जब सन् 1144 में मोसल के तुर्क शासक इमादुद्दीन ज़ंगी ने एदेसा को ईसाई शासक से छीन लिया तो पोप से सहायता की प्रार्थना की गई और उसके आदेश से प्रसिद्ध संन्यासी संत बर्नार्ड ने धर्मयुद्ध का प्रचार किया। किसी संत का इस प्रकार युद्ध का प्रचार करना फिर मानवता के लिए एक खतरे की घंटी बन गया था। लगने लगा था कि फिर विनाश के बादल गहरा रहे हैं । वास्तव में जो लोग अपने आपको संत कहते हैं उनका संतत्व युद्ध का प्रचार करना नहीं है बल्कि शांति का प्रचार करना है।
पर जब तथाकथित संत ही अपने धर्म को भूल जाएं तो मजहब का राक्षस तो अपना नाच दिखाएगा ही। पोप से सहायता की प्रार्थना का अर्थ था कि पोप के पास अपने अनुयायियों के रूप में एक विशाल सेना थी। पोप ने इस प्रार्थना पर कार्यवाही करते हुए जब अपने एक संत बर्नार्ड को धर्म युद्ध का प्रचार करने की आज्ञा दी तो उस सन्त ने विपरीत मतावलंबियों के विरुद्ध वैसा ही विषवमन करना आरम्भ किया जैसा पहले क्रूस युद्ध के समय पीटर ने किया था। इस प्रकार पोप की संलिप्तता ने यह स्पष्ट कर दिया कि धर्मगुरु भी उस समय स्वार्थ प्रेरित हो गए थे। उन्हें मानवता की भलाई इसी में दिखाई दे रही थी कि उनका अपना धर्म गुरुपद किस प्रकार सुरक्षित रह सकता है और किस प्रकार वह महिमामंडित होकर संसार पर अप्रत्यक्ष रूप से अपना शासन स्थापित कर सकते हैं? यहाँ पर यह बात भी ध्यान देने की है कि हमारे ऋषि महात्माओं के द्वारा राजाओं को दिए गए परामर्श को भी ईसाई और मुस्लिम इतिहासकारों ने यह कहकर कोसा है कि ये लोग राजनीति में हस्तक्षेप करके अपना वर्चस्व स्थापित करते थे। इसे इन लोगों ने ब्राह्मणवादी व्यवस्था का नाम देकर भारत के इतिहास को विकृत करने का प्रयास किया है। जबकि इन्हें अपने तथाकथित धर्म गुरुओं के इस प्रकार के आचरण में आज तक भी कोई त्रुटि दिखाई नहीं दी। यद्यपि इनके धर्म गुरुओं के इस आचरण ने मानवता का भारी अहित किया । अस्तु। मजहबी विष फिर से लोगों की नसों में चढ़ गया और पुराने घावों को कुरेदते हुए सब एक दूसरे के प्राण लेने के दृष्टिकोण से घरों से निकल पड़े। ‘विकिपीडिया’ के अनुसार इस युद्ध के लिए पश्चिमी यूरोप के दो प्रमुख राजा (फ्रांस के सातवें लुई और जर्मनी के तीसरे कोनराड) तीन लाख की सेना के साथ थलमार्ग से कोंस्तांतीन होते हुए एशिया माइनर पहुँचे। इनके परस्पर वैमनस्य और पूर्वी सम्राट् की उदासीनता के कारण इन्हें सफलता न मिली। जर्मन सेना इकोनियम के युद्ध में 1147 में परास्त हुई और फ्रांस की अगले वर्ष लाउदीसिया के युद्ध में। पराजित सेनाएँ समुद्र के मार्ग से अंतिओक होती हुई जेरूसलम पहुँची और वहाँ के राजा के सहयोग से दमिश्क पर घेरा डाला, पर बिना उसे लिए हुए ही हट गई। इस प्रकार यह युद्ध नितांत असफल रहा। यद्यपि हमारा मानना है कि यह युद्ध साम्प्रदायिकता के जिस विष को लेकर आरम्भ हुआ था उसको और भी अधिक गहनता के साथ फैलाने में सफल रहा। तब से लेकर आज तक भी लोगों ने कभी यह नहीं सोचा कि साम्प्रदायिक या मजहबी सोच किस प्रकार उत्पाती व उन्मादी हो सकती है ? यदि उस समय के लोगों की मानसिकता पर विचार करें तो पता चलता है कि युद्ध चाहे असफल हो गया हो पर युद्ध की मानसिकता अभी थकने का नाम नहीं ले रही थी। यही कारण रहा कि लोग शीघ्र ही तीसरे क्रूस युद्ध के लिए सन्नद्ध हो गए।
असम में घुसपैठ के खिलाफ चले आंदोलन के कारण 1981 के बाद घुसपैठिये असम की बजाय प.बंगाल और उत्तर प्रदेश में जाकर बसने लगे। 1981 से 1991 के बीच राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिम जनसंख्या वृद्धिदर 32.90 प्रतिशत थी पर प. बंगाल के जलपाईगुड़ी जिला में यह 45.12 प्रतिशत, दार्जिलिंग जिला में 58.55 प्रतिशत, कोलकाता जिला में 53.75 प्रतिशत तथा मेदनीपुर जिला में 53.17 प्रतिशत थी।
पश्चिम बंगाल की ही तरह उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जिला में यह 46.77 प्रतिशत, मुजफ्फरनगर जिला में 50.14 प्रतिशत, गाजियाबाद जिला में 46.68, अलीगढ़ 45.61, बरेली में 50.13 प्रतिशत तथा हरदोई जिला में 40.14 प्रतिशत थी। सबसे आश्चर्यजनक उप्र का सीतापुर जिला, जहां मुस्लिम जनसंख्या प्रतिशत 129.66 प्रतिशत था।
1991 से 2011 के बीच राष्ट्रीय स्तर पर जनसंख्या वृद्धि दर 44.39 प्रतिशत, हिंदू वृद्धि दर 40.51 प्रतिशत तो मुस्लिम जनसंख्या वृद्धिदर 69.53 प्रतिशत थी, पर अरुणाचल में मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि दर 126.84 प्रतिशत, मेघालय में 112.06, मिजोरम में 226.84, सिक्किम में 156.35, दिल्ली में 142.64, चण्डीगढ़ में 194.36 तथा हरियाणा में 133.22 प्रतिशत थी। मुस्लिम जनसंख्या में हुई यह अप्रत्याशित वृद्धि इस बात का प्रमाण है कि बांग्लादेश और म्यांमार से मुस्लिम घुसपैठिये भारतीय राज्यों में बस रहे हैं। 1961 में देश की जनसंख्या में मुस्लिम जनसंख्या 10.7 प्रतिशत थी, जो 2011 में बढ़कर 14.22 प्रतिशत हो गई है। यानी 50 वर्ष में मुस्लिम जनसंख्या में 3.52 प्रतिशत की वृद्धि तब हुई है जबकि इसमें घुसपैठियों को भी शामिल किया गया है। इसी दौर में प. बंगाल में मुस्लिम जनसंख्या 20 प्रतिशत से बढ़कर 27.01 प्रतिशत, तो बिहार के पूर्णिया, किशनगंज, अररिया और कटिहार जिला में 37.61 प्रतिशत से बढ़कर 45.93 प्रतिशत हो गई है।
जैसे ही यह मुद्दा उठता है। वामदल, तृणमूल कांग्रेस से लेकर शहरी नक्सली आदि यथासंभव शोर मचाने लगते हैं। उन्हें लगता है कि अवैध शरणार्थी उनके वोट बैंक हैं। यह सत्य है कि अनेक नेताओं ने अवैध शरणार्थियों के राशन कार्ड ,आधार कार्ड एवं वोटर कार्ड बनवाकर उन्हें देश में बसाने के लिए पुरजोर प्रयास किया हैं। इन लोगों ने देश को सराय बना डाला हैं क्यूंकि ये लोग केवल तात्कालिक लाभ अपनी कुर्सी के लिए केवल तात्कालिक लाभ देखते है। भविष्य में यही अवैध शरणार्थी एकमुश्त वोट-बैंक बनकर इन्हीं नेताओं की नाक में दम कर देंगे। इससे भी विकट समस्या यह है कि बढ़ती मुस्लिम जनसँख्या भारत के गैर मुसलमानों के भविष्य को लेकर भी एक बड़ी चुनौती उपस्थित करेगी। क्यूंकि इस्लामिक सामाज्यवाद की मुहीम के तहत जनसँख्या समीकरण के साथ मुसलमानों का गैर मुसलमानों के साथ व्यवहार में व्यापक परिवर्तन हो जाता हैं।
पिछले एक वर्ष से अधिक समय के दौरान देश में कोरोना महामारी के चलते आर्थिक क्षेत्र के लगभग समस्त खंड विपरीत रूप से प्रभावित हुए हैं। सेवा (पर्यटन, होटल, यातायात, आदि) एवं उद्योग क्षेत्र तो विशेष रूप से अधिक प्रभावित हुए हैं। परंतु, केंद्र सरकार द्वारा कृषि क्षेत्र को विकसित करने के उद्देश्य से मिशन मोड में लगातार किए जा रहे प्रयासों के कारण कृषि क्षेत्र कोरोना काल के बीच भी विपरीत रूप से प्रभावित नहीं हुआ है। कृषि क्षेत्र में न केवल उत्पादन में लगातार वृद्धि दृष्टिगोचर है बल्कि कृषि उत्पादों का निर्यात भी लगातार प्रभावशाली तरीके से बढ़ता जा रहा है। हाल ही में जारी किए गए, कृषि क्षेत्र से हो रहे निर्यात से सम्बंधित आंकड़ों के अनुसार, अप्रेल 2020 से फ़रवरी 2021 के दौरान कृषि उत्पादों का निर्यात 2.74 लाख करोड़ रुपए का रहा है जो अप्रेल 2019 से फरवरी 2020 के दौरान 2.31 लाख करोड़ रुपए का रहा था। इस प्रकार कृषि उत्पादों के निर्यात में वर्ष 2020-21 (अप्रेल-फरवरी) के बीच 18.49 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। विशेष रूप से गेहूं, चावल, अन्य अनाज, सोयामील, मसाले, चीनी, कपास, ताजी सब्जियां, संसाधित सब्जियां एवं अलकोहलिक पेय पदार्थ के निर्यात में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की गई है।
कृषि के क्षेत्र में भारतीय किसान ने अपनी मेहनत के बल पर एवं सरकारी नीतियों को लागू करते हुए, कृषि उत्पादों की पैदावार को मांग की तुलना में आपूर्ति अधिक की श्रेणी में ला खड़ा किया है। अब भारतीय कृषि क्षेत्र में उत्पादों की पैदावार में आधिक्य रहने लगा है और देश के किसान लगातार साल दर साल बहुत अच्छा उत्पादन करते दिख रहे हैं। विशेष रूप से सरकारी नीतियां एवं उत्पादकता में हो रही वृद्धि भी इस बढ़ती पैदावार में अहम भूमिका अदा कर रही है। भारत में कोरोना महामारी का कृषि क्षेत्र पर लगभग नगण्य प्रभाव पड़ा है।
हमारे उत्तर पूर्वी राज्यों ने बागवानी की पैदावार में गुणवत्ता की दृष्टि से बहुत विकास किया है। इन राज्यों से बागवानी से हुई पैदावार का बहुत निर्यात हो रहा है, विशेष रूप से दुबई आदि देशों को। विशेष रूप से फल एवं सब्जियां बहुत जल्दी खराब हो जाती हैं, अतः इनके भंडारण के लिए बुनियादी सुविधाओं का तेजी से विकास किया जा रहा है ताकि इन पदार्थों का उचित भंडारण किया जा सके। आगे आने वाले 5 से 10 वर्षों में भारत कृषि उत्पादों के क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर एक मुख्य निर्यातक देश बन सकता है। अब तो देश में कांटैक्ट फार्मिंग भी होने लगी है। इससे भी कृषि उत्पादन में बहुत फर्क पड़ने वाला है।
भौगोलिक संकेत (जीओग्राफी इंडिकेशन – GI टैग) योजना का भी कृषि उत्पादन बढ़ाने में बहुत योगदान रहा है। इस योजना के अंतर्गत एक विशेष क्षेत्र में, उसके मौसम को देखते हुए, एक विशेष उत्पाद की पैदावार को बढ़ावा दिया जाता है। जिसके कारण उस उत्पाद की उत्पादकता बहुत बढ़ जाती है। बासमती चावल इसी प्रकार का उत्पाद है। विदेशों से आने वाले सैलानी भी भारत के विशेष उत्पादों को खरीदना चाहते हैं। GI टैग इसमें मुख्य भूमिका निभाता है। इससे भारतीय उत्पादों में अन्य देशों का विश्वास बढ़ता है और देश के लिए निर्यात बढ़ाने में भी इसकी भूमिका बढ़ जाती हैं।
केंद्र सरकार, राज्य सरकार एवं कृषि संस्थानों ने कृषि के क्षेत्र को कई तरह के प्रोत्साहन उपलब्ध कराए हैं। इसके लिए विशेष रूप से कई नई योजनाएं भी लागू की गई हैं। कृषि उत्पादों की गुणवत्ता में बहुत सुधार किया गया है, जिसके चलते भी विदेशों में भारतीय कृषि उत्पादों की मांग लगातार बढ़ती जा रही है। कोरोना महामारी के दौरान कृषि मज़दूरों का भी विशेष ध्यान रखा गया, जिसके चलते कृषि पैदावार में वृद्धि हो पाई है। यह पता करने के लिए कि किन किन देशों में किस किस कृषि उत्पाद की कमी है, विदेशों में स्थित भारतीय दूतावासों की भी मदद ली गई है, ताकि इन देशों को कृषि उत्पाद भारत से उपलब्ध कराये जा सके। कृषि उत्पादों की मार्केटिंग एवं निर्यात के लिए सम्पर्क तंत्र को मजबूती प्रदान की गई। कृषि उत्पाद के विदेशी खरीदारों एवं भारत के किसानों की आपस में मीटिंग कराई गई। इसके लिए एक पोर्टल भी बनाया गया है ताकि क्रेता एवं विक्रेता सीधे ही एक दूसरे से माल खरीद एवं बेच सकें। इस संदर्भ में किसानों ने भी कम मेहनत नहीं की है। आत्मनिर्भर भारत, वोकल फोर लोकल एंड लोकल से ग्लोबल, जैसे नारों ने भी देश से कृषि उत्पादों के निर्यात में लगातार हो रही वृद्धि में अपनी अहम भूमिका अदा की है।
अब तो दक्षिणी अमेरिकी देशों एवं अमेरिका को भी कृषि उत्पादों का निर्यात किया जाने लगा है। अफ्रीकी देशों को भी कृषि उत्पादों के निर्यात में लगातार वृद्धि हो रही है। उच्च मूल्य वाले कृषि उत्पादों का भी निर्यात अब तेजी से बढ़ रहा है जैसे आम, अंगूर, आदि पदार्थ यूरोपीयन देशों एवं अमेरिका को निर्यात किए जा रहे हैं। अंगूर का निर्यात हाल ही में शुरू किया गया है। जापान, दक्षिणी कोरीया जैसे देशों में भी अब भारतीय कृषि उत्पादों के प्रति रुझान बढ़ रहा है।
भारत, भौगोलिक दृष्टि से एक बड़ा देश है एवं भारत में अलग अलग क्षेत्रों में अलग अलग मौसमी परस्थितियां हैं जिसके कारण बहुत अलग अलग किस्म के कृषि उत्पाद भरपूर मात्रा में पैदा किये जा सकते हैं। अपने देश की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए शेष आधिक्य का देश से निर्यात आसानी से किया जा सकता है। अंतरराष्ट्रीय मानदंडो के अनुसार ही अब देश में कृषि उत्पादों की पैदावार ली जा रही है। बासमती चावल की मांग इसी कारण से विदेशों में लगातार बढ़ती जा रही है और इसका निर्यात भी बढ़ता जा रहा है। भारत में उत्पादित अनाज की मांग भी तेजी से बढ़ रही है। समुद्रीय उत्पादों की मांग भी बढ़ती जा रही है। देश में उत्पादकता बढ़ रही है, जिसके कारण उत्पादन बढ़ रहा है। 16 राज्यों ने कृषि उत्पादों का निर्यात बढ़ाने के लिए विशेष योजनाएं बनाई हैं। आंध्रप्रदेश ने केला का निर्यात बढ़ाने के लिए विशेष योजनाएं बनाई है। उत्तर प्रदेश सरकार ने भी आम, अन्य फलों एवं सब्जियों के निर्यात को बढ़ाने के लिये कई योजनाएं बनाई हैं। कृषि निर्यात नीतियों को राज्य स्तर पर बनाने का भी फायदा हुआ है।
कृषि पदार्थों की आपूर्ति बनाए रखना भी केंद्र सरकार की बड़ी उपलब्धि माना जाना चाहिए। देश के किसी भी कोने में सामान्यतः कृषि उत्पादों की उपलब्धता में कमी नहीं आने दी गई। केंद्र सरकार का आपूर्ति प्रबंधन बहुत ही शानदार रहा है। अन्यथा की स्थिति में मुद्रा स्फीति की दर बहुत तेज हो सकती थी। कई बार तो कृषि उत्पाद को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचाने के लिए विशेष रेलगाड़ियां चलाई गई और हवाई जहाज तक से भी कृषि उत्पादों की ढुलाई की गई। दूध, फल एवं सब्जियों की उपलब्धता लगातार बनाए रखते हुए देश से कृषि उत्पादों का निर्यात भी तेज गति से बढ़ रहा है। कोरोना महामारी के इस दौर में कई देशों में कृषि उत्पादों के उत्पादन को लेकर कुछ समस्याएं खड़ी हुई हैं, ऐसे समय में भारत ने इन देशों को खाद्य पदार्थों को उपलब्ध कराकर इन देशों की समस्यायों को कम करने का सफल प्रयास किया है। अब तो ये सभी देश खाद्य पदार्थों की आपूर्ति के लिए भारत की ओर आशा भरी नजरों से देख रहे हैं। भारत का आपूर्ति प्रबंधन न केवल घरेलू स्तर पर बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सराहनीय रहा है।
केंद्र सरकार एवं राज्य सरकारें अब आपस में मिलकर कार्य कर रही हैं। उत्तर पूर्वी राज्य भी इस मामले में बहुत अच्छा कार्य कर रहे हैं। देश में कांटैक्ट फ़ार्मिंग को और भी गति देनी होगी, इसका बहुत फायदा मिल सकता है। गुणवत्ता में सुधार करने की अभी भी गुंजाइश है। वैश्विक स्तर पर भारतीय कृषि उत्पादों की मांग बढ़ाकर, देश में उत्पादन बढ़ाया जा सकता है। इससे भारतीय किसानों को ही लाभ होगा। सरकार की नीतियां इस मामले में बहुत अच्छी भूमिका निभा रही हैं। देश से निर्यात होने वाली वस्तुओं की कीमत भी अच्छी मिलती है जिसका फायदा भी अंततः सीधे ही किसानों को होता है। इसलिए देश से कृषि उत्पादों के निर्यात को बढ़ावा दिया जा रहा है।
—विनय कुमार विनायक गांधार अफगानिस्तान के बामियान में अहिंसा के अवतार,दया के सागर, करुणा की मूर्ति, ईसा, पैगम्बर, नानक, गोविंद,गांधी के प्रेरणा स्रोत, भगवान बुद्ध की रेशम मार्ग में स्थित बामियान के हिन्दूकुश पर्वत श्रृंखला में निर्मित प्रस्तर मूर्ति और प्रतिमाओं को तोप मोर्टार के गोलों से ध्वस्त किया जाना, ईसा को पुनः सलीब पर लटकाना, सुकरात को पुनः जहर पिला देना, गांधी को पुनः मौत की नींद सुलाना ही तो है!
गांधार देश की विडंबना है कि सुबलपुत्र शकुनि; दुर्योधन के मामा की कुटिलता, बाबर की बर्बरता, तालिबानों की क्रूरता ने सदा अपने पूर्वजों और वंशधरों को छला है!
दो हजार वर्ष पूर्व भगवान बुद्ध की 38/53 मीटर ऊंची प्रतिमाएं स्वयं बुद्ध ने नहीं आज के अफगानी मुसलमानों के बौद्ध पूर्वजों ने ही श्रद्धा भाव से बनाई थी!
यही सच्चाई है कि यह कैसी विडम्बना कि अरब देश के धार्मिक गुलाम, अफगानी तालिबानों ने शुद्ध रक्त के अरबी मुसलमान बनने के मिथ्या जुनून में मार्च दो हजार एक में अपने ही मृत पूर्वजों की पहचान को मिटा दी! —विनय कुमार विनायक
—विनय कुमार विनायक किसी ने कहा है हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती है किन्तु मैं नहीं कहता नोनिआए ईंटों पर प्लास्टरी मुल्लमायुक्त बातें!
बल्कि मैं कहता हूं हम उस देश के वासी हैं जहां बहुत ही दंगा होता है हम धर्म के नाम पर मरते हैं अबलाएं खून के आंसू रोती है हम सदा कर्म की आहें भरते हैं हम नसीब के नाम पर सोते हैं जातिवादी जहर को पीते हैं!
आज ईश्वर का सच्चा पूत वही जो रब में ऐब निकालते खुदा से खुंदक पालते, ईश्वर अल्ला से बड़े हो जाते!
फिर अल्लाह की औलाद वही जो ईश्वर को धमकाए राम को छठी का दूध पिलाए चमत्कारी उलटीं छुरी चलाए!
सोचता हूं कुछ और कहूं पर डरता हूं अपनी जुबां से कहीं अर्थ ना बदल जाए श्रवण तंत्र का संसर्ग पाकर गंगा जल भी जला ना जाए!
बेहतर है चुप रहूं और लौट चलूं अपने घर की ओर जिसमें हम रहते आए वैदिक काल से आजतक पूरी गारंटी के साथ फिर भी हम क्या हम हो पाए?
पिता ने हमको जो नाम दिया पर समाज ने वो कहा कहां? मानवता की पहचान आज तक झा सिंह मंडल दास में कैद यहां!
मातृगर्भ से हमें जातिबद्ध किए जाते हालत अपनी ऐसी है कि एक ने अगर सराहा तो अनेक क्षुब्ध हो जाते!
सुकुमार प्रतिभा असमय यूं घूंट जाती हम कवच कुंडल विहिन कर्ण सा खोखले अमोघ अस्त्र की तलाश में मंडल-कमंडल में खप जाते!
हम क्षुद्र जीव सा सत्ता को कोसकर जीते हैं नसीब के नाम पर इसके सिवा चारा भी क्या?
सत्ता की कुर्सी पर मानव कहां कोई बैठते जो भी बैठते वो सिंह सियार लोमड़ी होकर अपना उल्लू सीधा करते!
सिंह ने सिंहनी को देखा सिंह शावकों का ढेर लगा, फिर सियार का दौर आया, हुआ-हुआ कर शेर भगाया, सत्ता में बड़ा हुड़दंग मचाया!
किन्तु लोमड़ी ताक में बैठी थी रंगा सियार का रंग उतारने को छककर खून पिया मानव का और पीना सिखला गई वो सबको!
तब से हम खून पीते और मांस खाते किन्तु मानव नहीं झा-सिंह-मंडल-दास के गिद्ध और कौआ बनकर!
लाचारी कुछ ऐसी है कि मानव आज नहीं मरता, वो अमर जीव बन चुका जो भी मरता वो होता हिन्दू मुस्लिम, अगड़ा-पिछड़ा, दास-अदास की लाश!
कौआ बनकर नोचो या नोचो बनकर गिद्ध कौन करे अपराध सिद्ध किसी के जन्म सिद्ध अधिकार का! —विनय कुमार विनायक
दीपक कुमार कोरोना की दूसरी प्रचंड लहर देश के आम व खास सभी वर्ग के जनमानस को जीवन भर ना भूल पाने वाले बहुत गहरे जख्म दे रही हैं। दूसरी लहर में देश में शायद ही कोई ऐसा परिवार बचा हो जिसके सगे संबंधियों को कोरोना संक्रमण ने अपने चपेट में ना लिया हो। आम जनमानस में बहुत बड़े वर्ग का अक्सर यह मानना होता है कि उसके अपने को समय से बेहतर चिकित्सा सुविधा प्राप्त नहीं हुई, इसलिए उसके किसी अपने प्यारे परिजन का निधन हो गया, लेकिन इसबार कोरोना संक्रमण के चलते देश में दिग्गज बड़ी हस्तियाँ जिनको बेहतरीन चिकित्सा सुविधाएं समय से मिल रही थी, वो भी बहुत बड़ी संख्या में काल का ग्रास बन रहे हैं। इस कड़ी में किसानों व मजदूरों की सशक्त आवाज पूर्व केन्द्रीय मंत्री देश के दिग्गज राजनेता चौधरी अजीत सिंह का नाम भी जुड़ गया है। वह कई दिनों से कोरोना संक्रमण के इलाज के लिए गुरुग्राम के प्रतिष्ठित निजी अस्पताल में भर्ती थे, जहां पर चौधरी साहब ने गुरुवार की प्रातः अस्पताल में अंतिम सांस ली। जिसके बाद देश की किसान राजनीति में अचानक ही अब एक बहुत बड़ा खालीपन आ गया है, क्योंकि जिस समय भयंकर कोरोना काल में भी तीनों कृषि कानूनों को लेकर किसान लगातार सड़कों पर लंबे समय से संघर्ष कर रहे हैं, उस वक्त में किसानों की सशक्त आवाज का अचानक यूं चले जाना किसान आंदोलन को बहुत बड़ा झटका है, चौधरी साहब जिस तरह से लगातार दमदार ढंग से किसानों के साथ मिलकर उनकी आवाज को बुलंद कर रहे थे, उसको सभी देशवासियों ने बेहद करीब से देखा है। हालांकि चौधरी अजीत सिंह के पुत्र जयंत चौधरी भी पिता के साथ मिलकर किसानों की आवाज़ लगातार उठा रहे थे, वह भी सांसद रह चुके हैं और कुछ माह पूर्व घटित हाथरस कांड में सभी देशवासियों ने जनहित के मसले पर उनके आक्रामक अंदाज वाले तेवर को देखा है, वह कृषि कानूनों के विरोध प्रदर्शन में लगातार धरना प्रदर्शन रैली करके किसानों के बीच में मजबूत पैठ बना रहे थे। वैसे जब पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह का निधन हुआ था तो बेहद कम लोगों उम्मीद थी की भारत की राजनीति में विदेश से आकर चौधरी अजीत सिंह अपना एक विशेष स्थान बना लेंगे, सभी को लगने लगा था कि चौधरी चरण सिंह व चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के निधन के बाद देश में किसान हितों वाली राजनीति हमेशा के लिए खामोश हो गई है, लेकिन उन दोनों की विरासत को चौधरी अजीत सिंह ने बहुत ही शानदार तरीकों से संजोकर उसको निभाने का काम किया था। चौधरी अजीत सिंह कई बार सांसद बने और केन्द्रीय मंत्री बनकर महत्वपूर्ण मंत्रालयों के प्रभार को सम्हालने का कार्य बिना किसी विवाद के सफलतापूर्वक किया। वैसे देखा जाये तो चौधरी अजित सिंह का आकस्मिक निधन दुनिया से केवल एक राजनेता का जाना मात्र नहीं है, हाल के वर्षों में वह किसानों के हक की एक मात्र बुलंद आवाज थे जो सत्ता के गलियारों से लेकर सड़क तक पर गूंजती रहती थी, उनके निधन से भविष्य में देश में किसानों की बुलंद आवाज एकबार फिर से कमजोर हो सकती है और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में नये राजनीतिक समीकरण बन सकते हैं। चौधरी अजीत सिंह के जाने के बाद देश में बेहद व्यवहार कुशलता पूर्ण राजनीति के उस एक लंबे समय का पटाक्षेप हो गया है, जहां किसान, समाज और राजनीति के सर्वोच्च शिखर पर रहने के बाद भी लोग बिना किसी अहंकार में आये अपनी जमीन से बेहद ईमानदारी व पूर्ण शालीनता के साथ जुड़े रहते थे। चौधरी अजीत सिंह का व्यवहार ऐसा था कि जो भी उनसे मिल लेता था, वह व्यक्ति खुद को उनका बेहद नजदीकी महसूस कर पाता था। गुरुवार को उनके अचानक निधन हो जाने से देश की राजनीति में चौधरी चरण सिंह, चौधरी देवीलाल और चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत जैसे दिग्गज किसान नेताओं की विरासत सम्हाल कर किसान राजनीति को आगे बढ़ाने के कार्य को एक बहुत बड़ा झटका लगा है। खैर ईश्वर के निर्णय पर किसी का कोई बस नहीं चलता है, उसके निर्णय को मानना हर व्यक्ति की मजबूरी होता है। ईश्वर चौधरी अजीत सिंह के पुत्र जयंत चौधरी को इतनी शक्ति प्रदान करें कि वो पिता की विरासत के साथ-साथ किसानों के हितों की सशक्त आवाज संसद से लेकर के सड़क तक पर बने और किसान राजनीति को देश में एक नया आयाम प्रदान करें। मैं चौधरी साहब को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए, सर्वशक्तिमान ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि ईश्वर उन्हें अपने श्रीचरणों में स्थान प्रदान करें और परिवार को दुख की इस घड़ी को सहने की शक्ति प्रदान करें।।
“सुबह से ही रसोई में नल से पानी रिस रहा है,” पत्नी बोली, जरा प्लम्बर को टेलीफोन कर दो वह जल्दी से आ जाए नहीं तो ऊपर की टंकी का सारा पानी खतम हो जायेगा। गर्मी का मौसम है वैसे ही पानी की बड़ी किल्लत चल रही है” । मैंने परिस्थिति का तुरंत जायजा लेते हुए प्लम्बर को टेलीफोन कर दिया और उसे पानी बहने की बात भी बता दी।वह बेचारा पंद्रह मिनट के अंदर मेरे घर आ गया और तुरंत नल ठीक करने लगा। मैं उसको काम करते देख रहा था।उसने अपने थैले से एक रिंच निकाली। रिंच की डंडी टूटी हुई थी। मैं चुपचाप देखता रहा कि वह इस रिंच से कैसे काम करेगा? उसने पाइप से नल को अलग किया। पाइप का जो हिस्सा गल गया था, उसे काटना था। उसने फिर थैले में हाथ डाला और एक पतली-सी आरी उसने निकाली। आरी भी आधी टूटी हुई थी। मैं मन ही मन सोच रहा था कि पता नहीं किसे बुला लिया हूं ? इसके औजार ही ठीक नहीं तो फिर इससे क्या काम होगा ?वह धीरे-धीरे अपनी मुठ्टी में आरी पकड़ कर पाइप पर चला रहा था। उसके हाथ सधे हुए थे। कुछ मिनट तक आरी आगे-पीछे किया और पाइप के दो टुकड़े हो गए। उसने गले हिस्से को बाहर निकाला और बाकी हिस्से में नल को फिट कर दिया।इस पूरे काम में उसे दस मिनट का समय लगा। मैंने उसे 100 रूपये दिए तो उसने कहा कि इतने पैसे नहीं बनते साहब। आप आधे दीजिए। उसकी बात पर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। मैने उससे पूछा। “क्यों भाई? पैसे भी कोई छोड़ता है क्या?” लेकिन उसके उत्तर ने मुझे सच का ऐसा साक्षात्कार कराया की मैं हैरान हो गया। उसने कहा कि “सर, हर काम के तय पैसे होते हैं। आप आज अधिक पैसे देंगे, मुझे अच्छा भी लगेगा, लेकिन मुझे हर जगह इतने पैसे नहीं मिलेंगे तो फिर तकलीफ होगी। हर चीज़ का रेट तय है। आप उतने ही पैसे दें जितना बनता है।“ मैंने धीरे से प्लंबर से कहा कि तुम नई आरी खरीद लेना, रिंच भी खरीद लेना। काम में आसानी होगी।अब प्लंबर हंसा। “अरे नहीं सर, औजार तो काम में टूट ही जाते हैं। पर इससे काम नहीं रुकता।“*मैंने हैरानी के साथ उससे कहा कि अगर रिंच सही हो, आरी ठीक हो तो काम आसान नहीं हो जाएगा?हो सकता है हो जाए। लेकिन सर, आप जिस ऑफिस में काम करते हैं वहां आप किस पेन से लिख रहे हैं उससे क्या फर्क पड़ता है? लिखना आना चाहिए। लिखना आएगा तो किसी भी पेन से आप लिख लेंगे। नहीं लिखना आएगा तो चाहे जैसी भी कलम हो, आप नहीं लिख पाएंगे। हुनर हाथ में है मशीन में नहीं। सर इसे तो टूल कहते हैं। इससे अधिक कुछ नहीं। जैसे आपके लिए कलम है, वैसे ही मेरे लिए ये टूल। ये थोड़े टूट गए हैं, लेकिन काम आ रहे हैं। नया लूंगा फिर यही हिस्सा टूटेगा। जब से ये टूटा है इसमें टूटने को कुछ बचा ही नहीं।अब काम आराम से चल रहा है। मैं चुप था। दिन-भर की मेहनत से ईमानदारी से कमाने वाले के चेहरे पर संतोष की जो लकीर मैं देख रहा था, वह सचमुच हैरान करने वाला था। मुझे लग रहा था कि हम सारा दिन पैसों के पीछे भागते हैं। पर जब मेहनत और ईमानदारी का टूल हमारे पास हो तो असल में बहुत पैसों की ज़रूरत ही नहीं रह जाती हमें बहुत से लोगों से सीखना है। ये लोग स्कूल में नहीं पढ़ते/पढ़ाते। ये ज़िंदगी की यात्रा में कहीं भी किसी भी समय मिल जाते हैं। ज़रूरत तो है ऐसे लोगों को पहचानने की; इनसे सीखने की। झुक कर इनकी सोच को सम्मान करने की।मैंने कुछ कहा नहीं। प्लंबर से पूछा कि चाय तो पियोगे? उसने कहा, नहीं सर। बहुत काम है। कई घरों में पानी रिस रहा है। उन्हें ठीक करना है। सर, पानी बर्बाद न हो, इसका तो हम सबको ही ध्यान रखना है।वह तो चला गया पर मैं बहुत देर तक सोचता रहा। काश! हम सब ऐसे ही प्लंबर होते! जो पानी बहने का इतना ध्यान रखते और उसकी कीमत समझते है और किस उसकी मजबूरी का फायदा उठाकर उससे ज्यादा पैसे नहीं लेते। अगर इन छोटी छोटी बातों को सभी नागरिक ध्यान दे तो कोई भी किसी की मजबूरी का फायदा नहीं उठाएगा और हम सब इस कोराना महामारी का मुकाबला कर सकते है और ये जंग जीत सकते है।
संयुक्त राष्ट्र की नेतृत्व में क्लाइमेट एंड क्लीन एयर कोएलिशन (जलवायु और स्वच्छ वायु गठबंधन) द्वारा जारी एक नई रिपोर्ट के अनुसार, हमारे लिए मौजूदा मीथेन मिटिगेशन के उपाय 2045 तक ग्लोबल वार्मिंग को 0.3 डिग्री सेल्सियस तक सीमित कर सकते हैं।
इतना ही नहीं, मीथेन मिटिगेशन प्रत्येक वर्ष 255000 समय से पहले होने वाली मौतों, 775000 अस्थमा से संबंधित अस्पताल के दौरों, अत्यधिक गर्मी से 73 अरब घंटो के खोये हुए श्रम, और विश्व भर में 26 मिलियन टन फसल के नुकसान को भी रोकेगा।
इस रिपोर्ट में पाया गया है कि जलवायु परिवर्तन को धीमा करने के लिए तेल और गैस, कृषि, और अपशिष्ट के बीच व्यापक उपायों को लागू करना सबसे मज़बूत लीवर (उत्तोलक) है। मीथेन मिटिगेशन ग्लोबल वार्मिंग से लड़ने के लिए मौजूदा सबसे अधिक लागत प्रभावी रणनीतियों में से भी एक है।
मीथेन प्राकृतिक गैस का प्रमुख घटक है, जिसे अक्सर उद्योग द्वारा स्वच्छ ईंधन स्रोत के रूप में प्रचारित किया जाता है। पर मानव निर्मित मीथेन उत्सर्जन जलवायु को गर्म करने में CO2 की तुलना में 80 गुना अधिक शक्तिशाली है।
यह रिपोर्ट पता करती है कि मिथेन को सीमित करने से महत्वपूर्ण स्वास्थ्य और कृषि लाभ होंगे – मीथेन ट्रोपोस्फेरिक ओज़ोन का अग्रदूत है और इसे कम करने से ओज़ोन वायु प्रदूषण में कमी आएगी।
2040 तक मीथेन उत्सर्जन में 45% तक की कटौती से 180,000 समय से पहले होने वाली मौतों और आधे मिलियन से अधिक अस्थमा से संबंधित आपातकालीन अस्पताल के दौरों को रोका जा सकता है। इससे वैश्विक फसल की पैदावार भी प्रति वर्ष 26 मिलियन टन बढ़ सकती है। रिपोर्ट विवरण करती है कि मुख्य रूप से तेल और गैस क्षेत्र में मीथेन वेंटिंग और लीक को ठीक करके आसानी से उपलब्ध समाधान 2030 तक मीथेन उत्सर्जन में 30% की कटौती कर सकते हैं।
रिपोर्ट ऐसे वक़्त पर जारी हुई है जब नए नियमों पर बहस की जा रही है, जिससे गैस आयात पर मीथेन मानकों को लागू कर सकते हैं। अब तक, मीथेन उत्सर्जन पर कोई सामान्य रूपरेखा या सीमा नहीं है और उत्सर्जन में कमी आने का कोई संकेत नहीं है।
वायुमंडलीय मीथेन में एक भारी महोर्मि भी अमेरिकी गैस उत्पादन में भारी वृद्धि के साथ सहसंबद्ध है। यूएस गैस दुनिया की सबसे अशुद्ध में शामिल है और मुख्य रूप से यूरोप और एशिया में उभरते बाजारों में अपना निर्यात भेजती है।
कुछ अध्ययनों से पता चला है कि गैस उद्योग से मीथेन के उत्सर्जन को अमेरिका में 60% तक कम करके आंका गया है, अन्य अध्ययनों में विश्व स्तर पर 25-40% का अंदाज़ा दिया गया है।
मीथेन उत्सर्जन पर उद्योग के कार्रवाई करने के लिए नियामकों और निवेशकों का दबाव बढ़ रहा है। 29 अप्रैल को, अमेरिकी सीनेट ने तेल और गैस के कुओं से रिसाव को नियंत्रित करने के लिए ओबामा-युग के नियमों को बहाल करने के लिए एक द्वि-पक्षीय वोट पारित किया। यह कंपनियों को नए ड्रिलिंग साइटों से मीथेन की निगरानी, प्लग और कब्ज़ा करने की आवश्यकता रखता है।
तेज़ी से वार्मिंग के दर को कम करने और 1.5 डिग्री सेल्सियस तक तापमान वृद्धि को सीमित करने के वैश्विक प्रयासों में महत्वपूर्ण योगदान करने के लिए मानव-निर्मित मीथेन उत्सर्जन को कम करना सबसे प्रभावी रणनीतियों में से एक है।
प्राथमिकता विकास के लक्ष्यों में योगदान करने वाली अतिरिक्त उपायों के साथ, उपलब्ध लक्षित मीथेन उपाय मिलकर 2030 तक मानव-निर्मित मीथेन उत्सर्जन को 45 प्रतिशत या प्रति वर्ष 180 मिलियन टन (Mt/yr) तक कम कर सकते हैं।
यह 2040 के दशक तक ग्लोबल वार्मिंग के लगभग 0.3°C से बचने में मदद करेगा और सभी दीर्घकालिक जलवायु परिवर्तन मिटिगेशन प्रयासों को पूरा करेगा। यह प्रत्येक वर्ष, 255000 समय से पहले होने वाली मौतों, 775000 अस्थमा से संबंधित अस्पताल के दौरों, अत्यधिक गर्मी से 73 अरब घंटो के खोये हुए श्रम, और विश्व भर में 26 मिलियन टन फसल के नुकसान को भी रोकेगा।
वैश्विक मीथेन उत्सर्जन का आधे से अधिक मानव गतिविधियों द्वारा तीन क्षेत्रों में होता है: जीवाश्म ईंधन (मानव गतिविधियों द्वारा उत्सर्जन का 35 प्रतिशत), अपशिष्ट (20 प्रतिशत) और कृषि (40 प्रतिशत)। जीवाश्म ईंधन क्षेत्र में, तेल और गैस निष्कर्षण, प्रसंस्करण और वितरण 23 प्रतिशत के लिए ज़िम्मेदार है, और कोयला खनन 12 प्रतिशत उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार है। अपशिष्ट क्षेत्र में, लैंडफिल और अपशिष्ट जल वैश्विक मानवजनित उत्सर्जन के लगभग 20 प्रतिशत के लिए ज़िम्मेदार है। कृषि क्षेत्र में, खाद और एंटेरिक किण्वन से पशुधन उत्सर्जन लगभग 32 प्रतिशत और चावल की खेती वैश्विक मानवजनित उत्सर्जन के 8 प्रतिशत के लिए ज़िम्मेदार है।
· वर्तमान में उपलब्ध उपाय 2030 तक इन प्रमुख क्षेत्रों से लगभग 180 Mt/yr, या 45 प्रतिशत तक, उत्सर्जन को कम कर सकते हैं। यह एक लागत प्रभावी कदम है जो जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) 1.5°C लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आवश्यक है। इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) द्वारा विश्लेषण किए गए परिदृश्यों के अनुसार, इस सदी में ग्लोबल वार्मिंग को 1.5°C तक सीमित करने के लिए वैश्विक मीथेन उत्सर्जन को 2030 तक 40 से 45 प्रतिशत तक कम किया जाना चाहिए, कार्बन डाइऑक्साइड और अल्पकालिक जलवायु प्रदूषकों सहित सभी क्लाइमेट फ़ोर्सेर्स (जलवायु पर ज़ोर डालने वाले कारक) की मात्रा में बड़े पैमाने पर पर्याप्त समकालिक गिरावट के साथ। (धारा 4.1)
· आसानी से उपलब्ध लक्षित उपाय हैं जो 2030 तक मीथेन उत्सर्जन को 30 प्रतिशत कम कर सकते हैं, लगभग 120 Mt/yr। इनमें से लगभग आधी प्रौद्योगिकियाँ जीवाश्म ईंधन क्षेत्र में उपलब्ध हैं जिसमे उत्सर्जन के स्थल पर और उत्पादन / ट्रांसमिशन की लाइनों पर मीथेन को कम करना अपेक्षाकृत आसान है। अपशिष्ट और कृषि क्षेत्रों में उपलब्ध लक्षित समाधान भी उपलब्ध हैं। पर वर्तमान में केवल लक्षित समाधान अकेले 2030 तक 1.5°C के अनुरूप मिटिगेशन को प्राप्त करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। इसे प्राप्त करने के लिए, अतिरिक्त उपायों को तैनात किया जाना चाहिए, जो कि 2030 मीथेन उत्सर्जन को और 15 प्रतिशत कम कर सकते हैं, लगभग 60 Mt/yr। (धारा 4.1 और 4.2)
· उपलब्ध लक्षित उपायों में से लगभग 60 प्रतिशत, क़रीब 75 Mt/yr, की कम मिटिगेशन लागतें 2 हैं, और उनमें से सिर्फ 50 प्रतिशत से अधिक की नकारात्मक लागत है – उपाय पैसे बचाने के द्वारा जल्द खुद का भुगतान करते हैं (चित्रा SDM2)। कम लागत वाली अबेटमेंट (उन्मूलन) क्षमतायें तेल और गैस के टोटल के 60-80 प्रतिशत से लेकर कोयले के 55-98 प्रतिशत और अपशिष्ट क्षेत्र में लगभग 30-60 प्रतिशत तक रेंज करती हैं। नकारात्मक लागत अबेटमेंट के लिए सबसे बड़ी क्षमता तेल और गैस उप-क्षेत्र में है जहां पकड़ी गयी मीथेन वातावरण में छोड़ने के बजाय राजस्व में जोड़ दी जाती है। (धारा 4.2)
· विभिन्न क्षेत्रों में मिटिगेशन क्षमता देशों और क्षेत्रों के बीच भिन्न होती है। यूरोप और भारत में सबसे अधिक क्षमता अपशिष्ट क्षेत्र में है; चीन में कोयला उत्पादन और उसके बाद पशुधन में; अफ्रीका में तेल और गैस के बाद पशुधन से; एशिया-प्रशांत क्षेत्र में, चीन और भारत को छोड़कर, यह कोयला और अपशिष्ट में; मध्य पूर्व, उत्तरी अमेरिका और रूस / पूर्व सोवियत संघ में यह तेल और गैस से है; और लैटिन अमेरिका में यह पशुधन उपसमूह से है। विशेष रूप से अपशिष्ट क्षेत्र में और अधिकांश प्रदेशों में कोयला उप-क्षेत्र और उत्तरी अमेरिका में तेल और गैस उप-क्षेत्र के लिए, इन प्रमुख अबेटमेंट क्षमता के बहुमत को कम लागत पर प्राप्त किया जा सकता है, यूएस $ 600 प्रति टन से कम। (धारा 4)
· सभी उपायों से मिटिगेशन क्षमता 2030 और 2050 के बीच बढ़ने की उम्मीद है, विशेष रूप से जीवाश्म ईंधन और अपशिष्ट क्षेत्रों में।
· वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिए आवश्यक मीथेन मिटिगेशन के स्तर को अकेले व्यापक डीकार्बोनाइज़ेशन रणनीतियों द्वारा प्राप्त नहीं किया जाएगा। व्यापक रणनीतियों में पाए जाने वाले शून्य-कार्बन समाज में परिवर्तन का समर्थन करने वाले संरचनात्मक बदलाव केवल अगले 30 वर्षों में आवश्यक मीथेन कटौती के सिर्फ लगभग 30 प्रतिशत को प्राप्त करेंगे। पर्याप्त मीथेन मिटिगेशन को प्राप्त करने के लिए विशेष रूप से मीथेन को विशिष्ट रूप से लक्षित करने वाली केंद्रित रणनीतियों को लागू करने की आवश्यकता है। साथ ही साथ, भविष्य में बहुत बड़े पैमाने पर अप्रमाणित कार्बन निष्कासन प्रौद्योगिकियों की तैनाती पर निर्भर हुए बिना, 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड तक वार्मिंग को सीमित रखने के लक्ष्य के साथ प्राकृतिक गैस अवसंरचना का विस्तार और उपयोग असंगत है।
-मनमोहन कुमार आर्य मनुष्य जानता है कि वह एक चेतन सत्ता है। जीवित अवस्था में चेतन सत्ता जीवात्मा शरीर में विद्यमान रहती है। मृत्यु होने पर जीवात्मा शरीर को छोड़कर चली जाती है। जीवात्मा का शरीर में रहना जीवन और उसका शरीर से निकल जाना ही मृत्यु कहलाता है। किसी ने न तो जीवात्मा को देखा है और न परमात्मा को। इसका कारण एक ही हो सकता है कि हम बहुत सूक्ष्म व बहुत विशाल चीजों को देख नहीं पाते। जीवात्मा का दिखाई न देने का कारण इसका अत्यन्त सूक्ष्म होना ही है। ईश्वर इससे भी सूक्ष्म व सर्वव्यापक अर्थात् सर्वत्र विद्यमान होने से सबसे बड़ा है, इसलिये यह दोनों दिखाई नही देते। आंखों से दिखने वाली वस्तुओं का ही अस्तित्व नहीं होता। संसार में ऐसे अनेक सूक्ष्म पदार्थ हैं जिनकी विद्यमानता सिद्ध होने पर भी वह दिखाई नहीं देते। हमने आक्सीजन, हाईड्रोजन, नाईट्रोजन आदि अनेक गैसों के नाम सुन रखे हैं। विज्ञान की दृष्टि से इनकी सत्ता सिद्ध है। हम जो श्वांस लेते हैं उसमें आक्सीजन गैस प्रमुख रूप से होती हैं। क्या हम प्राणवायु आक्सीजन जिसका चैबीस घंटे सेवन करते हैं उसे देख पाते हैं? उत्तर है कि नहीं देख पाते। अतः जीवात्मा और ईश्वर भी अति सूक्ष्म होने के कारण दिखाई नहीं देते परन्तु इनका अस्तित्व सिद्ध है। कारण की शरीर की क्रियायें जीवात्मा के अस्तित्व का प्रमाण हैं। शरीर में क्रिया है तो शरीर में जीवात्मा अवश्य है। यदि शरीर में क्रियायें होना समाप्त हो जायें तो वह जीवित नहीं मृतक शरीर होता है। किसी भी जड़ पदार्थ में सोची समझी अर्थात् ज्ञानपूर्वक क्रियाये स्वतः नहीं होती। जहां ज्ञानपूर्वक कार्य व क्रियायें होती हैं, वहां कर्ता, कोई चेतन तत्व का होना सिद्ध होता है। मनुष्य के कार्यों और ईश्वर की जगत की उत्पत्ति, स्थिति व पालन सहित अनेक कार्यों को देखकर व जानकर जीवात्मा व ईश्वर दोनों का अस्तित्व सिद्ध होता है।
ईश्वर व जीवात्मा के संबंध पर विचार करें तो हमें ज्ञात होता है कि ‘ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरुप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है।’ ईश्वर का यह स्वरूप जगत वा सृष्टि में विद्यमान है जिसे विवेक बुद्धि से जाना जा सकता है। उदाहरणार्थ ईश्वर सत्य, चेतन तत्व व आनन्द से युक्त सत्ता है। यह जगत ईश्वर के सत्य होने का प्रमाण है क्योंकि पांचों ज्ञानेन्द्रियों से यह अनुभूति में आता है। जगत का कर्ता वही एकमात्र ईश्वर है क्योंकि चेतन तत्व में ही ज्ञान व तदनुरूप क्रियायेंक रने की सामथ्र्य होती है। यह सृष्टि भी ज्ञान व क्रियाओं की पराकाष्ठा है इससे भी ईश्वर चेतन तत्व व सर्वशक्तिमान सिद्ध होता है। ईश्वर स्वभाव से आनन्द से युक्त है। हर क्षण व हर पल वह आनन्द से युक्त रहता है। यदि ऐसा न होता तो वह सृष्टि नहीं बना सकता था और न हि अन्य ईश्वरीय कार्य, सृष्टि का पालन, जीवों के जन्म-मरण व सुख-दुःख रूपी भोगों की व्यवस्था आदि कार्य कर सकता था। इसी प्रकार से ईश्वर के विषय में जो बातें कही हं् वह जानी व समझी जा सकती है। यही ईश्वर का सत्य स्वरूप है।
जीवात्मा के स्वरूप पर विचार करें तो हमें मनुष्य के शरीर व अन्य पशु, पक्षी आदि के शरीरों को अपनी दृष्टि में रखना पड़ता है। विचार करने पर पता चलता है कि जीवात्मा सत्य, चित्त वा चेतन पदार्थ, एकदेशी न कि सर्वव्यापक, अल्पज्ञ अर्थात् अल्प ज्ञान वाला, अल्प शक्तिवाला, अनादि, उत्पत्ति के कारण से रहित, नित्य, अमर व अविनाशी, अजर, शस्त्रों से काटा नहीं जा सकता, अग्नि में जल कर नष्ट नहीं होता, वायु इसे सुखा नहीं सकती, जल इसे गीला नहीं कर सकता, जन्म व मरण धर्मा, अज्ञान अवस्था में दुःखों से युक्त व ज्ञान प्राप्त कर सुखी होने वाला आदि अनेकानेक गुणों से युक्त होता है। जीवात्मा संख्या की दृष्टि से विश्व व ब्रह्माण्ड में अनन्त हैं। इनके लिए ही ईश्वर ने संसार की रचना की व सभी जीवों को उनके प्रारब्ध व पूर्वजन्मों के अभुक्त कर्मों के आधार पर शरीर प्रदान किये हैं। यह शरीर ईश्वर ने पुराने कर्मों को जिनका फल भोगना शेष है, भोगने के लिए दिए हैं। मनुष्य जीवन का यह विशेष गुण है कि यह उभय योनि हैं जबकि अन्य सभी भोग योनियां हैं। मनुष्य योनि में शरीरस्थ जीवात्मा प्रारब्ध के अनुसार पूर्व कर्मों को भोगता भी है और नये कर्मों को करता भी है। यह नये कर्म ही उसके पुनर्जन्म का आधार होते हैं।
मनुष्य को शुभ कर्म करने के लिए शिक्षा व ज्ञान चाहिये। यह उसे ईश्वर ने प्रदान किया हुआ है। वह ज्ञान वेद है जो सृष्टि के आदि में दिया गया था। इस ज्ञान का प्रचार व प्रसार एवं रक्षा सृष्टि की आदि से सभी ऋषि मुनि व सच्चे ब्राह्मण करते आये हैं। आज भी हमारे सभी कर्तव्याकर्तव्यों का द्योतक वा मार्गदर्शक वेद व वैदिक साहित्य ही है। मनुष्य व अन्य प्राणधारी जो भोजन आदि करते हैं वह सब भी सृष्टि में ईश्वर द्वारा प्रदान करायें गये हैं। इसी प्रकार अन्य सभी पदार्थों पर विचार कर भी निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। इससे ज्ञात होता है कि सभी मनुष्य व प्राणी ईश्वर के ऋणी हैं। जीव ईश्वर का ऋण चुकाएँ, इसका ईश्वर से कोई आदेश नहीं है। इतना अवश्य है कि प्रत्येक मनुष्य सच्चा मनुष्य बने। वह ईश्वर भक्त हो, देश भक्त, मातृ-पितृ भक्त हो, गुरु व आचार्य भक्त हो, ज्ञान अर्जित कर शुभ कर्म करने वाला हो, शाकाहारी हो, सभी प्राणियों से प्रेम करने वाला व उनका रक्षक हो आदि। ईश्वर सभी मनुष्यों को ऐसा ही देखना चाहते हंै। यह वेदों में मनुष्यों के लिए ईश्वर प्रदत्त शिक्षायें हैं। यदि मनुष्य ऐसा नहीं करेगा तो वह उसका अशुभ कर्म होने के कारण ईश्वरीय व्यवस्था से दण्डनीय हो सकता है।
ईश्वर जीवात्माओं पर उनके पूर्वजन्म के कर्मानुसार एक न्यायाधीश की तरह न्याय करता है और उसे मनुष्यादि जन्म देता है। इस कारण वह सभी जीवों का माता व पिता दोनों है। ईश्वर ने हमें वेद ज्ञान दिया है और जब भी हम कोई अच्छा व बुरा काम करते हैं तो हमारी आत्मा में अच्छे काम करने पर तत्क्षण प्रसन्नता व बुरे काम करने पर भय, शंका व लज्जा उत्पन्न करता है। यह ईश्वर ही करता है, आत्मा में प्रेरणा स्वतः नहीं हो सकती, जिससे ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध होता है। इससे ईश्वर हमारा गुरु व आचार्य सिद्ध होता है। वेद मन्त्रों में ईश्वर को मित्र व सखा भी कहा गया है। ईश्वर दयालु व धर्मात्मा है। धर्मात्मा सबका मित्र होता है। अतः ईश्वर भी हमारा मित्र व सखा है। मित्र का गुण बुरे समय में मित्र की सहायता व सहयोग करना होता है। ईश्वर भी हर क्षण, यहां तक की पूरे जीवनकाल में व मृत्युकाल के बाद व नये जन्म से पूर्व तक भी, हमारे साथ रहता है व हमें दुःखों से दूर रखने के साथ हमें दुःखों से बचाता भी है, इसी लिए वह हमारा सच्चा व सनातन मित्र है। ईश्वर हमारा स्वामी व राजा भी है। यह भी कह सकते हैं कि वह सब स्वामियों का स्वामी, सब गुरुओं का गुरु, सब राजाओं का भी राजा, न्यायाधीशों का भी न्यायाधीश है। यह सब व ऐसे अनेक संबंध हमारे ईश्वर के साथ है। हम यदि चाहें व ईश्वर भी चाहें तो भी यह सम्बन्ध विच्छेद नहीं हो सकते, सदा सदा बने ही रहेंगे। अतः प्रश्न उठता है कि इस स्थिति में ईश्वर के प्रति हमारा कर्तव्य क्या है?
ईश्वर के प्रति जीवात्मा का वही सम्बन्ध है जो पुत्र का माता व पिता, मित्र का मित्र के प्रति, शिष्य का गुरु व आचार्य के प्रति व भक्त का भगवान के प्रति होता है। भक्त भक्ति करने वाले को कहते हैं। भक्ति भगवान के गुणों को जानकर उसके अनुरूप स्वयं को बनाने, ढालने वा उन गुणों को धारण करने को कहते हैं। इसमें ओ३म् का जप, गायत्री मन्त्र का जप सहित ईश्वर का अधिक से अधिक समय तक ध्यान व उपासना करना होता है। ध्यान व उपासना में जीवात्मा ईश्वर के साथ जुड़ जाता है जिससे लाभ यह होता है कि ईश्वर-जीवात्मा की संगति से जीवात्मा के गुण, कर्म व स्वभाव ईश्वर जैसे बनने आरम्भ हो जाते हैं। जीवात्मा दुरितों वा असत्य को छोड़ कर भद्र वा सत्य को धारण करता है। वह ईश्वर की उपासना को अपना नित्य कर्तव्य मानता है व करता भी है। वह परोपकार, दीन- दुखियों की सेवा, दान, वेद प्रचार आदि कार्यों को करता है। यही मनुष्य के कर्तव्य हैं। वेदों का स्वाध्याय करना भी सभी मनुष्य का कर्तव्य वा परम धर्म है। वेदों के स्वाध्याय करने से सत्य कर्तव्यों के पालन करने की शिक्षा व बल मिलता है। यह सब अनुभूति के विषय हैं जिसे स्वयं करके ही जाना जा सकता है। आईये ! प्रतिदिन वेद व वैदिक साहित्य, सत्यार्थप्रकाश, आर्याभिविनय, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों के अध्ययन व स्वाध्याय के व्रत सहित ईश्वर के ध्यान व दैनिक अग्निहोत्र का व्रत लें, अन्य दैनिक यज्ञों को भी करें और जीवन को सफल करें अर्थात् मोक्ष मार्ग पर आगे बढ़े। ओ३म् शम्।
जगमोहन (मल्होत्रा) जी का एक ईमानदार राजनेता और कुशल प्रशासक के रूप में स्वातन्त्र्योत्तर भारत के सार्वजनिक जीवन में महत्वपूर्ण योगदान रहा हैI 94 साल की तमाम उपलब्धियों वाली ज़िन्दगी जीने वाले जगमोहन की छवि सख्त और दूरदर्शी फैसले लेने और उनका सुचारु और समयबद्ध कार्यान्वयन कराने वाले कर्तव्यनिष्ठ और कर्मठ व्यक्ति की रही हैI आज की समझौतापरस्त, अवसरवादी और पॉपुलिस्ट राजनीति और राजनेताओं के लिए उनका जीवन मिसाल हैI उन्होंने सदैव पॉपुलिज्म की जगह अपने कर्तव्य, अपने सिद्धांतों और राष्ट्रहित को प्राथमिकता दीI अडिग-अविचल होकर उन्होंने अपना कर्तव्य-पालन किया और राह में आने वाली हर चुनौती का सामना निडरतापूर्वक कियाI किसी भी कीमत पर कभी भी समझौता नहीं कियाI 25 सितम्बर, 1927 को अविभाजित पंजाब के हाफिज़ाबाद में जन्मे जगमोहन ने भारत विभाजन के दर्दनाक दृश्यों को अपनी आँखों से देखा थाI उन्होंने विभाजन के फलस्वरूप हुए विस्थापन के दुःख-दर्द को स्वयं भी झेला थाI भारत-विभाजन और उससे पैदा होने वाले विस्थापन ने न सिर्फ उन्हें सेक्युलरिज्म के खोल में भारत में पनपी मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति के प्रति सजग किया, बल्कि इसके खिलाफ मुखर होने का साहस और इसके संतुलन के लिए काम करने की समझ भी दीI इसीलिए मुस्लिमपरस्त सेक्युलर लॉबी ने उनकी कार्य-कुशलता और कार्यशैली को ‘अल्पसंख्यक-विरोधी’ कहकर अवमूल्यित करने की लगातार कोशिश कीI प्रतिष्ठित भारतीय प्रशासनिक सेवा से अपने शानदार कैरियर की शुरुआत करने वाले जगमोहन ने सातवें दशक में दिल्ली विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष के रूप में सराहनीय काम करते हुए लोगों को अपनी कार्यशैली से प्रभावित कियाI बहुत जल्द वे प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के लाड़ले बेटे संजय गाँधी के निकट आ गएI आपातकाल के दौरान वे दिल्ली के उपराज्यपाल थेI उस समय दिल्ली में विधान-सभा नहीं होती थीI इसलिए सारी कार्यकारी शक्तियां उपराज्यपाल में ही अन्तर्निहित थींI वे दो बार दिल्ली के उपराज्यपाल रहेI अपने इन दोनों कार्यकालों में उन्होंने दिल्ली का कायाकल्प करने में उल्लेखनीय भूमिका निभाईI आपातकाल के दौरान दिल्ली में जगह-जगह बसी हुई झुग्गी बस्तियों को हटाने और 1982 में दिल्ली में आयोजित एशियाई खेलों और गुट-निरपेक्ष सम्मेलन के शानदार और सुव्यवस्थित आयोजन का श्रेय जगमोहन को जाता हैI दिल्ली के सौन्दर्यीकरण के दौरान उन्होंने जबर्दस्त विरोध के बावजूद अवैध रूप से बसायी गयी तमाम झुग्गी बस्तियां हटवायींI इनमें सबसे बड़ी तुर्कमान गेट स्थित मुस्लिम झुग्गी बस्ती थीI जब इस झुग्गी बस्ती के लोग दुबारा एक ही जगह पर बसाये जाने की जिद करने लगे तो उन्होंने कहा कि- ‘मैंने एक पाकिस्तान को इसलिए नहीं उजाड़ा है कि फिर दूसरा पाकिस्तान बनाने दिया जायेI’ उनका इशारा साफ़ था कि मुस्लिम समुदाय को अपनी अलग किलेबंदी करके और झुण्ड बनाकर रहने की जगह अन्य समुदायों के साथ मिल-जुलकर रहना चाहिएI कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति से परिचित होते हुए भी उन्होंने अपने काम से समझौता नहीं किया और न किसी दबाव में आयेI इसीप्रकार एशियाई खेलों के सफल आयोजन के दौरान उन्होंने बहुत ही ईमानदारी और कार्यकुशलता का परिचय देते हुए भारत की अंतरराष्ट्रीय पहचान बनायीI अब तक उनकी खुद की पहचान भी एक अत्यंत कार्यकुशल, ईमानदार और अडिग इरादों वाले मजबूत प्रशासक की बन चुकी थीI जब नौवें दशक में जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद पनप रहा था तो तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने उन्हें राज्यपाल बनाकर जम्मू-कश्मीर भेजाI उन्होंने आतंकवाद को अपरोक्ष रूप से शह दे रही अलगाववादी शक्तियों की नकेल कसना शुरू कियाI इसी क्रम में उन्होंने फारुख अब्दुल्ला की सांप्रदायिक और अलगाववादी सरकार को बर्खास्त कराने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाईI वे जम्मू-कश्मीर आते ही इस बात को समझ गए थे कि आतंकवाद और अलगाववाद की जड़ वहाँ सक्रिय क्षेत्रीय दल हैंI उन्होंने इस गठजोड़ को काफी हद तक तोड़ डाला थाI राजीव गाँधी के बाद प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने भी उन्हें दुबारा जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल बनायाI हालाँकि, उनका यह कार्यकाल अल्पकालीन ही रहा क्योंकि तत्कालीन रामो-वामो की सरकार गठबंधन की कमजोर सरकार थीI उसके अनेक घटक खासकर कम्युनिष्ट पार्टियाँ मुस्लिम तुष्टिकरण और ध्रुवीकरण की राजनीति पर ही फल-फूल रही थींI जब जगमोहन ने कश्मीर घाटी में हिन्दुओं पर हो रहे जुल्म को रोकने की कोशिश की और मुस्लिम ज्यादतियों और आतंक के खिलाफ सख्त कार्रवाई की तो दिल्ली में बैठे उनके हिमायतियों ने वी.पी. सिंह पर दबाव बनाकर उन्हें हटवा दियाI लेकिन 19 जनवरी, 1990 की काली रात में कश्मीर घाटी में होने वाले कत्लेआम से ठीक पहले ही उन्होंने बड़ी संख्या में हिन्दुओं को वहाँ से सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाकर उनकी जान और अस्मत की रक्षा करने का सराहनीय कार्य कियाI 26 जनवरी, 1990 को श्रीनगर में आज़ादी मनाने के अलगाववादियों-आतंकवादियों के मंसूबों को विफल करने का श्रेय भी उन्हें जाता है। उन्होंने जम्मू और लद्दाख संभाग के साथ होने वाले भेदभाव और जम्मू-कश्मीर की राजनीति में कश्मीरियों और मुसलमानों के वर्चस्व को संतुलित करने की कोशिश कीI उनके इन्हीं साहसिक और सूझ-बूझ वाले कामों की वजह से जम्मू संभाग के लोग और विस्थापित कश्मीरी हिन्दू आजतक उनका गुणगान करते हैंI उल्लेखनीय है कि तमाम आतंकवादी संगठनों और कठमुल्लों के अलावा पाकिस्तान की तत्कालीन प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो ने भी उनको खुलेआम धमकियाँ दींI उन्हें जगमोहन की जगह ‘भगमोहन’ बनाने और मो-मो की तरह उनके टुकड़े-टुकड़े करने तक की बात की गयीI लेकिन उन्होंने इन गीदड़ भभकियों की तनिक भी परवाह न करते हुए पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद की रीढ़ तोड़ने का काम कियाI इस दौर के अपने अनुभवों को उन्होंने अपनी बहु-चर्चित पुस्तक ‘माय फ्रोजन टर्बुलेंस इन कश्मीर’ में अभिव्यक्त किया हैI जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल के रूप में उन्होंने श्री माता वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड की स्थापना करके श्रध्दालुओं के चढ़ावे के उपयोग में पारदर्शिता सुनिश्चित कीI उल्लेखनीय है कि इसी राशि से जम्मू-कश्मीर के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय श्री माता वैष्णो देवी विश्वविद्यालय की स्थापना हुई और उसी से उसका संचालन भी होता हैI अस्पताल आदि और भी अनेक सामाजिक कार्य इसी चढ़ावे से होते हैंI उन्होंने वैष्णो देवी यात्रा और अमरनाथ यात्रा को विकसित, व्यवस्थित और सुविधाजनक भी बनायाI जगमोहन का दृढ़ विश्वास था कि अनुच्छेद 370 राष्ट्रीय एकीकरण की सबसे बड़ी बाधा हैI यह अनुच्छेद ही जम्मू-कश्मीर को भारत से अलगाता हैI यही जम्मू-कश्मीर में भारतीय संविधान के अन्य तमाम प्रावधानों को लागू नहीं होने देताI उन्होंने इसे ‘अस्थायी और संक्रमणकालीन प्रावधान’ मानते हुए जल्द-से-जल्द समाप्त करने की बात खुलकर कीI भारत सरकार ने 5 अगस्त, 2019 को अनुच्छेद 370 और 35 ए की समाप्ति करके जगमोहन के विचारों की पुष्टि कर दी और भारत के एकीकरण की परियोजना को पूरा कर दियाI दिल्ली की मुस्लिम्परस्त सेक्युलर लॉबी के दबाव में जब उन्हें जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल पद से अकारण कार्यमुक्त कर दिया गया तो वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नज़रों में आ गएI उनके काम करने के तरीके ने ही उन्हें आगे बढ़ने और अधिक काम करने के अवसर दिलायेI वे कम-से-कम चार प्रधानमंत्रियों के पसंदीदा ‘टफ टास्क मास्टर’ थेI उनकी कार्यशैली ने उनके जितने विरोधी तैयार किये, उससे कहीं ज्यादा उनके प्रशंसक भी बनायेI संघ के आग्रह पर वे भाजपा में शामिल हो गए और नयी दिल्ली लोकसभा क्षेत्र से तीन बार (1996,98,99) निर्वाचित हुएI इससे पहले वे 1990 में राज्यसभा के लिए चुने गए थेI वे वाजपेयी जी की सरकार में शहरी विकास, संचार और पर्यटन मंत्री रहेI सार्वजनिक जीवन में उनके उल्लेखनीय योगदान और राष्ट्र-सेवा के लिए उन्हें भारत के प्रतिष्ठित नागरिक अलंकरणों-पद्म श्री, पद्म-भूषण और पद्म-विभूषण (1971,1977, 2016) से सम्मानित किया गयाI जगमोहन ने अपने काम से ही अपनी पहचान बनायीI ईमानदार राजनेताओं और कुशल और कर्तव्यनिष्ठ प्रशासकों की इस अकाल-बेला में ‘काम को ही पूजा’ मानने वाले जगमोहन युवा पीढ़ी के लिआदर्श बने रहेंगे I
योगेश कुमार गोयल चार राज्यों और एक केन्द्रशासित प्रदेश के विधानसभा चुनाव परिणामों का समग्रता से आकलन करें तो जहां केरल और असम में पहले से सत्तारूढ़ दल ही पुनः सत्ता हासिल करने में सफल हुए हैं, वहीं पश्चिम बंगाल में 200 पार का नारा लगाकर सत्ता पाने के लिए मीडिया मैनेजमेंट और साम, दाम, दंड, भेद का इस्तेमाल कर अपनी सारी ताकत झोंकने के बावजूद भाजपा 80 सीटें भी नहीं जीत पाई जबकि तृणमूल कांग्रेस तीसरी बार रिकॉर्ड बहुमत के साथ सत्ता में लौटी है। पुडुचेरी में भाजपा गठबंधन सरकार बनाने में सफल हुआ है लेकिन केरल में उसका खाता तक नहीं खुला और तमिलनाडु में सहयोगी अन्नाद्रमुक के साथ मिलकर चुनाव लड़ने के बावजूद वह काफी पिछड़ गई, जहां एक दशक बाद जनता ने द्रमुक को शासन संभालने का अवसर दिया है। बहरहाल, इन पांच प्रदेशों के जो चुनाव परिणाम सामने आए हैं, वे आने वाले समय में न केवल इन राज्यों की राजनीति पर बल्कि राष्ट्रीय राजनीति पर भी गहरा असर डालेंगे और सबसे ज्यादा असर पश्चिम बंगाल के चुनावी नतीजों का होगा। पश्चिम बंगाल में भाजपा ने अति आत्मविश्वास से लबरेज होकर ‘सोनार बांग्ला’ के नारे के साथ इस राज्य को अपने जीवन-मरण का प्रश्न बनाकर चुनाव लड़ा था, जिसे जीतने के लिए उसने तमाम तरह के पैंतरों का इस्तेमाल किया और देश में फैले कोरोना प्रकोप के बीच पूरे लाव लश्कर के साथ अपनी सारी ताकत यहां झोंक दी थी लेकिन भाजपा के अति आक्रामक चुनाव प्रचार तथा ध्रुवीकरण की तमाम कोशिशों के बीच जनता ने बंगाल की सत्ता फिर से प्रचण्ड बहुमत के साथ ममता की झोली में डाल दी। मतुआ समुदाय को लुभाने के लिए प्रधानमंत्री का चुनावी प्रक्रिया के बीच किया गया बांग्लादेश दौरा भी भाजपा के काम नहीं आया। भाजपा की हार के प्रमुख कारणों की चर्चा करें तो पार्टी के पास ममता के मुकाबले कोई मजबूत स्थानीय चेहरा न होना, कांग्रेस-वाममोर्चा के निष्प्रभावी हो जाने से चुनाव का पूरी तरह द्विपक्षीय हो जाना, तृणमूल के पक्ष में मुस्लिम मतों का पूर्ण धु्रवीकरण, भाजपा नेताओं की ममता पर की गई टिप्पणियों के चलते महिला मतदाताओं का ममता के पक्ष में एकजुट होना इत्यादि प्रमुख रहे। उधर ममता बनर्जी ने एंटी-इनकमबेंसी फैक्टर से बचने के लिए न केवल अपने 160 प्रत्याशी बदले बल्कि 28 विधायकों तथा 5 मंत्रियों के टिकट भी काटे और 2016 के मुकाबले और भी मजबूत होकर पुनः सत्तासीन हुई हैं। असम में भाजपा गठबंधन की वापसी सुखद मानी जा सकती है क्योंकि वहां पिछले पांच साल से सत्ता में बने रहने के बावजूद भाजपा जिन मुद्दों को लेकर यहां सत्ता में आई थी, उन तमाम मुद्दों को लेकर राज्य में असमंजस की स्थिति बरकरार थी। उत्तर-पूर्वी भारत में असम सबसे बड़ा राज्य है, जो भाजपा के लिए काफी महत्वपूर्ण था। हालांकि करीब डेढ़-दो साल पहले उसे असम में देश के नागरिकता कानून में केन्द्र सरकार के संशोधनों के खिलाफ व्यापक प्रदर्शनों का सामना करना पड़ा था लेकिन समय के साथ उसने वहां अपनी स्थिति मजबूत की। भाजपा गठबंधन का मुकाबला कांग्रेस गठबंधन के साथ था लेकिन कांग्रेस के पास तरुण गोगोई जैसे दिग्गज नेता के अभाव में उसकी राह शुरू से ही मुश्किल लग रही थी। दूसरी ओर भाजपा के पास सर्वानंद सोनोवाल तथा कांग्रेस से भाजपा में शामिल हुए हेमंत बिस्वा की आक्रामक जोड़ी थी, जिन्होंने भाजपा की राह चुनाव के दौरान आसान बना दी। मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल की जनहितैषी छवि भी भाजपा की जीत का आधार बनी जबकि कांग्रेस यहां भी जमीनी हकीकत पहचानने में विफल रही। कांग्रेस ने बदरूद्दीन अजमल की पार्टी के साथ गठबंधन किया था और इसी आधार पर भाजपा हिन्दू मतों का धु्रवीकरण अपने पक्ष में करने में सफल हो गई। पुडुचेरी जीतने के बाद भाजपा के खाते में एक और प्रदेश जुड़ गया है। पुडुचेरी में चार साल से कांग्रेस की सरकार थी लेकिन चुनाव से पहले ही उसने अधिकांश विधायकों का समर्थन खो दिया था और कुछ ने सत्तारूढ़ पार्टी से इस्तीफा भी दे दिया था। महज 30 सीटों वाले इस छोटे से प्रदेश में कांग्रेस की सरकार के धराशायी होने के बाद कांग्रेस की सांगठनिक क्षमता पर गंभीर सवाल भी उठे थे। इस घटनाक्रम के बाद तय लग रहा था कि यहां भाजपा अपने सहयोगी और कांग्रेस के बागी एन रंगास्वामी के दल के साथ गठजोड़ कर अपना परचम लहराने जा रही है। कांग्रेस की अंतर्कलह का भाजपा भरपूर लाभ उठाने में सफल रही। केरल में भाजपा ने मैट्रोमैन श्रीधरन को कमान सौंपकर उनकी साफ-सुथरी छवि के सहारे इस राज्य पर भी कब्जा करने की भरसक कोशिश की थी लेकिन इस वामपंथी गढ़ में बड़ी सेंध लगा पाना उसके लिए आसान नहीं था। शुरू से ही माना जा रहा था कि यहां वाममोर्चा पुनः सत्ता में वापसी करेगा लेकिन कांग्रेस के आक्रामक चुनाव प्रचार को देखते हुए ऐसी उम्मीद कम ही थी कि वाममोर्चा बड़ी जीत हासिल करेगा। चूंकि पांचों प्रदेशों के चुनाव प्रचार में कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने सर्वाधिक समय केरल में ही व्यतीत किया, इसलिए उनसे काफी उम्मीदें लगाई जा रही थी लेकिन वायनाड से सांसद राहुल गांधी मुख्यमंत्री पी विजयन की लोकप्रियता के मुकाबले पिछड़ गए। हालांकि केरल में राहुल को कांग्रेस के बेहतरीन प्रदर्शन की उम्मीद थी लेकिन उनकी लोकप्रियता और अपने संसदीय क्षेत्र में निरंतर सक्रियता भी पार्टी के ज्यादा काम नहीं आई। 25.12 फीसदी वोट हासिल करने के बावजूद वह केवल 21 सीटें ही हासिल कर सकी जबकि सीपीआई (एम) 25.38 फीसदी मतों के साथ 62 सीटें झटकने में सफल रही। कांग्रेस के साथ दुविधा यह थी कि जिन वामदलों के खिलाफ वह केरल में ताल ठोंक रही थी, उन्हीं के साथ मिलकर वह पश्चिम बंगाल में चुनाव लड़ रही थी। मतदाताओं को इस गणित के बारे में समझाना उसके लिए बिल्कुल असहज था। केरल में हर बार सत्ता परिवर्तन की परम्परा रही है लेकिन विजयन इस परम्परा को तोड़ने में सफल हो गए। विजयन की लोकप्रियता का राज अपने तंत्र पर उनका नियंत्रण है लेकिन राहुल गांधी का गृहराज्य होने के बावजूद कांग्रेस के पिछड़ जाने के बाद आने वाले समय में पार्टी के भीतर राहुल के नेतृत्व के खिलाफ स्वर मुखर हो सकते हैं। तमिलनाडु में भाजपा ने सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक के कंधों पर सवार होकर चुनाव लड़ा था लेकिन अन्नाद्रमुक के साथ परेशानी यह थी कि जयललिता के निधन के बाद से पार्टी के पास कोई ऐसा एकछत्र नेता नहीं है, जो पार्टी को एकजुट रख सके। अभी तक सत्तारूढ़ रही अन्नाद्रमुक के साथ गठबंधन करके भाजपा इस दक्षिण भारतीय राज्य में सत्ता का स्वाद चखना चाहती थी लेकिन उसकी हसरतों पर पानी फिर गया है। तमिलनाडु की राजनीति नए नेतृत्व के तलाश के दौर से गुजर रही थी और वहां की जनता ने द्रमुक के एम.के. स्टालिन तथा कांग्रेस के गठबंधन पर भरोसा जताकर अन्नाद्रमुक-भाजपा गठबंधन को सत्ता से बेदखल कर दिया है। एम. करूणानिधि के निधन के बाद स्टालिन के नेतृत्व में यह पहला चुनाव था, जिसमें वह सफल रहे जबकि पनीरसेल्वम तथा पलानीसामी के दो धड़ों में बंटी अन्नाद्रमुक की पराजय के बाद अब इसके वजूद पर संकट मंडराने की संभावनाएं भी बढ़ गई हैं। बहरहाल, चूंकि भाजपा की नजरें पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के जरिये 2024 के लोकसभा चुनाव का ट्रैंड सैट करने पर केन्द्रित थी, इसीलिए उसने अन्य विधानसभा चुनावों के मुकाबले पश्चिम बंगाल को ही अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बनाकर यहां अपनी सारी ताकत झोंक दी थी लेकिन इतनी ताकत लगाने के बाद भी यहां उसे जो झटका लगा है, उससे भाजपा को भारी निराशा हुई है। अगले साल पंजाब, उत्तर प्रदेश तथा उत्तराखण्ड में विधानसभा चुनाव होने हैं, जहां कई महीनों से चल रहे किसान आन्दोलन के कारण वह पहले से ही बैकफुट पर है, ऐसे में राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से ये नतीजे भाजपा के लिए बड़ी चुनौती के रूप में सामने आए हैं। पश्चिम बंगाल में तृणमूल की धमाकेदार जीत के बाद ममता का क्षेत्रीय कद काफी बढ़ गया है और साथ ही राष्ट्रीय राजनीति में भी वह मजबूत विकल्प के रूप में उभरी हैं। दूसरी ओर कांग्रेस किसी भी प्रदेश में अपने विरोधियों के समक्ष मजबूत चुनौती पेश करने में विफल रही, इससे कांग्रेस की पकड़ लगातार कम हो रही है। पिछले काफी समय से विपक्ष को एक ऐसे सशक्त नेता की तलाश थी, जो प्रधानमंत्री मोदी को कड़ी चुनौती देते हुए उनके मजबूत विकल्प के रूप में उभर सके। पश्चिम बंगाल चुनाव में जबरदस्त सफलता के बाद ममता इस कसौटी पर खरी उतरी हैं। दरअसल ममता की यह जीत भाजपा के चुनावी प्रबंधन पर उनके करिश्माई चेहरे की जीत है और इस जीत में तमाम विपक्षी दलों को उम्मीद की किरण दिखाई दी है। ममता की इस बड़ी जीत ने उनके लिए राष्ट्रीय राजनीति के द्वार खोल दिए हैं और आने वाले दिनों में वह विपक्ष का बड़ा चेहरा बनकर राष्ट्रीय राजनीति में भी दस्तक दे सकती हैं। दरअसल कांग्रेस की लगातार पस्त होती हालत के बीच भाजपा के खिलाफ एकजुट होने के लिए विपक्ष के पास अब स्वयं को साबित कर चुकी ममता बनर्जी के रूप में नेतृत्व करने लायक सशक्त चेहरा है। कुल मिलाकर पांच राज्यों के चुनावी नतीजे आने वाले समय में देश में गठबंधन की राजनीति को नया रूप देने का महत्वपूर्ण कार्य करेंगे।