Home Blog Page 622

किसान आन्दोलन पर देशद्रोह एवं अशांति के धब्बे?

-ः ललित गर्ग:-
सर्वोच्च न्यायालय ने जन-प्रदर्शनों, आन्दोलनों, बन्द, रास्ता जाम, रेल रोकों जैसी स्थितियों के बारे में जो ताजा फैसला किया है, उस पर लोकतांत्रिक मूल्यों की दृष्टि से गंभीर चिन्तन होना चाहिए, नयी व्यवस्थाएं बननी चाहिए। भले ही उससे उन याचिकाकर्ताओं को निराशा हुई होगी, जो विरोध-प्रदर्शन के अधिकार के लिए लड़ रहे हैं। कोई भी आन्दोलन जो देश के टुकड़े-टुकड़े कर देने की बात करता हो, लाल किले का अपमान करता हो, 500 पुलिसवालों पर हिंसक एवं अराजक प्रहार करके उन्हें घायल कर देता हो या राष्ट्रीय ध्वज का निरादर करता हो, उसे किस तरह और कैसे लोकतांत्रिक कहा जा सकता है? वहीं लोकतंत्र अधिक सफल एवं राष्ट्रीयता का माध्यम है, जिसमें आत्मतंत्र का विकास हो, स्वस्थ राजनीति की सोच हो एवं राष्ट्र को सशक्त करने का दर्शन हो, अन्यथा लोकतंत्र में भी एकाधिपत्य, अव्यवस्था, अराजकता एवं राष्ट्र-विरोधी स्थितियां उभर सकती है।
सत्ता, राजनीति एवं जन-आन्दोलनों के शीर्ष पर बैठे लोग यदि जनतंत्र के आदर्श को भूला दें तो वहां लोकतंत्र के आदर्शों की रक्षा नहीं हो सकती। आज लोकतंत्र के नाम पर जिस तरह के विरोध प्रदर्शन की संस्कृति पनपी है, उससे राष्ट्र की एकता के सामने गंभीर खतरे खडे़ हो गये हंै। यह बड़ा सच है कि यदि किसी राज्य में जनता को विरोध-प्रदर्शन का अधिकार न हो तो वह लोकतंत्र हो ही नहीं सकता। विपक्ष या विरोध तो लोकतंत्र का आधार होता है क्योंकि जिस देश की जनता एवं राजनीतिक दल पंगु, निष्क्रिय और अशक्त हो तो वह लोकतांत्रिक राष्ट्र हो ही नहीं सकता। विरोध तो लोकतंत्र का हृदय है और देश की अदालत ने भी विरोध-प्रदर्शन, धरने, अनशन, जुलूस आदि को भारतीय नागरिकों का मूलभूत अधिकार माना है लेकिन उसने यह भी साफ-साफ कहा है कि उक्त सभी कार्यों से जनता को लंबे समय तक असुविधा होती है तो उन्हें रोकना सरकार का अधिकार एवं दायित्व है। विरोध भी शालीन, मर्यादित होने के साथ आम जनजीवन को बाधित करने वाला नहीं होना चाहिए। अदालत की यह बात एकदम सही है, क्योंकि आम जनता की जीवन निर्वाह की स्थितियों को बाधित करना तो उसके मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन है। यह सरकार का नहीं, जनता का विरोध है।
चंद प्रदर्शनकारी के धरनों से असंख्य लोगों की स्वतंत्रता बाधित हो जाती है। लाखों लोगों को लंबे-लंबे रास्तों से गुजरना पड़ता है, धरना-स्थलों के आस-पास के कल-कारखाने बंद हो जाते हैं और सैकड़ों छोटे-व्यापारियों की दुकानें चैपट हो जाती हैं। गंभीर मरीज अस्पताल तक पहुंचते-पहुंचते दम तोड़ देते हैं। शाहीन बाग और किसानों जैसे धरने यदि हफ्तों तक चलते रहते हैं तो देश को अरबों रु. का नुकसान हो जाता है। रेल रोको अभियान सड़कबंद धरनों से भी ज्यादा दुखदायी सिद्ध होते हैं। ऐसे प्रदर्शनकारी जनता की भी सहानुभूति खो देते हैं। उनसे कोई पूछे कि आप किसका विरोध कर रहे हैं, सरकार का या जनता का? प्रश्न यह भी है कि इस तरह के प्रदर्शन से किसका हित सध रहा है, किसानों का या राजनीतिक दलों का?
लम्बे समय से कृषि कानूनों के विरोध में जो किसान आन्दोलन चल रहा है, वह किसानों के हितों का आन्दोलन न होकर राजनीतिक स्वार्थों को सिद्ध करने का षडयंत्र है, जिसमें अनेक विदेशी शक्तियां देश को कमजोर करने के लिये जुटी है। हम व्यवस्था से समझौता कर सकते है, लेकिन सिद्धांत के साथ कभी नहीं, किसी कीमत पर भी नहीं। समझ एवं शांति चाहने वाले लोग कहते हैं कि कोई भी आन्दोलन केवल घाव देता है, आखिर तो टेबल पर बैठना ही होता है। शांति को मौका देने की यह बात वे किससे कहते हैं? उनसे जो शांति चाहते हैं या उनसे जो शांति भंग कर रहे हैं? अब हमें देश को कमजोर करने और अलगाववाद के विरुद्ध हमें नये समीकरण खोजने होंगे। उनकी इच्छा का व्याकरण समझना होगा। वे सिर्फ शांति की अपील से आन्दोलन वापिस नहीं लेंगे। यदि यह सब इतना आसान होता तो सरकार के बार-बार झूकने एवं किसानों से लम्बे दौर की बातचीत का कोई निष्कर्ष अवश्य सामने आता।
अदालत ने इस तरह के धरने चलाने के पहले अब पुलिस की पूर्वानुमति को अनिवार्य बना दिया है, प्रश्न है कि क्या दिल्ली सीमाओं पर चल रहे लंबे धरने पर बैठे किसान अब अदालत की सुनेंगे या नहीं? इन धरनों और जुलूसों से एक-दो घंटे के लिए यदि सड़कें बंद हो जाती हैं और कुछ सार्वजनिक स्थानों पर प्रदर्शनकारियों का कब्जा हो जाता है तो कोई बात नहीं लेकिन यदि इन कुचेष्टाओं से मानव-अधिकारों का लंबा उल्लंघन होगा तो पुलिस-कार्रवाई न्यायोचित ही कही जाएगी। क्या पुलिस ऐसी कार्रवाई के लिये सक्षम एवं तत्पर है? क्या सत्ताधारी पार्टी इस तरह का खतरा उठा पाएंगी?  
देखने में आ रहा है पुलिस देशद्रोह और अशांति भड़काने के आरोपियों पर शिकंजा कसने लगी है। बेंगलुरु की सामाजिक कार्यकत्र्री दिशा रवि को तो गिरफ्तार कर लिया गया है और निकिता जेकब और शांतनु को भी वह जल्दी ही पकड़ने की तैयारी में है। इन तीनों पर आरोप है कि इन्होंने मिलकर षड़यंत्र किया और भारत में चल रहे किसान आंदोलन को भड़काया। इतना ही नहीं, इन्होंने स्वीडी नेता ग्रेटा टुनबर्ग के भारत-विरोधी संदेश को इंटरनेट पर फैलाकर लालकिला की अस्मिता एवं अस्तित्व को धुंधलाने का सफल प्रयत्न किया। पुलिस ने काफी खोज-पड़ताल करके कहा है कि कनाडा के एक खालिस्तानी संगठन ‘पोइटिक जस्टिस फाउंडेशन’ के साथ मिलकर इन लोगों ने यह भारत-विरोधी षड़यंत्र किया है। इस आरोप को सिद्ध करने के लिए पुलिस ने इन तीनों के बीच फोन पर हुई बातचीत, पारस्परिक संदेश तथा कई अन्य दस्तावेज खोज लिये हैं। यदि पुलिस के पास ऐसे ठोस प्रमाण है तो निश्चय ही यह अत्यंत आपत्तिजनक और दंडनीय घटना है। अदालत तय करेगी कि इन अपराधियों को कितनी सजा मिलेगी।
राजनीति का अपराधीकरण हो रहा है या अपराध का राजनीतिकरण? आतंकवाद, उग्रवाद, नक्सलवाद के बाद अब यह कौन-सा वाद है? जिस प्रकार उग्रवादियों एवं देशद्रोहियों को एक भाषण, एक सर्वदलीय रैली या जुलूस से मुख्यधारा में नहीं जोड़ा जा सकता, ठीक उसी प्रकार राजनीति दलों की सत्ता की राजनीति किसानों के रोग की दवा नहीं हो सकती। किसान आन्दोलन राजनीतिक दलों की एक जबरन एवं अतिश्योक्तिपूर्ण विडम्बना है। आज राष्ट्रीय जीवन में भी बहुत कुछ आवश्यक विडम्बनाएं हैं। जिनसे संघर्ष न करके हम उन्हें अपने जीवन का अंग मान कर स्वीकार कर लेते हैं। पर यह कोई आदर्श स्थिति नहीं है। राष्ट्र के जीवन में विडम्बनाएं तब आती हैं, जब कुछ गलत पाने के लिए कुछ अच्छे को छोड़ने की तुलनात्मक स्थिति आती है। यही क्षण होता है जब हमारा कत्र्तव्य कुर्बानी मांगता है। ऐसी स्थिति झांसी की रानी, भगतसिंह से लेकर अनेक शहीदों के सामने थी। जिन्होंने मातृभूमि की माटी के लिए समझौता नहीं किया। कत्र्तव्य और कुर्बानी को हाशिये के इधर और उधर नहीं रखा।
आज देश के सम्मुख संकट इसलिए उत्पन्न हुआ कि हमारे देश में सब कुछ बनने लगा पर राष्ट्रीय चरित्र नहीं बना और बिन चरित्र सब सून……..। राष्ट्रीयता और शांति चरित्र के बिना ठहरती नहीं, क्योंकि यह उपदेश की नहीं, जीने की चीज है। हमारे बीच गिनती के लोग हैं जिन्हें इस स्थान पर रखा जा सकता है। पर हल्दी की एक गांठ को लेकर थोक व्यापार नहीं किया जा सकता।
न राष्ट्रीयता आसमान से उतरती है, न शांति धरती से उगती है। इसके लिए पूरे राष्ट्र का एक चरित्र बनना चाहिए। वही सोने का पात्र होता है, जिसमें राष्ट्रीयता रूपी शेरनी का दूध ठहरता है। वही उर्वरा धरती होती है, जहां शांति का कल्पवृक्ष फलता है। अन्यथा हमारा प्रयास अंधेरे में काली बिल्ली खोजने जैसा होगा, जो वहां है ही नहीं।

राजा सुहेलदेव जैसे इतिहासनायकों के साथ न्याय करते प्रधानमंत्री मोदी

डॉ॰ राकेश कुमार आर्य

आज हमारे देश का इतिहास करवट ले रहा है और कुछ सीमा तक उसे करवट दिलवाई भी जा रही है।
हमारे ऐसा कहने का अभिप्राय है कि जब हम विश्व नेतृत्व की स्थिति में आते जा रहे हैं और विश्व को कोरोना वैक्सीन देने सहित कई क्षेत्रों में मार्गदर्शन दे रहे हैं तब हम कह सकते हैं कि हमारा इतिहास करवट ले रहा है। हम नए युग की ओर अर्थात उज्ज्वल भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं। इसी प्रकार जब हम यह कहते हैं कि हम इतिहास को करवट दिलवा रहे हैं तब हमारे कहने का अर्थ होता है कि इतिहास के विलुप्त अध्यायों को फिर से इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों के रूप में स्थापित कराने के हमारे सभी कार्य इतिहास को करवट दिलाने के समान हैं।

हमारे गौरवमयी और पराक्रमी इतिहास के स्वर्णिम अध्याय के रूप में सुविख्यात रहे बहराइच के राजा सुहेलदेव पर जब मैंने अपनी पुस्तक ”भारत का 1235 वर्षीय स्वाधीनता संग्राम का इतिहास – भाग- 1″ में प्रकाश डाला था तो उनके इतिहास लेखन के समय मेरे मन में यही विचार आ रहे थे कि ऐसे महान शासक, महान देशभक्त और महापराक्रमी वीर योद्धा को इतिहास में उचित स्थान कब मिलेगा ? मेरा विचार था कि ऐसे महापुरुषों की जयंतियाँ मनाकर हम अपनी वर्तमान पीढ़ी को गम्भीर संदेश देने का काम प्रारंभ करें। राष्ट्रीय स्तर पर यह काम हमारी सरकारों को ही करना चाहिए। हमारा मानना है कि इन महापुरुषों की प्रतिमाएं स्थापित की जाएं, जिससे हमारी पीढ़ी को अपने गौरवमयी अतीत का समुचित बोध हो सके।
अब जबकि देश के प्रधानमंत्री श्री मोदी ने महाराजा सुहेलदेव स्मारक और चित्तौरा झील के विकास कार्य की वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए आधारशिला रखी है तो हमें बहुत ही अधिक प्रसन्नता हुई है। इस अवसर पर प्रधानमंत्री श्री मोदी ने यह भी स्पष्ट किया है कि भारत के इतिहास के लेखन में भयंकर भूलें की गई हैं। उन्होंने कहा कि इतिहास के कई नायकों के साथ अन्याय किया गया है। श्री मोदी ने कहा कि उनकी सरकार पुरानी गलतियां सुधार रही है। चाहे सरदार पटेल हों या फिर अंबेडकर – हम चाहते हैं कि उनके किए गए कार्य को इतिहास में उचित सम्मान और स्थान प्राप्त हो। प्रधानमंत्री श्री मोदी का यह कहना भी सर्वथा उचित ही है कि भारत का इतिहास सिर्फ वह नहीं है, जो देश को गुलाम बनाने वालों, गुलामी की मानसिकता के साथ इतिहास लिखने वालों ने लिखा, भारत का इतिहास वह भी है जो भारत के सामान्य जन में, भारत की लोकगाथाओं में रचा-बसा है। जो पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ा है।
सचमुच महाराजा सुहेलदेव भारतीय इतिहास के वह स्वर्णिम नक्षत्र हैं, जिन्होंने महमूद गजनबी के भांजे सालार मसूद की लाखों की सेना को गाजर मूली की भांति काट कर फेंक दिया था। तब सालार मसूद की सेना का एक सैनिक भी ऐसा नहीं बचा था, जिसने अपने देश जाकर यह बताया हो कि हिंदुओं की महान प्रतापी सेना ने हमारी 11 लाख की सेना को किस प्रकार काट कर फेंक दिया है ? महाराजा सुहेलदेव के साथ गुर्जर परमार वंश और कई अन्य वंशों के उन देशभक्त शासकों का भी सम्मान किया जाना अपेक्षित है, जिन्होंने देश ,धर्म व संस्कृति की रक्षा के लिए किए गए इस संघर्ष में राजा सुहेल देव का साथ दिया था।
वास्तव में भारत के इतिहास पर यदि चिंतन किया जाए तो ऐसे अनेकों वीर योद्धा हैं जिनके साथ अन्याय करते हुए उन्हें इतिहास के पृष्ठों में स्थान नहीं दिया गया है। ऐसा न केवल डॉक्टर अंबेडकर और सरदार पटेल के साथ किया गया है बल्कि गुर्जर वंश के प्रतापी शासकों के साथ भी ऐसा ही अन्याय किया गया है। जिनमें नागभट्ट प्रथम, नागभट्ट द्वीतीय, सम्राट मिहिर भोज आदि का नाम उल्लेखनीय है। इसके अतिरिक्त चन्द्रापीड मुक्तापीड़ के गौरवपूर्ण कार्यों को भी इतिहास में सही स्थान नहीं दिया गया है। ऐसा ही अन्याय कनिष्क जैसे कई प्रतापी शासकों के साथ किया गया है। इतना ही नहीं, भारत की सीमाओं का सही निर्धारण करने में भी अन्याय स्पष्ट झलकता है। कनिष्क जैसे सम्राटों को विदेशी घोषित किया गया है, जबकि उस समय भारत की सीमाएं बहुत विस्तृत थीं। आज के दर्जनों देश उस समय की भारत की सीमाओं के भीतर ही थे। उन देशों को भारत से अलग मानकर इतिहास लिखा गया है। इसलिए कनिष्क जैसे कई शासकों को विदेशी घोषित कर दिया गया है। यह केवल इसलिए किया गया है जिससे कि भारत के लोगों में यह विश्वास दृढ़ता के साथ बना रहे कि भारत हमेशा विदेशियों के अधीन रहा है। हमारे जिन इतिहास नायकों के साथ अन्याय किया गया है उन सब को इस छोटे से लेख में स्थान दिया जाना संभव नहीं है। यहां जितना हमने लिखा है वह संकेतमात्र ही है।
जिस प्रकार देश के राजनीतिक इतिहास के साथ अन्याय किया गया है, उसी प्रकार देश के सांस्कृतिक इतिहास को भी मिटाने का हर संभव प्रयास किया गया है । जिनमें बहुत से साहित्यकारों को उनकी उत्कृष्ट साहित्यिक रचनाओं के उपरांत भी इतिहास में कोई स्थान नहीं दिया गया । विज्ञान और कला के क्षेत्र में काम करने वाले लोगों को भी इतिहास से दूर रखा गया है । जिससे ऐसा लगता है कि भारत की साहित्य, कला और विज्ञान के प्रति लंबे समय से कोई सूची नहीं रही है। जबकि प्राचीन काल से ही साहित्य ,कला और विज्ञान के क्षेत्र में भारत विश्व का नेतृत्व करता आ रहा था। यह अचानक कैसे हो सकता है कि सारे संसार को अत्यंत प्राचीन काल से इन क्षेत्रों में नेतृत्व देने वाला भारत अचानक बौद्धिक संपदा से वंचित हो गया हो ?
जिस प्रकार भारत के महान प्रजावत्सल शासकों व सम्राटों को इतिहास से मिटा दिया गया, उसी प्रकार प्राणीमात्र के हितचिंतन में साहित्य की रचना करने वाले साहित्यकारों और प्राणीमात्र के कल्याण के लिए विज्ञान के क्षेत्र में अनेकों अनुसंधान करने वाले वैज्ञानिकों को भी इतिहास से मिटा दिया गया। आज न केवल डॉक्टर अंबेडकर और सरदार पटेल के साथ किए गए अन्याय को ठीक करने का समय है बल्कि नागभट्ट प्रथम, नागभट्ट द्वीतीय और गुर्जर सम्राट मिहिर भोज जैसे अनेकों सम्राटों के उन महान कार्यों को भी इतिहास में उचित स्थान देने का समय है जिनके माध्यम से उन्होंने अब से लगभग 12 सौ वर्ष पूर्व ‘घर वापसी’ के यज्ञ रचाये थे और हिंदू से मुसलमान बन गए लोगों को फिर से हिंदू बनाकर देश, धर्म व संस्कृति की महान रक्षा की थी। इतिहास के ऐसे अनेकों वीर नायकों को प्रकाश में लाने वाले कई इतिहासकारों को भी आज सम्मानित करने की आवश्यकता है, जिन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से इतिहास की अविरल धारा को भारी उपद्रवों के बीच भी विलुप्त होने से बचाए रखने का सराहनीय कार्य किया है। इनमें कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी , डॉ रतन लाल वर्मा जैसे साहित्यकारों और इतिहासकारों को स्थान दिया जाना अपेक्षित है। इस क्षेत्र में काम करने वाले लोगों को सम्मानित करने के लिए प्रधानमंत्री को एक विशेष पुरस्कार की घोषणा करनी चाहिए। जिससे भारत के इतिहास की गंगा को प्रदूषण मुक्त करने में सहायता मिल सके और जिन लोगों ने आज तक इस क्षेत्र में विशेष कार्य किया है उनको अपने किए गए पुरुषार्थ का उचित पुरस्कार प्राप्त हो सके।
श्री मोदी यदि इतिहास की इस पावन गंगा को प्रदूषण मुक्त करना चाहते हैं तो इन सब पर भी कार्य करना होगा। इसके अतिरिक्त सल्तनत काल, मुगल काल, ब्रिटिश काल जैसे विदेशी शासकों के नामों पर इतिहास के काल खंडों का किया गया नामकरण भी हटाया जाना समय की आवश्यकता है। इन काल खण्डों में हमारे जिन वीर योद्धाओं ने देशभक्ति का कार्य करते हुए धर्म व संस्कृति की रक्षा के लिए संघर्ष किए उनके नाम पर कालखंडों का नामकरण किया जाना भी आवश्यकता है। विदेशी शासकों के नामों पर इतिहास में कालखंडों का किया गया नामकरण बहुत ही लज्जास्पद है ।इससे पाठकों को और विशेष रूप से हमारी युवा पीढ़ी को ऐसा लगता है कि जैसे हमारे पूर्वजों के भीतर तो देश भक्ति का कोई भाव ही नहीं था। इसके लिए प्रधानमंत्री श्री मोदी को अपने संबंधित मंत्रालय को विशेष निर्देश देने चाहिए।
हम प्रधानमंत्री श्री मोदी के द्वारा इतिहासनायकों को दिए जा रहे इस प्रकार के सम्मान का समर्थन करते हैं और साथ ही से यह अपेक्षा भी करते हैं कि उनके रहते भारत का वास्तविक गौरवपूर्ण इतिहास भारत की युवा पीढ़ी के हाथों में शीघ्र ही आएगा।

भारत की $500 बिलियन रिन्यूएबल एनेर्जी मार्किट पर दुनिया लगा रही है दांव

इस ताज़ा रिपोर्ट की मानें तो भारत के रिन्यूएबल एनेर्जी और ग्रिड प्रोजेक्ट्स में निवेश करने के लिए ग्लोबल निवेशकों का एक बड़ा पूल तैयार है। वजह है भारत में इस क्षेत्र की असीमित संभावनाएं और अनुकूल परिस्थितियां जिनके चलते यहाँ सौर ऊर्जा टैरिफ में रिकॉर्ड गिरावट के साथ-साथ सोलर मॉड्यूल की लागत में कमी, कम ब्याज दर, और सरकार समर्थित 25-वर्षीय पावर परचेज़ एग्रीमेंट्स (बिजली खरीदने के समझौतों/पीपीए) की सुरक्षा, बड़े कारण होंगे निवेशकों को आकर्षित करने के लिए।

इस रिपोर्ट को पेश किया है इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी इकोनॉमिक्स एंड फाइनेंशियल एनालिसिस (IEEFA) ने। रिपोर्ट के सह-लेखक और इसी संस्था में निदेशक, ऊर्जा वित्त अध्ययन, दक्षिण एशिया, टिम बकले, अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहते हैं, “भारत को अपने महत्वाकांक्षी रिन्यूएबल ऊर्जा लक्ष्यों के लिए जिस निधि की आवश्यकता है, वो पूंजी लगाने के लिए वित्तीय, कॉर्पोरेट, ऊर्जा, उपयोगिता और सरकारी क्षेत्रों में घरेलू और वैश्विक संस्थान तैयार हैं।”

टिम की बात सही लगती है जब याद आता है कि भारत में रिन्यूएबल ऊर्जा क्षेत्र को 2014 के बाद से $42 बिलियन से अधिक का निवेश मिला है। रिपोर्ट में बताया गया है कि 2030 तक 450 गीगावाट (GW) क्षमता तक पहुंचने के लिए भारत को US $500 बिलियन की आवश्यकता होगी।

आईईईएफए के अनुसंधान विश्लेषक सौरभ त्रिवेदी द्वारा सह-लिखित यह रिपोर्ट तब आती है है जब अन्तराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के ताज़ा भारत एनर्जी आउटलुक 2021 बताया गया है कि भारत को अगले 20 वर्षों में कम उत्सर्जन उत्सर्जन प्रौद्योगिकियों के लिए 1.4 ट्रिलियन डॉलर की अतिरिक्त धनराशि की आवश्यकता होगी, जो कि वर्तमान नीतियों के आधार पर 70% अधिक है।

आगे, टिम बकले कहते हैं, “भारत के पास अपनी ऊर्जा प्रणाली को बदलने का अनूठा अवसर है, और ऐसा करने के अकल्पनीय लाभ हैं।” वो आगे कहते हैं, “भारत महंगे जीवाश्म ईंधन के आयात पर निर्भरता कम करके अपनी ऊर्जा सुरक्षा में प्रभावाशाली सुधार कर सकता है। कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्रों की सीमांत ईंधन लागत से कम, अब लगभग रु .2 / kWh, की चल रही सौर ऊर्जा अपस्फीति, भारत को ऊर्जा संक्रमण में तेज़ी लाने आर्थिक प्रोत्साहन देती है, और जलवायु संकट को सुलझाने में मदद करने के लिए एक विश्व नेता होने साथ ही, गंभीर वायु प्रदूषण और पानी की कमी का समाधान करने के लिए भी।

एक अनुमान बताते हुए वो कहते हैं, “हम अनुमान लगाते हैं कि 2030 तक अक्षय ऊर्जा के 450 गीगावाट के लिए प्रयास करने से आने वाले दशक में $500 बिलियन के निवेश की आवश्यकता होगी – जिसमें पवन और सौर अवसंरचना के लिए $300 बिलियन, गैस-पीकर्स, हाइड्रो और बैटरी जैसे ग्रिड फ़र्मिंग निवेशों पर $50 बिलियन, और प्रसारण और वितरण के विस्तार और आधुनिकीकरण पर $150 बिलियन, शामिल हैं।”

IEEFA की नई रिपोर्ट नई परियोजनाओं और अवसंरचना निवेश ट्रस्ट (InvIT) संरचनाओं के लिए रिन्यूएबल्स क्षेत्र में आने वाली पूंजी की पहचान करती है, साथ ही परिचालन परियोजनाओं के लिए राष्ट्रीय निवेश और अवसंरचना कोष (NIIF) के लिए पूंजी पुनर्चक्रण के अवसर भी।

बकले कहते हैं, “साल 2021 की शुरुआत अडानी ग्रीन में 20% हिस्सेदारी हासिल करने के लिए फ्रांस के टोटल ऑफ़ फ्रांस के $2 बिलियन के निवेश से हुई।”

रिपोर्ट के अनुसार, कनाडा पेंशन प्लान इन्वेस्टमेंट बोर्ड (CPPIB) और दुनिया की सबसे बड़ी निजी इक्विटी फर्म KKR अब भारतीय RE क्षेत्र में प्रमुख विदेशी निवेशक हैं और इसका नेतृत्व कर रहे हैं। दिसंबर 2020 में, CPPIB ने SB एनर्जी इंडिया में $ 525 मिलियन के मूल्यांकन में 80% इक्विटी हिस्सेदारी का अधिग्रहण किया और KKR ने 2019 में इंडीग्रीड (IndiGrid) InvIT में प्रमुख़ हिस्सेदारी ली ।

रिपोर्ट में कहा गया है कि भारतीय नवीकरणीय क्षेत्र में प्रमुख स्वतंत्र बिजली उत्पादकों (IPPs) का वर्चस्व है: रिन्यू पावर, ग्रीनको, अडानी ग्रीन, टाटा पावर, एक्मे, एसबी एनर्जी, एज़्योर पावर, सेम्बकॉर्प ग्रीन इंफ़्रा और हीरो फ्यूचर एनर्जीस, और वह प्रत्येक ने अंतरराष्ट्रीय उधार और इक्विटी बाजारों में निर्माण क्षमता में दृढ़ता से निवेश किया है।

लेकिन इन रिन्यूएबल ऊर्जा दिग्गजों को वेना एनर्जी / वेक्टर ग्रीन, ओ2 पावर, अयाना रिन्यूएबल पावर, टोरेंट पावर और स्प्रेग (Sprng) एनर्जी जैसों से बढ़ते मुकाबले का सामना करना पड़ रहा है, साथ ही भारत सरकार जीवाश्म ईंधन की बड़ी कंपनियां, जैसे एनटीपीसी और एनएलसी, डीकार्बोनआईज़ेशन चुनौती का सामना करने की शुरुआत कर रही हैं, और कोल इंडिया लिमिटेड और भारतीय रेलवे भी तेज़ी से आगे बढ़ने के मौकों की तलाश में हैं।

ग्रिड ट्रांसमिशन सेक्टर में, अडानी ट्रांसमिशन, स्टरलाइट पावर और इंडीग्रीड के नेतृत्व में पावर ग्रिड कॉर्प के निजी क्षेत्र के दावेदार कम लागत पर ग्रिड विस्तार और आधुनिकीकरण चला रहे हैं।

रिपोर्ट के सह-लेखक सौरभ त्रिवेदी का कहना है कि नई परियोजनाओं में पूंजी को आकर्षित करने के साथ-साथ भारत को रिन्यूएबल परियोजनाओं में मौजूदा निवेशों को पुन: रीसायकल करने की आवश्यकता है।

उनका कहना है कि, “प्रमुख संस्थाएँ जो मौजूदा परिचालन रिन्यूएबल ऊर्जा परिसंपत्तियों को पुनर्जीवित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं, निजी इक्विटी, संप्रभु धन निधि, वैश्विक पेंशन और अवसंरचना कोष, वैश्विक जीवाश्म ईंधन उपयोगिताओं, और तेल और गैस की बड़ी कंपनियों हैं। संस्थागत निवेशक निर्माण जोखिम से सावधान हैं।”

भारत में यह निवेश न सिर्फ देश की, बल्कि दुनिया की जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ लड़ाई में निर्णायक साबित हो सकते हैं।

वैश्‍विक परिदृष्‍य में बढ़ता भारत और श्रीगुरुजी

डॉ. मयंक चतुर्वेदी

-श्रीगुरुजी पुण्‍य स्‍मरण : माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर, जन्म: 19 फरवरी 1906 – मृत्यु: 5 जून 1973

विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात् । सं बाहुभ्यां धमति सं पतत्रैर्द्यावाभूमी जनयन्देव एकः ॥ यह वेदमंत्र जब भी पढ़ने में आया या सुनने में, हर बार इसकी अर्थ ध्‍वनि लम्‍बे समय तक उस असीम परमात्‍मा के बारे में अथवा उस विराट प्रकृति पुरुष के चिंतन में विवश करती है, जिससे यह लोक सृष्‍टि अपने वर्तमान स्‍वरूप में नजर आती है। इस मंत्र का अर्थ कुछ इस रूप में देखा भी जा सकता है (विश्वतः-चक्षु) सर्वत्र व्याप्त नेत्र शक्तिवाला-सर्वद्रष्टा (उत) और (विश्वतः-मुखः) सर्वत्र व्याप्त मुख शक्तिवाला सब पदार्थों के ज्ञानकथन की शक्तिवाला (विश्वतः-बाहुः) सर्वत्र व्याप्त भुज शक्तिवाला-सर्वत्र पराक्रमी (उत) और (विश्वतः-पात्) सर्वत्र व्याप्त शक्तिवाला-विभु गतिमान् (एकः-देव) एक ही वह शासक परमात्मा (द्यावाभूमी जनयन्) द्युलोक पृथिवीलोक-समस्त जगत् को उत्पन्न करनेहेतु (बाहुभ्याम्) भुजाओं से-बल पराक्रमों से (पतत्रैः) पादशक्तियों से-ताडनशक्तियों से (संधमति) ब्रह्माण्ड को आन्दोलित करता है-हिलाता-झुलाता चलाता है ।

वस्‍तुत: इस मंत्र का जैसा महत्‍व है, वैसे ही किसी सत्‍ता, संगठन, समूह या समयानुकूल उत्‍पन्‍न आन्‍दोलनों में संघर्ष की  विराटता के बीच प्रकट होता कोई नेतृत्‍वकर्ता का भी महत्‍व समाज जीवन में रहता है। भारत जब से इस भू-भाग पर है तब से महापुरुषों की लम्‍बी श्रंखला है, जिन्‍होंने भारत का मान बढ़ाया और समय-समय पर अपने आचरण व नैतृत्‍व से सभी को चमत्‍कृत भी किया। वास्‍तव में ऐसा होना स्‍वभाविक भी है, क्‍योंकि भा का अर्थ चमक और रत का अर्थ निरत या लगा हुआ अर्थात जो अपनी शोभा को चारों दिशाओं में फैलाने में संलग्न है, वह ”भारत” है ।

बीसवीं शताब्‍दी के पहले दशक में पैदा हुए माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर भी ऐसे ही एक महापुरुष हैं, जिनका जिक्र यदि आज 21वीं सदी के विश्‍व में तेज गति से बढ़ते भारत के बीच नहीं किया जाए तो सच में विकास की यह संपूर्ण यात्रा बेमानी होगी । कहने को वे राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ के दूसरे सर संघचालक थे, भारत की प्राचीन संत परम्‍परा को आत्‍मसात कर चुके ऐसे एक सन्‍यासी, जिन्‍हें मार्क्‍स और लेनिन का समाजवाद एक पल के लिए भी सहन नहीं कर सकता । कांग्रेस तथा अन्‍य इसी प्रकार की सोच रखनेवाले तमाम की नजरों से देखें तो ऐसे दक्षिणपंथी हिन्‍दूवादी और संकीर्ण सोच रखनेवाले वे थे जोकि सिर्फ हिन्‍दुत्‍व को ही भारत का आधार मानते रहे । किेंतु क्‍या ये सोच सच है? वस्‍तुत: यह सोच न केवल सच बल्‍कि सच के नजदीक भी नहीं है। सही पूछा जाए तो इन संपूर्ण व्‍यक्‍तित्‍व की परिधि से परे विराट पुरुष की तरह भारतीयता के सामाजिक जीवन में वे विराट थे, हैं और रहेंगे ।

यह कहना कुछ गलत नहीं होगा कि यदि तत्‍कालीन समय में त्‍वरित निर्णय लेकर एक तरफ कश्‍मीर का विलय भारत में करानेवालों में वे प्रमुख ना होते तो आज कश्‍मीर भारत का भू-भाग कदापि ना होता ।  उन्होंने तब जम्मू-कश्मीर के सभी संघ स्‍वयंसेवकों से कहा कि वे कश्मीर की सुरक्षा के लिए तब तक लड़ने को तैयार रहें, जब तक उनके शरीर में खून की आखिरी बूंद बचे। दूसरी ओर तत्‍कालीन समय में विभाजित भारत में पीडि़तों की सेवा करने के लिए कई प्रेरणा पुंज खड़े करने के साथ वे समाज जीवन के विविध पक्षों से जुड़े सेवा के संगठन खड़े करते रहे। इसी के साथ यह भी कहा जा सकता है कि आजादी के बाद जो पाकिस्‍तान के पीड़ि‍त बहुसंख्‍यक हिन्‍दू-सिख विभाजित भारत में आए या नए भारत के पुनर्निमाण में जो ऊर्जा लगी, जिसके प्रभाव से आज का वर्तमान भारत प्रदीप्‍तमान है, वह हमारे सामने दृष्‍यमान बिल्‍कुल नहीं होता । यह उनके कार्य और दूरदृष्‍ट‍ि का ही प्रभाव है कि आज राष्‍ट्रवादियों की सत्‍ता केंद्र में एवं देश के कई राज्‍यों में प्रत्‍यक्ष है ।

जैसा कि वर्तमान संघ के सर संघचालक डॉ. मोहन भागवत कहते हैं कि संघ कुछ नहीं करता स्‍वयंसेवक सब कुछ करता है । वैसे ही श्रीगुरूजी का मंत्र था, सभी कुछ भारत के लिए। भारत का वैभव ही हमारा वैभव है और भारत का दुख हमारा दुख । उनका दिया हुआ मंत्र है, “राष्ट्राय स्वाहा, इदं राष्ट्राय इदं न मम” । सभी कुछ राष्‍ट्र का, पल-पल जीवन समर्पित अपनी जन्‍मभूमि को है। राष्‍ट्रीय विचार के साथ संघ में कार्य करने का उन्‍हें 33 वर्षों का समय मिला। संघ के संस्‍थापक हेडगेवारजी के बाद श्री गुरुजी के सरसंघचालक बनने के बाद वे इस दायित्व को 5 जून 1973 तक पूर्ण करते रहे। ये 33 वर्ष ही हैं जिसमें संघ और राष्ट्र के जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण बदलाव होते दिखते हैं।

1942 का भारत छोडो आंदोलन, 1947 में देश का विभाजन तथा खण्डित भारत को मिली राजनीतिक स्वाधीनता, विभाजन के पूर्व और विभाजन के बाद हुआ भीषण रक्तपात हो या हिन्दू विस्थापितों का विशाल संख्या में हिन्दुस्थान आगमन, कश्मीर पर पाकिस्तान का आक्रमण, 1948 की 30 जनवरी को गांधीजी की हत्या, उसके बाद संघ पर प्रतिबन्ध का लगना हो, अथवा भारत के संविधान का निर्माण और भारत के प्रशासन का स्वरूप व नितियों का निर्धारण, भाषावार प्रांत रचना, 1962 में भारत पर चीन का आक्रमण, पंडित नेहरू का निधन, 1965 में भारत-पाक युद्ध, 1971 में भारत व पाकिस्तान के बीच दूसरा युद्ध और बंगलादेश का जन्म ही क्‍यों ना रहा हो । ये सभी महत्‍वपूर्ण घटनाएं जहां एक ओर भारत के सामने कई चुनौतियां लेकर आईं तो वहीं गुरुजी के सफल नैतृत्‍व में रास्‍वसंघ कदम-कदम सधी चाल से निरंतर अपने स्‍वयंसेवकों के सामर्थ्‍य के दम समाज जीवन के विविध आयामों में अपनी पैठ बनाने एवं राष्‍ट्र को मजबूती प्रदान करने में सफल रहा ।

इतिहास को देखें तो 16 सितम्बर, 1947 को महात्मा गांधी ने स्वयंसेवकों को सम्बोधित करते हुए कहा ”बरसों पहले मैं वर्धा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक शिविर में गया था। उस समय इसके संस्थापक डॉ. हेडगेवार जीवित थे। स्व. जमनालाल बजाज मुझे शिविर में ले गए थे और वहां मैं उन लोगों का अनुशासन, सादगी और छुआछूत की पूर्ण समाप्ति देखकर अत्यन्त प्रभावित हुआ था। तब से संघ काफी बढ़ गया है। मैं तो हमेशा से मानता आया हूं कि जो भी सेवा और आत्मत्याग से प्रेरित है उसकी ताकत बढ़ती ही है। संघ एक सुसंगठित एवं अनुशासित संस्था है।”  वस्‍तुत: सन् 1925 संघ स्‍थापना से लेकर वर्तमान समय तक ऐसी अनेक घटनाएं हैं, जिन्‍हें सुनकर या पढ़कर लगता है कि संघ नहीं होता तो क्‍या होता? बड़ी से बड़ी कठिनाईं और घटना के वक्‍त जैसा स्‍वयंसेवकों ने परिश्रम और धैर्य दिखाया है, उस पर यदि हजारों पुस्‍तकें भी लिख दी जाएं तो वे भी आज कम पढ़ेंगी ।

जो लोग यह आरोप लगाते हैं कि श्रीगुरुजी कट्टर हिन्‍दुत्‍व को मानने वाले थे, उन्‍हें अवश्‍य इतिहास और उस समय के श्रीगुरुजी के दिए भाषणों का अध्‍ययन करना चाहिए, जिसमें उनके इस व्‍यक्‍तित्‍व का पता बहुत ही साफ ढंग से हो जाता है, वस्‍तुत: यह एक अकाट्स सत्‍य है कि गुरु गोलवलकर ने वीर सावरकर और स्वामी करपात्री महाराज का हिंदुत्व खारिज कर दिया था। सावरकरजी  की हिंदू महासभा भारत विभाजन को मान्यता देती थी। उनका राष्ट्रवाद पश्चिमी राष्ट्रवाद पर टिका था। वहीं, करपात्री पंथ की अस्मिता को ही पूरे राष्ट्र की अस्मिता मान बैठे थे। लेकिन इन दोनों के विपरीत श्रीगुरुजी का स्‍पष्‍ट मत रहा कि राष्‍ट्र में पंथ, मत, सम्‍प्रदाय अनेक हो सकते हैं, किंतु आवश्‍यक यह है कि वे अपना सर्वस्‍व राष्‍ट्र की वेदी पर न्योछावर करने के लिए तैयार हैं या नहीं । जिनके लिए राष्‍ट्र सर्वोपरि है, वे राष्‍ट्र के और राष्‍ट्र उनके लिए है, फिर उससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे किस भाषा, भूषा, धर्म, पंथ या संप्रदाय के हैं।

वास्‍तव में संघ का लक्ष्य सम्पूर्ण समाज को संगठित कर हिन्दू जीवन दर्शन के प्रकाश में भारत का सर्वांगीण विकास करना है।  यहां रहने वाले मुसलमानों और ईसाइयों के बारे में संघ की सोच और समझ क्या है वह 30 जनवरी, 1971 को प्रसिद्ध पत्रकार सैफुद्दीन जिलानी और गुरुजी गोलवलकर से कोलकाता में हुए वार्तालाप, जिसका प्रकाशन 1972 में हुआ, से पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है।

देश में आज अनेक संगठन यथा-विश्व हिंदू परिषद्, हिन्‍दुस्‍थान समाचार, भारतीय मजदूर संघ, किसान संघ, विद्या भारती, भारत विकास परिषद, सेवा भारती, इतिहास संकलन, कीड़ा भारती विद्यार्थी परिषद्, अधिवक्ता परिषद ग्राहक पंचायत, संस्कार भारती, भारतीय जनता पार्टी, लघु उद्योग भारती, आरोग्य भारती, नेशनल मेडिकोज एसोसिएशन, संस्कृत भारती, प्रज्ञा भारती, विज्ञान भारती राष्ट्र सेविका समिति, राष्ट्रीय सम्पादक परिषद, भारत प्रकाशन, हिंदू स्वयंसेवक संघ, अखिल भारतीय शिक्षण मण्डल, वनवासी कल्याण आश्रम, स्वदेशी जागरण मंच, मुस्लिम राष्ट्रीय मंच, भारतीय विचार केन्द्र, राष्ट्रीय सिख संगत , विवेकानन्द केन्द्र, पूर्व सैनिक सेवा परिषद,   शैक्षिक महासंघ, वित्त सलाहकार परिषद्, सहकार भारती,सामाजिक समरसता मंच, हिन्दू जागरण अखिल भारतीय साहित्य परिषद्  जैसे राष्‍ट्रीय जन संगठन हैं, जिनकी स्‍थापना के पीछे श्रीगुरुजी की सोच है। आज जब आप इन सभी संगठनों के कार्य का विचार करते हैं तो समझ आता है कि भारत के परम वैभव तक की निरंतर की यात्रा में इनका योगदान कितना अहम है। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि आरएसएस की मूल भावना इसके सभी संगठनों में हो और सभी एक ही उद्देश्य को लेकर चलें। यह है मातृभूमि के प्रति अटूट समर्पण और प्रेम। हमें यह स्‍वीकार्य करने में भी गुरैज नहीं होना चाहिए कि वर्तमान मोदी सरकार यदि केंद्र में आज है और विश्‍व में भारत दिनों दिन शक्‍ति सम्‍पन्‍न हो रहा है तो वह इन सभी संगठनों की राष्‍ट्रीयता को समर्पित जीवन का ही प्रत्‍यक्ष परिणाम है।

शहीद दिवस

नमन करते है उन शहीदों को,
जिन्होंने अपनी जान थी गवाई |
ब्रिटिश हकूमत में जिन्होंने,
फांसी की सजा थी पाई ||

सच्चे सपूत थे भारत के वे ,
अपना सुख दुःख भूल गए |
भारत की आजादी के लिए ,
फांसी के तख्ते पर झूल गए ||

नाम था उनका भगत सिंह,
सुखदेव और राजगुरु आदि
जो ब्रिटिश शासन से न डरते थे |
भारत की आजादी के लिए ,
वे नये नये प्लान रोज घडते थे ||

थे वे आजादी के सच्चे सपूत वीर
जिन्होंने अंग्रेजो का दम निकाला था |
जिनकी नस नस में आग दोड़ती थी ,
खुद को आंधी तूफ़ान में पाला था ||

थे वे बड़े अमर शहीद बलिदानी ‘
जिन्होंने फांसी के फंदे को चूमा था |
माँ रंग दे बसंती चोला मेरा ,
ये गीत भारत के घर घर में झूमा था ||

आर के रस्तोगी

भारत के खिलाफ ‘टूलकिट’ है विदेशी साजिश ?

                    प्रभुनाथ शुक्ल

किसान आंदोलन की आड़ में क्या भारत में हिंसा फैलाने की साजिश रची गईं। क्या कनाडा स्थित खालिस्तानी संगठन से जुड़े लोग पंजाब में पुन: अपना अस्तित्व कायम करना चाहते हैं। दिल्ली के लाल किले पर 26 जनवरी को जो कुछ हुआ वास्तव में इस साजिश में विदेशी तागतों का हाथ था। किसान आंदोलन की आड़ में क्या पंजाब में खालिस्तान से जुड़े लोग एक बार फिर आतंकवाद की नई कोपलें उगाना चाहते हैं। दिल्ली पुलिस की जांच में ‘टूलकिट’मामले में जो तथ्य सामने आएं हैं कम से कम वे इसी तरफ इशारा करते हैं।

दिल्ली पुलिस की जांच जैसे-जैसे आगे बढ़े रहीं है चेहरे बेनकाब हो रहे हैं। अब तक ‘टूलकिट’ के नव रत्नों का नाम बेनक़ाब हुआ है। भारत में  ‘टूलकिट’पर राजनीतिक सरगर्मियां भी तेज हो गई हैं। दिशा रवि और अन्य की गिरफ्तारी को मामले को लेकर सत्ता के खिलाफ विपक्ष लामबंद हो चला है। दिल्ली पुलिस की प्राथमिक जांच में जो तथ्य सामने आए हैं उससे तो यही साबित होता है कि कनाडा में बैठे खालिस्तान संगठन और पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई ने मिल कर इस साजिश को अंजाम दिया। हालांकि अभी जांच की प्रक्रिया लम्बी चलेगी। इस साजिश में और चेहरे बेनकाब हो सकते हैं। अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी।

दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन को उग्र करने में ‘टूलकिट’ का सहारा लिया गया। ‘टूलकिट’ एक गूगल दास्ताबेज है जिसे अपनी सुविधा के अनुसार एडिट किया जा सकता है। सोशलमिडिया पर यह किट अपने संगठन से जुड़े लोगों के बीच वायरल की जाती है। इस ‘टूलकिट’ में सारी बातें बिस्तार से लिखी होती हैं, जिसमें आंदोलन को कैसे भड़काना है। किस-किस को जोड़ना है। जिसके पास अधिक फॉलोवर होते हैं उसे बरीयता के आधार पर जोड़ा जाता है। इसमें सारी बातें लिखित होती हैं। ‘टूलकिट’ में जिस तरह की बातें लिखी गईं थीं लालकिले पर उसी तरह घटना को अंजाम दिया गया। देश की ख़ुफ़िया एजेंसियों ने भी किसान आंदोलन की आड़ में हिंसा फैलाने की आशंका पहले ही जाहिर कर चुकी थी।

टूलकिट’ का मामला बेहद संवेदनशील है। यह मामला देश की आंतरिक सुरक्षा से जुड़ा हुआ है। दिल्ली पुलिस की जांच में अब तक जितने लोगों के नाम आए हैं आए हैं उनमें अधिकांश पर्यावरणविद और जलवायु एक्टिवस्ट हैं। सभी युवा और ग्लोबल स्तर पर  चर्चित चेहरे हैं। लोगों ने बेहद कम उम्र में दुनिया में अपनी पहचान बनाई है, लेकिन उनकी साजिश बेहद ख़तरनाक है। दिशा रवि भी एक पर्यावरण कार्यकर्ता है वह कोई नाबालिक नहीं हैं। लेकिन इसमें खालिस्तान संगठन की भूमिका अहम् है।

दिशा अपनी सोच से लोगों को प्रभावित भी किया है,  लेकिन जिस ‘टूल किट’ का उपयोग कर देश और विदेश में बैठी उनकी टीम किसान आंदोलन को भड़काने और हिंसक बनाने की साजिश रची उसके लिए वह निश्चित रूप से जिम्मेदार हैं। दिशा को बच्चा कहना कहीं से भी उचित नहीं है। उसके शातिर दिमाग ने देश के खिलाफ साजिश रचने की कोशिश की है। एक अच्छी पढ़ी-लिखी लड़की विदेशी साजिश में आकर अगर इस तरह की सोच रखती है तो उसे मासूम युवा भला कैसे कहा जा सकता है। ग्रेटा थनबर्ग और दिशा के बीच हुए चैट खुद इसकी गवाही देते हैं।

दिल्ली पुलिस की जांच में अभी तक ‘टूलकिट’ के नौ रत्नों के नाम सामने आएं हैं जिसमें दिशा रवि, निकिता जैकब, शांतनु, ग्रेटा थनबर्ग, पीटर फेड्रिक, अनिता लाल, एमओ भालीवाल, भजन सिंह भिंडरावाला समेत और नाम हैं। इसमें कुछ लोग खालिस्तानी संगठन से जुड़े हैं। शांतनु के ईमेल से ‘टूलकिट’ वायरल हुआ है। वह खालिस्तानी संगठन से जुड़े एमओ भालीवाल के संपर्क में आया और किसानआंदोलन से जुड़ कर ‘टूलकिट’ को वायरल किया। शांतनु को अदालत से जमानत मिल चुकी है। उधर अनिता जैकब को भी मुंबई हाईकोर्ट से तीन हप्ते तक गिरफ्तारी पर रोक लग गईं है पुलिस इस बीच उसे गुरफ्तार नहीं कर सकती है।

भारत के साथ विदेश में बैठे लोग भी इस साजिश में शामिल हैं यह जांच एजेंसियों के लिए बड़ी बात है। खालिस्तान और आईएसआई की मिली भगत की बात जिस तरह सामने आयीं है उससे यहीं लगता है की भारत से सीधे मुकाबले में नाकामयाब पाकिस्तान अब खालिस्तान को आगे कर पंजाब में फिर आतंकवाद फैलाने की साजिश रचने में जुटा है। किसान आंदोलन को उसने इस साजिश को भुनाने का अच्छा मौका समझा। आईएसआई भारत की संप्रभुता और अखंडता को बाधित करने की साजिश हमेशा से रचती चली आ रहीं है। इस मामले में सरकारी एजेंसियों को खुले मन से जांच करने देनी  चाहिए। संवेदनशील मामलों पर कोई राजनीति नहीं होनी चाहिए।

दिशा रवि की गिरफ्तारी पर भी सवाल उठने लगे हैं। दिल्ली महिला आयोग ने पुलिस को नोटिस भेजा है और उसकी गिरफ्तारी क्यों हुई उस पर सवाल उठाया है। लोगों का कहना है कि दिशा की गिरफ्तारी हैदराबाद से हुई तो उसे स्थानीय अदालत से ट्रांजिट रिमांड क्यों नहीं ली गई। दिल्ली पुलिस का कहना है कि नियमों के तहत दिशा रवि की गिरफ्तारी हुई है हालांकि अदालत के आदेश के बाद उसे गर्म कपड़े किताबें और परिजनों से बातें करने का  मौका मिल गया है।
 दिशा रवि और ग्रेटा के चैट भी सामने आए हैं। जिसमें दिशा ने ग्रेटा से टूल किट को डिलीट करने की बात कहीं है उसने कहा भी है कि यह मामला तूल पकड़ रहा है उसके खिलाफ गंभीर कानूनों के तहत कार्रवाई भी हो सकती है। भारत की जांच एजेंसियां सक्रिय हो गई जिसकी वजह से दिशा रवि घबरा गई। ग्रेटा ने उसे पूरा भरोसा दिलाया था कि वह घबराए नहीं उस पर कोई आँच नहीं आएगी वह इस मामले में अपने  वकीलों से बात कर रही है। दोनों के चैट से यह साफ होता है की किसान आंदोलन की आड़ में टूलकिट के जरिए हिंसा फैलाने की साजिश रची गईं।

किसान आंदोलन में अगर विदेशी साजिश का हाथ है तो यह देश के लिए बेहद खतरनाक है। ‘टूलकिट’ के जरिए यह हिंसा फैलाने की बड़ी साजिश है। सरकार की जांच एजेंसियों को अपना काम करने देना चाहिए। साजिश बेनकाब होनी चाहिए। हमारे राजनेता हमेशा अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकते हैं। जांच सरकार के दबाब में नहीं होनी चाहिए। किसी निर्दोष को बालि का बकरा नहीं बनाया जाना चाहिए। जांच में अगर ‘टूलकिट’ जैसी साजिश साबित हो जाती है तो यह भारत की संप्रभुता एवं अखंडता के खिलाफ है।

ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ से वेदों के सत्यस्वरूप का प्रचार हुआ

-मनमोहन कुमार आर्य
ऋषि दयानन्द के आगमन से पूर्व विश्व में लोगों को वेदों तथा ईश्वर सहित आत्मा एवं प्रकृति के सत्यस्वरूप का स्पष्ट ज्ञान विदित नहीं था। वेदों, उपनिषद एवं दर्शन आदि ग्रन्थों से वेदों एवं ईश्वर का कुछ कुछ सत्यस्वरूप विदित होता था परन्तु इन ग्रन्थों के संस्कृत में होने और संस्कृत का अध्ययन-अध्यापन उचित रीति से न होने से लोग वेद सहित ईश्वर, जीवात्मा तथा प्रकृति के सत्य एवं यथार्थस्वरूप से अनभिज्ञ ही थे। यदि ऐसा न होता तो ऋषि दयानन्द ने ईश्वर के सत्यस्वरूप तथा मृत्यु पर विजय के साधनों की खोज आदि का जो कार्य अपनी आयु के 14हवे वर्ष में आरम्भ किया था और जो 24 वर्ष बाद पूर्ण हुआ, वह उन्हें न करना पड़ता। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने देश के सन्ंयासियों, योगियों तथा धार्मिक विद्वानों से सम्पर्क किया था और उनसे ईश्वर तथा जीवात्मा आदि के सत्यस्वरूप को जानने आदि के विषय में चर्चायें की थी। उन्होंने उन सब ग्रन्थों को भी देखा था जो इस यात्रा काल में उन्हें पुस्तकालयों व विद्वानों से प्राप्त होते थे। इन सबका अध्ययन कर लेने पर भी वह अपनी विद्या को पूर्ण नहीं समझते थे और प्रज्ञाचक्षु दण्डी गुरु विरजानन्द सरस्वती, मथुरा का शिष्यत्व प्राप्त करने तक वह धर्माधर्म विषय में निभ्र्रान्त नहीं हुए थे।

स्वामी दयानन्द का गुरु विरजानन्द से वेद वेदांगों का अध्ययन सन् 1860 से आरम्भ होकर सन् 1863 से पूर्ण हुआ था। वह योग विद्या में पहले ही पारंगत हो चुके थे। ऋषि दयानन्द समाधि सिद्ध योगी थे और अनुमान कर सकते हैं कि उन्होंने स्वामी विरजानन्द जी का शिष्यत्व प्राप्त करने से पूर्व ही ईश्वर का साक्षात्कार भी कर लिया था। वेद वेदांगों का अध्ययन पूरा होने तथा वेदों को प्राप्त कर उनका अवगाहन करने के बाद वह वेद ज्ञान से पूर्णतः परिचित व लाभान्वित हुए थे। वेदज्ञान को प्राप्त होकर उनके सभी भ्रम व शंकायें दूर हो गईं थी। वह ईश्वर और आत्मा के सत्यस्वरूप और इनके गुण, कर्म व स्वभाव से भलीभांति परिचित हो गये थे। विद्या समापित पर गुरु की प्रेरणा से उन्होंने संसार में व्याप्त धर्माधर्म विषयक अविद्या को दूर करने का संकल्प लिया था और अपने इस संकल्प को उन्होंने अपने जीवन की अन्तिम श्वास तक पूर्ण निष्ठा से निभाया। उनके जैसा महापुरुष जिसने अविद्या को दूर करने का कठोर व्रत व संकल्प लिया हो और उसे प्राणपण से निभाया भी हो, इतिहास में दूसरा नहीं मिलता। संकल्प तो कुछ अन्य महापुरुषों ने भी किए हैं और उन्हें निभाया भी है, ऐसे सभी महापुरुष प्रशंसा एवं सम्मान के पात्र हैं, परन्तु वेदों का जो सत्यस्वरूप ऋषि दयानन्द को प्राप्त व विदित हुआ था वह महाभारत के बाद भारत के किसी विद्वान, योगी तथा तत्ववेत्ता को प्राप्त नहीं हुआ था। ऐसा ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों के अध्ययन एवं समस्त उपलब्ध साहित्य के आधार न निश्चित होता है। 

संसार से अविद्या को दूर करने के लिए ऋषि दयानन्द ने देशाटन करते हुए अपने उपदेशों एवं प्रवचनों से मौखिक प्रचार किया। वह स्थान स्थान पर जाते थे और वहां के अग्रणीय पुरुषों से सम्पर्क कर अपने व्याख्यानों का प्रबन्ध करते थे। व्याख्यानों में समाज के सभी वर्गों के मनुष्यों को उपस्थित होने की स्वतन्त्रता होती थी। किसी प्रकार का किसी मनुष्य से भेदभाव नहीं किया जाता था। पूना में उन्होंने सन् 1875 में जो 15 प्रवचन किए थे। उनके प्रवचनों को आशुलिपिकों ने लिखा था जो आज भी सर्वत्र सहजता से सुलभ होते हैं। इन प्रवचनों में ईश्वर, धर्माधर्म, जन्म, यज्ञ, इतिहास तथा ऋषि के आत्म वृतान्त विषयक उपदेश सम्मिलित हैं। ऋषि दयानन्द के प्रवचन सुनकर लोग आकर्षित होते थे। कारण यह था कि जैसे प्रवचन ऋषि दयानन्द के होते थे वैसा उपदेशक उन दिनों देश में कहीं नहीं था। ऋषि दयानन्द अपने विषय की भूमिका को प्रस्तुत कर उसके विभिन्न पक्षों व प्रचलित मान्यताओं को प्रस्तुत कर सत्य का मण्डन तथा असत्य का खण्डन करते थे। उनकी चुनौती होती थी कि कोई भी विद्वान उनकी मान्यताओं पर उनसे मिलकर शंका समाधान कर सकता था। विपक्षी विद्वानों को शंका समाधान, ज्ञान चर्चा व शास्त्रार्थ करने की छूट होती थी। ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन में सभी मतों के विद्वानों से चर्चायें व शास्त्रार्थ किये और सबकी शंकाओं व अविद्यायुक्त मान्यताओं का सुधार करते हुए उनके वेदोक्त सत्य समाधान प्रस्तुत किये। उनका यह कार्य वर्षों उनके जीवन के अन्तिम समय तक चलता रहा। ऋषि दयानन्द के महत्वपूर्ण कार्यों में उनका 16 नवम्बर, 1869 को विद्या की नगरी काशी में 30 से अधिक सनातनी व पौराणिक विद्वानों से मूर्तिपूजा की सत्यता व वेदों से मूर्तिपूजा की प्रामाणिकता पर शास्त्रार्थ किया जाना था। इस शास्त्रार्थ में पचास हजार लोगों की दर्शकों के रूप में उपस्थिति थी। यह शास्त्रार्थ ऋषि दयानन्द के पक्ष की विजय के रूप में समाप्त हुआ था। 

मूर्तिपूजा पर काशी शास्त्रार्थ में विपक्षी विद्वान मूर्तिपूजा के समर्थन में वेदों का कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सके थे। तर्क एवं युक्ति से भी ईश्वर की मूर्ति का बनना व उसकी मूर्ति पूजा सत्य सिद्ध नहीं होती। ईश्वर की पूजा वेद, योगदर्शन में वर्णित ईश्वर के सत्य गुण, कर्म व स्वभाव को जानकर उनका ध्यान करते हुए स्तुति, प्रार्थना व उपासना द्वारा ही की जा सकती है। इसका कारण है कि ईश्वर सर्वव्यापक तथा सर्वान्तर्यामी सत्ता है। वह हम सब मनुष्य के हृदय में स्थित आत्मा के बाहर व भीतर विराजमान है। हृदय वा आत्मा में ही उसका ध्यान व चिन्तन करने पर वहीं पर आत्मा को ईश्वर का साक्षात्कार होना सम्भव है। मूर्तिपूजा करने से ईश्वर का सम्मान नहीं होता। ईश्वर चेतन व ज्ञानवान सत्ता है तथा मूर्ति जड़ पदार्थों से बनती है। अतः मूर्ति में ईश्वर के गुणों के न होने से उससे ईश्वर को प्राप्त नहीं किया जा सकता। ऋषि दयानन्द ने मूर्तिपूजा सहित समाज में धर्म के नाम पर प्रचलित सभी अन्धविश्वासों एवं पाखण्डों का खण्डन कर उन्हें दूर करने का प्रयास किया और उनके स्थान पर वेद निहित सत्य ज्ञान पर आधारित सब कार्यों को करने के विधान व विधियां भी प्रस्तुत की हैं। 

ऋषि दयानन्द ने वेदों के प्रचार व जन जन में प्रकाश के लिए अनेक ग्रन्थों की रचना की है। उनका सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ विश्वविख्यात ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ अविद्या को दूर करने वाला संसार का अपूर्व ग्रन्थ है। सत्यार्थप्रकाश सभी मतों की अविद्या का प्रकाश कर उनको दूर करने का उपाय व साधन है। सत्यार्थप्रकाश के प्रथम दस समुल्लास में वेदों के जिन सिद्धान्तों व मान्यताओं का प्रकाश हुआ है वही विश्व के लोगों के लिए मानने योग्य सत्य धर्म व परम्परायें हैं। सत्यार्थप्रकाश के अतिरिक्त ऋषि दयानन्द ने ऋग्वेद आंशिक तथा यजुर्वेद का सम्पूर्ण भाष्य संस्कृत व हिन्दी में किया है। इस वेदभाष्य को साधारण हिन्दी पाठी व्यक्ति भी पढ़कर वेदों के गूढ़ तत्वों को जान सकते हैं जो सदियों तक उनकी व उनके पूर्वजों की पहुंच से बाहर थे। वेदभाष्य से इतर ऋषि दयानन्द ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, पंचमहायज्ञविधि, व्यवहारभानु, गोकरुणानिधि आदि अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे हैं। उनका जीवन चरित्र एवं उनका पत्रव्यवहार भी अनेक वैदिक विषयों का ज्ञान कराने में सहायक है। हमारा अनुमान है कि ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश एवं इतर ग्रन्थों से धर्माधर्म विषयक सभी प्रकार की अविद्या व भ्रम दूर होते हैं और मनुष्य इनके अध्ययन से सत्यज्ञान को प्राप्त होकर तीन अनादि व नित्य सत्ताओं ईश्वर, जीवात्मा तथा प्रकृति के सत्यस्वरूप व गुण, कर्म व स्वभाव को जानने में समर्थ होता है। 

ऋषि दयानन्दकृत सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों को पढ़कर मनुष्य के सभी भ्रम व शंकायें दूर हो जाती हैं। अतः मनुष्य जन्म लेकर आत्मा को ज्ञान का स्नान कराने के लिए सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन सब मनुष्यों को करना चाहिये। सत्यार्थप्रकाश से जो ज्ञान प्राप्त होता है वह अन्य ग्रन्थों को पढ़कर इतनी सहजता व सरलता से प्राप्त नहीं होता। यह भी बता दें कि सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ 14 समुल्लासों में है। इसमें 10 समुल्लास पूर्वार्ध के हैं और चार समुल्लास उत्तरार्ध के हैं। पूर्वार्ध के 10 समुल्लासों में वेद ज्ञान के आधार पर सत्य मान्यताओं का मण्डन किया गया है और अन्तिम चार समुल्लासों में वेदविरुद्ध अविद्या, मिथ्या मत व मान्यताओं का खण्डन है। सत्यार्थप्रकाश की कुल पृष्ठ संख्या लगभग 500 है। पूर्वार्ध के दस समुल्लासों की पृष्ठ संख्या लगभग 200 है। अतः यदि हम एक घंटा भी प्रतिदिन सत्यार्थप्रकाश पढ़े तो इसे लगभग 20 से 25 घंटों में पढ़ा जा सकता है। पूरे सत्यार्थप्रकाश को पढ़ने में लगभग पचास घंटों का समय लग सकता है। अतः जीवन के इस महत्वपूर्ण ग्रन्थ को सभी मनुष्यों को पढ़ना चाहिये। इससे सभी भ्रम व शंकायें दूर होंगी। ईश्वर व आत्मा के सत्यस्वरूप का ज्ञान होगा। ईश्वर की उपासना की विधि सहित धर्म के अन्तर्गत आने वाले सभी विषयों का ज्ञान भी होगा। 

सत्यार्थप्रकाश पढ़कर मनुष्य का आत्मा सत्यज्ञान से आलोकित होगा। मिथ्या ज्ञान छूट सकता है व छोड़ा जा सकता है। मनुष्य सच्चा मनुष्य बनकर ईश्वर उपासना से ईश्वर का साक्षात्कार भी कर सकता है। संसार में इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए मनुष्य का जन्म हुआ है। इस लक्ष्य को प्राप्त होकर मनुष्य जन्म व मरण के सभी दुःखों छूट कर मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। अतः सबको सत्यार्थप्रकाश अवश्य पढ़ना चाहिये। सत्यार्थप्रकाश से वेदों का महत्व एवं उसके सभी प्रमुख सिद्धान्त व मान्यताओं का प्रकाश होता है। ईश्वर व आत्मा का सत्य व निभ्र्रान्त स्वरूप भी सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से जाना जाता है। ऋषि दयानन्द के दशम समुल्लास में दिए वचनों को प्रस्तुत कर लेख को विराम देते हैं। ऋषि लिखते हैं ‘परमात्मा सब (मनुष्यों) के मन में सत्य मत का ऐसा अंकुर डाले कि जिससे मिथ्या मत शीघ्र ही प्रलय (नाश) को प्राप्त हों। इस में सब विद्वान लोग विचार कर विरोधभाव छोड़ के अविरुद्धमत (सत्य व सर्वसम्मत मत) के स्वीकार से सब जने (मनुष्य) मिलकर सब के आनन्द को बढ़ावें।’ ओ३म् शम्। 

विदेशी निवेशकों के भारतीय अर्थव्यवस्था पर लगातार स्थापित हो रहे विश्वास के चलते देश में तेज़ी से बढ़ रहा है विदेशी निवेश

कोरोना वायरस महामारी के चलते भारत सहित पूरे विश्व की अर्थव्यवस्थाओं के विपरीत रूप से प्रभावित होने के बाद, आर्थिक विकास ही आज भारत की सबसे बड़ी प्राथमिकता बन गया है। इसी क्रम में दिनांक 1 फ़रवरी 2021 को वित्तीय वर्ष 2021-22 के लिए भारतीय संसद में प्रस्तुत किए गए बजट में देश में बुनियादी ढांचे के विकास एवं स्वास्थ्य सेवाओं के लिए ख़र्च की जाने वाली राशि में भारी बढ़ोतरी की गई है। देश में तेज़ गति से चालित परिवहन व्यवस्था विकसित करने के लिए नए-नए राजमार्गों का निर्माण किया जा रहा है। बड़े-बड़े शहरों में मेट्रो रेल्वे का जाल बिछाया जा रहा है। बंदरगाहों एवं हवाई अड्डों को आधुनिक बनाया जा रहा है। इन सभी क्षेत्रों में भारी मात्रा में निवेश किया जा रहा है। भारत में बुनियादी ढांचे के विकास पर आज जितना निवेश भारत सरकार कर रही है उतना निवेश देश में पहिले कभी नहीं किया गया है। देश में शहरीकरण भी तेज़ गति से हो रहा है। शहरों का न केवल विस्तारीकरण हो रहा है बल्कि नागरिकों को नई तकनीकी के साथ अति-आधुनिक सुविधाएं भी उपलब्ध कराए जाने हेतु प्रयास किए जा रहे हैं। ग्रामीण इलाक़ों एवं शहरों में नया आधारभूत ढांचा खड़ा किया जा रहा है।

भारत ने अपना रक्षा क्षेत्र भी निवेश के खोल दिया है। रक्षा के क्षेत्र में भारत में स्वयं के लिए ही रक्षा उपकरणों की बहुत बड़ी मांग है। भारत का प्रयास है कि रक्षा उपकरणों का उत्पादन भारत में किया जाय ताकि इस क्षेत्र में न केवल देश को आत्म निर्भर बनाया जा सके बल्कि भारत से इन उपकरणों का निर्यात भी किया जाय। देश में ग़रीबों एवं मध्यम वर्ग के लिए करोड़ों की संख्या में घरों का निर्माण किया जा रहा है। यह विश्व में, घरों के निर्माण की अपने आप में शायद सबसे बड़ी परियोजना है।

भारत, आर्थिक विकास की कहानी में अब गुणात्मक एवं परिमाणात्मक दोनों ही स्थितियों में छलांग लगाने को तैयार है। अब भारत ने अपने विकास के लिए एक बड़ा लक्ष्य तय कर लिया है। वर्ष 2024-25 तक देश को 5 ट्रिल्यन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का। जब 2014 में वर्तमान सरकार सत्ता में आई थी, तो देश की अर्थव्यवस्था क़रीब-क़रीब 2 ट्रिल्यन अमेरिकी डॉलर की थी। पिछले पांच साल के दौरान लगभग 1 ट्रिल्यन अमेरिकी डॉलर अर्थव्यवस्था में जोड़ा गया है और अब देश चाहता है की इसे 5 ट्रिल्यन अमेरिकी डॉलर का बनाया जाय। इस बड़े लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए देश के पास योग्यता भी है, साहस भी है और परिस्थितियां भी अनुकूल हैं। भारत के विकास की कहानी में आज चार अहम कारक हैं जो अपने आप में एक दुर्लभ मेल है। यथा, जनतंत्र (डिमॉक्रेसी), जनसांख्यिकी (डिमॉग्रफ़ी), मांग (डिमांड) एवं निर्णायकता (डिसाईसिवनेस)।

देश में आर्थिक वातावरण को सहज एवं सरल बनाने के उद्देश्य से अभी हाल ही के समय में केंद्र सरकार द्वारा कई निर्णय लिए गए हैं। कुछ मुख्य निर्णयों का वर्णन यहां किया जा रहा है। अभी कुछ दिन पहले ही भारत में कारपोरेट कर में भारी कमी की गई है। निवेश के प्रोत्साहन के लिए यह एक बहुत क्रांतिकारी क़दम है और इस फ़ैसले के बाद विश्व व्यापार जगत के सभी धुरंधर भारत के इस फ़ैसले को एक एतिहासिक क़दम मान रहे हैं। इसके अलावा भी भारत सरकार द्वारा देश में व्यापार को आसान बनाने के लिए कई फ़ैसले लिए हैं, जैसे अभी हाल ही में भारी संख्या में ऐसे क़ानूनों को समाप्त कर दिया गया है जो विकास के कार्यों में बाधा उत्पन्न कर रहे थे। एक विविध संघीय जनतंत्र होने के बावजूद बीते 5 वर्षों में पूरे भारत के लिए सीमलेस, समिल्लित एवं पारदर्शी व्यवस्थाएं तैयार करने पर बल दिया गया है। जहां पहिले भारत में अप्रत्यक्ष कर ढांचे का एक बहुत बड़ा जाल फैला हुआ था, वहीं अब जीएसटी के रूप में केवल एक ही अप्रत्यक्ष कर प्रणाली पूरे देश के व्यापार संस्कृति का एक हिस्सा बन चुकी है। देश में उत्पादन आधारित प्रोत्साहन योजना को लागू कर दिया गया है, जिससे फ़ार्मा, ऑटोमोबाइल, टेक्स्टायल, इलेक्ट्रॉनिक्स, आदि क्षेत्रों में विदेशी निवेश की अपार सम्भावनाएं निर्मित हुई हैं। कृषि क्षेत्र एवं श्रमिक क्षेत्र में क्रांतिकारी सुधार कार्यक्रम लागू किए गए हैं। इसी तरह ही दिवालियापन की समस्या से निपटने के लिए इन्सॉल्वेन्सी एंड बैंकरपटसी कोड लागू किया गया है, जिससे बैकों को चूककर्ता बकायादारों से निपटने में आसानी हो गई है। कर प्रणाली से जुड़े क़ानूनों और ईक्विटी निवेश पर कर को वैश्विक कर प्रणाली के बराबर लाने के लिए देश में ज़रूरी सुधार निरंतर हो रहे हैं। कर प्रणाली में सुधार के अलावा देश में दुनिया की सबसे बड़ी वित्तीय समावेशी योजना को भी बहुत कम समय में लागू कर लिया गया है। क़रीब 40 करोड़ लोगों को बीते 5-6 सालों में बैंकों से पहली बार जोड़ा गया है। आज भारत के क़रीब क़रीब हर नागरिक के पास यूनिक आईडी है, मोबाइल फ़ोन है, बैंक अकाउंट है, जिसके कारण लक्षयित सेवाओं को प्रदान करने में तेज़ी आई है। धनराशि का रिसाव बंद हुआ है और पारदर्शिता कई गुना बड़ी है। नए भारत में अविनियमन, डीरेग्युलेशन और व्यापार में परेशनियां ख़त्म करने की मुहिम चलाई गई है। साथ ही, विमानन, बीमा एवं मीडिया जैसे कई क्षेत्र, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए खोल दिए गए हैं।

इसी प्रकार, आर्थिक सुधारों के लागू करने के कारण ही देश वैश्विक रैंकिंग में आगे बढ़ता जा रहा है। ये रैंकिंग अपने आप नहीं सुधरती है। भारत ने बिलकुल ज़मीनी स्तर पर जाकर व्यवस्थाओं में सुधार किया है। नियमों को आसान बनाया है। उदाहरण के तौर पर यह बताया जा सकता है कि देश में पहिले बिजली कनेक्शन लेने के लिए उद्योगों को कई महीनों का समय लग जाता था। परंतु, अब कुछ दिनों के भीतर बिजली कनेक्शन मिलने लगा है। इसी तरह कम्पनी के रेजिस्ट्रेशन के लिए पहिले कई हफ़्तों का समय लग जाता था। परंतु, अब कुछ ही घंटो में कम्पनी का रेजिस्ट्रेशन हो जाता है। ब्लूम्बर्ग की एक रिपोर्ट में भी भारत में आ रहे बदलाव की तस्वीर पेश की गई है। ब्लूम्बर्ग के नेशन ब्राण्ड 2018 सर्वे में भारत को निवेश के लिहाज़ से पूरे एशिया में पहिला नम्बर दिया गया है। 10 में से 7 संकेतकों – राजनैतिक स्थिरता, मुद्रा स्थिरता, उच्च गुणवत्ता के उत्पाद, भ्रष्टाचार विरोधी माहौल, उत्पादों की कम लागत, सामरिक स्थिति और आईपीआर के प्रति आदर की भावना – इन सभी में भारत नम्बर एक रहा है। बाक़ी संकेतकों में भी भारत की स्थिति काफ़ी ऊपर रही है।

उक्त वर्णित कारणों के चलते आज विदेशी निवेशकों का भारत की अर्थव्यवस्था पर विश्वास बढ़ा है इसलिए भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश लगातार बढ़ रहा है। यह वर्ष 2016-17 में 4348 करोड़ अमेरिकी डॉलर, 2017-18 में 4486 करोड़ अमेरिकी डॉलर, 2018-19 में 4437 करोड़ अमेरिकी डॉलर, 2019-20 में 4998 करोड़ अमेरिकी डॉलर एवं 2020-21 में अप्रेल से सितम्बर 2020 तक 3000 करोड़ अमेरिकी डॉलर हो गया है। बीते 5 सालों में भारत में जितना प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हुआ है, यह बीते 20 साल में भारत में हुए कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का आधा है। अमेरिका ने भी जितना प्रत्यक्ष विदेशी निवेश भारत में बीते दशकों में भारत में किया है उसका 50 प्रतिशत सिर्फ़ पिछले चार सालों के दौरान हुआ है। और, ये निवेश तब हुआ है जब पूरी दुनिया में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का स्तर लगातार कम हो रहा है। भारत में विदेशी निवेश के बढ़ते जाने से विदेशी मुद्रा का भंडार भी नित नई ऊचाईयां छू रहा है। परंतु, भारत में विदेशी मुद्रा के भंडारण का आदर्श स्तर क्या होना चाहिए, इस विषय पर आज विचार किए जाने की आवश्यकता है।

किसी भी देश में विदेशी मुद्रा भंडार का आदर्श स्तर क्या हो इस विषय पर लम्बे समय से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहस होती आ रही है। विदेशी मुद्रा भंडार के स्तर को कई मानकों के साथ जोड़ा जाता है। जैसे, देश में विदेश से आयात की जा रही वस्तुओं एवं अन्य चालू देयताओं के कुछ माह के औसत राशि के बराबर विदेशी मुद्रा का भंडार निर्मित होना चाहिए। दूसरे, विदेशी मुद्रा में लिए गए अल्पकालिक ऋणों एवं परिवर्तनशील बाहरी देयताओं की मात्रा को भी विदेशी मुद्रा भंडार के आदर्श स्तर को बनाए रखते समय ध्यान में रखना चाहिए। तीसरे, विदेशी मुद्रा भंडार के आदर्श स्तर को बनाते समय इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि यह स्तर, अप्रत्याशित एवं चक्रीय झटकों को सहने में सक्षम है, विदेशी मुद्रा में लिए गए पूंजीगत ऋणों की किश्तों एवं उस पर बक़ाया ब्याज की राशि का भुगतान करने में सक्षम है, एवं किसी अपरिहार्य कारण से पूंजीगत निवेश तय सीमा से पहिले वापिस करने की स्थिति को सम्हालने में सक्षम है। उक्त वर्णित कई मानकों को ध्यान में रखने के बाद भी भारतीय रिज़र्व बैंक के लिए यह एक कठिन निर्णय हो जाता है कि विदेशी मुद्रा भंडार का कितना आदर्श स्तर बनाए रखा जाना चाहिए।

भारत में लगातार बढ़ रहे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के कारण देश में विदेशी मुद्रा भंडार भी दिनांक 21 जनवरी 2021 को 59,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर के स्तर पर पहुंच गया है जो अपने आप में एक रिकार्ड है। अतः अब समय आ गया है कि इस बात पर भी गम्भीरता से विचार किया जाय कि इस विदेशी मुद्रा भंडार का निवेश इस प्रकार किया जाय कि इस निवेश से अधिक से अधिक आय अर्जित की जा सके ताकि इस बढ़ी हुई आय को केंद्र सरकार देश के विकास को और अधिक गति देने हेतु ख़र्च कर सके। दूसरे, देश में विदेशी मुद्रा की लगातार आवक के चलते रुपए की क़ीमत डॉलर की तुलना में मज़बूत होना शुरू हो जाएगी। यह देश के निर्यातकों के हित में नहीं होगा क्योंकि इससे उनके द्वारा निर्यात किए जा रहे उत्पाद विश्व बाज़ार में प्रतिस्पर्धी नहीं रह पाएंगे। अतः इस बात पर भी विचार किया जाना चाहिए कि अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार में रुपए की क़ीमत को किस प्रकार स्थिर रखा जा सके। तीसरे, अब इस बात पर भी गंभीरता से विचार होना चाहिए कि विदेशी मुद्रा भंडार का उपयोग देश के विकास हेतु देश में ही किस प्रकार किया जा सकता है। इससे कई लाभ होंगे। एक तो, अर्थव्यवस्था में तरलता की स्थिति में सुधार होगा। दूसरे, देश में पूंजी के एक बफ़र के रूप में इस धन को इस्तेमाल किया जा सकेगा, जिससे देश के आर्थिक विकास को गति मिलेगी। तीसरे, तुलनात्मक रूप से भारतीय रिज़र्व बैंक की आय में सुधार होगा, क्योंकि भारतीय रिज़र्व बैंक को इस निवेश पर कम ब्याज दर के स्थान पर अधिक ब्याज की दर मिलनी शुरू होगी। इस विषय पर गम्भीरता एवं विस्तार से चर्चा करने के बाद एवं फ़ायदे एवं नुक़सान का आकलन करने के बाद, इस बारे में एक विस्तृत नीति का निर्माण किए जाने की आज आवश्यकता है।

लगातार दूसरे साल देश में कोयला बिजली उत्पादन हुआ कम

भारत में कोयला आधारित बिजली उत्पादन में लगातार दूसरे साल गिरावट दर्ज की गयी है। साल 2018 से शुरू इस गिरावट की बड़ी वजह रही है सौर ऊर्जा का बढ़ता उत्पादन और परम्परागत बिजली की घटती मांग।

ताज़ा आंकड़ा है साल 2020 का जब कोयला बिजली उत्पादन में 5 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गयी। इस गिरावट का सिलसिला 2018 से शुरू हुआ जब उत्पादन ने अपने ऐतिहासिक शिखर पर पहुँचने के बाद नीचे का रुख कर लिया। पिछले साल कोविड की वजह से लगे लॉकडाउन ने इस गिरावट को मज़बूत कर दिया और अब यह सुनिश्चित करने का एक अवसर है कि COVID-19 महामारी से उबरने के दौर में देश वापस कोयला बिजली के उत्पादन को बढ़ने का मौका न दे।

इन बातों का ख़ुलासा हुआ एनर्जी थिंक टैंक एम्बर द्वारा किये एक विश्लेषण से, जिसमें पता चलता है कि भारत की कोयला बिजली 2018 में चरम पर पहुंचने के बाद से लगातार घट रही है। कोविड-19 लॉकडाउन की वजह से वार्षिक बिजली की मांग में कमी आई है जिसके परिणामस्वरूप भारत की कोयले से चलने वाली बिजली का उत्पादन 2020 में 5% कम हो गया है। यह लगातार दूसरा वर्ष है जिसमे कोयला बिजली उत्पादन में गिरावट आयी है, 2018 की तुलना में 2020 में कोयला उत्पादन 8% कम है। फिर भी कोयला अभी भी बिजली का प्रमुख स्रोत बना हुआ है, और इस से 2020 में भारत की बिजली का 71% उत्पादन हुआ।

अध्ययन में भारत के केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण के नए आंकड़ों का विश्लेषण किया गया है, जिससे पता चलता है कि बिजली की मांग में 36 TWh (3%) की गिरावट और सौर उत्पादन में 12 TWh (3%) की वृद्धि हुई जिसकी वजह से कोयला 2020 में 51 TWh (5%) की गिरावट हुई। जैसे-जैसे कोयले से चलने वाला बिजली उत्पादन गिरता गया और कोयले की क्षमता बढ़ती गई, भारत का कोयला संयंत्र लोड फैक्टर (PLF) (पीएलएफ) 2020 में 53% के निचले स्तर पर गिर कर आ गया।

एम्बर की रिपोर्ट दर्शाती है कि अगर बिजली की मांग कोविड-19 से संरचनात्मक रूप से प्रभावित होती है तो भारत का कोयला आधारित बिजली उत्पादन इस दशक में नहीं बढ़ेगा और जैसा है वैसा ही रहेगा। बिजली की मांग 2030 1 तक हर साल सिर्फ 4-5% बढ़ने का अनुमान है, अध्ययन की गणना है कि 2030 तक कोयले से चलने वाले बिजली उत्पादन में केवल एक छोटी (52 TWh) वृद्धि होगी। विश्लेषण अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के आंकड़ों पर आधारित है और यह दिखाता है कि हालिया भारत एनर्जी आउटलुक 2021 की रिपोर्ट इस निष्कर्ष का समर्थन करती है कि कोयला शक्ति और नहीं बढ़ेगी और इस दशक में गिर भी सकती है।

यह नया प्रक्षेप पथ भारत को जलवायु के लिए अधिक मुनासिब मार्ग पर डालता है। हालांकि, एम्बर की रिपोर्ट से पता चलता है कि यह भारत पर निर्भर है कि वह पवन और सौर उत्पादन के लिए अपना 2022 का लक्ष्य पूरा करे जिसे 2020 (118TWh) में हुए उत्पादन से दोगुना से अधिक होने की आवश्यकता होगी।

एम्बर के वरिष्ठ विश्लेषक आदित्य लोल्ला ने कहा, “यह संभावना बढ़ रही है कि भारत में 2020 में कोयला बिजली (उत्पादन) स्थिर रहेगा। लेकिन, अभी भी भारत के लक्ष्य पाने से चूकने का जोखिम है। जैसे-जैसे भारत कोविड -19 महामारी के सदमें से उबरता है, अगले एक दशक में इसके द्वारा किए जाने वाले विकल्प इसके कोयला-से-स्वच्छ बिजली संक्रमण को बनाएंगे या तोड़ देंगे। बढ़ती बिजली की मांग को पूरा करने के लिए अब पर्याप्त नई सौर और पवन क्षमता के निर्माण पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए। इसका मतलब होगा कि अगले कुछ वर्षों में ऑनलाइन आने वाले कोयला संयंत्रों की नई लहर का उपयोग भारत के सबसे पुराने और गंदे (प्रदूषित करने वाले) कोयला संयंत्रों को बदलने के लिए किया जा सकता है। दुनिया के दूसरे सबसे बड़े कोयला उत्पादक के रूप में, सभी की निगाहें जलवायु कार्रवाई के इस महत्वपूर्ण दशक में भारत पर टिकी हैं।”

वाकई, इसमें कोई दो राय नहीं कि अगर कोयला बिजली उत्पादन यूँ ही घटता रहा और रेन्युब्ल एनेर्जी की डिमांड बढ़ती रही तो भारत की जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ लड़ाई काफ़ी आसान हो जाएगी।

जो भाषा आसेतु हिमालय के बीच सेतु

—विनय कुमार विनायक
जो भाषा आसेतु हिमालय के बीच सेतु,
काम आती परिचित-अपरिचित,
आम-खास, लोग-बाग के बोलचाल हेतु!

जिस भाषा में सूर तुलसी जैसे धूमकेतु
विश्व साहित्य के ग्रह नक्षत्रों के मध्य उभरे!

जिनकी ऊंचाई अंग्रेजी के शेक्सपियर मिल्टन तो क्या
समस्त विश्व साहित्य के कोई भी पलटन छू ना सके!

जिस भाषा की लिपि देवनागरी की वर्तनी की
वैज्ञानिकता, संवहनीयता,संप्रेषणीयता के समकक्ष
विश्व की कोई लिपि आजतक नहीं ठहर पाई!

वह भाषा केन्द्रीय कार्यालयों के काम-काज में प्रयुक्त
नहीं हो पाने के कुचक्र से अबतक क्यों नहीं उभर पाई?
जबकि चक्रव्यूह में फंसने की शर्त है
बालक या बालवत होना, मिथकीय भाषा में
अपरिपक्व अभिमन्यु, धर्मभीरु युधिष्ठिर,मोहग्रस्त अर्जुन!

तीनों एक सी स्थिति, एक दूसरे का पर्याय
जो अति परिपक्व हिन्दी के साथ शुरु से लागू नहीं होती!

व्यूहकारों का काम है स्थिति भांपकर व्यूह रचना,
वर्णा जाग्रत अर्जुन पर कोई व्यूह कभी नहीं व्यापता!

कार्यालयीन व्यूह में फंसी हिन्दी न अपरिपक्व अभिमन्यु,
न धर्मभीरु युधिष्ठिर, न मोहग्रस्त अर्जुन,फिर फंसी क्यूं?

हिन्दी को हिन्दी-अहिन्दी पाट में पीसने से बचालो,
क्षेत्रीय संकीर्णता के संकट भरे हाट-बाट से निकालो!!

ज्ञात नहीं क्या बंगाली केशव सेन,गुजराती दयानंद की
प्रचार भाषा, सुभाषचन्द्र बोस की ‘दिल्ली चलो’ उद्घोषणा,
‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ का उद्घोष हिन्दी?

प्रथमतः सिद्ध सरहपा, अमीर खुसरो से उद्भूत,
ना हिन्दू ना मुस्लिम कबीर की साधुकड़ी से निकली!

धर्म जाति और क्षेत्रीयता की दीवार फांदकर संसद से
विश्व महासभा तक सारे भूखण्ड पर विस्तृत हो चुकी!

अब कितना इम्तिहान अभी बांकी,
अंग्रेजों की कितनी गुलामी अभी बांकी?
शकुनी नहीं, कमाल पाशा सा पाशा फेंको!
बहुत देर हो गई अब आशा ना देखो!

कमाल पाशा आधुनिक तुर्की का पिता निर्माता,
कमाल की भाषा नीति काबिले तारीफ की थी
रातों-रात त्याग क्लिष्ट अरबी लिपि, अपनाई भाषा देशी!

कमाल की धर्मनिरपेक्षता भी कमाल की थी
त्यागकर टोपी दाढ़ी,अपनाई आधुनिक वैज्ञानिकता,
दिमाग जो बर्वर था, खेती जो बंजर थी, हुए उर्वर!

कमाल पाशा के क्रांति जीवन का आदर्श
भारतीय क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल थे
जिनकी शहादत पर पाशा ने तुर्की में बसाया बिस्मिल शहर
अपनी बुराई त्याग, पराई अच्छाई अपनाना ही मानवता है!

क्या अब मिलेगी अपनी बात छिपाने की आजादी?

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

पिछले तीन-चार सौ साल से दुनिया में एक बड़ी लड़ाई चल रही है। उसका नाम है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता। ब्रिटेन, यूरोप, अमेरिका और भारत-जैसे कई देशों में तो यह नागरिकों को उपलब्ध हो गई है लेकिन आज भी चीन, रूस और कुछ अफ्रीकी और अरब देशों में इसके लिए लड़ाइयाँ जारी हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता क्या है ? अपने दिल की बात बताने की स्वतंत्रता ! लेकिन आजकल एक नई लड़ाई सारी दुनिया में छिड़ गई है। वह है, अपनी बात बताने की नहीं, छिपाने की स्वतंत्रता। छिपाने का अर्थ क्या है ? यही कि आपने किसी से फोन पर या ईमेल पर कोई बात की तो उसे कोई तीसरा व्यक्ति न जान पाए। वह तभी जाने जबकि आप उसे अनुमति दें।
आजकल मोबाइल फोन और इंटरनेट की तकनीकी का कमाल ऐसा हो गया है कि करोड़ों लोग हर रोज़ अरबों-खरबों संदेशों का लेन-देन करते रहते हैं लेकिन उनमें से ज्यादातर को यह पता नहीं है कि उनके एक-एक शब्द पर कुछ खास लोगों की नजर रहती है। कौन हैं, ये खास लोग? ये हैं, व्हाट्साप और फेसबुक के अधिकारी लोग! उन्होंने ऐसी तरकीबें निकाल रखी हैं कि आपकी कितनी भी गोपनीय बात हो, वे उसे सुन और पढ़ सकते हैं। ऐसा करने के पीछे उनका स्वार्थ है। वे आप पर जासूसी कर सकते हैं, आपको आर्थिक नुकसान पहुंचा सकते हैं, वे आपके फैसलों को बदलवा सकते हैं, आपके पारस्परिक संबंधों को बिगाड़ सकते हैं। यही शक्ति वे सरकार के मंत्रियों, सांसदों और अधिकारियों के विरूद्ध भी इस्तेमाल कर सकते हैं।
इसीलिए यह मांग उठ रही है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की तरह निजता याने गोपनीयता की स्वतंत्रता की भी कानूनी गारंटी हो। हमारे संविधान में निजता की कोई गारंटी नहीं है। 2017 में हमारे सर्वोच्च न्यायालय में इस मुद्दे पर जमकर बहस हुई थी। अब 2021 में भी सर्वोच्च न्यायालय में यही मुद्दा जोरों से उठा है। लेकिन दोनों में बड़ा फर्क है। जुलाई 2017 में कुछ याचिकाकर्त्ताओं ने मांग की थी कि निजता को भी अभिव्यक्ति की तरह संविधान में मूल अधिकार की मान्यता दी जाए लेकिन तब सरकारी वकील ने तर्क दिया कि यदि निजता को मूल अधिकार बना दिया गया तो उसकी आड़ में वेश्यावृत्ति, तस्करी, विदेशी जासूसी, ठगी, आपराधिक, राष्ट्र्रद्रोही और आतंकी गतिविधियां बेखटके चलाई जा सकती हैं। उसने सर्वोच्च न्यायालय के 1954 और 1956 के दो फैसलों का जिक्र भी किया था, जिनमें निजता के अधिकार को मान्य नहीं किया गया था।
लेकिन अब सरकारी वकील निजता के अधिकार के लिए सर्वोच्च न्यायालय में पूरा जोर लगाए हुए हैं। क्यों ? क्योंकि व्हाटसाप और फेसबुक जैसी कंपनियों के बारे में शिकायतें आ रही हैं कि वे निजी संदेशों की जासूसी करके बेशुमार फायदे उठा रही हैं। व्हाटसाप के जरिए भेजे जानेवाले संदेशों से इतना फायदा उठाया जाता है कि व्हाट्साप को फेसबुक ने 19 अरब डॉलर जैसी मोटी रकम देकर खरीद लिया है। हर व्हाटसाप संदेश के ऊपर यह लिखा हुआ आता है कि आपके संदेश या वार्ता को कोई न पढ़ सकता है, न सुन सकता है लेकिन इस साल उसने घोषणा कर दी थी कि 8 फरवरी 2021 से उसके हर संदेश या बातचीत को फेसबुक देख सकेगी। यह खबर निकलते ही इतना हंगामा मचा की व्हाट्साप ने इस तारीख को आगे खिसकाकर 15 मई कर दिया।
लोग इतने डर गए कि लाखों लोगों ने व्हाट्साप की जगह तत्काल ‘सिग्नल, ‘टेलीग्राम’ और ‘बोटिम’ जैसे नए माध्यमों को पकड़ लिया। देश में आजकल जैसा माहौल है, ज्यादातर मंत्रिगण, नेता, पत्रकार और बड़े व्यापारी लोग व्हाट्साप के इस्तेमाल को ही सुरक्षित समझते हैं। इसीलिए भारत सरकार ने 2018 में ‘व्यक्तिगत संवाद रक्षा कानून’ के निर्माण पर बहस चलाई है। उसमें दर्जनों संशोधन आए हैं और संसद के इसी सत्र में वह शायद कानून भी बन सकता है। यह कानून ऐसा बन रहा है, जिसमें व्यक्तिगत निजता की तो पूरी गारंटी होगी लेकिन राष्ट्रविरोधी और आपराधिक गतिविधियों को पकड़ने की छूट होगी।
आजकल सर्वोच्च न्यायालय में सरकारी वकील फेसबुक के वकीलों से जमकर बहस कर रहे हैं और पूछ रहे हैं कि यूरोप में आप जिस नीति को पिछले दो साल से चला रहे हैं, वह आप भारत में क्यों नहीं चलाते ? यूरोपीय संघ ने लंबे विचार विमर्श के बाद निजता-भंग पर कड़े प्रतिबंध लगा दिए हैं और उसका उल्लंघन करनेवाली कंपनियों पर भारी जुर्माना ठोक दिया है। व्यक्ति-विशेष की अनुमति के बिना उसके संदेश को किसी भी हालत में कोई नहीं पढ़ सकता। 16 साल की उम्र के बाद ही बच्चे व्हाट्साप का इस्तेमाल कर सकते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने भी निजता के अधिकार की रक्षा में गहरी रूचि दिखाई है। चीफ जस्टिस एस ए बोबडे की अध्यक्षतावाली पीठ ने फेसबुक के लोगों को कहा है कि ‘‘आप होंगे, दो-तीन ट्रिलियन की कंपनी, लेकिन लोगों की निजता उससे ज्यादा कीमती है। हर हाल में उसकी रक्षा हमारा फर्ज है।’’ न्यायपीठ ने व्हाट्साप से कहा है कि वह चार हफ्तों में अपनी प्रतिक्रिया दे। फेसबुक के वकीलों ने कहा है कि यदि भारतीय संसद यूरोप-जैसा कानून बना देगी तो हम उसका भी पालन करेंगे। हमारी संसद को यही सावधानी रखनी होगी कि निजता का यह कानून बनाते वक्त वह कृषि-कानूनों की तरह जल्दबाजी न करे।

बसंत पंचमी


आओ बसंत पंचमी मनाए,
नील गगन में पतंग उड़ाए,
मां सरस्वती करे हम पूजा,
उसको अपना शीश झुकाये ।

पीले पीले फूल है खिलते,
जीवन के आनंद है मिलते,
करते स्वागत वसंत ऋतु का,
शरद ऋतु को विदा हम करते।

बसंती चोला पहने इस दिन,
मन बसंती होता है इस दिन,
चारों तरफ है बसंत की शोभा
सबसे सुंदर लगते हैं ये दिन।।

बसंत ऋतु ऋतुओ का राजा
दिल में बजता है एक बाजा,
मन भी हो जाता है चंचल,
प्रारम्भ होते हैं शुभ काजा।।

रामकृष्ण रस्तोगी