यापक उपक्रमों की सफलता के लिये वे कठोर साधना करते हैं और अपने शरीर को तपाते हैं। अपनी यात्राओं में आदिवासी के साथ-साथ आम लोगों के बीच शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्कार-निर्माण, नशा मुक्ति एवं रूढ़ि उन्मूलन की अलख जगा रहे हैं। इन यात्राओं का उद्देश्य है शिक्षा एवं पढ़ने की रूचि जागृत करने के साथ-साथ आदिवासी जनजीवन के मन में अहिंसा, नैतिकता एवं मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था जगाना है। इसी आदिवासी माटी में 19 मई, 1974 को एक आदिवासी परिवार में जन्में गणि राजेन्द्र विजयजी मात्र ग्यारह वर्ष की अवस्था में जैन मुनि बन गये। बीस से अधिक पुस्तकें लिखने वाले इस संत के भीतर एक ज्वाला है, जो कभी अश्लीलता के खिलाफ आन्दोलन करती हुए दिखती है, तो कभी जबरन धर्म परिवर्तन कराने वालों के प्रति मुखर हो जाती है। कभी जल, जमीन, जंगल के अस्तित्व के लिये मुखर हो जाती है। इस संत ने स्वस्थ एवं अहिंसक समाज निर्माण के लिये जिस तरह के प्रयत्न किये हैं, उनमें दिखावा नहीं है, प्रदर्शन नहीं है। अपनी धून में यह संत आदर्श को स्थापित करने और आदिवासी समाज की शक्ल बदलने के लिये प्रयासरत है और इन प्रयासों के सुपरिणाम देखना हो तो कवांट, बलद, रंगपुर, बोडेली आदि-आदि आदिवासी क्षेत्रों में देखा जा सकता है।
इतना ही नहीं यह संत गृहस्थ जीवन को त्यागकर भी गृहस्थ जीवन को सुखी बनाने के लिये जुटा है, इनका मानना है कि व्यक्ति-व्यक्ति से जुड़कर ही स्वस्थ समाज एवं राष्ट्र की कल्पना आकार ले सकती है। स्वस्थ व्यक्तियों के निर्माण की प्रयोगशाला है – परिवार। वे परिवार को सुदृढ़ बनाने के लिये ही सुखी परिवार अभियान लेकर सक्रिय है। भारत को आज सांस्कृतिक क्रांति का इंतजार है। यह कार्य सरकार तंत्र पर नहीं छोड़ा जा सकता है। सही शिक्षा और सही संस्कारों के निर्माण के द्वारा ही परिवार, समाज और राष्ट्र को वास्तविक अर्थों में स्वतंत्रा बनाया जा सकता है।
मेरी दृष्टि में गणि राजेन्द्र विजयजी के उपक्रम एवं प्रयास आदिवासी अंचल में एक रोशनी का अवतरण है, यह ऐसी रोशनी है जो हिंसा, आतंकवाद, नक्सलवाद, माओवाद जैसी समस्याओं का समाधान बन रही है। अक्सर हम राजनीति के माध्यम से इन समस्याओं का समाधन खोजते हैं, जबकि समाधान की अपेक्षा संकट गहराता हुआ प्रतीत होता है। क्योंकि राजनीतिक स्वार्थों के कारण इन उपेक्षित एवं अभावग्रस्त लोगों का शोषण ही होते हुए देखा गया है। आदिवासी समुदाय के बीच अहिंसक एवं संतुलित समाज निर्माण की आधारभूमि गणि राजेन्द्र विजयजी ने अपने आध्यात्मिक तेज से तैयार की है। अनेक बार उन्होंने खूनी संघर्ष को न केवल शांत किया, बल्कि अलग-अलग विरोधी गुटों को एक मंच पर ले आये। सचमुच आदिवासी लोगों को प्यार, अहिंसा, करूणा, स्नेह एवं संबल की जरूरत है जो गणिजी जैसे संत एवं सुखी परिवार अभियान जैसे मानव कल्याणकारी उपक्रम से ही संभव है, सचमुच एक रोशनी का अवतरण हो रहा है, जो अन्य हिंसाग्रस्त क्षेत्रों के लिये भी अनुकरणीय है।

नई आफत : मंडराता ब्लैक फंगस का खतरा


देशभर में कोरोना जमकर कहर बरपा रहा है। देश-प्रदेश में लगातार बढ़ते कोरोना संक्रमण के बीच सरकारें सख्त लॉकडाउन के जरिए संक्रमण की चैन तोड़ने का प्रयास कर रही हैं। पिछले दो से तीन दिनों में कोरोना संक्रमित मरीजों के आंकड़ों में जरूर कमी आई हैं। कई राज्यों की सरकारों ने कर्फ्यू और लॉकडाउन द्वारा संक्रमण की चैन तोड़ने का प्रयास किया है। इससे संक्रमण में जरूर कमी देखी गई है, मगर हर दिन होने वाली मौतों के आंकड़ों में कोई खास गिरावट नहीं दर्ज की गई। देश में पॉजिटिविटी की दर 24 फीसदी से घटकर 16 फीसदी के करीब पहुंच गई है।‌ ऐसे में यह बहुत राहत भरी खबर है।

लेकिन आज देश कोरोना महामारी से उबरा नहीं, मगर एक नई आफत ने दस्तक दी है। देश के सामने नई आफत ब्लैक फंगस या म्यूकरमाइकोसिस के रूप में सामने आई है। इसे जायगोमायकोसिस के नाम से भी जाना जाता है। सीडीसी यानि सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के मुताबिक, यह एक दुर्लभ लेकिन खतरनाक फंगल इन्फेक्शन है जो म्यूकोरमाइसेट्स नाम के फफूंद यानि फंगस के समूह की वजह से होता है। यह फंगस वातावरण में प्राकृतिक तौर पर पाया जाता है। यह इंसानों पर तब ही हमला करता है, जब हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता कमज़ोर पड़ती है। हवा में मौजूद यह फंगल स्पोर्स यानि फफूंद बीजाणु सांस के जरिए हमारे फेफड़ों और साइनस में पहुंच कर उन पर असर डालते हैं। यह फंगस शरीर में लगे घाव या किसी खुली चोट के ज़रिये भी शरीर में प्रवेश कर सकते हैं।

बताया जाता है कि यह फंगस साइनस क्षेत्र से फेंफड़ों में प्रवेश करता है। कई मामलों में यह भी सामने आया है कि यह साइनस क्षेत्र से आंखों में चला जाता है, वहां से सीधा मस्तिष्क में प्रवेश करता है। ऐसे में इस फंगस का मस्तिष्क में प्रवेश बेहद ख़तरनाक है। इससे आंखों की रोशनी जाती रहती है, समय रहते इलाज नहीं करवाने की स्थिति में मौत भी हो सकती है। आज देशभर में कोरोना वायरस के विकराल रूप के बीच ब्लैक फंगस का खतरा भी बढ़ रहा है। उत्तरप्रदेश के वाराणसी से ब्लैक फंगस से जुड़ा मामला सामने आया है। जिसमें 52 वर्षीय कोरोना संक्रमित और ब्लैक फंगस से पीड़ित महिला का ऑपरेशन किया गया। बीएचयू में ईएनटी विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ सुशील कुमार अग्रवाल ने अपनी टीम के साथ सफल ऑपरेशन किया। इस ऑपरेशन में महिला की जान बचाने के लिए उनका जबड़ा और एक आंख समेत चेहरे का आधा हिस्सा निकाल दिया गया। बताया जाता है कि ऑपरेशन से पहले महिला के चेहरे पर सूजन की शिकायत थी। डॉ अग्रवाल ने बताया कि लगभग छह माह बाद सिलिकॉन का आर्टिफिशियल चेहरा, जबड़ा और पत्थर की आंख लगाई जाएगी। यदि ऑपरेशन नहीं करते तो संक्रमण मस्तिष्क में चला जाता और उनकी मौत हो सकती थी।

विशेषज्ञों ने ब्लैक फंगस को लेकर चेताया है कि प्रतिरोध क्षमता कम और शुगर लेवल ज्यादा होने, हैवी स्टेरॉइड लेने तथा हफ्ते भर आईसीयू में रहकर इलाज करवाकर लौटे मरीजों को इससे ज्यादा सतर्क रहने की जरूरत है। सीडीसी ने यह स्पष्ट किया है कि म्यूकरमाइकोसिस कोई संक्रामक नहीं है। इसका सीधा-सा मतलब यह है कि यह एक इंसान से दूसरे इंसान के संपर्क में आने से नहीं फैलता है।

आज हम देख पा रहे हैं कि कोरोना वायरस से संक्रमित मरीजों में मृत्यु 1 से 2 फीसदी के बीच पाई जा रही है। कोरोना वायरस को हराने में हमारा मजबूत इम्यूनिटी बहुत मददगार है। ऐसे में बताया जा रहा है कि मजबूत इम्यूनिटी के साथ ब्लैक फंगस को बड़ी आसानी के साथ हराया जा सकता है। मजबूत इम्यूनिटी का मतलब हमारी बीमारियों से लड़ने की क्षमता से है। लेकिन इससे भी जरूरी यह है कि हमें ब्लैक फंगस के लक्षणों को लेकर विशेष सतर्कता बरतने की जरूरत है। म्यूकरमाइकोसिस यानि ब्लैक फंगस के लक्षणों में मुख्यत: आंख व नाक के आसपास दर्द, लालिमा व सूजन के साथ बुखार और सिरदर्द रहता है। खांसी और हांफना, खून की उल्टी, साइनोसाइटिस यानि नाक बंद होना या नाक से काले म्यूकस का डिस्चार्ज होना, दांत ढीले हो जाना या जबड़े में दिक्कत महसूस होना और नेक्रोसिस यानि किसी अंग का गलना तथा त्वचा पर चकत्ते का पड़ना इत्यादि लक्षण शामिल हैं।

ऐसे में हमारी सतर्कता हमें ब्लैक फंगस से लड़ने में बहुत मददगार साबित होगी। मगर ध्यान देने योग्य है कि नाक बंद होने के सभी मामलों को बैक्टीरियल इंफेक्शन न समझें विशेष रूप से कोरोना मरीजों में। सबसे जरूरी यह है कि डॉक्टर की सलाह लेने और इलाज शुरू करने में बिलकुल भी देरी न करें। यदि धूल वाली जगह पर जाएं, तो मास्क का प्रयोग जरूर करें। म्यूकरमाइकोसिस मरीज के साइनस के साथ आंख, दिमाग, फेंफड़ों या त्वचा पर भी हमला कर सकता है। यदि समय रहते इसे नियंत्रित नहीं किया गया तो यह जानलेवा भी साबित हो सकता है।अली खान

मनुष्य के जन्म व मृत्यु पर विचार


-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
यह समस्त जड़ चेतन रूपी संसार सादि व सान्त अर्थात् उत्पत्ति धर्मा और प्रलय को प्राप्त होने वाला है। सभी जड़ पदार्थ सत, रज व तम गुणों वाली मूल प्रकृति के विकार हैं। मनुष्य व प्राणियों के शरीरों पर विचार करें तो हम पाते हैं कि इसमें हमारे व अन्यों के शरीर तो पंच भौतिक पदार्थों से बने हुए जड़ हैं परन्तु इसमें एक अल्प परिमाण व अल्पज्ञ चेतन तत्व भी है जिसे आत्मा कहते हैं। यह आत्मा सत्य व चेतन स्वरूप वाला होने सहित शाश्वत व सनातन तत्व भी है। यह नित्य, अनादि, अनुत्पन्न व अविनाशी है। यह आत्मा मूल प्रकृति के कणों से भी सूक्ष्म है। इतना सूक्ष्म कि अस्तित्व होने पर भी हमें अपना व दूसरे मनुष्यों का आत्मा उनके शरीर में विद्यमान होने पर भी दिखाई नहीं देता। जब किसी मनुष्य या इतर प्राणी की मृत्यु होती है, हम उस मृतक के पास भी होते हैं, तब भी आत्मा व सूक्ष्म शरीर के बाहर निकलते हुए आत्मा व सूक्ष्म शरीर के निकलने का अनुभव तो होता है परन्तु आत्मा का आकार व रूप दिखाई नहीं देता। दिखाई न देने का एक मात्र कारण आत्मा का सूक्ष्म होना और हमारी आंखों की देखने की जो सामथ्र्य है, उसका न्यून होना है।

संसार में अनेक सूक्ष्म पदार्थ हैं जो होते हुए भी आंखों से दिखाई नहीं देते। हमारे रक्त में भी अनेक प्रकार के कण व किटाणु होते हैं जो आंखों से तो दिखाई नहीं देते परन्तु सूक्ष्मदर्शी यन्त्र माइक्रोस्कोप से दिखाई देते हैं। अतः किसी सूक्ष्म पदार्थ का दिखाई न देना उसके न होने का प्रमाण नहीं होता। यह बात आत्मा पर भी लागू होती है, परमात्मा पर भी और सूक्ष्म भौतिक पदार्थ परमाणु, अणु व आकाश तथा गैसों के अणुओं पर भी। अतः यह ज्ञात होता है कि हमारे शरीर में आत्मा है जिसकी उपस्थिति का अनुभव हम करते हैं। यह आत्मा ही दूसरों को कहता है कि मैं सुख पूर्वक हूं। कभी शारीरिक कष्ट होता है तो यह रोता, चिल्लाता या कराहता है और बताता है कि वह दुःखी है। यह स्थिति हमारे साथ व अन्य सभी के साथ होती है। यह सुख व दुःख शरीर व उसके अवयवों में तो अवश्य होता है परन्तु इसका अनुभव हमारी आत्मा व अन्य सभी शरीरधारियों की आत्माओं को होता है। यह बातें हमने इस लिये लिखी हैं कि जिससे यह पता चले कि हमारा शरीर से भिन्न स्वतन्त्र अस्तित्व है। अन्य अनेक प्रकार से भी इसे जाना जा सकता है। जीवित शरीर में मनुष्य चलता फिरता, हंसता व बोलता है परन्तु मरने पर शरीर जिस स्थिति में होता है वैसा ही बना रहता है व कठोर हो जाता है। जो हाथ पैर हिलते डुलते व लचीले होते हैं वह एैंठ जाते हैं। इसका प्रत्यक्ष कारण शरीर में विद्यमान चेतन सत्ता का शरीर से निकल जाना ही होता है। उस मनुष्य का, जिसकी मृत्यु होती है, देखना, बोलना, उठना-बैठना व हिलना-डुलना सब बन्द हो जाता है। अतः यह ज्ञात होता है कि हमारा शरीर व जीवात्मा दोनों एक नहीं अपितु पृथक हैं। शरीर में विद्यमान आत्मा के आंखों से दिखाई न देने पर भी इसका अस्तित्व होता है जो जन्म से पूर्व माता के गर्भ व भ्रूण रूपी शरीर में आता है और जन्म व प्रसव के बाद बाल, युवा व वृद्ध अवस्था में आकर व शरीर की अवस्था में वृद्धि को प्राप्त होकर मृत्यु के समय शरीर छोड़कर चला जाता है। 

मृत्यु का सम्बन्ध कर्म-फल व्यवस्था व शारीरिक व्यवस्था से भी है। जन्म लेने के बाद शरीर में वृद्धि का नियम है। एक सीमा व अवधि तक मनुष्य व अन्य पशु पक्षी आदि के शरीरों में वृद्धि होती है और युवा अवस्था आ जाती है। युवावस्था में ठहराव रहने के बाद फिर वृद्धावस्था का आरम्भ होता है और किसी की देर व किसी की जल्दी, स्वास्थ्य के नियमों के अनुसार रोग आदि की स्थिति बनती है और मृत्यु हो जाती है। इसके साथ ही मनुष्य इस संसार में अपने पूर्वजन्मों के कर्मों की पूंजी जिसे प्रारब्ध कहते हैं, साथ लेकर आता है। इसका भोग भी मनुष्य की जीवात्मा को करना होता है। प्रारब्ध को शुभाशुभ कर्मों का खाता कह सकते हैं। इस जन्म में पिछले शुभ व अशुभ कर्मों के अनुसार सुख-दुःख भोगने से वह खर्च होता है और इस जन्म के नये कर्मों से उसमें परिर्वतन व न्यूनाधिक होता है। अब जो कर्मों का नया खाता मृत्यु से पूर्व तक होता है उसके भोग के लिए नये शरीर की आवश्यकता होती है। मनुष्य के पूर्वजन्म की मृत्यु के समय तक जो बचे हुए अच्छे व बुरे कर्म होते हैं वह भावी जीवन व जन्म के कारण व आधार बनते हैं। भावी जन्म में प्रारब्ध के कर्मों का भोग होने से यह न्यूनाधिक परिवर्तित होते हैं। इस प्रकार जन्म व मृत्यु का चक्र चलता रहता है और मनुष्य जन्म के बाद मृत्यु व मृत्यु के बाद जन्म को प्राप्त होता रहता है। अतः जन्म व मृत्यु का आधार कर्म-फल सिद्धान्त है और मृत्यु का कारण प्रायः उसके कर्म, शारीरिक रोग व दुर्घटना आदि होते हैं।  

क्या मनुष्य मृत्यु   से बच सकता है? इसका उत्तर है कि वह कुछ स्थितियों में बच सकता है और कुछ में नहीं। इस रूप में कि वह मृत्यु का ज्ञान प्राप्त कर अपने जीवन का अधिकांश समय ईश्वरोपासना व परोपकार आदि कार्यों में लगाये। उसे शरीर रक्षा के सभी नियमों का निष्ठापूर्वक पालन करना होता है। इसमें यदि कभी कोई गलती हो जाये तो जीवन सकट में पड़ जाता है और मृत्यु भी हो जाती है। जब मनुष्य यह जान लेता है कि मृत्यु आत्मा का नाश नहीं है अपितु कर्मानुसार जीव योनि का परिवर्तन व जीवात्मा की उन्नति व अवनति का होना है, तो वह मनुष्य इस रहस्य को जानकर बुरे कर्मो का त्याग कर सद्कर्मों पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है। ऋषि दयानन्द, पं. लेखराम, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती आदि इसके कुछ उदाहरण हैं जिन्होंने ईश्वरोपासना व परोपकार आदि के कार्य करते हुए ही अपना जीवन निर्वाह किया। वेदादि सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय, विद्वानों व आप्त पुरुषों के उपदेश, योग साधना वा ईश्वरोपासना एवं परोपकार आदि सद्कर्मों से मनुष्य की आत्मा की उन्नति होने सहित ईश्वर का साक्षात्कार व निभ्र्रान्त ज्ञान होता है जिसका परिणाम धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष होता है। ईश्वरोपासना व वेदों के ज्ञान से मनुष्य मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लेता है अर्थात् वह मृत्यु के भय से डरता या भयभीत नहीं होता और मृत्यु के क्षण वह ईश्वर के मुख्य व निज नाम ओ३म् व गायत्री मन्त्र आदि का उच्चारण, जप, चिन्तन व ईश्वर का ध्यान करते हुए बिना भय व कष्ट के मृत्यु का आलिंगन करता है। महर्षि दयानन्द जी के जीवन का उदाहरण हमारे सामने हैं। उन्होंने अपनी इच्छानुसार ईश्वर की उपासना करते हुए अपने प्राणों का उत्सर्ग किया था और अन्तिम श्वांस लेने से पूर्व ईश्वर को कहा ‘हे ईश्वर तुने अच्छी लीला की, अहा तेरी यही इच्छा है, तेरी इच्छा पूर्ण हों।’ 

सभी मनुष्यों को विचार करना चाहिये कि हम पूर्वजन्म में अनेकानेक प्रचलित योनियों में से किसी एक योनि में जन्में थे व पले बड़े हुए थे। वहां प्रकृति के नियमों के अनुसार हमारी मृत्यु हुई थी जिसके बाद हमारे कर्मों वा प्रारब्ध के अनुसार परमात्मा ने न्यायपूर्वक हमें इस मनुष्य योनि में हमें जन्म व माता-पिता आदि परिस्थितियां प्रदान की। इस जीवन में भी कुछ काल बाद हमारी मृत्यु होनी है। हम इस शरीर को छोड़कर चले जायेंगे और ईश्वर हमें पुनः हमारे कर्मानुसार मनुष्य योनि व अन्य किसी योनि में जन्म देंगे। मनुष्य का आत्मा सत्य, चित्त, अल्पज्ञ, अनादि, नित्य, अविनाशी, अमर, ससीम, एकदेशी, अजर, अभय, पवित्र, जन्म-मरण धर्मा, ज्ञान प्राप्ति व कर्मों को करने वाला है। हमारा पूर्व व इस जन्म में शुभाशुभ कर्मो का जो संचय होगा, उसके अनुसार हमारा भावी जन्म होना सुनिश्चित है। इस विषय का ईश्वर को ही ज्ञान होता है। हम अल्पज्ञ वा अल्पशक्ति वाले होने से सभी बातों को ठीक ठीक जान नहीं सकते। हम जितना जान सकते हैं उतना जानने का प्रयत्न करें और शेष बातों को ईश्वर की न्यायावस्था में छोड़कर निश्चिन्त हों, यही हमारे लिए उचित है। हम यह स्मरण रखे कि कुछ काल बाद हमारी मृत्यु होनी है और उसके बाद हमारे इस जन्म के अच्छे बुरे कर्म ही हमारी भावी जन्म योनि वा सुख-दुःखों का कारण होंगे। यह जानकर हमें किसी भी बुरे काम को कदापि नहीं करना चाहिये। यदि मोहग्रस्त होकर करेंगे तो ब्याज व सूद सहित उसका भुगतान भी हम कर्ताओं को ही करना ही होगा। पशु-पक्षी आदि योनियों व चिकित्सालयों में दुःिखयों को देखकर हमें अपने जीवन के कर्तव्यों का निर्धारण करना चाहिये और वेद, उपनिषद, दर्शन तथा सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों की सहायता लेनी चाहिये। 

मृत्यु और परलोक विषय पर प्रसिद्ध वैदिक विद्वान महात्मा नारायण स्वामी जी ने एक महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी है। एक पुस्तक सत्य प्रकाशन, मथुरा के कीर्तिशेष आचार्य महात्मा प्रेमभिक्षु जी ने भी लिखी है जो वहां से उपलब्ध होती है। इसका भी अध्ययन करने से मृत्यु व परलोक विषयक अनेक रहस्यों का ज्ञान होता है। ऐसा करके मनुष्य अपने आचरण और व्यवहार को सुधार सकता है। यही इन पुस्तकों को लिखने का इन महान ऋषि भक्त आचार्यों का उद्देश्य रहा है। 

आजकल देश में कोरोना रोग वा महामारी फैली हुई है। इससे सभी आयु वर्ग के लोग असमय ही मृत्यु का ग्रास बन रहें हैं। हमें सत्यधर्म वेदों का आचरण करते हुए न्याय व परोपकारपूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहिये। स्वास्थ्य व कोरोना रोग से रक्षा के सभी नियमों का अधिकाधिक पालन करना चाहिये और अपनी व अपने परिवारजनों की रक्षा पर विशेष ध्यान देना चाहिये। ऐसा करके हम स्वस्थ रह सकते हैं। यदि हम प्रतिदिन वैदिक विधि से आधा घण्टे से भी कम समय में सम्पन्न होने वाले दैनिक अग्निहोत्र को भी करें व करायें तो इससे भी हमें लाभ होगा। इससे हमारा घर व परिवार का वातावरण शुद्ध, सुगन्धित व पवित्र बनेगा जिसमें महामारी कोरोना के आने की सम्भावना कम व न के बराबर होगी। ईश्वर करें कि हम सब स्वस्थ बने रहें। हमारा यह जीवन ईश्वर की देन है और हमें इसे उसी को समर्पित करना है। ऐसा करके ही हमारी रक्षा व उत्तम गति हो सकती है। 

ईश्वर का त्रिकालदर्शी स्वरूप हमें सद्कर्मों की प्रेरणा करता हैं

                हम और ईश्वर दो अलग अलग सत्तायें हैं। दोनों की सामर्थ्य भी अलग अलग हैं। मनुष्य अल्प शक्तिवाला है तो ईश्वर सर्वशक्तिमान है। मनुष्य अल्पज्ञ वा अल्पज्ञान वाला है तो ईश्वर सर्वज्ञ वा सभी प्रकार का पूर्ण ज्ञान रखने वाली सत्ता है। दोनों की सत्ता में कुछ समानतायें हैं और कुछ असमानतायें हैं। इसी कारण से दोनों का पृथक पृथक अस्तित्व सिद्ध है। ईश्वर को त्रिकालदर्शी कहते हैं। इसका क्या तात्पर्य है, यही इस लेख का विषय है। त्रिकाल भूत, वर्तमान व भविष्य काल को कहते हैं। ईश्वर इन तीनों कालों की बातों को यथार्थ रूप में जानता है या नहीं? महर्षि दयानन्द जी महाराज ने सत्यार्थप्रकाश में इस प्रश्न का उत्तर देते हुए बताया है कि ईश्वर त्रिकालदर्शी है परन्तु जीवात्माओं के भविष्य काल के कर्मों की अपेक्षा से। इसका अर्थ यह हुआ कि ईश्वर जीवों के भविष्य काल में किये जाने वाले कर्मों को छोड़कर ब्रह्माण्ड विश्व की तीनों कालों की सभी बातों को यथार्थ रूप में जानता है। प्रश्न उठता है कि सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान सर्वान्तर्यामी ईश्वर जीवों के भविष्य के कर्मों को क्यों नहीं जानता?  

                इस प्रश्न का उत्तर है कि जीव कर्म करने में स्वतन्त्र और उनके फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था में परतन्त्र है। जीव जो कर्म करता है उन कर्मों का निर्धारण वह स्वयं करता है। वह कर्म शुभ हों या अशुभ, यह जीवात्मा का अपना निर्णय होता है। ईश्वर जीवात्मा की इस स्वतन्त्रता में बाधक नहीं बनता। इसी कारण जीवात्मा अपने शुभ अशुभ कर्मों का यथोचित फल पाने का अधिकारी है। यदि जीवात्मा के भविष्य के सभी कर्म ईश्वर के ज्ञान में हों तो इसका अर्थ है कि उसके कर्मों का निर्धारण ईश्वर द्वारा किया गया है। ऐसी स्थिति में जीवात्मा उन कर्मों के लिए जिसका निर्धारण उसके द्वारा नहीं हुआ, कम से कम दुःख रूपी फल प्राप्त करने का अधिकारी तो नहीं होगा। जब उसने भविष्य के वह कर्म अपने विवेक व निर्णय से न करके ईश्वर की व्यवस्था, प्रेरणा वा उसके द्वारा निर्धारण किये जाने के कारण किये हों तो वह उसका भोक्ता नहीं हो सकता। ऐसा होना न्यायसंगत नहीं होगा। उदाहरण से भी इसको समझा जा सकता है।

                किसी व्यक्ति ने किसी को अपनी किसी योजना की पूर्ति के लिए कोई काम सौंपा और बदले में उसे कुछ धन दिया। वह कार्य अशुभ था जिस कारण पुलिस द्वारा वह पकड़े जाने पर न्यायाधीश के सामने पहुंचता है। न्यायाधीश महोदय को वह सत्य स्थिति का वर्णन कर बताता है कि वह काम तो उसने धन के लिए किया, उससे वह कार्य करवाने वाला अमुक व्यक्ति है। अब वह अमुक व्यक्ति भी न्याय की प्रक्रिया में सम्मिलित होता है और उसको उसकी अनुचित योजना के लिए सजा मिलती है, यह सजा काम करने वाले व्यक्ति से कुछ अधिक ही होती है। इसका कारण अनुचित काम करने की प्रेरणा किया जाना है। उस योजना को अंजाम देने वाले को उससे कम दण्ड अर्थात् उस गलत काम को करने व धन लेने की सजा मात्र ही दी जाती है। परमात्मा को जीवात्मा के कर्मों का ज्ञान उस काम को करने से पूर्व तभी हो सकता है जब कि जीव के कर्मों का निर्धारण स्वयं ईश्वर करे या उसके द्वारा हो। ऐसी स्थिति में कर्मों का फल जीवात्मा को नहीं मिलेगा क्योंकि इसके लिए उत्तरादायी ईश्वर होगा। उसी ने वह कार्य जीवात्मा से कराया है। ईश्वर ऐसा कदापि नहीं करता। ईश्वर तो सच्चिदानन्दस्वरूप, शुद्ध और पवित्र है। वह तो जीवात्माओं को सदैव अच्छे शुभ कर्म करने की ही प्रेरणा देता है, अशुभ बुरे कामों की नहीं। निर्णय जीवात्मा का अपना होता है, वह चाहें तो करे या चाहे न करे। इसके अतिरिक्त जो बुरे काम होते हैं, ईश्वर उनकी सलाह व प्रेरणा नहीं देता। वह जीवात्मा द्वारा अपनी अज्ञानता, काम, क्रोध, लोभ व मोह वश किये जाते हैं। भारत में रिश्वतखोरी होती है। यह मनुष्य अपने विवेक से करता है जिसकी उसको सजा मिलती है। इस कारण से ईश्वर को जीव के किसी भी शुभ अशुभ कर्मों का ज्ञान जीवात्मा द्वारा किये जाने से पूर्व कदापि नहीं होता।

                ईश्वर जीव के कर्मों की अपेक्षा से त्रिकाल में किये जाने वाले अन्य सभी कार्यों को भलीभांति जानता है। वह जीवात्मा के भूतकाल वर्तमान काल के सभी कार्यों वा कर्मों को भी जानता है। ईश्वर को संसार के सभी जीवों उनके अतीत के कर्मों का सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी तथा सबका सदा साक्षी होने के कारण से यथावत् ज्ञान है। जीवों के मनुष्य योनि में किये गये पुण्य पाप कर्मों के अनुसार उन्हें ईश्वर द्वारा अनेकानेक योनियों में जन्म मिलता रहा है। जीवों से इतर सृष्टि विषयक अतीत, वर्तमान भविष्य का ज्ञान भी ईश्वर को होता है। ईश्वर को इस ज्ञान होने का कारण उसका सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सब जीवों के सब कर्मों का साक्षी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वेश्वर, जीवात्मा और प्रकृति का स्वामी वा नियंत्रक होना है। ईश्वर की महानता के कार्यों का जब चिन्तन करते हैं, तो हमारी बुद्धि उसकी महिमा को जानकर ऐसा अनुभव करती है कि ईश्वर की महानता व विशेषताओं को हम समग्र रूप में नहीं जान सकते हैं। संसार में अनन्त लोक-लोकान्तर हैं जिनका धारण व व्यवस्था वह करता है। अनन्त जीव हैं जिनके भूत व वर्तमान के सभी कर्मों का वह साक्षी और ज्ञाता है। उसका ज्ञान कभी लेशमात्र भी न्यून व त्रुटियुक्त नहीं होता। सब जीवों के जन्म-मरण व उन्हें कर्मानुसार भोग प्राप्त कराना आदि ऐसे कार्य हैं कि इन विषयों का चिन्तन करते हुए बुद्धि एक सीमा तक ही चिन्तन कर पाती है। उसके बाद तो यही कहना पड़ता है कि हे ईश्वर तेरी महिमा अपरम्पार है। तेरा पार किसी ने भी पाया नहीं, दृष्टि किसी की भी आया नहीं। हे प्रभु तुम अणु से भी सूक्ष्म और गगन से विशाल हो, मैं मिसाल दूं तुम्हें कौन सी, दुनियां में तुम बेमिसाल हो, आदि आदि।

                त्रिकालदर्शी होने में ईश्वर को सृष्टि सहित जीवों के भूतकाल के सभी कर्मों का ज्ञान होना भी है। यदि ईश्वर में जीवात्मा के किसी कर्म को भूलने का लेशमात्र भी अवगुण हो तो वह जीवों का ठीक ठीक न्याय नहीं कर सकता। हम जानते हैं कि ईश्वर में अवगुण होने का प्रश्न ही नहीं है। वह जीवात्मा के किसी कर्म को कभी नही भूलता है। अनन्त संख्या वाली सभी जीवात्माओं के जो कर्म अभी भोगे नहीं गये हैं, ईश्वर को जीवों के उन कर्मों का भलीभांति यथोचित पूर्ण ज्ञान है। गुप अन्धकार में अकेले भी जो विचार, चिन्तन व अशुभ कर्म जीवात्मा करता है वह भी पूरा का पूरा, वैसा का वैसा ईश्वर को विदित होता है। समय आने पर बीज से वृक्ष की भांति उसका वह कर्म जो सबसे छुप कर जीवात्मा ने किया होता है, फलीभूत होता है। अतीत के अशुभ कर्मों के कारण ईश्वरीय फल मिलने पर जीवात्मा को दुःख व पीड़ा होती है। वह चिल्लाता है कि यह मेरे किस कर्म का फल है। चिल्ला चिल्ला कर व रो-रोकर वह चुप हो जाता है। उसे स्वीकार करना ही पड़ता है कि यह अवश्य ही उसके किसी पूर्व कर्म का फल है।

                हम यह भी अनुभव करते हैं कि जब जीव को पीड़ा हो रही होती है तो सर्वान्तर्यामी सर्वव्यापक रूप से ईश्वर जीव के भीतर प्रविष्ट रहने के कारण उस पीड़ा का अनुभव अवश्य ही करता है/होगा। तभी तो उसे यह ज्ञात होता है कि जीवात्मा ने अपने पूर्व कर्म का ठीक ठीक फल भोग लिया है। उसके बाद उसे शेष कर्मों का फल ही भोगना होता है। अतः पुस्तकें पढ़कर दूसरे रोगी, दुःखी लोगों को देखकर मनुष्य को दुष्कर्म अशुभ कर्म करना छोड़कर किसी भी स्थिति में बुरे कर्म नहीं करने चाहिये। जीवात्मा सजगता के साथ पुण्य कर्मों को करे और उन्हें फल भोग व सुख की इच्छा से न कर ईश्वर को समर्पित कर दे तो उसका कल्याण होना निश्चित जान पड़ता है। हमारे एक मित्र ने एक उदाहरण देते हुए कुछ दिन पूर्व हमें बताया कि एक राजा को एक गांव में सहायता की जरूरत पड़ी तो एक साधारण व्यक्ति ने वह कार्य कर दिया। राजा ने उससे दाम पूछे तो वह कुछ भी मांगने में अनिच्छा प्रकट करता रहा। जब वह नहीं बोला तो राजा ने उसे दो गांव की जागीर दे दी। अब यह साधारण व्यक्ति दो गांवों का स्वामी हो गया। हमारे मित्र ने कहा कि यह उस साधारण व्यक्ति का अपने कर्म को राजा को समर्पित करने के कारण से हुआ। यदि हम भी अच्छे कर्म करें और उसके फल की इच्छा न रखकर उसे ईश्वर को समर्पित कर दें और अच्छे कर्म करते रहें तो ईश्वर की व्यवस्था से हमें सुख व आनन्द सहित हमारा सौभाग्य उन्नति को प्राप्त होगा। इसका कारण यह है कि ईश्वर जीवात्माओं से सद्कर्मों की अपेक्षा करता है। जो ऐसा करते हंै वह उसकी व्यवस्था में सुखी रहकर स्वर्ग अर्थात् सुख विशेष को प्राप्त होता है। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और न्यायकारी है। वह जीवों के भविष्य के कर्मों की अपेक्षा से त्रिकालदर्शी है। सारा ब्रह्माण्ड उसके नियंत्रण में है। उसने इस ब्रह्माण्ड को सहज रूप में ब्राह्म दिन के आरम्भ में बनाकर धारण कर रखा है। 4.32 अरब वर्षों की अवधि पूर्ण होने पर ईश्वर इस संसार की प्रलय करेगा। उस त्रिकालदर्शी ईश्वर की उपासना हमें उसके वेद ज्ञान के अनुरूप स्तुति व प्रार्थना सहित यज्ञ, परोपकार, दान व दुखियों की सेवा द्वारा करनी चाहिये।

ओम शब्द मां की पुकार है ओ मां

—विनय कुमार विनायक
ओम शब्द मां की पुकार है ओमां!
दुनिया भर के बच्चे जन्म लेते ही,
ओ म! ओ म! ओ मा! ओ मां ॐ,
ॐ ॐ ॐ कहकर रब को गुहारते!

ॐ दुनिया का प्रथम शब्दोच्चारण,
मां-पिता,विधाता-जन्मदाता, ईश्वर,
सबके सब पर्यायवाची शब्द ॐ के,
ॐ शब्द नहीं सम्प्रदाय विशेष के!

ॐ शब्द सम्प्रदाय विशेष से ऊपर,
ॐ है अजर-अमर-अविनाशी अक्षर,
ॐ सृजित नहीं है, किसी भाषा से,
ॐ भाषाहीन शिशु कंठ से निकले!

ॐ है प्रथम पुकार मानव हिय के,
यह अभिनय नहीं किसी भाषा के,
समस्त ब्रह्माण्ड ॐ उच्चारण में,
धर्म भेद नहीं ॐ औ’ ओ मां में!

हे मानव जरा उच्चारण कर देखो,
विश्व भाषा के अविकल शब्द को,
आधि-व्याधि भव बंधन से मुक्ति
मिलेगी, ॐ शब्द के उच्चारण से!

जब भी ॐ शब्द को उच्चारता हूं,
माता की छवि को सामने पाता हूं,
मां से बड़ी कोई भी ईश्वरीय छवि
इस ब्रह्माण्ड में कहां देख पाता हूं!

मां आदि है,मां मध्य है,मां अंत है,
मां से बड़ा भू पर नहीं कोई संत है,
ॐ ॐ जब करता हूं, मां मां आती,
मां से बड़ी ख में, नहीं कोई थाती!
—विनय कुमार विनायक

सिख: निहत्थे हिन्दू जाति की भुजा

हिन्दुत्व का स्वभाव है ऐसा,
जब जैसी विपत्ति आती तब,
रुप धारण कर लेता है वैसा,
हिन्दुत्व की कोख से निसृत,
जैन,बौद्ध,सिक्ख पंथ जैसा!

जैन बौद्ध ने अहिंसा लाया,
निरीह जीव-जंतु को बचाया,
सिख ने असिध्वज फहराया,
चार वर्ण हजार जातियों को,
खंगधारी सिख सिंह बनाया!

निहत्थे हिन्दुजाति की भुजा,
जब से बने गोविंद के सिख,
तब से हिन्दू संस्कृति बची,
सिख हिन्दुत्व की शान बना,
सिक्ख प्रतीक है वीरता का!

प्रारंभ में गुरु नानक वेदी ने
भारतीय वेदान्त और ईरानी
तसब्वुफ मेल से कबीर सा,
धार्मिक जागृति उत्पन्न की
जो सिख-पंथ धर्म कहलाया!
पर जब गुरु अर्जुन देव पर
जहांगीर ने महा कहर ढाया
गुरु ने इस्लाम नहीं कबूला
बल्कि रावी में समाधि ली,
हर गोविंद ने बदली नीति!

अब सिक्ख धर्म गुरु संत,
सिपाही, साहित्यकार बने
मुगल के खूंखार बादशाह
औरंगजेब ने जब जजिया
लगाकर धर्मांतरण बढ़ाया!

औरंगजेब ने कश्मीरियों के
धर्मांतरण के लिए भेजा था,
फरमान गुरु तेगबहादुर को,
गुरु ने गर्दन कटा डाली थी
पर हिन्दु जाति नहीं छोड़ी!

कटे पिता की शीश देखकर
गोविंद ने हिन्दुत्व के लिए
सिख खालसा पंथ चलाया,
सर्ववंशदानी गुरु गोविंद ने
औरंगजेब को धूल चटाया!

आज भी पंजाब में प्रथा है,
हिन्दू घर के ज्येष्ठ सुपुत्र,
कड़ा,कच्छ,कंघा,केश,कृपाण
धारण कर देश धर्म जाति,
सुरक्षा हेतु सिख बनने की!

सिख धर्म का नारा वाहेगुरु
‘वासुदेव हरिगोविंद राम’ है,
गुरु ग्रंथ साहिब राममय है,
गुरु अर्जुन देव हैं संपादक,
सिखधर्म गुरुग्रंथ साहिब के!

सिख धर्मगुरु नानक,अंगद,
अमर दास,रामदास वेदी थे
अर्जुनदेव,हरगोविंद, हरराय,
हरेकृष्ण, तेगबहादुर,गोविंद
सोढ़ी कुल खत्री क्षत्रिय थे!
—विनय कुमार विनायक

कोरोना से लड़ना है तो ऑनलाइन चलना है

नवेन्दु उन्मेष

कोरोना ने लोगों को बता दिया है कि कोरोना से लड़ना है तो ऑनलाइन चलना है।
बगैर ऑनलाइन चले कोरोना से दो-दो हाथ नहीं किया जा सकता। सामान खरीदना है
तो ऑनलाइन खरीदो। कोरोना के अलावा अन्य बीमारियों से भी लड़ना है तो
ऑनलाइन डाक्टरी सलाह पर निर्भर रहना होगा क्योंकि सरकारी अस्पताल सहित
अन्य अस्पतालों में अब सिर्फ कोरोनो संक्रमितों का इलाज किया जा रहा है।
अस्पताल में आउटडोर बंद हैं। चिकित्सक आउटडोर में बैठने से कतरा रहे हैं।
यहां तक कि निजी क्लिनिक वाले चिकित्सक भी घर में दुबके पड़े हैं। यहां तक
कि कुछ चिकित्सक मरीजों को ऑनलाइन चिकित्सीय सलाह देने से मना कर रहे
हैं। कुछ चिकित्सक जो अपनी पेशा की लाज बचाये हुए है वे ऑनलाइन सेवा दे
रहे हैं। सोशल मीडिया के माध्यम से बीमारी के बारे में जानकारी देने पर
दवा के संबंध में सलाह दे रहे हैं। फेसबुक में भी अब चिकित्सीय सलाह देने
वाला एक नया अस्पताल खुल गया है। समस्याएं बताओ तो सलाह देने वाले हजारों
तैयार बैठे हैं। इस बीमारी में यह दवा लीजिए, ऐसे दवा खाइये और ऐसे ठीक
हो जाइये।
कोरोना से लड़ने के लिए ऑनलाइन दवा खरीदो, ऑनलाइन आॅक्सीजन खरीदो, ऑनलाइन
पीपीई किट्स खरीदो यहां तक कि एंबुलेस भी ऑनलाइन ही आते हैं। अभी तक
मरीजों को एंबुलेस में लादने के लिए रोबोर्टस का इंतजाम नहीं किया गया है
अन्यथा एंबुलेंस के साथ रोबार्टस आते और मरीज को एंबुलेंस में लादकर
अस्पताल ले जाते।
लॉकडाउन के कारण कई राज्यों में दो पहिया और चार पहिया वाहनों के लिए
ऑनलाइन इ पास की व्यवस्था की गयी है। बगैर इ पास के कोई भी वाहन शहर में
नहीं निकल सकता। अगर बगैर इ पास के बाहर निकलता है तो इ चालानधारी पुलिस
उसका इ चालान काट देती है। और उसे फाइन भी ऑनलाइन भरना पड़ता है। इसके लिए
सरकार की ओर से इ पास पदाधिकारी की व्यवस्था की गयी है जिसका काम सिर्फ इ
पास बनाना है।
इससे जाहिर होता है कि लोगों के साथ-साथ सरकार की निर्भरता भी ऑनलाइन
प्लेटफार्म पर बढ़ गयी है। अगर देश का यही हाल रहा तो आने वाले समय में कई
ऑनलाइन अस्पताल खुलेंगे। तब वहां के ऑनलाइन चिकित्सक लोगों को सलाह देंगे
कि ऑनलाइन बच्चे पैदा करो। अगर आप उनसे पूछेंगे कि ऑनलाइन बच्चे कैसे
पैदा होगा तो उनका जवाब होगा- जब ऑनलाइन शादी हो सकती है, ऑनलाइन प्रेम
का इजहार किया जा सकता है, ऑनलाइन विवाह योग्य लड़के लड़कियों का चुनाव
किया जा सकता है,शादी के बाद ऑनलाइन वर-बधु को आशीर्वाद दिया जा सकता है
तो ऑनलाइन बच्चे कैसे पैदा नहीं किया जा सकता। अब तो स्कूल बंद है और
ऑनलाइन शिक्षक से लेकर छात्र तक मिल रहे हैं। इ पुस्तक से लोग अपना ज्ञान
बढ़ा रहे हैं। अब तो कोरोना से मरने वालों के अंतिम संस्कार का नजारा भी
परिजनों को ऑनलाइन दिखाया जा रहा है। अंतिम संस्कार के बाद दिवंगत आत्मा
को ऑनलाइन श्रद्धांजलि दी जा रही है और आनलाइन श्राद्ध भी किया जा रहा
है। कोरोना भी अब समझ चुका है कि उसके आने से सभी प्रकार की बीमारियां
मैदान छोड़कर भाग चुकी हैं। अब तो ऑनलाइन के मरीज बीमारी के भंडार से बाहर
आने वाले हैं। वे बाहर आकर बतलायेंगे कि कोरोना से लड़ना है तो ऑनलाइन
चलना है।

जल,जंगल और जमीन के सवालों से जूझते रहे अनिल दवे

पुण्यतिथि(18 मई) पर विशेष

-प्रो.संजय द्विवेदी

उन्हें याद करना एक ऐसे व्यक्ति को याद करना है, जिसके लिए राजनीति का मतलब इस पृथ्वी और मानवता के सामने उपस्थित संकटों के समाधान खोजना था। उनका सुदर्शन,सजीला और नफासत से भरा व्यक्तित्व, मनुष्य जीवन के सामने उपस्थित चुनौतियों व्यथित रहता था। अपने संवादों में वे इन चिंताओं को निरंतर व्यक्त भी करते थे। विचारों में आधुनिक, किंतु भारतीयता की जड़ों से गहरे जुड़े अनिल दवे संघ परिवार के उन कार्यकर्ताओं में थे, जिनमें गहरा भारतप्रेम और भारतबोध था। पर्यावरण,जल,जीवन और जंगल के सवाल भी किसी राजनेता की जिंदगी की वजह हो सकते हैं, तो ऐसे ही राजनेता थे श्री अनिल माधव दवे। 18 मई,2017 को वे हमें छोड़कर चले गए इसके बाद भी उनकी दिखाई राह आज भी उतनी ही पाक, मुकम्मल और प्रासंगिक है। आज जब कोरोना के संकट से समूचा दुनिया सवालों घिरी है, तब अनिल माधव दवे की याद अधिक स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है। वे जिस तरह बुनियादी सवालों पर संवाद कर रहे थे वह दुर्लभ है। जिंदगी को प्रकृति से जोड़ने और उसके साथ सहजीवन कायम करने की उनकी भावना अप्रतिम थी। अपनी मृत्यु के समय वे केंद्रीय पर्यावरण मंत्री थे। उन्हें संसद में बहुत गंभीरता से सुना जाता था।

  श्री अनिल माधव दवे, देश के उन चुनिंदा राजनेताओं में थे, जिनमें एक बौद्धिक गुरूत्वाकर्षण मौजूद था।उन्हें देखने, सुनने और सुनते रहने का मन होता था। पानी, पर्यावरण,नदी और राष्ट्र के भविष्य से जुड़े सवालों पर उनमें गहरी अंर्तदृष्टि मौजूद थी। उनके साथ नदी महोत्सवों ,विश्व हिंदी सम्मेलन-भोपाल, अंतरराष्ट्रीय विचार महाकुंभ-उज्जैन सहित कई आयोजनों में काम करने का मौका मिला। उनकी विलक्षणता के आसपास होना कठिन था। वे एक ऐसे कठिन समय में हमें छोड़कर चले गए, जब देश को उनकी जरूरत सबसे ज्यादा थी। आज जबकि राजनीति में बौने कद के लोगों की बन आई तब वे एक आदमकद राजनेता-सामाजिक कार्यकर्ता के नाते हमारे बीच उन सवालों पर अलख जगा रहे थे, जो राजनीति के लिए वोट बैंक नहीं बनाते। वे ही ऐसे थे जो जिंदगी के, प्रकृति के सवालों को मुख्यधारा की राजनीति का हिस्सा बना सकते थे।

अपनी वसीयत में ही उन्होंने यह साफ कर दिया था कि उनकी प्रतिबद्धता क्या है। उन्होंने अपनी वसीयत में लिखा था कि मेरा अंतिम संस्कार नर्मदा नदी के तट पर बांद्राभान में किया जाए तथा उनकी स्मृति में कोई स्मारक, प्रतियोगिता, पुरस्कार, प्रतिमा स्थापना इत्यादि ना हो। मेरी स्मृति में यदि कोई कुछ करना चाहते हैं तो वृक्ष लगाएं और उन्हें संरक्षित करके बड़ा करेंगे तो मुझे बड़ा आनंद होगा। वैसे ही नदियों एवं जलाशयों के संरक्षण में भी अधिकतम प्रयत्न किए जा सकते हैं। दवे जी का जीवन और उनकी वसीयत एक ऐसा पाठ है जो बहुत कुछ सिखाती है।

पर्यावरण के मुद्दे को मुख्यधारा की राजनीति का हिस्सा बनाने वाला नायक

 भोपाल में जिन दिनों हम पढ़ाई करने आए तो वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक थे, विचार को लेकर स्पष्टता, दृढ़ता और गहराई के बावजूद उनमें जड़ता नहीं थी। वे उदारमना, बौद्धिक संवाद में रूचि रखने वाले, नए ढंग से सोचने वाले और जीवन को बहुत व्यवस्थित ढंग से जीने वाले व्यक्ति थे। उनके आसपास एक ऐसा आभामंडल स्वतः बन जाता था कि उनसे सीखने की ललक होती थी। नए विषयों को पढ़ना, सीखना और उन्हें अपने विचार परिवार (संघ परिवार) के विमर्श का हिस्सा बनाना, उन्हें महत्वपूर्ण बनाता था। वे परंपरा के पथ पर भी आधुनिक ढंग से सोचते थे। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन अविवाहित रहकर समाज को समर्पित कर दिया। वे सच्चे अर्थों में भारत की ऋषि परंपरा के उत्तराधिकारी थे। संघ की शाखा लगाने से लेकर हवाई जहाज उड़ाने तक वे हर काम में सिद्धहस्त थे। 6 जुलाई,1956 को मध्यप्रदेश के उज्जैन जिले के बड़नगर में जन्में श्री दवे की मां का नाम पुष्पादेवी और पिता का नाम माधव दवे था।

उनकी सादगी में भी एक सौंदर्यबोध परिलक्षित होता था। बांद्राभान (होशंगाबाद) में जब वे अंतरराष्ट्रीय नदी महोत्सव का आयोजन करते थे, तो कई बार अपने विद्यार्थियों के साथ वहां जाना होता था। इतने भव्य कार्यक्रम की एक-एक चीज पर उनकी नजर होती थी। यही विलक्षता तब दिखाई दी, जब वे भोपाल में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन में इसे स्थापित करते दिखे। आयोजनों की भव्यता के साथ सादगी और एक अलग वातावरण रचना उनसे सीखा जा सकता था। सही मायने में उनके आसपास की सादगी में भी एक गहरा सौंदर्यबोध छिपा होता था। वे एक साथ कितनी चीजों को साधते हैं, यह उनके पास होकर ही जाना जा सकता था। हम भाग्यशाली थे कि हमें उनके साथ एक नहीं अनेक आयोजनों में उनकी संगठनपुरूष की छवि, सौंदर्यबोध,भाषणकला,प्रेरित करनी वाली जिजीविषा के दर्शन हुए। विचार के प्रति अविचल आस्था, गहरी वैचारिकता, सांस्कृतिक बोध के साथ वे विविध अनुभवों को करके देखने वालों में थे। शौकिया पर्यटन ने उनके व्यक्तित्व को गढ़ा था। वे मुद्दों पर जिस अधिकार से अपनी बात रखते थे, वह बताती थी कि वे किस तरह विषय के साथ गहरे जुड़े हुए हैं। उनका कृतित्व और जीवन पर्यावरण, नदी संरक्षण, स्वदेशी के युगानुकूल प्रयोगों को समर्पित था। वे स्वदेशी और पर्यावरण की बात कहते नहीं, करके दिखाते थे। उनके मेगा इवेंट्स में तांबे के लोटे ,मिट्टी के घड़े, कुल्हड़ से लेकर भोजन के लिए पत्तलें इस्तेमाल होती थीं। आयोजनों में आवास के लिए उनके द्वारा बनाई गयी कुटिया में देश के दिग्गज भी आकर रहते थे। हर आयोजन में नवाचार करके उन्होंने सबको सिखाया कि कैसे परंपरा के साथ आधुनिकता को साधा जा सकता है। राजनीति में होकर भी वे इतने मोर्चों पर सक्रिय थे कि ताज्जुब होता था।

वे एक कुशल संगठनकर्ता होने के साथ चुनाव रणनीति में नई प्रविधियों के साथ उतरने के जानकार थे। भाजपा में जो कुछ कुशल चुनाव संचालक हैं, रणनीतिकार हैं, वे उनमें एक थे। किसी राजनेता की छवि को किस तरह जनता के बीच स्थापित करते हुए अनूकूल परिणाम लाना, यह मध्यप्रदेश के कई चुनावों में वे करते रहे। दिग्विजय सिंह के दस वर्ष के शासनकाल के बाद उमाश्री भारती के नेतृत्व में लड़े गए विधानसभा चुनाव और उसमें अनिल माधव दवे की भूमिका को याद करें तो उनकी कुशलता एक मानक की तरह सामने आएगी। वे ही ऐसे थे जो मध्यप्रदेश में उमाश्री भारती से लेकर शिवराज सिंह चौहान सबको साध सकते थे। सबको साथ लेकर चलना और साधारण कार्यकर्ता से भी, बड़े से बड़े काम करवा लेने की उनकी क्षमता मध्य प्रदेश ने बार-बार देखी और परखी थी।

 उनके लेखन में गहरी प्रामाणिकता, शोध और प्रस्तुति का सौंदर्य दिखता है। लिखने को कुछ भी लिखना उनके स्वभाव में नहीं था। वे शिवाजी एंड सुराज, क्रिएशन टू क्रिमेशन, रैफ्टिंग थ्रू ए सिविलाइजेशन, ए ट्रैवलॉग, शताब्‍दी के पांच काले पन्‍ने, संभल के रहना अपने घर में छुपे हुए गद्दारों से, महानायक चंद्रशेखर आजाद, रोटी और कमल की कहानी, समग्र ग्राम विकास, अमरकंटक से अमरकंटक तक, बेयांड कोपेनहेगन, यस आई कैन, सो कैन वी जैसी पुस्तकों के माध्यम से अपनी बौद्धिक क्षमताओं से लोगों को परिचित कराते हैं। अनछुए और उपेक्षित विषयों पर गहन चिंतन कर वे उसे लोकविमर्श का हिस्सा बना देते थे। आज मध्यप्रदेश में नदी संरक्षण को लेकर जो चिंता सरकार के स्तर पर दिखती है , उसके बीज कहीं न कहीं दवे जी ने ही डाले हैं, इसे कहने में संकोच नहीं करना चाहिए। वे नदी, पर्यावरण, जलवायु परिर्वतन,ग्राम विकास जैसे सवालों पर सोचने वाले राजनेता थे। नर्मदा समग्र संगठन के माध्यम से उनके काम हम सबके सामने हैं। नर्मदा समग्र का जो कार्यालय उन्होंने बनाया उसका नाम भी उन्होंने ‘नदी का घर’ रखा। वे अपने पूरे जीवन में हमें नदियों से, प्रकृति से, पहाड़ों से संवाद का तरीका सिखाते रहे। प्रकृति से संवाद दरअसल उनका एक प्रिय विषय था। दुनिया भर में होने वाली पर्यावरण से संबंधित संगोष्ठियों और सम्मेलनों मे वे ‘भारत’ (इंडिया नहीं) के एक अनिवार्य प्रतिनिधि थे। उनकी वाणी में भारत का आत्मविश्वास और सांस्कृतिक चेतना का निरंतर प्रवाह दिखता था। एक ऐसे समय में जब बाजारवाद  हमारे सिर चढ़कर नाच रहा है, प्रकृत्ति और पर्यावरण के समक्ष रोज संकट बढ़ता जा रहा है, हमारी नदियां और जलश्रोत- मानव रचित संकटों से बदहाल हैं, अनिल दवे का हमारे साथ न होना हमें बहुत अकेला कर गया है। कोरोना संकट के बहाने हमें एक बार फिर जड़ों से जुड़ने और प्रकृति के साथ संवाद का अवसर मिला है। इस अवसर को हम न चूकें, यही अनिल जी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

घरेलू हिंसा के खिलाफ आवाज़ बुलंद करनी होगी

अर्चना किशोर

छपरा, बिहार

हमारा देश भारत अपने पौराणिक विचारों के लिए दुनिया भर में मशहूर है। धर्मों के प्रति गहरी आस्था ने भारत को पूरे विश्व में सिरमौर बनाया है। नदियों को मां कहकर बुलाना, अतिथियों को भगवान का दर्जा देना, यह सब शायद ही किसी और देश में देखने को मिल सकता है। लेकिन इन सबके बीच हमारे देश में कुछ ऐसी भी रूढ़िवादी परंपराएं हैं, जो दुनिया भर में हमारी छवि खराब करती है। उनमें से एक महिलाओं पर होने वाली हिंसा भी है। घर पर हम स्वयं को सुरक्षित महसूस करते हैं, लेकिन महिलाओं के लिए कभी-कभी घर भी सुरक्षित जगह नहीं होता है।

कुछ महिलाओं के लिए घर ही हिंसा का केंद्र बन जाता है। घर की चारदीवारी के अंदर किसी भी महिला, वृद्ध या बच्चों के साथ होने वाले शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, मौखिक, मनोवैज्ञानिक या यौन शोषण घरेलू हिंसा कहलाता है। किसी पर हाथ उठाना, मारना-पीटना एवं उसके लिए बुरे शब्द इस्तेमाल करना, गाली देना, उसके चरित्र या आचरण पर आरोप लगाना, घर से बाहर निकलने से मना करना, नौकरी नहीं करने देना या उसमें रुकावट डालना या छोड़ने के लिए मजबूर करना, बलपूर्वक शारीरिक संबंध बनाना, यह सभी घरेलू हिंसा की श्रेणी में आते हैं। समाज की सोच के कारण साधारणतः घरेलू हिंसा को ससुराल से जोड़कर देखा जाता है। हालांकि ऐसा कहना आधा सच है क्योंकि महिलाओं के लिए हिंसा का स्थान निर्धारित नहीं होता है। पति या पति के घरवालों द्वारा प्रताड़ित किया घरेलू हिंसा है, लेकिन बेटियों को संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों का इस्तेमाल करने से रोकना भी घरेलू हिंसा ही है। जैसे- शिक्षा प्राप्त करने से रोकना, नौकरी करने से मना करना, अपने मन से विवाह न करने देना या किसी व्यक्ति विशेष से विवाह के लिए मजबूर करना भी महिलाओं के खिलाफ हिंसा ही है, जिसके बारे में लोगों को जानकारी नहीं होती।

हमारे देश में महिलाओं को पीटना, उन पर चिल्लाना, बाहर जाकर पढ़ने या नौकरी करने से रोकना और जबरन शादी को लोग गलत ही नहीं मानते। परंपरा और संस्कृति के पाठ उन्हें इस कदर पढ़ाए जाते हैं कि शादी के पहले लड़कियां घरवालों और शादी के बाद ससुराल वालों के हाथों की कठपुतली बनकर रह जाती हैं। समाज की इसी सोच के कारण भारत में महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा आम बात हो गई है क्योंकि अब महिलाएं भी इसे हिंसा नहीं मानती हैं बल्कि उसे अपनी नियति मान लेती हैं। महिलाएं समझ ही नहीं पाती कि महज चिल्लाना हिंसा कैसे हो सकता है? एक पिता का अपनी बेटी पर अधिकार जताना गलत कैसे हो सकता है? कुछ महिलाओं का मानना है कि अगर पति या भाई हाथ उठाए, तब चुपचाप सहन कर लेना चाहिए क्योंकि माओं के साथ भी यही होता आया है। महिलाएं अपनी बेटियों को जागरूक करने के स्थान पर उन्हें सहना सिखा देती हैं, जिस कारण महिलाओं की आवाज़े दबी रह जाती हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत की लगभग हर दूसरी महिला घरेलू हिंसा की शिकार हुई है। लेकिन वह पुलिस स्टेशन जाकर शिकायत दर्ज कराने के बजाए अस्पताल जाकर इलाज कराने को ज़्यादा सही मानती हैं। रिश्तों की आड़ में वह अक्सर इस जुल्म को छिपाने की कोशिश करती हैं। सामाजिक स्तर पर वह घरेलू हिंसा की हकीकत को स्वीकार कर चुकी हैं और वह इसे अपनी ज़िंदगी का हिस्सा मान चुकी हैं।

पटना की प्रसिद्ध मनोचिकित्सक डॉक्टर बिंदा सिंह के अनुसार, “आत्मनिर्भर नहीं होने की वजह से महिलाएं घरेलू हिंसा स्वीकार कर लेती हैं। वह सही समय पर सही निर्णय नहीं ले पाती हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि उनका सपोर्ट सिस्टम नहीं होता। वह कहती हैं कि हमारे पास ऐसे भी कई केस आते हैं, जिसमें स्वयं लड़की के घरवाले उसके साथ ससुराल में होनी वाली हिंसा को कोई बहुत बड़ा जुर्म नहीं समझते हैं, और कहते हैं “मैडम आप इसे समझाइए न, ससुराल वापस चले जाए, थोड़ा एडजस्ट कर ले।” दरअसल परवरिश का तरीक़ा आज भी नहीं बदला। लोग शादी और ससुराल को बहुत ज़्यादा महत्त्व देते हैं, ऐसे में घरेलू हिंसा की बातें छिपाने की सलाह देते हैं।”

आंकड़ों के अनुसार हमारे देश में लगभग 5 करोड़ महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार हैं, लेकिन इनमें से केवल 0.1 प्रतिशत महिलाएं ही शिकायत दर्ज कराती हैं। लगभग हर पांच मिनट में घरेलू हिंसा की एक घटना रिपोर्ट की जाती है। यूनाइटेड नेशंस पॉपुलेशन फंड की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में लगभग दो-तिहाई विवाहित महिलाएं किसी न किसी रूप में घरेलू हिंसा की शिकार हैं। 15 से 49 आयु वर्ग की 70% विवाहित महिलाएं पिटाई, बलात्कार या ज़बरन यौन शोषण का शिकार हैं। इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंस, पटना में कार्यरत डॉक्टर कल्पना सिंह आंकड़ों के बारे में कहती हैं कि “ज्यादातर औरतें इस मामले में सच नहीं बताती। मारपीट के निशान को छुपा लेती हैं। वह यही बोलती हैं कि गिर गई थी, तो चोट आ गई है। हम उन पर कोई दबाव नहीं डालते, जो बताती हैं उसके अनुसार ही ट्रीटमेंट प्लांट करते हैं। कभी कभार बातचीत के क्रम में पता चलता है या उनके रिश्तेदार हमें घरेलू हिंसा की हकीकत बताते हैं। डॉक्टर कल्पना के अनुसार सेक्सुअल एब्यूज के भी बहुत केस आते हैं, लेकिन ओपन नहीं होने की वजह से आंकड़ों की सटीक जानकारी नहीं हो पाती है।”

21वीं शताब्दी में जब हम चांद और मंगल ग्रह तक पहुंच चुके हैं, कुछ महिलाएं अपने घर में भी अपना वजूद कायम नहीं कर पाई हैं। हर दिन शारीरिक, लैंगिक या भावनात्मक रूप से उनके अधिकारों का हनन होता है। महिलाएं घर के बाहर छेड़छाड़, अपहरण और बलात्कार की तुलना में घर के अंदर ज्यादा परेशान और असुरक्षित महसूस करती हैं। इसके कई कारण हो सकते हैं। जैसे पुरुषों की संकीर्ण मानसिकता, महिलाओं में जागरूकता की कमी और सामाजिक ढांचे को स्वीकार करने का दबाब। परिवार द्वारा अपनी ही बेटियों के पैर में सभ्यता की बेड़ियां लगा दी जाती हैं। संस्कार की तलवार से उनके पंख काट दिए जाते हैं। ग्रामीण इलाकों में महिलाओं के पास जानकारी का अभाव होता है, जिस कारण उनके साथ हिंसा के मामले ज्यादा देखे जाते हैं लेकिन सामने नहीं आ पाते। इसके विपरीत अगर कोई महिला अपने मौलिक अधिकारों का उपयोग करती हुई घर की चौखट लांघने की कोशिश करती है, तो उन महिलाओं को समाज अपनाने से इंकार कर देता है। क्योंकि समाज के रूढ़िवादी नियमों को संविधान से भी ज्यादा तरजीह दी जाती है।

यदि किसी महिला ने अपने जीवन में घरेलू हिंसा का सामना किया है, तो उसके लिए उस थप्पड़ के डर से बाहर आ पाना बहुत मुश्किल हो जाता है। कई मामलों में वह मानसिक संतुलन तक खो बैठती हैं या अवसाद का शिकार हो जाती हैं। कुछ तो आत्महत्या की भी कोशिश करती हैं। वहीं घर में घरेलू हिंसा को देखने वाले बच्चों पर भी इसका व्यापक प्रभाव पड़ता है। वे या तो दब्बू हो जाते हैं या फिर हिंसक। मनोचिकित्सक डॉ•बिंदा सिंह ट्रीटमेंट के बारे में जानकारी देते हुए बताती हैं कि लड़की और उसके ससुराल वालों की काउंसलिंग की जाती है। बिहेवियर और कॉग्निटिव थेरेपी से इलाज किया जाता है। कई बार चीजें सही भी हो जाती हैं और अगर हालात ज्यादा खराब रहते हैं, तो लड़की के घरवालों को बुलाकर उसे पढ़ाने और इंडिपेंडेंट बनाने की सलाह दी जाती है।

वास्तव में घरेलू हिंसा किसी एक परिवार, गांव, कस्बा या शहर की कहानी नहीं है, बल्कि यह किसी न किसी रूप में हर घर में मौजूद है। कभी कभी यह अपनी सभी सीमाएं लांघ जाता है। संकुचित मानसिकता और रूढ़िवादी विचारधारा को अपनाने वाले पितृसत्तात्मक समाज में कई बार महिलाओं के साथ हिंसा को शान समझा जाता है और इसे गर्व के साथ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को विरासत के रूप में बढ़ाया जाता है। जो किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं है। ऐसे में हमें इस सामाजिक बुराई से लड़कर और जागरूक होकर ही इसे हराना होगा। नई पीढ़ी में महिलाओं के प्रति सम्मान की भावना उत्पन्न करके हम महिला हिंसा को रोक सकते हैं। लेकिन सबसे ज़्यादा ज़रूरी यह है कि महिलाओं को स्वयं आगे आकर घरेलू हिंसा के खिलाफ आवाज़ें बुलंद करनी होगी।

गाँव में पहुँचा कोरोना,खतरे से सावधान!


देश के सभी नागरिकों को बहुत सावधान रहने की जरूरत है। खास करके उन नागरिकों को जोकि ग्रामीण इलोकों में रहते हैं। क्योंकि शहरी इलाका तो कोरोना की चपेट में आ चुका लेकिन देश में सुरक्षित समझा जाने वाला इलाका जिसको ग्रामीण भारत कहते हैं। वहाँ भी कोरोना ने अपनी दस्तक दे दी है। ऐसी सूचना बहुत ही खतरनाक है। शहरी इलाकों को देखकर ग्रामीण इलाकों को सीख ले लेनी चाहिए। किसी भी तरह की लापरवाही जानलेवा साबित हो सकती है। अचानक तेजी के साथ बड़ा खतरा दस्तक दे सकता है। इसलिए समय रहते बहुत सावधानी की जरूरत है। क्योंकि कोरोना से बचने का एक मात्र उपाय है वह है सावधानी। आज के समय में प्रत्येक सेकेण्ड सचेत एवं सावधान रहने की जरुरत है। तनिक भी चूक एवं असावधानी बहुत ही भारी पड़ सकती है। क्योंकि देश का स्वास्थ ढ़ाँचा पूरी तरह से हाँफ रहा है।
ऑक्सीजन से लेकर दवाई तक के लिए मरीजों एवं परिजनों को जिस प्रकार से संघर्ष करना पड़ रहा है उससे देश का प्रत्येक नागरिक अवगत है। जिस प्रकार से मौतें हो रहीं हैं उसको छिपाया नहीं जा सकता। शमशान से लेकर कब्रिस्तान तक की स्थिति सबके सामने है। हद तो यहाँ तक हो गई की गंगा नदी में शवों को प्रवाहित करने का सिलसिला भी चल पड़ा है जिस पर न्यायालय एवं प्रशासन ने अपनी निगाहें जमा दीं। हाल के दिनों में शहरों में कोरोना संक्रमण के मामले जिस तेज़ी के साथ बढ़े हैं। वह सबके सामने है। लेकिन अब कोरोना वायरस तेज़ी से गांवों में भी अपने पैर पसार रहा है जहां शहरों की अपेक्षा स्वास्थ्य व्यवस्था की स्थिति पहले से ही बदहाल है। महामारी की दूसरी लहर ने किस कदर कहर बरपाया है उसे शब्दों के माध्यम से कह पाना अत्यंत मुश्किल है। संक्रमण के मामले किस तेज़ी से बढ़े हैं इसे इस बात से समझा जा सकता है कि देश के बड़े शहरों में शुमार राजधानी दिल्ली जैसी जगहों पर अस्तपालों में मरीज़ों की संख्या अचानक से बढ़ गई। मेडिकल ऑक्सीजन की कमी और अस्पतालों में बेड की कमी जैसी समस्याएं पल भर में अपना मुँह बाए हुए आकर खड़ी हो गईँ। लखनऊ कानपुर मुम्बई में कोरोना ने किस कदर तांडव मचाया है वह किसी से भी छिपा हुआ नहीं है। हद तो यह हो गई कि अस्पतालों में बेड मिलना मुश्किल हो गया। दवाई एवं ऑक्सीजन तक की पहुँच होना किसी युद्ध से कम नहीं है। अगर किसी भी मरीज की तबियत अधिक सीरियस होती है और उसे वेंटीलेटर जैसी तकनीकिक सुविधा की जरूरत पड़ जाती है तो यमराज खुली हुई आँखों से साक्षात दिखाई देते हैं।
स्वास्थ सिस्टम गरीब एवं मध्यम जनता की पहुँच से बाहर होता हुआ दिखाई दे रहा है। देश की किसी भी बंद गलियों में जाकर वहाँ कि निवासियों से उनकी वास्तविकता का आँकलन आसानी के साथ किया जा सकता है। शहरी इलाके के गरीब एवं मजदूर परिवारों से उनकी हकीकत को आसानी के साथ परखा जा सकता है। शमशानों एवं कब्रिस्तानों में जाकर वहाँ पर शवों के साथ आने वाले परिजनों से अस्पतालों की सुविधाएं एवं संसधानों के बारे में आसानी के साथ हकीकत का पता लगाया जा सकता है। अस्पतालों की जमीनी हकीकत क्या है उसे आसानी के साथ समझा जा सकता है। सत्य बहुत कड़ुआ है। लेकिन सत्य यही है गरीब एवं मध्यम वर्ग के व्यक्ति के पास न तो पैसा है और न ही उसके पास संसाधन हैं वह करे तो क्या करे न वह प्राईवेट अस्पतालों में जाकर मंहगा इलाज कर सकता है और न ही सरकारी अस्पातलों में जीवन बचाने के लिए जिम्मेदारी लेने वाला कोई है। सरकारी अस्पतालों की स्थिति सबके सामने है। इस घातक महामारी ने दवाईयों और ऑक्सीजन के आभाव ने पूरी आबादी को पूरी तरह से झकझोर दिया है।
कोरोना की पहली लहर के दौरान पीक आने से पहले ग्रामीण इलाक़ों में संक्रमण के नए मामले देखने में आए थे लेकिन समय रहते इन पर अंकुश लगाया जा सका था। कोरोना की पहली लहर के दौरान कोरोना वायरस को फैलने से रोकने के लिए सरकार ने पूरे देश में लॉकडाउन लगाया था लेकिन संक्रमण फैलने से रोकने के लिए लागू किए दिशानिर्देशों का उल्लंघन तब हुआ जब भारी संख्या में मज़दूरों ने शहरों से अपने गांवों की ओर पलायन करना आरंभ कर दिया था। अगर स्वास्थ्य सुविधाओं की बात करें तो शहरों की तुलना में ग्रामीण इलाक़ों में स्वास्थ्य व्यवस्था उतनी दुरुस्त नहीं है। अगर अस्पातालों की बात करें तो देश के किसी भी प्रदेश में आबादी के अनुपात में अस्पतालों की व्यवस्था न के बराबर है। नेशनल हेल्थ सिस्टम की रिपोर्ट तो चौकाने वाली है। क्योंकि देश की इतनी बड़ी आबादी अगर बीमारी के कगार पर पहुँच जाती है तो उसे कैसे बचाया जा सकता है इसका उत्तर किसी के भी पास नहीं है। क्योंकि देश की आबादी के अनुसार सरकारी अस्पतालों की व्यवस्था ऊँट के मुँह का जीरा मात्र है। जब अस्पताल ही नहीं है तो बेड,ऑक्सीजन,दवाई तथा वेंटीलेटर जैसी सुविधाओं की कल्पना करना ही अपने आपमें बेईमानी है। खास करके शहरी इलाकों में कोरोना का भयावह रूप सबके सामने है। जहाँ सरकारी के साथ-साथ प्राईवेट अस्पातालों की भी भारी-भरकम व्यवस्था होती है। लेकिन कोरोना के तांडव के सामने शहरी इलाकों की सभी व्यवस्थाएं अपने आपमें बौनी साबित हुई। शहरों से कोरोना का तांडव अभी समाप्त नहीं हुआ। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अपनी तथा अपने परिवार तथा समाज की सुरक्षा के प्रति सजग रहने की जरूरत है। भारत ऐसा देश है जहाँ शहरों की तुलना में अधिकतर आबादी ग्रामीण भारत में निवास करती है।
अतः खासकरके देश के प्रत्येक ग्रामीणों को कोरोना के नियम का कड़ाई के साथ पालन करना चाहिए क्योंकि ग्रामीण इलाकों में पुलिस बल भी प्रयाप्त मात्रा में नहीं होता जोकि प्रत्येक ग्राम में जाकर प्रति व्यक्ति को कोरोना के नियम तथा उचित दूरी के लिए हर पल नजर गड़ाए रखे। इसलिए प्रत्येक ग्रामीणों को स्वयं ही अपनी तथा अपने ग्राम की रक्षा के लिए उचित दूरी तरह कोरोना गाईड लाईन तथा साफ-सफाई जैसी व्यवस्थाओं को स्वयं ही लागू करना चाहिए। क्योंकि जबतक हम खुद से अपने आप पर अंकुश नहीं लगाएंगें तबतक कोई भी दूसरा व्यक्ति हम पर अंकुश पूरी तरह से नहीं लगा सकता। इसलिए समस्त भारत के खास करके ग्रामीण इलाकों को खुद से अपने आप पर अंकुश लगाने की सख्त जरूरत है। अन्यथा तनिक भी लापरवाही भारी तबाही मचा सकती है। क्योंकि ग्रामीण भारत में चिकित्सा की व्यवस्था का ढ़ाँचा किसी से भी छिपा हुआ नहीं है। इसलिए अपने आपको एक जिम्मेदार नागरिक की तरह से अपनी तथा अपने ग्राम की रक्षा के लिए हर वह प्रयास करने चाहिए जिससे कि इस महामारी से बचा जा सके।

प्रकृति की हानि कोरोना जैसी आपदा को जन्म देगी यह जानते थे अनिल दवे

अनिल माधव दवे, एक ऐसा नाम जो गड्ढा खोदकर पौधा लगाने से लेकर वायुयान उड़ाने तक के कार्य को पूर्ण विशेषज्ञता के साथ ही नहीं अपितु नवाचार के साथ करने में सक्षम हो! एक ऐसा नाम जो सादगी को भी फैशन बना देने में सक्षम हो!! और सबसे बड़ी बात जो वैदिक काल के नायकों की भांति सचमुच नदी पुत्र, नर्मदा पुत्र बन गया हो!!! और भी बहुत कुछ है इस चुम्बकीय, चमत्कारी व चंद्रत्व धारी व्यक्ति के विषय में जो कहा जा सकता है किंतु अभी व्यक्तित्व की चर्चा इतनी ही. जितना मैंने अनिल जी दवे को जाना है उसके अनुसार उनके व्यक्तित्व के विषय में इतना कहना, लिखना भी उनकी दिवंगत आत्मा को कष्टप्रद लग रहा होगा. संयोग कहे या दुर्योग कि वे जीवन के अंतिम वर्षों में राजनीति में भी रहे किंतु राजनीति तो जैसे उन्हें छु भी नहीं पाई थी. अपने विषय में लिखने, पढ़ने, प्रशंसा, चर्चा से उन्हें बड़ा ही कष्ट होता था. उनके व्यक्तित्व की जितनी चर्चा, प्रसंशा की जाए कम है किंतु उससे भी अधिक बड़ी बात यह है कि उनके व्यक्तित्व से कई गुना बड़ा था उनका कृतित्व. और हां, उनके कृतित्व से भी कहीं बहुत अधिक अधिक बड़ा था उनका रचना संसार. अनिल जी दवे का लेखन या रचना संसार बहुत अधिक विस्तृत या विशाल नहीं है किंतु बहुत अधिक गहरा, प्रभावशाली व परिवर्तनकारी अवश्य है. उनके लेखन में प्रामाणिकता, खोज, शोध, संवेदनशीलता, सुन्दरता, भाव, बिम्ब, प्रतीक का अद्भुत समन्वय होता था. शब्दों के वे खिलाड़ी नहीं थे बल्कि वे शब्दों की अंतरात्मा से तादात्म्य बैठाकर लेखन करने वाले व्यक्ति थे. शिवाजी एंड सुराज, क्रिएशन टू क्रिमेशन, रैफ्टिंग थ्रू ए सिविलाइजेशन, ए ट्रैवलॉग, शताब्‍दी के पांच काले पन्‍ने, संभल के रहना अपने घर में छुपे हुए गद्दारों से, महानायक चंद्रशेखर आजाद, रोटी और कमल की कहानी, समग्र ग्राम विकास, अमरकंटक से अमरकंटक तक, बेयांड कोपेनहेगन, यस आई कैन, सो कैन वी जैसी कालजयी, भावपूर्ण, तथ्यपरक व अद्भुत पुस्तकों के लेखक हैं वे. सबसे बड़ी बात यह रहती थी कि वे ऐसे विषयों पर लेखन करते थे जो अब तक समाज, शासन, प्रशासन व राजनीति की आँखों से ओझल ही रहते थे. लेखन, कार्य, अभियान आदि हेतु उनके द्वारा चुने हुए विषय समाज को एक नई दृष्टि, दिशा व दशा की और ले जाने में सक्षम ही नहीं अपितु सफल भी रहते थे.

       आज संभवतः उनकी आत्मा को नदी पुत्र कहना बड़ा सुखकर लगता होगा किंतु मुझे उनको केवल नदी पुत्र के स्थान पर समूची प्रकृति का पुत्र कहना अधिक समयोचित, सटीक व सही लगता है. 

  एक व्यक्ति के रूप में संपूर्ण थे वे, सो सामाजिक कार्यकर्ता बनने में उन्हें बहुत अधिक प्रयास नहीं करने पड़े होंगे ऐसा मुझे लगता है. वे नेसर्गिक समाजनायक थे. अपने कार्यकर्ताओं की भावनाओं को समझना और उस अनुरूप ही अपने निर्णयों में परिवर्तन, लोच व आयाम उत्पन्न करना उन्हें आत्मसंतुष्टि देता था. अपने कार्यकर्ताओं के लिए सदा जागृत व चैतन्य रहना, उनसे संपर्क में बने रहना उनका चिर स्वभाव था. सहयोगियों के परिवार, परिस्थिति व प्रोफेशन आदि को वे व्यवस्थित समझते थे व उस अनुरूप ही उन्हें कार्य सौंपने में उन्हें विशेषज्ञता उपलब्ध थी. मुझे स्मरण है जब मैंने मेरी पहली पुस्तक की प्रस्तावना लिखने हेतु उनसे सीधा आग्रह किया था तब उन्होंने उनके बड़े ही कठिनतम व व्यस्ततम समय में भी मुझे बड़ी ही नम्रता से सहमति दे दी थी. मुझे बड़ा ही आश्चर्य हुआ था क्योंकि इस आग्रह के पूर्व उनकी मेरी केवल एक ही भेंट हुई थी और वह भी लगभग तीन वर्ष पूर्व. इन तीन वर्षों में भी मेरे व अनिल जी के मध्य एकाध बार ही फोन पर चर्चा हुई होगी. मेरी पहली पुस्तक जो कि 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान लिखी गई थी, की न केवल उन्होंने प्रस्तावना लिखी थी बल्कि स्वयं पहल करते हुए उस पुस्तक के विमोचन की भी चिंता उन्होंने की थी. अनिल जी के प्रयासों का ही प्रतिफल था की मेरी उस पुस्तक का विमोचन प्रधानमंत्री नरेंद्र जी मोदी के चुनाव अभियान के दौरान बनारस में भाजपा के राष्ट्रीय संगठन मंत्री श्री रामलाल जी, श्री अमित शाह जी व श्री अरुण जी जेटली के शुभहस्ते संपन्न हो पाया था. 

          मानव जाति द्वारा प्रकृति के साथ किये जा रहे खिलवाड़ व उसके परिणाम स्वरूप होने वाली केदारनाथ जैसी दुर्घटनाओं व कोरोना जैसी महामारी की संभावनाओं को वे बहुत पहले स्वीकार कर चुके थे व निरंतर समाज को इस हेतु चेता भी रहे थे. नदियों के सरंक्षण, संवर्धन व श्रीवर्धन करने हेतु उनके प्रयास अभिनव, अद्भुत व अद्वितीय थे. नदियों के सरंक्षण हेतु अनिलजी ने नर्मदा में जो प्रयोग किये थे वे प्रतिनिधि, प्रयोग के तौर पर ही किये गये थे. अनिल जी के मानस में यह योजना थी की नर्मदा पर किये जा रहे समूचे प्रयोगों व अभियानों को बाद में व संपूर्ण राष्ट्र की नदियों पर भी लागू करते किंतु इस अथक यौद्धा को असमय ही काल ने लील लिया व 18 मई, 2017 को उनका असमय निधन हो गया. 

         उनके द्वारा किये जा रहे प्रयासों व अभियानों की सार्थकता का ही परिणाम था कि वे पर्यावरण, नदी, जल, जंगल, जमीन आदि विषयों पर होने वाली राष्ट्रीय व अन्तराष्ट्रीय बैठकों के अनिवार्य अंग हो गए थे. उनके रूचि के सैंकड़ो व्याख्यान वे सतत करते ही चले जा रहे थे. विद्वता, विशेषज्ञता व प्रामाणिकता के साथ जब वे प्रकृति संबंधित विषयों पर बोलते थे तो कतई ऐसा नहीं लगता था कि केवल कोई विशेषज्ञ बोल रहा है; लगता था जैसे कोई नदीपुत्र, वनपुत्र या भूमिपुत्र बोल रहा है. यही कारण था कि राष्ट्रीय अन्तराष्ट्रीय बैठको में उनके सत्र को सभी अनुभागी अनिवार्यतः सुनते व मथते थे.  

          भारतीयता की अद्भुत पहचान कुंभ मेले को नए सरोकार देने का भी विशाल बीड़ा उन्होंने उठाया था जिसमें वे सफल रहे थे. कुंभ मेले की कम होती प्रासंगिकता, कुंभ के प्रति नई पीढ़ी की उदासीनता व प्रशासनिक असंवेदनशीलता को अनिल जी ने एक झटके में समाप्त करा दिया था. उनकी अभिनव पहल का ही परिणाम था कि मध्यप्रदेश में उज्जैन कुंभ समूचे  देश में एक रुचिकर व फैशन का विषय बन गया था. 

       आठ वर्ष की आयु से एक स्वयंसेवक के रूप में प्रारंभ हुआ उनका जीवन विभाग प्रचारक से लेकर, एक पायलट, एक नदीपुत्र व एक केंद्रीय मंत्री तक का विस्तार प्राप्त कर चुका था. उनके व्यक्तित्व का समूचा विस्तार भारतीय परम्पराओं से उनके प्रेम का ही परिणाम था. परम्पराओं की रक्षा व धर्मो रक्षितः रक्षति उनका प्रिय ध्येय विषय था. धर्म के प्रति उनके आग्रह ने उन्हें बहुत अधिक तो नहीं किंतु शतांश रूप में विवेकानंद बना दिया था. यह दुखद ही है कि स्वामी विवेकानंद की ही भांति वे भी असमय काल के गाल में समा गए. यदि वे कुछ वर्ष और जीवित रहते तो भारतीय शासन, प्रशासन, शिक्षा, राजनीति अदि आदि में परम्पराओं व धर्म का वैज्ञानिक अद्भुत घोल तैयार कर लेते. ऐसा इसलिए होता कि परम्पराओं में आधुनिकता को खोजना व उनमें नवाचार की प्राणप्रतिष्ठा करने की अद्भुत क्षमता उनके पास थी. दुर्भाग्य की उनके असमय निधन से ऐसा हो न पाया. 

       उनके विषय में आज जब उनकी पुण्यतिथि पर लिखना हो रहा है तब जावली, मिस्टर बंटाधार आदि आदि जैसे बहुत सेउल्लेखनीय विषयों को स्थानाभाववश छोड़ना पद रहा है.  किंतु, 

उनके अंतिम इच्छा पत्र या वसीयत की चर्चा किये बिना यह लेखन अधूरा ही होगा. उनके इच्छापत्र में लिखी चार पंक्तियां उनकी जीवन यात्रा का निचोड़ हैं, पढ़िए उनका इच्छापत्र –

संभव हो तो मेरा अंतिम संस्कार बाद्राभान में नर्मदा नदी महोत्सव वाले स्थान पर किया जाये.

उत्तर किया के रूप में केवल वैदिक कर्म ही हो, किसी भी प्रकार का दिखावा आडंबर न हो.

मेरी स्मृति में कोई भी स्मारक, प्रतियोगिता, पुरस्कार, प्रतिमा आदि न बनाई जाए.

जो मेरी स्मृति में कुछ करना चाते हों वे वृक्षों को बोने व उन्हें सरंक्षित कर बड़ा करने का कार्य करें तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी. और ऐसा करते हुए भी वे मेरे नाम का प्रयोग न करें.