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स्वच्छ जल से आज भी वंचित हैं आदिवासी

सूर्यकांत देवांगन

रायपुर, छत्तीसगढ़

आधुनिकता के इस दौर में जब शहर के तकरीबन हर दूसरे-तीसरे घर के लोग आरओ का फिल्टर पानी पीते हैं तो वहीं देश के ग्रामीण इलाकों में कुछ ऐसे भी गांव हैं जहां वर्षों से सरकारी तंत्र की अनदेखी के कारण लोगों को पीने के लिए साफ पानी तक नसीब नहीं हो रहा है। सरकार द्वारा पेयजल को लेकर प्रति वर्ष लाखों रुपया खर्च जरूर किया जाता है, लेकिन इसका लाभ देश में ग्रामीण अंचल को मिल रहा है या नहीं, इसकी निगरानी व्यवस्था अब भी कमजोर है। मसलन छत्तीसगढ़ के सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों के आदिवासी परिवार आज भी पीने के साफ़ पानी जैसी अपनी मूलभूत आवश्यकता के अभाव में पीढ़ियों से अपना जीवन जीते आ रहे हैं।

रोजाना सूरज के उजियारे के साथ घर की महिलाएं हाथ में पानी का बर्तन लिए एक किलोमीटर पैदल चलकर नदी किनारे पहुंचती हैं, फिर झरिया (नदी किनारे की ज़मीन) खोदकर प्यास बुझाने के लिए पानी निकालती हैं। वह पानी भी साफ नहीं रहता है, इसीलिए उसे घर ले जाकर पहले गन्दे पानी को छानती हैं और फिर पीने लायक बनाती हैं। यह स्थिति है छत्तीसगढ़ में दक्षिण बस्तर दंतेवाड़ा जिला स्थित पोंदुम ग्राम पंचायत के बुरकापारा क्षेत्र की। जो आज आजादी के सात दशक बाद भी पीने के साफ पानी के लिए तरस रहा है। यहां आज तक कोई भी सरकार ग्रामीण आदिवासियों के लिए स्वच्छ जल की व्यवस्था नहीं करा पाई है।

दंतेवाड़ा जिला मुख्यालय से महज 11 किलोमीटर की दूरी पर लगभग 3 हजार की जनसंख्या वाला गांव है पोंदुम। यह गांव दो भागों में बंटा है, जिसमें पोंदुम 1 तथा पोंदुम 2 है। गांव के आधे हिस्से में तो पेयजल की व्यवस्था थोड़ी ठीक-ठाक है, लेकिन पोंदुम 2 के बुरकापारा क्षेत्र में पेयजल की कोई भी व्यवस्था नहीं है। तीन तरफ से घिरे हुए गांव के एक भाग में डंकनी नदी, दूसरी तरफ एक नाला और तीसरी तरफ रेल पटरी है। ग्रामीण यहां से पानी लाने या तो डंकनी नदी जा सकते हैं या फिर रेलवे पटरी को पार करके मौजूद एक हैंडपंप तक पहुंच सकते हैं। लेकिन उसके लिए भी एक से डेढ़ किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है। अन्य मौसम में तो ग्रामीण नदी के पानी से जैसे-तैसे अपनी जरूरतें पूरी कर लेते हैं लेकिन बारिश के मौसम में जब नदी का पानी बहुत गंदा होता है तो उनके सामने समस्या और विकराल हो जाती है। इसलिए यहां के लोग बरसात के दौरान घर की छप्पर से गिरने वाले पानी को बर्तनों में इकट्ठा करके पीने के लिए उपयोग में लाते हैं। इस तरह से बुरकापारा में 30 आदिवासी परिवारों के लगभग 90-100 लोग रोजाना पानी की जद्दोजहद में लगे रहते हैं, बावजूद उन्हें पीने के लिए साफ पानी नहीं मिल पाता है। तो दूसरी तरफ गंदा पानी पीने से उनके स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल असर पड़ रहा है।

स्थिति यह है कि पानी की तलाश में गांव की 60-70 वर्षीय वृद्ध महिलाओं को भी अपनी प्यास बुझाने के लिए पानी लाने नदी जाना पड़ता है। बुरकापारा की वार्ड पंच मंगों मण्डावी के साथ साथ अन्य महिलाएं आयते मण्डावी, बुधरी, लक्में और पायकों ने बताया कि हमारे क्षेत्र में एक भी हैंडपंप नहीं है। जो भी पानी के स्रोत हैं वह यहां से बहुत दूर हैं। महिलाओं ने बताया कि रोजाना लगभग एक किलोमीटर से ज्यादा दूर जाकर हम सभी पानी लाते हैं। नदी का पानी कभी थोड़ा साफ रहता है तो कभी बहुत गंदा, फिर भी हम मजबूरी में उसी पानी का उपयोग करते हैं। बुरकापारा निवासी एवं आंगनबाड़ी कार्यकर्ता लक्ष्मी मण्डावी कहती हैं कि हमें पानी की बहुत ही ज्यादा समस्या है। घर की हर जरूरतों के लिए नदी से ही पानी लाना पड़ता है और पानी लाने में ही हमारे दिन का आधा समय चला जाता है। उसके बाद ही आंगनबाड़ी का कार्य कर पाती हूं। इससे हमें शारीरिक के साथ साथ मानसिक थकान भी बहुत होती है और पीने के लिए स्वच्छ पानी नहीं मिलने से विभिन्न बिमारियों का खतरा भी बना रहता है।

वहीं इस समस्या के संबंध में पोंदुम पंचायत के सरपंच भानुप्रताप कर्मा ने बताया कि बुरकापारा क्षेत्र में 5 बार बोर खनन (बोरिंग) का कार्य किया जा चुका है लेकिन इस इलाके में जमीन के अंदर चट्टान होने के कारण बोर खनन में पानी नहीं निकलता है। इसलिए यहां पानी की समस्या है जबकि गांव के अन्य जगहों में पानी के लिए हैंडपंप है। उन्होंने बताया कि पंचायत को नलजल योजना के लिए राशि मिल गई है, कोरोना का प्रकोप कम होने पर हम पाइप लाइन के द्वारा एक स्थान पर टंकी बनाकर पानी पहुंचाने का कार्य शुरु करेंगे। पेयजल के अभाव पर बात करते हुए स्थानीय कुम्मा मण्डावी ने बताया कि बुरकापारा के साथ-साथ गांव के अन्य जगहों अलीकोंटा, घोरकुट्टा और दरशाबलुम गांव के लोग भी नदी के पानी का उपयोग करते हैं। पेयजल के लिए सबसे ज्यादा महिलाओं को परेशानी उठानी पड़ती है, क्योंकि घर का सारा काम वही करती हैं। उन्होंने बताया कि हमारी समस्या से जिला कलेक्टर को भी अवगत कराया जा चुका है। उनके आदेश के बाद एक हैंडपंप खनन गाड़ी आती है। एक जगह खोदकर देखती है और पानी नहीं निकलने पर चली जाती है। इस तरह सालों से हमारी यह समस्या जस की तस बनी हुई है। उन्होंने बताया नदी से भी पाइप लगाकर पानी यहां तक पहुंचाया जा सकता है लेकिन स्थानीय प्रशासन ने वह भी नहीं किया है।

इस संबंध में दंतेवाड़ा जिले के लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग के सहायक अभियंता देवेन्द्र आर्मो ने बताया कि पोदुंम के बुरकापारा क्षेत्र ड्राई जोन में आता है, इसलिए वहां बोर खनन सफल नहीं हो रहा है। हालंकि एक पुराने हैण्डपंप को फिर से शुरू करने का प्रयास किया जा रहा है। हमारी तकनीकी टीम ने वहां दौरा कर काम भी शुरू कर दिया है। इसके अलावा पाइपलाइन से पानी पहुंचाने की भी वहां कार्य योजना तैयार की गई है, जिस पर जल्द ही टेंडर की प्रक्रिया भी पूरी की जाएगी।

छत्तीसगढ़ में दंतेवाड़ा स्थित पोदुंम गांव का बुरकापारा ही ऐसा एकलौता स्थान नहीं है जहां पेयजल का अभाव हो, बल्कि राज्य में कई ऐसे गांव हैं जहां लोग बूंद-बूंद पानी को तरस रहे हैं और ग्रामीण नदी-नाले का दूषित पानी पीने को मजबूर हैं। बस्तर जिले के नारायणपुर विधानसभा क्षेत्र अंतर्गत आने वाले ग्राम पंचायत कुंगारपाल, भालूगुड़ा पारा में निवासरत लगभग 400 परिवार भी झरिया का पानी पीने को विवश हैं क्योंकि गांव में पेयजल की कोई व्यवस्था नहीं है। इसी तरह कांकेर जिले के ग्राम पंचायत लोहतर के आश्रित ग्राम पिड़चोड़ के स्कूलपारा के ग्रामीण मुहल्ले में भी हैंडपंप नहीं होने के कारण महिलाएं रोज़ाना एक किलोमीटर दूर स्थित कुएं से पानी लाती हैं। उन्होंने प्रशासन को पेयजल समस्या के समाधान के संबंध में आवेदन किया है लेकिन किसी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया है।

देश का कोई भी राज्य या गांव हो, 21वीं सदी में भी लोगों को पीने के लिए साफ पानी नहीं मिलना दुर्भाग्य है। ऐसे हालात को देखकर सरकार के सर्वांगीण विकास के दावे पर भी प्रश्नचिन्ह लग जाता है। भारत सरकार की जल जीवन मिशन वेबसाइट के अनुसार प्रदेश में 19 हजार से ज्यादा गांव हैं, जिनमें से 6 हजार से ज्यादा गांवों में पाइप लाइन वाटर कनेक्शन नहीं है। वहीं 61 फीसदी गांवों में ही कनेक्शन काम कर रहे हैं। रिपोर्ट की माने तो प्रदेश के तकरीबन 13 हजार 900 से ज्यादा गांवों में कनेक्शन 100 फीसदी नहीं है यानि वहां आधे लोगों तक ही पानी पहुच पाया है। पेयजल स्त्रोतों की गुणवत्ता को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर जारी आंकड़ों के अनुसार छत्तीसगढ़ का स्थान 14वां है यानि 91.1 फीसदी घरों के पेयजल स्रोतों में सुधार हुआ है।

छत्तीसगढ़ में ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में शहरी क्षेत्रों में पेयजल व्यवस्था ज्यादा बेहतर नजर आता है जो कि 97 फीसदी तक है। वहीं इस मामले में राष्ट्रीय औसत 89.9 फीसदी है। इस आधार पर छत्तीसगढ़ का औसत राष्ट्रीय औसत से 2 फीसदी तक ज्यादा है। हांलकि जमीनी हकीकत देखें तो वह सरकार के आंकड़ों से मेल नहीं खाती है। जबकि केन्द्र सरकार की जल जीवन मिशन एवं राज्य सरकार की अमृत मिशन जैसी योजनाएं केवल पेयजल उपलब्ध कराने के उद्देश्य से ही चलाई जा रही हैं। बावजूद इसके छत्तीसगढ़ के दुर्गंम स्थानों पर रहने वाले ग्रामीणों को पीने के लिए साफ पानी का नहीं मिलना दावे और व्यवस्था दोनों को कटघरे में खड़ा करता है।

तब मिलेगी मुक्ति जातिवाद से

—विनय कुमार विनायक
आरक्षण शब्द घृणित हो चुका शब्द हरिजन सा,
मगर छुपके छुपाके सबको चाहिए
आरक्षण पिछड़े, आदिवासी, हरिजन के जैसा!

अब आरक्षण मिला संपूर्ण भारत जन को,
हरिजन-अंत्यज, पिछड़ेजन,
अर्थहीन से समग्र ब्राह्मण जाति तक को!

जब से आरक्षण ब्राह्मण को मिला,
तब से उपाधि ‘हरिजन’ ‘राम’ जैसे आरक्षित शब्द
घृणित नहीं और पूर्वाग्रह मुक्त सा भी लगने लगा!

अब समय है आरक्षण पर खुलकर बोलने का,
छोटे-बड़े प्रकांड बुद्धि वाले जनमन को टटोलने का!

भारत में ब्राह्मण शब्द प्रतीक है पवित्रता का,
और हरिजन विपरीतार्थक शब्द ब्राह्मण जाति का!

ब्राह्मण की पवित्रता ईश्वर से अधिक है,
तब ही ना एक सामान्य ‘जन’ शब्द के साथ
हरि जुटते ही शब्द ‘हरिजन’ बनकर दूषित हो जाता!
‘जन’ के साथ ‘जाति’ जुटे तो ‘जनजाति’ अंत्यज हो जाता!

लाख प्रयत्न कर ले निचली जाति
भारत में उच्च जाति की हो नही सकती!
भारत में शब्दों की
गरिमा और लघुता जातिगत होती!

आज भी निचली जातियों से जुड़कर
शब्द अपनी शक्ति खो देता,
राम सा पवित्र शब्द हरिजन जाति की
उपाधि होने से राम शूद्र दास हो जाता!

हरिजन में पवित्रता तब लौटेगी जब वे,
वेद शास्त्र पढ़के झा,मिश्र, द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी,
पाठक, उपाध्याय, शास्त्री उपाधि ग्रहण कर लेंगे!

बिन पढ़े वेद जब दूबे गए
चौबे बनने छब्बे बनकर लौट आते,
तो फिर पढ़े-लिखे जन तिवारी, पांडे, पंडित,
शास्त्री,आचार्य उपाधि क्यों नहीं अपनाते?

अस्तु हे राम! हे हरिजन!
भजो राम को, हरि को,तजो उपाधि ‘राम’ ‘हरिजन’ की,
धारण करो उपाधि ब्रह्मापुत्र ब्राह्मण की,
यही एक मार्ग बचा,तब मिलेगी जातिवाद से मुक्ति!

आज ब्राह्मण पुरोहित का कर्तव्य बनता
कि सभी पिछड़े दलित आदिवासी जन को
उपनयन संस्कार कराके आर्य समाजी बना दे,,
याकि भारतजन गुरु गोविंद सिंह का खालसा पंथ अपना ले,

धन दौलत पर न कर इतना गुमान

धन दौलत पर न कर इतना गुमान,
ये हाथ का मैल है धुल ही जाएगा।
न कुछ लाया था न कुछ ले जायगा,
यही पर सब कुछ ही रह जाएगा।।

बनाये थे जो तूने महल दुम्हले,
क्या तू इनको साथ ले जाएगा ?
खड़े रहेंगे ये सभी यही पर बन्दे,
साथ कुछ भी न तू ले जाएगा।।

बांट देना अपने दोनों हाथो से,
तुझे कुछ तो पुन्य मिल जाएगा।
यही तेरे साथ साथ चलेगा बन्दे,
बाकी यहां सब कुछ रह जाएगा।।

बचपन बीता जवानी चली गई,
फिर तो तुझे बुढ़ापा ही आयेगा।
एक कोने में तू पड़ा रहेगा बस,
पास तेरे कोई भी नहीं आएगा।।

यह भी मेरा,यह नहीं है तेरा,
इसी तेर मेर में तू चला जाएगा।
अपने से कमजोर से तू लडता,
बलवान से तू पछाड़ा ही जाएगा।।

पता नहीं कुछ तेरी जिंदगानी का,
कब ऊपर से तेरा बुलावा आयेगा।w
हाथ पैर सब कुछ होते हुए भी,
चार के कंधो पर चढ़ कर जाएगा।।

स्वातंत्र्यवीर सावरकर पर ‘द वीक’ का माफ़ीनामा

लोकेन्द्र सिंह

‘द वीक’ पत्रिका ने स्वातंत्र्यवीर सावरकर पर लिखे गए झूठे और अपमानजनक लेख के लिए माफी मांगी है। ‘द वीक’ की यह माफ़ी राष्ट्रभक्त लोगों की जीत है और महापुरुषों का अपमान करने वाले संकीर्ण मानसिकता के लोगों की पराजय। निरंजन टाकले नाम के पत्रकार का एक लेख ‘द वीक’ ने 24 जनवरी, 2016 को प्रकाशित किया, जिसका शीर्षक ‘लैंब लायोनाइज्ड’ था। वीर सावरकर की प्रतिष्ठा को धूमिल करने के उद्देश्य से लिखे गए इस लेख में मनगढ़ंत और तथ्यहीन बातें लिखी गयीं। तथ्यों को तोड़-मरोड़कर कर भी प्रस्तुत किया गया। ‘स्वातंत्र्यवीर सावरकर राष्ट्रीय स्मारक’ ने इस आलेख को चुनौती दी। सबसे पहले 23 अप्रैल, 2016 को प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया में इसकी लिखित शिकायत की गई। परन्तु प्रेस काउंसिल कहाँ, इस तरह के मामलों पर संज्ञान लेती है। राष्ट्रीय विचार से जुड़े विषयों पर उसकी उदासीनता सदैव ही देखने को मिली है, उसका कारण सब जानते ही हैं। उसके बाद स्मारक इस लेख के विरुद्ध याचिका लेकर न्यायालय पहुँच गया और हम देखते हैं कि न्यायालय में झूठ टिक नहीं सका। इससे पहले वीर सावरकर के सम्बन्ध में आपत्तिजनक कार्यक्रम के प्रसारण के लिए एबीपी माझा भी लिखित माफी मांग चुका है। सोचिये, इतिहास में इस तरह के लोगों ने कितना और किस प्रकार का झूठ परोसा होगा?

वीर सावरकर के संबंध में अन्य ‘द आयर-वायर’ जैसी कई वेबसाइट्स पर भी निरंजन टाकले और उनके जैसे अन्य तथाकथित पत्रकारों के प्रदूषित विचार पढ़ने को मिलते हैं। प्रोपेगैंडा के उद्देश्य से निकल रहीं इस प्रकार की वेबसाइट्स को थोड़ी शर्म हो तो वे भी ‘द वीक’ से सबक लेकर खेद प्रकट कर सकती हैं। या फिर उनके संपादक/संचालक भी यह काम कर सकते हैं। पर वे माफी मांगेंगे नहीं, जब तक उनको न्यायालय में घसीटा न जाए। दरअसल, वे झूठ फैलाना अपना अधिकार समझते हैं। अगर उनके झूठ पर सवाल उठाओ और कानूनी कार्यवाही करो तो वे ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ का नारा लगाने लगते हैं। वे ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ जैसे मौलिक और महत्वपूर्ण अधिकार की आड़ में झूठ और प्रोपेगैंडा फैलाना चाहते हैं, जो अब मुश्किल है।

याद रखिये कि पांच साल बाद, ‘द वीक’ के प्रबंधक ने भी माफी इसलिए ही मांगी है क्योंकि वे इस बीच लेख में परोसे गए झूठ को न्यायालय के सामने सही सिद्ध नहीं कर सके। अगर ‘स्वातंत्र्यवीर सावरकर राष्ट्रीय स्मारक’ न्यायालय नहीं जाता तो ये कभी माफ़ी मांगते नहीं। इस प्रकरण में अब तक 21 सुनवाइयां हो चुकी हैं। 10 दिसंबर, 2019 को आरोपियों को 15 हजार रुपए के निजी मुचलके पर जमानत मिली। जब प्रबंधक को लगा कि न्यायालय में वे इस प्रकरण में फंस चुके हैं, उनके पास सच नहीं है तब उन्होंने 23 मई, 2021 को प्रकाशित ‘द वीक’ में इस लेख के सम्बन्ध में खेद प्रकट किया और वीर सावरकर का अपमान होने के लिए जिम्मेदार लेख के लिए क्षमायाचना की है।

‘द वीक’, उसके संपादक, पत्रकारों और उन जैसे अन्य दुराग्रही लोगों को थोड़ा अपने गिरेबां में झांककर देखना चाहिए, जो अपने वैचारिक स्वार्थों के कारण ऐसे व्यक्तित्व के प्रति दुष्प्रचार करते हैं जिनका न केवल स्वयं का जीवन अपितु उनका सम्पूर्ण परिवार भारत माता की सेवा में समर्पित रहा। देश की स्वतंत्रता के लिए क्रांतिकारी गतिविधियों के संचालन के कारण सावरकर ने ‘कालापानी’ की कठिनतम सजा भोगी।

आश्चर्य होता है इन लोगों की समझ पर जो नक्सली आतंकी गतिविधियों के आरोपियों को ‘सामान्य जेल’ से मुक्त कराने के लिए देशभर में हस्ताक्षर अभियान चलाते हैं और ‘कालापानी’ से बाहर आने के सावरकर के कानूनी अधिकार को ‘माफीनामा’ कहकर प्रोपेगैंडा करते हैं। जो स्वयं उस समय अंग्रेजों के साथ खड़े थे, आज सावरकर जैसे महान व्यक्ति पर ‘अंग्रेजों का सहयोगी’ होने का मिथ्यारोप लगाते हैं। जो स्वयं मुस्लिम लीग की ‘पाकिस्तान निर्माण की मांग’ को अपने बौद्धिक पराक्रम से समर्थन दे रहे थे, वे झूठे लोग आज सावरकर को द्विराष्ट्र सिद्धांत का जनक बताते हैं। इतना झूठ परोसा गया है कि उसके लिए उनकी सात पुस्ते भी माफी मांगें तो कम है।

बहरहाल, यह माफी उन सब लोगों के मुंह पर जोरदार तमाचा है जो गाहे-बगाहे ‘भारत माता के सच्चे पुत्रों’ पर अपमानजनक टीका-टिप्पणी करते रहते हैं। वीर सावरकर को ‘भारत माता का निष्ठावान पुत्र’ महात्मा गांधीजी ने कहा है। अपने समाचार पत्र ‘यंग इंडिया’ में महात्मा गांधीजी ने 18 मई, 1921 को विनायक सावरकर और गणेश सावरकर, दोनों भाईयों के लिए लिखते हुए यह प्रश्न उठाया था कि इन दोनों प्रतिभाशाली भाईयों को ‘शाही घोषणा’ के बाद भी अब तक क्यों नहीं छोड़ा गया है। सावरकर उस समय अपने भाई के साथ कालापानी में कठोर सजा भोग रहे थे।

सोचिये, महात्मा गांधी स्वयं जिनका सम्मान करते थे, उनका अपमान आज कुछ लोग करते हैं और बड़ी बेशर्मी से ये खुद को गांधीवादी बताते हैं।

अब आईये, जानते हैं कि ‘द वीक’ ने मई-2021 के अपने अंक में खेद प्रकट करते हुए क्या लिखा है? ‘द वीक’ ने वीर सावरकर पर लिखे गए अपमानजनक और झूठे लेख के लिए माफी मांगते हुए लिखा है- “विनायक दामोदर सावरकर पर एक लेख 24 जनवरी, 2016 को ‘द वीक’ में प्रकाशित किया गया था। इसका शीर्षक ‘लैंब लायोनाइज्ड’ था और कंटेंट पेज में ‘हीरो टू जीरो’ के रूप में उल्लेख किया गया था, उसे गलत समझा गया और यह उच्च कद वाले वीर सावरकर की गलत व्याख्या करता है। हम वीर सावरकर को अति सम्मान की श्रेणी में रखते हैं। यदि इस लेख से किसी व्यक्ति को कोई व्यक्तिगत चोट पहुंची हो, तो पत्रिका प्रबंधन खेद व्यक्त करता है और इस तरह के प्रकाशन के लिए क्षमा चाहते हैं”।

उम्मीद है कि ‘द वीक’ का यह माफी बाकी सब ओछे मन के लोगों के लिए सबक बनेगी और वे देशहित में अपना सर्वस्व अर्पित करने वाली महान विभूतियों का अपमान करने से बाज़ आएंगे।

भारत के मार्क्सवादी इतिहासकारों के बौद्धिक घोटाले अर्थात इतिहास की हत्या …. भाग -1

श्रीनिवास आर्य

[भाग १]

पूरे विश्व में केवल भारत ऐसा देश है, जहाँ यहूदी, ईसाई, पारसी आदि विभिन्न मत-मजहबों के लोग आक्रांताओं से उत्पीडित होकर या जीविका की तलाश में अपनी धरती छोडकर यहाँ आए तो हिंदू धर्म की उदारता और हिंदूओं की सहिष्णुता के कारण उन लोगों को भारत में ससम्मान रहने का स्थान और अनुकुल वातावरण मिला. बहुत दिन नहीं हुए, जब पश्चिमी जगत, यूरोपीय विद्वान यहाँ तक कि ईसाई मिशनरी लोग भी यह स्वीकार करते थे कि दुनिया में सबसे सहिष्णु लोग हिंदू ही रहे है. १९वीं सदी में ईसाई मिशनरी यहाँ हिंदू देवी-देवताओं को गालियां दिया करते थे, लेकिन हिन्दूओं द्वारा इसके विरुद्ध कभी हिंसा का प्रदर्शन कभी नहीं सुना गया. हिंदू सहिष्णुता को मध्यकाल के इस्लामी आलिम, उलेमा भी अच्छी तरह जनते थे. गजनवी के समय भारत आए मशहूर यात्री और लेखक अल-बरूनी ने भी लिखा है कि अधिक से अधिक वे (हिंदू) लोग शब्दों से लडते है, लेकिन धार्मिक विवाद में कभी जान, माल या आत्मा को हानी नहीं पहुंचाते. हिंदू धर्म की इस उदारता और हिंदूओं की इस सहिष्णुता को सारी दुनिया हाल तक मानती थी, किंतु कुछ राजनीतिक उद्देश्यों से इस ऐतिहासिक सत्य पर कालिख पोतने का काम, या इस तथ्य को इतिहास के पन्नों से गायब करने की चेष्टा, या ऐतिहासिक तथ्यों की अनदेखी कर उल्टा हिंदू धर्म को ही एक संकुचित धर्म और हिंदूओं को अहिष्णु प्रजा के रुप में दुनिया के समक्ष प्रस्तुत करने का घृणित कृत्य १९६० के दशक से भारत के मार्क्सवादी इतिहासकारों (साहित्यकारों, लेखकों, संगठनों, संस्थाओं और पत्रकारों) ने शुरु किया है.

कुख्यात मार्क्सवादी इतिहासकार रोमिला थापर की पहली मशहूर पुस्तक “A History of India” पहली बार १९६६ में प्रकाशित हुई थी. बाद में “Early India” शीर्षक से नए रूप में केलिफोर्निया युनिवर्सिटी से छपी थी. थापर की इस पुस्तक को पढने पर असावधान पाठक ऐसे निष्कर्षों पर पहुंचता है कि (१) भारत में इस्लामी युग शुरु होने से पहले हिंदू राजाओं द्वारा मंदिर तोडना आम बात थी! (२) यह उनकी सत्ता की वैधता का प्रतिक था!! और (३) हिंदू राजाओं ने लगभग सारे बौद्ध और जैन मंदिरों को तोडकर मिटा दिए थे!!!

हिंदू धर्म और भारत के इतिहास का थोडा सा भी ज्ञान रखने वाले सामान्य व्यक्ति का रोमिला थापर का यह “इतिहास” पढकर मन ही मन में मुस्कुराना स्वाभाविक है, लेकिन यह तीनों बातें पश्चिमी दुनिया रोमिला थापर के सौजन्य से पिछले ५० वर्ष से सत्य जान और मान रही है, जब की भारतीय जनता को ही इतनी मोटी “ऐतिहासिक” बातों का पता ही नहीं!

क्या आपने अभी तक एक भी स्थान, या किसी बौद्ध, जैन या हिंदू मंदिर का नाम सुना है, जिसे किसी हिंदू राजा ने तोडकर मिटा दिया हो? आपने गजनी, बाबर, औरंगजेब आदि मंदिर-विध्वंसकों और मूर्ति-भंजक जेहादीयों के कुकर्मों के बारे में अवश्य सुना या पढा होगा, लेकिन मंदिरों को तोडने वाले एक भी कुख्यात हिंदू राजा के बारे में कुछ सुना-पढा नहीं है! यह कैसे संभव है? यह इसलिए संभव है कि हिंदू राजाओं द्वारा मंदिरों को तोडने की बात रोमिला थापर जैसे उन भारतीय मार्क्सवादी इतिहासकारों की जमात की मनगढंत बात है, जिसे केवल राजनीतिक कारणों से फैलायी जाती रही है. इस सफेद जूठ को फैलाने के पिछे मार्क्सवादी इतिहासकारों की इस जमात का एक उद्देश्य यह सिद्ध करना भी रहा है कि जैसे मुस्लिम काल में मुस्लिम शासकों ने हिंदू मंदिरों का विध्वंस किया, ठिक वैसे हिंदू राजाओं ने भी मुस्लिम-पूर्व काल में बौद्ध-जैन मंदिरों का विध्वंस किया था. यह जमात स्वयं मुस्लिम विद्वानों के इतिहास ग्रंथों में वर्णित इस्लाम की क्रूर प्रकृति और मुस्लिम शासकों की हिंदू मंदिरों को तोडने की “पवित्र” प्रवृत्ति पर तो पूरी तरह पर्दा नहीं डाल सकती, इस लिए हिंदू धर्म और हिंदू राजाओं को इस्लाम और मूर्ति-भंजक मुस्लिम शासकों के स्तर तक घसीट कर हिसाब बराबर करने का निष्फल प्रयास कर रही है.

“हिंदूओं ने भी बौद्ध-जैन मंदिर तोडे, उनके खून की नदियां बहा दी थी” आदि जुमलों का स्त्रोत किसी इतिहास ग्रंथ में नहीं मिलेंगे; इस दुष्प्रचार का स्त्रोत यहाँ की मार्क्सवादी राजनीति में है जहाँ हिंदू धर्म और हिंदूओं को बदनाम करने, उन्हें तोडने, बरगलाने, इस्लामी इतिहास का हर हाल में बचाव करने, जातिवादी वैमनस्य को बढाने, बौद्धो-जैनियों को भडकाने के लिए ऐसे मनगढंत कथनों का सहारा लिया जाता है. इनके मूल में मार्क्सवादी इतिहासकारों का फैलाया हुआ दुष्प्रचार ही होता है. विभिन्न राजनीतिक एक्टिविस्ट अपने-अपने फायदे के लिए इस दुष्प्रचार का भरपूर इस्तेमाल कर लेते है. इन लोगों को सत्य से कोई लेना-देना नहीं. फिलहाल काम निकलने से उनका मतलब होता है. ऐतिहासिक प्रमाणों की जरूरत ही क्या!!

अब हम रोमिला थापर और अन्य मार्क्सवादी इतिहासकारों द्वारा प्रचारित इसी बात को लें कि “हिंदू राजा भी मंदिर तोडा करते थे”. इस आधारहीन बकवास को सत्य मान लेनें से कितने भयंकर और दूरगामी परिणाम निकल सकते है इसका हम अनुमान भी नहीं लगा सकते. ठीक इसी चीज के आधार पर पिछले ५० वर्ष से भारत के तमाम मार्क्सवादी इतिहासकार और उनके अनुयायी भारतीय इतिहास में इस्लामी हिंसा और जुल्म को संतुलित करते रहे है, यह दावा करते हुए कि असहिष्णुता, अत्याचार और मंदिर-विध्वंस की प्रवृत्ति इस्लाम में ही नहीं, हिंदू धर्म में भी उतनी ही रही है. मार्क्सवादी इतिहासकारों के कथित “साम्प्रदायिकता-विरोधी अभियान” (वास्तव में “हिंदू-विरोधी अभियान”, क्योंकि इस गिरोह को इस्लामी साम्प्रदायिकता, जेहादी आतंकवाद आदि के विरुद्ध कभी कोई अभियान क्या, बयान तक देते नहीं देखा गया) में इस दुष्प्रचार का भरपूर इस्तेमाल होता रहा है.

यह जानकर किसी को भी आश्चर्य होगा कि इस पूर्णतः झूठी बात को भारत के मार्क्सवादी इतिहासकारों ने, कुछ ने अनजाने, कुछ ने जान-बूझकर, इतने सालों से केवल अपने पद-प्रतिष्ठा के वजन से, सरकारी पैसों के बल पर और राजनीतिक पार्टीओं के आशीर्वाद से बाजार में चलाया. इस अकादमिक (बौद्धिक) घोटाले की पूरी पडताल करने पर इन मार्क्सवादी “इतिहासकारों” की नग्न वास्तविकता उभर कर सामने आ जाती है कि वे वास्तव में कोई “विद्वान” नहीं, बल्कि हाई कमान्ड के संकेतों पर चलने वाले साधारण “पार्टी प्रचारक” रहे है.

To be continued…

‘मल्लपुरम’ के बाद अब ‘मलेरकोटला’ : कहीं नए ‘जूनागढ़’ और ‘हैदराबाद’ का निर्माण तो नहीं ?

1905 में जब सांप्रदायिक आधार पर अंग्रेजों ने बंगाल प्रांत का विभाजन किया तो ‘बंग भंग’ के नाम से विख्यात हुई उस घटना के बारे में आज कांग्रेस चाहे अपने इतिहास में कुछ भी लिखे, परंतु सच यह है कि उस समय उसकी स्थिति कुछ भी नहीं थी। उसकी कोई आवाज नहीं थी और कोई उसकी बात को सुनने को तैयार नहीं था ।1905 में कांग्रेस के 20 वर्षीय कार्यों और रीति नीति पर प्रकाश डालते हुए हेनरी डब्लू विंसन ने लिखा था – “राजनीतिक ज्ञान प्राप्ति और प्रशिक्षण का कांग्रेस एक आधार मंच था, परंतु दो क्षेत्रों में कांग्रेस का प्रभाव दिखाई नहीं देता था- पहला भारत की तत्कालीन सरकार पर इसका कोई प्रभाव नहीं था और दूसरा अंग्रेजों के मत अर्थात भारत पर शासन करने के ढंग को भी यह प्रभावी ढंग से कतई प्रभावित नहीं कर पाई थी। बस 20 वर्षों में इसने बढ़िया से बढ़िया प्रस्ताव मात्र ही पारित किए थे और राजा के पास अपने प्रतिनिधिमंडल भेजे थे। प्राय: राजशाही ने कई अवसरों पर इनके प्रतिनिधि मंडलों से मिलना तक स्वीकार नहीं किया था। इंग्लैंड में तो लोग यह भी नहीं जानते थे (चार छ: लोगों को छोड़कर)कि कांग्रेस क्या है? कहां हर वर्ष सम्मेलन करती है) क्या बोलती है? उसकी क्या मांगे हैं? उसका क्या उद्देश्य है? – इसे कोई जानता तक नहीं था । इसलिए कोई कांग्रेस की परवाह भी नहीं करता था।”
उस समय 20 वर्ष की युवा कांग्रेस ने ‘बंग भंग’ की घटना को सहजता से स्वीकार कर लिया था। हर व्यक्ति के जीवन के पहले 20 वर्ष ऐसे होते हैं जिसमें उसके भीतर पड़े संस्कार जीवन भर उसका साथ देते हैं। कांग्रेस के साथ भी यही हुआ। सांप्रदायिक आधार पर अपने आका अंग्रेजों के द्वारा बंगाल का किया गया विभाजन जैसे इसने स्वीकार किया अर्थात उसे उचित मानकर उसका विरोध नहीं किया, यही संस्कार इसके लिए आगे के लिए एक संस्कार के रूप में मान्यता प्राप्त कर गया । जिसे यह आज तक देश हितों को गिरवी र कर भी स्वीकार किए हुए हैं।
उस समय यह एक ब्रिटिश राजभक्त (राष्ट्रभक्त नहीं) संस्था के रूप में अपना काम कर रही थी और बाद में भी इसी रूप में काम करती रही। इस प्रकार स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात सांप्रदायिक आधार पर प्रदेशों का गठन करना और उस पर अपनी सहमति व्यक्त करना कांग्रेस का संस्कार बन गया । स्वतंत्र भारत में कांग्रेस ने अपने शासन में इसी नीति पर काम करते हुए सांप्रदायिक आधार पर जहां पंजाब और जम्मू कश्मीर जैसे प्रदेशों का गठन किया वहीं मल्लपुरम ( मुस्लिम बहुल मुल्लापुरम) जैसे जिलों को बनाने में भी अपना सहयोग और समर्थन प्रदान किया।
अब पंजाब में कांग्रेस के ही मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने अपनी पार्टी के इसी मूल संस्कार का परिचय देते हुए पंजाब में ‘ईद के मुबारक मौके’ पर मुस्लिम बहुल मलेरकोटला को एक नया जिला बना डाला है। इस पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अमरिंदर सिंह सरकार के इस निर्णय को पूर्णतया असंवैधानिक बताते हुए अपनी टिप्पणी कठोर टिप्पणी की है । उन्होंने कहा है कि पंजाब में मलेरकोटला नाम के नए जिले का निर्माण कांग्रेस की विभाजनकारी नीति है। आस्था और धर्म के आधार पर कोई भी भेद भारत के संविधान की भावना के विपरीत है। मत और मजहब के आधार पर किसी प्रकार का विभेद भारत के संविधान की मूल भावना के विपरीत है। इस समय, मलेरकोटला (पंजाब) का गठन किया जाना कांग्रेस की विभाजनकारी नीति का परिचायक है।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का उपरोक्त कथन यदि इतिहास के संदर्भ और परिप्रेक्ष्य में तर्क की कसौटी पर कस कर देखा जाए तो वह जो कुछ भी कह रहे हैं वह पूर्णत: सही है। आज के पाकिस्तान और बांग्लादेश के निर्माण के संदर्भ में योगी आदित्यनाथ की इस टिप्पणी को तर्क तुला पर कसकर देखा जाना चाहिए । आजादी पूर्व जहां जहां मुस्लिम बहुल क्षेत्र थे वहीं हम देख रहे हैं कि आज के विश्व मानचित्र पर दो मुस्लिम देश भारत की धरती पर खड़े हैं। कहीं हम मुस्लिम बहुल जिलों को अलग प्रशासन देकर देश के भीतर उन्हीं ‘जूनागढ़’ और ‘हैदराबादों’ का निर्माण तो नहीं कर रहे हैं जिनके विरुद्ध सरदार पटेल को लड़ना पड़ा था और उन्होंने ‘एक भारत’ का निर्माण करने में अपना ऐतिहासिक और प्रशंसनीय योगदान दिया था। अपना संख्या बल किसी क्षेत्र या जिले विशेष में बढ़ाकर अलग होने की यह मांग निश्चित रूप से विचारणीय है। विशेष रूप से तब जब संविधान इस प्रकार की मांगों को पूर्णतया अनुचित करार देता है। यदि हम संख्या बल के आधार पर इस प्रकार जिलों का निर्माण सांप्रदायिक आधार पर करेंगे तो कल को किसी प्रदेश को भी ‘मल्लपुरम’ या ‘मलेरकोटला’ बनाने की मांग की जाएगी और फिर धीरे-धीरे वह पाकिस्तान और बांग्लादेश के रूप में हमारे सामने खड़ा होगा।
जब देश के नागरिकों के मध्य धर्म, जाति और लिंग के आधार पर किसी प्रकार का भेद करना संविधान विरोधी है तो सांप्रदायिक आधार पर जिलों का गठन करना पूर्णतया संविधान विरोधी क्यों नहीं है ? निश्चित रूप से है। यह तब और अधिक विचारणीय हो जाता है कि जब मुस्लिम बहुल जिलों में एसएसपी और जिलाधिकारी की नियुक्ति भी एक मुस्लिम के रूप में ही की जाती है। पहले तो जिला सांप्रदायिक आधार पर शासन की संविधान विरोधी विभेदकारी नीति को दिखाते हुए बनाया गया जो अन्यायपरक और सरकार के पक्षपाती दृष्टिकोण और मुस्लिम तुष्टीकरण की पुष्टि करता है और फिर उसमें मुस्लिम जिलाधिकारी और एसएसपी देना और भी अधिक अन्यायपरक हो जाता है। क्योंकि पक्षपात के आधार पर बनाए गए ये अधिकारी ऐसे जिलों में रहने वाले हिंदू या दूसरे संप्रदाय के लोगों के साथ अन्याय और पक्षपात का आचरण नहीं करेंगे इस बात की क्या गारंटी है ? इस प्रकार के संविधान विरोधी और राष्ट्रविरोधी कार्य की ओर संविधान की सौगंध खाकर शासन चलाने वाले लोग और पूरी नौकरशाही आंख उठाकर तक नहीं देखती।
शासन की इस प्रकार की अन्यायपूर्ण और पक्षपाती नीतियों का लाभ उठाने के लिए मुस्लिम बड़ी तेजी से अपने आपको देश के दूसरे शहरों व कस्बों में भी ध्रुवीकृत करते हुए एक स्थान पर बसाते जा रहे हैं, जिससे भविष्य के लिए अच्छे संकेत नहीं मिल रहे हैं।
यह जिले उनके लिए उदाहरण का काम करेंगे और छिटपुट इधर-उधर अनेकों जिलों पर अपना वर्चस्व स्थापित कर अर्थात अपना संख्या बल बढ़ाकर वह इसी आधार पर संविधान विरोधी जिलों के निर्माण की प्रक्रिया को तेज करेंगे।
मलेरकोटला का मूल नाम मौला खान था। जो एक छोटी सी रियासत हुआ करती थी । 1947 में वह पेप्सू में अर्थात् पटियाला एंड ईस्ट पंजाब स्टेट्स यूनियन में सम्मिलित हुई थी। तब से दबी हुई इसकी भावना अब जाकर फलीभूत हुई है अर्थात भारत में रहकर अपनी अलग पहचान स्थापित करने में ‘मौला खान’ अब जाकर सफल हुआ है। यह सब कांग्रेस की कृपा से हुआ है।
इसी प्रकार की सरकारी नीतियों का लाभ उठाते हुए देश में बड़ी तेजी से हर जिले में शरीयत अदालतें स्थापित करने की ओर भी कुछ इस्लामिक संगठन सक्रिय होते जा रहे हैं। जिनका ‘सेकुलर पार्टीज’ की ओर से कोई विरोध नहीं आ रहा है। सारे के सारे सेकुलर राजनीतिक दल हिंदू विरोधी से राष्ट्र विरोधी होने तक की स्थिति तक पहुंच गए हैं, परंतु वे अपने इस रूप को भी पूर्णतया संवैधानिक मान रहे हैं। बेहयाई और बेशर्मी की सारी सीमाएं लांघ चुके हैं। जिससे मुस्लिम उग्र संगठनों को और भी अधिक बल मिल रहा है। यदि भाजपा या हिंदूवादी संगठन और राजनीतिक दल इसका विरोध करते हैं तो उन्हें सांप्रदायिक कहकर कोसा जाता है और बड़ी तेजी से सेकुलर कीड़ों की ओर से उन पर कीचड़ उछाला जाता है। जो लोग इतिहास को दृष्टिगत रखते हुए और मुस्लिम सांप्रदायिकता के दंश को समझते हुए इन धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों को समझाने का प्रयास करते हैं उन्हें भी यह चुप रहने के लिए प्रेरित करते हैं।
8 जुलाई 2018 को देश के हर जिले में शरीयत अदालतें स्थापित करने की मांग को लेकर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की ओर से दिए गए प्रस्ताव पर कानून राज्य मंत्री पीपी चौधरी ने कहा था कि देश में ‘समानांतर सिस्टम बनाना संविधान की मंशा के खिलाफ है।’ देश के कानून मंत्री की यह बात एकदम सही है, लेकिन इस पर इसी प्रकार का स्पष्ट और कड़ा स्टैंड देश के विपक्ष की ओर से भी आना चाहिए। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश का विपक्ष अपनी भूमिका को भूलकर राष्ट्रद्रोही शक्तियों के हाथों में खेल रहा है। जिसका परिणाम देश को भुगतना पड़ेगा।
पंजाब के कांग्रेसी मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की संवैधानिक और लोकतांत्रिक बात का सम्मान न करते हुए उल्टे उन्हें ही सीख दे डाली है कि उत्तर प्रदेश पंजाब के मामलों से दूर रहे। पिछले चार वर्षों से राज्य में सांप्रदायिक कलह को बढ़ावा दे रहे है। विभाजनकारी और विनाशकारी भाजपा सरकार के तहत यूपी की तुलना में हम बहुत बेहतर स्थिति में हैं।
उन्होंने आगे योगी आदित्यनाथ से सवाल पूछते हुए कहा कि वे पंजाब के लोकाचार या मलेरकोटला के इतिहास के बारे में क्या जानते हैं? कैप्टन अमरिंदर सिंह ने एक बयान में कहा भारतीय संविधान के बारे में वो क्या जानते हैं, जिसे यूपी में उनकी अपनी सरकार द्वारा हर दिन बेशर्मी से रौंदा जा रहा है?”
ऐसा ही सवाल सरदार कैप्टन अमरिंदर सिंह से भी पूछा जा सकता है कि वह जिन्नाह , मुस्लिम लीग और उनके भारत में रह गए मानस पुत्रों के इतिहास, आचरण और सभ्यता के बारे में क्या जानते हैं ?
सरदार कैप्टन अमरिंदर सिंह को यह कौन बताए कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के शासनकाल में उत्तर प्रदेश में एक भी सांप्रदायिक दंगा नहीं हुआ है। जबकि उससे पहले सपा सरकार में सांप्रदायिक दंगों की बाढ़ आ गई थी ।मुसलमान उत्तर प्रदेश में सपा की सरकार की अपेक्षा योगी सरकार में अधिक सुरक्षित है और पूरा प्रदेश शांतिपूर्ण ढंग से प्रगति की राह पर आगे बढ़ रहा है।
वास्तव में देश के राजनीतिक दल सत्य को इसी प्रकार गेंद बनाकर उछलते रहते हैं और जिसके पाले में गेंद जाती है वह उसमें बल्ला मारकर दूसरी तरफ फेंक देता है। सही को सही समझने और कहने की शक्ति देश के राजनीतिक दलों और राजनीतिक लोगों के भीतर से सर्वथा लुप्त हो गई है। यही कारण है कि राजनीतिक विश्वास का संकट आज भी बना हुआ है।
देश के जनमानस को किसी भी राजनीतिक दल और किसी भी प्रदेश की की सरकार की ऐसी कार्यशैली की निंदा करनी चाहिए जिससे देश में अलगाववाद को बढ़ावा मिलता दिखाई दे । देश के नागरिकों को यह निर्णय लेना चाहिए कि जो लोग देश की हिंदू विरोध से राष्ट्र विरोध करते पाए जाएंगे उनका सामाजिक राजनीतिक बहिष्कार किया जाएगा। इतिहास की घटनाएं केवल इतिहास की पुस्तकों में लिखकर बंद करने के लिए नहीं होती हैं बल्कि वह आने वाली पीढ़ियों को यह दिखाने, समझाने और बताने के लिए होती हैं कि अतीत में अमुक – अमुक मूर्खताओं के अमुक – अमुक घातक परिणाम निकले हैं, इसलिए – “इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के….” अर्थात यह गलतियां भविष्य में नहीं दोहरानी हैं।

व्यापार रिश्वतखोरी जोखिम सूचकांक में भारत की लम्बी छलांग

कोरोना महामारी के बीच एक अंतरराष्ट्रीय संस्था (TRACE) ने विश्व के 197 देशों में व्यापार रिश्वतखोरी जोखिम के स्तर पर एक प्रतिवेदन जारी किया था। चूंकि भारत में कोरोना की दूसरी लहर जारी है अतः इस प्रतिवेदन पर शायद किसी की नजर ही नहीं गई। इस प्रतिवेदन के अनुसार विश्व के 197 देशों में से भारत में व्यापार रिश्वतखोरी जोखिम का स्तर बहुत तेजी से कम हुआ है। विश्व के 197 देशों की इस सूची में वर्ष 2014 में भारत का स्थान 185वां था जो वर्ष 2020 में 77वें स्थान पर पहुंच गया है, अर्थात 6 वर्षों के दौरान भारत ने 108 स्थानों की लम्बी छलांग लगाई है।

भारत के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि है और इसे प्राप्त करने के लिए देश में कई प्रयास किए गए हैं। भारत में व्यापार भ्रष्टाचार एवं रिश्वतखोरी जोखिम के स्तर में इतना बड़ा सुधार मुख्य रूप से इसलिए देखने में आया है क्योंकि देश में केंद्र सरकार ने समाज के सभी क्षेत्रों से भ्रष्टाचार एवं रिश्वतखोरी को हटाने का अभियान छेड़ दिया था। साथ ही, केंद्र सरकार द्वारा भ्रष्टाचार रोकथाम एवं निवारण कानून, 1988 में, 30 वर्षों के बाद, बहुत संशोधन करते हुए इसे बहुत कठोर बना दिया गया है, जिसके तहत अब रिश्वत देने वाला एवं रिश्वत लेने वाला दोनों ही दोषी माने गए हैं। साथ ही, सरकार ने अपने दैनिक कार्यों में तकनीक के उपयोग को भी बढ़ाया है। ई-टेंडरिंग, ई-परोक्योर्मेंट एवं विपरीत नीलामी जैसे नियमों को लागू करने से भी बहुत फर्क पड़ा है एवं इससे अभिशासन में पारदर्शिता बढ़ी है।

साथ ही, अब सरकारी काम को डिजिटल प्लेटफोर्म पर किया जाने लगा है। जिसके कारण अब अधिकारियों/कर्मचारियों एवं जनता के बीच सीधा सीधा सम्पर्क कम ही रह गया है। फिर चाहे वह आयकर विभाग हो अथवा नगर निगम एवं नगर पालिकाएं, बिजली प्रदान करने वाली कम्पनियां भी अब ऑनलाइन बिल जारी करती हैं। देश में सबसे बड़ा अभियान तो जन-धन योजना के अंतर्गत चलाया गया जिसके अंतर्गत करोड़ों देशवासियों के विभिन्न बैकों में 40 करोड़ से अधिक जमा खाते खोले गए हैं, इनमे 22 करोड़ महिलाओं के खाते भी शामिल हैं। इन जमा खातों में आज विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत प्रदान की जाने वाली लगभग सभी प्रकार की सहायता राशियां एवं सब्सिडी का पैसा केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा सीधे ही हस्तांतरित किया जा रहा है। मनरेगा योजना की बात हो अथवा केंद्र सरकार की अन्य योजनाओं की बात हो, पहिले ऐसा कहा जाता था कि केंद्र से चले 100 रुपए में से शायद केवल 8 रुपए से 16 रुपए तक ही अंतिम हितग्राही तक पहुंच पाते हैं, परंत आज हितग्राहियों के खातों में सीधे ही राशि के जमा करने के कारण बिचोलियों की भूमिका एकदम समाप्त हो गई है एवं हितग्राहियों को पूरा का पूरा 100 प्रतिशत पैसा उनके खातों में सीधे ही जमा हो रहा है। साथ ही आज, मनरेगा योजना के अंतर्गत हजारों करोड़ रुपए की राशि भी ग्रामीण इलाकों में मजदूरों के खातों में सीधे ही हस्तांतरित की जा रही है तथा रुपए 2000 प्रति तिमाही की दर से लगभग 11 करोड़ किसानों के खातों में भी सीधे ही हस्तांतरित हो रहे हैं। इस तरह भ्रष्टाचार पर सीधे ही अंकुश लगा है।

भारत में व्यापार रिश्वतखोरी जोखिम में हुए सुधार के चलते अब केंद्रीय सतर्कता आयोग (CVC) के द्वारा भ्रष्टाचार एवं रिश्वतखोरी के मामलों में सीधे ही की जाने वाली कार्यवाही की संख्या में भी कमी देखने में आई है। वर्ष 2015 में जहां 3,592 प्रकरणों में केंद्रीय सतर्कता आयोग ने सीधे ही कार्यवाही की थी वहीं वर्ष 2019 में केवल 1,508 प्रकरणों में सीधी कार्यवाही की गई थी। इसी प्रकार, इस दौरान बाहरी संस्थानों से भ्रष्टाचार एवं रिश्वतखोरी से सम्बंधित प्राप्त शिकायतों की संख्या में भी कमी आई है। वर्ष 2014 में केंद्रीय सतर्कता आयोग को भ्रष्टाचार एवं रिश्वतखोरी से सम्बंधित 62,362 शिकायतें प्राप्त हुई थीं, जो वर्ष 2019 में घटकर 32,579 रह गईं थीं।

प्रायः यह भी पाया गया है कि व्यापार भ्रष्टाचार एवं रिश्वतखोरी जोखिम का स्तर यदि किसी देश में अधिक रहता है तो उस देश के सरकारी खजाने में आय कम हो जाती है क्योंकि भ्रष्टाचार एवं रिश्वतखोरी के माध्यम से उस रकम का कुछ हिस्सा कुछ अधिकारियों की जेब में पहुंच जाता है। इससे उस देश द्वारा विकास कार्यों पर ख़र्च की जाने वाली रकम पर विपरीत असर पड़ता है एवं उस देश की विकास दर भी प्रभावित होने लगती है। भारत में व्यापार भ्रष्टाचार एवं रिश्वतखोरी जोखिम के स्तर में कमी का फायदा जीएसटी संग्रहण में लगातार हो रही वृद्धि के रूप में भी देखने में आया है। माह अप्रेल 2021 के दौरान देश में जीएसटी संग्रहण, पिछले सारे रिकार्ड को पार करते हुए, एक नए रिकार्ड स्तर पर पहुंच गया है। माह अप्रेल 2021 में 141,384 करोड़ रुपए का जीएसटी संग्रहण हुआ है। यह मार्च 2021 माह में संग्रहित की गई राशि से 14 प्रतिशत अधिक है। पिछले 7 माह से लगातार जीएसटी संग्रहण न केवल एक लाख रुपए की राशि से अधिक बना हुआ है बल्कि इसमें लगातार वृद्धि दृष्टिगोचर हो रही है। यह भी देश में भ्रष्टाचार के स्तर में कमी होने का एक संकेत माना जा सकता है।   

प्रायः यह पाया गया है कि जिन जिन देशों में व्यापार भ्रष्टाचार एवं रिश्वतखोरी जोखिम कम है उन देशों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश बहुत तेजी से बढ़ता है क्योंकि इससे विदेशी निवेशकों का विश्वास उस देश की अर्थव्यवस्था में बढ़ता है और भारत भी इसका अपवाद नहीं हैं। भारत में शुद्ध विदेशी निवेश, वर्ष 2013-14 में, 2,200 करोड़ अमेरिकी डॉलर का रहा था, जो वर्ष 2019-20 में बढ़कर 4,300 करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो गया है। वर्ष 2010-11 में तो यह मात्र 1,180 करोड़ अमेरिकी डॉलर का ही था। वर्ष 2010-11 एवं 2019-20 के बीच देश में शुद्ध विदेशी निवेश में 263 प्रतिशत की वृद्धि आंकी की गई है।

हालांकि व्यापार भ्रष्टाचार एवं रिश्वतख़ोरी जोखिम के स्तर एवं देश के सकल घरेलू उत्पाद में कोई सीधा सम्बंध तो पता नहीं चलता है परंतु जब इसका आंकलन कई देशों के व्यापार भ्रष्टाचार एवं रिश्वतखोरी जोखिम के स्तर को उस देश के सकल घरेलू उत्पाद में हो रही वृद्धि दर से जोड़कर देखा गया तो पाया गया है कि जिन जिन देशों में व्यापार भ्रष्टाचार एवं रिश्वतखोरी जोखिम का स्तर कम है उन देशों की अर्थव्यवस्था में विकास की दर अधिक रही है और भारत में भी यह दृष्टिगोचर है। विश्व के अन्य देशों यथा, भारत, ब्रिटेन, ईजिप्ट, ग्रीस, इटली आदि देशों में भी व्यापार भ्रष्टाचार एवं रिश्वतखोरी जोखिम के स्तर में कमी देखी गई है तो उसी अवधि में इन देशों की अर्थव्यवस्था में विकास की दर तेज हुई है। वहीं दूसरी ओर चीन, दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील, तुर्की, रूस जैसे देशों में व्यापार भ्रष्टाचार एवं रिश्वतखोरी जोखिम के स्तर में बढ़ोतरी देखी गई है तो उसी अवधि में इन देशों की अर्थव्यवस्था में विकास की दर भी कम हुई है।

भारत में व्यापार भ्रष्टाचार एवं रिश्वतखोरी जोखिम कम होते जाने का तात्पर्य यह कदाचित नहीं है कि देश में भ्रष्टाचार एवं रिश्वतखोरी समाप्त हो गई है। हां, इस सूचकांक में लगातार हो रहे सुधार का आश्य यह जरूर है कि अन्य देशों की तुलना में भारत में भ्रष्टाचार एवं रिश्वतखोरी कम हो रही है। परंतु अभी भी पूरे विश्व में 76 देश ऐसे हैं जहां भारत की तुलना में भ्रष्टाचार एवं रिश्वतखोरी कम है। उक्त सूचकांक में लगातार हो रहे सुधार का आश्य यह जरूर लगाया जा सकता है कि देश में अब भ्रष्टाचार एवं रिश्वतखोरी लगातार कुछ कम हो रही है।

जब हरी-भरी पृथ्वी होगी, तभी देश में खुशहाली होगी

 संजय सक्सेना
                                                      

   बोतल में आम ‘माजा’ है नाम। भले ही यह स्लोगन व्यवसायिक हो,लेकिन इसमें कई निहितार्थ छिपे हुए हैं। कोरोना महामारी के दौर मे तो यह ’स्लोगन’ और भी सामायिक हो जाता है। ठीक वैसे ही जैसे अक्सर यह कहा जाता है ‘जैसा खाएं अन्न,वैसा बने मन।’ या फिर अक्सर इसी तरह की कुछ और कहावतें सुनने को मिलती है जैसे ‘जो बोएंगे,वही काटेंगे।’ अथवा ‘बोया पेड़ बबुल का तो आम कहां से होएं।’ इन बातो और कहावतों में कुछ नया नहीं हैं। सब जानते हैं,लेकिन इस पर अमल मुट्ठी भर लोग ही करते हैं। इसी लिए तो जो आक्सीजन हमें पेड़-पौधों से मिलती है, उसे सिलेंडर और कंसंट्रेटर में तलाश रहे हैं। ऐसा नहीं है कि हमें इस बात का अहसास नहीं था कि जिस तरह से जंगल और वन कट रहे हैं, विकास के नाम पर बड़े-बड़े पेड़ों को उखाड़ कर वहां कंकरीट का ‘जंगल’ बसाया जा रहा था। पहाड़ तोड़े जा रहे थे। उससे हमें कभी न कभी आक्सीजन की समस्या से जुझना ही पड़ेगा। अगर इस बात का अहसास नहीं होता तो आज से करीब 50 वर्ष पूर्व पर्यावरणविद्ों को पेड़ बचाने के लिए ‘चिपको आंदोलन’ नहीं चलाना पड़ता।

चिपको आन्दोलन एक पर्यावरण-रक्षा का आन्दोलन था। यह भारत के उत्तराखण्ड राज्य (तब उत्तर प्रदेश का भाग) में किसानो ने वृक्षों की कटाई का विरोध करने के लिए किया था। वे राज्य के वन विभाग के ठेकेदारों द्वारा वनों की कटाई का विरोध कर रहे थे और उन पर अपना परम्परागत अधिकार जता रहे थे। यह आन्दोलन तत्कालीन उत्तर प्रदेश के चमोली जिले में सन 1973 में प्रारम्भ हुआ। एक दशक के अन्दर यह पूरे उत्तराखण्ड में फैल गया था। चिपको आन्दोलन की एक मुख्य बात थी कि इसमें स्त्रियों ने भारी संख्या में भाग लिया था। इस आन्दोलन की शुरुवात 1970 में भारत के प्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुन्दरलाल बहुगुणा, कामरेड गोविन्द सिंह रावत, चण्डीप्रसाद भट्ट तथा श्रीमती गौरादेवी के नेत्रत्व मे हुई थी। कहा जाता है कि कामरेड गोविन्द सिंह रावत ही चिपको आन्दोलन के व्यावहारिक पक्ष थे, जब चिपको की मार व्यापक प्रतिबंधों के रूप में स्वयं चिपको की जन्मस्थली की घाटी पर पड़ी तब कामरेड गोविन्द सिंह रावत ने झपटो-छीनो आन्दोलन को दिशा प्रदान की। चिपको आंदोलन वनों का अव्यावहारिक कटान रोकने और वनों पर आश्रित लोगों के वनाधिकारों की रक्षा का आंदोलन था। इसकी वजह थी रेणी में 2400 से अधिक पेड़ों को काटा जाना था, इसलिए इस पर वन विभाग और ठेकेदार जान लडाने को तैयार बैठे थे जिसे गौरा देवी जी के नेतृत्व में रेणी गांव की 27 महिलाओं ने प्राणों की बाजी लगाकर असफल कर दिया था।महिलाएँ पेड़ से चिपककर खड़ी हो गई थीं और पेड़ों को कटने नहीं दिया था।‘चिपको आन्दोलन’ का स्लोगन काफी कुछ कहता था,’-

                       क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार।
                       मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार।

 चिपको आंदोलन की याद ऐसे ही नहीं ताजा हो गई हैं आज पूरे देश के शहरी इलाकों में ऑक्सीजन को लेकर त्राहिमाम मचा हुआ,तब हमें करीब आधे दशक पूर्व शुरू किए गऐ चिपको आंदोलन की सार्थकता समझ में आ जाना चाहिए । यह वह समय समय जब मरीज आक्सीजन के लिए तड़प रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट तक आक्सीजन की किल्लत कैसेे पूरी की जाए इसमें उलझा हुआ है। वह सरकारों पर सख्ती बरत रहा हैं, सरकारें ऑक्सीजन के उत्पादन और वितरण में रात दिन लगी हुई हैं। अस्पतालों में ऑक्सीजन के संयत्र लगाए जा रहे हैं, ऑक्सीजन वितरण के लिए विदेशों से टैंकर मंगाए जा रहे हैं। समाजसेवी संस्थाएं और सक्षम लोग इन ऑक्सीजन कंसंट्रेटर का वितरण कर रहे हैं। यहां पर  कालाबाजारी पर चर्चा आवश्यक नहीं है। इस पर काफी कुछ लिखा जा चुका है। ऑक्सीजन बेहद आवश्यक यह बात हम समझते तो हैं,परंतु इसके लिए गंभीर नहीं रहते हैं। क्या समय नहीं आ गया है कि हम सब गंभीरता से यह बात सोचे कि हमने प्रकृति के साथ अब तक क्या किया। क्या हमारे वायुमंडल में मौजूद ऑक्सीजन की मात्रा पर इन कंसंट्रेटर का असर नहीं पड़ेगा? गर्मी के बढ़ने के साथ एरकंडीशनर का उपयोग बढ़ेगा और कार्बन उत्सर्जन में बढ़ोतरी होगी।

दरअसल, आधुनिकता की अंधी दौड़ में हम सब इतने अंधे हो गए कि हमें भारतीय मूल्यों की भी चिंता नहीं रह गई है। यह सब तब हो रहा है जबकि हमारे देश में प्रकृति को लेकर लगाव प्राचीन काल से रहा है। प्रकृति और पेड़ों को तो हमारे यहां भगवान मानकर पूजने की परंपरा है। हमारे पौराणिक ग्रंथों में वृक्षों और पौधों को लेकर कई तरह की मान्यताओं प्रचलित है। पीपल, वट, तुलसी, आदि की तो पूजा तक की जाती रही है। इन वृक्षों और पौधों को लेकर म्त्यु लोक में जो मान्यता है वो उनको धर्म से भी जोड़ती हैं। वैदिक साहित्य में भी वृक्ष की महिमा का विस्तार से उल्लेख मिलता है। हिंदू धर्म के अलावा बौद्ध,सिख और जैन धर्म में भी वृक्षों की पूजा की परंपरा रही है। बुद्ध और तीर्थंकर के नाम के साथ एक पवित्र वृक्ष भी जुड़ा हुआ है जिसे बोधिवृक्ष कहते हैं। हिंदू धर्म में भी कल्पवृक्ष की मान्यता है। इस मान्यता के अनुसार देवता और असुरों के समुद्र मंथन के समय ही कल्पवृक्ष का जन्म हुआ जिसको स्वर्ग में इंद्र देवता के नंदनवन में लगा दिया गया। लोक में इस कल्पवृक्ष की मान्यता के अलावा इसका उल्लेख कई ग्रंथों में मिलता है।
पेड़ो-पौधौ को लेकर हमारे पूर्वज कितना जागरूक थे,यह किताबों में भी पढ़ने और बुजुर्गो से सुनने को मिल जाता है। आधुनिकता और शहरीकरण के अंधानुकरण के दबाव में हमने खुद को प्रकृति के दूर करना आरंभ किया। विकास के नाम पर प्रकृति से खिलवाड़ का खेल खतरनाक स्तर पर पहुंच गया। पेड़ों की जगह गगनचुंबी इमारतों ने ले ली। हाइवे और फ्लाइओवर के चक्कर में हजारों पेड़ काटे गए। ये ठीक है कि विकास होगा तो हमें इन चीजों की जरूरत पड़ेंगी लेकिन विकास और प्रकृति के बीच संतुलन बनाना भी तो हमारा ही काम है। यह काम कोई मुश्किल भी नही है। अगर हम पेड़ों को काट रहे हैं तो क्या उस अनुपात में पेड़ लगा नहीं सकते हैं?इसमें क्या समस्या है। यह जन-भागीदारी का काम है। हमने नीम, पीपल और बरगद के पेड़ हटाकर फैशनेबल पेड़ लगाने आरंभ कर दिए थे, बगैर ये सोचे समझे कि इसका पर्यावरण और प्रकृति पर क्या असर पड़ेगा। आज जब ऑक्सीजन को लेकर हाहाकार मचा है तो हमें फिर से नीम और पीपल के पेड़ों की याद आ रही है। आज मरीज की जान बचाने के लिए कंसंट्रेटर का उपयोग जरूरी है पर उतना ही जरूरी है उसके उपयोग को लेकर एक संतुलित नीति बनाने की भी।

आज हम कोरोना की महामारी से लड़ रहे हैं, ये दौर भी निकल जाएगा। हम इस महामारी के प्रकोप से उबर भी जाएंगे लेकिन प्रकृति को जो नुकसान हमने पहुंचा दिया है उसको जल्द पाटना मुश्किल होगा। कोरोना की महामारी ने हमें एक बार इस बात की याद दिलाई है कि हम भारत के लोग अपनी जड़ों की ओर लौटें, हमारी जो परंपरा रही है, हमारे पूर्वजों ने जो विधियां अपनाई थीं, उसको अपनाएं। हम पेड़ों से फिर से रागात्मक संबंध स्थापित करें, उनको अपने जीवन का हिस्सा बनाएं। इसके अलावा पेड़ों को बचाने के लिए हमें यह कहने में कतई संकोच नहीं होना चाहिए,चलो एक बार फिर चिपको आंदोलन चलाया जाए ताकि हमारी धरा फिर हरी-भरी आक्सीजन युक्त और प्रदूषण मुक्त हो सकें।

ईद के दिन शंकर पंडित के धर्मान्‍तरण को क्‍या समझा जाए ?

डॉ. मयंक चतुर्वेदी

इस्‍लाम एक ऐसी विचारधारा है जो हर हाल में हर किसी को अपने में लाना चाहती है, फिर उसके लिए उसे कुछ भी करना पड़े, यदि कोई प्‍यार से आ जाए तो बहुत ही अच्‍छा है, नहीं तो जिहाद जारी रहेगा। आज यह जो संकट है, वह पूरी दुनिया के लिए बड़ा है, जिसे सभी को गहराई से समझना होगा। वस्‍तुत: ईद के दिन घटी घटना ने एक बार फिर से सन्‍न कर दिया है, आश्‍चर्य यह है कि ऐसी घटनाएं उस देश में घट रही हैं जो धर्मनिरपेक्ष है। हाल की घटना झारखंड के भागलपुर में सनोखर जलाहा गांव के निवासी मोहम्मद खुर्शीद मंसूरी से जुड़ी है जिसने डकैता गांव के 45 वर्षीय शंकर पंडित को ईद के दिन नमाज पढ़ाकर धर्मांतरित करने का प्रयास किया। धर्म परिवर्तन करने के बाद खुर्शीद अंसारी ने शंकर पंडित का नाम सलीम मंसूरी रख दिया। सोचने में बार-बार यही आ रहा है कि वह क्‍या मनोदशा और विवशता होगी जिसमें शंकर को फंसजाना पड़ा होगा? यह सोचने भर से लगता है कि भारत में धर्मान्‍तरण का कुचक्र कितना गहरा है।

शंकर पंडित से पूछे जाने पर उन्होंने अपनी आर्थ‍िक विवशता एवं लगातार के सम्‍मोहन के बारे में बताया, कहा कि वे करीब डेढ़ साल से उसकी दुकान में काम कर रहे थे। हर रोज उनकी बातों ने धीरे-धीरे उनके मन में जहर घोलने का काम किया, फिर मस्जिद में ले जाकर नमाज पढ़वाई गई और इस तरह से मुझे मुस्लिम बनने को मजबूर किया गया। जब इस घटना की जानकारी शंकर पंडित की पत्नी रूपाली देवी एवं पुत्र जीतू पंडित को हुई तो वह दोनों ही डकैता ग्राम प्रधान नीलमणि मुर्मू के पास पहुंचे और उनसे अपनी आपबीती सुनाते हुए सहायता की गुहार लगाई।

वस्‍तुत: विषय यहां धर्म बदलने का नहीं है। भारतीय संविधान अपनी स्‍वेच्‍छा से धर्म को मानने और पांथिक बदलाव की इजाजत देता है, किंतु इसमें गौर करने की बात है कि यह इच्‍छा व्‍यक्‍ति की अंतरआत्‍मा की होनी चाहिए, वह भयवश, परिस्‍थ‍ितियों से विवश किया गया नहीं होना चाहिए। संविधान ऐसा किए जाने वालों को दोषी मानकर सजा का प्रावधान करता है। भारत में आज बहुसंख्‍यक हिन्‍दू समाज ने अपने यहां के अल्‍पसंख्‍यकों को कई विशेष अधिकार दिए हैं। चाहता तो भारत भी अपने लिए पाकिस्‍तान वाला धर्मिक रास्‍ता चुन लेता, क्‍योंकि संविधान निर्माण करनेवाले विद्वानों में 95 प्रतिशत से भी अधि‍क बहुसंख्‍यक हिन्‍दू ही थे, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। अब लगता है कि कहीं कोई चूक हो गई है ? कारण स्‍पष्‍ट है भारत का बहुसंख्‍यक हिन्‍दू आज भी अपनी संस्‍कृति, अस्‍मिता, धर्म और बहू-बेटियों की इज्‍जत बचाता ही नजर आ रहा है।

यह इतिहास का सच है कि भारत विभाजन के बाद कई हिन्‍दू पाकिस्‍तान में रह गए थे, यह सोचकर भी दंगे की इस आंधी के गुजर जाने के बाद अब जीवन में शांति आ जाएगी, किंतु आज (पाकिस्‍तान-बांग्‍लादेश) के सच को दुनिया जान रही है । पाकिस्तान में 1947 से ही अल्पसंख्यक हिन्‍दू और सिखों का उत्पीड़न जारी है। वहां इनकी नाबालिग लड़कियों का अपहरण कर उनसे जबरन इस्लाम कबूल करवाकर मुस्लिम युवकों के साथ निकाह आम बात है। बंटवारे के बाद यहां कुल जनसंख्‍या 23 फीसदी गैर मुस्‍लिम थी अब यह चार प्रतिशत रह गई है। हिन्‍दू आवादी 14 फीसदी थी वह आज 1.6 फीसदी है । कुछ आंकड़ों में यह भी मिलता है कि बंटवारे से पहले पाकिस्तान में 24 फीसदी हिंदू रहते थे, जिनकी संख्या अब महज एक फीसदी हो गई है।

अब बांग्‍लादेश की स्‍थ‍िति का आंकलन करें। पाकिस्तान का जबरन हिस्सा बन गए बंगालियों ने जब विरोध किया तो इसे कुचलने के लिए पश्‍चिमी पाकिस्तान ने अपनी पूरी ताकत लगा दी थी । पाकिस्तान की सत्ता में बैठे लोगों की पहली प्रतिक्रिया उन्हें ‘भारतीय एजेंट’ कहने के रूप में सामने आई और उन्होंने चुन-चुनकर हिन्दुओं का कत्लेआम किया गया। लाखों बंगालियों की मौत हुई। हजारों बंगाली औरतों का बलात्कार हुआ। एक गैरसरकारी रिपोर्ट के अनुसार लगभग 30 लाख से ज्यादा हिन्दुओं का युद्ध की आड़ में कत्ल कर दिया गया। 1971 में पाकिस्तान के खिलाफ नौ महीने तक चले बांग्लादेश के स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान हिन्दुओं पर अत्याचार, बलात्कार और नरसंहार की कई कहानियां आज भी आपकी आंखों को नम कर देती हैं। 1947 गुजरने के 24 साल के भीतर ही यह दूसरा क्रूर विभाजन था जिसमें हिन्‍दुओं को ही योजना से टार्गेट किया गया था। उसके बाद से आज तक बांग्लादेश में हिन्दुओं पर जिस तरह से अत्याचार जारी है, उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि वह दिन दूर नहीं जब यहां एक भी हिन्दू नहीं बचे।

इस हकीकत को बयां अमेरिका में रहने वाले बांग्लादेशी मूल के प्रोफेसर अली रियाज अपनी पुस्तक गाड विलिंग: द पालिटिक्स आफ इस्लामिज्म इन बांग्लादेश में यह लिखते हुए किया है कि बीते 25 साल में करीब 53 लाख हिंदू वहां से पलायन कर चुके हैं। बांग्लादेश में जमात ए इस्लामी जैसे कुछ दल हैं जो देश को पाकिस्तान की राह पर ले जाना चाहते हैं। यहां हर रोज हिंदू महिलाओं और बच्चों के लापता होने की घटनाएं घट रही हैं । अभी हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी की बांग्‍लादेश यात्रा के दौरान भी बड़ी संख्‍या में जिहादी मुसलमानों ने हिन्‍दुओं को निशाना बनाया। कुल मिलाकर बांग्लादेश में अधिकांश मुसलमानों का एक ही काम दिखता है हिन्दू जनंसख्‍या को पूरी तरह से समाप्‍त करने की रणनीति को बनाए रखा जाए।

यहां इन दोनों देशों की तुलना में भारत को देखिए, जो बहुसंख्‍यक हिन्‍दुओं का देश है। देश में धर्मांतरण का कुचक्र बिना कानून के डर के चल रहा है। लव जिहाद की तमाम भुक्‍तभोगियों की दारुण कर देनेवाली कथाएं हैं, जो हर रोज नई हैं । इन दो देशों के बीच कायदे से तो बहुसंख्‍यक हिन्‍दुओं के भारत में भी मुसलमानों के साथ वही भेद होना चाहिए था जो पाकिस्‍तान या बांग्‍लादेश मे हो रहा है, यहां भी धर्मान्‍तरण की घटनाएं घटती लेकिन सिर्फ अल्‍पसंख्‍यक समाज के साथ ही, किंतु ऐसा नहीं है, क्‍योंकि बहुसंख्‍यक हिन्‍दू समाज इस बात में विश्‍वास करता है कि सिर्फ एक ही ईश्‍वर सत्‍य नहीं, सबके अपने अनुभव हैं। आप किसी भी मार्ग से जाएं, वे सभी उस विराट के लिए ही जाते हैं, जिसकी ईश्‍वरीय कल्‍पना सभी करते हैं।

हिन्‍दू कभी लाउडस्‍पीकर पर पूजा करने के पूर्व मुस्‍लिमों की नमाज की तरह नहीं चिल्‍लाता कि सिर्फ अल्‍लाह ही सबसे बड़ा है। वस्‍तुत: इन दो विचारधाराओं के बीच सोच का यही वो अंतर है जो एक ओर हिंसा फैला रहा है तो दूसरी ओर दुखी को भी गले लगाने के लिए प्रेरित करता है बिना इस शर्त के कि तेरा मजहब कौन सा है ।

आज भारत में स्‍थ‍िति इतनी खराब होती जा रही है कि बहुसंख्‍यक समाज के सामने अपने अस्‍तित्‍व को बचाए रखने की चुनौती खड़ी हो गई है, जिसका पता उसे अपने को बनाए रखने के लिए कानूनों का सहारा लेने से लगता है। लव-जिहाद इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, इसके खतरों को लेकर केरल हाई कोर्ट भी आगाह कर चुका है, उसने कहा भी है कि झूठी मोहब्बत के जाल में फंसाकर धर्मांतरण का खेल वर्षों से संगठित रूप से चल रहा है। स्वयं पुलिस रिकॉर्ड में प्रेम-जाल से जुड़े हजारों धर्मांतरण के केस हैं। इस्लामिक संगठन पीएफआइ की छात्र शाखा ‘कैंपस फ्रंट’ जैसे तमाम संगठन इसमें संलग्न हैं । इस संदर्भ में ‘व्हाई वी लेफ्ट इस्लाम’ नामक पुस्तक में भी लव-जिहाद के संगठित अभियान का वर्णन आप स्‍वयं पढ़ सकते हैं। लव जिहाद की तरह ही शंकर पंडित के धर्मान्‍तरण जैसे मामले भी देश भर से सुनने में आए दिन आते हैं।

वस्‍तुत: आज ये सभी मामले यही बता रहे हैं कि या तो धर्म के आधार पर भारत का विभाजन गलत था या फिर इस समस्‍या की जड़ में कुछ ऐसा है जो दिखाई नहीं दे रहा। किसी भी चुनी हुई सरकार का यह नैतिक दायित्‍व है कि वह हर हाल में अपने नागरिकों की रक्षा करे। आज भारत के हर राज्‍य में शंकर पंडित जैसे विवश लोग नजर आ रहे हैं । इनकी मजबूरी का कोई फायदा ना उठाए यह सुनिश्चित करना राज्‍य सरकारों का काम है। केंद्र की मोदी सरकार से भी अपेक्षा है कि वह एक देश, एक निशान और एक संविधान की तर्ज पर समान आचार संहिता को लागू करने में अब देर ना करे । सभी के लिए सैनिक शिक्षा अनिवार्य हो और जनसंख्‍या नियंत्रण कानून जल्‍द लाए, देखा जाए तो इतना करते ही कई समस्‍याओं का समाधान अपने आप ही निकल आएगा, अन्‍यथा हमें शंकर पंडित के धर्मान्‍तरण और लवजिहाद पर बार-बार दुख ही जताना है।

हे ईश्वर ऐसी ज्यादती मत करो

—विनय कुमार विनायक
हे ईश्वर! ऐसी ज्यादती मत करो,
अगर हमें मनुष्य में जन्म दिए हो,
तो समूची जिंदगीभर जी लेने दो!

अगर हमें मनुज का जीवन दिए हो,
किस्त-किस्तदर में जिंदगी जीने को,
पच्चीस वर्ष ब्रह्मचर्याश्रम पढ़ने दो!

पचास वर्ष तक गृहस्थाश्रम जीने को,
पचहत्तर वर्ष तक वानप्रस्थ आश्रम है,
हमें मनुर्भव:बनने दो, शेष है संन्यास!

वर्ष पचहत्तर के पूर्व,हमें नही बुलाओ,
पचहत्तर वर्ष तक बहुत सी जिम्मेदारी
दी है जो आपने,उसे निर्वाह करने दो!

पचहत्तर वर्ष पूर्व, मृत्यु का हो जाना,
ह्रदय विदारक,जवाबदेही बिना, सबको
रुलाते हुए, बिना बैंड बाजे का जाना!

बहुत पुण्य किया अनेक जन्मों तक,
तब कहीं जाकर मनुष्य जन्म मिला,
इसे यूं ही व्यर्थ में नहीं त्यागने का!

हे प्रभु! इंसान की अनजानी गलती को,
माफ कर दो,अब ना करेंगे क्षति प्रकृति,
वन-पर्यावरण में,हे ईश्वर क्षमा कर दो!
—विनय कुमार विनायक

अग्निहोत्र यज्ञ एवं इससे वर्तमान में होने वाले रोगमुक्ति आदि अनेक लाभ

-मनमोहन कुमार आर्य
अग्निहोत्र यज्ञ से होने वाले लाभों में अनागत रोगों से बचाव, प्राप्त रोगों का दूर होना, वायु-जल की शुद्धि, ओषधि-पत्र-पुष्प-फल-कन्दमूल आदि की पुष्टि, स्वास्थ्य, दीर्घायुष्य, बल, इन्द्रिय-सामर्थ्य, पाप-मेाचन, शत्रु-पराजय, तेज, यश, सदविचार, सत्कर्मों में प्रेरणा, गृह-रक्षा, भद्र-भाव, कल्याण, सच्चारित्र्य, सर्वविध सुख आदि लाभ प्राप्त होते हैं। वन्ध्यात्व-निवारण, पुत्र-प्राप्ति, वृष्टि, बुद्धिवृद्धि, मोक्ष आदि फलों का भी प्रतिपादन भी यज्ञ से होने वाले लाभों में किया जाता है। अतः हमें अग्निहोत्र यज्ञ को अपने जीवन में उचित महत्व देना चाहिये। इससे हमारा पर्यावरण सरुक्षित रहने के साथ जीवन उत्तम बनता है और रोगों से मुक्त रहकर हम बलयुक्त सुखी दीर्घ जीवन व्यतीत कर सकते हैं।

चार वेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद, ईश्वरीय ज्ञान है जिसे सर्वव्यापक, सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान सृष्टिकर्ता ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को दिया था। ईश्वर प्रदत्त यह ज्ञान सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद सभी मनुष्यों के लिए यज्ञ करने का विधान करते हैं। ऋग्वेद के मन्त्र 1/13/12 में ‘स्वाहा यज्ञं कृणोतन’ कहकर ईश्वर ने स्वाहापूर्वक यज्ञ करने की आज्ञा दी है। ऋग्वेद के मन्त्र 2/2/1 में ‘यज्ञेन वर्धत जातवेदसम्’ कहकर यज्ञ से अग्नि को बढ़ाने की आज्ञा है। इसी प्रकार यजुर्वेद के मन्त्र 3/1 में ‘समिधाग्निं दुवस्यत धृतैर्बोधयतातिथिम्’ कहकर समिधा से अग्नि को पूजित करने व घृत से उस अग्निदेव अतिथि को जगाने की आज्ञा है। ‘सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन’ (यजुर्वेद 3/2) के द्वारा आज्ञा है कि सुप्रदीप्त अग्निज्वाला में तप्त घृत की आहुति दो। यह संसार ईश्वर का बनाया हुआ है और सभी मनुष्यों व प्राणियों को उसी ने जन्म दिया है। अतः ईश्वर सभी मनुष्यादि प्राणियों का माता, पिता व आचार्य  है। उसकी आज्ञा का पालन करना ही मनुष्य का धर्म है और न करना ही अधर्म है। इस आधार पर यज्ञ करना मनुष्य धर्म और जो नहीं करता वह अधर्म करता है। 

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेधपर्यन्त यज्ञों की चर्चा की है। अग्निहोत्र एक नैत्यिक कर्तव्य है जो शास्त्र-मर्यादा के अनुसार सभी गृहस्थों को प्रतिदिन करना होता है। अन्य यज्ञों को करने के सभी अधिकारी हों, ऐसा नहीं है। लाभों का ज्ञान न होने पर भी वैदिक विधान होने से ही अग्निहोत्र सबके लिए करणीय है। लाभ जानकर किया जाए तो उसमें अधिक श्रद्धा होती है। उन लाभों को प्राप्त करने की प्रेरणा भी मिलती है और उसके लिए मनुष्य प्रयत्न भी करता है। अतः वेदादि शास्त्रों तथा स्वामी दयानन्द जी ने भी यज्ञ एवं अग्निहोत्र के अनेकानेक लाभ बताए हैं। इन लाभों में अनागत रोगों से बचाव, प्राप्त रोगों का दूर होना, वायु-जल की शुद्धि, ओषधि-पत्र-पुष्प-फल-कन्दमूल आदि की पुष्टि, स्वास्थ्य, दीर्घायुष्य, बल, इन्द्रिय-सामथ्र्य, पाप-मेाचन, शत्रु-पराजय, तेज, यश, सदविचार, सत्कर्मों में प्रेरणा, गृह-रक्षा, भद्र-भाव, कल्याण, सच्चारित्र्य, सर्वविध सुख आदि दर्शाए गए हैं। वन्ध्यात्व-निवारण, पुत्र-प्राप्ति, वृष्टि, बुद्धिवृद्धि, मोक्ष आदि फलों का भी प्रतिपादन किया गया है। यहां शंका यह हो सकती है कि क्योंकि प्रत्येक अग्निहोत्री को ये फल प्राप्त नहीं होते, अतः यह फल श्रुति मिथ्या है। इसलिए इसका विवचेन किया जाना आवश्यक है। 

यज्ञ, अग्निहोत्र या होम के लाभों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम प्रकार के वे लाभ हैं, जो होम से स्वतः प्राप्त हो सकते हैं, यथा वायुशुद्धि, जलशुद्धि, स्वास्थ्य-प्राप्ति, इन्द्रिय-सामथ्र्य, दीर्घायुष्य आदि। यदि अग्नि में यथोचित मात्रा में सुगन्धित, मिष्ट, पुष्टिप्रद एवं रोगहर द्रव्यों का होम किया गया है, तो यजमान चाहे या न चाहे, इन लाभों के प्राप्त होने का अवसर रहता ही हैं। शीत ऋतु में गुड़, मेथी, सोंठ, अजवाइन, गूगल जैसी साधारण वस्तुओं के होम से ही गृह-सदस्यों को सर्दी के अनेक रोगों से बचाव और छुटकारा मिलता देखा गया है। दूसरे प्रकार के लाभ वे हैं, जो अग्निहोत्री यजमान की इच्छा, प्रेरणा-ग्रहण एवं प्रयत्नों पर निर्भर हैं। यदि यजमान मन्त्रों के अर्थ का अनुसरण करता हुआ परमेश्वर एवं परमेश्वर रचित यज्ञाग्नि के परमेश्वरकृत गुण-कर्म-स्वभाव का चिन्तन करता हुआ उन्हें अपने अन्दर धारण करने का व्रत लेता है और तदर्थ प्रयत्न करता है, तो वह सन्मार्ग पर चलने की सद्बुद्धि प्राप्त करेगा, पापकर्मों से बचेगा, सदाचारी बनेगा, तेजस्वी एवं यशस्वी होगा और मोक्ष प्राप्ति के अनुरूप कर्म करने की प्रेरणा लेेगा, तो मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है। यदि कोई यजमान अर्थात् यज्ञकर्ता इन लाभों को पाने का प्रयत्न ही नहीं करता, सूखे मन से आहुतिमात्र देता है, फलतः उसे यह लाभ प्राप्त नहीं होते, तो उसमें यज्ञ का दोष नही है। 

जहां तक बड़े-बड़े रोगों को दूर करने, महामारियां (वर्तमान में करोना वा कोविड-19 महारोग) रोकने आदि का प्रश्न है, प्राचीन काल में इस प्रकार के यज्ञ होते रहे हैं। पुत्र-प्राप्ति के लिए पुत्रेष्टियां भी की जाती रही हैं। इनकी सफलता कुछ तो मनोबल, श्रद्धा एवं आशावादिता पर निर्भर है, दूसरे अधिक योगदान इस बात का है कि कौन-सी ओषधियों से होम किया जाता है। जैसे अन्य चिकित्सा-पद्धतियों आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा, जल-चिकित्सा, ऐलोपैथी, होम्योपैथी आदि हैं, वैसे ही अग्निहोत्र-चिकित्सा भी एक वैज्ञानिक पद्धति है। अग्निहोत्र-चिकित्सा द्वारा वेदोक्त रोगकृमि-विनाश, ज्वर-चिकित्सा, उन्माद-चिकित्सा, गण्डमाला-चिकित्सा एवं गर्भदोष-चिकित्सा की जाती है जो सफल परिणामदायक होती है। इस विषय में मार्गदर्शन हेतु यज्ञ विषयक ग्रन्थों का अनुशीलन किया जाना चाहिये। इस विषय से सम्बन्धित सामवेदभाष्यकार एवं सुप्रसिद्ध विद्वान आचार्य डा. रामनाथ वेदालंकार जी की ‘‘यज्ञ मीमांसा” पुस्तक विशेष रूप से लाभदायक है। इस पुस्तक में विद्वान लेखक ने यज्ञ के विभिन्न पक्षों पर सात अध्यायों में बहुमूल्य जानकारी दी है। पहला अध्याय यज्ञ और अग्निहोत्र विषय में सामान्य विचार से सम्बन्धित है। दूसरा अध्याय वैदिक यज्ञ-चिकित्सा पर है। तीसरा अग्निहोत्र के प्रेरक तथा लाभ-प्रतिपादक वेदमन्त्रों पर, चैथा अग्निहोत्र की विधियों तथा मन्त्रों की व्याख्या, पांचवा अध्याय बृहद् यज्ञ के विशिष्ट मन्त्रों पर तथा षष्ठ अध्याय आत्मिक अग्निहोत्र एवं अग्निहोत्र के भावनात्मक लाभों पर है। अन्तिम सातवां अध्याय यज्ञ एवं अग्निहोत्र-विषयक सूक्तियों पर है। इस ग्रन्थ का अध्ययन करने से यज्ञ विषयक सभी पक्षों का ज्ञान होता है। यह ग्रन्थ सभी यज्ञ प्रेमी पाठकों के लिए पढ़ने योग्य है। यज्ञ के प्रति पाठकों में जागृति उत्पन्न हो और वह स्वस्थ रहते हुए यशस्वी जीवन व्यतीत करें और धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर हों, इस लिए यह कुछ संक्षिप्त लेख प्रस्तुत किया है। इस लेख की सामग्री आचार्य डा. रामनाथ वेदालंकार जी की पुस्तक यज्ञ-मीमांसा पर आधारित है। उनका पुण्य स्मरण कर हम उनका हार्दिक धन्यवाद करते हैं। 

दैनिक अग्निहोत्र नैत्यिक कर्तव्य है। कुछ लोग घरों में नियम से दोनों समय या एक समय दैनिक अग्निहोत्र करते हैं। कुछ लोग आर्यसमाजों में होनेवाले सामूहिक दैनिक या साप्ताहिक अग्निहोत्र में सम्मिलित होते हैं, घर पर अग्निहोत्र नहीं करते। स्वामी दयानन्द जी ने अपनी ‘संस्कारविधि’ पुस्तक में घृत की प्रत्येक आहुति न्यूनतम छः माशे की लिखी है। वह घृत भी कस्तूरी, केसर, चन्दन, कपूर, जावित्री, इलायची आदि से सुगन्धित किया होना चाहिए। इसके अतिरिक्त सुगन्धि, मिष्ट, पुष्ट एवं रोगनाशक द्रव्यों की हवन-सामग्री होनी चाहिये। समिधाएं भी चन्दन, पलाश, आम आदि की होनी चाहिएं। ऋषि दयानन्द ने अग्निहोत्र के जो लाभ अपने ग्रन्थों में लिखे हैं, वे घर-घर होने वाले इसी प्रकार के अग्निहोत्र की दृष्टि में रखकर हैं। इस प्रकार से अग्निहोत्र हों, तो उसमें दोनों समय का यज्ञ मिलाकर काफी दैनिक व्यय होने का अनुमान है। इतना व्यय करने का सामथ्र्य और उत्साह विरलों का ही हो सकता है। ऐसी स्थिति में श्रद्धा और सामथ्र्य के अनुसार जैसा भी बन पड़े होम करना उचित है। हव्य द्रव्य अर्थात् हवन सामग्री चारों प्रकार के होने चाहिएं, जिससे वायु मण्डल सुगन्धित तथा रोगहर ओषधियों के अणुओं-परमाणुओं से युक्त हो तथा उसमें श्वास लेने से लाभ पहुंचे। जो एक काल के ही व्रत का निर्वाह करना चाहें, वे वैसा कर सकते हैं। अग्नि प्रज्जवलित रहे और धुआं न उठे, ऐसा प्रयास होना चाहिए। 

भारत का अतीत कभी मरा नहीं है

धर्मनिरपेक्षता

—विनय कुमार विनायक
हिन्दुत्व का स्वभाव सर्वदा से ऐसा,
कि यह जितना ही परिवर्तित होता,
उतना ही मूल के करीब आ जाता!

चौबीस तीर्थंकरों और एक बुद्ध ने,
हिन्दुत्व औ”सनातन वैदिक धर्म में,
व्यापक सुधार लाए थे जोर-शोर से,
किन्तु वैदिक धर्म जस का तस है!

भारत का अतीत कभी मरा नहीं है,
भारत का अतीत कल भी जीवित था,
आज भी जीवित हैं, कल भी रहेगा!

बुद्ध महावीर के पूर्व यज्ञ कर्मकांड था,
आज भी यज्ञ हवन कर्म होता रहता है,
आज भी अग्नि समक्ष सात फेरे लगते,
आज हर-वर्ष कृषक नवान्न यज्ञ करते!

आज भी इन्द्र, वरुण, अग्नि, शनि की
अराधना होती है,सूर्याहू को बलि पड़ते!
मगर बुद्ध व जिन यहां बुत बन गए!

आज भी बौद्ध-जैन धर्म के त्रिपिटक-आगम
ग्रंथ नही, बल्कि वेद, उपनिषद, गीता, पुराण,
रामायण, महाभारत हिन्दुओं के घर में होते,
राम,कृष्ण,विष्णु,शिव, गणेश, हनुमान सरीखे,
आज भी हिन्दू धर्म के देवी-देवता पूजे जाते!

बहुत जोर अजमाया इस्लाम और ईसाई ने,
किन्तु हिन्दुत्व पर व्यापक असर नहीं पड़ा,
सर्वदा से हिन्दुत्व,अपनी मातृभूमि में अड़ा!

हिन्दुत्व का ये स्वभाव रहा है कठिनाई के
अभाव में बेफ्रिक होके सो जाना,फिर निद्रा
तब टूटती,जब वज्राघात किया जाता उनपे!

ईसाई धर्म प्रचारकों और ब्रह्म समाज ने
हिन्दुत्व को पश्चिमाभिमुख कर दिया था,
कबीर के बाद विचारों का हो गया था अंत,
हिन्दुत्व के सामने न कोई कबीर सा संत,
और ना कोई तुलसी-चैतन्य सा भक्त था!

मगर भारत में हिन्दुत्व की सुप्तावस्था और
ईसाईयत के कुप्रचार से हिन्दुत्व मरा नहीं था,
बल्कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र,मैथिलीशरण गुप्त,

जयशंकर प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी वर्मा,
दिनकर,बच्चन जैसों की लेखनी में जीवंत!
विनय कुमार विनायक