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भ्रष्टाचार अमर रहे …..

वीरेंद्र परमार

आजकल सभी लोग भ्रष्टाचार का उन्मूलन करने के लिए प्राणपण से जुटे हुए हैं I देश की एक सौ तीस करोड़ जनता भ्रष्टाचार का समूल नाश करना चाहती है, लेकिन इसका नाश ही नहीं हो पा रहा है I जिसे देखो वह भ्रष्टाचार के पीछे पड़ा है, उसे मिटाने पर आमादा है I कहता है कि हम इसे मिटाकर दम लेंगे I अब तो मुझे भ्रष्टाचार से सहानुभूति होने लगी है I भ्रष्टाचार ने भला किसी का क्या बिगाड़ा है कि इस बेचारे के पीछे लोग हाथ धोकर पड़ गए हैं I जिस प्रकार भगवान की कोई एक परिभाषा नहीं दी जा सकती उसी प्रकार भ्रष्टाचार की भी कोई निश्चित परिभाषा नहीं है I किसी एक के लिए भ्रष्टाचार समझा जानेवाला कार्य किसी अन्य के लिए शिष्टाचार भी हो सकता है I खेसारी यादव दूध और पानी के मिलन को भ्रष्टाचार नहीं मानते हैं I लल्लन हलवाई पनीर में आटा मिश्रित कर ग्राहकों को चूना लगाता है, लेकिन इस अपमिश्रण को वह भ्रष्टाचार नहीं मानता I ददन ठेकेदार विभागीय इंजिनियरों को दस प्रतिशत कमीशन देता है और खुद अस्सी प्रतिशत धन हजम कर जाता है, लेकिन अपनी नजर में वह पवित्र आत्मा एवं विभागीय इंजिनियर भ्रष्ट हैं I मीडिया जगत में अमरदीप नामक एक चरणचाटू पत्रकार हैं I वे बहुत बड़े और पुराने पत्रकार हैं I वे इतने बड़े हैं जितना कोई ताड़ का पेड़ भी नहीं हो सकता I वे जिन राजनेताओं – राजनेत्रियों का इन्टरव्यू लेते हैं उनसे कोई असहज सवाल नहीं पूछते हैं, वे पेटीकोट के रंग, कॉफी बनाने की विधि और ‘लव आजकल’ विषयक सवाल पूछते हैं I इसलिए भाई लोग उन्हें पेटीकोट पत्रकार कहते हैं I इतिहास साक्षी है कि लक्ष्मी माता का आशीर्वाद लिए बिना वे न तो ख़बरें दिखाते हैं, न ख़बरें छिपाते हैं I वे स्पष्टवादी पत्रकार हैं I उनका कहना है कि वे पत्रकारिता के क्षेत्र में भजन करने नहीं, बल्कि धन अर्जन करने के लिए आए हैं I अपनी कला – कौशल और करामाती विद्या के बल पर उन्हेंने पद्मश्री पुरस्कार भी झटक लिया है I अमरदीप भी आजकल भ्रष्टाचार को उन्मूलित करने के लिए विह्वल – व्याकुल हैं I आजकल वे टीआरपी का झूला झूलते खबर बुभुक्षु न्यूज़ चैनलों पर भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद कर रहे हैं I भ्रष्टाचार एक प्राचीन अवधारणा है जिसका भारत के साथ अटूट रिश्ता है I

जवानी के दिनों में जब मैं सरकारी लालफीताशाही और भ्रष्टाचार के खिलाफ आक्रोश व्यक्त करता था तो मेरे पड़ोसी चतुरी चाचा कहा करते थे कि समय आने पर तुम्हारा आक्रोश भी व्यवस्था के हवन कुंड में स्वाहा हो जाएगा I अरे भाई ! भ्रष्टाचार तो एक पौराणिक विधा है, यह हर युग, हर काल में रहा है I भ्रष्टाचार ईमानदारी का बड़ा भाई और बेईमानी का छोटा साला है I भ्रष्टाचार को मिटाने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि प्रत्येक भारतवासी का परम कर्तव्य है कि वह भ्रष्टाचार की श्रीवृद्धि करने के लिए भरपूर प्रयास करे I भ्रष्टाचार से देश की अर्थव्यवस्था को गति मिलती है I अर्थव्यवस्था में सुधार होने पर लोगों कों रोजगार मिलता है I किसी कार्य के लिए अगर कोई अधिकारी कुछ चढ़ावा, कुछ पत्र – पुष्प की माँग करता है तो उसके खिलाफ वामपंथी आलोचक बनने की क्या जरूरत है ? पत्र – पुष्प अर्पित करना तो भारत की गौरवमयी परंपरा रही है I हम भगवान को पत्र – पुष्प अर्पित कर अपनी सफलता का आशीर्वाद तो मांगते ही हैं न I इसी तरह बड़े अधिकारियों या छोटे क्लर्कों को कुछ पत्र – पुष्प अर्पित कर अपने कार्य की सिद्धि करा लेना कौन – सा अपराध हो गया !! कुछ ले – देकर काम करना – कराना तो देशसेवा है I रिश्वत लेनेवाले भी अपने देश के, देनेवाला भी अपने देश के I देश का धन देश में ही रह गया, विदेश में तो नहीं गया I इसी तरह तो बनेगा आत्मनिर्भर भारत I रिश्वत, कमीशन आदि से देश की आर्थिक प्रगति होती है और भ्रष्टाचार से स्वदेशीकरण को बढ़ावा मिलता है I लेनेवाला और देनेवाला दोनों स्वदेशी I रिश्वतखोर अधिकारी प्राप्त धन से कुछ सामान खरीदता है जिससे देश की अर्थव्यवस्था का पहिया घूमता है, देश की आर्थिकी सुदृढ़ होती है और आम जनता के जीवन स्तर में सुधार होता है I जो लोग रिश्वतखोरी का विरोध करते हैं वे देश की आर्थिक उन्नति में बाधा डालते हैं I अतः वे देशद्रोही हैं I सभी लोग बेईमानी का आबे हयात पीना चाहते हैं, लेकिन भ्रष्टाचार का विरोध करते हैं I यह कहां का न्याय है ? गुड़ खाए, गुलगुले से परहेज I यदि भ्रष्टाचार शब्द पसंद नहीं हो तो कोई दूसरा नाम दे दो I नाम में क्या रखा है I जिस प्रकार रिश्वत को चाँदी का जूता नाम दे दिया गया है उसी प्रकार भ्रष्टाचार को शिष्टाचार या सदाचार नाम दे दो, लेकिन इसकी जड़ में मट्ठा तो मत डालो I भ्रष्टाचार को न कोई रोक पाया है, न कोई रोक पाएगा I जब भ्रष्टाचार का उन्मूलन ही नहीं किया जा सकता तो इसे उन्मूलित करने का विचार ही फासीवादी है I भ्रष्टाचार का सतोगुण तो भारतवासियों के रक्त में घुस चुका है, उनके डीएनए में शामिल हो चुका है I इसलिए आप चाहें या न चाहें, भ्रष्टाचार का सतोगुण तो रहेगा I यह भगवान की तरह सर्वव्यापी और अविनाशी है I जो अमर है उसे मिटाने का प्रयास करना भी महापाप है I

जिस तरह वामपंथी परजीवियों को देशभक्ति का पाठ पढ़ाना बेकार है उसी तरह भ्रष्टाचार का उन्मूलन करने का प्रयास करना भी महापाप है I भ्रष्टाचार को समाप्त नहीं किया जा सकता क्योंकि इसे राजनीति देवी ने अमरत्व का वरदान दिया है I ‘लिव विद कोरोना’ के साथ – साथ ‘लिव विद करप्शन’ को भी जीवन का मूल मंत्र बनाना चाहिए I बिहार किसी अन्य क्षेत्र में तरक्की करे या न करे, लेकिन वह भ्रष्टाचार के क्षेत्र में नित नए – नए कीर्तिमान स्थापित कर रहा है I मैं भी एक बिहारी हूँ I इसलिए जब सुनता हूँ कि बिहार में बाढ़ से बचाव के लिए कागज की हजारों नावें चल रही हैं, पुल और भवन उद्घाटन के पहले ध्वस्त हो रहे हैं, दारोगा की बहाली में दस लाख की घूस ली जा रही है तो मेरा सीना छप्पन इंच का हो जाता है I मेरे लिए तो यह अत्यंत गौरव की बात है कि बिहार भ्रष्टाचार की सड़कों पर सरपट दौड़ रहा है I अभी हाल की दो गौरवपूर्ण घटनाओं के कारण बिहार ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है I बिहार में गंडक नदी पर बने दो पुल उद्घाटन के पहले ही ध्वस्त हो गए I जिस दिन मुख्यमंत्री को उद्घाटन करना था उस दिन प्रातःकाल में ही पुल भरभराकर गिर पड़ा I कम से कम ठेकेदारों और अभियंताओं ने इतना ध्यान तो रखा कि मुख्यमंत्री के आने के पहले वह गिर गया अन्यथा गंभीर दुर्घटना हो सकती थी I अतः इन ठेकेदारों और अभियंताओं का सार्वजानिक अभिनंदन किया जाना चाहिए जिनकी सूझबूझ के कारण पुल उद्घाटन के पहले ही भूमिसात हो गया I भ्रष्टाचार के सीमेंट, परसेंटेज की ईंट और कमीशन के सरिया पर बने ये पुल सुशासनकालीन स्थापत्य कला के अनुपम उदाहरण हैं I बिहार में ऐसे महापुरुषों की भी कमी नहीं है जो उस स्थान पर भी कागजी पुल बना देते हैं जहाँ नदी नहीं है I ऐसे कल्पनाशील अधिकारी प्रणम्य हैं I कोरोनाकाल में आपदा को अवसर में बदलने का जुमला खूब उछाला जा रहा है, लेकिन इतिहास साक्षी है कि बिहार में बाढ़ जैसी आपदा को अवसर में बदलने की प्राचीन गौरवशाली परंपरा रही है I पंचायत के अधिकारियों ने कागजी नाव चलाकर लक्ष्मी माता का भरपूर आशीर्वाद प्राप्त किया है तथा अपने और अपनों की गरीबी दूर की है I वैसे भ्रष्टाचार के मामले में भारत का कोई भी प्रदेश और कोई भी विभाग कमतर नहीं है I को बर छोट कहत अपराधू I भ्रष्टाचार के मामले में अक्खा इंडिया एक है I यही देश की विविधता में एकता का प्रमाण है I पौराणिक ग्रंथों के आधार पर देश की सांस्कृतिक एकता सिद्ध की जाती है, लेकिन देश की भ्रष्टाचारीय एकता की झलक प्राप्त करने के लिए किसी भी प्रदेश का कोई भी अखबार उठा लीजिए, आपको भ्रष्टाचार और घोटाले के एक से बढकर एक किस्से – कारनामे मिल जाएँगे I

हमारे देश में भ्रष्टाचार के तरीकों में बहुत साम्य है I भ्रष्टाचार के मोर्चे पर क्या उत्तर, क्या दक्षिण, क्या पूरब, क्या पश्चिम – हम सब एक हैं I भ्रष्टाचार हमारी राष्ट्रीय एकता कि भावना को मजबूत करता है, वह राष्ट्रीय एकता का प्रतीक है I हिंदी और हिंदीतर प्रदेशों में कोई भेदभाव नहीं है I हमारे देश की उदारता है कि हिंदी प्रदेशों ने भ्रष्टाचार के जिन तरीकों का इस्तेमाल किया है उसे हिंदीतर प्रदेशों ने गले लगाया है और हिंदीतर प्रदेशों की रिश्वतखोरी परंपरा को हिंदी प्रदेशों ने बिना किसी अनुवादक का सहारा लिए अपना कंठहार बनाया है I मगध सम्राट चालू प्रसाद और लुंगी ब्रांड ताम्बरम की चौर्य कला में अद्भुत साम्य है I इसी प्रकार कुमारी छायावती और मराठी मुँहटेढ़ा बकासुर में भी अद्भुत समानताएं हैं I

बिहार में एक प्रेरक लोककथा प्रचलित है I किसी महाविद्यालय में ‘भ्रष्टाचार की दशा – दिशा’ विषय पर पी-एच.डी. कर चुके एक नए प्राचार्य की नियुक्ति हुई I उन्होंने जल की आवश्यकता की पूर्ति के लिए एक तालाब का निर्माण कराया I कुछ दिनों के बाद उनका तबादला हो गया I उनके स्थान पर एक नए प्राचार्य स्थानांतरित होकर आए I भ्रष्टाचार के संबंध में इनकी भी दूर – दूर तक ख्याति थी I उन्होंने उस तालाब की साफ़ – सफाई कराने के लिए मोटा माल खर्च किया I कुछ दिनों के बाद उनका भी तबादला हो गया I उनके स्थान पर कॉलेज में स्थानांतरित होकर तीसरे प्राचार्य आए I तीसरे प्राचार्य उन दोनों के गुरु रह चुके थे और वे भ्रष्टाचार विषयक शोध प्रबंध के विशेषज्ञ माने जाते थे I तीसरे प्राचार्य ने शासन को पत्र भेजा कि तालाब के कारण आसपास के गाँवों में महामारी फैलने की आशंका है I इसलिए तालाब को भरने की अनुमति दी जाए I अनुमति मिलने पर तालाब को मिट्टी से भरवा दिया गया I यह सब कुछ कागज पर हुआ I न मजदूर लगे, न मिट्टी खुदी, लेकिन तालाब के नाम पर तीन बार लक्ष्मी जी की कृपा बरसी I बाद में यह तालाब प्रकरण सिविल इंजीनियरिंग के छात्रों और अभियंताओं के लिए केस स्टडी बना I

हमलोग ‘भ्रष्टाचार अमर रहे’ नामक एक अभिनव अभियान चला रहे हैं I हमारा ध्येय वाक्य है “हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे” I ध्येय वाक्य के अनुसार हम देश के भ्रष्टाचारियों को वैधानिक, आर्थिक और सामाजिक सहायता प्रदान करने के लिए प्रतिबद्ध हैं I सभी भ्रष्टाचारियों को देश की मुख्यधारा में शामिल करना हमारा पावन राष्ट्रीय उद्देश्य है I भ्रष्टाचार के प्रति जनजागरूकता बढ़ाने, भ्रष्टाचार की नई तकनीक को बढ़ावा देने और नए – नए तरीकों से सभी भ्रष्टाचारी भाइयों को अवगत कराने के लिए हम नुक्कड़ सभा, प्रशिक्षण शिविर, कार्यशाला आदि आयोजित करेंगे I हम सभी भ्रष्टाचारियों को एकजुट होने का आह्वान करते हैं I भ्रष्टाचारी बहुमत में हैं, फिर भी उन्हें हाशिए पर डाल दिया गया है, यह घोर अन्याय है I अब हम इस अन्याय और उत्पीड़न को सहन नहीं करेंगे I हम शासन से माँग करेंगे कि भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, बेईमानी और मिलावट को वैध बनाया जाए तथा संविधान संशोधन कर भ्रष्टाचार को मौलिक अधिकारों में शामिल किया जाए I अगले चुनाव में हमारा वोट उसी पार्टी को जाएगा जो पार्टी अपने चुनावी घोषणापत्र में भ्रष्टाचार को मौलिक अधिकारों में शामिल करने का वादा करेगी I आपलोग भी ‘भ्रष्टाचार अमर रहे’ अभियान में शामिल होकर आर्यावर्त में एक अराजक, विधिमुक्त, भ्रष्टाचारयुक्त, बेईमान, रिश्वतखोर, स्वच्छंद और सर्वतंत्र स्वतंत्र शासन – प्रशासन स्थापित करने के लिए अपनी राष्ट्रीय भूमिका का निर्वाह करें I आइए हम जोर से बोलें – भ्रष्टाचार अमर रहे I

स्वामी अग्निवेश के निधन से देश के एक क्रांतिकारी पक्ष का अंत

अशोक प्रवृद्ध

सामाजिक कार्यकर्ता इकासी वर्षीय स्वामी अग्निवेश का शुक्रवार को नई दिल्ली स्थित इंस्टिट्यूट ऑफ लिवर एंड बिलिअरी साइंसेस (आईएलबीएस) में निधन हो जाने से देश और फिर आर्य समाज के एक क्रांतिकारी पक्ष का अंत हो गया । स्वामी अग्निवेश यकृत से सम्बन्धित लिवर सिरोसिस नाम की बीमारी से पीड़ित थे और बीते कुछ दिनों से काफी बीमार थे। उनके कई अंगों ने काम करना बंद कर दिया था, और बीते मंगलवार से वह वेंटिलेटर पर थे। आईएलबीएस के द्वारा जारी किए गए एक बयान के अनुसार स्वामी अग्निवेश को शुक्रवार शाम छह बजे कार्डियक अरेस्ट हुआ। उन्हें बचाने की भरपूर कोशिश की गई, लेकिन ऐसा संभव नहीं हो सका,और शाम 6:30 बजे उन्होंने अंतिम सांस ली। ध्यातव्य है कि सहनशीलता और मानवता के एक सच्चे योद्धा, साहसी और जनहित को लेकर बड़े जोखिम उठाने वाले व्यक्ति स्वामी अग्निवेश दो वर्ष पूर्व झारखंड में एक हमले का शिकार हुए थे, उनका यकृत अर्थात लिवर खराब हो गया था। उनका अंतिम संस्कार वैदिक रीति से अग्निलोक आश्रम, बहलपा जिला गुरुग्राम में शनिवार शाम चार बजे सम्पन्न हुआ।

उल्लेखनीय है कि 21 सितंबर 1939 को आंध्रप्रदेश के ब्राह्मण परिवार में जन्में स्वामी अग्निवेश ने कोलकाता में कानून और बिजनेस मैनेजमेंट की पढ़ाई करने के बाद आर्य समाज में सन्यास ग्रहण किया था। उन्होंने एक संन्यासी के जीवन का निर्वाह करने के लिए अपने नाम, जाति, धर्म, परिवार, सामान और संपत्ति का त्याग कर दिया था । कुछ समाचार पत्रीय खबर के अनुसार उनका जन्म वर्तमान छत्तीसगढ़ के शक्ति (सक्ति) रियासत, वर्तमान में जांजगीर-चाँपा जिले के शक्ति नामक स्थान में हुआ था । वे अल्पवय से पठन – पाठन के साथ ही सामाजिक हित के कार्यों में लगे रहते थे और इसी सार्वजनिक हित के कार्यों ने उन्हें राजनीति में आने के लिए प्रेरित किया। सामाजिक मुद्दों पर अपनी बेबाक राय रखने के लिए स्वामी जी जाने जाते थे। स्वामी अग्निवेश को अपने संगठन बंधुआ मुक्ति मोर्चा के माध्यम से बंधुआ मजदूरी के खिलाफ अभियान चलाने के लिए भी  जाना जाता है। बंधुआ मज़दूरी के ख़िलाफ़ उनकी दशकों की मुहिम तो पत्र –पत्रिकाओं व अन्यान्य संचार माध्यमों की सुर्खियाँ बनती ही रही हैं, उन्होंने बंधुआ मुक्ति मोर्चा नामक संगठन की शुरुआत की और हमेशा ही रूढ़िवादिता और जातिवाद के ख़िलाफ़ लड़ने का दावा करते रहे। अस्सी के दशक में उन्होंने दलितों के मंदिरों में प्रवेश पर लगी रोक के खिलाफ भी आंदोलन चलाया था। वर्ष 2011 के जनलोकपाल आंदोलन के समय अरविंद केजरीवाल पर धन के ग़बन का उनके द्वारा लगाया गया आरोप काफ़ी समय तक लोगों को याद रहा। बाद में स्वामी अग्निवेश मतभेदों के चलते इस भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से दूर हो गए थे। दूर होने के बाद उन्होंने यह तक कहा कि केजरीवाल अन्ना हज़ारे की मौत चाहते थे । माओवादियों और सरकार के बीच बात-चीत में उनकी मध्यस्थता के लिए भी स्वामी अग्निवेश को याद किया जाता है। आर्य समाजी होने के कारण वे मूर्तिपूजा और धार्मिक कुरीतियों का हमेशा विरोध करते रहे, लेकिन  उन्होंने कई बार ऐसी बातें भी खुलकर कहीं जो सनातन वैदिकों को नागवार गुजरती थी। बंधुआ मज़दूरों के लिए लंबी लड़ाई लड़नेवाले और नोबेल जैसा सम्मानित समझे जाने वाला राइट लाइवलीहुड अवॉर्ड पा चुके स्वामी अग्निवेश के व्यक्तित्व को लेकर कई तरह की राय रहीं।

समाज सुधारक, गरीबों के मसीहा, राष्ट्र भक्त ,ऋषि भक्त , क्रान्तिकारी आर्य संन्यासी स्वामी अग्निवेश ने युवावस्था में संन्यास लेकर सामाजिक राजनीतिक व आध्यात्मिक श्रेत्र में निरन्तर संघर्ष किया  । वे ऋषि दयानन्द की तरह बड़ी निर्भिकता से समाज में फैली कुरितियों, अन्धविश्वासों व पाखंडों पर प्रहार करते थे । 2004 में द राइट लाइवलीहुड अवार्ड के विजेता अग्निवेश ने 28 वर्ष की छोटी उम्र में कलकत्ता में कानून और प्रबंधन के प्रोफेसर के रूप में अपना कैरिएर का त्याग ही नहीं किया वरन उन्होंने अपना नाम, जाति, धर्म, परिवार और अपने सभी सामान और संपत्ति तक को एक स्वामी का जीवन अपनाने के लिए छोड़ दिया और सामाजिक न्याय एवं दया के लिए अपने जीवन की शुरुआत की। अपने विचारों के कारण स्वामी अग्निवेश आर्य समाज के प्रतिष्ठित विश्व प्रसिद्ध नेता बन गए थे। मुसलामानों के मध्य जाकर कब्र पूजा और बकरीद पर जानवरों की कुर्बानी को ग़लत कहना, सत्यार्थ प्रकाश व वेद को महिमामंडित करना, संगठन सूक्त जैसे वेदमंत्र बोलना, सऊदी अरब के शेख को सत्यार्थ प्रकाश भेंट करना, शिक्षा मंत्री के पद को ठोकर मारना, सती प्रथा को ख़त्म करने के लिए और लोगो में इसके विरुद्ध जनजागृति के लिए दिल्ली से देवराला तक पदयात्रा निकालने की हिम्मत करना, लाखों बन्धुआ मज़दूरों को बड़े संघर्ष के बाद मुक्त करवाना,शराब की बिक्री व गौहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध के लिए भी निरन्तर आवाज उठाना आदि समाज सुधार के अनेक काम स्वामी अग्निवेश करते आ रहे थे। आर्य समाज का काम करते-करते ही 1968- 70 में स्वामी अग्निवेश ने आर्य समाज के सिद्धांतों पर आधारित एक राजनीतिक दल – आर्य सभा का गठन किया। बाद में 1981 में बंधुआ मुक्ति मोर्चा की स्थापना उन्होंने दिल्ली में की । स्वामी अग्निवेश ने हरियाणा से चुनाव लड़ा और मंत्री भी बनें । आपातकाल के बाद वर्ष 1977 में वह हरियाणा से विधायक चुने गए थे और इसके दो साल बाद शिक्षा मंत्री बनाए गए थे। हालांकि बंधुआ मजदूरी के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे श्रमिकों पर पुलिस द्वारा गोली चलाए जाने के खिलाफ हरियाणा सरकार द्वारा कोई कार्रवाई न किए जाने की वजह से उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था।

बंधुआ मुक्ति मोर्चा के संयोजक रहे स्वामी अग्निवेश माओवादियों से बातचीत के लिए भी चर्चा के केंद्र विन्दु बने थे । 2010 में उन्हें तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने माओवादी नेतृत्व के साथ संवाद स्थापित करने का काम सौंपा था । इसके एक साल बाद वह अन्ना हजारे के नेतृत्व में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का भी हिस्सा थे। लम्बे समय तक माओवादियों और भारत सरकार के बीच बातचीत की कोशिश करते रहे सामाजिक कार्यकर्ता और बंधुआ मुक्ति मोर्चा के संयोजक स्वामी अग्निवेश का मानना था कि भारत सरकार और माओवादी मजबूरी में शांति वार्ता कर रहे हैं। उनका कहना था कि दोनों के सामने इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है। सामाजिक मुद्दों पर खुलकर अपनी राय रखने के कारण हमेशा चर्चा में रहने वाले स्वामी अग्निवेश शिक्षक और वकील रहे। उन्होंने एक टीवी कार्यक्रम के एंकर की भूमिका भी निभाई और रियलिटी टीवी शो बिग बॉस का भी हिस्सा भी बने। वह 8 से 11 नवंबर के दौरान तीन दिन के लिए बिग बॉस के घर में भी रहे थे। स्वामी अग्निवेश पर नक्सलियों से सांठगांठ और हिंदू धर्म के खिलाफ दुष्प्रचार का आरोप है। जिसके कारण भारत में अनेकों अवसरों पर उनके खिलाफ विरोध-प्रदर्शन हुये हैं। जन लोकपाल विधेयक के लिए आंदोलन कर रही अन्ना हजारे की टीम में भी स्वामी अग्निवेश का अहम रोल है। जंतर-मंतर पर अन्ना के अनशन के दौरान अग्निवेश भी पूरे समय अन्ना के साथ रहे। हालांकि कई मुद्दों पर सिविल सोसायटी और अग्निवेश के बीच मदभेद भी पैदा हुए। असली मुद्दा प्रधानमंत्री और न्यायपालिका को लोकपाल के दायरे में रखने या नहीं रखने को लेकर था। अग्निवेश ने इस बारे में एक विवादास्पद बयान देकर सिविल सोसायटी को नाराज़ कर दिया था। उनका कहना था कि अगर सरकार सिविल सोसायटी की बाक़ी मांगों को मान ले तो पीएम और न्यायपालिका के मुद्दे पर सिविल सोसायटी नरमी बरतने के लिए तैयार है। लेकिन सिविल सोसायटी ने इस बयान को बिलकुल ग़लत करार दिया। अप्रिय लेकिन कल्याणकारी वचन कहने के आदि और अपनी नजर में सदैव सत्य पर आश्रित अपने अपमान को भी अमृत के समान समझकर सभी मत -मतान्तरों व राजनीतिक पाखंड पर निरंतर प्रहार करने और आर्य समाजी होते हुए भी सर्व धर्म समभाव के लिए वैयक्तिक स्तर पर निरंतर संघर्ष रहने के लिए स्वामी अग्निवेश सदैव स्मरण व नमन किये जाते रहेंगे ।

हिंदी के कोहिनूर- बाबा कामिल बुल्के

    

  • श्याम सुंदर भाटिया

बेल्जियम में जन्मे फादर कामिल बुल्के की जीवनभर कर्मभूमि हिंदुस्तान की माटी रही। हिंदी के पुजारी बुल्के मृत्युपर्यंत हिंदी, तुलसीदास और वाल्मीकि के अनन्य भक्त रहे। ‘कामिल’ शब्द के दो अर्थ हैं। एक- वेदी-सेवक जबकि दूसरा अर्थ है- एक पुष्प का नाम। फ़ादर कामिल बुल्के ने दोनों ही अर्थों को जीवन में चरितार्थ किया। वह जेसुइट संघ में दीक्षित संन्यासी के रूप में ‘वेदी-संन्यासी’ थे और एक व्यक्ति के रुप में महकते हुए पुष्प। फादर बुल्के का हिंदी प्रेम जगजाहिर रहा। वह गर्व से कहते थे, संस्कृत राजमाता है, हिंदी बहु रानी है और अंग्रेजी नौकरानी है, लेकिन नौकरानी के बिना भी काम नहीं चलता है। वह बहुभाषा विद थे। बाबा बुल्के अपनी मातृभाषा ‘फ्लेमिश’ के अतिरिक्त अंग्रेज़ी, फ्रेंच, जर्मन, लैटिन, ग्रीक, संस्कृत और हिंदी पर भी संपूर्ण अधिकार रखते थे। हिंदुस्तान की माटी विशेषकर रांची उनके रोम-रोम में बसा था।1951 में भारत सरकार ने फ़ादर बुल्के को बड़े ही आदर के साथ भारत की नागरिकता प्रदान की। बाबा बुल्के भारत के नागरिक बनने के बाद स्वयं को ‘बिहारी’ कहलवाना पसंद करते। कामिल बुल्के की हिंदी सेवाओं के लिए 1974 में भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्मभूषण’ की उपाधि से नवाजा।

फ़ादर हिंदी के इतने सबल पक्षधर थे कि सामान्य बातचीत में भी अँग्रेज़ी शब्द का प्रयोग उन्हें पसंद नहीं था। उन्हें इस बात का दु:ख था कि हिंदी  वाले अपनी हिंदी  का सम्मान नहीं करते हैं। बाबा का विचार था- दुनिया भर में शायद ही कोई ऐसी विकसित साहित्य भाषा हो जो हिंदी की सरलता की बराबरी कर सके। उन्हें इस बात का दर्द था कि हिंदी भाषी और हिंदी संस्थाएं हिंदी को खा गए। जब भी कोई उनसे अंग्रेज़ी में बोलता था, वे पूछ लेते थे- क्या तुम हिंदी नहीं जानते? फ़ादर कामिल बुल्के के छात्र रहे श्री गजेंद्र नारायण सिंह बताते हैं, मैं संत जेवियर्स कॉलेज में दाखिल हुआ तो एक दिन समय निकालकर फ़ादर बुल्के से मिलने गया। उनके कमरे के बंद दरवाज़े पर दस्तक लगाते हुए मैंने कहा- ‘मे आई कम इन फ़ादर।’ मेरे इतना कहते ही दरवाज़ा खुला और एक अत्यंत ही शांत, सौम्य, साधु पुरुष गर्दन पर भागलपुरी सिल्क की चादर लपेटे हुए खड़ा था। उन्होंने धीरे से गम्भीर स्वर में कहा- अभी दरवाज़े पर दस्तक लगाते हुए आपने किसी भाषा का व्यवहार किया? क्या आपकी अपनी कोई बोली या भाषा नहीं है? आप स्वतंत्र राष्ट्र के नागरिक हैं, फिर भी विदेशी आंग्ल भाषा का व्यवहार हिंदी  के एक प्राध्यापक के पास क्यों कर रहे हैं? आपकी मातृभाषा क्या है? प्रश्नों की झड़ी लगा दी उन्होंने। मैं अवाक खड़ा रहा। उन्होंने मुझसे पूछा कि- “आपकी मातृभाषा क्या है?” मैथली बताए जाने पर तो उन्होंने मुझसे निर्विकार भाव से कहा- “आइंदा जब आप मेरे पास आएं तो मैथली या हिंदी  में ही बात करेंगे, अंग्रेज़ी में कदापि नहीं। बुल्के आजीवन हिंदी की सेवा में लगे रहे। हिंदी-अँग्रेजी शब्दकोष के निर्माण के लिए वे सतत प्रयत्नशील रहे। वर्ष 1968 में अंग्रेजी हिंदी कोश प्रकाशित हुआ जो आज भी सबसे प्रामाणिक शब्दकोष माना जाता है। उन्होंने इसमें 40 हज़ार शब्द जोड़े और इसे आजीवन अद्यतन भी करते रहे। कामिल बुल्के का अंग्रेज़ी-हिंदी शब्दकोश और बाइबिल का हिंदी अनुवाद ‘नया विधान’, हिंदी के महत्व और उसकी सामर्थ्य को सिद्ध करने के ही उपक्रम हैं। उनके ‘अंग्रेज़ी-हिंदी शब्दकोश’ ने अंग्रेज़ी के स्थान पर हिंदी के प्रयोग की राह को सुगम बनाया है।बुल्के ने बाइबिल का हिंदी अनुवाद भी किया। मॉरिस मेटरलिंक के प्रसिद्ध नाटक ‘द ब्लू बर्ड’ का नील पंछी नाम से बुल्के ने अनुवाद किया। छोटी-बड़ी कुल मिलाकर उन्होंने क़रीब 29 किताबें लिखीं। हिंदी के इस पंडित का देहावसान गैंग्रीन के कारण 17 अगस्त, 1982 को दिल्ली में हो गया। 

फ़ादर कामिल बुल्के का दूसरा जग-विख्यात पहलू है कि वे हिंदी  के विद्वान, रामकथा के मर्मज्ञ और विदेश में जन्मे भारतीय थे। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ‘रामकथा उत्पत्ति और विकास’ पर 1950 में पी.एच.डी. की। इस शोध में संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, हिंदी , बंगला, तमिल आदि समस्त प्राचीन और आधुनिक भारतीय भाषाओं में उपलब्ध राम विषयक विपुल साहित्य का ही नहीं, वरन् तिब्बती, बर्मी, सिंघल, इंडोनेशियाई, मलय, थाई आदि एशियाई भाषाओं के समस्त राम साहित्य की सामग्री का भी अत्यंत वैज्ञानिक रीति से उपयोग हुआ है। तुलसीदास उन्हें उतने ही प्रिय थे, जितने अपनी मातृभाषा फ्लेमिश के महाकवि गजैले या अंग्रेज़ी के महाकवि शेक्यपियर। वे प्राय: कहा करते थे- “हिंदी में सब कुछ कहा जा सकता है।” इस बात की पुष्टि करने के लिए उन्होंने सबसे पहले दर्शन, धर्मशास्त्र आदि विषयों की परिभाषिक शब्दावली का एक लघुकोश ‘ए टैक्नीकल इंगलिश हिंदी  ग्लौसरी’ के नाम से प्रकाशित किया। इसके बाद ‘अंग्रेज़ी-हिंदी कोश’ 1967 में तैयार किया।

फ़ादर कामिल बुल्के का जन्म 1 सितम्बर, 1909 को बेल्जियम के पश्चिमी फ्लैंडर्स स्टेट के रम्सकपैले नामक गाँव में हुआ। उनके पास सिविल इंजीनियरिंग में बी.एस.सी डिग्री थी, जो उन्होंने लोवैन विश्वविद्यालय से प्राप्त की। 1934 में उन्होंने भारत का संक्षिप्त दौरा किया और कुछ समय दार्जीलिंग में रुके। उन्होंने गुमला अब झारखंड में पांच वर्षों तक गणित का अध्यापन किया। यहीं पर उनके मन में हिंदी भाषा सीखने की ललक पैदा हो गई, जिसके लिए वह बाद में प्रसिद्ध हुए। उन्होंने लिखा है- मैं जब 1935 में भारत आया तो अचंभित और दु:खी हुआ। मैंने महसूस किया कि यहाँ पर बहुत से पढ़े-लिखे लोग भी अपनी सांस्कृतिक परंपराओं के प्रति जागरूक नहीं हैं। यह भी देखा कि लोग अंग्रेज़ी बोलकर गर्व का अनुभव करते हैं। उन्होंने निश्चय किया कि आम लोगों की इस भाषा में महारत हासिल करुंगा। अंततः फादर कामिल बुल्के से बाबा कामिल बुल्के कहलाए जाने लगे।

फ़ादर कामिल बुल्के ने पंडित बदरीदत्त शास्त्री से हिंदी और संस्कृत की शिक्षा प्राप्त की और 1940 में ‘विशारद’ की परीक्षा ‘हिंदी  साहित्य सम्मेलन’, प्रयाग से उत्तीर्ण की। उन्होंने 1942-1944 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से संस्कृत में मास्टर्स डिग्री हासिल की। कामिल बुल्के ने 1945-1949 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में शोध किया, उनका शोध विषय था- ‘रामकथा का विकास’। 1949 में ही वह ‘सेंट जेवियर्स कॉलेज’, राँची में हिंदी  और संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष नियुक्त किए गए। कामिल बुल्के सन 1950 में ‘बिहार राष्ट्रभाषा परिषद’ की कार्यकारिणी के सदस्य चुने गए। वह सन 1972 से 1977 तक भारत सरकार की ‘केन्द्रीय हिंदी समिति’ के सदस्य रहे। कामिल बुल्के लंबे समय तक रांची के सेंट जेवियर्स कॉलेज में संस्कृत तथा हिंदी के विभागाध्यक्ष रहे, लेकिन बाद में बहरेपन के कारण कॉलेज में पढ़ाने से अधिक उनकी रुचि गहन अध्ययन और स्वाध्याय में होती चली गई। बुल्के का अपने समय के हिंदी भाषा के सभी चोटी के विद्वानों से संपर्क था। डॉ. धर्मवीर भारती, डॉ. जगदीश गुप्त, डॉ. रामस्वरूप, डॉ. रघुवंश, महादेवी वर्मा आदि से उनका विचार-विमर्श और संवाद होता रहता था। डॉ. धीरेन्द्र वर्मा को अपना प्रेरणा स्रोत मानते हुए वे अपनी आत्मकथा ‘एक ईसाई की आस्था, हिंदी-प्रेम और तुलसी-भक्ति 2’ में लिखते हैं- “1945 में डॉ. धीरेन्द्र वर्मा की प्रेरणा से मैंने एम.ए. के बाद इलाहाबाद से डॉ. माता प्रसाद के निरीक्षण में शोध कार्य किया। इलाहाबाद के प्रवास को वे अपने जीवन का ‘द्वितीय बसंत’ कहते थे। महादेवी वर्मा को वे ‘दीदी’ और इलाहाबाद के लोगों को वे ‘मायके वाले’ कहते थे।

बुल्के के प्रस्तुत शोध की विशेषता थी कि यह मूलतः हिंदी में प्रस्तुत पहला शोध प्रबंध है। फ़ादर बुल्के जिस समय इलाहाबाद में शोध कर रहे थे, उस समय सभी विषयों में शोध प्रबंध केवल अंग्रेज़ी भाषा में ही प्रस्तुत किए जाते थे। फ़ादर बुल्के ने आग्रह किया कि उन्हें हिंदी में शोध प्रबंध प्रस्तुत करने की अनुमति दी जाए। इसके लिए अंततः शोध संबंधी नियमावली में परिवर्तन किया गया। पदमभूषण विजेता एवं मधुशाला के रचियता श्री हरिवंशराय बच्चन बाबा कामिल बुल्के का कितना सम्मान करते थे, उनकी इस कविता से साफ-साफ झकलता है –

 फ़ादर बुल्के तुम्हें प्रणाम!

जन्मे और पले योरुप में

पर तुमको प्रिय भारत धाम

फ़ादर बुल्के तुम्हें प्रणाम!

रही मातृभाषा योरुप की

बोली हिंदी  लगी ललाम

फ़ादर बुल्के तुम्हें प्रणाम!

ईसाई संस्कार लिए भी

पूज्य हुए तुमको श्रीराम

फ़ादर बुल्के तुम्हें प्रणाम!

तुलसी होते तुम्हें पगतरी

के हित देते अपना चाम

फ़ादर बुल्के तुम्हें प्रणाम!

सदा सहज श्रद्धा से लेगा

मेरा देश तुम्हारा नाम

फ़ादर बुल्के तुम्हें प्रणाम!

डरा रहे हैं आर्थिक गिरावट के आंकड़े

-ललित गर्ग-
कोरोना महामारी के कारण न केवल भारत बल्कि दुनिया की अर्थव्यवस्थाएं चरमरा गयी है।   भारत में लॉकडाउन के बाद अर्थव्यवस्था की स्थिति न केवल बिगड़ी है, बल्कि रसातल में चली गयी है। हालही में जारी मौजूदा वित्त वर्ष की पहली तिमाही के जीडीपी आंकड़ों ने किसी खुशफहमी के लिए गुंजाइश नहीं छोड़ी है। सबको पता था कि आंकड़े गिरावट वाले होंगे लेकिन गिरावट 23.9 फीसदी की हो जाएगी, यह शायद ही किसी ने सोचा होगा। निश्चित रूप से सरकारी आंकडे एवं विश्व की प्रमुख रेटिंग एजेंसियों के आंकड़े गंभीर हैं, चिन्ताजनक है एवं डराने वाले हैं। लेकिन जीडीपी में गिरावट का गवाह बनने वाली हमारी कोई इकलौती अर्थव्यवस्था नहीं हैं। कहीं कम और कहीं ज्यादा, लेकिन लगभग सारी दुनिया के देश विकास दर में अच्छी-खासी गिरावट का सामना कर रहे हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में खराब आंकड़ों के पीछे सीधे तौर पर यह वजह काम कर रही है कि इस तिमाही के दौरान 68 दिन से भी ज्यादा समय तक देशव्यापी लॉकडाउन लागू रहा, जिसमें तमाम आर्थिक गतिविधियां करीब-करीब ठप हो गई थीं। अकेला कृषि क्षेत्र इससे मुक्त रहा। नतीजा यह कि जहां तमाम सेक्टर गिरावट दिखा रहे हैं वहीं कृषि क्षेत्र में बढ़ोतरी दर्ज की गई है।
चाहे देशी-विदेशी रेटिंग हों या फिर सरकार के हाल के आंकड़े, लब्बोलुआब सबका यही है कि अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना अब आसान नहीं है। आने वाली तिमाहियों में हालात सुधरेंगे, इसके आसार दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहे। रेटिंग एजेंसियों के आकलन के जो पैमाने होते हैं, उनमें जीडीपी का आंकड़ा काफी महत्व रखता है। इसके अलावा शेयर बाजार में विदेशी निवेशकों की भूमिका बड़ा कारक होता है। हालांकि इस वक्त दुनिया के ज्यादातर देश भयानक मंदी का सामना कर रहे हैं। लेकिन भारत की अर्थव्यवस्था तो पिछले दो साल से मुश्किलों से जूझ रही है। ऐसे में वैश्विक रेटिंग एजेंसियों को भारतीय अर्थव्यवस्था में जल्दी सुधार की उम्मीदें लग नहीं रही। भारत में जीडीपी में अभी जो चैबीस फीसद की गिरावट आई है वह संगठित क्षेत्र के आंकड़े आने के बाद और ज्यादा हो सकती है। असंगठित क्षेत्र ही भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है लेकिन दुर्भाग्य यह है कि आज मंदी की मार सबसे ज्यादा यही क्षेत्र झेल रहा है। छोटे व्यापारियों का व्यापार ठप्प होने, नौकरी चले जाने, कमाई बंद होने के कारण आम व्यक्ति का आर्थिक संतुलन बिगड़ गया है, रोजमर्रा के खर्च के लिए प्रॉविडेंट फंड और बचत योजनाओं से पैसा निकालने वालों की संख्या तेजी से बढ़ी है। सोने का भाव रेकॉर्ड तोड़ ऊंचाइयों पर चले जाना वित्तीय असुरक्षा एवं आर्थिक असंतुलन को दर्शाता है। इन आर्थिक असंतुलन एवं असुरक्षा की स्थितियों से उबारने केे लिये नरेन्द्र मोदी सरकार व्यापक प्रयत्न कर रही है, नयी-नयी घोषणाएं एवं आर्थिक नीतियां लागू कर रही है, जिनसे अंधेरों के बीच उजालों की संभावनाएं दिखना भी जटिल होता जा रहा है।
आने वाले वक्त में आर्थिक वृद्धि के आंकड़ों में सुधार को लेकर रेटिंग एजेंसियों में भले असहमति हो, लेकिन इस बात को लेकर सभी एकमत हैं कि हालात से निपटने के लिए सरकार के पास कोई जादूई चिराग नहीं हैं। भारत में जब पूर्णबंदी लागू की गई थी, तब अनुमान यह था कि जीडीपी में गिरावट अठारह से बीस फीसद रहेगी। लेकिन चैबीस फीसद गिरावट का मतलब यह है कि इन तीन चार महीनों में सब कुछ ठप हो गया। इससे कंपनियों की आय में भारी गिरावट आई और करोड़ों लोगों का रोजगार चला गया। यही वह सबसे जटिल एवं भयावह स्थिति है, जिसके समाधान के लिए सरकार को अपने फैसलों का अपेक्षित असर देखने को मिल नहीं रहा। लेकिन रेटिंग एजेंसियों को उम्मीद की जो किरण दिख रही है, उसके लिए अभी लम्बा इंतजार करना पड़ेगा।
सवाल है कि अकेले कृषि क्षेत्र की बढ़ोतरी अर्थव्यवस्था को कितना सहारा दे पाएगी। इसी से जुड़ा दूसरा सवाल यह है कि इस भीषण गिरावट से उबरने की क्या सूरत हो सकती है। इन दोनों सवालों का जवाब खोजने के सूत्र हमें रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास के उन पांच कारकों में दिखाई देते हैं, जो आने वाले समय में आर्थिक उजाला बन सकते हैं। जिनमेें है कृषि, इन्फ्रास्ट्रक्चर, वैकल्पिक ऊर्जा, इन्फॉर्मेशन एंड कम्यूनिकेशन टेक्नॉलजी।  स्टार्टअप्स को उन्होंने ऐसे स्पॉट्स के रूप में चिह्नित किया जो मौजूदा आर्थिक चुनौतियों एवं खतरों के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था को डूबने से बचाने की सामथ्र्य रखते हैं। जिनसे हमारी आर्थिक रफ्तार एवं आकांक्षा की उड़ान को तीव्र गति दी जा सकेगी। उनके द्वारा कहीं गयी बातों की उपयोगिता और उनके द्वारा चिह्नित क्षेत्रों में मौजूद संभावनाओं को भला कौन खारिज कर सकता है, लेकिन असल बात बड़ी चुनौतियों से निपटने एवं कृषि एवं ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था को पहचानने की है, जिसके बगैर बड़ी से बड़ी संभावना भी अभी के माहौल में खुद को साकार नहीं कर पाएगी।
अर्थ का कोमल बिरवा कोरोना के अनियंत्रित प्रकोप के साए में कुम्हला न जाये, इसके लिये इन संभावनाओं को तलाशते हुए कृषि क्षेत्र में व्यापक सुधार की आवश्यकता है, लेकिन इसके साथ ग्राम आधारित अर्थव्यवस्था को भी बल देने की जरूरत है। आरबीआई की प्रमुख प्राथमिकता देश की बैंकिंग व्यवस्था को बचाने की होनी चाहिए, क्योंकि यहां कोई बड़ा संकट शुरू हुआ तो किसी संभावना का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। ऐसे में धूर्त, चालाक, धोखेबाज और अक्षम कारोबारियों के विपरीत बहुत सारे वास्तविक उद्यमी भी धंधा बिल्कुल न चल पाने के कारण कर्ज वापसी को लेकर हाथ खड़े करने को मजबूर हो सकते हैं। इसके संकेत कई तरफ से मिल रहे हैं। इन स्थितियों पर नियंत्रण भी जरूरी है।
अर्थव्यवस्था के जानकारों के अनुसार भारतीय अर्थ व्यवस्था को स्वस्थ करने के लिये जरूरी है कि हम अपने बैंकों और गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थाओं को पटरी पर लाने के सकारात्मक प्रयत्न करें। पिछले कई सालों से बड़े कर्जों के डूबने की स्थितियों ने हमारी बैंकिंग प्रणाली को तबाह कर दिया हैं। कुछ बड़े कारोबारी बैंकों से भारी-भरकम कर्ज लेकर विदेश भाग गये हैं, तो कुछ दिवालिया घोषित हो चुके हैं या इसके करीब पहुंच रहे हैं। सख्ती एवं तमाम सरकारी प्रयासों के बावजूद कर्जे की वसूली सपना ही बनी हुई है, जो अर्थ व्यवस्था को पटरी पर लाने की एक बड़ी बाधा है। सरकारी बैंकों या बीमा कंपनियों में लगा धन एकाधिकारी, व्यावसायिक घरानों की खिदमत और बढ़ोतरी के लिए इस्तेमाल होना भले ही आर्थिक विकास की सुनहरी तस्वीर प्रस्तुत करता हो, लेकिन लोकतांत्रिक मूल्यों की दृष्टि से आर्थिक तनाव, हिंसा एवं असंतुलन का बड़ा कारण है। जिससे सामाजिक चेतना या न्याय भावना आहत होती है। इस बड़ी विसंगति एवं विडम्बना को दूर करने के लिये नरेन्द्र मोदी की आर्थिक नीतियों में छोटे व्यापारियों, कृषि एवं ग्रामीण उद्योगों को ऋण देने एवं स्टार्टअप्स को प्रोत्साहन देने के उपक्रम हो रहे हैं। लेकिन बैंकों के आर्थिक भ्रष्टाचार को नियंत्रित किये बिना मोदी की आर्थिक नीतियों को भी गति नहीं दी जा सकेगी। लोकतांत्रिक तत्वों से परिपूर्ण आर्थिक निर्णयों की खोज भी कम मुश्किल काम नहीं है।
कोरोना महामारी एवं उसके बढ़ते प्रकोप के कारण अर्थव्यवस्था हिल गई है, आर्थिक जीवन ठहर सा गया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 20 लाख करोड़ की योजनाओं की घोषणा के साथ राष्ट्र को संबोधित किया ताकि बाजार जीवन्त हो उठे, उद्योग ऊर्जावान हो जाये, ट्रेड बढ़ जाये, कृषि में नयी संभावनाएं जागे, ग्रामीण आर्थिक योजनाओं को बल मिले और भारत की अर्थव्यवस्था पटरी पर आ जाये। लेकिन दूसरी ओर कोरोना ने पूरे समाज को निठल्ला भी बना दिया है। आम नागरिकों और सम्पन्न तबके के बीच की खाई गहरी हो गई है, गरीब की गरीबी बढ़ी है तो अमीर अपनी अमीरी को कायम रखने में सफल रहा है, ज्यादा मार मध्यम वर्ग की हुई है। कोरोना ने निर्धन को केवल आँसू दिये हैं और धनवान को धन देने के बावजूद जीवन के लुत्फ उठाने वंचित किया है। इन विकट स्थितियों के बीच संतुलित आर्थिक विकास की तीव्र अपेक्षा है। मोदी की आर्थिक नीतियों एवं प्रक्रियाओं का निरंतर जारी रहना बदलाव के संघर्ष को दिन-प्रतिदिन सरल बनाये, व्यावहारिक बनाये, यह आत्म निर्भर भारत की प्राथमिक अपेक्षा है। जरूरत यह भी है कि मजदूरों-कर्मचारियों के काम और उनके वेतन की गारंटी की जाए और उनमें यह भरोसा कायम किया जाए कि उनकी नौकरी आगे भी बची रहेगी। ज्यादातर दफ्तरों-कारखानों-व्यापारिक गतिविधियों को बंद होने से रोका जा सका तो बाजार का संकुचन ज्यादा नहीं खिंचेगा और भारत लंबी मंदी का शिकार होने से बच जाएगा। जाहिर है, देश के सामने आर्थिक संकट बहुत बड़ा है, लेकिन एक अच्छी बात भी है कि सुरंग के दूसरे छोर से रोशनी की किरणें दिखनी बंद नहीं हुई हैं, विश्व की रेटिंग एजेन्सियों तक वह रोशनी पहुंचेगी और उनके आकलन भी बदलेंगे।

ग्लोबल टाइम्स, चीन और भारत

डॉ. मयंक चतुर्वेदी

चीन और भारत का सीमा विवाद कोई नया नहीं है। 1962 में चीन-भारत के बीच हुए युद्ध में जिस तरह से चीन ने भारतीय जमीन पर कब्‍जा जमाया था, उसे लगता है कि वह इससे आगे होकर 21वीं सदी के उभरते और वैश्‍विक हुए भारत की जमीन भी अपने कब्‍जे में कर लेगा । वस्‍तुत: यही वजह है कि एक तरफ रुस में भारत और चीन के विदेश मंत्रियों की मुलाकात हुई और वे सीमा पर शांतिवार्ता की चर्चा कर रहे थे, ठीक उसी समय में चीन का सरकारी अखबार ग्लोबल टाइम्स धमकी दे रहा था कि अगर युद्ध हुआ तो भारत हार जाएगा।

विरोधाभास तो देखिए, रूस के मॉस्को में चल रही विदेश मंत्रियों की बैठक में चीन सीमा पर तनाव घटाने को लेकर सहमत दिखाई देता है, चीन के विदेश मंत्री वांग यी यह कहते हैं कि दो पड़ोसी देश होने के नाते सीमा पर चीन और भारत में कुछ मुद्दों पर असहमति है लेकिन उन असहमतियों को सही परिपेक्ष्य में देखा जाना चाहिए । फिर वे भारत-चीन के बीच पांच सूत्रीय बिंदुओं पर बनी सहमति का जिक्र करते हैं, जिसमें कहा गया कि आगे आपसी मतभेदों को विवाद नहीं बनने दिया जाएगा, दोनों देशों की सेनाएं विवाद वाले क्षेत्रों से पीछे हटेंगी, मौजूदा संधियों और प्रोटोकॉल्स को दोनों देश मानेंगे और ऐसा कोई कदम नहीं उठाएंगे जिससे तनाव बढ़े, लेकिन दूसरी तरफ चीन की सरकार अपने घर में लोगों के बीच तथा अपने मुख्‍य पत्र ग्लोबल टाइम्स से वैश्‍विक संदेश दे रही है कि भारत सावधान रहे, चीन उसे छोड़ेगा नहीं। दुनिया की कोई ताकत उसे चीन से नहीं बचा पाएगी । वस्‍तुत: चीन के सरकारी मीडिया के इस बयान से एक बार फिर शांति का नाटक कर रहे चीन की मंशा ही सभी के सामने आई है ।

इतना ही नहीं, ग्लोबल टाइम्स के एडिटर-इन-चीफ हू शिजिन लिखता है, “1962 के युद्ध से पहले भारत चीन के क्षेत्र में अतिक्रमण करने और पीएलए को चुनौती देने से नहीं डरता था और अंतत: भारत को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी, मौजूदा हालात 1962 की लड़ाई के बेहद करीब हैं ।…पीएलए पहले गोली नहीं चलाती, लेकिन अगर भारतीय सेना पीएलए पर पहली गोली चलाती है, तो इसका परिणाम मौके पर भारतीय सेना का सफाया होगा । यदि भारतीय सैनिकों ने संघर्ष को बढ़ाने की हिम्मत की, तो और अधिक भारतीय सैनिकों का सफाया हो जाएगा। भारतीय सेना ने हाल ही में शारीरिक संघर्ष में अपने 20 सैनिकों को खो दिया है, उनके पास पीएलए का मुकाबला करने का कोई मैच नहीं है। ” वास्‍तव में आज यह सोचनेवाली बात है कि वह दुनिया से कितना बड़ा जूठ बोल रहा है।

आश्‍चर्य है, चीन की सत्तारूढ़ चीनी कम्युनिस्ट पार्टी और वामपंथी सरकार किसे धोखा दे रही है, अपने आप को या अपनी जनता को ? जबकि आज के समय में दुनिया जानती है भारत की ताकत क्‍या है। यही कारण है कि समय-समय पर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही नहीं, बल्‍कि मॉस्को में भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने यह साफ कर दिया कि भारत एलएसी (लाइन ऑफ एक्चुल कंट्रोल) पर जारी तनाव को और नहीं बढ़ाना चाहता, लेकिन ध्‍यान रहे चीन के प्रति भारत की नीति में किसी तरह का बदलाव नहीं हुआ है, सीमाओं का अतिक्रमण भारत किसी भी सूरत में स्‍वीकार्य नहीं करेगा ।

वस्‍तुत: चीन यह भूल जाता है कि भारत अब 1962 वाला भारत नहीं है, दुर्गम बर्फीले इलाकों में जज्बे के बूते थ्री-नाट-थ्री राइफलों और बर्फीली पहाड़ी इलाके के अनुरूप पहनने के लिए जूते तक नहीं होने की स्‍थ‍िति में भी जंग लड़ने वाली भारतीय फौज आज अत्याधुनिक मिसाइलों से लैस है। वर्तमान भारत परमाणु हथियार सम्पन्न है। भारत की सेना अपनी सीमाओं तक कुछ ही मिनटों में आसानी से पहुंचती है। दुनिया की सर्वोत्तम सेनाओं के साथ अब तक के हुए सभी युद्धाभियासों में भारतीय सेना कई बार यह बता चुकी है कि वह दुश्‍मन को तोड़ने, उसे झुकाने में पूरी तरह से सक्षम है।

इतिहास का सच यही है कि वर्ष 1962 में चीन ने हिन्दी-चीनी भाई-भाई का नारा दिया और पीठ में छूरा घोंपा। धोखे से भारत पर आक्रमण किया था, फिर भी कई चौकियां ऐसी रहीं, जिन पर भारतीय फौज के साहस को याद कर चीन आज भी थर्रा उठता है। वर्तमान में चीन की सीमा पर तैनात सैनिक माइनस तापमान में तेज ठंड के बीच अपने कदम ठिठकते नहीं देते। यहां भारतीय सेना चौबीसों घंटे अत्याधुनिक हथियारों लैस होकर पैट्रोलिंग कर रही है। चीन को यह देखकर भारत की ताकत का अंदाजा लगा लेना चाहिए कि कैसे कुछ ही दिन पहले पैंगोंग सो झील के दक्षिणी किनारे पर भारतीय क्षेत्र को कब्जा करने की चीनी सेना की नापाक कोशिश को इंडियन आर्मी ने न सिर्फ नाकाम किया बल्कि चीनी सैनिकों को खदेड़कर उन्हें उल्टे पांव भागने को मजबूर कर दिया था। इसके आगे आज भारत फिंगर फोर तक पहुंच गया है, भारतीय सेना ने पैंगोंग-त्सो लेक के दक्षिण में जिन जिन चोटियों (गुरंग हिल, मगर हिल, मुखपरी, रेचिन ला) पर अपना अधिकार जमाया है वहां अपने कैंप के चारों तरफ कटीली तार भी लगा दी है। कहना होगा कि भारत की सेना सभी बड़ी चोटिंयों पर अपनी पकड़ मजबूत बना चुकी है।

वस्‍तुत: वर्तमान मोदी के नेतृत्‍व में शक्‍तिशाली भारत का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि अभी हाल ही में आया अमेरिका के ”हार्वर्ड कैनेडी स्कूल” का अध्ययन यह बताता है कि यदि भारत-चीन की बीच युद्ध होता है तो कौन कहां एक दूसरे पर भारी पड़ेगा। इस शोध के निष्‍कर्ष को देखें तो भारत के उत्तरी, मध्य और पूर्वी कमांड्स को मिलाकर तकरीबन सवा दो लाख सैनिक सीमा पर तैनात हैं, जबकि चीन के तिब्ब्त, शिन-जियांग और पूर्वी कमांड्स में कुल 2 लाख से 2 लाख 34 हजार के बीच सैनिक तैनात हैं । निष्‍कर्ष, दोनों ही देशों ने बराबर की संख्‍या में अपने सैनिकों की तैनाती यहां कर रखी है।

वायुसेना के स्‍तर पर चीन की पश्‍चिमी कमांड्स के पास 157 लड़ाकू विमान हैं, जबकि चीन का सामना करने के लिए भारत ने अपने 270 लड़ाकू विमान तैनात किए हैं । आज भारत के पास राफेल जैसे अत्‍याधुनिक विमान हैं । एक नजर देखाजाए तो फाइटर जेट के मामले में अकेला राफेल ही चीन के सबसे उन्नत किस्म जेएफ-20 से कहीं ज्यादा विकसित है। पश्चिमी देशों के मुकाबले चीन के लड़ाकू विमान कितने कमजोर हैं, यह बात तो पाकिस्तान जैसा उसका मित्र देश भी कई बार स्‍वीकार कर चुका है । निष्‍कर्ष, आज इस पूरे क्षेत्र में भारत की ताकत चीन से कहीं अधिक है और वायुसेना के मामले में चीन से आगे भारत दिखाई देता है ।

इसी तरह दोनों देशों की परमाणु शक्ति और मिसाइलों का अध्‍ययन देखें तो शोध का निष्‍कर्ष कहता है कि चीन के पास 104 मिसाइलें हैं, जो भारत में कहीं भी हमला करने में सक्षम हैं। दूसरी ओर भारत के पास 10 अग्नि-3 मिसाइल हैं, जो चीन में कहीं भी हमला कर सकती हैं । 8 अग्नि-2 मिसाइल हैं, जो सेंट्रल चीन को टारगेट कर सकती हैं । इनके अलावा 8 अग्नि-2 मिसाइल ऐसी हैं, जो तिब्बत में चीन को निशाना बनाने के लिए हर दम तैयार रहती हैं। सही मायनों में देखा जाए तो चीन के सामने भारत ने अपनी सैन्‍य तैयारी पुख्‍ता तरीके से कर रखी है, इसलिए चीन से सामने भारत की ताकत कहीं से भी कम नजर नहीं आती ।

वस्‍तुत: चीन को यह याद रखना चाहिए कि 1962 के युद्ध में भारत ने अपनी वायुसेना का इस्तेमाल नहीं किया था, नहीं तो युद्ध का नतीजा कुछ और होता । आज चीन का सरकारी तंत्र एवं कम्‍युनिष्‍ट पार्टी यह भूल जा रही हैं कि ये 1962 का भारत नहीं, यह 2020 का भारत है। वस्‍तु: जो चीन वियतनाम को नहीं हरा सका है, वह आज के भारत से क्या जंग लड़ पाएगा? इसलिए चीन का भोपू मीडिया भारत को हल्‍के में लेने की गलती ना करे। यदि युद्ध हुआ (वैसे तो इसकी संभावना कम ही है फिर भी ऐसा संभव भी हुआ) तो भारत आज के दौर में चीन को वह सबक सिखाने में सक्षम है, जिसके बारे में चीन की कम्‍युनिष्‍ट राष्‍ट्रपति जिनपिंग की सरकार सपने में भी नहीं सोच सकती है।

कंगना के मन की पीड़ा

तुम मुझे यूं भुला ना पाओगे,
हां,तुम मुझे भुला ना पाओगे।
पंगा लिया है तुमने मुझसे
उसका खामियाजा तो उठाओगे।

यह देश है सभी वासियों का
अकेला नहीं हैं ये तुम्हारा।
महाराष्ट्र है उसका एक हिस्सा
क्यो बनाते हो अलग किनारा

सारा देश मेरे साथ खड़ा है,
तुम्हारे साथ कौन खड़ा है ?
चन्द गुंडों को साथ लिया है
ये काम न कोई बडा है।।

गिराया है तुमने मेरा ऑफिस,
दाऊद का गिराकर दिखाओ।
मर्द समझूंगी मै तुमको अब
अगर ऐसा करके दिखाओ।।

आते हैं सभी देशवासी यहां
महाराष्ट्र में रोजी रोटी कमाने,
सभी ने आगे बढ़ाया है इसको
क्यो बनते हो तुम इतने स्याने

महाराष्ट्र में महा जुड़ा है
इसे महान ही रहने दो।
क्यो नाम करते हो किरकिरा
इसको महाराष्ट्र बना रहने दो।

रखते हो बदले की भावना,
यह राजनीति ठीक नहीं है।
बदले की आग में जलते हो
ये तो बिल्कुल ठीक नहीं है।।

कोरोना से न लडकर तुम
कंगना नारी से लड़ रहे हो।
ये महाराष्ट्र के हित में नहीं है
जो तुम ये सब कर रहे हो।।

की है खराब इमेज बाल ठाकरे की
वे मज़े हुए राजनीतिज्ञ थे।
सभी हिन्दुओं को साथ लेकर
क्या तुम इससे अनभिज्ञ थे ।

आर के रस्तोगी

है हिंदी यूं हीन ।।

बोल-तोल बदले सभी, बदली सबकी चाल ।
परभाषा से देश का, हाल हुआ बेहाल ।।

जल में रहकर ज्यों सदा, प्यासी रहती मीन ।
होकर भाषा राज की, है हिंदी यूं हीन ।।

अपनी भाषा साधना, गूढ ज्ञान का सार ।
खुद की भाषा से बने, निराकार, साकार ।।

हो जाते हैं हल सभी, यक्ष प्रश्न तब मीत ।
निज भाषा से जब जुड़े, जागे अन्तस प्रीत ।।

अपनी भाषा से करें, अपने यूं आघात ।
हिंदी के उत्थान की, इंग्लिश में हो बात ।।

हिंदी माँ का रूप है, ममता की पहचान ।
हिंदी ने पैदा किये, तुलसी ओ” रसखान ।।

मन से चाहे हम अगर, भारत का उत्थान ।
परभाषा को त्यागकर, बांटे हिंदी ज्ञान ।।

भाषा के बिन देश का, होता कब उत्थान ।
बात पते की जो कही, समझे वही सुजान ।।

जिनकी भाषा है नहीं, उनका रुके विकास ।
परभाषा से होत है, हाथों-हाथ विनाश ।।

नई शिक्षा नीति के चक्रव्यूह में हिन्दी

प्रो. अमरनाथ
चकित हूँ यह देखकर कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020 में संघ की राजभाषा या राष्ट्रभाषा का कहीं कोई जिक्र तक नहीं है. पिछली सरकारों द्वारा हिन्दी की लगातार की जा रही उपेक्षा के बावजूद 2011 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार आज भी देश की 53 करोड़ आबादी हिन्दी भाषी है. दूसरी ओर अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या दो लाख साठ हजार, यानी मात्र .02 प्रतिशत है. यानी, देश के 99.08 प्रतिशत भारतीय भाषाएं बोलने वालों पर .02 प्रतिशत लोग शासन कर रहे हैं और उनमें भी लगभग आधे लोग सिर्फ एक भाषा बोलते हैं जिसे हमारा संविधान राजभाषा कहता है. राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अध्याय 4.11 के अनुसार “जहाँ तक संभव हो, कम से कम ग्रेड-5 तक लेकिन बेहतर यह होगा कि यह ग्रेड-8 और उससे आगे तक भी हो, शिक्षा का माध्यम, घर की भाषा/मातृभाषा/स्थानीय भाषा/क्षेत्रीय भाषा होगी. इसके बाद घर/स्थानीय भाषा को जहां भी संभव हो भाषा के रूप में पढ़ाया जाता रहेगा. सार्वजनिक और निजी दोनो तरह के स्कूल इसकी अनुपालना करेंगे.”
यहाँ चिन्ताजनक दो बातें हैं. पहली, ग्रेड-5 या अधिक से अधिक 8 तक शिक्षा के माध्यम के रूप में घर की भाषा या मातृभाषा या स्थानीय भाषा या क्षेत्रीय भाषा लागू करने का प्रस्ताव. अब यदि इसी आलोक में हम हिन्दी क्षेत्र के किसी हिस्से को ले लें. मसलन् यदि हमें बिहार के छपरा जिले के किसी गांव में स्थित स्कूल की शिक्षा के माध्यम- भाषा का चुनाव करना हो तो हमारे सामने गंभीर धर्मसंकट खड़ा हो जाएगा. किसी निर्णय पर पहुंचना हमारे लिए बहुत कठिन होगा क्योंकि वहाँ के घर की भाषा या मातृभाषा या स्थानीय भाषा या क्षेत्रीय भाषा निर्विवाद रूप से भोजपुरी कही जाएगी. दूसरी ओर इस पूरे क्षेत्र में अबतक प्राथमिक शिक्षा का माध्यम हिन्दी रही है इसलिए बड़ी संख्या में लोग हिन्दी के पक्ष में भी खड़े होंगे. यही स्थिति समूचे हिन्दी भाषी क्षेत्र की होगी. इसका कारण यह है कि पूरा हिन्दी क्षेत्र, जिसे हमारे संविधान ने हिन्दी भाषी क्षेत्र के रूप में रेखांकित करते हुए ‘क’ क्षेणी में रखा है, वहाँ कि स्थिति द्विभाषिकता की है. इस क्षेत्र के सभी लोग अपने घरों में भोजपुरी, मगही, अवधी, ब्रजी, छत्तीसगढीं, हरियाणवी, बुंदेली, राजस्थानी आदि जनपदीय भाषाएं बोलते हैं किन्तु लिखने का सारा औपचारिक काम हिन्दी में करते हैं. इस अर्थ में समस्त हिन्दी भाषी क्षेत्र की स्थिति अन्य भाषा- भाषी क्षेत्रों से भिन्न है. हिन्दी क्षेत्र की भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, राजस्थानी, अवधी, मगही आदि अनेक बोलियां पहले से ही हिन्दी से अलग होकर संविधान की आठवी अनुसूची में शामिल होने की मांग कर रही हैं. जहाँ राष्ट्र की एकता और अखंडता की रक्षा के लिए, राष्ट्र की राजभाषा हिन्दी को विखंडन से बचाने की दिशा में कुछ प्रभावी कदम उठाने की उम्मीद थी, वहाँ राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने हिन्दी के संबंध में किसी तरह का स्पष्ट निर्देश न देकर, हिन्दी परिवार को विखंडन की आग में झोंकने का काम किया है.
दूसरा मुद्दा त्रिभाषा फार्मूले को लेकर है. हमारे संविधान द्वारा प्रस्तावित त्रिभाषा फार्मूला एक ऐसा प्रावधान है जिसके साथ हिन्दी क्षेत्र ने हमेशा से बेईमानी की है. संविधान का संकेत था कि हिन्दी क्षेत्र के लोग हिन्दी और अंग्रेजी के साथ दक्षिण की कोई एक भाषा अपनाएंगे. किन्तु हिन्दी क्षेत्र के लोगों ने हिन्दी और अंग्रेजी के साथ उर्दू या संस्कृत को अपना लिया और खुद दक्षिण वालों से हिन्दी पढ़ने की अपेक्षा करते रहे. यह गलत था. नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में त्रिभाषा फार्मूले की बात तो बार- बार की गई है किन्तु यहाँ भी त्रिभाषा से क्या तात्पर्य है- इस संबंध में कुछ भी स्पष्ट नहीं है. यदि गुजरात के लोग गुजराती और अंग्रेजी के साथ हिन्दी न पढ़कर संस्कृत, मराठी, उर्दू या जर्मन पढ़ें तो भी उसे राष्ट्रीय शिक्षा नीति के त्रिभाषा फार्मूले का उलंघन नही माना जाएगा. राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अध्याय 4.13 में स्पष्ट कहा गया है कि, “तीन भाषा के इस फार्मूले में काफी लचीलापन रखा जाएगा और किसी भी राज्य पर कोई भाषा थोपी नहीं जाएगी.” उल्लेखनीय है कि थोपी जाने का आरोप हमेशा हिन्दी को लेकर ही लगता रहा है. इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति में ग्रेड-5 या बेहतर होगा कि ग्रेड-8 तक तो मातृभाषा या घर की भाषा या स्थानीय भाषा या क्षेत्रीय भाषा के माध्यम से यथासंभव शिक्षा देने प्रस्ताव है किन्तु, उसके बाद अघोषित रूप से अंग्रेजी माध्यम अपनाने की ओर संकेत है. प्रश्न यह है कि जब अभिभावक यह देख रहा है कि ग्रेड-8 के बाद अंग्रेजी का माध्यम अपनाना ही है, तो पहले से ही अंग्रेजी माध्यम क्यों न अपना लिया जाय ? अभिभावक यह भी देख रहे हैं कि उनके बच्चे चाहे जितनी भी भारतीय भाषाएं सीख लें किन्तु यदि एक विदेशी भाषा अंग्रेजी नहीं जानते हैं तो उन्हें कोई नौकरी नहीं मिलने वाली है. यूपीएससी से लेकर चपरासी तक की नौकरियों में भी अंग्रेजी का दबदबा है. सुप्रीम कोर्ट से लेकर 25 में से 21 हाई कोर्टों में एक भी भारतीय भाषा का प्रयोग नहीं होता. ऐसी दशा में अपने बच्चों को  अंग्रेजी न पढ़ाने की मूर्खता वे कैसे कर सकते है ? 
इतना ही नहीं, सरकारी विद्यालयों में तो एक सीमा तक सरकार के सुझाव पर अमल किया भी जा सकता है किन्तु निजी क्षेत्र के विद्यालयों में भला कैसे लागू किया जा सकता है ? जहां शिक्षा का मुनाफे के लिए सिर्फ व्यापार होता है. उनका तो धंधा ही अंग्रेजी के बल पर फल फूल रहा है. किन्तु हमें याद रखनी चाहिए कि मासूम बच्चों से उनकी मातृभाषा छीन लेना भीषण क्रूरता है जिसके लिए इतिहास हमें कभी माफ नहीं करेगा.  राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कहा गया है कि, “प्राचीन और सनातन भारतीय ज्ञान और विचार की समृद्ध परंपरा के आलोक में यह नीति तैयार की गई है.” इसमें तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला आदि प्राचीन संस्थानों के साथ ही चरक, शूश्रुत, आर्यभट्ट, वाराहमिहिर, भास्कराचार्य, ब्रह्मगुप्त, चाणक्य, पाणिनि, पतंजलि, नागार्जुन, गौतम, शंकरदेव, मैत्रेयी, गार्गी, थिरुवल्लुवर आदि का भी गुणगान किया गया है. इसी तरह अनुसंधान के क्षेत्र का जिक्र करते हुए भारत, मेसोपोटामिया, मिस्र, चीन, ग्रीस से लेकर आधुनिक सभ्यताओं, जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका, जर्मनी, इजराइल, दक्षिण कोरिया और जापान की प्रगति का उल्लेख है किन्तु इन सबको अपना आदर्श और लक्ष्य तो बनाया गया है, पर इस बात की ओर ध्यान नहीं दिया गया है कि ये सारी उपल्ब्धियाँ चाहे भारतीय हों, या पाश्चात्य, अपनी भाषाओं में पढ़कर अर्जित की गईं हैं. व्यक्ति चाहे जितनी भी भाषाएं सीख ले, किन्तु सोचता है अपनी भाषा में. दूसरे की भाषा में कभी कोई मौलिक चिन्तन नहीं हो सकता. आज भी दुनिया के सभी विकसित देश अपनी भाषा में ही पढ़ते हैं. दूसरे की भाषा में पढ़कर सिर्फ नकलची पैदा होते हैं. हमारे बच्चे दूसरे की भाषा में पढ़ते हैं, उसे सोचने के लिए अपनी भाषा में ट्रांसलेट करते हैं और लिखने के लिए फिर उन्हें दूसरे की भाषा में ट्रांसलेट करना पड़ता है. इस तरह हमारे बच्चों के जीवन का बड़ा हिस्सा दूसरे की भाषा सीखने में चला जाता है.हमारे संविधान की प्रस्तावना में ही समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की बात कही गई है. व्यक्ति की प्रतिष्ठा तथा अवसर की समानता उसका बुनियादी लक्ष्य है. राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी इसका उल्लेख है और कहा गया है कि, “इस कार्य में ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रह रहे समुदायों, वंचित और अल्प-प्रतिनिधित्व वाले समूहों पर विषेष ध्यान दिए जाने की जरूरत होगी.” ( पृष्ठ-5) और घोषित किया गया है कि, “गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुँच को प्रत्येक बच्चे का मौलिक अधिकार माना जाना चाहिए.”   
दरअसल, यह सपना तो भारत के हर नेक नागरिक का होना चाहिए. हमारे देश में पुलिस- थाने और कोर्ट तो सबके लिए समान रूप से खुले हैं किन्तु शिक्षण संस्थान क्यों नहीं ? दरअसल पूरी शिक्षा सबके लिए समान और मुफ्त होनी चाहिए. तभी सुदूर गावों में दबी हुई प्रतिभाओं को भी खिलने का और मुख्य धारा में शामिल होने का अवसर मिल सकेगा. क्यों हमारे देश में भरपूर मात्रा में केन्द्रीय विद्यालयों जैसे विद्यालय नहीं बन सकते ? कुछ वर्ष पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक आदेश दिया था कि राष्ट्रपति से लेकर चपरासी तक, जो भी सरकारी खजाने से वेतन पाते हैं उनके बच्चे अनिवार्य रूप से सरकारी विद्यालयों में ही पढ़ेंगे. यदि हाई कोर्ट के उक्त आदेश पर अमल किया गया होता तो शिक्षा की दशा बदलते देर नहीं लगती. हमारे पड़ोस के देश भूटान में भी निजी क्षेत्र के विद्यालय हैं किन्तु उनमें वे ही बच्चे प्रवेश लेते है जिनका प्रवेश सरकारी विद्यालयों में नही हो पाता. इसका कारण सिर्फ यही है कि वहाँ राज परिवार के बच्चे भी सरकारी स्कूलों में ही पढ़ते हैं. इसी तरह चीन की यात्रा करके लौटने वाले लोग बताते हैं कि चीन के गांवो में सबसे सुन्दर भवन उस गाँव का विद्यालय होता है.
 राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अध्याय 22.5 व 22.6 में भारत में लुप्त हो रही भाषाओं पर चिन्ता व्यक्त की गई है और उन्हें बचाने के लिए ठोस कदम उठाने पर बल दिया गया है. यह स्वागत योग्य कदम है, किन्तु गीता का कथन “जातस्य हि ध्रुवो मृत्युम्.” सब पर समान रूप से लागू होता है. किसी भी सांसारिक वस्तु या व्यक्ति को मरने से नहीं रोका जा सकता. इस संबंध में महात्मा गांधी का विचार स्मरणीय है. गांधी जी ने कहा है, “जो वृत्ति इतनी वर्जनशील और संकीर्ण हो कि हर बोली को चिरस्थायी बनाना और विकसित करना चाहती हो, वह राष्ट्र-विरोधी और विश्व-विरोधी है. मेरी विनम्र सम्मति में तमाम अविकसित और अलिखित बोलियों का बलिदान करके उन्हें हिन्दुस्तानी ( भाषा) की एक बड़ी धारा में मिला देनी चाहिए. यह आत्मोत्सर्ग के लिए की गई कुर्बानी होगी, आत्महत्या नहीं.” ( यंग इंडिया, 27 अगस्त 1925) 
 ऐसी दशा में जिस हिन्दी ने दुर्दिन में भी हमारे देश की एकता और अखंडता को बनाए रखा, जिसके माध्यम से हमने आजादी की लड़ाई लड़ी, जिसे हमारे देश के रहनुमाओं ने ‘राजभाषा’ का दर्जा और ‘राष्ट्रभाषा’ का सम्मान दिया, उसे बचाने के लिए, उसकी समृद्धि के लिए इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति में जरूर प्रावधान होने चाहिए थे. राष्ट्रभाषा किसी देश की जबान होती है. खेद है कि इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति में ‘राजभाषा’ या ‘राष्ट्रभाषा’ शब्द का उल्लेख तक नहीं है.

आखिर किसकी ताकत पर सवार कंगना?

शिवसेना को उसी की भाषा में पहली बार किसी फिल्मी सितारे ने कड़ी चुनौती दी है। शिवसेना सन्न है। क्योंकि उसकी ताकतवर छवि को कंगना की तरफ से जबरदस्त झटका मिला है। लेकिन कंगना न केवल उद्धव ठाकरे, बल्कि शरद पवार और यहां तक कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को भी निशाने पर रखे हुए हैं। इसी से सवाल उठ रहे हैं कि आखिर कंगना किसके बूते पर हर किसी से भिड़ने पर उतारू है।

-निरंजन परिहार

शिवसेना और भले ही कुछ भी सोच सकती थी, लेकिन यह तो उसने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि एक अकेली कंगना रणौत उसे इतनी बड़ी चुनौती दे देगी। वह शिवसेना से लोहा लेने को मैदान में खड़ी है।क्या मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे और क्या उनकी शिवसेना, क्या कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और क्या शरद पवार, हर किसी को वह अपने निशाने पर रखे हुए हैं। सीधी लड़ाई देखें, तो एक तरफ कंगना रणौत अपने दम पर अकेली मोर्चा संभाले हुए है, तो दूसरी तरफ मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे, मुंबई पुलिस, महानगरपालिका, महाराष्ट्र सरकार, और शिवसेना है। वैसे, महानगरपालिका द्वारा कंगना के दफ्तर में अवैध निर्माण बताकर वहां तोड़फोड़ करने से माना जा रहा है कि शिवसेना, उद्धव ठाकरे और उनकी सरकार के छवि पूरे देश भर में खराब हुई है। लेकिन मुंबई के लोग जानते हैं कि शिवसेना की ऐसे मामलों से जो वास्तविक छवि है, वह उल्टे मजबूत हुई है। शिवसेना को विवादों और चर्चित विषयों में बने रहने का शौक है और कंगना से ताजा विवाद उसकी छवि को मजबूत ही कर रहा है। लेकिन शिवसेना के उसके राजनीतिक इतिहास में पहली बार किसी फिल्मी सितारे से सीधी चुनौती मिल रही है, और इसमें भी खास बात यह है कि कंगना शिवसेना पर उसी के आक्रामक लहजे में हमले कर रही है। वह अब वह उद्धव ठाकरे सहित शरद पवार और सोनिया गाधी पर भी हमले कर रही है। इस बीच केंद्र सरकार में मंत्री रामदास आठवले का कंगना के घर जाकर उनसे मिले हैं। ऐसे में, सबसे बड़ा सवाल यही है कि कंगना के पीछे आखिर है कौन ?

यह अपने आप में बहुत आश्चर्यजनक सत्य है कि शिवसेना के 55 साल के राजनीतिक इतिहास में पहली बार ठाकरे परिवार और शिवसेना को मुंबई में फिल्म कलाकार से सीधी चुनौती मिल रही है। वरना, अब तक तो सारे कलाकार ठाकरे परिवार और उनकी शिवसेना के सामने नतमस्तक ही देखे गए हैं। कोई संबंधों की खातिर, कोई सम्मान की खातिर, तो कोई मन के किसी कोने में बैठे डर के मारे शिवसेना के सामने चूं तक नहीं कर पाता था।  लेकिन कंगना के रूप में पहली बार शिवसेना को सीधे चुनौती मिलते देखना राजनीति के जानकारों को भी कुछ खास लग रहा है। यह संभभवतया इसलिए है कि महाराष्ट्र की राजनीतिक फिजां बदली हुई है। हर बार बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव लड़नेवाली शिवसेना ने कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ सरकार बनाकर अब पहले जैसी अपनी राजनीतिक विचार धारा को लगभग छोड़ सा दिया है, ऐसा माना जा रहा है।  महाराष्ट्र में चाहे कोई माने या ना माने,  और शिवसेना की महाराष्ट्रीयन समाज के बीच सामाजिक छवि को भले ही कोई आघात लगा हो या नहीं, लेकिन देश भर में एक राजनीतिक दल के रूप में उसकी छवि को एक बहुत बड़ा झटका तो जरूर लगा है। क्योंकि कंगना ने शिवसेना पर उसी के अंदाज में जवाबी हमले भी किए हैं। कंगना रणौत की मां आशा रणौत की इस बात को इसीलिए देश भर में समर्थन मिल रहा है जिसमें उन्होंने यह कहा है कि ये वो बाल ठाकरे की शिवसेना नहीं है, जिसे हम बचपन से सुनते आ रहे है। शिवसेना ने मेरी बेटी के साथ अन्याय किया हैं और पूरे भारत वर्ष की जनता इसे बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करेगी।  

कंगना अपने इस पूरे मामले को राष्ट्रीय स्तर पर भी ले पहुंची है। इसीलिए शिवसेना और शरद पवार के बाद कंगना ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को भी इस मामले में लपेटा है।  शिवसेना के साथ अपने विवाद पर कंगना ने सोनिया गांधी की चुप्पी पर सवाल उठाए। कंगना ने सोनिया गांधी से सवाल किया है कि एक महिला होने के नाते क्या जिस तरह आपकी महाराष्ट्र की सरकार ने मेरे साथ बर्ताव किया, उससे आपको दुख नहीं हुआ। कंगना ने बहुत चालाकी से सोनिया गांधी को उनके विदेशी मूल का होना याद दिलाते हुए कहा है कि आप पश्चिम में पली बढ़ी हैं, और भारत में रहती हैं। इसलिए आपको महिलाओं के संघर्ष की जानकारी होगी। लेकिन आपकी खुद की सरकार महिलाओं का उत्पीड़न कर रही है और कानून-व्यवस्था का मजाक उड़ा रही है, तो इतिहास आपकी चुप्पी का भी न्याय करेगा। कंगना के इस ट्वीट की गहरी भाषा की शब्दावली भी बहुत कुछ कहती है।

हालांकि कोई नहीं मान रहा, फिर भी बीजेपी के नेता और पूर्व मुख्मंत्री देवेंद्र फडणवीस सफाई की मुद्रा में कह रहे हैं कि कंगना का मुद्दा बीजेपी ने नहीं उठाया। बीजेपी से इस मुद्दे का कोई संबंध नहीं है। उल्टे शिवसेना ने कंगना पर बयान देकर उसे बड़ा किया है। दाऊद के घर को तोड़ने के कोर्ट के आदेश हैं, वह तो वे तोड़ नहीं सकते, लेकिन कंगना का निर्माण को तोड़ रहे हैं। बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष चंद्रकांत दादा पाटिल ने भी कहा कि शिवसेना और सरकार एक अकेली महिला के पीछे जिस तरह से पड़े हैं, वह ठीक नहीं है। राजनीति के जानकार कहते हैं कि फडणवीस और पाटिल के बयानों का मतलब साफ है कि बीजेपी इस पूरे मामले को बहुत सोच समझकर हेंडल कर रही है।  पाटिल, फडणवीस और कंगना के सोनिया गांधी पर बयान को देखकर राजनीति के जानकार बताते हैं कि उद्धव ठाकरे और उनकी शिवसेना के सामने दिखने में भले ही कंगना रणौत अकेली हो, लेकिन कंगना को जो राजनीतिक समर्थन हासिल है, वह तो उन्हें मिली वाई प्लस श्रेणी की सुरक्षा में साफ दिख रहा है।  फिर भी हर कोई जानना चाहता है कि कंगना के कंधे पर आखिर हाथ किसका है ? वैसे कहते हैं कि सिंध्दातों की लडाई केवल सिध्दांतों से लडी जाती है और बंदूक के जवाब में बंदूक ही चलाई जाती है। लेकिन अपने साथ मिलकर सरकार न बनाने का बदला किसी अबला को अकेला मोर्चे पर खड़ा करके भी लिया जा सकता है, यह सब समझ ही नहीं आए, हमारा हिंदुस्तान इतना भी मतिमंद भी नहीं है।  

मातृभाषा सीखने से भविष्य की पीढ़ियों को अपने सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने के साथ संबंध बनाने में मदद मिलेगी

 सत्यवान सौरभ

केंद्रीय मंत्रिमंडल ने हाल ही में स्कूल और उच्च शिक्षा दोनों में “बड़े पैमाने पर परिवर्तनकारी सुधार” लाने के लिए नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 को मंजूरी दी। देश के लिए नई शिक्षा नीति लगभग 34 वर्षों के बाद आई  है। यह मौजूदा शिक्षा प्रणाली के लिए कुछ नया लेकर आई है। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति  2020  में कक्षा 5 तक की शिक्षा के माध्यम के रूप में घरेलू भाषा, मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा बनाने का निर्णय है। विशेषज्ञों का मानना है कि यह राष्ट्र निर्माण में दीर्घकालिक प्रभाव पैदा कर सकता है। मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा में स्कूली शिक्षा प्रदान करना मानव संसाधन विकास की चल रही प्रक्रिया में भारी बदलाव ला सकता है। 
विश्लेषकों का मानना है कि क्षेत्रीय भाषाएं मानवीय मूल्यों और भावनाओं को बढ़ाने में मदद करती हैं और मातृभाषा सीखने से भविष्य की पीढ़ियों को अपने सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने के साथ संबंध बनाने में मदद मिलेगी। एक बच्चे की मातृभाषा में प्रारंभिक स्कूलिंग, जैसा कि नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में सिफारिश की गई है, सीखने में सुधार कर सकती है, छात्र की भागीदारी को बढ़ा सकती है और दुनिया भर के बोझ को कम कर सकती है. हालांकि, इसके लिए नई पुस्तकों, नए शिक्षक प्रशिक्षण और अधिक धन की आवश्यकता होगी,  इसके अलावा, भारत में भाषाओं और बोलियों की बहुलता को देखते हुए, यह उस क्षेत्र में एक निर्देश के माध्यम के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है जिस पर अन्य भाषाओँ में काम करना मुश्किल है।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) कहती है कि ग्रेड V तक स्कूलों में शिक्षा का माध्यम जहां भी संभव हो, आठवीं कक्षा तक, मातृभाषा या स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा होनी चाहिए। “यह सुनिश्चित करने के लिए सभी प्रयास जल्दी किए जाएंगे ताकि  बच्चे द्वारा बोली जाने वाली भाषा और शिक्षण के माध्यम के बीच कोई अंतराल न रहे। प्रारंभिक स्कूल के वर्षों में बच्चे को सबसे अधिक आरामदायक भाषा का उपयोग करना इसकी स्कूली उपस्थिति और सीखने के परिणामों में सुधार करता है।  दुनिया भर  के अध्ययनों से यह भी पता चलता है कि यह कक्षा की भागीदारी को बढ़ाता है, ड्रॉपआउट और ग्रेड पुनरावृत्ति की संख्या को कम करता है।

यह उन्हें सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान से परिचित कराने का अवसर भी प्रदान करता है
ऐसा होने के बावजूद  निम्न और मध्यम आय वाले देशों के सभी बच्चों को उनके द्वारा बोली जाने वाली भाषा में पढ़ाया नहीं जाता है। आज के अभिभावक अपने बच्चों को-इंग्लिश-मीडियम ’स्कूलों में भेजना पसंद करते हैं, भले ही वे शिक्षा की गुणवत्ता की परवाह किए बिना यह मानते हों कि अंग्रेजी भाषा की महारत बाद के जीवन में सफलता सुनिश्चित करती है। उदाहरण के लिए, 2017-18 में, भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में निजी स्कूलों में दाखिला लेने वाले और शहरी क्षेत्रों में 19.3% लोगों में से लगभग 14% ने एक निजी स्कूल चुना।  
क्योंकि वहां अंग्रेजी शिक्षा का माध्यम था। विशेषज्ञों का तर्क है कि एक अंग्रेजी शिक्षा हमेशा सबसे अच्छी नहीं होती है। कोई भी उस भाषा में सबसे अच्छा पढ़ना और लिखना सीख सकता है जिसे आप पहले दिन से जानते हैं। अच्छी शिक्षा तब होती है जब बच्चों में उच्च आत्म-सम्मान होता है, उन्हें कक्षा में अच्छी तरह से समायोजित किया जाता है जो एक सकारात्मक और भयमुक्त वातावरण प्रदान करता है। यदि बच्चे को ऐसी भाषा में पढ़ाया जाता है जो उन्हें समझ में नहीं आता है, तो इसमें से कुछ भी नहीं होगा।

2019 में, ग्रामीण भारत में, ग्रेड I में नामांकित केवल 16.2% बच्चे ही ग्रेड I-स्तर का पाठ पढ़ सकते हैं, जबकि केवल 39.5% ही एक-अंकीय संख्याओं को जोड़ सकते हैं। 2011 की जनगणना ने 270 मातृभाषाओं को सूचीबद्ध किया; इनमें से, 2017 के अध्ययन के अनुसार, 47 भाषाओं को भारतीय कक्षाओं में शिक्षा के माध्यम के रूप में इस्तेमाल किया गया था। लेकिन हम कम सीखने के परिणामों की समस्या को हल करने के लिए मातृभाषा में पढ़ाना कोई एकमात्र विकल्प भी नहीं मान सकते है। बहुभाषी शिक्षा के सफल होने के लिए शैक्षणिक परिवर्तन और प्रशिक्षित शिक्षकों का होना चाहिए जो कक्षा में कई भाषाओं से निपट सकते हैं और बच्चे की मातृभाषा में पढ़ा सकते हैं। 
प्राथमिक विद्यालय में शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा का उपयोग करने का विचार भारतीय शिक्षा प्रणाली के लिए नया नहीं है। संविधान का अनुच्छेद 350A कहता है कि प्रत्येक राज्य और स्थानीय प्राधिकरण को “भाषाई अल्पसंख्यक समूहों से संबंधित बच्चों को शिक्षा के प्राथमिक चरण में मातृभाषा में शिक्षा के लिए पर्याप्त सुविधाएं” प्रदान करने का प्रयास करना चाहिए।

शिक्षा और राष्ट्रीय विकास (1964-66) पर कोठारी आयोग की रिपोर्ट ने सुझाव दिया कि आदिवासी क्षेत्रों में, स्कूल के पहले दो वर्षों के लिए, निर्देश और पुस्तकों का माध्यम स्थानीय जनजातीय भाषा में होना चाहिए। क्षेत्रीय भाषा को अलग से पढ़ाया जाना चाहिए और तीसरे वर्ष तक शिक्षा का माध्यम बनना चाहिए। शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 ने यह भी कहा कि जहां तक संभव हो, स्कूल में शिक्षा का माध्यम बच्चे की मातृभाषा होना चाहिए। भारत में कई भाषाएं हैं, 2011 की जनगणना में 270 मातृभाषाओं की पहचान की गई और कक्षाओं में एक से अधिक बोली जाने वाली भाषा वाले बच्चे हो सकते हैं।
 सभी भाषाओं के लिए शिक्षा का माध्यम बनना संभव नहीं हो सकता है और देश के बड़े हिस्सों में इसे लागू करना संभव नहीं हो सकता है। द्विभाषी कार्यक्रमों में प्रारंभिक निवेश उच्चतर हो सकता है क्योंकि नई शिक्षण सामग्री को विकसित करने की अतिरिक्त लागत के लिए विशेष रूप से उन भाषाओं के लिए जिन्हें मानकीकृत नहीं किया गया है या जिनके पास स्क्रिप्ट नहीं है। इसके लिए बहुभाषी कक्षा में पढ़ाने के लिए प्रशिक्षित शिक्षकों और इन भाषाओं में धाराप्रवाह नए शिक्षकों की आवश्यकता होगी। चूंकि शिक्षा एक समवर्ती विषय है, इसलिए अधिकांश राज्यों के अपने स्कूल बोर्ड हैं। इसलिए, राज्य सरकारों को इस फैसले के वास्तविक कार्यान्वयन के लिए आगे आना होगा

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का उद्देश्य हर छात्र के शैक्षिक और सह-शैक्षिक डोमेन में सर्वांगीण विकास करना है और छात्रों, शिक्षकों और अभिभावकों को शिक्षित करने पर जोर दिया गया है ताकि वे राष्ट्र की सेवा करने की अपनी क्षमता का पोषण कर सकें। लगभग तीन-चार वर्षों के लिए देश भर के कुछ स्कूलों में नए मॉडल की कोशिश करना, कार्यान्वयन में आने वाली समस्याओं की पहचान करना और परिवर्तन की लागत और फिर इन समस्याओं को हल करने वाली कार्य योजना तैयार करना है। इस से आसान और सुलभ तरीके प्रदान करके विभिन्न ज्ञान धाराओं के बीच पदानुक्रम और बाधाओं को दूर करने में बेहद फायदेमंद साबित होगी।

मातृभाषा में पढाई  वैचारिक समझ के आधार पर एक घरेलू  प्रणाली के साथ सीखने और परीक्षा-आधारित शिक्षा की रट विधि को बदलने में मदद करेगा।  जिसका उद्देश्य छात्र के अपनी भाषा में ज्ञानात्मक कौशल को सुधारना है, ताकि वह अन्य भाषाओँ के बोझ तले न दब सके और चाव से अपनी प्राथमिक शिक्षा को पूर्ण कर सके।  इस हिंदी दिवस पर हमें इस बात को जोर-शोर से प्रचारित करना चाहिए ताकि अभिभावक अपने बच्चों पर बेवजह का दबाव बनाकर उन्हें मात्रा इंग्लिश मीडियम में भेजने का धक्का न करें। हमें इस धारणा को तोड़ना होगा जिसमें फंसकर आज के अभिभावक अपने बच्चों को-इंग्लिश-मीडियम ’स्कूलों में भेजना पसंद करते हैं, भले ही वे शिक्षा की गुणवत्ता की परवाह किए बिना यह मानते हों कि अंग्रेजी भाषा की महारत बाद के जीवन में सफलता सुनिश्चित करती है।

ईश्वर, जीव व प्रकृति न होते तो संसार का अस्तित्व न होता

मनमोहन कुमार आर्य

                संसार में तीन अनादि सत्तायें हैं। यह सत्तायें नित्य अर्थात् सदा रहने वाली हैं। इनका अभाव कभी नहीं होता। जो पदार्थ अनादि होता है वह अनन्त अर्थात् नाशरहित अमर भी होता है। इस कारण से इन तीनों पदार्थों का कभी नाश अभाव नहीं होगा। हमारा आधुनिक विज्ञान वेदों से कोसों दूर है। वह वेदों के सत्य तथ्यों पर ध्यान नहीं देता और सृष्टि रचना संचालन विषयक अनेक प्रकार की कल्पायें करता है। वेद सत्य सनातन ग्रन्थ हैं जिनकी उत्पत्ति वा आविर्भाव परमात्मा की प्रेरणा से ऋषियों की आत्माओं में सृष्टि के आरम्भ में हुआ था। यदि वेद होते तो अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न मनुष्य ज्ञानवान होते और शेष सृष्टि में भी मनुष्यों को किसी प्रकार का ज्ञान होता। परमात्मा के मुख्य कर्तव्यों में सृष्टि की उत्पत्ति, पालन व संहार सहित वेदों का ज्ञान देना तथा जीवों के उनके अनेक पूर्वजन्मों के कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल देना होता है। यह तीनों काम मनुष्य सम्पादित नहीं कर सकते। मनुष्य के पास जो शरीर, इन्द्रियां व अन्तःकरण आदि अवयव हैं, वह भी परमात्मा ने प्रकृति के द्वारा बनाकर प्रदान कर रखे हैं। हर क्रिया व कार्य का कारण व प्रेरणा हुआ करती है जो कि चेतन सत्ता द्वारा ही होती है। यह सृष्टि भी परमात्मा द्वारा प्रकृति में ज्ञानमय प्रेरणा व क्रिया के फलस्वरूप ही अस्तित्व में आई है। ज्ञानरूप सत्ता ही सभी बुद्धियुक्त कार्यों वा रचनाओं का निमित्त कारण हुआ करती है। इस प्रकार ज्ञानयुक्त नियमों से बने यह विशाल संसार और मनुष्य आदि प्राणियों के शरीर भी एक परमात्मा द्वारा रचे गये कार्य हंै। वेद, दर्शन तथा उपनिषद सहित सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों को पढ़कर ईश्वर, जीव व प्रकृति विषयक सभी भ्रान्तियां दूर हो जाती हैं। मनुष्य निभ्र्रान्त हो जाता है। योग साधना व वैदिक साहित्य के स्वाध्याय से मनुष्य सत्य को प्राप्त होता है और विवेक उत्पन्न होकर वह संसार के सभी रहस्यों को भी जानने में सफल होता है जो विज्ञान से जानने भी सम्भव नहीं होते।

                विज्ञान ईश्वर को नहीं मानता परन्तु वेद ईश्वर के सत्यस्वरूप का निरुपण करते हैं। वेद ईश्वर को अनादि, नित्य नाश रहित सत्ता मानते हैं। वेदों का अध्ययन कर ऋषि दयानन्द ने ईश्वर के सत्यस्वरूप का प्रकाश कर आर्यसमाज के दूसरे नियम में बताया है कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। जीवात्मा भी चेतन तत्व है जो अनादि, नित्य, अविनाशी, अल्पज्ञ, एकदेशी, ससीम, जन्म मरण धर्मा, कर्मों का कर्ता भोक्ता, मुनष्य जन्म में धर्माधर्म के कार्य करने में स्वतन्त्र परन्तु फल भोगने में ईश्वर के अधीन, वेदाध्ययन कर अविद्या दूर करने में समर्थ, योगाभ्यास कर समाधि प्राप्त कर ईश्वर का साक्षात्कार करने में समर्थ होने सहित ईश्वरोपासना, संगतिकरण तथा दान आदि कर जीवन को उच्च अवस्था प्राप्त कराने में समर्थ सत्ता है। जीवात्मा का जन्म पूर्वजन्मों के कर्म भोगने, मनुष्य योनि में नये कर्म करने तथा अपवर्ग वा मोक्ष के लिये प्रयत्न करने के लिये होता है। इसका विवेचन हमें दर्शन ग्रन्थों में पढ़ने को मिलता है जो पूर्णतया तर्क व युक्ति सहित ज्ञान है एवं विज्ञान सम्मत भी हंै। ईश्वर व जीव चेतन सत्तायें हैं जबकि तीसरी सत्ता प्रकृति है जो कि जड़ है। यह प्रकृति तीन गुणों सत्व, रज व तम से युक्त होती है। इसी से परमाणु, अणुओं सहित महतत्व, अहंकार, पांच तन्मात्रायें, मन, बुद्धि, चित्त सहित पांच महाभूत बनने हैं। इन सबसे मिलकर ही यह संसार बना है जिसे सर्वज्ञ परमात्मा ने अपने स्वशक्ति से पूर्वकल्पों के समान बनाया है।

                संसार की उत्पत्ति का प्रयोजन ईश्वर की अपनी किसी निजी आवश्यकता की पूर्ति के लिये नहीं है। ईश्वर तो पूर्ण सत्ता है जिसमें किसी पदार्थ, सुख आनन्द की प्राप्ति की न्यूनता अभाव नहीं है। ईश्वर पूर्णानन्द से युक्त स्वस्वरूप में स्थित रहने वाली सत्ता है। परमात्मा हमारी इस सृष्टि को अपनी अनादि प्रजा जीव जो संख्या में अनन्त हैं, उनके भोग अपवर्ग के लिये बनाता है। अनादि काल से अपने स्वभाव से वह सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति प्रलय करता रहा है। यह क्रम अनन्त बार किया जा चुका है और भविष्य में भी सदा चलता रहेगा, कभी रुकेगा नहीं। अपवर्ग वा मोक्ष पर्यन्त जीवात्माओं का अपने कर्मानुसार जन्म-मरण होता रहेगा। मनुष्य उभय योनि तथा अन्य योनियां भोग योनियां होती है। उभय योनि होने के कारण ही मनुष्य योनि को मोक्ष का द्वार कहते हैं। इस रहस्य को वैदिक धर्मी जानते हैं और ईश्वर की उपासना व यज्ञ आदि परोपकारों के कामों को करते हुए मोक्ष के लिये प्रयत्नशील रहते हैं। इस वैदिक धर्म एवं संस्कृति से उत्तम व उपादेय अन्य कोई विचार, मान्यता, सिद्धान्त व मत नहीं है। इसी कारण से सृष्टि के आरम्भ से लगभग 1.96 अरब वर्षों तक, अर्थात् महाभारत युद्ध तक, यही वैदिक धर्म संसार के सभी लोगों का एकमात्र धर्म, मत, संस्कृति व परम्पराओं के ग्रन्थ रहे हैं। आज भी वेद प्रासंगिक हैं और सब मतों व विचारों से आधुनिक व नवीन है। इसी की शरण में आकर जीव वा मनुष्यों को शान्ति प्राप्त होती है। एक विदेशी दार्शनिक का कथन है कि उपनिषदों का अध्ययन कर उसे जीवन में शान्ति व सुखों की प्राप्ति हुई है और उसे विश्वास है कि उसके मरने के बाद भी उसकी आत्मा को शान्ति प्राप्त होगी। ऐसे महत्वपूर्ण वैदिक धर्म को सभी मनुष्यों का अध्ययन करना चाहिये और इसके लिये प्रथम ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का अध्ययन करना चाहिये जो वेद व वैदिक धर्म विषयक सभी बातों को तर्क व युक्तिपूर्वक प्रस्तुत करता तथा वेदों के सत्यस्वरूप व शिक्षाओं से परिचित कराता है। सत्यार्थप्रकाश सहित वेदांग, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति तथा वेदों का अध्ययन करने पर ही मनुष्य जीवन का कल्याण हो सकता है अन्यथा स्वाध्याय से जिस ज्ञान व लक्ष्यों की प्राप्ति की प्रेरणा होती है, उसके न होने से मनुष्य जीवन सफल होने की सम्भावना नहीं होती।

                ईश्वर ने सृष्टि को इस लिये बनाया है कि वह जीवों को उनके पूर्वकल्प जन्मों में किये गये पाप पुण्य कर्मों का, जिन्हें धर्म अधर्म भी कहते हैं, फल प्रदान कर सके। परमात्मा को जीवों को मोक्ष के आनन्द की प्राप्ति का अवसर भी देना था। यदि जीव होते तो यह सृष्टि बनती। यदि प्रकृति भी होती तो भी इस सृष्टि का निर्माण हो सकता। किसी भी उपयोगी भौतिक पदार्थ का निर्माण भौतिक जड़ उपादान कारण से ही होता जिसे चेतन ज्ञानवान सत्ता परमात्मा वा मनुष्य किया करते हैं। मनुष्य केवल पौरुषेय रचनायें ही कर सकते हैं जबकि परमात्मा अपौरुषेय रचनायें कार्य, जिसे पुरुष वा मनुष्य नहीं कर सकते, करता है। अतः किसी भी रचना में रचना करने वाली सत्ता, जिसके लिये रचना की जाती है वह तथा जिससे रचना हो सकती है वह पदार्थ, इन तीन पदार्थों वा सत्ताओं का होना आवश्यक होता। यह तीनों पदार्थ इस सृष्टि में अनादिकाल से विद्यमान है। यह हैं ईश्वर, जीव तथा प्रकृति। ईश्वर ने इस सृष्टि को प्रकृति नामक उपादान कारण से जीवों को भोग व अपवर्ग प्रदान करने के लिये रचा है। इस प्रकार से यह तीनों पदार्थ सृष्टि की रचना व संचालन में आवश्यक व अपरिहार्य हैं। हमें इस रहस्य को जानना है तथा इसे जानकर अपवर्ग की प्राप्ति करने के लिये ईश्वर की उपासना व यज्ञ आदि श्रेष्ठ कर्मों को करना है। इसी लिये परमात्मा ने इस सृष्टि को बनाया है व इसे आदर्श रूप में चला रहा है। ओ३म् शम्।

हिन्दी के बिना देश की तरक्की अधूरी

– ललित गर्ग-

प्रत्येक 14 सितबंर को हिंदी दिवस मनाया जाता है। देश की आजादी के पश्चात 14 सितंबर, 1949 को भारतीय संविधान सभा ने देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी को अंग्रेजी के साथ राष्ट्र की आधिकारिक भाषा के तौर पर स्वीकार किया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने 1953 से सम्पूर्ण भारत में 14 सितम्बर को प्रतिवर्ष हिन्दी-दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की। हिंदी दिवस मनाने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई और आज इस दिवस की अधिक प्रासंगिकता क्यों उभर रही है? क्योंकि हमारे देश में दिन-प्रतिदिन हिंदी की उपेक्षा होती जा रही है, हिन्दी पर अंग्रेजी का प्रभाव बढ़ता जा रहा है और यदि ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन दूर नही है जब हिन्दी हमारे अपने ही देश में विलुप्तता के कगार पर पहुंच जायेगी। जबकि हिन्दी राष्ट्रीयता की प्रतीक भाषा है, उसको राजभाषा बनाने एवं राष्ट्रीयता के प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठापित करना हिन्दी दिवस की प्राथमिकता होना ही चाहिए।
हिंदी को दबाने की नहीं, ऊपर उठाने की आवश्यकता है। हमने जिस त्वरता से हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की दिशा में पहल की, उसी त्वरा से राजनैतिक कारणों से हिन्दी की उपेक्षा भी है, यही कारण है कि आज भी हिन्दी भाषा को वह स्थान प्राप्त नहीं है, जो होना चाहिए। राष्ट्र भाषा सम्पूर्ण देश में सांस्कृतिक और भावात्मक एकता स्थापित करने का प्रमुख साधन है। भारत का परिपक्व लोकतंत्र, प्राचीन सभ्यता, समृद्ध संस्कृति तथा अनूठा संविधान विश्व भर में एक उच्च स्थान रखता है, उसी तरह भारत की गरिमा एवं गौरव की प्रतीक राष्ट्र भाषा हिन्दी को हर कीमत पर विकसित करना हमारी प्राथमिकता होनी ही चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के शासन में हिन्दी को राजभाषा एवं राष्ट्रभाषा के रूप में स्कूलों, काॅलेजों, अदालतों, सरकारी कार्यालयों और सचिवालयों में कामकाज एवं लोकव्यवहार की भाषा के रूप में प्रतिष्ठा मिलना चाहिए।
महात्मा गांधी ने अपनी अन्तर्वेदना  प्रकट करते हुए कहा था कि भाषा संबंधी आवश्यक परिवर्तन अर्थात हिन्दी को लागू करने में एक दिन का विलम्ब भी सांस्कृतिक हानि है। मेरा तर्क है कि जिस प्रकार हमने अंग्रेज लुटेरों के राजनैतिक शासन को सफलतापूर्वक समाप्त कर दिया, उसी प्रकार सांस्कृतिक लुटेरे रूपी अंग्रेजी को भी तत्काल निर्वासित करें।’ लगभग सात दशक के आजाद भारत में भी हमने हिन्दी को उसका गरिमापूर्ण स्थान न दिला सके, यह विडम्बनापूर्ण एवं हमारी राष्ट्रीयता पर एक गंभीर प्रश्नचिन्ह है। गतदिनों उपराष्ट्रपति वैंकय्या नायडू ने हिन्दी के बारे में ऐसी ही बात कही थी, जिसे कहने की हिम्मत महर्षि दयानंद, महात्मा गांधी और डाॅ. राममनोहर लोहिया में ही थी। उन्होंने कहा कि ‘अंग्रेजी एक भयंकर बीमारी है, जिसे अंग्रेज छोड़ गए हैं।’’ आजादी के 70 साल बाद भी सरकारें अपना काम-काज अंग्रेजी में करती हैं, यह देश के लिये दुर्भाग्यपूर्ण एवं विडम्बनापूर्ण स्थिति है। वैंकय्या नायडू का हिन्दी को लेकर जो दर्द एवं संवेदना है, वही स्थिति सरकार से जुडे़ हर व्यक्ति के साथ-साथ जन-जन की होनी चाहिए। हिन्दी के लिये दर्द, संवेदना एवं अपनापन जागना जरूरी है। कोई भी देश बिना अपने राजभाषा के ज्ञान के तरक्की नहीं कर सकता है। लोगांे को समझना होगा की अंग्रेजी बस एक विदेशी भाषा है ना कि तरक्की पर्याय, इसके विपरीत हिंदी हमारी अपनी भाषा है जिसे हम और भी सरलता से समझ सकते हैं। हम अपने इन छोटे-छोटे प्रयासों द्वारा समाज में बड़े परिवर्तन ला सकते हैं, जो आने वाले समय में हिंदी के विकास में अपना महत्वपूर्ण स्थान दे सकता है। राष्ट्रभाषा को प्रतिष्ठापित करने एवं सांस्कृतिक सुरक्षा के लिये अनेक विशिष्ट व्यक्तियों ने व्यापक प्रयत्न किये। सुमित्रानन्दन पंत, महादेवी वर्मा और आगरा के सांसद सेठ गोविन्ददासजी ने अंग्रेजी के विरोध में अपनी पद्मभूषण की उपाधि केन्द्र सरकार को वापिस लौटा दी। वर्तमान में हिन्दी की दयनीय दशा देखकर मन में प्रश्न खड़ा होता है कि कौन महापुरुष हिन्दी को प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न करेगा? हिन्दी राष्ट्रीयता एवं राष्ट्र का प्रतीक है, उसकी उपेक्षा एक ऐसा प्रदूषण है, एक ऐसा अंधेरा है जिससे छांटने के लिये ईमानदार प्रयत्न करने होंगे। क्योंकि हिन्दी ही भारत को सामाजिक-राजनीतिक-भौगोलिक और भाषायिक दृष्टि से जोड़नेवाली भाषा है।
कुछ राजनीतिज्ञ अपना उल्लू सीधा करने के लिये भाषायी विवाद खड़े करते रहे हैं और वर्तमान में भी कर रहे हैं। यह देश के साथ मजाक है। जब तक राष्ट्र के लिये निजी-स्वार्थ को विसर्जित करने की भावना पुष्ट नहीं होगी, राष्ट्रीय एकता, सांस्कृतिक उन्नयन एवं सशक्त भारत का नारा सार्थक नहीं होगा। हिन्दी को सम्मान एवं सुदृढ़ता दिलाने के लिये केन्द्र सरकार के साथ-साथ प्रांतों की सरकारों को संकल्पित होना ही होगा। नरेन्द्र मोदी ने विदेशों में हिन्दी की प्रतिष्ठा के अनेक प्रयास किये हैं, लेकिन उनके शासन में देश में यदि हिन्दी को राजभाषा एवं राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठापित नहीं किया जा सका तो भविष्य में इसकी उपेक्षा के बादल घनघोर ही होंगे, यह एक दिवास्वप्न बनकर रह जायेगा। हाल में कर्नाटक एवं तमिलनाडू में हिन्दी विरोध की स्थितियां उग्र बनी। हिन्दी का हर दृष्टि से इतना महत्व होते हुए भी दक्षिण भारत में इसकी इतनी उपेक्षा क्यों? क्षेत्रीय भाषा के नाम पर हिन्दी की अवमानना एवं उपेक्षा के दृश्य उभरते रहे हैं, लेकिन प्रश्न है कि हिन्दी को इन जटिल स्थितियों में कैसे राष्ट्रीय गौरव प्राप्त होगा। भाषायी संकीर्णता न राष्ट्रीय एकता के हित में है और न ही प्रान्त के हित में। प्रान्तीय भाषा के प्रेम को इतना उभार देना, जिससे राष्ट्रीय भाषा के साथ टकराहट पैदा हो जाये, यह देश के लिये उचित कैसे हो सकता है?
आज हिन्दी भाषा को भारत के जन-जन की भाषा बनाने के लिये उदार दृष्टि से चिन्तन किये जाने की अपेक्षा है। क्योंकि यदि देश की एक सर्वमान्य भाषा होती है तो हर प्रांत के व्यक्ति का दूसरे प्रांत के व्यक्ति के साथ सम्पर्क जुड़ सकता है, विकास के रास्ते खुल सकते हैं। देश की एकता एवं संप्रभु अखण्डता के लिये राष्ट्र में एक भाषा का होना अत्यन्त आवश्यक है। अतीत के विपरीत लोग अब हिंदी विरोधी के इरादों और तमिल-कन्नड़ की सुरक्षा के नाम पर की जा रही राजनीति को समझते हैं। दरअसल बाजार और रोजगार की बड़ी संभावनाओं के बीच हिंदी विरोध की राजनीति को अब उतना महत्व नहीं मिलता, क्योंकि लोग हिंदी की ताकत को समझते हैं। पहले की तरह उन्हें हिंदी विरोध के नाम पर बरगलाया नहीं जा सकता।
राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त ने कहा था – जो भरा नहीं है भावों से, जिसमें बहती रसधार नहीं! वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं!! हिन्दी भाषा का मामला भावुकता का नहीं, ठोस यथार्थ का है, राष्ट्रीयता का है। हिन्दी विश्व की एक प्राचीन, समृद्ध तथा महान भाषा होने के साथ ही हमारी राजभाषा भी है, यह हमारे अस्तित्व एवं अस्मिता की भी प्रतीक है, यह हमारी राष्ट्रीयता एवं संस्कृति की भी प्रतीक है। हिन्दी के महान कवि एवं पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी अपने देश की हिन्दी भाषा, अपने देश की ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की महान संस्कृति में सारी मानव जाति की भलाई को देखते थे। गांधीजी ने राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी की वकालत की थी। वे स्वयं संवाद में हिन्दी को प्राथमिकता देते थे। आजादी के बाद सरकारी काम शीघ्रता से हिन्दी में होने लगे, ऐसा वे चाहते थे। राजनीतिक दलों से अपेक्षा थी कि वे हिन्दी को लेकर ठोस एवं गंभीर कदम उठायेंगे। लेकिन भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति से आक्सीजन लेने वाले दल भी अंग्रेजी में दहाड़ते देखे गये हैं। राजनेता बात हिन्दी की करते हैं, पर उनका दिमाग अंग्रेजीपरस्त है, क्या यह अन्तर्विरोध नहीं है? हिन्दी को वोट मांगने और अंग्रेजी को राज करने की भाषा बनाना हमारी राष्ट्रीयता का अपमान नहीं हैं? कुछ लोगों की संकीर्ण मानसिकता है कि केन्द्र में राजनीतिक सक्रियता के लिये अंग्रेजी जरूरी है। ऐसा सोचते वक्त यह भुला दिया जाता है कि श्री नरेन्द्र मोदी की शानदार एवं सुनामी जीत का माध्यम यही हिन्दी बनी हैं। विश्व में सबसे अधिक 138 करोड़ लोग चीनी भाषी हैं। विश्व में हिन्दी भाषी 120 करोड़ लोग हैं। भारत में इनकी संख्या 100 करोड़ है तथा अन्य देशों में हिन्दी बोलने तथा जानने वाले 20 करोड़ लोग हैं। हिन्दी विश्व में दूसरे नम्बर की भाषा है। ज्यादातर अमेरिका, आस्ट्रेलिया और ब्रिटेन में बोली जाने वाली अंग्रेजी भाषा को लगभग 50 करोड़ लोग बोलते हैं। यह दुनिया में तीसरे नम्बर की बोली जाने वाली भाषा है। हमारी राष्ट्रभाषा दुनिया में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में दूसरे नम्बर पर है, फिर हमें क्यों इसे बोलने एवं उपयोग करने में शर्म महसूस होती है? महात्मा गांधी ने सही कहा था कि राष्ट्र भाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है।’ यह कैसी विडम्बना है कि जिस भाषा को कश्मीर से कन्याकुमारी तक सारे भारत में समझा जाता हो, उसकी घोर उपेक्षा हो रही है, हिन्दी दिवस पर इन त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण स्थिति को नरेन्द्र मोदी सरकार कुछ ठोस संकल्पों एवं अनूठे प्रयोगों से दूर करने के लिये प्रतिबद्ध हो, हिन्दी को मूल्यवान अधिमान दिया जाये। ऐसा होना हमारी सांस्कृतिक परतंत्रता से मुक्ति का एक नया इतिहास होना।