हमारा देश भारत अपने पौराणिक विचारों के लिए दुनिया भर में मशहूर है। धर्मों के प्रति गहरी आस्था ने भारत को पूरे विश्व में सिरमौर बनाया है। नदियों को मां कहकर बुलाना, अतिथियों को भगवान का दर्जा देना, यह सब शायद ही किसी और देश में देखने को मिल सकता है। लेकिन इन सबके बीच हमारे देश में कुछ ऐसी भी रूढ़िवादी परंपराएं हैं, जो दुनिया भर में हमारी छवि खराब करती है। उनमें से एक महिलाओं पर होने वाली हिंसा भी है। घर पर हम स्वयं को सुरक्षित महसूस करते हैं, लेकिन महिलाओं के लिए कभी-कभी घर भी सुरक्षित जगह नहीं होता है।
कुछ महिलाओं के लिए घर ही हिंसा का केंद्र बन जाता है। घर की चारदीवारी के अंदर किसी भी महिला, वृद्ध या बच्चों के साथ होने वाले शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, मौखिक, मनोवैज्ञानिक या यौन शोषण घरेलू हिंसा कहलाता है। किसी पर हाथ उठाना, मारना-पीटना एवं उसके लिए बुरे शब्द इस्तेमाल करना, गाली देना, उसके चरित्र या आचरण पर आरोप लगाना, घर से बाहर निकलने से मना करना, नौकरी नहीं करने देना या उसमें रुकावट डालना या छोड़ने के लिए मजबूर करना, बलपूर्वक शारीरिक संबंध बनाना, यह सभी घरेलू हिंसा की श्रेणी में आते हैं। समाज की सोच के कारण साधारणतः घरेलू हिंसा को ससुराल से जोड़कर देखा जाता है। हालांकि ऐसा कहना आधा सच है क्योंकि महिलाओं के लिए हिंसा का स्थान निर्धारित नहीं होता है। पति या पति के घरवालों द्वारा प्रताड़ित किया घरेलू हिंसा है, लेकिन बेटियों को संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों का इस्तेमाल करने से रोकना भी घरेलू हिंसा ही है। जैसे- शिक्षा प्राप्त करने से रोकना, नौकरी करने से मना करना, अपने मन से विवाह न करने देना या किसी व्यक्ति विशेष से विवाह के लिए मजबूर करना भी महिलाओं के खिलाफ हिंसा ही है, जिसके बारे में लोगों को जानकारी नहीं होती।
हमारे देश में महिलाओं को पीटना, उन पर चिल्लाना, बाहर जाकर पढ़ने या नौकरी करने से रोकना और जबरन शादी को लोग गलत ही नहीं मानते। परंपरा और संस्कृति के पाठ उन्हें इस कदर पढ़ाए जाते हैं कि शादी के पहले लड़कियां घरवालों और शादी के बाद ससुराल वालों के हाथों की कठपुतली बनकर रह जाती हैं। समाज की इसी सोच के कारण भारत में महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा आम बात हो गई है क्योंकि अब महिलाएं भी इसे हिंसा नहीं मानती हैं बल्कि उसे अपनी नियति मान लेती हैं। महिलाएं समझ ही नहीं पाती कि महज चिल्लाना हिंसा कैसे हो सकता है? एक पिता का अपनी बेटी पर अधिकार जताना गलत कैसे हो सकता है? कुछ महिलाओं का मानना है कि अगर पति या भाई हाथ उठाए, तब चुपचाप सहन कर लेना चाहिए क्योंकि माओं के साथ भी यही होता आया है। महिलाएं अपनी बेटियों को जागरूक करने के स्थान पर उन्हें सहना सिखा देती हैं, जिस कारण महिलाओं की आवाज़े दबी रह जाती हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत की लगभग हर दूसरी महिला घरेलू हिंसा की शिकार हुई है। लेकिन वह पुलिस स्टेशन जाकर शिकायत दर्ज कराने के बजाए अस्पताल जाकर इलाज कराने को ज़्यादा सही मानती हैं। रिश्तों की आड़ में वह अक्सर इस जुल्म को छिपाने की कोशिश करती हैं। सामाजिक स्तर पर वह घरेलू हिंसा की हकीकत को स्वीकार कर चुकी हैं और वह इसे अपनी ज़िंदगी का हिस्सा मान चुकी हैं।
पटना की प्रसिद्ध मनोचिकित्सक डॉक्टर बिंदा सिंह के अनुसार, “आत्मनिर्भर नहीं होने की वजह से महिलाएं घरेलू हिंसा स्वीकार कर लेती हैं। वह सही समय पर सही निर्णय नहीं ले पाती हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि उनका सपोर्ट सिस्टम नहीं होता। वह कहती हैं कि हमारे पास ऐसे भी कई केस आते हैं, जिसमें स्वयं लड़की के घरवाले उसके साथ ससुराल में होनी वाली हिंसा को कोई बहुत बड़ा जुर्म नहीं समझते हैं, और कहते हैं “मैडम आप इसे समझाइए न, ससुराल वापस चले जाए, थोड़ा एडजस्ट कर ले।” दरअसल परवरिश का तरीक़ा आज भी नहीं बदला। लोग शादी और ससुराल को बहुत ज़्यादा महत्त्व देते हैं, ऐसे में घरेलू हिंसा की बातें छिपाने की सलाह देते हैं।”
आंकड़ों के अनुसार हमारे देश में लगभग 5 करोड़ महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार हैं, लेकिन इनमें से केवल 0.1 प्रतिशत महिलाएं ही शिकायत दर्ज कराती हैं। लगभग हर पांच मिनट में घरेलू हिंसा की एक घटना रिपोर्ट की जाती है। यूनाइटेड नेशंस पॉपुलेशन फंड की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में लगभग दो-तिहाई विवाहित महिलाएं किसी न किसी रूप में घरेलू हिंसा की शिकार हैं। 15 से 49 आयु वर्ग की 70% विवाहित महिलाएं पिटाई, बलात्कार या ज़बरन यौन शोषण का शिकार हैं। इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंस, पटना में कार्यरत डॉक्टर कल्पना सिंह आंकड़ों के बारे में कहती हैं कि “ज्यादातर औरतें इस मामले में सच नहीं बताती। मारपीट के निशान को छुपा लेती हैं। वह यही बोलती हैं कि गिर गई थी, तो चोट आ गई है। हम उन पर कोई दबाव नहीं डालते, जो बताती हैं उसके अनुसार ही ट्रीटमेंट प्लांट करते हैं। कभी कभार बातचीत के क्रम में पता चलता है या उनके रिश्तेदार हमें घरेलू हिंसा की हकीकत बताते हैं। डॉक्टर कल्पना के अनुसार सेक्सुअल एब्यूज के भी बहुत केस आते हैं, लेकिन ओपन नहीं होने की वजह से आंकड़ों की सटीक जानकारी नहीं हो पाती है।”
21वीं शताब्दी में जब हम चांद और मंगल ग्रह तक पहुंच चुके हैं, कुछ महिलाएं अपने घर में भी अपना वजूद कायम नहीं कर पाई हैं। हर दिन शारीरिक, लैंगिक या भावनात्मक रूप से उनके अधिकारों का हनन होता है। महिलाएं घर के बाहर छेड़छाड़, अपहरण और बलात्कार की तुलना में घर के अंदर ज्यादा परेशान और असुरक्षित महसूस करती हैं। इसके कई कारण हो सकते हैं। जैसे पुरुषों की संकीर्ण मानसिकता, महिलाओं में जागरूकता की कमी और सामाजिक ढांचे को स्वीकार करने का दबाब। परिवार द्वारा अपनी ही बेटियों के पैर में सभ्यता की बेड़ियां लगा दी जाती हैं। संस्कार की तलवार से उनके पंख काट दिए जाते हैं। ग्रामीण इलाकों में महिलाओं के पास जानकारी का अभाव होता है, जिस कारण उनके साथ हिंसा के मामले ज्यादा देखे जाते हैं लेकिन सामने नहीं आ पाते। इसके विपरीत अगर कोई महिला अपने मौलिक अधिकारों का उपयोग करती हुई घर की चौखट लांघने की कोशिश करती है, तो उन महिलाओं को समाज अपनाने से इंकार कर देता है। क्योंकि समाज के रूढ़िवादी नियमों को संविधान से भी ज्यादा तरजीह दी जाती है।
यदि किसी महिला ने अपने जीवन में घरेलू हिंसा का सामना किया है, तो उसके लिए उस थप्पड़ के डर से बाहर आ पाना बहुत मुश्किल हो जाता है। कई मामलों में वह मानसिक संतुलन तक खो बैठती हैं या अवसाद का शिकार हो जाती हैं। कुछ तो आत्महत्या की भी कोशिश करती हैं। वहीं घर में घरेलू हिंसा को देखने वाले बच्चों पर भी इसका व्यापक प्रभाव पड़ता है। वे या तो दब्बू हो जाते हैं या फिर हिंसक। मनोचिकित्सक डॉ•बिंदा सिंह ट्रीटमेंट के बारे में जानकारी देते हुए बताती हैं कि लड़की और उसके ससुराल वालों की काउंसलिंग की जाती है। बिहेवियर और कॉग्निटिव थेरेपी से इलाज किया जाता है। कई बार चीजें सही भी हो जाती हैं और अगर हालात ज्यादा खराब रहते हैं, तो लड़की के घरवालों को बुलाकर उसे पढ़ाने और इंडिपेंडेंट बनाने की सलाह दी जाती है।
वास्तव में घरेलू हिंसा किसी एक परिवार, गांव, कस्बा या शहर की कहानी नहीं है, बल्कि यह किसी न किसी रूप में हर घर में मौजूद है। कभी कभी यह अपनी सभी सीमाएं लांघ जाता है। संकुचित मानसिकता और रूढ़िवादी विचारधारा को अपनाने वाले पितृसत्तात्मक समाज में कई बार महिलाओं के साथ हिंसा को शान समझा जाता है और इसे गर्व के साथ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को विरासत के रूप में बढ़ाया जाता है। जो किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं है। ऐसे में हमें इस सामाजिक बुराई से लड़कर और जागरूक होकर ही इसे हराना होगा। नई पीढ़ी में महिलाओं के प्रति सम्मान की भावना उत्पन्न करके हम महिला हिंसा को रोक सकते हैं। लेकिन सबसे ज़्यादा ज़रूरी यह है कि महिलाओं को स्वयं आगे आकर घरेलू हिंसा के खिलाफ आवाज़ें बुलंद करनी होगी।
देश के सभी नागरिकों को बहुत सावधान रहने की जरूरत है। खास करके उन नागरिकों को जोकि ग्रामीण इलोकों में रहते हैं। क्योंकि शहरी इलाका तो कोरोना की चपेट में आ चुका लेकिन देश में सुरक्षित समझा जाने वाला इलाका जिसको ग्रामीण भारत कहते हैं। वहाँ भी कोरोना ने अपनी दस्तक दे दी है। ऐसी सूचना बहुत ही खतरनाक है। शहरी इलाकों को देखकर ग्रामीण इलाकों को सीख ले लेनी चाहिए। किसी भी तरह की लापरवाही जानलेवा साबित हो सकती है। अचानक तेजी के साथ बड़ा खतरा दस्तक दे सकता है। इसलिए समय रहते बहुत सावधानी की जरूरत है। क्योंकि कोरोना से बचने का एक मात्र उपाय है वह है सावधानी। आज के समय में प्रत्येक सेकेण्ड सचेत एवं सावधान रहने की जरुरत है। तनिक भी चूक एवं असावधानी बहुत ही भारी पड़ सकती है। क्योंकि देश का स्वास्थ ढ़ाँचा पूरी तरह से हाँफ रहा है। ऑक्सीजन से लेकर दवाई तक के लिए मरीजों एवं परिजनों को जिस प्रकार से संघर्ष करना पड़ रहा है उससे देश का प्रत्येक नागरिक अवगत है। जिस प्रकार से मौतें हो रहीं हैं उसको छिपाया नहीं जा सकता। शमशान से लेकर कब्रिस्तान तक की स्थिति सबके सामने है। हद तो यहाँ तक हो गई की गंगा नदी में शवों को प्रवाहित करने का सिलसिला भी चल पड़ा है जिस पर न्यायालय एवं प्रशासन ने अपनी निगाहें जमा दीं। हाल के दिनों में शहरों में कोरोना संक्रमण के मामले जिस तेज़ी के साथ बढ़े हैं। वह सबके सामने है। लेकिन अब कोरोना वायरस तेज़ी से गांवों में भी अपने पैर पसार रहा है जहां शहरों की अपेक्षा स्वास्थ्य व्यवस्था की स्थिति पहले से ही बदहाल है। महामारी की दूसरी लहर ने किस कदर कहर बरपाया है उसे शब्दों के माध्यम से कह पाना अत्यंत मुश्किल है। संक्रमण के मामले किस तेज़ी से बढ़े हैं इसे इस बात से समझा जा सकता है कि देश के बड़े शहरों में शुमार राजधानी दिल्ली जैसी जगहों पर अस्तपालों में मरीज़ों की संख्या अचानक से बढ़ गई। मेडिकल ऑक्सीजन की कमी और अस्पतालों में बेड की कमी जैसी समस्याएं पल भर में अपना मुँह बाए हुए आकर खड़ी हो गईँ। लखनऊ कानपुर मुम्बई में कोरोना ने किस कदर तांडव मचाया है वह किसी से भी छिपा हुआ नहीं है। हद तो यह हो गई कि अस्पतालों में बेड मिलना मुश्किल हो गया। दवाई एवं ऑक्सीजन तक की पहुँच होना किसी युद्ध से कम नहीं है। अगर किसी भी मरीज की तबियत अधिक सीरियस होती है और उसे वेंटीलेटर जैसी तकनीकिक सुविधा की जरूरत पड़ जाती है तो यमराज खुली हुई आँखों से साक्षात दिखाई देते हैं। स्वास्थ सिस्टम गरीब एवं मध्यम जनता की पहुँच से बाहर होता हुआ दिखाई दे रहा है। देश की किसी भी बंद गलियों में जाकर वहाँ कि निवासियों से उनकी वास्तविकता का आँकलन आसानी के साथ किया जा सकता है। शहरी इलाके के गरीब एवं मजदूर परिवारों से उनकी हकीकत को आसानी के साथ परखा जा सकता है। शमशानों एवं कब्रिस्तानों में जाकर वहाँ पर शवों के साथ आने वाले परिजनों से अस्पतालों की सुविधाएं एवं संसधानों के बारे में आसानी के साथ हकीकत का पता लगाया जा सकता है। अस्पतालों की जमीनी हकीकत क्या है उसे आसानी के साथ समझा जा सकता है। सत्य बहुत कड़ुआ है। लेकिन सत्य यही है गरीब एवं मध्यम वर्ग के व्यक्ति के पास न तो पैसा है और न ही उसके पास संसाधन हैं वह करे तो क्या करे न वह प्राईवेट अस्पतालों में जाकर मंहगा इलाज कर सकता है और न ही सरकारी अस्पातलों में जीवन बचाने के लिए जिम्मेदारी लेने वाला कोई है। सरकारी अस्पतालों की स्थिति सबके सामने है। इस घातक महामारी ने दवाईयों और ऑक्सीजन के आभाव ने पूरी आबादी को पूरी तरह से झकझोर दिया है। कोरोना की पहली लहर के दौरान पीक आने से पहले ग्रामीण इलाक़ों में संक्रमण के नए मामले देखने में आए थे लेकिन समय रहते इन पर अंकुश लगाया जा सका था। कोरोना की पहली लहर के दौरान कोरोना वायरस को फैलने से रोकने के लिए सरकार ने पूरे देश में लॉकडाउन लगाया था लेकिन संक्रमण फैलने से रोकने के लिए लागू किए दिशानिर्देशों का उल्लंघन तब हुआ जब भारी संख्या में मज़दूरों ने शहरों से अपने गांवों की ओर पलायन करना आरंभ कर दिया था। अगर स्वास्थ्य सुविधाओं की बात करें तो शहरों की तुलना में ग्रामीण इलाक़ों में स्वास्थ्य व्यवस्था उतनी दुरुस्त नहीं है। अगर अस्पातालों की बात करें तो देश के किसी भी प्रदेश में आबादी के अनुपात में अस्पतालों की व्यवस्था न के बराबर है। नेशनल हेल्थ सिस्टम की रिपोर्ट तो चौकाने वाली है। क्योंकि देश की इतनी बड़ी आबादी अगर बीमारी के कगार पर पहुँच जाती है तो उसे कैसे बचाया जा सकता है इसका उत्तर किसी के भी पास नहीं है। क्योंकि देश की आबादी के अनुसार सरकारी अस्पतालों की व्यवस्था ऊँट के मुँह का जीरा मात्र है। जब अस्पताल ही नहीं है तो बेड,ऑक्सीजन,दवाई तथा वेंटीलेटर जैसी सुविधाओं की कल्पना करना ही अपने आपमें बेईमानी है। खास करके शहरी इलाकों में कोरोना का भयावह रूप सबके सामने है। जहाँ सरकारी के साथ-साथ प्राईवेट अस्पातालों की भी भारी-भरकम व्यवस्था होती है। लेकिन कोरोना के तांडव के सामने शहरी इलाकों की सभी व्यवस्थाएं अपने आपमें बौनी साबित हुई। शहरों से कोरोना का तांडव अभी समाप्त नहीं हुआ। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अपनी तथा अपने परिवार तथा समाज की सुरक्षा के प्रति सजग रहने की जरूरत है। भारत ऐसा देश है जहाँ शहरों की तुलना में अधिकतर आबादी ग्रामीण भारत में निवास करती है। अतः खासकरके देश के प्रत्येक ग्रामीणों को कोरोना के नियम का कड़ाई के साथ पालन करना चाहिए क्योंकि ग्रामीण इलाकों में पुलिस बल भी प्रयाप्त मात्रा में नहीं होता जोकि प्रत्येक ग्राम में जाकर प्रति व्यक्ति को कोरोना के नियम तथा उचित दूरी के लिए हर पल नजर गड़ाए रखे। इसलिए प्रत्येक ग्रामीणों को स्वयं ही अपनी तथा अपने ग्राम की रक्षा के लिए उचित दूरी तरह कोरोना गाईड लाईन तथा साफ-सफाई जैसी व्यवस्थाओं को स्वयं ही लागू करना चाहिए। क्योंकि जबतक हम खुद से अपने आप पर अंकुश नहीं लगाएंगें तबतक कोई भी दूसरा व्यक्ति हम पर अंकुश पूरी तरह से नहीं लगा सकता। इसलिए समस्त भारत के खास करके ग्रामीण इलाकों को खुद से अपने आप पर अंकुश लगाने की सख्त जरूरत है। अन्यथा तनिक भी लापरवाही भारी तबाही मचा सकती है। क्योंकि ग्रामीण भारत में चिकित्सा की व्यवस्था का ढ़ाँचा किसी से भी छिपा हुआ नहीं है। इसलिए अपने आपको एक जिम्मेदार नागरिक की तरह से अपनी तथा अपने ग्राम की रक्षा के लिए हर वह प्रयास करने चाहिए जिससे कि इस महामारी से बचा जा सके।
अनिल माधव दवे, एक ऐसा नाम जो गड्ढा खोदकर पौधा लगाने से लेकर वायुयान उड़ाने तक के कार्य को पूर्ण विशेषज्ञता के साथ ही नहीं अपितु नवाचार के साथ करने में सक्षम हो! एक ऐसा नाम जो सादगी को भी फैशन बना देने में सक्षम हो!! और सबसे बड़ी बात जो वैदिक काल के नायकों की भांति सचमुच नदी पुत्र, नर्मदा पुत्र बन गया हो!!! और भी बहुत कुछ है इस चुम्बकीय, चमत्कारी व चंद्रत्व धारी व्यक्ति के विषय में जो कहा जा सकता है किंतु अभी व्यक्तित्व की चर्चा इतनी ही. जितना मैंने अनिल जी दवे को जाना है उसके अनुसार उनके व्यक्तित्व के विषय में इतना कहना, लिखना भी उनकी दिवंगत आत्मा को कष्टप्रद लग रहा होगा. संयोग कहे या दुर्योग कि वे जीवन के अंतिम वर्षों में राजनीति में भी रहे किंतु राजनीति तो जैसे उन्हें छु भी नहीं पाई थी. अपने विषय में लिखने, पढ़ने, प्रशंसा, चर्चा से उन्हें बड़ा ही कष्ट होता था. उनके व्यक्तित्व की जितनी चर्चा, प्रसंशा की जाए कम है किंतु उससे भी अधिक बड़ी बात यह है कि उनके व्यक्तित्व से कई गुना बड़ा था उनका कृतित्व. और हां, उनके कृतित्व से भी कहीं बहुत अधिक अधिक बड़ा था उनका रचना संसार. अनिल जी दवे का लेखन या रचना संसार बहुत अधिक विस्तृत या विशाल नहीं है किंतु बहुत अधिक गहरा, प्रभावशाली व परिवर्तनकारी अवश्य है. उनके लेखन में प्रामाणिकता, खोज, शोध, संवेदनशीलता, सुन्दरता, भाव, बिम्ब, प्रतीक का अद्भुत समन्वय होता था. शब्दों के वे खिलाड़ी नहीं थे बल्कि वे शब्दों की अंतरात्मा से तादात्म्य बैठाकर लेखन करने वाले व्यक्ति थे. शिवाजी एंड सुराज, क्रिएशन टू क्रिमेशन, रैफ्टिंग थ्रू ए सिविलाइजेशन, ए ट्रैवलॉग, शताब्दी के पांच काले पन्ने, संभल के रहना अपने घर में छुपे हुए गद्दारों से, महानायक चंद्रशेखर आजाद, रोटी और कमल की कहानी, समग्र ग्राम विकास, अमरकंटक से अमरकंटक तक, बेयांड कोपेनहेगन, यस आई कैन, सो कैन वी जैसी कालजयी, भावपूर्ण, तथ्यपरक व अद्भुत पुस्तकों के लेखक हैं वे. सबसे बड़ी बात यह रहती थी कि वे ऐसे विषयों पर लेखन करते थे जो अब तक समाज, शासन, प्रशासन व राजनीति की आँखों से ओझल ही रहते थे. लेखन, कार्य, अभियान आदि हेतु उनके द्वारा चुने हुए विषय समाज को एक नई दृष्टि, दिशा व दशा की और ले जाने में सक्षम ही नहीं अपितु सफल भी रहते थे.
आज संभवतः उनकी आत्मा को नदी पुत्र कहना बड़ा सुखकर लगता होगा किंतु मुझे उनको केवल नदी पुत्र के स्थान पर समूची प्रकृति का पुत्र कहना अधिक समयोचित, सटीक व सही लगता है.
एक व्यक्ति के रूप में संपूर्ण थे वे, सो सामाजिक कार्यकर्ता बनने में उन्हें बहुत अधिक प्रयास नहीं करने पड़े होंगे ऐसा मुझे लगता है. वे नेसर्गिक समाजनायक थे. अपने कार्यकर्ताओं की भावनाओं को समझना और उस अनुरूप ही अपने निर्णयों में परिवर्तन, लोच व आयाम उत्पन्न करना उन्हें आत्मसंतुष्टि देता था. अपने कार्यकर्ताओं के लिए सदा जागृत व चैतन्य रहना, उनसे संपर्क में बने रहना उनका चिर स्वभाव था. सहयोगियों के परिवार, परिस्थिति व प्रोफेशन आदि को वे व्यवस्थित समझते थे व उस अनुरूप ही उन्हें कार्य सौंपने में उन्हें विशेषज्ञता उपलब्ध थी. मुझे स्मरण है जब मैंने मेरी पहली पुस्तक की प्रस्तावना लिखने हेतु उनसे सीधा आग्रह किया था तब उन्होंने उनके बड़े ही कठिनतम व व्यस्ततम समय में भी मुझे बड़ी ही नम्रता से सहमति दे दी थी. मुझे बड़ा ही आश्चर्य हुआ था क्योंकि इस आग्रह के पूर्व उनकी मेरी केवल एक ही भेंट हुई थी और वह भी लगभग तीन वर्ष पूर्व. इन तीन वर्षों में भी मेरे व अनिल जी के मध्य एकाध बार ही फोन पर चर्चा हुई होगी. मेरी पहली पुस्तक जो कि 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान लिखी गई थी, की न केवल उन्होंने प्रस्तावना लिखी थी बल्कि स्वयं पहल करते हुए उस पुस्तक के विमोचन की भी चिंता उन्होंने की थी. अनिल जी के प्रयासों का ही प्रतिफल था की मेरी उस पुस्तक का विमोचन प्रधानमंत्री नरेंद्र जी मोदी के चुनाव अभियान के दौरान बनारस में भाजपा के राष्ट्रीय संगठन मंत्री श्री रामलाल जी, श्री अमित शाह जी व श्री अरुण जी जेटली के शुभहस्ते संपन्न हो पाया था.
मानव जाति द्वारा प्रकृति के साथ किये जा रहे खिलवाड़ व उसके परिणाम स्वरूप होने वाली केदारनाथ जैसी दुर्घटनाओं व कोरोना जैसी महामारी की संभावनाओं को वे बहुत पहले स्वीकार कर चुके थे व निरंतर समाज को इस हेतु चेता भी रहे थे. नदियों के सरंक्षण, संवर्धन व श्रीवर्धन करने हेतु उनके प्रयास अभिनव, अद्भुत व अद्वितीय थे. नदियों के सरंक्षण हेतु अनिलजी ने नर्मदा में जो प्रयोग किये थे वे प्रतिनिधि, प्रयोग के तौर पर ही किये गये थे. अनिल जी के मानस में यह योजना थी की नर्मदा पर किये जा रहे समूचे प्रयोगों व अभियानों को बाद में व संपूर्ण राष्ट्र की नदियों पर भी लागू करते किंतु इस अथक यौद्धा को असमय ही काल ने लील लिया व 18 मई, 2017 को उनका असमय निधन हो गया.
उनके द्वारा किये जा रहे प्रयासों व अभियानों की सार्थकता का ही परिणाम था कि वे पर्यावरण, नदी, जल, जंगल, जमीन आदि विषयों पर होने वाली राष्ट्रीय व अन्तराष्ट्रीय बैठकों के अनिवार्य अंग हो गए थे. उनके रूचि के सैंकड़ो व्याख्यान वे सतत करते ही चले जा रहे थे. विद्वता, विशेषज्ञता व प्रामाणिकता के साथ जब वे प्रकृति संबंधित विषयों पर बोलते थे तो कतई ऐसा नहीं लगता था कि केवल कोई विशेषज्ञ बोल रहा है; लगता था जैसे कोई नदीपुत्र, वनपुत्र या भूमिपुत्र बोल रहा है. यही कारण था कि राष्ट्रीय अन्तराष्ट्रीय बैठको में उनके सत्र को सभी अनुभागी अनिवार्यतः सुनते व मथते थे.
भारतीयता की अद्भुत पहचान कुंभ मेले को नए सरोकार देने का भी विशाल बीड़ा उन्होंने उठाया था जिसमें वे सफल रहे थे. कुंभ मेले की कम होती प्रासंगिकता, कुंभ के प्रति नई पीढ़ी की उदासीनता व प्रशासनिक असंवेदनशीलता को अनिल जी ने एक झटके में समाप्त करा दिया था. उनकी अभिनव पहल का ही परिणाम था कि मध्यप्रदेश में उज्जैन कुंभ समूचे देश में एक रुचिकर व फैशन का विषय बन गया था.
आठ वर्ष की आयु से एक स्वयंसेवक के रूप में प्रारंभ हुआ उनका जीवन विभाग प्रचारक से लेकर, एक पायलट, एक नदीपुत्र व एक केंद्रीय मंत्री तक का विस्तार प्राप्त कर चुका था. उनके व्यक्तित्व का समूचा विस्तार भारतीय परम्पराओं से उनके प्रेम का ही परिणाम था. परम्पराओं की रक्षा व धर्मो रक्षितः रक्षति उनका प्रिय ध्येय विषय था. धर्म के प्रति उनके आग्रह ने उन्हें बहुत अधिक तो नहीं किंतु शतांश रूप में विवेकानंद बना दिया था. यह दुखद ही है कि स्वामी विवेकानंद की ही भांति वे भी असमय काल के गाल में समा गए. यदि वे कुछ वर्ष और जीवित रहते तो भारतीय शासन, प्रशासन, शिक्षा, राजनीति अदि आदि में परम्पराओं व धर्म का वैज्ञानिक अद्भुत घोल तैयार कर लेते. ऐसा इसलिए होता कि परम्पराओं में आधुनिकता को खोजना व उनमें नवाचार की प्राणप्रतिष्ठा करने की अद्भुत क्षमता उनके पास थी. दुर्भाग्य की उनके असमय निधन से ऐसा हो न पाया.
उनके विषय में आज जब उनकी पुण्यतिथि पर लिखना हो रहा है तब जावली, मिस्टर बंटाधार आदि आदि जैसे बहुत सेउल्लेखनीय विषयों को स्थानाभाववश छोड़ना पद रहा है. किंतु,
उनके अंतिम इच्छा पत्र या वसीयत की चर्चा किये बिना यह लेखन अधूरा ही होगा. उनके इच्छापत्र में लिखी चार पंक्तियां उनकी जीवन यात्रा का निचोड़ हैं, पढ़िए उनका इच्छापत्र –
संभव हो तो मेरा अंतिम संस्कार बाद्राभान में नर्मदा नदी महोत्सव वाले स्थान पर किया जाये.
उत्तर किया के रूप में केवल वैदिक कर्म ही हो, किसी भी प्रकार का दिखावा आडंबर न हो.
मेरी स्मृति में कोई भी स्मारक, प्रतियोगिता, पुरस्कार, प्रतिमा आदि न बनाई जाए.
जो मेरी स्मृति में कुछ करना चाते हों वे वृक्षों को बोने व उन्हें सरंक्षित कर बड़ा करने का कार्य करें तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी. और ऐसा करते हुए भी वे मेरे नाम का प्रयोग न करें.
आदिशंकराचार्य जी के विषय में कुछ भी लिखना मुझ जैसे व्यक्ति के लिये वही बात होगी जैसे कोई सूरज को दीपक दिखाये किन्तु सागर को अंजुली में भरने का यह अपराध में कर रहा हॅू ताकि आप तक उनका सूक्ष्मतम शब्दों में परिचय करा सकॅू। भारत वर्ष के केरल प्रान्त में प्रवाहित पूर्णा नदी के तट पर बसे ग्राम कलाड़ी में शिवगुरू भट्ट के घर 780 ई. में एक बालक का जन्म हुआ। उनकी माँ आर्याम्बा जिन्हें सुभद्रा के नाम से भी जाना जाता है, वृद्धावस्था में भगवान शिव की कृपा मानकर अपने बेटे का नाम शंकर रखा। एक वर्ष की अवस्था में बालक शंकर ने धाराप्रवाह बोलना शुरू कर दिया एवं तीन वर्ष की अवस्था में उसकी स्मृरणशक्ति विलक्षण हो गयी और वह जो कुछ भी सुनता उसे अक्षरशः दुहरा देता। उसे अनेक काव्यों और पुराणों के श्लोक कण्ठस्थ हो गये तब पिता ने उनका ’अक्षरभाष्य’ संस्कार संपन्न कराया। किन्तु ’अक्षरभाष्य’’ संस्कार कराने के कुछ दिन बाद ही उनके पिता का निधन हो गया। माता ने अपने पुत्र के अन्दर देदीप्यमान गुणों को पाकर पाॅचवे वर्ष में उन्हें गुरूकुल भेजकर इनका यज्ञोपवीत संस्कार सपन्न कराया।
गुरूकुल पहुॅचते ही पाॅचवे वर्ष के कुछ माहों में ही बालक शंकर को चारों वेदों और उनकी शाखाओं का अद््भुत ज्ञान हो गया तब उन्हांंने प्रथम बार छह वर्ष की अवस्था में ही ’’बालबोधि-संग्रह’ लिखा जिससे उनके सहपाठी संस्कृतग्रंथों की समुचित व्याख्या कर सके। सातवे वर्ष में बालक शंकर सभी शास्त्रों में निष्णात हो गये और उनकी स्मरणशक्ति इतनी इतनी तीव्र थी कि वे किसी भी पुराण-शास्त्र एवं वेदों की ऋचाओं का कहीं से भी किसी भी पंक्ति का, किसी भी श्लोक आदि का प्रगटन ऐसे करने लगे जैसे वे उनके सम्मुख हो, उनकी इस प्रतिभा ने उन्हें वाद-विवाद में अपने विरोधियों का मुॅह पर ताले लगा दिये ओर वे वापिस पूर्ण विद्याध्ययन कर सम्पूर्ण ज्ञानसागर समेटे अपने घर लौट आये।
वे सच्चे अर्थो में पितृ-मातृ भक्त थे।जब तीन वर्ष की आयु में पिता का देहान्त हुआ तब तक वे जीवनदर्शन में प्रत्येक सम्बन्धों का दायित्व एवं कर्तव्य बोध को समझते हुये पिता की मृत्यु पर काफी मर्माहन्त थे। वे पिता के बाद माँ को अपना परमगुरू मानते थे और उन्हें असंतुष्ट करके कोई भी धर्मकार्य को स्वीकार्य नहीं मानते थे इसलिये जब वे सात वर्ष की अवस्था में गुरूकुल से पारंगत होकर आये तो माँ से कहा मैं सन्यास लेना चाहता हॅॅॅू, माँ बुढ़ापे का सहारा यूं ही खोना नही चाहती थी और उसके एक ही संतान थी इसलिये वे उसे अपनी आॅखों से दूर नहीं करना चाहती थी। माता ने अनुमति नहीं दी, एक वर्ष व्यतीत हो गया पर वे पूर्ण सन्यासी हो गये थे इसलिये सन्यासी का स्वगृह-प्रत्यावर्तन करना शास्त्रविरूद्ध मानकर घर का परित्याग नहीं किया।
एक दिन की घटना है माँ और बेटे पूर्वा नदी पर स्नान करने गये। आर्याम्बा उन्हंं तटपर बैठकर निहार रही थी कि तब नदी के जल से आये एक मगरमच्छ ने शंकराचार्यजी का पैर पकड़ लिया तब बालक शंकर ने चिल्लाना शुरू कर दिया, बालक के पैर पकड़कर मगर उन्हें गहरे पानी में ले जा रहा था, वे डूब रहे थे और माँ असहाय होकर रो रही थी। बालक शंकर ने अपनी माँ से कहा माँ मुझे सन्यास लेने की आज्ञा दो, नही तो ये मगरमच्छ मुझे खा जायेगी। सूर्य किसी झोपड़ी में बंदी नहीं किया जा सकता इसलिये जगत में व्याप्त अधर्म के अंधकार और विधर्मियां को मार्ग प्रशस्त करने के लिय चिंतातुर बालक शंकर के भी यही हाल थे और वे मगरमच्छ द्वारा पैर पकड़कर उन्हें नदी में ंखीचें जाने के अवसर पर शांत थे, स्थिर थे, माँ ने देख लिया कि मगर उनके बेटे के प्राण लेने को तैयार है और बेटा सन्यास लेने की बात कर रहा है। माँ आर्याम्बा ने पुत्र के विपदा में फॅसे होने पर उसके प्राणों की रक्षा के लिये उससे मोह त्याग कर कहा बेटा मंैं तुझे सन्यास लेने की आज्ञा देती हॅू किन्तु एक शर्त है तू मेरी मृत्यृ के समय आ जाना और मेरी अन्त्येष्टि करना। पुत्र के जीवन को मगरमच्छ से बचाने के लिये माँ की आज्ञा मिलते ही आश्चर्य की बात हुई कि तुरन्त मगरमच्छ ने बालक शंकर का पैर छोड़ दिया। नदी से बाहर निकलकर बालक शंकर ने अपनी काॅ को दण्डवत प्रणाम किया और प्रतिज्ञा की कि वह अंतिम दिनों में माँ की सेवा में उपस्थित रहेंगे, शंकर ने माँ को वचन दिया और निभाया भी।
सन्यास लेने के बाद सन्यासी का धर्म अपने परिवार से नाता-रिश्ता त्यागना होता है। जब वे श्रृंगेरी आश्रम से वातापि आश्रम गये तब तेलंगाना के इस आश्रम में नियमों को कठोरता से पालन किया जाता था और किसी भी सगे-संबंधी से सम्पर्क की मनाही थी। सन्यास के बाद सन्यासी का कोई भी सगा-सम्बन्धी नही होता, सब नाते-रिष्ते सन्यासी के लिये मायने नहीं रखते, क्योंकि उसे तब सिवाय अपने धर्मपालन के किसी ओर से मोह-ममता का सम्बन्ध पूर्णतया विच्छेद हो जाता है।शंकराचार्य की पदवी मिलने तथा चारों मठों की स्थापना करने के बाद उनका धर्मप्रचार और दिग्विजय कार्य सम्पन्न हो गया। वे बदरीकाश्रम में बदरीमठ में थे, उन्हें अपनी माँ के रोगग्रस्त होने व रोगषैया पर होने की सूचना मिली। चॅूंकि वे योग से अपनी माँ के अन्तिम समय को देख चुके थे इसलिये वे वहां से माँ के पास रवाना हुये और माँ के मिले, मिलने के पष्चात माँ ने अपने प्राण त्याग दिये। उन्होंने माँ की अंत्येष्टि की तैयारी की, तब के समाजजनों ने एक सन्यासी का सन्यास के नियमों को त्यागकर परिवार के प्रति मोह रख अपनी माँ की अंत्येष्टि करने को शास्त्र विरूद्ध ठहराकर विरोध किया। शास्त्र की मर्यादा तोड़ने का हवाला देकर लोगों न शवयात्रा में शामिल होने से इंकार कर दिया। आचार्य शंकराचार्य ने अपनी माँ के शव को अपने कन्धे पर रखकर श्मशान तक पहुॅचाकर उनकी चिता सजाई और उसपर माँ को लिटाकर विधिविधान से मुखाग्नि दी। यह घटना शंकराचार्य के क्रान्तिकारी स्वरूप को प्रकट करती है और संदेश देती है कि जब परम्परायें बाधक बनने लगे तो उन्हें छोड़ देना चाहिये। मनमानी के लिये किये गया त्याग न तो प्रगतिशीलता की निशानी है और न ही उपयोगी है।
आठ वर्षीय बालक शंकर की मातृभक्ति की चर्मोत्कृष्टता एवं परम आदर्श का यह एक उत्कृष्ट उदाहरण है। उन्होंने गृह त्याग से पूर्व जगत को यह शिक्षा दी कि माता-पिता परम देवता है,उनको संतुष्ट करके ही तृप्ति पायी जा सकती है,पर वे अपने विषय में यह जान चुके थे कि उनको मिली तृप्ति से वे स्वयं संतुष्ट नहीं थे, किन्तु उनकी गुरूभक्ति और साधना की दिव्य अलौकिता पूर्णावस्था में रूपान्तरित होने को उसी प्रकार तत्पर थी जैसे शिव के मस्तक से धरा को पावन करने के लिये गंगा व्याकुल थी। बालक शंकर मात्र 8 वर्ष की आयु में माँ की अनुमति से घर से निकल तो गये लेकिन वे वहां से भयाभय नदियों को पार करते रास्तंों की चुनौतियों का सामना करते, प्राकृतिक अवराधों पर विजय प्राप्त कर घने जंगलों को पार करके पश्चिम के चालुक्यों के क्षैत्र से गुजरे। उन्होंने गोदावरी को पार कर दण्डकारण्य की यात्रा की, यह वही मार्ग था जिसपर श्रीराम होकर गुजरे थे। वे जब दण्डकारण्य के मार्ग पर होकर निकले तब उन्हें मार्ग में इन्द्रावती ओर महानदी पर भी विश्राम करने का अवसर मिला तभी शंकरभाष्यों में महानदी को तीर्थ सम्बोधित किया गया। महानदी को पार कर वे अमरकण्टक आये जहाॅ नर्मदा के उदगम स्थल से उन्होंने नर्मदा की परिक्रमा शुरू की और ओंकारंश्वर जाकर वे वहां गुरू गोविन्दपादाचार्य के आश्रम की और चल पड़े। ओंकारेश्वर तक आते-आते बालक शंकर की आयु 12 वर्ष हो गयी थी और 792 ई. में बसंतपंचमी के दिन वे तलाशते हुये गोविन्दपादाचार्य के आश्रम स्थित उनकी गुफा द्वार पर पहुॅचे और उन्हें दण्ड़वत प्रणाम कर उनकी स्तुति गाकर प्रार्थना की। गुरू उस समय तपस्यालीन थे उन्होंने आॅखें खोलकर संस्कृत में की गयी उनकी प्रार्थना एवं स्तुति सुनकर प्रसन्नता व्यक्त कर हर्षोन्माद से शंकर से कहा’’अच्छा तुम वहीं केलाशपर्वत वासी श्ंाकर हो।’’ उन्हें शंकर के समूचे व्यक्तित्व एवं गहन अध्ययन से पूर्णवेत्ता के मर्म को समझ लिया और उनके मुखमुण्डल पर ज्ञान के प्रकाश को देखकर उनकी विनम्रता पर उन्हें अपना शिष्य बना लिया।
मध्यप्रदेश की धरती पर बालक शंकर ने शुकदेवस्वरूप गुरू गोविन्दपादाचार्य से सन्यास की दीक्षा लेकर वेदव्यास के वेदान्तसूत्र की शिक्षा ग्रहण की और शिष्य शंकर अपनी जिज्ञासाओं को गुरू के समक्ष रखते गये और गरूजी सबका समाधान करते गये, इस प्रकार चार वर्षो में बालक शंकर को गोविन्दपादाचार्य जी ने ’परमहस’ की स्थिति तक पहॅुचाकर जगतगुरू बना दिया। यहाॅ यह रहस्य उद्घाटित करना आवश्यक हो गया है कि नर्मदा के तट पर ओंकारेश्वर में गोविन्दपादाचार्य जिस गुफा में निवास कर रहे थे उस गुफा में प्रवेश वर्जित था लेकिन शंकर ऐसे भाग्यशाली शिष्य रहे जो उस गुफा में प्रवेश कर सके। सोलह वर्ष की अवस्था में गुरू का आश्रम छोड़ने से पूर्व श्ंाकर ने लेखन कार्य जारी रखते हुये अपने भाष्यों में वेदों में प्रतिपादित सिद्धान्तों का ही अनुसरण किया।
ओंकारेश्वर में जगद्गुरू बने शंकर-
नर्मदा की यह पुण्यभूमि ओकारेश्वर, एक 14 साल के बालक शंकर को जगदगरू से विभूषित करने वाली पावन भूमि बन गयी जहाॅॅ बालक शंकर आदिगुरू शंकराचार्य हो गये। शंकराचार्य जी ने मध्यप्रदेश की इस पावन भूमि ओंकारश्वर में बादरायण के ब्रम्हसूत्रों, उपनिषदां तथा श्रीमदभागवतगीता पर भाष्य लिखा एवं अद्वेत-सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। जगद्गुरू आदि शंकराचार्य ने अद्वैत वेदान्त को ठोस आधार प्रदान कर सनातन धर्म की विविध विचारधाराओं का एकीकरण किया और चारों वेदों, सभी उपनिषदों, ब्रम्हसूत्रों और वेदांतसूत्रों पर अनेक टीकायें लिखी तथा शंकरभाष्यों में जगदगुरू कभी भी चातुर्वण्य व्यवस्था के पक्ष में नहीं थे।
आपके द्वारा 12 भाष्यों मं ईशावास्योपनिषद में 9 उदधरण, केनोपनिषद में 52 उदधरण, कठोपनिषद में 14 उदधरण, प्रश्नोपनिषद में 15 उदधरण, मुण्डकोपनिषद में 13 उदधरण, मांडूक्यापनिषद में 144 उदधरण, ऐतरेयोपनिषद व तैत्तिरीयोपनिषद मं 58 उदहरण, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद् में 264 उदधरण, गीता में 117 उदधरण तथा ब्रम्हसूत्र में 1870 उदधरण किये गये। नर्मदा के तट पर भाष्य लेखन मंं जगदगुरू शंकराचार्य ने अपने जिस बहुश्रुत होने का परिचय दिया, उससे आज भी सम्पूर्ण विश्व अचंभित है कि इतने सारे ग्रन्थ एक साथ एक व्यक्ति को कैसे कंठस्थ थी। शंकराचार्य जी के समय 57 स्मृतियाॅ प्रचलन में थी जिसमें उन्होंने मनुस्मृति को आधार मान शेष स्मृतियों को छोड़ दिया ताकि वे अन्य स्मृतियों में निहित कुतर्को से संतुष्ट न होने से इनका उदधरण नहीं कर सके। वहीं उनके समय पर 18 पुराण थे लेकिन उन्होंने मात्र विष्णुपराण को ही उदधरण किया वहीं इतिहास ग्रन्थों में महाभारत तो उदधरण की किन्तु उनके 14 पर्वो को छोड़ दिया इसी प्रकार उनके समय में रामायण का कहीं उल्लेख नहीं आया। उनके भाष्यों मंं केवल कृष्ण अवतार का उल्लेख है शेष किसी भी अन्य अवतार का उल्लेख उनके किसी भी भाष्य में नहीं किया गया।
जब बालक शंकर ने नर्मदा को कमण्डल में भरा और नर्मदाष्टक रचा-
गुरूआश्रम में जगदगुरू शंकराचार्य के चार वर्ष पूर्ण हो गये थे जिसमें उन्हांंने गुरू के मार्गदर्शन में अपना समूचा लेखन पूरा कर लिया। तभी वर्षाकाल प्रारभ हो गया और पाॅच दिनांं तक इतनी मूसलाधार वर्षा हुई कि समूचा ओंकारेश्वर नर्मदा की बाढ़ की चपेट में आ गया। तबाही से अनेक गाॅव जलमग्न होने लगे, कई गाॅव बह गये जिससे चारों ओर नर्मदा बाढ़ से जनता में आतंक छा गया। तब इसकी चीखपुकार जगदगुरू शंकराचार्य के कानों तक पहुॅची तब उन्होंने माँ नर्मदा से अपनी वेदना सुनाकर नर्मदाष्टक की रचना की। किन्तु नर्मदा का प्रबलवेग षांत होने को नहीं था औैर जल की भयाभय स्थिति को देखते हुये उन्होंने अपनी यौगिक शक्ति से नर्मदा जल को अपने कमण्डल में भर लिया।
माधवाचार्य (शंकरदिग्विजय महाकाव्य) में उक्त उल्लेख इस प्रकार किया गया है-वर्षाकाल में गोविन्दपादचार्य जी अपनी गुफा में तपस्या में समाधिनिष्ठ थे, तभी नर्मदा में बाढ़ आ गयी। जगदगुरू शंकराचार्य ने परिस्थिति की भयावहता एवं जनमानस के कष्ठों की वेदना को समझ नर्मदा के बढ़े हुये जल को अपने कमण्डल में समाहित कर गुरू की समाधि में निर्विघ्नता प्रदान की। गुरू गोविन्दपादाचार्य अपने शिष्य के उक्त अलौकिक चमत्कार से परिचित हो प्रसन्न हुये कि शंकराचार्य योगी हो गया है। उन्होंने शंकराचार्य को बुलाया तब वर्षा थम चुकी थी और नर्मदा बाढ़ का प्रकोप समाप्त हो चुका था, लेकिन तब आकाश मंं घने काले बादलों ने डेरा डाला था। उन्होंने कहा आकाश में बादलों को देखांं वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर विचरण कर रहे है, सन्यासी को भी इसी तरह एक स्थान से दूसरे स्थान पर विचरण करना चाहिये। वर्षाऋतु समाप्त होने और चातुर्मास्य समाप्त होने पर गुरू की आज्ञा पाकर जगदगुरू शंकराचार्य ने ओंकारेश्वर से विदा होकर विश्वनाथ काशी से अपनी दिग्विजययात्रा की ओर कदम बढ़ाया।
काशी आने पर शंकराचार्य जी को भगवान विश्वनाथ ने चाण्डालरूप में दर्शन दिये जिसे उन्होंने प्रणाम कर दण्डवत किया तब शिवजी प्रगट हो गये। काशी में शंकराचार्य जी के प्रथम शिष्य का गौरव सनन्दन जी थे जिन्हें गुरू ने प़द्यपादाचार्य नाम दिया और ब्रम्हसूत्रपर भाष्य लिखा। काशी के ब्राम्हणों में एक ब्राम्हण एक सूत्र के अर्थ पर शंका कर शास्त्रार्थ करने आ पहुॅचा, तब ध्यान करके उन्हें ज्ञात हुआ कि वह ब्राम्हण स्वयं भगवान व्यास जी है, उन्होने प्रार्थना की-
शंकरः शंकरः साक्षाद् व्यासो नारायणः स्वय्म्।
तयोर्विवादे सम्प्राप्ते न जाने कि करोम्यह्।।
शंकराचार्य ने भगवान वेदव्यास को पहचान कर उनकी वन्दना की जिससे वेदव्यास जी प्रसन्न हुये और शंकराचार्य से बोले तुम्हारी आयु 16 वर्ष की है, वह समाप्त हो रही है, मैं तुम्हें 16 वर्ष आयु और देता हॅू ताकि तुम धर्म की प्रतिष्ठा कर सको। भगवान वेदव्यास का आदेश प्राप्त करते ही शंकराचार्य जी ने वेदान्त के प्रचार के लिये कुरूक्षैत्र, बदरिकाश्रम, दक्षिणभारत में रामेश्वर तक की यात्रा की और प्रयाग के संगम पर कुमारिल भटट् से शास्त्रार्थ करने पहुॅचे तब वे प्रयाग में, त्रिवेणी के संगम पर तुषाग्नि (चावल की भूसे की आग) में प्राण त्यागने के लिय बैठ चुके थे, जो बहुत धीरे-धीरे जलाकर प्राण लती है। आज ऐसी कल्पना करना कठिन है। कुमारिक भट्ट यह दण्ड वेदों की रक्षा, सनातन धर्म की स्थापना जो उस समय सबसे पवित्र थी उन्ही का खण्डन को राजद्रोह माना गया और कुमारिक भट्ट को न कष्ट का भय था और न ही शरीर का मोह, वे प्रायश्चित करने के लिय अपने प्राणों को दाव पर लगा चुके थे।शंकराचार्य की खिन्नता को भाॅपकर कुमारिल भटट ने उन्हें माहिष्मती निवासी उदभट मण्डनमिश्र से शास्त्रार्थ करने को प्रेरित किया।
800ई की एक घटना है जिसमें दिग्विजय यात्रा के लक्ष्य को पूरा करने निकले शंकराचार्य को दुबारा मध्यप्रदेश की यात्रा करनी पड़ी और वे काशी प्रयास होते हुये नर्मदातट स्थित माहिष्मती (महेश्वर) आये जहाॅ एक विशाल शिवालय मं अपने शिष्यों को विश्राम का आदेश दे मण्डलमिश्र के आवास की ओर चल पड़े। रास्ते में एक कुयें पर कुछ पनिहारिन पानी भर रही थी तब शंकराचार्य जी ने उनसे मण्डनमिश्र के निवास का पता पूछा। पनिहारिन ने संस्कृत में वार्तालाप कर कहा कि जिस दरवाजे में स्थित पिंजड़ों में निबद्ध शुक-सारिकायंं शास्त्रार्थ करती है,उसे आप मण्डलमिश्र का आवास समझे। शंकराचार्य ने उनके घर पहुॅचकर उनसे निवेदन किया कि मंैं आपकी शरण में आया हॅू, मण्डलमिश्र समझ गये शास्त्रार्थ को आये है, तय हुआ कि पराजित होने वाला विजयी का शिष्य होगा। शास्त्रार्थ सात दिन तक चला मण्डल मिश्र सपत्नीक परास्त हो चुके थे और उन्होंने शंकराचार्य की शिष्यत्वता स्वीकार कर ली और शंकराचार्य ने मण्डलमिश्र को सुरेश्वराचार्य नाम देकर श्रेष्ठ माना तथा अपने ग्रन्थों में उन्हें भगवत्पाद कहकर गुरू की भाॅति सम्मानित किया। मण्डलमिश्र और उनकी पत्नी ने समस्त भारतवर्ष में भ्रमण करके बौद्ध धर्म को मिथ्या प्रमाणित किया तथा वैदिक धर्म को पुनरुज्जीवित किया। कुछ बौद्ध इन्हें अपना शत्रु भी समझते हैं, क्योंकि इन्होंने बौद्धों को कई बार शास्त्रार्थ में पराजित करके वैदिक धर्म की पुनः स्थापना की।
804 ई. में दिग्विजय यात्रा के द्वितीय चरण में बदरिकाश्रम की स्थापना कर शंकराचार्य मध्यप्रदेश के उज्जयिनी आये और दो माह तक महाकाल की पूजा अर्चना की। तब कापालिकों तथा अन्य मतावलम्बियों का वर्चस्व था। कापालिक शैवों की पाशुपत सम्प्रदाय की एक गूढ शाखा से सम्बन्ध थे जो मानव अस्थियों के आभूषण पहनते थे और मानव की खोपड़ी में भोजन करते थे। ब्राम्हण के कपाल में मदिरा पीते और अग्नि में नरमांस का आहूति देते,जब शंकराचार्य उज्जैनी आये और उन्हें इनकी जानकारी हुई तो वे उनके अमर्यादित आचरण से दुखी हुये। यह अलग बात थी कि वे कापालिक स्वयं को शिवभक्त मानते और अधिकांश चामुण्डा की आराधना करते और नरवलि देकर मनुष्य का माँस भक्षण करते थे तथा किसी भी महिला से रमन करने का विशेष अधिकार एवं भौतिक इच्छाओं की पूर्ति के लिये उनके शास्त्रों में विधान कर रखा था।
इन्हीं कापालिकों में एक उग्र भैरवक नामक कापालिक भेषबदलकर आचार्य शंकराचार्य का शिष्य बन गया ताकि उनकी बलि देकर उसकी अधूरी पंचमकार साधना को पूर्ण कर सके। एक दिन एकान्त में बैठे हुये आचार्य शंकराचार्य के पास भेष बदलकर आये कापालिक ने अपना परिचय देते हुये कहा कि आपको आपके शरीर का मोह नही है। मैं श्मशान पर एक साधना कर रहा हॅू जिसकी सफलता के लिये एक तत्वज्ञ की बलि देनी है, अगर आप मृत्यु आने से पूर्व ही मेरी साधना का मनोरथ पूर्ण कर दे तो बड़ी कृपा होगी। साथ ही उसने निवेदन किया कि मैं आपसे जिस आशय को लेकर मिलने आया,उसका पता किसी को भी नही चलना चाहिये। आचार्य शंकराचार्य ने उस कापालिक को अर्द्धरात्रि में आने का वचन दे दिया और वे तय समय पर उस घोर रात्रि में श्मशान पहुॅच गये। कापालिक बलि का विधान करने लगा। शंकराचार्य जी ने समाधि लगायी, कापालिक उनका सिर काटने वाला था, अचानक पद्यपादाचार्य में उनके इष्टदेव भगवान नृसिंह का आवेश हुआ और उन्होंने कापालिक का यमलोक पहुॅचा दिया। बाद में क्रकच नामक दुराग्रही कापालिक ने अपने पूरे कुनबे के सामने शंकराचार्य जी को शास्त्रार्थ की चुनौती दी और पराजित होने पर हमला बोल दिया तब आचार्य की सहायता के लिये सुधन्वा की सेना ने कापालिकों को ठिकाने लगा दिया।
कापालिकों का एकमात्र ध्येय कामसाधना थी और वे साल में एक स्थान पर एकत्र हो उन्मुक्तता से पंचकारों के सेवन के साथ नारियों के साथ निलज्जता से रमन करते थे। शंकराचार्य ने उन्हें लताड़ा कि तुम मूर्ख पतित हो गये हो, जब तक पंचकारों का सेवन छोड़कर सामाजिक आचार संहता का पालन नहीं करोंगे तब तक मोक्षमार्ग का साधन नहीं उपलब्ध होगा। इन कापालिकों को अपने मार्ग से हटाकर भैरवसाधना के नाम पर नरबलि बंद कराकर आचार्य शंकराचार्य के आदेश पर इन्होंने सामाजिक आचार संहिता पर चलने का मार्ग अपना लिया। इस घटना से लोगों ने जाना कि बौद्ध और कापालिकों के मत समाज में स्वीकार्य नहीं, जबकि तत्समय के राजाओं में बौद्ध बनने की होड़ सी थी और शंकराचार्य जी एवं उनके शिष्यों द्वारा बौद्ध पण्डितों को शास्त्रार्थ में पराजित किये जाने के पश्चात तब के राजाओं सहित प्रजा में भी उन्हें अशास्त्रीय, उग्रतर सम्प्रदायों का दमनकारी ठहरया जिससे शने-शने बोैद्धमत लुप्तप्राय हो गया और भारत में आचार्य शंकराचार्य द्वारा श्रुतिसम्मत सनातन धर्म प्रतिष्ठत हो सका।शंकराचार्य जी ने उज्जयिनी में कपालिकों, वैदिक,द्वैत,जैन, शाक्त, चर्बाक,क्षपणक, सौगत, पाशुपत तथा बैष्णवमतके द्विग्वज विद्वानों के सिद्धान्तों का खण्डन किया तथा अद्वेैतमत की स्थापना की जिससे आचार्य शंकराचार्य के विजय की दुन्दभी उज्जैयनी ही नहीं अपितु समूचे देश में गूंजने लगी और उज्जैन का खोया हुआ वैभव वापिस प्राप्त हुआ।
आचार्य शंकराचार्य जी ने पूरब से पष्चिम तक तथा कश्मीर से रामेश्वर कन्याकुमारी तक, अपनी विद्ववता का परचम पहराकर लोहा मनवाया और जगन्नाथ पुरी, द्वारकापुरी, श्रृंगेरी और ज्योतिर्मट बद्रीनाथ पीठ की स्थापना कर एक-एक शिष्य को धर्म की रक्षा के लिये नियुक्त किया। इन चारों मठों की स्थापना के पष्चात ही ये मठ शंकराचार्य के सिद्धान्तों के प्रधान मठ हुये। इतना ही नहीं धर्मप्रचार के लिये शंकराचार्य जी ने नासिक, उज्जैन, प्रयागराज और हरिद्वार में हर बारह साल के क्रम में कुम्भ मेले का आयोजन रखवा कर कुम्भ मेलों की परम्परा को जीवित कर कुम्भयोजना की रोली से भारत के माथे पर धर्माचरण का तिलक विभूषित किया जो आज भी पूर्ण श्रद्धा-भक्ति और विष्वास की त्रिवेणी से ओतप्रोत है। बत्तीस साल की आयु में इनके द्वारा केदारनाथ धाम के समीप अपनी इहलोक की लीला का संवरण कर लिया। आचार्य के बनाये एवं भाष्य किये ग्रंथों की सूची लंबी है। उनके अद्वेततवाद का देश भर में व्यापक प्रभाव पड़ा आर वैदिकधर्म के उद्धार के लिये उनका प्रयत्न अद्वितीय रहा जहाॅ उनके सिद्धान्त स्थापन प्रणाली को विश्व के दार्शनिकों ने अद्धितीय माना। श्रीशकराचार्य जी के अद्धेतवाद का भारत ही नहीं अपितु विदेशों में भी व्यापक प्रभाव पड़ा है और उनके मत के सम्बन्ध में हजारों ग्रन्थ लिखे जा चुके है जो उनकी परम्परा को अविच्छिन्न बनाये हुये है जो आज भी हिन्दू धर्म का प्रतिनिधित्व कर जीवन दर्शन-कर्म-भक्ति का आधार बनी हुई प्रसिद्धी के चरम सौपान पर प्रतिष्ठित है। आपने भारतवर्ष में चार मठों की स्थापना की थी जो क्रमंशः प्रथम ज्योतिष्पीठ बदरिकाश्रम, द्वितीय श्रृंगेरी पीठ, तृतीय द्वारिका शारदा पीठ और चतुर्थ पुरी गोवर्धन पीठ के नाम से धर्मध्वजा फहरा रहे है और इन पर आसीन संन्यासी स्वयं शंकराचार्य की उपाधि से विभूषित है। संास्कृतिक एकता के देवदूत आदि शंकराचार्य ने अपनी 32 साल की आयु में जो जीवन का सदुपयोग कर जगत में स्वयं को माँ नर्मदा की स्तुति में विरचित नर्मदाष्टक सहित अपने भाष्यों के माध्यम से अद्वैत वेदान्त दर्शन के प्रवर्तक एवं सनातक धर्म के पुर्नरूद्वारक के रूप में स्थापित किया है जो कई शताब्दियों से निरन्तर समाज को एक दिशानिर्देश देते आ रहा है।
आदि गुरूशंकराचार्य के बनाये एवं भाष्य किये ग्रंथों की सूची लंबी है। उनके अद्वेततवाद का देश भर में व्यापक प्रभाव पड़ा आर वैदिकधर्म के उद्धार के लिये उनका प्रयत्न अद्वितीय रहा जहाॅ उनके सिद्धान्त स्थापन प्रणाली को विश्व के दार्शनिकों ने अद्धितीय माना। श्रीशकराचार्य जी के अद्धेतवाद का भारत ही नहीं अपितु विदेशों में भी व्यापक प्रभाव पड़ा है और उनके मत के सम्बन्ध में हजारों ग्रन्थ लिखे जा चुके है जो उनकी परम्परा को अविच्छिन्न बनाये हुये है।
देश में एक साथ संयोग से दो घटनाएं घटी हैं और इन घटनाओं ने बहुत साफ बता दिया है कि भारत में फिर से इस्लाम समय बीतने के साथ संकट के रूप में सामने आ सकता है। वस्तुत: आज जो यह एक नई तरह की शुरूआत हो रही है, उसे यहीं नहीं रोका गया तो भविष्य के भारत को लेकर सिर्फ इतना ही अभी कहा जा सकता है कि उसमें दंगे, दंगे, दंगे और मानवाधिकारों का हनन होता ही सर्वत्र दिखाई देगा। भारत सन् 1946-47 से अधिक खतरनाक स्थिति में पहुंच जाएगा।
धर्मनिरपेक्ष भारत में न्यायालय जाकर यह मांग करना कि बहुसंख्यक मुस्लिम क्षेत्र में मंदिर का जुलूस नहीं निकलना चाहिए, इससे हमारी धार्मिक मान्यताएं एवं भावनाएं आहत होती हैं, अपने आप में किया गया यह प्रयोग बता रहा है कि आज हम कहां आकर खड़े हैं? इस एक मांग से भविष्य के भारत का संकेत अभी से समझा जा सकता है, जिसमें कि इस्लाम अपने फिर उसी रवैए को प्रदर्शित कर रहा है, जिसने कभी भारत विभाजन कराया।
यहां समझनेवाली बात यह है कि भारत एक संप्रभु धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य है । भारतीय संविधान से प्रदत्त मौलिक अधिकार अपने हर नागरिक को यह स्वतंत्रता देते हैं कि समता या समानता में (अनुच्छेद 14 से अनुच्छेद 18) सभी राज्य के लिए समान होंगे, वह किसी के साथ भेद नहीं करेगा। स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19 से 22) यह सुनिश्चित करता है कि किसी की भी स्वतंत्रता राज्य के स्तर पर बाधित नहीं की जाएगी। शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23 से 24) सभी को समान रूप से दिया गया है। जिसमें यदि किसी के साथ गलत होता है तो वह अपनी आवाज बुलंदी के साथ उठा सकता है, इसमें उसे राज्य का प्रश्रय एवं सहायता मिलेगी।
वस्तुत: इतना ही नहीं देश का प्रत्येक नागरिक अपनी इच्छा से अपने धर्म का पालन करेगा, उसे किसी से भयभीत नहीं होना है, राज्य की नजर में सभी धर्म समान हैं, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25 से 28) यही कहता है। संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद 29 से 30)में कहा गया है कि सभी राज्य की दृष्टि से समान हैं और मौलिक अधिकारों में संवैधानिक अधिकार (अनुच्छेद 32) जिसे ‘संवैधानिक उपचारों का अधिकार’ भी कहा जाता है को लेकर डॉ. भीमराव अंबेडकर ने यहां तक कहा है कि यह भारतीय संविधान की आत्मा है। कहना होगा कि एक नागरिक के तौर पर आपके एक देश में क्या अधिकार होने चाहिए वह सभी कुछ भारतीय संविधान में बहुत ही स्पष्ट रूप से मौलिक अधिकारों के वर्णन में बता दिया गया है ।
भारत के एक राज्य तमिलनाडु में लेकिन यह क्या हो रहा है? पेरंबलुर जिले में वी कलाथुर मुस्लिम बहुल इलाका है, जहाँ हिंदू अल्पसंख्यक हैं। यहाँ का बहुसंख्यक समुदाय हिंदू मंदिरों से जुलूस या भ्रमण निकालने का लंबे समय से विरोध कर रहा है। हिन्दुओं के तीन मंदिर दशकों से मिलकर अपना त्यौहार मनाते आए हैं। 2011 तक लगातार यह उत्सव मनाया जाता रहा, 2012 में यहां मुसलमानों ने इसका विरोध तेज कर दिया। इन इस्लामी कट्टरपंथियों ने हिन्दू त्योहारों को ‘पाप’ करार दे रखा है। इसी को लेकर मद्रास हाई कोर्ट में याचिका दायर की गई।
वस्तुत: यहां इस्लाम का साफ संकेत है, जहां हम बहुसंख्यक होंगे, वहां हिन्दू या अन्य पंथ का कोई है तो उसके नियम हम इस्लामपंथी ही तय करेंगे। कहने को यह चैन्नई के एक जिले के एक छोटे से गांव की सामान्य सी दिखनेवाली घटना हो सकती है, किंतु बात इतनी छोटी नहीं, यह एक सोच एवं प्रवृत्ति को दर्शा रहा है। यह आनेवाले दिनों का खतरनाक संकेत भी है। कभी जो बड़े स्तर पर आजाद भारत के कश्मीर में घटता दिखा, दिल्ली, उत्तरप्रदेश, उत्तराखण्ड, गुजरात, हरियाणा सहित देश के तमाम राज्यों में समय-समय पर जो दिखता है। अभी पश्चिम बंगाल में सीधे तौर पर राजनीतिक हिंसा के नाम पर जो मौत का खेल खुलेआम खिलता दिख रहा है।
सोचने वाली बात यह है कि हमारे न्यायालय यदि सचेत ना रहें तो क्या हो? पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे देशों की तरह हिन्दुओं का सफाया? पश्चिम बंगाल में बहुसंख्यक मुस्लिम क्षेत्रों में सरकार की परस्ती के चलते हिन्दुओं का पलायन, कत्लेआम जैसे आज दृष्य आम बात हो गई है। उत्तर प्रदेश के कैराना जैसे भी देश में कई इलाके हैं जहां मुस्लिमों का बहुमत दूसरों को टिकने नहीं देता। इसे हम इस रूप में भी देखें कि आज यदि यह घटना किन्हीं मुसलमानों के साथ अल्पसंख्यक होने पर घट रही होती तो क्या होता? तब जरूर देश में संविधान की हत्या हो जाती। देश भर में कोहराम मचा दिया जाता। वहीं, बहुसंख्यक हिन्दू के साथ अत्याचार होता है तो जैसे सभी चुप्पी साध लेते हैं ।
वस्तुत: यहां मद्रास हाई कोर्ट के आए निर्णय को बहुत ही गौर से समझना होगा। न्यायालय ने धार्मिक असहिष्णुता को देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने के लिए खतरनाक बताया है। कोर्ट ने कहा कि अगर एक पक्ष से संबंधित धार्मिक त्योहारों के आयोजन का विरोध दूसरे धार्मिक समूह द्वारा किया जाता है, तो इससे दंगे और अराजकता फैल सकती है। न्यायालय कहता है कि केवल इसलिए कि एक धार्मिक समूह विशेष इलाके में हावी है, इसलिए दूसरे धार्मिक समुदाय को त्योहारों को मनाने या उस एरिया की सड़कों पर जुलूस निकालने से नहीं रोका जा सकता है। अगर धार्मिक असहिष्णुता की अनुमति दी जाती है, तो यह एक धर्मनिरपेक्ष देश के लिए अच्छा नहीं है।
न्यायालय ने तर्क दिया कि अगर इस तरह के मामलों को स्वीकार किया गया, तो कोई भी अल्पसंख्यक समुदाय देश के ज्यादातर हिस्सों में अपने त्योहारों को मना ही नहीं पाएगा। देश में इस तरह के विरोध से धार्मिक लड़ाई झगड़े बढ़ेंगे, दंगे भड़केंगे, जिसमें जानें जाएँगी। भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और केवल इसलिए कि एक विशेष इलाके में एक धार्मिक समूह बहुसंख्यक है, अन्य धर्म के लोगों को त्योहार मनाने या जुलूस निकालने से नहीं रोका जा सकता।
इसी समय में दूसरी एक खबर अयोध्या से आई है । यहां हिन्दू बहुल गांव राजनपुर ने अपने लिए उसे सरपंच चुना है जो हाफिज अजीमुद्दीन वर्षों तक मदरसे में शिक्षक रहे। अयोध्या के रुदौली विधानसभा क्षेत्र में पड़ने वाले इस गांव में छह उम्मीदवारों के बीच वे इकलौते मुसलमान थे । गांव में कुल 27 मुस्लिम और 600 से अधिक हिन्दू मतदाता हैं, लेकिन लोगों ने मजहब की दीवार गिराकर उन्हें सरपंच चुना। इसके मायने भी सभी को समझ आ जाने चाहिए।
वस्तुत: यही वह सोच का अंतर है। जिसे आज सभी को आज समझने की जरूरत है। भारत को यदि आगे भी भारत बने रहने देना है तो संविधान के दायरे में रहकर इन तमाम कट्टरपंथियों को समझाना होगा कि देश का विभाजन धर्म के आधार पर पहले ही हो चुका है, अब और विभाजनकारी विचार स्वीकार्य नहीं। पंथ और सम्प्रदाय भले ही अलग हो सकते हैं, किंतु देश के लिए उसके नागरिक सभी समान हैं। इसलिए सभी के हक और राज्य के प्रति कर्तव्य एक समान हैं। धर्म का विभेदीकरण सिर्फ तोड़ने का काम ही करता है, जिसकी सजा 47 से हम आज भी भुगत रहे हैं। आप अल्लाह को मानो या हम शिव को, क्या फर्क पड़ता है, पहले हम भारतवासी हैं। ये कट्टरता जितनी जल्दी छोड़ें उतना ही अच्छा है, अन्यथा कट्टर लोगों की कमी किसी भी पंथ, संप्रदाय में कमतर नहीं है।
आज देश भर में कोरोना का कहर जारी है। हर दिन लाखों में कोरोना संक्रमित मरीज सामने आ रहे हैं। वहीं मौतों का आंकड़ा हज़ारों की तादाद में सामने आ रहा हैं। ऐसे में चारों तरफ अफरा-तफरी के माहौल होने के साथ-साथ भयभीत कर देने वाली स्थिति बनी हुई है। इन दिनों कोरोना वायरस फैलने को लेकर अफवाहों का बाज़ार गर्म है। कहीं सुनने में आ रहा है की कोरोना वायरस चीन की जैविक उपज है, जो हथियार के रूप में आज देश और दुनिया की मानव सभ्यता पर करारा प्रहार कर रहा है। आजकल सोशल मीडिया पर एक ऑडियो भी बड़ी तेजी के साथ वायरल हो रहा है। जिसमें दो व्यक्ति आपस में कोविड-19 को लेकर बात कर रहे हैं। जिसमें एक व्यक्ति कोरोना वायरस फैलने के पीछे 5जी नेटवर्क टेस्टिंग को इसका जिम्मेवार बता रहा है। ऑडियो में एक शख्स कहता है कि 5जी टेस्टिंग की वजह से लोगों का गला सूख रहा है और उसने दावा किया है कि मई तक इसकी टेस्टिंग हो जाएगी तो मोतें भी रुक जाएगी। इस वायरल ऑडियो को कई हजारों की संख्या में लोग अपने व्यू के साथ साझा भी कर रहे हैं।
आपको जानकारी के लिए बता दें कि 5जी नए जमाने की मोबाइल फोन प्रौद्योगिकी है, जिसके जरिए संचार और डेटा तीव्र गति से संभव हो सकेगा। अनुमान है कि यह मौजूदा 4जी से करीब 20 गुना अधिक तेज होगा। आखिर 4जी के रहते 5जी की आवश्यकता क्यों आन पड़ी? तकनीकी दुनिया में सूचनाओं का तीव्र आदान-प्रदान समय की जरूरत बन चुका है। 5जी के साथ डाटा नेटवर्क स्पीड 2 से 20 जीबी प्रति सेकेंड तक होने की उम्मीद है। 5जी का प्रभाव चिकित्सा और अन्य क्षेत्रों में भी देखने को मिलेगा, जो उच्च इंटरनेट स्पीड पर निर्भर करते हैं।
ऐसे में अफवाहों के बीच सवाल का उठना लाजिमी है कि क्या वाकई में कोरोना वायरस 5जी टेस्टिंग की वजह से फैल रहा है? इसे लेकर पीआईबी फैक्ट चैक टीम ने पड़ताल की और अपने ट्वीटर अकाउंट हैंडल पर लिखा ‘एक ऑडियो मैसेज में दावा किया जा रहा है कि राज्यों में 5जी नेटवर्क की टेस्टिंग की जा रही है और इसे कोविड-19 का नाम दिया जा रहा है। पीआईबी फैक्ट चैक में यह दावा फर्जी है।’ वहीं डब्ल्यूएचओ ने अपनी वेबसाइट पर लिखा है कि जिन देशों में अभी 5जी की टेस्टिंग नहीं हो रही है, उन देशों में भी कोरोना फैल रहा है। एशिया के विभिन्न देशों के इंजीनियरों को 5जी नेटवर्क का प्रशिक्षण देने वाले एएलटीटीसी के मोबाइल फैकल्टी विभाग के सहायक निदेशक संदीप सिंह ने बताया कि अमेरिका, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, स्विट्जरलैंड जैसे देशों में 5जी चल रहा है, लेकिन यहां पर कोरोना के मामले भारत से कम हैं।
केके यादव (सहायक निदेशक एएलटीटीसी) का कहना है कि 5जी की तरंगों से कोरोना का कोई ताल्लुक नहीं है। यह बस एक अफवाह है, हमने इस संबंध में आईटीयू से जानकारी मांगी थी और आईटीयू की तरफ से बताया गया है कि 5जी की तरंग से कोरोना वायरस नहीं फैलता है। यह तरंग भी कण हैं, लेकिन इससे द्रव्यमान नहीं होता। इसलिए इससे वायरस नहीं चिपक सकता। इनके अलावा वैज्ञानिकों ने भी इस बात का खंडन किया है कि 5जी परीक्षण और इसकी तकनीक से किसी भी प्रकार का संक्रमण फैल सकता है। 5जी मोबाइल टावर नॉन आयोनाइजिंग रेडियो फ्रीक्वेंसी छोड़ते हैं, जो मानव की सेहत के लिए हानिकारक नहीं है।
ऐसे में सोशल मीडिया पर भ्रामक सामग्री और अफवाहों पर लगाम बेहद जरूरी है। यदि अफवाहों पर विराम नहीं लगा, तो इन अफवाहों का परिणाम बेहद भयानक हो सकते हैं। इस प्रकार की अफवाहें लोगों को लापरवाह बनाती हैं और कोरोना महामारी के नियंत्रण के प्रयास को विफल भी कर सकती है। मेरी सभी भारतीयों से अपील है कि ऐसे किसी भी मैसेज को साझा न करें, जिसका कोई प्रामाणिक तथ्य हमारे पास न हो। किसी भी प्रकार की अफवाहों से बचें, कोरोना गाइडलाइन की पालना करें और खुद को सुरक्षित करें।
प्राचीन भारतीय सभ्यता में संयुक्त परिवार हुआ करते थे।परिवार को सम्बल प्रदान करने की विशेषता सिर्फ संयुक्त परिवार में हुआ करती है। परिवार की एकता ही उसकी शक्ति की परिचायक होती है।जैसा कहा भी गया है – यूनिटी इज़ स्ट्रेंथ अर्थात एकता में ही शक्ति निहित है।जो भी परिवार संयुक्त हैं वहाँ एकता(यूनिटी) है।संयुक्त-परिवार ही विषम परिस्थितियों में शक्ति का परिचायक हुआ करती है।कोरोना की दूसरी लहर ने देश में त्राहिमाम मचा दिया।आंकड़े बताते हैं की दूसरी लहर में होम आइसोलेशन कितना जरुरी हो गया।होम-आइसोलेशन संयुक्त परिवार के लिए राम बाण दवाई साबित हुई।संयुक्त परिवार में मरीज की देखभाल, खान पान,और उचित व्यवस्था परिवार के लोग ही कर लेते हैं।जिसका परिणाम यह हुआ की होम आइसोलेशन में संयुक्त परिवार में रहने वाले मरीज ज्यादा तर ठीक हो गए और अस्पतालों के चक्कर से बच गए। जो परिवार संयुक्त नहीं थे और उसमे कोई कोरोना पॉजिटिव आया तो उसके पास हॉस्पिटल के अलावा कोई विकल्प नहीं रहा।परिणामतः ऐसे परिवारों को कोरोना की दूसरी लहर ने तोड़ कर रख दिया|परिवार दिवस के उपलक्ष्य में मैं एक ही बात कहूंगा की संयुक्त परिवार ही श्रेष्ठ परिवार है ।कोरोना की दूसरी लहर ने प्राचीन भारतीय सभ्यता की याद दिला दी और परिवारों को सबक दे गई की प्राचीन भारतीय सभ्यता को अपनाएं न की पाश्चात्य सभ्यता को।संयुक्त परिवार में व्यक्ति अकेला नहीं होता।जो परिवार संयुक्त नहीं हैं वहाँ अकेलापन का अहसास होता है।अकेलेपन में तनाव है। तनाव में ऋणात्मक ऊर्जा काम करती है।जहां अकेलापन नहीं है वहां सकारात्मक ऊर्जा काम करती है।अर्थात वहां तनाव नहीं है। सकारात्मकता से कोरोना को हराया जा सकता है और लोगों ने हराया। कहने का तात्पर्य है की संयुक्त परिवार ही तनाव रहित है। तनाव ही सारी बीमारी की जड़ है।संयुक्त परिवार में महिलाओं की अहम् भूमिका होती है।महिलाएं संयुक्त परिवार की शक्ति का केंद्र होती हैं। बिना महिलाओं के संयुक्त परिवार की कल्पना व्यर्थ है।संस्कृत में एक श्लोक है-‘यस्य पूज्यंते नार्यस्तु तत्र रमन्ते देवता:।अर्थात्,जहां नारी की पूजा होती है,वहां देवता निवास करते हैं। भारतीय संस्कृति में नारी के सम्मान को बहुत महत्व दिया गया है। जैसे हिन्दू धर्म में वेद नारी को अत्यंत महत्वपूर्ण,गरिमामय,उच्च स्थान प्रदान करते हैं।वेदों में स्त्रियों की शिक्षा-दीक्षा, शील,गुण,कर्तव्य,अधिकार और सामाजिक भूमिका का सुन्दर वर्णन पाया जाता है।वेद उन्हें घर की सम्राज्ञी कहते हैं और देश की शासक,पृथ्वी की सम्राज्ञी तक बनने का अधिकार देते हैं।वेदों में स्त्री यज्ञीय है अर्थात् यज्ञ समान पूजनीय।वेदों में नारी को ज्ञान देने वाली,सुख–समृद्धि लाने वाली,विशेष तेज वाली,देवी, विदुषी,सरस्वती,इन्द्राणी,उषा- जो सबको जगाती है इत्यादि अनेक आदर सूचक नाम दिए गए हैं।वेदों में स्त्रियों पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं है–उसे सदा विजयिनी कहा गया है और उन के हर काम में सहयोग और प्रोत्साहन की बात कही गई है। वैदिक काल में नारी अध्यन- अध्यापन से लेकर रणक्षेत्र में भी जाती थी। जैसे कैकयी महाराज दशरथ के साथ युद्ध में गई थी। कन्या को अपना पति स्वयं चुनने का अधिकार देकर वेद पुरुष से एक कदम आगे ही रखते हैं।अनेक ऋषिकाएं वेद मंत्रों की द्रष्टा हैं–अपाला,घोषा,सरस्वती,सर्पराज्ञी,सूर्या,सावित्री,अदितिदाक्षायनी,लोपामुद्रा,विश्ववारा,आत्रेयी आदि।वेदों में नारी के स्वरुप की झलक इन मंत्रों में देखें जा सकते हैं-यजुर्वेद 20:9(स्त्री और पुरुष दोनों को शासक चुने जाने का समान अधिकार है)।यजुर्वेद 17:45(स्त्रियों की भी सेना हो। स्त्रियों को युद्ध में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करें)।यजुर्वेद 10:26(शासकों की स्त्रियां अन्यों को राजनीति की शिक्षा दें।जैसे राजा,लोगों का न्याय करते हैं वैसे ही रानी भी न्याय करने वाली हों)।अथर्ववेद 11:5:18(ब्रह्मचर्य सूक्त के इस मंत्र में कन्याओं के लिए भी ब्रह्मचर्य और विद्या ग्रहण करने के बाद ही विवाह करने के लिए कहा गया है।यह सूक्त लड़कों के समान ही कन्याओं की शिक्षा को भी विशेष महत्त्व देता है)कन्याएं ब्रह्मचर्य के सेवन से पूर्ण विदुषी और युवती होकर ही विवाह करें ।अथर्ववेद 14:1:6(माता- पिता अपनी कन्या को पति के घर जाते समय बुद्धीमत्ता और विद्याबल का उपहार दें। वे उसे ज्ञान का दहेज़ दें)।जब कन्याएं बाहरी उपकरणों को छोड़ कर,भीतरी विद्या बल से चैतन्य स्वभाव और पदार्थों को दिव्य दृष्टि से देखने वाली और आकाश और भूमि से सुवर्ण आदि प्राप्त करने–कराने वाली हो तब सुयोग्य पति से विवाह करे।ऋग्वेद 10.85.7(माता- पिता अपनी कन्या को पति के घर जाते समय बुद्धिमत्ता और विद्याबल उपहार में दें। माता- पिता को चाहिए कि वे अपनी कन्या को दहेज़ भी दें तो वह ज्ञान का दहेज़ हो) ।ऋग्वेद 3.31.1 (पुत्रों की ही भांति पुत्री भी अपने पिता की संपत्ति में समान रूप से उत्तराधिकारी है)। देवी अहिल्याबाई होलकर,मदर टेरेसा,इला भट्ट,महादेवी वर्मा,राजकुमारी अमृत कौर,अरुणा आसफ अली,सुचेता कृपलानी और कस्तूरबा गांधी आदि जैसी कुछ प्रसिद्ध महिलाओं ने अपने मन-वचन व कर्म से सारे जग-संसार में अपना नाम रोशन किया था। कस्तूरबा गांधी ने महात्मा गांधी का बायां हाथ बनकर उनके कंधे से कंधा मिलाकर देश को आजाद करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इंदिरा गांधी ने अपने दृढ़-संकल्प के बल पर भारत व विश्व राजनीति को प्रभावित किया था। उन्हें लौह-महिला यूं ही नहीं कहा जाता है। इंदिरा गांधी ने पिता,पति व एक पुत्र के निधन के बावजूद हौसला नहीं खोया। दृढ़ चट्टान की तरह वे अपने कर्मक्षेत्र में कार्यरत रहीं। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन तो उन्हें ‘चतुर महिला’ तक कहते थे, क्योंकि इंदिराजी राजनीति के साथ वाक्-चातुर्य में भी माहिर थीं। कोरोना संकट का सबसे ज्यादा भार परिवार में महिलाओं पर आ पड़ा। कोरोना के भारी संकट में पूरे परिवार में यदि किसी पर सबसे ज्यादा संकट आया तो वह घर की महिला ही है जिसकी भूमिका अचानक बहुत बढ़ गई और घर में न केवल उसके काम बढ़े बल्कि उसके अधिकार क्षेत्र में दूसरे लोगों का अनधिकृत प्रवेश भी बढ़ गया। हर कोई उस पर हुक्म चलाया या फिर उससे काम करवाया। लॉकडाउन में बाहर सब कुछ बंद था तो सबको घर पर ही रहने की मजबूरी थी। लॉकडाउन ने महिलाओं के काम के बोझ को बढ़ा दिया था। बच्चे स्कूल में जा नहीं रहे उन्हें या तो घर पर पढ़ाओ या नई−नई चीजें खिलाते रहो या मनोरंजन करो नहीं तो वे उधम मचायेंगे। जो बुर्जग हैं उन्हें कोरोना का सबसे ज्यादा खतरा था,उनकी देखभाल अलग। बड़े आराम से घर में कोरोना से बचाव के लिए घर वालों ने तय कर दिया कि हाउस हैल्प और काम करने वाली बाई को मत आने दो। फिर खाना बनाने,बर्तन मांजने, झाडू चौका, कपड़े धोने का काम सब महिला पर ही आ गया। महिलायें पुरुषों की तुलना में किसी भी संकट में ज्यादा सतर्क और सक्रिय होती हैं। बेहतर प्रबंधक और बुरे हालात में भी बड़ी हिम्मत से परिवार और समाज को संभाले रहती हैं ये अलग बात है जब संकट नहीं रहता तब वे परिवार और समाज दोनों में ही फिर से उपेक्षित हो जाती हैं। कोरोना के इस संकट में उन्होंने कुछ अतिरिक्त जिम्मेवारियों का वहन किया।भारतीय संस्कृति में महिलाओं की अत्यंत गौरवशाली व महत्वपूर्ण भूमिका है। भारत एकमात्र देश है जहां महिलाओं के नाम के साथ देवी शब्द का प्रयोग किया जाता है।यहां नारी को शक्ति स्वरूपा, भारतीय संस्कृति की संवाहक,जीवन मूल्यों की संरक्षक,त्याग,दया,क्षमा,प्रेम,वीरता और बलिदान के प्रतीक के रूप में स्थापित किया गया है। उसे गृहलक्ष्मी की मान्यता दी गई। अतएव हम कह सकते हैं महिलाएं,संयुक्त परिवार की शक्ति का केंद्र बिंदु हैं।
पिछले कई दिनों से मैं देख रहा हूँ कि कोरोना को लेकर बहुत से लोग मोदी जी की आलोचना के लिए कमर कस चुके हैं. अगर यही लोग आगे आकर देश हित में कुछ सकारात्मक कार्य कर सकते है अगर वो भी नहीं होता तो चुप तो बैठ ही सकते है. आखिर उनको मोदी के खिलाफ बोलने से मिलता क्या है ? लोकतंत्र में विरोध की भी एक सीमा होती है और कोई उसको केवल अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करें तो वह भी एक देश द्रोह ही है.
क्या मोदी जी की जगह कोई और प्रधानमंत्री होता तो कोरोना चुटकी भर में खत्म हो जाता. ऐसा नहीं है और न ही ऐसा हो सकता. देखने में आया कि जो ग्राउइंड लेवल पर कुछ करते नहीं है वो इस बात का ठेका उठा चुके है कि मोदी का विरोध किया जाये, उन्होंने ये मान लिया कि मोदी जी ही कोरोना को बुलावा भेजते है. भारत के हर एक नागरिक का परम कर्तव्य है कि जब देश पर विपदा आये तो हम सब मिलकर उसके खिलाफ लड़े. केंद्र सरकारों का अपना-अपना कर्तव्य बनता है कि वो केंद्र पर बोझ बनने से पहले ही आने वाली आपदा से निपटने कि तैयारी रखे
देश के हर नागरिक का कर्तव्य बनता है कि वो इस लड़ाई में अपने स्तर पर कम से कम घर रहकर ही देश सेवा कर दे मगर हम नहीं कर पाए तभी ये भयावह मंजर हमारे सामने है. वैसे मोदी के पीछे पड़ने से तो कुछ बदलने वाला है नहीं. हमें खुद बदलना होगा. छोटे-छोटे प्रयास खुद करने होंगे. हरियाणा के बहुत से गाँव ऐसे है जहाँ छोटे-छोटे सहायता समूह लोगों की सेवा में लगे हुये है. प्रशासन भी इनको सहायता भेज रहा है और इन्होने अपने अपने स्तर पर भी प्रबंध किये हुए है. ऐसे कार्य सजगता और समाज के प्रति समर्पण का अनुपम उद्धरण भी है. अगर ऐसे सहायता समूहों को ग्रामीण स्तर की राजनीति से ऊपर उठकर सभी को विश्वास में लेकर बनाया जाये तो क्या मजाल की कोई भी समस्या का हल न हो.
राष्ट्रीय आपदा के समय कोई छोटा बड़ा नहीं है. हम सब एक है. जिससे जितना बने वो करें. नकारात्मक बातों का प्रचार कर अपनी राजनीति चमकाने वाले सोच ले कि अगला ग्रास आप भी हो सकते है. अगर कुछ बनता न दिखें तो कम से घर जरूरत बैठ जाये फालतू का ज्ञान न बांटे. देश इस समय एक बड़े संकट का मुकाबला कर रहा है. इस क्रम में व्यवस्था और सरकार की ओर से कई अच्छे काम किए जा रहे हैं. लेकिन जाहिर है कि सब कुछ बेहद शानदार नहीं है. इस बीच, सरकार और व्यवस्था की कई खामियां और लापरवाहियां भी सामने आई हैं. कई कदम ऐसे हैं, जिन्हें शायद पहले उठाया जाना चाहिए था या जिनके असर के बारे में गहनता से आकलन किया जाना उचित होता.
सवाल उठता है कि इस बारे में इंगित करने वालों को किस नजरिए से देखा जाए? बल्कि ये पूछा जाना चाहिए कि जो लोग सरकार की कमियों की ओर इशारा कर रहे हैं या सरकार की आलोचना कर रहे हैं, क्या उनका काम देश हित में है या ऐसा करना देश के हित के खिलाफ है? ये लोकतंत्र के एक बड़े सवाल से जुड़ता है कि विचारों के प्रतिपक्ष को किस नजरिए से देखा जाना चाहिए.ऐसे में जब तक कोई बड़ा संकट या आपदा न आ जाए, तब तक सरकार गफलत में रहती है कि सब कुछ ठीक चल रहा है. ये लोकतंत्र के लिए अच्छी स्थिति नहीं है क्योंकि पक्ष और विपक्ष की विचारधाराओं की अंतर्क्रियाओं से ही एक सुसंगत लोकतंत्र चल सकता है.
जरूरत इस बात की है कि सरकार कोरानावायरस से निपटने के क्रम में आलोचनाओं को धैर्य से सुने और किसी आलोचना में दम हो या वास्तविकता हो तो उसे अपनी नीतियों का हिस्सा बनाने पर विचार करे. बहरहाल, ये सब अब बीत चुका है और समय के चक्र को पीछे नहीं मोड़ा जा सकता है. लेकिन ये न भूलें कि कई विशेषज्ञ पहले ही बता रहे थे कि एक गंभीर समस्या देश में आई हुई है. उस समय सरकार ने उन बातों की परवाह नहीं की. अब ये नजरिया बदलना चाहिए और आलोचना को सकारात्मक नजरिए से देखा जाना चाहिए.
स्वप्न का हमारे जीवन के साथ गहरा तादात्म्य है। स्वप्न क्यों आते हैं, उनका वास्तविक जीवन से क्या संबंध है, क्या स्वप्न सच के प्रतिबिम्ब होते हैं, क्या स्वप्न जीवन को प्रभावित करते हैं- ऐसे अनेक प्रश्न है जो बंद पलकों के पीछे की इस रोमांचक दुनिया से जुडे़ है। इस ख्वाबों की दुनिया के रहस्य की पडताल सदियों से होती रही है। लेकिन अनेक अनुसंधानों और खोजों के बावजूद आज भी स्वप्न की यह मायाबी दुनिया रहस्य ही बनी हुई है। सपने क्या हैं? क्या ये बात सही है कि जिसकी जैसी सोच होती है, उसे वैसे ही स्वप्न आते हैं। क्या इनका रिश्ता होता है अतीत, पिछले जन्म और भविष्य से? सपनों की अनगिनत कहानियां हैं और वैसे ही तो हंै रंग-बिरंगे स्वप्न। प्रसिद्ध दार्शनिक सिगमंड फ्रायड ने पहली बार स्वप्नों की प्रक्रिया, संरचना, रहस्यों और कारणों पर प्रकाश डाला। उनका कहना है कि जब हम नींद की स्थिति में होते हैं तो हमें सबसे ज्यादा सपने आते हैं। हर इंसान स्वप्न देखता है, निद्रा की अवस्था में उसके बिम्ब उभरते हैं। आंखें खुलते ही स्वप्न की सारी दुनिया बिखर जाते हैं। स्वप्न बहुत नाजुक होते हैं, तितली के परों सरीखे, वे गुलाब की पंखुरी पर ओस की एक मोती-सी बूंद जैसे होते हैं। वास्तव में स्वप्न एक ऐसी स्थिति है, जहां हम जाग्रत नहीं बल्कि निद्रावस्था में होते हैं। यह निद्रावस्था रात्री के आखिरी प्रहर की होती है, जब हम गहरी नींद में होते हैं। हमारी आंखें बंद पलकों के पीछे ज्यादा सक्रिय होती है और तेजी से घूमती है। मस्तिष्क भी ज्यादा क्रियाशील होता है। इसीलिए हम कई बार देखे गए सपने को सुबह उठने के बाद भी हू ब हू याद रखते हैं, कई बार बस हल्की सी एक झलक भर याद रह जाती है। जिससे पता चलता है, हमारी सपने में किसी से मुलाकात हुई थी, सपने में हम किसी के पास आए थे, सपने में हमें किसी स्थान-विशेष पर ले जाया गया था, किसी रहस्य से पर्दा उठाया गया था लेकिन यादों की यह डोर बहुत कमजोर और टूटी-फूटी सी होती है। सपनों का वह समूचा जगत इसके साथ गहरे तक जुड़े लोगों के लिए तो मायने रखता है, लेकिन ऐसे भी लोग हैं जो अपनी समझ और सक्रिय दिमाग की विवेचना शक्ति से इस सबको महज भ्रम साबित कर देते हैं। लेकिन सपनों की दुनिया के बारे में, अभी अंतिम रूप से दुनिया कुछ नहीं कह सकती। इसकी एक वजह यह भी है कि तमाम वैज्ञानिकों ने इस बात का खुलासा किया है कि उन्हें उन महान आविष्कारों की जानकारी और समझ किसी दिन सोते हुए सपने में आयी और न सिर्फ यह सपना याद रहा बल्कि उन्होंने महान आविष्कार कर डाले। वैज्ञानिकों की ये बातें मनोवैज्ञानिकों की उन बातों को काटती हैं, जिसमें वो कहते हैं सपने कुछ नहीं हमारे दिन भर की गतिविधियों के ही नतीजे होते हैं। लेकिन क्या ऐसी कोई थ्योरी या ऐसा कोई आविष्कार भी हमारी दिन भर की दिमागी गतिविधि का हिस्सा हो सकता है, जिसका अभी तक दुनिया में अस्तित्व ही न हो? कुछ लोग अपने सपनों को दूसरों से बता तो नहीं पाते मगर ऐसे लोग पुरजोर दावे से कहते हैं उनके दिलों दिमाग में एक परछाई की तरह कोई धुंधला दृश्य, कोई धुंधली तस्वीर घूम रही है, पर इससे ज्यादा कुछ पता नहीं चल पा रहा कि उसका मकसद क्या है? उसका कहना क्या है? दरअसल कुछ सपने बेहद निजी होते हैं, वह हमारे जिंदगी के अच्छे किसी खास मौके का टुकड़ा होते हैं या उसकी कुछ अच्छी काल्पनिक का विस्तार होते हैं, ऐसे सपने हमें याद रहते हैं। ऐसे सपने हमारे दिल के करीब होते हैं। कुछ सपने ऐसे होते हैं जो लुप्तप्राय जगह को खोजने को प्रेरित करते हैं, कुछ सपने आने वाले खतरे के प्रति सावधान करते हैं, कुछ सपने जिन्दगी और मौत के बीच जूझ रहे व्यक्ति के लिये जीवनदान बन कर आते हैं। किसी को सपने में मृत्यु के दर्शन होते हैं तो किसी को खोयी वस्तु के संकेत मिल जाते हैं। ऐसे सपनों को लेकर एक थ्योरी है। माना जाता है कि सहज मृत्यु की स्थिति में शरीर के अंदर मौजूद आत्मा किसी दूसरे शरीर को अपना घर बनाती है। लेकिन जब अकाल मौत होती है या हमारी नजर में वह प्राकृतिक मौत है, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं होता, तब नए शरीर में प्रवेश करने वाली आत्मा भटकती रहती है और इस भटकन के दौरान वह भी यदाकदा मृत्यु से पहले के साथी संगियों और परिजनों के के साथ सपनों में संवाद करती है। कभी-कभी ऐसी मृतात्माएं ऐसे लोगों को परेशान करती है, या बदला लेती है जिन्होंने या तो अकाल मृत्यु में सहायता की है या उसके जीवन में तरह-तरह की बाधाएं, परेशानियां एवं हिंसक घटनाओं के द्वारा जीने को जटिल बना दिया है। प्राचीन समय में सपनों के जरिए इलाज भी होता था, इसे ड्रीम थैरेपी कहा जाता था। सम्मोहन के जरिए ड्रीम थैरेपी की जाती थी। यूनान में चार सौ से भी ज्यादा मंदिरों में इस थैरेपी के इस्तेमाल के उदाहरण मिलते हैं। ईसा से दो शताब्दी पहले तक ग्रीक और रोमन साम्राज्य में उपचार के लिए ड्रीम थैरेपी बहुत आम थी। कुछ लोग अपने सपनों का साफतौर पर बयां नहीं कर पाते। लेकिन वे कुछ संकेत देते हैं जैसे उनके दिलों दिमाग में एक परछाई की तरह कोई धुंधला दृश्य, कोई धुंधली तस्वीर घूम रही है, पर इससे ज्यादा कुछ पता नहीं चल पा रहा कि उसका मकसद क्या है? उसका कहना क्या है? दरअसल कुछ सपने बेहद निजी होते हैं, वे हमारे जिंदगी के अच्छे किसी खास मौके का टुकड़ा होते हैं या उसकी कुछ अच्छी कल्पना का विस्तार होते हैं, ऐसे सपने हमें याद रहते हैं। ऐसे सपने हमारे दिल के करीब होते हैं। लेकिन सपनों की दुनिया के बारे में, अभी अंतिम रूप से कोई निर्णायक स्थिति नहीं बनी है। विज्ञान मानता है कि सभी स्तनधारी और जानवर सपने देखते हैं, लेकिन हमारे पुराण कहते हैं कि सभी प्राणियों में एक मनुष्य ही ऐसा होता है, जो सपने देखता है। वैसे प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक अरस्तु ने भी कहा है कि केवल मनुष्य ही नहीं, बल्कि जानवर भी सपने देखते हैं। स्वप्न का जन्म कब, कैसे और कहां हुआ? इसकी जन्मतिथि एवं मिति क्या है? यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित है। लेकिन इतना तो बताना संभव है कि जिस दिन मानव ने सृष्टि पर चरणन्यास किया उसी समय से स्वप्नपरी के सुंदर दृश्यों एवं नाटक का श्रीगणेश हो गया। गर्भस्थ शिशु तो क्या पशु-पक्षी भी स्वप्नलोक में विचरण करते हैं तभी तो कहावत प्रसिद्ध है ‘सोयी बिल्ली तो चूहों के ही स्वप्न देखा करती है।’ तमाम वैज्ञानिकों ने इस बात का खुलासा किया है कि उन्हें उन महान आविष्कारों की जानकारी और समझ किसी दिन सोते हुए सपने में आयी और न सिर्फ यह सपना याद रहा बल्कि उन्होंने महान आविष्कार कर डाले। जबकि कतितय मनोवैज्ञानिक कहते हैं सपने कुछ नहीं हमारे दिन भर की गतिविधियों के ही नतीजे होते हैं। वैज्ञानिकों और मनोवैज्ञानिकों के बीच विरोधाभास है। दुनिया और इसमें जीने वाले लोगों में स्वप्न की मान्यता का व्यापक प्रभाव है। इस प्रभाव एवं सपनों के संसार पर गहन अध्ययन समय-समय पर होते रहे हैं। हाल ही में जैन साध्वी डाॅ. ललितरेखा ‘खाटू’ की एक पुस्तक ‘सफर सपनों का’ प्रकाशित होकर सामने आयी है। यह सपनों की दुनिया की विविध कोणों से विवेचना करती हुए एक महत्वपूर्ण पुस्तक हैं, इसे एक संकलन और शोध-प्रस्तुति भी कहा जा सकता है। इस पुस्तक में स्वप्नों की मान्यता का विशद प्रभाव को देखने को मिलता है, स्वप्न-फल की अनेक व्याख्यायें एवं जो धारणाएं प्रचलित हैं, उनको प्रस्तुति देते हुए लेखिका कहती है कि उन्हें अगर अनेकांत और स्याद्वाद की दृष्टि से देखा जाए तो सभी धारणाएं सत्य प्रतीत होती हैं। वस्तुत अनेकांतवाद से किसी मत का एकांततः खण्डन उचित नहीं है। सभी दृष्टियों में सत्यांश तो छिपा हुआ ही है, किन्तु इन प्रचलित धारणाओं के होने के बावजूद भी सभी दर्शनों में बिखरी सुंदर स्वप्नों की सौरभ सबको सहज ही आकृष्ट कर लेती है। अतः भिन्न-भिन्न संस्कृतियों में बिखरे हुए एक-एक स्वप्न सुमनों को संजोकर स्वप्नमाला गूंथने का यह लघु प्रयास मानव की सोच को नया आयाम देता है। राॅबर्ट स्टीव का मानना है कि जीवित रहने के लिए स्वप्न अनिवार्य है। स्वप्नों के प्रति ग्रहणशीलता हमारे जीवन को सुखद बनाने में बेहतर सहायक सिद्ध हो सकती है। मनुष्य स्वप्नों के संसार में क्रीड़ाएं अधिक करता है। एक जगह बैठने की अपेक्षा भ्रमण ज्यादा करता है। हमारे चैंतीस प्रतिशत स्वप्न भ्रमण एवं सवारी करने से संबंधित होते हैं। ग्यारह प्रतिशत दृश्यों में किसी से बतियाते हैं। सात प्रतिशत स्वप्न दृश्यों में हम बैठे रहते हैं। हमारे छह प्रतिशत स्वप्न सामाजिक समारोह से संबंधित होते हैं। पांच प्रतिशत स्वप्न में हम खेलते-कूदते हैं। तीन प्रतिशत में शिक्षण-प्रशिक्षण का कार्य करते हैं तीन प्रतिशत स्वप्न में हम लड़ते-झगड़ते हैं। चैबीस प्रतिशत स्वप्नों को भोजन आदि बाकी कार्यों से जोड़ा जा सकता है। इंसान सपनों की दुनिया से हरदम प्रभावित रहा है। मनोवैज्ञानिकों के मुताबिक, हर सपना कुछ कहता है। जरूरत इस बात की है कि स्वप्न के सार को समझा जाए।
पूरे विश्व के साथ साथ भारत में भी कोरोना महामारी के खिलाफ एक लम्बी लड़ाई लड़ी जा रही है। चिकित्सा जगत के लोग तो प्रभावित मरीजों का इलाज करते हुए अपना काम प्रभावी तरीके से कर ही रहे हैं, परंतु महामारी के ऐसे वक्त में जब भारी संख्या में देश के नागरिक इस महामारी से ग्रसित हो रहे हों एवं उनकी देखभाल के लिए उनके अपने परिवार के लोग ही उपलब्ध नहीं हो पा रहे हों, ऐसे समय में पूरे देश में सामाजिक समरसता एवं देश प्रेम की भावना को केंद्र में रखकर यदि देश के समस्त नागरिक एक दूसरे के सहयोग में साथ खड़े होंगे तो इस महामारी के दौर से बहुत ही आसानी से पार पाया जा सकता है।
अभी हाल ही में दिनांक 11 मई से 15 मई 2021 के बीच “हम जीतेंगे – Positivity Unlimited” नामक व्याख्यानमाला का आयोजन किया गया था। व्याख्यानमाला की इस ऋंखला में पूज्य शंकराचार्य, आध्यात्मिक गुरु, उद्योगपति, समाज के नामीग्रामी हस्तियों एवं संघ के परम पूज्य सरसंघचालक ने अपने विचार साझा किए। उक्त व्याख्यानमाला में सभी सम्माननीय वक्ताओं का मिलाजुला मत था कि संकट की इस घड़ी में पूरे देश के नागरिकों को सामाजिक समरसता के प्रभाव में देश प्रेम की भावना जागृत कर एक दूसरे के साथ खड़ा होना चाहिए एवं एक दूसरे की मदद करनी चाहिए। आज भारतमाता की पावन धरा एक विशाल परिवार के रूप में देखी जानी चाहिए।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के परम पूजनीय सरसंघचालक डा. मोहन मधुकरराव भागवत जी ने अपने उदबोधन में मार्गदर्शन देते हुए कहा कि जिन परिवारों ने अपने सदस्यों को खोया है, उन्हें सांत्वना देते हुए इस बात के प्रयास करें कि प्रभावित परिवार अपना मानसिक संबल अत्यंत ऊंचा रखें। मन में सकारात्मक विचारों का संचार करके ही कोरोना को नकारात्मक बनाया जा सकता है। किसी के भी मन में निराशा का भाव पैदा नहीं होने देना चाहिए और इसके लिए संकट की इस घड़ी में समाज के सभी सदस्यों को मिलकर काम करना चाहिए एवं प्रभावित परिवारों के साथ एकजुट होकर खड़े होना जरूरी है। मूल रूप से भारतीय बिल्कुल भी निराशावादी नहीं हैं, वे केवल जीत में ही विश्वास रखते हैं। हालांकि “यूनान, मिश्र, रोम सब मिट गये परंतु कुछ बात है ऐसी है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी” (भारत की)। यह भारतीयों की मूल भावना के चलते ही सम्भव होता आया है। अभी भी भारतीय जीतेंगे, मानवता जीतेगी और हम सभी भारतीयों का संकल्प जीतेगा। हम सभी भारतीयों को एक समूह के रूप में कार्य करना चाहिए। वर्ग भेद, जाति भेद और अन्य मानव निर्मित किसी भी तरह के भेदों को भूलकर त्वरित गति से सामूहिक सामाजिक साझा प्रयास इस महामारी से लड़ने के लिए किए जाना चाहिए।
संकल्प की दृढ़ता, धैर्य और सजगता से सतत प्रयास, जिसमें योग, ध्यान, शारीरिक व्यायाम का मेल और शुद्ध सात्विक उचित आहार एवं उचित उपचार के साथ हम खुद भी इस बीमारी से बच सकते हैं और औरों को भी इससे बचाने के लिए सजग कर सकते हैं। साथ ही अपने आप को व्यस्त रखें और देखें क्या रचनात्मक कार्य, इस वक्त में, आज के समयानुकुल, सारे नियमों का पालन करते हुए, हम लोग कर सकते हैं। जैसे कोई भी भूखा ना रहे कोई भी बगैर इलाज के ना रहे, इसके लिए प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप से अपने आप को सेवा से जोड़ सकते हैं। अगर प्रत्यक्ष आकर खुद नहीं कर सकते तो जो संस्थाएं इन कार्यों में लगी हुई है उन संस्थानों से जुड़ सकते हैं। नियम व्यवस्था और कानूनों का पालन करते हुए कोशिश कर सकते हैं कि जहां भी संभव हो सके, ऐसे लोगों को रोजगार देवें या ऐसे कार्य करें, जिससे जो लोग अपना रोजगार खो बैठे हैं, वह रोजगारोन्मुखी कार्य कर सकें। इसको हम अलग-अलग क्षेत्रों में अपने विवेक के हिसाब से उपरोक्त संकेत को समझते हुए अपने खरीदारी में बदलाव कर, समाजसेवी कार्य कर सकते हैं।
साफ सफाई और हाइजीन का पूरा ध्यान रखना एवं मास्क पहनने और सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों का पालन करना भी जरूरी है और इसके बावजूद भी यदि कोरोना वायरस से संक्रमित हो जाए तो धैर्य नहीं खोना चाहिए। इस बात को छुपाना बिल्कुल भी नहीं है बल्कि अपने आसपास के लोगों को बता कर, जल्द से जल्द उचित उपचार करा कर, अपने स्वास्थ्य को ठीक कर, इससे बाहर आना है।
आदरणीय सदगुरु जग्गी वासुदेव जी महाराज ने कहा कि घबराहट, हताशा, भय, क्रोध, इनमें से कोई भी चीज हमारी मदद करने वाली नहीं है। आज हमें एक साथ मिलकर, एक राष्ट्र एवं एक मानव समाज के रूप में खड़े होने का समय है। साथ ही यह समय बहुत गहरे जाकर अपनी सांस्कृतिक जड़ों की ओर लौटने का है जो मानव के भीतर जाकर उसके स्वस्थ होने पर बल देती हैं, कम से कम भारत को यह उदाहरण विश्व के सामने स्थापित करना ही चाहिए। कई संदर्भों में विश्व इस समय भारत की ओर आशाभरी निगाहों से देख रहा है।
पूजनीय जैन मुनिश्री प्रमाण सागर जी ने बताया कि निश्चित ये बहुत त्रासदीपूर्ण काल है। लेकिन ऐसे समय में सभी लोग घबराएं नहीं बल्कि अपने मन को मजबूत बनाएं। अगर बीमारी आई है, तो ये जाएगी भी। सभी भारतीय अपने भीतर आध्यात्मिक दृष्टि रखें कि ये बीमारी तन की है, मन की नहीं। तन की बीमारी के सौ इलाज हैं, मन की बीमारी का कोई इलाज नहीं, इसलिए इस तन की बीमारी को मन पर बिल्कुल भी हावी नहीं होने दें।
द आर्ट ऑफ लिविंग के संस्थापक व आध्यात्मिक गुरू श्री श्री रविशंकर जी महाराज ने कहा कि मानसिक रूप से, सामाजिक रूप से हम सबके ऊपर एक जिम्मेदारी है वह यह कि हमें अपने भीतर जो धैर्य है, शौर्य है, जोश है उसे जगाएं। जोश को जगाने से उदासीपन अपने आप हट जाएगा। आज जब व्यक्ति उदास है, दुःखी है, दर्द से पीड़ित है, ऐसे में अपने भीतर करुणा को जगाएं। करूणा जगाने से आश्य है कि अपने आप को सेवा कार्य में लगाएं। इस वक्त में हम सबको अपने भीतर ईश्वर भक्ति को भी जगाना चाहिए।योग-साधना और आयुर्वेद पर ध्यान देते हुए अपने स्वास्थ्य का भी ध्यान रखना जरूरी है।
आदरणीया पद्मश्री निवेदिता भिड़े जी ने इस बात पर बल दिया कि इस चुनौतीपूर्ण समय में सकारात्मकता बनाए रखने के लिए हम सभी मिलकर अपने परिजनों तथा आस-पास लोगों के साथ रचनात्मक गतिविधियों में सक्रियता से भागीदारी सुनिश्चित करें। इसके अलावा अपने आस-पास कोरोना से प्रभावित परिवारों की सेवा करें। संकल्प के साथ प्रार्थना करें, इससे भी वातावरण में सकारात्मक तरंगों का निर्माण होता है और माहौल में सकारात्मकता आती है। हमें भूलना नहीं चाहिए कि हम कोई साधारण राष्ट्र नहीं हैं, पहले भी ऐसी विपत्तियां व संकट हम पर आए हैं और हमने उनका सामना सफलतापूर्वक किया है, हम वर्तमान चुनौती का सामना भी सफलतापूर्वक करेंगे।
प्रसिद्ध उद्योगपति माननीय श्री अज़ीम प्रेमजी ने अपने बताया कि इस विकट परिस्थिति में पूरे राष्ट्र को एक साथ खड़े होना चाहिए क्योंकि एक साथ रहेंगे तो हम सभी मजबूत रहेंगे।हमें सोचना चाहिए कि हमारे सारे प्रयास अब समाज के कमजोर वर्ग के लिए हों।
पूजनीय शंकराचार्य श्री विजयेंद्र सरस्वती जी महाराज ने कहा कि आज विश्व में महामारी की वजह से एक अति संकट की स्थति है। इस संकट के विमोचन के संदर्भ में वाल्मीकि रामायण में संकट मोचन हनुमान जी कहते हैं, दुःख होता है, संकट होता है, फिर भी अपना जो मनोधैर्य है, मन में जो हिम्मत है उसे छोड़ना नहीं चाहिए एवं प्रयत्न करते रहना चाहिए। संकट कैसा भी हो, यदि प्रभु में पूर्ण आस्था एवं विश्वास के साथ कार्य करेंगे तो उसका फल अवश्य मिलेगा। एक साल पहले भी इसी प्रकार के संकट के दौरान अनेक भाषाओं, अनेक प्रांतों के लोगों ने एक साथ मिलकर कार्य किया, उसका अनुकूल परिणाम भी मिला था। आज व्यक्तिगत विश्वास के साथ ही सामूहिक वातावरण बनाने की आवश्यकता है।
प्रख्यात कलाकार पद्मविभूषण सोनल मानसिंह ने अपने व्यक्तिगत अनुभवों को साझा करते हुए बताया कि हाल ही में उन्हें कोरोना हुआ था, पर सकारात्मक विचारों, धैर्य, आत्मबल व प्रार्थना द्वारा उन्होंने नैराश्य को दूर भगाते हुए इस पर विजय प्राप्त की है। आज समाज में असीम आशा व सकारात्मकता का वातावरण बनाने की आवश्यकता है ताकि कोई भी हताश या निराश न हो। इसके लिए रचनात्मकता का सहारा लेकर मन में कृतज्ञता का भाव रखना जरूरी होगा। क्रोध, निराशा, हताशा की भावना से स्वयं को दूर रखकर समाज के साथ सकारात्मक विचारों को साझा कर दूसरों को भी संबल देने की आज आवश्यकता है।
पूजनीय साध्वी ऋतंभरा जी ने कहा कि विपरीत परिस्थितियों में ही समाज के दायरे के धैर्य की परीक्षा होती है। इन विपरीत परिस्थितियों में जबकि हमारा पूरा देश एक विचित्र महामारी से जूझ रहा है, ये वो समय है, जब हम अपनी आंतरिक शक्ति को जागृत करें। मनुष्य के साहस व संकल्प के सामने बड़े-बड़े पर्वत तक टिक नहीं पाते। नदी का प्रवाह जब प्रवाहित होता है तो वो बड़ी-बड़ी चट्टानों को रेत में परिवर्तित करने का सामर्थ्य रखता है। इसलिए इस विकट परिस्थिति में असहाय होने से समाधान नहीं होगा, अपनी आंतरिक शक्ति को जागृत करना आवश्यक है। सभी अपने आत्मबल, आत्म संयम और आत्म संकल्प को जागृत करें।
आदरणीय संत श्री ज्ञानदेवजी महाराज ने कहा कि केवल भारतवर्ष में ही नहीं बल्कि संपूर्ण विश्व में जो यह संक्रमण काल चल रहा है, इससे घबराने की आवश्यकता नहीं है, मनोबल गिराने की आवश्यकता नहीं है। जो भी वस्तु संसार में आती है, वह सदा स्थिर नहीं रहती। दुःख आया है, वह चला जाएगा। यदि कोई संक्रमित हो भी जाता है तो वो परमात्मा का चिंतन करे, गीता का पाठ करे, गुरूवाणी का पाठ करे, अपने मन को स्वस्थ रखें। भारत की परंपरागत जीवनशैली में वे सभी तत्व पहले से मौजूद रहे हैं, जिनका पालन करने के लिए हमें आज चिकित्सक कह रहे हैं। इस समृद्ध सांस्कृतिक व आध्यात्मिक परंपरा का पालन कर स्वस्थ रह सकते हैं। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी इन समृद्ध परंपराओं की पहचान कर उन्हें व्यवहार में लाएं।
सन 1961 में मैंने असम के बराक घाटी स्थित सिलचर के जी.सी. कॉलेज में व्याख्याता के पद पर योगदान दिया था। हमारे कॉलेज के प्राचार्य प्रोफेसर डीएन राय दर्शन शास्त्र के विद्वान थे। अनेक पुस्तकों के लेखक थे। उन्होंने बच्चों के लिए भी कई पुस्तिकाएँ लिखी थी। वे इन पुस्तिकाओं का भारतीय भाषाओं में अनुवाद कराना चाहते थे। बांग्ला विभाग के प्रोफेसर अंशुमान भट्टाचार्य बांग्ला में अनुवाद कर रहे थे। उन दिनों उस अंचल में हिन्दी के जानकार लोगों की संख्या नगण्य थी। हमारे कॉलेज में मेरे अलावे प्रो कैलाश नाथ एकमात्र हिन्दी भाषी थे। स्थानीय स्कूलों में नियुक्त हिन्दी शिक्षक भी ठीक से हिन्दी बोल नहीं पाते थे। एक दिन प्रिंसिपल साहब ने एक पुस्तिका का मुझे हिन्दी में अनुवाद करने का अनुरोध किया। मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। उसके बाद उन्होने पाण्डुलिपि मेरे हवाले कर दी। उस समय मैं असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के स्थानीय प्रमुख श्री दत्तात्रेय मिश्र के साथ रहता था। एक दिन श्री मिश्र ने मुझे बताया कि प्रो. अंशुमान से उनकी भेंट हुई थी,बातों बातों में मेरा जिक्र आया था, तो उन्होंने बता दिया था कि इन दिनों मैं उनके साथ रह रहा हूँ। इसके एक दिन बाद ही सुबह को प्रिंसिपल साहब का चपरासी उनका एक छोटा सा नोट लेकर आया। फ्रिंसिपल साहब ने यह कहते हुए अपनी पांडुलिपि वापस चाही य़ी कि कुछ तथ्य समय के साथ बदल गए हैं। उन्हें बदलना है। मुझे दत्तात्रेयजी की बातें याद आईं। मैं समझ गया कि अंशुमान ने प्राचार्य महोदय के मन में आशंका पैदा कर दी है कि दत्तात्रेय मिश्र की प्ररोचना से उनकी किताब के साथ छेड़छाड़ की जा सकती है। मुझे अपमान सा लगा। मैंने उससे कहा, कि प्रिंसिपल साहब को बता देना कि मैं एक घंटे बाद उनके आवास पर उनसे मिलूँगा। उसने जोर देकर कहा कि उसे निर्देश है कि पांडुलिपि साथ में लेकर ही आए। पर मैं अपनी बात पर कायम रहा। क्योंकि मैं उनके साथ मिलकर अपनी भावनाएँ बताना चाहता था। अपना प्रतिवाद व्यक्त करना चाहता था। जब मैं प्राचार्य आवास पर पहुँचा तो चपरासी ने बताया कि प्रिंसिपल साहब कहीं बाहर गए हैं और कह गए हैं कि मैं आऊँ, तो पाण्डुलिपि उसके हवाले कर दूँ। मैं समझ गया कि वे मेरे सामने होने से बचना चाहते हैं। इसलिए जानबूझकर बाहर निकल गए हैं। बुरा लगा, पर अपमान जैसा नहीं लगा. शायद प्रिंसिपल साहब की छवि मेरे दिमाग में अच्छी थी इसका ही असर था। मैंने मान लिया था कि अंशुमान ने उनके कान भरे और सरल व्यक्ति होने के कारण प्रभावित हो गए थे। मन मसोसकर मैंने पाण्डुलिपि चपरासी के हवाले कर दी और वापस आ गया। मैंने सोचा था कि प्राचार्य महोदय से मुलाकात होने पर मैं उनसे पांडुलिपि वापस लिए जाने की वजह जानना चाहूँगा । पर मैंने पाया कि वे मुझसे कतराने लगे हैं। वे मेरे अभिवादन का उत्तर नहीं देते। तो मैंने भी अभिवादन करना बन्द कर दिया। अब मुझे आशंका हो रही थी कि वे मुझे परेशान करेंगे। पर वैसा कुछ भी नहीं हो रहा था। बस हमारे बीच अबोला कायम हो गया, जैसे संयुक्त परिवार में हुआ करता है। मेरे प्रति उनके आचरण में कहीं नाराजगी की झलक नहीं थी। बस, न मैं उनको नमस्ते करता, ना वे मुझसे मुखातिब होते। अन्त में वह दिन आया जब मुझे बिहार के सीवान के कॉलेज से नियुक्ति पत्र मिला। मैंने सिलचर छोड़ने का फैसला लिया। कायदे से मुझे तीन महीने की अग्रिम सूचना या तीन महीनों का वेतन जमा करना होता। पर प्राचार्य महोदय ने कोई अड़ंगा नहीं डाला। अन्तिम दिन कॉलेज के छात्रों की ओर से मेरी विदाई का औपचारिक आयोजन हुआ। उसमें सहकर्मियों तथा छात्रों के द्वारा भावुकतापूर्ण वक्तव्य पेश किए गए। प्राचार्य महोदय उपस्थित थे। उन्होंने भी औपचारिक भाषण दिया था। bfb आयोजन के बाद मैं प्राचार्य कक्ष में relieving letter लेने गया। वे बहुत सदाशयता से मिले। मेरी तारीफ की, विदा समारोह में छात्रों एवम् मेरे सहकर्मियों द्वारा व्यक्त की गई भावनाओं का उल्लेख करते हुए उन्होंने मेरी प्रशंसा की। मुझे अपनी भड़ास निकालने का अवसर मिला, मैंने कहा, लेकिन आप तो मुझे अच्छा व्यक्ति नहीं समझते हैं। उन्होंने झेंपते हुए कहा, नहीं नहीं ऐसी कोई बात नहीं है। तो मैंने कहा, फिर आपने मुझसे बात करना क्यों बन्द किया था उनके चेहरे पर खिसियानी मुस्कान उभड़ आई। फिर मैंने झुककर उनके पाँव छुए और उन्होंने मेरी पीठ सहलाई। relieving letter लेकर मैं बाहर निकला , तो वाणिज्य विभाग के प्रोफेसर रमेन बाबू को अपने इन्तजार में खड़ा पाया। उन्होंने मुझसे पूछा, सचमुच जा रहे हैं? मैंने कुछ नहीं कहा। सर झुकाकर खड़ा हो गया। कुछ पलों के बाद रमेन बाबू ने कहा, जाइए। मैं आगे बढ़ गया।
—विनय कुमार विनायक विश्व में सनातन वैदिक हिन्दू धर्म, जरथुष्ट्रवाद और यहूदी तीन प्राचीन धर्म है वैदिक हिन्दू धर्म व जरथुष्ट्रवाद आर्य जाति के!
जबकि यहूदी धर्म सामी जाति से उद्भूत, जैसे प्राचीन सनातन वैदिक आर्य हिन्दू धर्म से बौद्ध,जैन,सिख,आर्य समाजी जैसे पंथ पनपे थे, वैसे ही यहूदी धर्म से ईसाई और इस्लाम निकले!
भारत में पितृ धर्म आर्य वैदिक के वारिस हिन्दू धर्म ने पुत्रधर्म बौद्ध को निर्वासित किया! जबकि फिलिस्तीन में पुत्रधर्म ईसाईयत ने पितृधर्म यहूदी धर्म को ही अपदस्थ कर दिया!
यहूदी धर्म के अनुयाई सामी जाति के लोग हिन्दू जातियों की तरह घोर मूर्ति पूजक थे!
यहूदी धर्म के प्रथम पैगम्बर अब्राहम ने पहले-पहल मूर्ति पूजा के खिलाफ पैगाम दिया, पैगम्बर अब्राहम ने एकेश्वरवाद का पाठ पढ़ाया!
पैगम्बर अब्राहम के बड़े पुत्र हजरत इसहाक के वंशज हजरत दाऊद, पैगम्बर मूसा, ईसा मसीह थे, आदि पैगम्बर अब्राहम के छोटे पुत्र इस्माइल के वंशज हजरत मोहम्मद सबसे आखिरी पैगम्बर थे!
यहूदी धर्मग्रंथ पुरानी बाइबल; ओल्ड टेस्टामेंट ग्रंथ हज़रत दाऊद औ’ हज़रत मूसा से अवतरित हुए थे, ईसाइयों का धर्मग्रंथ नई बाइबल; न्यू टेस्टामेंट ईश्वर पुत्र ईसा मसीह द्वारा प्रवर्तित किए गए थे!
यहूदी धर्मी ओल्ड टेस्टामेंट पर विश्वास करते हुए धार्मिक आचरण करते,वे न्यू टेस्टामेंट नहीं मानते!
ईसाई समाज न्यू टेस्टामेंट पर विश्वास करते जो बुद्ध की तरह ईसा के सुधारवादी विचार थे! ईसाई विश्वास नहीं करते ओल्ड टेस्टामेंट पे!
मुस्लिम दाऊद,मूसा,ईसा को पैगम्बर मानते, मगर ईसा को ईश्वर पुत्र स्वीकार नहीं करते!
मुस्लिम मूसा को प्रभु से बात करनेवाला ‘कलीमुल्लाह’, ईसा मसीह को प्रभु की आत्मा समझकर ‘रुहुल्लाह’ पैगम्बर मुहम्मद को प्रभु का दूत ‘रसूलल्लाह’ कहते!
यहूदी भाषा हिब्रू में ईश्वर को इलोह, अरबी में इलाह कहते, किन्तु मूसा ने मुख्य उपास्य देव का नाम यहोवा रख दिया, यहूदी अग्नि में पशुओं का हवन करते, हिन्दुओं के यज्ञ जैसे!
ईसाई बौद्ध धर्म की तरह पशु बलि से परहेज़ करते, ईसा मसीह के चरित्र भगवान बुद्ध की पुनरावृत्ति लगते!