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मेक्समूलर और मैकाले का षडयंत्र बनाम आदिवासी दिवस !

भारत पर अपना औपनिवेशिक प्रभुत्व स्थापित कर लेने के बाद ब्रिटिश हूक्मरानों को यह समझ में आ गया कि इस राष्ट्र की शाश्वतता, इसकी संजीवनी शक्ति इसकी संस्कृति में है और इसकी संस्कृति का संवाहक है यहां का विपुल साहित्य और शिक्षण पद्धति । यह जान लेने के बाद उन्होंनें भारतवासियों की राष्ट्रीय चेतना को नष्ट-भ्रष्ट कर इसे सदा-सदा के लिए अपने साम्राज्य के अधीन उपनिवेश बनाये रखने की अपनी दूरगामी कूट्नीतिक योजना के तहत भारतीय संस्कृति पर हमला करने हेतु सर्वप्रथम भारतीय साहित्य को निशाना बनाया और अंग्रेजी-शिक्षण पद्धति को उसका माध्यम । इसी योजना के तहत ईस्ट इंडिया कम्पनी ने ऋग्वेद को छपवाने के लिए मेक्समूलर को नौ लाख रुपये नगद दिए | इतना ही नहीं तो सैकड़ों वैदिक पंडितों को मासिक वेतन देकर इस कार्य हेतु नियत किया गया | मेक्समूलर ने इसकी भूमिका में लिखा कि इसको लिखने में २५ वर्ष लगे और फिर छपवाने में २० वर्ष | इस प्रकार ४५ वर्ष तक वे केवल एक ही पुस्तक में लगे रहे |

उसके बाद ब्रिटिश राजनीतिज्ञों, प्रशासकों और कूटनीतिज्ञों ने एक सदी (१८४६-१९४७) तक लगातार फ्रेडरिक मैक्समूलर को वेदों के महान विद्वान के रूप में प्रस्तुत किया ! उनकी योजना सफल हुई और उन्नीसवी सदी के सरक ह्रदय हिन्दुओं ने उसे ही सच मान लिया जो कि मेक्समूलर ने कहा और लिखा ! मेक्समूलर ने कहा वेद केवल तीन हजार साल पहले लिखे गए, हमने मान लिया |

अब सवाल यह उठता है कि मैक्समूलर वास्तव में वेदों और हिन्दू धर्म शास्त्रों का प्रशंसक होने के कारण वेदों, उपनिषदों, दर्शनों आदि के उदात्त, प्रेरणादायक और आध्यात्मिक चिंतन को अंग्रेजी माध्यम से विश्वभर में फैलाना चाहता था या वह १८५७ के स्वतंत्रता समर के बाद घबराये अंग्रेजों की योजनानुसार किसी रणनीति पर काम कर रहा था ?

सोचने वाली बात है कि आखिर ईस्ट इंडिया कंपनी ने अंग्रेजी और संस्कृत दोनों ही भाषाओं के ज्ञान में अधकचरे, चौबीस वर्षीय, अनुभवहीन गैर-ब्रिटिश, जर्मन युवक मैक्समूलर को ही वेदभाष्य के लिए क्यों चुना ?

अगर ध्यान से उस समय की घटनाओं को एक सूत्र में पिरोयें तो बहुत कुछ समझ में आ जाएगा | वस्तुतः मेक्समूलर को बढ़ावा देना मैकाले की दीर्घकालिक रणनीति का हिस्सा था | क्योंकि २ फरवरी १८३५ को ब्रिटिश संसद में उसने कहा ही था –

मैंने सारे भारत का भ्रमण किया है और मैंने एक भी व्यक्ति को चोर और भिखारी नहीं पाया है ! मैंने इस देश में इतनी सम्पदा देखी है तथा इतने उच्चनैतिक आदर्श देखें हैं और इतने उच्च योग्यता वाले लोग देखें हैं कि मैं नहीं समझता कि हम कभी इसे जीत पाऐंगे जब तक कि इसके मूल आधार को ही नष्ट न कर दें जो कि इस देश की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक धरोहर है और इसीलिए मैं प्रस्तावित करता हूँ कि हम उसकी प्राचीन और पुरानी शिक्षा पद्धति और उनकी इस संस्कृति को बदल दें क्यों यदि भारतीय यह सोचने लगें कि जो कुछ विदेशी और अंग्रेजी है, वह उनकी अपनी संस्कृति से अच्छा और उत्तम है तो वे अपना स्वाभिमान एवं भारतीय संस्कृति को खो देंगे और वे वैसे ही हो जायेंगे जैसा कि हम चाहते हैं, पूरी तरह एक पराधीन राष्ट्र !”

उसके बाद आई मैकाले की वह शिक्षा नीति, जिससे आत्ममुग्ध हो उसने १२ अक्टूबर १८३६ को, अपने पिता को लिखे एक पत्र में अपने हाथों से अपनी पीठ थपथपाई  –

हमारी शिक्षा पद्धति का हिन्दुओं पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ रहा है ! कोई भी हिन्दू जिसने अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्राप्त कर ली है, वह निष्ठापूर्वक हिन्दू धर्म से जुड़ा हुआ नहीं रहता है ! कुछ एक, औपचारिक रूप में, नाम मात्र के लिए हिन्दू धर्म से जुड़े दिखाई देते हैं, लेकिन अनेक स्वयं को ‘निराकार पूजक’ कहते हैं तथा कुछ ईसाई मत अपना लेते हैं ! यह मेरा पूरा विश्वास है यदि हमारी शिक्षा की योजनाएँ चलती रहीं तो तीस साल बाद बंगाल के सम्भ्रान्त परिवारों में एक भी मूर्तिपूजक नहीं रहेगा और ऐसा किसी प्रकार के प्रचार एवं धर्मान्तरण किए बगैर हो सकेगा ! किसी धार्मिक आजादी में न्यूनतम हस्तक्षेप न करते हुए ऐसा हो सकेगा ! ऐसा स्वाभाविक ज्ञान देने की प्रक्रिया द्वारा हो जाएगा ! मैं हृदय से उस योजना के परिणामों से प्रसन्न हूँ !

एक ईसाई पादरी ने भी लिखा कि प्रत्येक ईसाई मिशनरी यह निश्चित तौर पर जानते हैं कि भारत में मिशन स्कूलों का एक निश्चित उद्‌देश्य क्या है ! वे जानते हैं कि भारत में मिशन स्कूलों का कार्य लड़के और लड़कियों को जीजस क्राइस्ट की ओर ले जाने का है !

इसी निश्चित उद्देश्य के प्रति मैक्समूलर को सचेष्ट करने हेतु दिसम्बर १८५५ में मैकॉले ने उसे मिलने को बुलाया | इस भेंट का सम्पूर्ण वृतांत अपनी माँ को लिखे पत्र में मैक्समूलर ने स्वयं वर्णन किया है –

इस बार मैं लंदन में मैकाले से मिला और उसके साथ मेरी भारत भेजे जाने वाले नौजवानों को क्या सिखाकर भेजा जाए, इस विषय पर लम्बी बातचीत हुई । निश्चित ही उसके विचार एकदम स्पष्ट हैं और वह असाधारण रूप से वाक्‌पटु व्यक्ति है | मैं ऑक्सफोर्ड वापिस लौटा, दुःखी होकर, किन्तु शायद, अधिक समझदार मनुष्य बनकर”

मूलर के जीवनी लेखक नीरद चौधरी का मत है कि ‘इस भेंट के बाद उसने एक बहुरुपिया जैसा खेल खेला जिससे कि ब्रिटिशों के राजनैतिक उद्‌देश्यों की भी पूर्ति होती रहे और भारतीयों को भी शब्द जाल में बहकाए रखा जाये? मैक्समूलर ने हृदय की भावनाओं को १५ दिसम्बर १८६६ को अपनी पत्नी को लिखे पत्र में इस प्रकार व्यक्त किये, जो उसके निधन के बाद, १९०२ में उसकी पत्नी जोर्जिना मैक्समूलर ने उसकी जीवनी में प्रकाशित किये –

मुझे आशा है कि मैं इस काम को पूरा कर दूंगा और यद्यपि मैं उसे देखने के लिए जीवित न रहूँगा तो भी मेरा ऋग्वेद का यह संस्करण और वेद का अनुवाद भारत के भाग्य और लाखों भारतीयों की आत्माओं के विकास पर प्रभाव डालने वाला होगा ! यह वेद उनके धर्म का मूल है और मूल को उन्हें दिखा देना उनको मूल सहित उखाड़ फैंकने का सबसे उत्तम तरीका है !

हे प्रभू, मैक्समूलर स्वयं स्वीकार रहा है और स्पष्ट कह रहा है कि उसके द्वारा वेद और हिन्दू धर्म शास्त्रों के भाष्यादि का उद्‌देश्य हिन्दू धर्म को जड़ से उखाड़ फैंकने का हैं ! यदि श्रीमती जोर्जिना उसे अप्रकाशित पत्रों को प्रकाशित न करती तो विश्व उस छद्‌मवेशी व्यक्ति के असली चेहरे को आज तक भी नहीं जान पाता ! इसी योजना के तहत उसने वेदों को केवल तीन हजार वर्ष पूर्व का घोषित किया और यहीं से शुरू हुई अंग्रेजों की कुटिल नीति | पाश्चात्य इतिहासकारों ने प्रचारित करना शुरू किया कि चूंकि मोहन जोदड़ो के पुरातत्व अवशेष पांच हजार साल पुराने हैं, अतः निश्चित ही वे वेद पूर्व सभ्यता के लोग रहे होंगे, जिन्हें बाहर से आये आर्य लोगों ने नष्ट कर दिया या पराजित कर जंगलों में भगा दिया और उनके शहरों पर स्वयं कब्जा कर लिया | उद्देश्य साफ़ था, यह दर्शाना कि जैसे हम बाहर से आये हैं, भारत वासी भी बाहरी ही हैं | यहाँ के मूल निवासी तो जंगलों में रहने वाले ही हैं, जिन्हें आक्रमणकारी आर्यों ने खदेड़ कर वनवासी बना दिया | उसी मानसिकता के साथ वनवासी समाज को नाम दिया गया – आदिवासी | अर्थात वे ही भारत के मूल निवासी हैं, शेष लोग तो आक्रमणकारी आर्यों की संतान हैं, जो बाहर से आये हुए विदेशी हैं | जैसे हम विदेशी, बैसे ही वनों में रहने वाले आदिवासियों के अतिरिक्त हर भारत वासी भी विदेशी | यह देश नहीं धर्मशाला है, लोग आते गए, बसते गए |

किन्तु ज्यूं ज्यूं मोहन जोदड़ो पर शोध आगे बढ़ा, इस मिथ्या धारणा की हवा निकलना शुरू हो गया | मोहन जोदड़ो से प्राप्त शिव फलक में स्पष्ट रूप से सिन्धु घाटी की लिपि में ही वेदों के नामों का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त हुआ और पश्चिमी विद्वानों की धारणाओं की मिटटी पलीत हो गई | अर्थात यह सिद्ध हो गया कि वेद पांच हजार साल से भी अधिक प्राचीन हैं | और साथ ही यह भी कि आर्य और मोहनजोदड़ो सभ्यता अलग अलग नहीं हैं, जिस प्रकार आज हमारे यहाँ अनेक भाषायें हैं, उस समय भी थीं | कुछ संस्कृत बोलते थे, कुछ सिन्धु घाटी सभ्यता की द्रविड़ पूर्व (प्रोटो द्रविड़ीयन) भाषा |

आर्य सभ्यता और द्रविड़यन सभ्यता साथ साथ चलीं, जैसे आज हैं | आर्य अगर कहीं बाहर से आये होते, तो जहाँ से आये हैं, वहां कुछ तो उनका प्रमाण उपलब्ध होता | लेकिन दुर्भाग्य से मैकाले की शिक्षा पद्धति से निकले काले अंग्रेजों ने तो वही मानना शुरू कर दिया, जो उनके मानसिक स्वामी ने बताया, भले ही वह कितना ही अप्रामाणिक और झूठ ही क्यों न हो |

अब बात ९ अगस्त आदिवासी दिवस की | सचाई यह है कि 1492 में कोलम्बस के अमरीका पहुंचने के बाद वहां के मूल निवासी “रेड इंडियन” पर गोरी चमड़ी वालों ने अकथनीय अत्याचार किए । उन्हें गुलाम बनाया, वे खरीदे बेचे गए । लेकिन इस सबके बावजूद कुछ संगठनों द्वारा 1992 में कोलम्बस के अमरीका में आने के 500 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में वहाँ एक बड़ा जश्न मनाने की तैयारी की गई । यह अमेरिका के मूलनिवासियों के जले पर नमक छिड़कने जैसा था, अतः स्वाभाविक ही इस आयोजन का विरोध किया गया। उसके बाद 1994 से 9 अगस्त को आदिवासी दिवस अथवा “ट्राइबल डे” अथवा मूलनिवासी दिवस मनाने की शुरूआत हुई। इसका लक्ष्य था ऐसे प्रदेश या देश के मूलनिवासियों को उनके अधिकार दिलाना जिन्हें अपने ही देश में दूसरे दर्जे की नागरिकता प्राप्त हो।सरल शब्दों में आक्रांताओं द्वारा उनपर किए गए अत्याचारों के कारण उनकी दयनीय स्थिति में सुधार लाने के कदम उठाना।

जरा विचार कीजिए कि भारत में तो ऐसी स्थिति कुछ है नहीं, फिर यहाँ ९ अगस्त जैसा दिवस मनाने का क्या औचित्य है ? लेकिन भारत को टुकडे टुकडे देखने की इच्छा रखने वाले लोग कहाँ मानने वाले हैं | मैकाले के ये मानस पुत्र अलगाववाद को हवा देने में जुटे हुए हैं, उससे सावधान रहने की जरूरत है |

नई शिक्षा नीति से शिक्षा के माध्यम में परिवर्तन… ?

वेद प्रताप वैदिक
नई शिक्षा नीति बनाकर सरकार ने सराहनीय कार्य किया है लेकिन ऐसा करने में उसने छह साल क्यों लगा दिए ? उसके छह साल लग गए याने शिक्षा के मामले में उसका दिमाग बिल्कुल खाली था ? शून्य था ? क्या सचमुच ऐसा था ? नहीं ! भाजपा पहले दिन से भारत की शिक्षा-प्रणाली के सुधार पर जोर दे रही है। भाजपा के पहले जनसंघ और जनसंघ के पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मैकाले की शिक्षा-प्रणाली का डटकर विरोध करता रहा है और कांग्रेस सरकारों की शिक्षा-नीति में कई बुनियादी सुधार सुझाता रहा है। लेकिन इस नई शिक्षा नीति को मोटे तौर पर देखने से यह पता नहीं चलता कि हमारी शिक्षा-व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन कैसे होंगे ? 
कुछ संशोधन और परिवर्तन तो शिक्षा के ढांचे को अवश्य सुधारेंगे लेकिन देखना यह है कि यह नई शिक्षा-व्यवस्था ‘इंडिया’ और ‘भारत’ के बीच अब तक जो दीवार खड़ी की गई है, उसे तोड़ पाएगी या नहीं ? देश के निजी स्कूलों और कालेजों में अंग्रेजी माध्यम से पढ़े छात्र ‘इंडिया’ हैं और सरकार के टाटपट्टी स्कूलों में पढ़े हुए ग्रामीणों, गरीबों, पिछड़ों के बच्चे ‘भारत’ हैं। इस भारत की छाती पर ही इंडिया सवार रहता है।
इस दोमुंही शिक्षा नीति का खात्मा कैसे हो ? इसका आसान तरीका तो यह है कि देश के सारे गैर-सरकारी स्कूल, कालेज और विश्वविद्यालयों पर प्रतिबंध लगा दिया जाए। संपूर्ण शिक्षा का सरकारीकरण कर दिया जाए। ऐसा करने के कई दुष्परिणाम हो सकते हैं। इसमें कई व्यावहारिक कठिनाइयां भी हैं लेकिन देश में शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने का एक नायाब तरीका मैंने 5-6 साल पहले सुझाया था, जिसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने बाद में अपने फैसले की तौर पर घोषित कर दिया था। वह सुझाव यह है कि राष्ट्रपति से लेकर चपरासी तक जितने भी लोग सरकारी तनखा पाते हैं, उनके बच्चों की पढ़ाई अनिवार्य रुप से सरकारी स्कूलों और कालेजों में ही होनी चाहिए। देखिए, फिर क्या चमत्कार होता है ? रातोंरात शिक्षा के स्तर में सुधार हो जाएगा। यदि हमारा शिक्षा मंत्रालय कम से कम इतना ही करे कि यह बता दे कि हमारे कितने न्यायाधीशों, मंत्रियों, सांसदों, विधायकों, पार्षदो, अफसरों और सरकारी कर्मचारियों के बच्चे सरकारी शिक्षा-संस्था में पढ़ते हैं ? ये आंकड़े ही हमारी आंखें खोल देंगे। यदि हमें भारत को महान और महाशक्ति राष्ट्र बनाना है तो इस दोमुंही शिक्षा नीति को ध्वस्त करना होगा।
डॉ. वेदप्रताप वैदिक

सैंकडों वर्षों की दासता के दंश से मुक्त करेगा भव्य राम मंदिर निर्माण

कई सदियों बाद एक ऐसा सपना साकार होने जा रहा है जिसके लिए लाखों लोगों ने अपनी जिंदगियां खपा दीं और लाखों लोगों ने अपने प्राणों को न्योछावर कर दिए, सिर्फ ये दिन देखने के लिए कि अयोध्या में एक न एक दिन भव्य राम मंदिर का निर्माण होगा। आज की पीढ़ी बहुत ही सौभाग्यशाली है जिसे श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर निर्माण देखने का सौभाग्य प्राप्त होगा। आज की पीढ़ी गर्व से कह सकती है कि हमने भव्य राम मंदिर की एक-एक ईंट को लगते देखा है। सबसे ज्यादा सौभाग्य की बात है कि आज की पीढ़ी कह सकती है कि हमने अपने आराध्य राम को टेंट के मंदिर से भव्य राम मंदिर में विराजमान होते देखा है। ये दिन देखने के लिये ना जाने कितनी पीढियों ने संघर्ष किया होगा और न जाने कितने रामभक्तों ने अपना लहू बहाया होगा। आज ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जैसे वनवास पूरा करके मर्यादा पुरुषोतम प्रभु श्रीराम अपने घर को लौट रहे हैं। 05 अगस्त 2020 को प्रस्तावित श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर निर्माण भूमि पूजन में कोरोना महामारी के चलते सिर्फ कुछ ही प्रमुख लोग शामिल होंगे। इस भूमि पूजन कार्यक्रम में आम जनमानस की उपस्थिति कोरोना महामारी के चलते निषेध है। बेशक लोग इस महत्वपूर्ण और गर्व से भरे हुये पल के साक्षी न बन पायें लेकिन राम अनादि से अनन्त तक हैं और समस्त विश्व के राम भक्त राम में ही समाये हुए हैं इसलिए वो जहां भी होंगे इस कार्यक्रम में भागीदार हो जायेंगे। राम भक्तों के लिये भूमि पूजन कार्यक्रम में शामिल होंने से ज्यादा भव्य राम मंदिर बनने की अनुभूति और प्रसन्नता है। क्योंकि भव्य राम मंदिर का निर्माण ही हमें सैंकडों वर्षों की दासता के दंश से मुक्त करेगा।

भगवान श्री राम चन्द्र जी समस्त सनातन धर्म के आदर्श पुरुष और इष्टदेवता हैं। भगवान राम को सनातन धर्म में सर्वोपरि स्थान दिया गया है। कई सदियों से बडे दुख और शर्म की बात रही कि जिन भगवान राम का उनके जन्मस्थान अयोध्या में भव्य राम मंदिर होना चाहिए था, वहां पर उन्हें कई सदियों तक अपने अस्तित्व की लडाई लडनी पडी। अयोध्या में रामजन्म भूमि विवाद एक राजनीतिक, ऐतिहासिक और सामाजिक-धार्मिक विवाद है, जो कि सैंकड़ों वर्ष पुराना विवाद है। इस विवाद का मूल मुद्दा हिंदू इष्टदेवता भगवान् श्रीराम चंद्र जी की जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद की स्थिति को लेकर है। इसके अलावा विवाद का कारण यह भी रहा कि उस स्थान पर हिंदू मंदिर को ध्वस्त कर वहां मस्जिद बनाया गया या मंदिर को मस्जिद के रूप में बदल दिया गया। इस विवाद के मूल में जाया जाये तो इसकी शुरुआत मुगलकाल से होती है। इस विवाद में सबसे अहम भूमिका विदेशी आक्रमणकारी जहिर उद-दिन मुहम्मद बाबर की रही है जो कि भारत में मुगल वंश का संस्थापक था। बाबर के मुगल सेनापति मीरबाकी द्वारा ही सन् 1528 में बाबर के कहने पर राम जन्म भूमि पर मस्जिद बनाई गई थी। जिसे बाबरी मस्जिद नाम दिया गया। हिन्दुओं के पौराणिक ग्रन्थ रामायण और रामचरित मानस के अनुसार यहां भगवान राम का जन्म हुआ था। इसी को लेकर पिछले सैंकड़ों वर्षों से राम जन्म भूमि विवाद का कारण रही है। हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच इस स्थल को लेकर पहली बार 1853 में विवाद हुआ। इस विवाद को देखते हुए अंग्रेजों ने सन् 1859 में नमाज के लिए मुसलमानों को अन्दर का हिस्सा और हिन्दुओं को बाहर का हिस्सा उपयोग में लाने को कहा। और अंदर वाले हिस्से में अंग्रेजी हुकूमत ने लोहे से घेराबंदी लगाते हुए हिंदुओं का प्रवेश वर्जित कर दिया था। यहीं से अंग्रेजों द्वारा इस मामले को और उलझा दिया गया। इस बात से हिंदुओं की आस्था और भावनाएं आहत हुईं। यहीं से ये मामला उलझता गया और इस स्थल को लेकर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच विवाद की खाई चैड़ी होती गयी। सन् 1949 में अंदर वाले हिस्से में भगवान राम की मूर्ति रखी गई। हिंदुओं और मुसलामानों के बीच तनाव और विवाद को बढ़ता देख तत्कालीन नेहरू सरकार ने इसके गेट में ताला लगवा दिया। सन् 1986 में फैजाबाद जिला जज ने उक्त स्थल को हिंदुओं की पूजा के लिए खोलने का आदेश दिया। मुस्लिम समुदाय ने इसके विरोध में बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी गठित की। इसके बाद सदियों से अपने इष्टदेवता श्रीराम चंद्र जी के जन्म स्थान पर लगे प्रश्नचिन्ह से आहत और आक्रोशित हिन्दू समाज के लाखों की तादात में कारसेवकों ने पुलिस प्रतिरोध के वावजूद 06 दिसंबर 1992 को विवादित बाबरी मस्जिद का विध्वंस कर दिया। और उस स्थान पर भगवान श्री राम की मूर्ति की स्थापना कर दी। इसके बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश से सरकार ने 2003 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के पुरातत्व विशेषज्ञों की एक टीम भेजकर उस स्थान का उत्खनन कराया गया, जिससे कि मंदिर या मस्जिद होने का प्रमाण मिल सके। एएसआई ने अपनी रिपोर्ट में विवादित बाबरी मस्जिद के नीचे 10वीं शताब्दी के मंदिर की उपस्थिति का संकेत दिया। लेकिन मुस्लिम समूहों ने इस रिपोर्ट को खारिज कर दिया।

विवादित मामले को लेकर उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ द्वारा 30 सितंबर 2010 को विशेष पीठ के तीन जजों जस्टिस एस यू खान, जस्टिस सुधीर अग्रवाल और जस्टिस धर्मवीर शर्मा ने बहुमत से निर्णय दिया, और विवादित स्थल को तीन भागों में बाँट दिया। फैंसले में कहा गया कि विवादित स्थल भगवान राम की जन्मभूमि है और वहां से रामलाल कि मूर्तियों को न हटाने का आदेश दिया। जिसमें से एक तिहाई हिस्सा राम मंदिर के लिए रामलला विराजमान का प्रतिनिधित्व करने वाले हिंदुओं को देने का फैंसला सुनाया गया और एक तिहाई हिस्सा निर्मोही अखाड़े को देने का फैंसला सुनाया और साथ ही एक तिहाई हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को देने का फैंसला सुनाया। इस फैंसले में बेशक विभिन्न पक्षों के दावों को लेकर विवादित स्थल वाली 2.7 एकड़ भूमि को तीन भागों में बांटा गया हो, लेकिन अदालत द्वारा एक महत्वपूर्ण पुष्टि जो अपने निर्णय में की गयी वह भगवान श्रीराम चंद्र जी के जन्म स्थान को लेकर की गयी, जिसमें कहा गया कि विवादित स्थल भगवान राम का जन्म स्थान है, और सबसे बड़ी बात निर्णय में कहा गया कि मुगल बादशाह बाबर द्वारा बनवाई गई विवादित मस्जिद इस्लामी कानून के खिलाफ थी और इस्लामी मूल्यों के अनुरूप नहीं थी। यह फैंसला सदियों से आहत हिंदुओं के लिए सबसे बड़ी खुशी का दिन था। अदालत ने बेशक इस फैंसले में उस स्थान पर राम मंदिर के निर्माण का आदेश न दिया हो लेकिन इस फैंसले से सदियों से आहत हिंदुओं की भावनाओं और उनके लंबे संघर्ष को सम्मान मिला। लेकिन कुछ पक्षकारों ने इस फैंसले को नहीं माना और यह मामला उच्चतम न्यायालय में चला गया। इसी कडी में 09 नवंबर 2020 को उच्चतम न्यायालय के चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली 5 जजों की विशेष बेंच ने सर्वसम्मति से फैसला सुनाया कि अयोध्या की विवादित जमीन पर रामलला विराजमान का हक है।

अयोध्या में विवादित जमीन पर रामलला का हक बताते हुए कोर्ट के 5 जजों की विशेष बेंच (चीफ जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस शरद अरविंद बोबड़े, जस्टिस धनंजय यशवंत चंद्रचूड़, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस अब्दुल नजीर) ने केंद्र सरकार को तीन महीने के अंदर मन्दिर निर्माण के लिये ट्रस्ट बनाने का भी आदेश दिया। 40 दिनों की लगातार सुनवाई के बाद उच्चतम न्यायालय ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया, जिसमें सदियों पुराने विवाद का खात्मा हो गया और अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का रास्ता प्रशस्त हो गया। इसके साथ ही उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि सुन्नी वक्फ बोर्ड को अयोध्या में ही किसी जगह मस्जिद निर्माण के लिए 5 एकड़ जगह दी जाए। उच्चतम न्यायलय का यह फैंसला अत्यन्त ऐतिहासिक फैंसला था। सभी देशवासिओं ने उच्चतम न्यायालय के निर्णय का शान्ति और सौहाद्रपूर्ण तरीके से स्वागत किया। हिन्दुओं के साथ-साथ उच्चतम न्यायालय के निर्णय की मुस्लिम समुदाय नें भी सराहना की। यह फैंसला किसी भी पक्ष की हार-जीत नहीं थी क्योंकि जहाँ राम नाम होता है वहां सबकी जीत ही होती है, इसलिए उच्चतम न्यायालय का राम मन्दिर के पक्ष में यह फैंसला हिन्दुस्तान के प्रत्येक व्यक्ति की जीत है।

कई दशकों से हमारे आराध्य भगवान् श्रीराम टेण्ट में विराजमान थे, उच्चतम न्यायालय के इस फैंसले के बाद से ही जनमानस में प्रसन्नता का माहौल है। उच्चतम न्यायालय के इस ऐतिहासिक फैंसले बाद केंद्र सरकार द्वारा श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट का गठन किया गया। राम जन्मभूमि न्यास परिषद के अध्यक्ष महंत नृत्य गोपाल दास को ट्रस्ट का अध्यक्ष और विश्व हिंदू परिषद के चंपत राय को महासचिव बनाया गया। अब श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट पर ही राम मन्दिर निर्माण का पूरा दायित्व है। इसी कडी में श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट ने 05 अगस्त 2020 को श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर का भूमिपूजन का कार्यक्रम रखा है। 05 अगस्त 2020 को देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने कर कमलों द्वारा श्री राम जन्मभूमि मन्दिर का भूमिपूजन और कार्यारम्भ करेंगे। इसी दिन से श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर निर्माण की शुरुआत हो जायेगी। जिन-जिन लोगों ने राम मंदिर आंदोलन में अपने प्राण न्योछावर कर दिए ऐसे हजारों रामभक्तों की आत्मा आज स्वर्ग में अपने आप को गौरवान्वित और प्रसन्न महसूस कर रही होगी। ऐसे रामभक्तों के बलिदानों की बदौलत ही हमें यह सुखद दिन देखने को मिल रहा है। राम मंदिर आंदोलन का नेतृत्व करने वाले प्रमुख चेहरों के योगदान को भी कभी भुलाया नहीं जा सकता है क्योंकि इन लोगों ने ही राम मंदिर आंदोलन की दिशा और दशा तय की। यह देश रामलला का है, रामलला इस देश के कण-कण में विराजमान है। हमें अपने आप को धन्य महसूस करना चाहिये कि हमने राम और कृष्ण के देश में जन्म लिया है।

अब समय आ गया है कि हम सब भारतवासी सभी विवादों और कटुता को पीछे छोड़ दें। सद्भाव और शांति को गले लगाएं। इसी दिशा में देश के समस्त वर्गों को श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर निर्माण को उत्सव की तरह मनाना चाहिये और सम्पूर्ण विश्व में देश की एकता और अखण्डता का सन्देश देना चाहिये। भगवान श्रीराम चंद्र जी के जीवन से सभी को भक्तिभाव के पथ पर चलने की सीख लेनी चाहिए और मर्यादा का पाठ सीखना चाहिए। भगवान श्रीराम चंद्र जी ने अपने जीवन का उद्देश्य अधर्म का नाश कर धर्म की स्थापना करना बताया, इसीलिए भगवान विष्णु ने सातवें अवतार के रूप में अयोध्या में जन्म लिया और दुष्ट रावण का वध कर उसके पापों से लोगों को मुक्ति दिलाई। भगवान राम के जीवन से हमें एक बेदाग और मर्यादा पूर्ण जीवन जीने की सीख मिलती है। भगवान राम का उदाहरण लोगों को उनके नक्शेकदम पर चलने और हमें अपने विचारों, शब्दों एवं कर्म में उत्कृष्टता पाने के लिए प्रयास करने हेतु प्रेरित करता है। भगवान श्रीराम चंद्र जी का जीवन सभी लोगों को हमेशा से उत्तम उच्च आदर्शों और उच्च नैतिक मूल्यों को बनाए रखने के लिए प्रेरित करता रहा है।

 ब्रह्मानंद राजपूत

सशक्त भारत का माध्यम बनेगा राम मन्दिर

-ः ललित गर्ग:-
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम मन्दिर का शिलान्यास प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के द्वारा 5 अगस्त 2020 को अयोध्या में होना, नये भारत के अभ्युदय की शुभ एवं गौरवमय ऐतिहासिक घटना है, जो युग-युगों तक इस देश को सशक्त बनाने का माध्यम बनती रहेगी। हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनुसार त्रेतायुग में रावण के अत्याचारों को समाप्त करने तथा धर्म की स्थापना के लिये भगवान विष्णु ने मृत्यु लोक में श्रीराम के रूप में अवतार लिया था। आज असंख्य जनमानस की व्यापक आस्थाओं के कण-कण में विद्यमान श्रीराम के मन्दिर का निर्माण की शुभ शुरुआत होना, एक अनूठी एवं प्रेरक घटना है, एक कालजयी आस्था के प्रकटीकरण का अवसर है, जो भारत के लिये शक्ति, स्वाभिमान, गुरुता एवं प्रेरणा का माध्यम बनेगी। इससे हिन्दू राष्ट्र के निस्तेज होते सूर्य को पुनः तेजस्विता एवं गुरुता प्राप्त होगी।
श्रीराम मन्दिर निर्माण की भूमिका तक पहुंचने के लिये असंख्य लोगों की आस्था एवं भक्ति के साथ-साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद, भारतीय जनता पार्टी का लम्बा संघर्ष रहा है, यह मन्दिर निर्माण उनके सुदीर्घ संघर्ष की जीत है। इस जीत के बाद भी अभी और भी बहुत तरह के संघर्ष बाकी है। असली मन्दिर की प्राण-प्रतिष्ठा तभी होगी जब हिन्दू समाज कुरीतियों-कुरूढ़ियों-विकृतियों मुक्त होगा, आडम्बर एवं प्रदर्शन मुक्त होकर समतामूलक समाज की स्थापना करेगा। भारत अपने आत्म-सम्मान एवं शक्ति को हासिल करते हुए सांस्कृतिक, आध्यात्मिक एवं बौद्धिक-आर्थिक स्तर पर विश्व गुरु की भूमिका का निर्वाह करेगा। हमें शांतिप्रिय होने के साथ-साथ शक्तिशाली बनकर उभरना होगा, ताकि फिर कोई आक्रांता हमें कुचले नहीं, हम पर शासन करने का दुस्साहस न कर सकें।
सचमुच श्रीराम भारत के जन-जन के लिये एक संबल है, एक समाधान है, एक आश्वासन है, निष्कंटक जीवन का, अंधेरों में उजालों का। भारत की संस्कृति एवं  विशाल आबादी के साथ दर्जनभर देशों के लोगों में यह नाम चेतन-अचेतन अवस्था में समाया हुआ है। यह भारत जिसे आर्यावर्त भी कहा गया है, उसके ज्ञात इतिहास के श्रीराम प्रथम पुरुष एवं राष्ट्रपुरुष हैं, जिन्होंने सम्पूर्ण राष्ट्र को उत्तर से दक्षिण, पश्चिम से पूर्व तक जोड़ा था। दीन-दुखियों और सदाचारियों की दुराचारियों एवं राक्षसों से रक्षा की थी। सबल आपराधिक एवं अन्यायी ताकतों का दमन किया। सर्वाेच्च लोकनायक के रूप में उन्होंने जन-जन की आवाज को सुना और राजतंत्र एवं लोकतंत्र में जन-गण की आवाज को सर्वोच्चता प्रदान की। इस मायने में श्रीराम मन्दिर लोकतंत्र का भी पवित्र तीर्थ होगा।
भगवान श्रीराम अविनाशी परमात्मा हैं जो सबके सृजनहार व पालनहार हैं। दरअसल श्रीराम के लोकनायक चरित्र ने जाति, धर्म और संप्रदाय की संकीर्ण सीमाओं को लांघ कर जन-जन को अनुप्राणित किया। भारत में ही नहीं, दुनिया में श्रीराम अत्यंत पूज्यनीय हैं और आदर्श पुरुष हैं। थाईलैंड, इंडोनेशिया आदि कई देशों में भी श्रीराम आदर्श के रूप में पूजे जाते हैं। श्रीराम केवल भारतवासियों या केवल हिन्दुओं के मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं हैं, बल्कि बहुत से देशों, जातियों के भी मर्यादा पुरुष हैं जो भारतीय नहीं। रामायण में जो मानवीय मूल्य दृष्टि सामने आई, वह देशकाल की सीमाओं से ऊपर उठ गई। वह उन तत्वों को प्रतिष्ठित करती है, जिन्हें वह केवल पढ़े-लिखे लोगों की चीज न रहकर लोक मानस का अंग बन गई। इंडोनेशिया जैसे मुस्लिम राष्ट्र में नागरिक रामलीला का मंचन करते हैं तो क्या वे अपने धर्म से भ्रष्ट हो जाते हैं? इस मुस्लिम देश में रामलीलाओं का मंचन भारत से कहीं बेहतर और शास्त्रीय कलात्मकता, उच्च धार्मिक आस्था के साथ किया जाता है। ऐसा इसलिये संभव हुआ है कि श्रीराम मानवीय आत्मा की विजय के प्रतीक महापुरुष हैं, जिन्होंने धर्म एवं सत्य की स्थापना करने के लिये अधर्म एवं अत्याचार को ललकारा। इस तरह वे अंधेरों में उजालों, असत्य पर सत्य, बुराई पर अच्छाई के प्रतीक बने। श्रीराम मन्दिर बनना रामराज्य की परिकल्पना को साकार रूप देने का सशक्त माध्यम बनेगा।
आजाद भारत में संकीर्ण मानसिकता, तथाकथित धर्मनिरपेक्षता, घृणा, उन्माद, कट्टरवाद और साम्प्रदायिकता राजनीति के आधार बने एवं इस तरह की राष्ट्र एवं समाज तोड़क तत्वों से सत्ताएं बनती एवं बिगड़ती रही है। इस तरह की घृणित एवं तथाकथित राजनीति की जड़ें गहरी न होती तो श्रीराम मंदिर निर्माण कब का हो गया होता। अब जबकि श्रीराम मंदिर निर्माण होने जा रहा है तो हमें गर्व भी हो रहा है और इस तरह का आभास भी हो रहा है कि अब समाज एवं राष्ट्र को तोड़ने वाली ताकतों का वर्चस्व समाप्त होगा, राजनीति में भी स्वस्थ मूल्यों को बल मिलेगा। यह मन्दिर धर्म की स्थापना एवं बुराइयों से संघर्ष का प्रतीक बनेगा, जरूरत है अंधेरों से संघर्ष करने के लिये इस प्रेरक एवं प्रेरणादायी मन्दिर की संस्कृति एवं आस्था को जीवंत बनाने की। बहुत कठिन है धर्म की स्थापना का यह अभियान एवं तेजस्विता की यह साधना। क्योंकि कैसे संघर्ष करें घर में छिपी बुराइयों से, जब घर आंगण में रावण-ही-रावण पैदा हो रहे हों। हमें भगवान श्रीराम को अपना जीवन-आदर्श बनाना ही होगा, उनके साहस, संयम एवं मर्यादा के मूल्यों को जीवनशैली बनाना ही होगा। तभी श्रीराम मंदिर जीवनमूल्यों की महक एवं प्रयोगशाला के रूप में उभरेगा। क्योंकि श्रीराम का चरित्र ही ऐसा है जिससे न केवल भारत बल्कि दुनिया में शांति, अहिंसा, अयुद्ध, साम्प्रदायिक सौहार्द एवं अमन का साम्राज्य स्थापित होगा।
श्रीराम ने मर्यादा के पालन के लिए राज्य, मित्र, माता-पिता, यहां तक कि पत्नी का भी साथ छोड़ा। इनका परिवार, आदर्श भारतीय परिवार का प्रतिनिधित्व करता है। श्रीराम रघुकुल में जन्मे थे, जिसकी परम्परा प्रान जाहुं बरु बचनु न जाई की थी। श्रीराम हमारी अनंत मर्यादाओं के प्रतीक पुरुष हैं इसलिए उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम से पुकारा जाता है। हमारी संस्कृति में ऐसा कोई दूसरा चरित्र नहीं है जो श्रीराम के समान मर्यादित, धीर-वीर, न्यायप्रिय और प्रशांत हो। वाल्मीकि के श्रीराम लौकिक जीवन की मर्यादाओं का निर्वाह करने वाले वीर पुरुष हैं। उन्होंने लंका के अत्याचारी राजा रावण का वध किया और लोक धर्म की पुनः स्थापना की। लेकिन वे नील गगन में दैदीप्यमान सूर्य के समान दाहक शक्ति से संपन्न, महासमुद्र की तरह गंभीर तथा पृथ्वी की तरह क्षमाशील भी हैं। वे दुराचारियों, यज्ञ विध्वंसक राक्षसों, अत्याचारियों का नाश कर लौकिक मर्यादाओं की स्थापना करके आदर्श समाज की संरचना के लिए ही जन्म लेते हैं। आज ऐसे ही स्वस्थ समाज निर्माण की जरूरत है।
श्रीराम मन्दिर का शिलान्यास स्वयं की पहचान एवं अस्मिता को जीवंतता देने का अवसर है, जो हमें फिर से अपनी जड़ों को मजबूती देने के लिये सोचने का धरातल दे रहा है कि कथित धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा के जोश में हम अपने अतीत को अनदेखा नहीं करें, अपने गौरवमय अतीत को धुंधला न होने दे। यदि राष्ट्र की धरती अथवा राजसत्ता छिन जाये तो शौर्य से उसे वापस हासिल किया जा सकता है। यदि धन नष्ट हो जाए तो परिश्रम से कमाया जा सकता है, परन्तु यदि राष्ट्र अपनी पहचान ही खो दे तो कोई भी शौर्य या परिश्रम उसे वापस नहीं ला सकता। हमारे राष्ट्र की पहचान को धुंधलाने के अनेक षडयंत्र एवं कथित दमनकारी इरादे हावी होते रहे हैं, लेकिन हमारी एकता एवं संस्कृति के प्रति आस्था ने उनके नापाक इरादों को कभी सफल नहीं होने दिया। क्योंकि भारत की संस्कृति एवं संस्कारों में दो अक्षरों का एक राम-नाम गहरा पेठा एवं समाया हुआ है, उसके बल पर हम हर बाधा को पार कर सकते हैं।
श्रीराम हमारे कण-कण में समाये हैं, हमारी जीवनशैली का अभिन्न अंग हैं। सुबह बिस्तर से उठते ही राम। बाहर निकलते ही राम-राम, दिन भर राम नाम की अटूट श्रृंखला। फिर शाम को राम का नाम और जीवन की अंतिम यात्रा भी ‘राम नाम सत्य है’ के साथ। आखिर इसका रहस्य क्या है? घर में राम, मंदिर में राम, सुख में राम, दुख में राम। शायद यही देख कर अल्लामा इकबाल को लिखना पड़ा- ‘है राम के वजूद पर हिन्दोस्तां को नाज, अहले वतन समझते हैं, उनको इमामे हिंद।’ श्रीराम का जो विराट व्यक्तित्व भारतीय जनमानस पर अंकित है, उतने विराट व्यक्तित्व का नायक अब तक के इतिहास में कोई दूसरा नहीं हुआ। राम के जैसा दूसरा कोई पुत्र नहीं। उनके जैसा सम्पूर्ण आदर्श वाला पति, राजा, स्वामी कोई भी दूसरा नाम नहीं। श्रीराम किसी धर्म का हिस्सा नहीं, बल्कि मानवीय चरित्र का प्रेरणादायी प्रतीक है। श्रीराम सुख-दुख, पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म, शुभ-अशुभ, कर्तव्य-अकर्तव्य, ज्ञान-विज्ञान, योग-भोग, स्थूल-सूक्ष्म, जड़-चेतन, माया-ब्रह्म, लौकिक-पारलौकिक आदि का सर्वत्र समन्वय करते हुए दिखाई देते हैं। इसलिए वे मर्यादा पुरुषोत्तम तो हैं ही, लोकनायक एवं मानव चेतना के आदि पुरुष भी हैं। भारत के विभिन्न धार्मिक संप्रदायों और मत-मतांतरों के प्रवत्र्तक संतों ने श्रीराम की अलग-अलग कल्पना की है। इनमें हर एक के श्रीराम अलग-अलग हैं, लेकिन सभी के श्रीराम मर्यादा के प्रतिमूर्ति एवं आदर्श शासन-व्यवस्था की ऊंच रोशनी की मीनार है।
श्रीराम का सम्पूर्ण जीवन विलक्षणताओं एवं विशेषताओं से ओतप्रोत है, प्रेरणादायी है। उन्हें अपने जीवन की खुशियों से बढ़कर लोक जीवन की चिंता थी, तभी उन्होंने अनेक तरह के त्याग के उदाहरण प्रस्तुत किये। राजा के इन्हीं आदर्शों के कारण ही भारत में रामराज्य की आज तक कल्पना की जाती रही है। श्रीराम के बिना भारतीय समाज की कल्पना संभव नहीं है। अब श्रीराम मन्दिर के रूप में एक शक्ति एवं सिद्धि स्थल बन रहा है, जो रामराज्य के सुदीर्घ काल के सपने को आकार देने का सशक्त एवं सकारात्मक वातावरण भी बनेगा। 

ईश्वर के सत्यस्वरूप और ज्ञान का प्रकाश सर्वप्रथम वेदों द्वारा किया गया”

-मनमोहन कुमार आर्य

               संसार की अधिकांश जनसंख्या ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करती है। बहुत बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी किसी न किसी रूप में इस सृष्टि को बनाने व चलाने वाली सत्ता के होने का संकेत करते हुए उसे दबी जुबान से स्वीकार करते हैं। हमारा अनुमान व विचार है कि यदि यूरोप के वैज्ञानिकों ने वेदों को पढ़ा होता और उनके सत्य अर्थों को जाना होता तो वह कदापि ईश्वर के अस्तित्व में सन्देह न करते अपितु वह सच्चे योगी व धार्मिक होते जैसे कि वैदिक युग में भारत के ऋषि व वैज्ञानिक होते थे। संसार में प्रायः सभी प्रमुख मतों में ईश्वर को किसी न किसी रूप में माना जाता है। परमात्मा ने मनुष्य को ज्ञान प्राप्ति के लिये बुद्धि दी है और इसके साथ ही सृष्टि के आरम्भ में चार वेदों का ज्ञान भी दिया था। यह चार वेद और इनके सत्य वेदार्थ, सृष्टि को बने हुए 1.96 अरब व्यतीत हो जाने के बाद, आज भी उपलब्ध हैं जिनका वर्तमान समय में मुख्य श्रेय ऋषि दयानन्द और उनकी स्थापित संस्था आर्यसमाज को है। किसी मत व सम्प्रदाय, आस्तिक व नास्तिक, का कोई भी अनुयायी यदि वेदों को निष्पक्ष भाव व सत्यान्वेषण की दृष्टि से पढ़ता है तो वह वेदों की प्रत्येक बात को सत्य स्वीकार करता है। ऐसा विश्वास व निश्चय वेदों में निहित सत्य रहस्यों को पढ़कर व आत्मा में उनका निश्चय होने पर होता है। हमने भी निष्पक्ष भाव से वेदों को देखा व पढ़ने का प्रयत्न किया और हमें ऋषि दयानन्द की वेदों के विषय में कही गई सभी बातें सर्वथा सत्य अनुभव होती हैं।

               ऋषि दयानन्द ही नहीं अपितु उनसे पहले वेदों की सत्यता वेदों की ईश्वर से उत्पत्ति का उल्लेख प्राचीन काल के ऋषियों के ग्रन्थ ब्राह्मण, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, रामायण एवं महाभारत आदि में भी मिलता है। इन ग्रन्थों को पढ़कर, वेद की मान्यताओं के विरुद्ध प्रक्षेपों को छोड़कर, मनुष्य वेदों को ही मनुष्य जाति की सबसे उत्तम महत्वपूर्ण निधि पाता है। यदि ऐसा होता तो ऋषि दयानन्द ने सत्यान्वेषण करते हुए वेदों को प्राप्त कर सन्तोष किया होता और वह अपने जीवन का एकएक पल तप त्यागपूर्वक अहर्निश पुरुषार्थ करते हुए वेदों के प्रचार में व्यतीत करते। ऋषि दयानन्द का पुरुषार्थ, उनका ज्ञान, उनकी तर्कणा शक्ति, सत्य को जानने के प्रति उनकी गहन निष्ठा, उनका समर्पण तथा वैदिक मान्यताओं पर सभी विद्वानों की शंकाओं के निवारण के लिये उनका सबको आमंत्रित करना, सबकी शंकाओं का निराकरण करना, देश के अनेक भागों में जाकर खुलकर प्रचार करना तथा सबको चर्चा व वार्तालाप सहित शास्त्रार्थ के लिये भी आमंत्रित करना, वेदों की सत्यता के प्रमाण ही सिद्ध होते हैं। यदि वेद पूर्णतया सत्य न होते तो ऋषि दयानन्द ऐसा कदापि न कर पाते। आज की स्थिति पर विचार करें तो आज भी मत-मतान्तरों में यह साहस नहीं है कि वह दूसरे मत मुख्यतः वेदमत के अनुयायी आर्यसमाज के विद्वानों के साथ अपने मत की बातों व मान्यताओं की सत्यता एवं प्रमाणिकता की पुष्टि के लिये शंका समाधान, चर्चा व शास्त्रार्थ कर सकें। इससे सन्देश स्पष्ट है कि वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक व ग्रन्थ हैं तथा वेदानुकूल मान्यतायें ही मान्य व स्वीकार्य हैं। मत-मतान्तरों की जो बातें वेदों के अनुकूल नहीं है वह अस्वीकार्य, अकरणीय व विश्वास व आचरण करने योग्य नहीं है।

               वेदों ने सृष्टि के आरम्भ से ही सभी मनुष्यों विद्वानों को उसके किसी भी सिद्धान्त वचन पर शंका करने का अधिकार दिया है। वेदों पर की जाने वाली शंकाओं प्रश्नों का उत्तर हमारे विद्वान ऋषि सृष्टि के आरम्भ से शंकालुओं भ्रान्त लोगों को देते आये हैं और सामान्य मनुष्यों के लाभार्थ उन्होंने उपनिषद, दर्शन एवं मनुस्मृति जैसे ग्रन्थ लिखकर सभी प्रकार के भ्रमों का निवारण किया है। आज ऋषि दयानन्द के अनुयायियों को ईश्वर के सत्यस्वरूप सहित उसके गुण, कर्म स्वभाव के विषय में किसी प्रकार की भ्रान्ति नहीं है। वह संसार के किसी भी मनुष्य का ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के विषय में शंका समाधान कर सकते हैं व उन्हें वेद के सिद्धान्तों को समझा सकते हैं। वेदों से ही जिज्ञासुओं की सभी शंकाओं का निवारण होता है। ऐसी सभी शंकाओं का संग्रह कर ऋषि दयानन्द ने अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में समाधान कर दिया है। सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर मनुष्य की सभी जिज्ञासाओं व शंकाओं का समाधान हो जाता है। इससे मनुष्य संतुष्ट व तृप्त होता है। सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर मनुष्य की ईश्वर की प्राप्ति हेतु साधना में प्रवृत्ति होती है। साधना साध्य की प्राप्ति के लिये की जाती है। साधक साधना द्वारा ही साध्य को प्राप्त होता है। यदि किसी मत व सम्प्रदाय में साधक को अपने इष्ट व साध्य ईश्वर की प्राप्ति न हो तो इसका अर्थ होता है कि साधना में अथवा साधक के प्रयत्नों में कमी। सभी मतों को अपने अपने मतों का अध्ययन कर यह जानने का प्रयत्न करना चाहिये कि उनमें से उनके किन-किन विद्वानों ने ईश्वर वा संसार की रचना व पालन करने वाली शक्ति ईश्वर को ठीक-ठीक जाना है व उसका साक्षात्कार किया है? ईश्वर को मानना व उसकी सिद्धि न होना प्रशस्त कार्य नहीं है। यहां यह भी विचार करना आवश्यक है कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वव्यापक और सर्वान्तर्यामी है। वह हमारी आत्मा के भीतर व बाहर भी विद्यमान है। अतः उसकी प्राप्ति का स्थान हमारी आत्मा ही हो सकती है।

               मठ, मन्दिरों नाना मतों के धर्मस्थलों में ईश्वर प्राप्त नहीं होता। वह तो साधक को साधक के हृदय में विद्यमान आत्मा में ही ईश्वर का चिन्तन, मनन, जप, स्वाध्याय, ध्यान समाधि द्वारा ही प्राप्त हो सकता है। ईश्वर की प्राप्ति के लिए वेद, उपनिषद, दर्शन, प्रक्षेप रहित मनुस्मृति, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आध्यात्म विषयक वैदिक विद्वानों के ग्रन्थों का स्वाध्याय ही सहायक एवं लाभदायक होता है। इनकी सहायता से मनुष्य ईश्वर को जान पाता जान जाता है। साधक को योग साधना द्वारा ईश्वर को प्राप्त करना अर्थात् उसका साक्षात् करना शेष रहता है जिसके लिये उसे योगदर्शन में बातयें गये मार्ग का अनुसरण करना होता है। ऋषि दयानन्द व वैदिक काल के सभी ऋषि वेद निहित योग साधन करते हुए समाधि अवस्था को प्राप्त कर ही ईश्वर को प्राप्त करते थे। आज भी ईश्वर की प्राप्ति का यही मार्ग समूचे विश्व की जनता के सामने है। यही एकमात्र मार्ग है। इससे भिन्न अन्य किसी मार्ग से ईश्वर का साक्षात्कार नहीं हो सकता। हम इस मार्ग की जितनी भी उपेक्षा करेंगे, उससे हम ईश्वर के निकट जाने के स्थान पर उससे दूर ही होंगे। ईश्वर को प्राप्त करना है तो हमें सच्चा निष्पाप मानव बनना होगा। हमने अपने भोजन एवं आचार-विचारों को पूरी तरह से शुद्ध व पवित्र करने होंगे। सभी मनुष्यों व पशु पक्षियों पर दया करनी होगी। उनमें अपनी आत्मा को और अपनी आत्मा में उन सब प्राणियों की आत्माओं को देखना होगा। यह जानना होगा कि सब प्राणियों की आत्मायें एक समान हैं। सब प्राणियों की रक्षा का व्रत लेना होगा। अपरिग्रह को चरितार्थ करना होगा। ईश्वर मठ, मन्दिर व गिरिजों में नहीं अपितु वह तो साधारण कुटिया व वनों, कन्दराओं तथा नदियों के तट व संगमों के निकट शान्त स्थानों में साधना करने से प्राप्त होता है। इतिहास में ऐसा उल्लेख कहीं नहीं आता कि हमारे ऋषि मुनि महलों व अट्टालिकाओं व बड़े भव्य भवनों में रहकर साधना करते थे। वैदिक काल में वनों व आश्रमों की महत्ता इसीलिये थी कि वहां तप व साधना का अवसर सुलभ होता था। आश्रमों में विद्वानों का सत्संग मिलता था। वनों व आश्रमों में रहकर तपस्या करने वाले ज्ञानियों की शरण में जाकर ही हम साधना कर सकते हैं। अपने निवास को भी तपस्थली बना सकते हैं और आध्यात्मिक उन्नति कर प्राप्तव्य ईश्वर को पा सकते हैं। ऐसा हमें वैदिक साहित्य व ऋषियों व विद्वानों के उपदेशों का अध्ययन कर प्रतीत होता है।

               संसार में ज्ञान का प्रकाश परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में वेदों के द्वारा ही किया था। वेदों से ही ईश्वर का सत्यस्वरूप प्राप्त होता है। वेदों के ही कुछ सिद्धान्त सभी मत-मतान्तरों में कुछ विकृतियों के साथ पहुंचे हैं। वेद आज भी सर्वथा शुद्ध एवं पवित्र हैं तथा इतर सभी प्रकार के वैचारिक तथा भावनात्मक प्रदुषणों से रहित हैं। वेद ही ज्ञान तथा ईश्वर विषयक ज्ञान के आदि स्रोत है। वेदों को स्वीकार कर ही संसार में शान्ति स्थापित हो सकती है। हिंसा व दुःखों को दूर किया जा सकता है। वेदों की शिक्षायें संसार के प्रत्येक मनुष्य अर्थात् मनुष्यमात्र के लिये हैं। वेदाध्ययन से आत्मा सहित मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति होती है। मनुष्य अभ्युदय व निःश्रेयस को प्राप्त होता है। वह अपने साध्य ईश्वर को जान पाता है और वैदिक साधनों का सदुपयोग कर अपनी आत्मा के भीतर ही ईश्वर का साक्षात कर अपने जीवन को सफल कर सकता है। इस वेद मार्ग पर चलने से ही मनुष्य जीवन की सफलता व सार्थकता है। ओ३म् शम्।   

श्रीराम जन्मभूमि: देश का मानस एवं विमर्श

कर सारंग साजि कटि भाथा  अरिदल दलन चले रघुनाथा ।। 

प्रथम किन्ही प्रभु धनुष टंकोरा रिपु दल बधिर भयहू सुनि सोरा ।। 

लगभग पाँच सौ वर्षों के सतत, दुधुर्ष व उत्कट संघर्ष के बाद 5 अगस्त को अयोध्या मे रामलला जन्मभूमि पर मंदिर निर्माण की प्रथम शिला रखी जानी है। जो समय के भीतर झांक सकते हैं वे जानते हैं कि मंदिर निर्माण की प्रक्रिया तो 6 दिसंबर 1992 के दिन ही प्रारंभ हो गई थी जिस दिन बाबरी ढांचे का कलंक भारत भूमि से हटा था। बाबरी ढांचे से लेकर भव्य निर्माण तक का ये घटनाक्रम और आरोह अवरोह, सब प्रारब्ध है और रामरचित लीला मात्र है।  श्रीराम भारत के गुलामी से जकड़े हुये समाज जागरण हेतु जितने बरस स्वयं की जन्मभूमि को आतताइयों के कब्जे मे रहने देना चाहते थे उतने बरस उन्होने रहने दिया। जब श्रीराम का मन किया कि अब लीला को नवस्वरूप देना है और नवविलास करना है तो वे तिरपाल को त्याग कर नए भवन की ओर अग्रसर हो गए हैं।

होइहि सोइ जो राम रचि राखा।

को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
अस कहि लगे जपन हरिनामा।

गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥

मैं स्वयं अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि यदि इतिहास मे 6 दिसंबर की वीरोचित घटना नहीं हुई होती तो 9 नवंबर 2019 का विवेकपूर्ण निर्णय भी नहीं हो सकता था। साथ ही यह भी कहना ही होगा कि 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या मे जितने भी रामभक्त बाबरी विध्वंस मे प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से सम्मिलित थे उन सभी मे उस दिन रामेश्वरम रामसेतु के निर्माण मे संलग्न देव तुल्य वानरों की आत्मा प्रवेश कर गई थी। गिलहरी, नल, नील, जांबवंत, सुग्रीव, अंगद, हनुमान, सहित भैया लक्ष्मण और श्रीराम वहाँ स्वयं स्वयंसेवक रूप मे उपस्थित थे और एक नए युग के जन्म की कथा का प्रारंभ स्वयं अपने हाथों से लिख रहे थे।      

        गोस्वामी तुलसीदास के इन शब्दों को प्रत्येक स्वयंसेवक कहते हुये आगे बढ़ रहा था –

 कटि तूनीर पीत पट बाँधें।

कर सर धनुष बाम बर काँधें॥
पीत जग्य उपबीत सुहाए।

नख सिख मंजु महाछबि छाए॥

कमर में तरकस और पीतांबर बाँधे हैं। हाथों में बाण और कंधों पर धनुष तथा पीले यज्ञोपवीत सुशोभित हैं। नख से लेकर शिखा तक सब अंग सुंदर हैं, उन पर महान शोभा छाई हुई है और वे साथ साथ चलते जा रहे हैं।

          लंका दहन, क्षमा कीजिये बाबरी विध्वंस के बाद देश भर व विश्व मे चले विमर्श के संदर्भ मे कभी किसी प्रसिद्ध लेखक ने लिखा था कि वह विमर्श बड़ा ही भयावह था। समूचे भारतीय व वैश्विक मीडिया ने बड़ा ही अनैतिक, अनर्गल व अनावश्यक प्रलाप किया था। भारतीय सेकुलर विधवा विलाप कर रहे थे और बीबीसी से लेकर न्यूयार्क टाइम्स, मिरर, वाशिंगटन पोस्ट, एकानामिक टाइम्स आदि आदि वही कह रहे थे जो पाकिस्तान का “द डान” कह रहा था। द टाइम मेगज़ीन ने तो लिखा था कि “पवित्र काम भारत मे शांति नष्ट किए दे रहा है।“ टाइम ने उस समय “राम का क्रोध” नाम से भी एक स्टोरी भी प्रकाशित की थी। यूनिवर्सिटी आफ केलिफोर्निया से  Ayodhya and the Politics of India’s Secularism: A Double-Standards Discourse जैसा शोध पत्र भी प्रकाशित हुआ था। इस समूचे विमर्श मे एक ही बात पर बल दिया जा रहा था कि भारत के  सर्वोच्च न्यायालय ने ढाँचा गिराए जाने को ग़ैरक़ानूनी घोषित कर दिया है। बाबरी विध्वंस के बाद देश भर मे ऐसे लेखन को प्रायोजित किया गया जो हिंदू समाज मे घनघोर आत्मग्लानि, दुख, कुंठा व खेद का वातावरण तैयार करे। वामपंथी, तथाकथित सेकुलर व कांग्रेस ने भारत मे इस वितंडावादी वातावरण को निर्मित करने हेतु एड़ी चोटी के प्रयास किए। वस्तुतः बाबरी विध्वंस राम काज था, गौरावान्वित कर देने वाला अवसर था, पाँच सौ वर्षों की कुंठा, अवसाद व कलंक को मिटा देने वाला अवसर था। बाबरी विध्वंस पर 6 दिसंबर 1992 से लेकर 9 अक्तूबर 2019 तक न्यायालय द्वारा जितनी भी प्रतिकूल, अनुकूल प्रतिकूल टिप्पणियां की गई थी उन सभी को इस राष्ट्र के हम हिंदू बंधुओं ने न तो स्मरण करना चाहिए और न ही उन्हें विस्मृत करना चाहिए। मुझे लगता है बाबरी विध्वंस पर हुई तमाम न्यायलीन टिप्पणियों का यथासमय श्माशोधन / न्याय हमारे समाज द्वारा स्वमेव ही कर दिया जाएगा। एक सर्वव्यापी मंथन कभी न कभी होगा जो इस विमर्श के सत्व को स्थापित करेगा। जिस राष्ट्र ने श्रीराम को अपना पूर्वज, अपना कुटुंबपति, अपना पुरोधा, अपना प्रभु, अपना नीतिनियंता और अपना आदर्श माना हो उस समाज मे रामकाज करना प्रत्येक नागरिक का प्रथम कर्तव्य है। निस्संदेह  मंदिर निर्माण रामकाज ही है और बाबरी का विध्वंस भी रामकाज ही था।

            यदि समाज, देश व विश्व यह सोचता है कि अयोध्या मे श्रीराम मंदिर निर्माण ही अंतिम रामकाज है तो वह गलत सोचता है। आप चिंता न करें मैं यहां मथुरा, काशी आदि आदि की बात नहीं कर रहा हूँ। मथुरा काशी अपने आप मे एक सामाजिक कार्य  है जो समय आने पर विधिवत अभियान का स्वरूप लेगा; मैं तो यहां यह चर्चा कर रहा हूँ कि ये जो पाँच सौ वर्षों तक हमारे माथे पर कलंक का टीका लगा रहा है वह मंदिर बनने मात्र से समाप्त नहीं होगा। इस कलंक को समाप्त करने हेतु हमें हमारे समाज मे चले पाँच सौ वर्षों के षड्यंत्रकारी व लज्जाधारी विमर्श के विरुद्ध भी एक व्यापक विमर्श खड़ा करना होगा। मंदिर स्थूल है किंतु मंदिर का व्यापक विमर्श एक दिव्य विचार है। हमें इस दिव्य विचार की स्थापना हेतु कार्य करना होगा ताकि हम  हमारी आने वाली पीढ़ियों को आत्मग्लानि, कुंठा व खेद के भाव से निकालकर वीरोचित भाव से आत्मविभोर कर पाएँ। आप कल्पना कीजिये कि जिस देश मे नरेंद्र मोदी के पूर्व किसी प्रधानमंत्री ने सार्वजनिक मंच से जय श्रीराम का उद्घोष ही नहीं किया, उस देश मे राममंदिर के निर्माण हेतु एक प्रधानमंत्री का जाना सतह के नीचे कितनी लहरों को जन्म दे रहा होगा।

                 हम आज यदि लगभग बीते तीन दशकों के बाबरी ढांचा विध्वंस पर हुये विमर्श को जांचे परखे तो लगता है इस विषय पर बहुत दीर्घ, सतत व विस्तृत अध्ययन विमर्श की आवश्यता है। द वीक पत्रिका द्वारा जारी 7 सितंबर, 2003 की रिपोर्ट “ The layers of truth” हो, या आउटलूक इंडिया पत्रिका की “What If Rajiv Hadn’t Unlocked Babri Masjid? हो, या 3 अक्टूबर 2010 को प्रकाशित द हिन्दू की प्रकाशित स्टोरी Ayodhya verdict yet another blow to secularism: Sahmat  हो, ऐसी पचासों स्टोरीज़ और दसियों पुस्तके हैं जिनके सामयिक विचारमंथन या समाशोधन (हिसाब किताब बराबर करना) की सख्त आवश्यकता हमारे समाज को है। निस्संदेह इस सामाजिक, अकादमिक समाशोधन हेतु यह समय सर्वाधिक उपयुक्त व समीचीन है।

मुहूर्त,मोदी जी और अयोध्या

अयोध्या भूमि पूजन के लिए सज चुकी है जैसे त्रेता युग में जब 14 वर्ष के वनवास के बाद प्रभु श्री राम अयोध्या लौटे थे तब भी ऐसे ही अयोध्या सजाई गयी थी | गोस्वामी जी ने लिखा है “अवधपुरी अति रुचिर बनाई ,देवन्ह सुमन बृष्टि झरि लाई | “ अब लगभग 500-600  वर्ष बाद राम जी अपने घर में विराजेगें इसीलिये पूरे देश में हर्ष का वातावरण है केवल हिन्दू ही नहीं अपितु सभी धर्मावलम्बी परम प्रसन्न हैं क्यों कि राम जी से किसी को बैर नहीं | विरोध राजनीतिक है सो राजनीति भी साथ-साथ हो ही रही है | कुछ लोग मुहूर्त को लेकर तो कुछ लोग माननीय प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी द्वारा भूमि पूजन में उपस्थित होने को लेकर रंग में भंग डालने का प्रयास कर रहे हैं | यह जानते हुए कि  राम सेतु अभी भी है ,राम के पुत्र लव के नाम पर लाहौर नगर  पकिस्तान में है | राम के भाई भारत के पुत्र तक्ष के नाम पर तक्षशिला है और साक्षात् अयोध्या उनका धाम है फिरभी लोग दलगत संकीर्णताओं से ऊपर नहीं उठ पा रहे हैं |  इक्ष्वाकु वंश के 64 राजाओं ने भगवान् राम से पूर्व भारत पर शासन किया जिनकी वंशावली अभी तक ग्रंथों में सुरक्षित है | विश्व स्तर पर किसी भी देश का मान-सम्मान और स्वाभिमान का एक बड़ा पक्ष उसका प्राचीन इतिहास,संक्राति और सभ्यता का भी होता है | दुनिया के संभवतः सभी देशों ने स्वतंत्र होने के बाद अपने-अपने इतिहास और प्राचीन संस्कृति-सभ्यता को संरक्षित करते हुए उस पर गौरव किया है | भगवान् राम हिन्दुओं के लिए धर्मिक आस्था का केंद्र हैं किन्तु भारत के प्रत्येक नागरिक के लिए वे भारत के सांस्कृतिक और ऐतिहासिक  गौरव का प्रतीक हैं | राम हैं तभी तो हम कह सकते हैं कि भारत 200 वर्ष या 500 वर्ष पुराना नहीं अपितु हजारों वर्ष प्राचीन देश है |   

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 मध्यकाल में आक्रान्ताओं ने पुस्तकालयों में आग लगा दी, भगवान् राम,कृष्ण,महावीर, भगवान बुद्ध, आदि  सभी देवों के मंदिर तोड़ डाले, भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक  पहचान मिटाने का हर संभव प्रयास किया गया | कहा जाता है कि यदि किसी देश के अस्तित्व को समाप्त करना हो तो उसकी भाषा और संस्कृति को समाप्त कर दो | प्रत्येक देश के पूर्वजों के साथ उस देश का इतिहास और  संस्कृति भी   जुड़ी होती है | राम भारत की संस्कृति,सभ्यता और इतिहास के प्रतीक हैं | भारत की पहचान राम से है,बुद्ध,कृष्ण महावीर आदि अवतारी पुरुषों से है | यदि इन देवतुल्य महपुरुषों/ भगवानों को जनमानस की स्मृति से मिटा दिया जाये तो शेष भारत के पास अपनी पहचान के नाम पर बचेगा क्या ? महर्षि वाल्मीकि भारत के ही नहीं मानव इतिहास में आदि कवि हैं और रामायण प्राचीन ग्रंथों में से एक है | रामायण (24 हजार श्लोक,पांच सौ सर्ग और सात कांड) के बारे  में कहा जाता है  “काव्यबीजं सनातनम” अर्थात रामायण समस्त काव्यों का बीज है | विमर्श इस बात पर होना चाहिए कि महर्षि वाल्मीकि जी के समय में सम्पूर्ण संसार में और कौन-कौन ऐसे कवि हुए हैं | भगवान राम के समय संसार के अन्य देशों में भी कोई ऐसा प्रतापी राजा हुआ है यदि नहीं तो  राम जी को संसार का पहला महान राजा माना जाना चाहिये | जिन्होंने  सर्वप्रथम मानव जाति  के लिए उच्च मूल्यों की स्थापना की  | लंका विजय के पश्चात् न राज्य छीना, न नगर लूटा और न हीं वहाँ की धरोंहरें नष्ट कीं अपितु  राज्य रावण के भाई को ही दे दिया | बाली का वध किया राज्य सुग्रीव को दे दिया और अंगद को युवराज बना दिया | समाज के वंचित  वर्ग और निर्धन वनवासी तक को अपने परिवार का अंग माना | माता शबरी हों  (जनजाति) हो या मित्र निषाद राज (आज के अनुसूचित ) न कोई भेद न कोई अहंकार | राम की अयोध्या में कोई निर्धन नहीं, कोई ऊँच-नीच नहीं, कोई प्रताड़ित नहीं, असत्य और अन्याय का कोई स्थान नहीं | क्या संसार में किसी भी देश या जन समूह के पास ऐसे उच्च आदर्श वाले चरित्र,राज्य और नगर  हैं ? यदि हैं तो उनके सद्गुणों का भी उद्घाटन किया  जाना चाहिए |

यूरोप अफ्रीका आदि देशों में उस युग में लोग क्या करते थे,उनके जीवन मूल्य और जीवन स्तर क्या था ? दशरथ जी के दरवार में आठ मंत्री थे,अयोध्या बारह योजन लम्बी और तीन योजन चौड़ी थी | उसके राजमार्ग पर पुष्प बिखेरे जाते थे और नित्य जल छिड़का जाता था (मुक्तपुष्पावकीर्णेन जल सिक्तेन नित्यशः ) | वहाँ व्यवस्थित बाजार हैं, सभी कलाओं के शिल्पी हैं,नगर के चारों  ओर  गहरी खाई खुदी हुई है और सैकड़ों शतघ्नी (तोपें) भी लगी हुई हैं | वाल्मीकि जी ने अयोध्या का जो वर्णन किया है वह एक अति उन्नत, समृद्ध अन्तरराष्ट्रीय व्यापार का केंद्र भी है |  कालान्तर में यह केंद्र दुर्बल होता गया मुग़ल काल में इसे पूर्णतः ध्वस्त कर दिया गया | आज उसी सांस्कृतिक केंद्र का  पुनर्निर्माण होने जा रहा है | यह क्षण केवल हिन्दुओं के लिए ही नहीं अपितु प्रत्येक भारत वासी के लिए गौरव पूर्ण हैं,क्योकि अपने पूर्वजों का यशगान तो सभी को प्रिय होता है |

डॉ.रामकिशोर उपाध्याय

पाँच अगस्त, पाँच सौ वर्षों का संघर्ष और साधना

अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते ।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥
                 (वाल्मीकि रामायण)
लंका विजयोपरांत लंका के वैभव और बनावट देख वहीं रहने के लक्ष्मण जी के आग्रह पर भगवान राम यही उत्तर तो देते हैं ” लक्ष्मण! यद्यपि यह लंका सोने की बनी है, फिर भी इसमें मेरी कोई रुचि नहीं है। (क्योंकि) जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान है “। उसी जन्मभूमि को पाने और अपने ही जन्म स्थान को सिद्ध करने के लिये भगवान राम को शताब्दियों का संघर्ष करना पड़ा, बाल रामलला को स्वंय कानूनी कार्यवाहियों का सामना करते हुये उन्हें भारतवर्ष की न्यायपालिका में यह सिद्ध करना पड़ा कि इसी अयोध्या नगरी में उसने जन्म लिया था, जिसके लिये वो परम वैभवशाली लंका नगरी का त्याग करके आये थे।
आश्चर्य है न जिस देश के कण-कण में राम व्याप्त हैं, जहाँ प्रत्येक भारतवासी अभिवादन में राम-राम कहनें से लेकर राम नाम सत्य है से अपनी जीवनलीला समाप्त करता है ।जिस देश की पहचान ही राम है उसे प्रमाणित करना पड़ा कि ये अयोध्या भूमि ही उसका जन्मस्थान है। मात्र न्यायपालिकाओं की लड़ाई ही नहीं अनेक रक्तरंजित संघर्षों और असंख्य जीवनों की आहुति के पश्चात उस नन्हें रामलला को न्याय मिला है जिसका संपूर्ण जीवन ही न्याय का पर्याय था।
पाँच अगस्त का ये ऐतिहासिक दिवस जब भारतवर्ष के प्रधानमंत्री भूमिपूजन कर शिलादान कर रहे होंगे तब संपूर्ण भारत की भावनाओं का ज्वार उस समुद्र की लहरों को बांधने के समान असाध्य होगा जिसे बांधने स्वंय श्रीराम को धनुष उठाना पड़ा ।
आखिर ऐसा क्या है जो आज के इस दिवस को भव्य और दिव्य बनाने के साथ-साथ हर भारतवासी का मन और देश का कोना- कोना उत्साह और उर्जा से भर रहा है, रक्षापर्व के स्थान पर दीपोत्सव मनाया जा रहा है ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार राम वनगमन पश्चात अयोध्या लौटे थे और सम्पूर्ण अयोध्या नगरी दीपों से झिलमिला उठी थी।ठीक वैसा ही दृश्य आज होगा जब केवल दियों में डाले गये तेल और वाती से प्रकाश न होगा अपितु हर भारतवासी की आँखों की कोरो में झिलमिला आये भावनाओं के अश्रु बिंदु सूर्य के तेज और चंद्रमा की शीतलता को समाहित कर इस विश्व को प्रकाशित कर रहे होंगे। कोरोना के चलते हर भारतीय सशरीर अवश्य अयोध्या की पावन धरती पर न पहुंचे किंतु हर एक का मन उन क्षणों का साक्षी होगा जब सवा सौ करोड़ देशवासियों की और से प्रधानमंत्री जी भूमिपूजन की विधियों का निर्वहन करते हुये श्लोक-
……….नामाहं पृथिवीमातुः ऋणं अपाकर्त्तुं तां
प्रतिस्वकर्तव्यं स्मर्तुं। अस्याः निकृष्टसंस्कार- निस्सारणार्थं श्रेष्ठसंस्कार स्थापनार्थंन्च देवपूजनपूर्वकं *सराष्ट्रजनाः श्रृद्धापूर्वकं भूमिपूजनं वयं करिष्यामहे। ( *श्लोक में स्वजनों किंतु यहाँ तो सम्पूर्ण राष्ट्र की भावनाएं साथ) का वाचन करेंगे तो समस्त भारतीयों के हस्तकमलो और मन मानस का प्रतिनिधित्व कर रहे होंगे।
अयोध्या संघर्ष के पांच सौ वर्ष- पांच अगस्त भूमि पूजन की यह तिथि और दिवस अपने में एक बड़ा संघर्ष और साधना समाहित किये हुये है। जनमानस की आस्था का केन्द्र अयोध्या नगरी को भगवान श्रीराम के पूर्वज विवस्वान (सूर्य) पुत्र वैवस्वत मनु ने बसाया था, तभी से इस नगरी पर सूर्यवंशी राजाओं का राज महाभारत काल तक रहा, और इसी नगरी में प्रभु श्रीराम का अपने पिता राजा दशरथ के महल में जन्म हुआ। महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में जन्मभूमि की तुलना दूसरे इन्द्रलोक से की है। महर्षि वाल्मीकि   अयोध्या का वर्णन करते हुये लिखते हैं-
कोसल नाम मुदितः स्फीतो जनपदो महान।
निविष्टः सरयू तीरे प्रभूतधनधान्यवान।।
वर्णन है कि भगवान श्रीराम के जल समाधि लेने के पश्चात अयोध्या कुछ काल के लिये कांतिहीन सी हो गयी थी, किंतु उनकी जन्मभूमि पर बना महल वैसे का वैसा ही था।भगवान श्रीराम के पुत्र कुश ने एक बार पुनः राजधानी अयोध्या का पुनर्निर्माण कराया। इस निर्माण के बाद सूर्यवंश की अगली ४४पीढियों तक इसका अस्तित्व अंतिम राजा, महाराज बृहदवल तक अपने चरमोत्कर्ष पर रहा। कौशलराज बृहदवल की मृत्यु महाभारत युद्ध में अर्जुन पुत्र अभिमन्यु के हाथों होती है।  महाभारत युद्ध के पश्चात अयोध्या पुनः वीरान सी हो जाती है किंतु श्री राम जन्मभूमि का अस्तित्व फिर भी बना रहा।
अयोध्या नगरी का आगे उल्लेख मिलता है कि ईसा के लगभग १०० वर्ष पूर्व उज्जैन के चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य एक दिन आखेट करते-करते अयोध्या पंहुच गये, शारीरिक थकान होने के कारण अयोध्या में सरयू नदी के किनारे एक आम के वृक्ष के नीचे वे अपनी सेना सहित विश्राम करने लगे। उस समय यहाँ घना जंगल हो चला था और  बसाहट भी कम हो गयी थी। महाराज विक्रमादित्य को इस भूमि में कुछ चमत्कार दिखाई देने लगे।तब उन्होंने खोज करना आरंभ किया और निकटस्थ योगियों व संतों से जानकारी में उन्हें ज्ञात हुआ कि यह श्रीराम की अवध भूमि है। उन्हीं संतों के निर्देशानुसार उन्होंने यहाँ भव्य मंदिर के जीर्णोद्धार के साथ ही कूप,सरोवर, महल आदि बनवाये। ऐसा बताया जाता है कि उन्होंने श्री राम जन्मभूमि पर श्यामवर्ण कसौटी पत्थरों वाले ८४ स्तंभों पर विशाल मंदिर का निर्माण करवाया था। इस मंदिर की भव्यता और दिव्यता देखते ही बनती थी।
विक्रमादित्य के बाद के राजाओं ने समय-समय पर इस मंदिर की देख-रेख की। उन्हीं में से एक शुंग वंश के प्रथम शासक पुष्यमित्र शुंग ने भी मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था। पुष्यमित्र का एक शिलालेख अयोध्या से प्राप्त हुआ था जिसमें उसे सेनापति कहा गया है तथा उसके द्वारा दो अश्वमेघ यज्ञों के किये जाने का वर्णन भी मिलता है। अनेक अभिलेखों से ज्ञात होता है कि गुप्तवंशीय चंद्रगुप्त द्वित्तीय के समय और तत्पश्चात लंबे समय तक अयोध्या गुप्त साम्राज्य की राजधानी थी। गुप्तकालीन महाकवि कालिदास ने अयोध्या का रघुवंश महाकाव्य में अद्भुत वर्णन किया है।
इतिहासकारों के अनुसार ६०० ईसा पूर्व अयोध्या एक महत्वपूर्ण व्यापार केन्द्र बन गया था। इस स्थान को अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति ५वी शताब्दी में ईसा पूर्व तब मिली जब यह एक प्रमुख बौद्ध केंद्र के रुप में विकसित हुआ। उस समय इसका नाम साकेत था। चीनी यात्री फाहयान ने यहाँ देखा कि अनेक बौद्ध मठों का रिकॉर्ड सुरक्षित रखा गया है। यहाँ पर ७ वी शताब्दी में चीनी यात्री ह्वेनसांग आया था। उसके अनुसार यहाँ २० बौद्ध मंदिर थे जिनमें लगभग ३००० भिक्षु रहते थे। वह अपने यात्रा वृतांत में स्पष्ट वर्णन करता है कि यहाँ अयोध्या में हिन्दुओं का एक प्रमुख भव्य मंदिर है, जहाँ प्रतिदिन हजारों की संख्या में हिंदु तीर्थयात्री दर्शन करने के लिये आते है। यहाँ मैं स्पष्ट कहना चाहती हूँ कि इसके अतिरिक्त बौद्ध धर्म का अयोध्या में अन्य कोई वर्णन नही रहा।अतः जो लोग बौद्ध धर्म के नाम पर विद्वैश और वैमनस्य फैलाकर इस भूमि पर बौद्ध मंदिर के होने का अभियान चला रहे हैं एकबार चीनी यात्रियों ह्वेनसांग और  फाह्यान के यात्रा वृत्तांतों का ध्यान से अध्ययन कर लें।
इसके बाद ईसा की ११ वी शताब्दी में  कन्नौज नरेश जयचंद यहाँ आया और उसने मंदिर पर लगे सम्राट विक्रमादित्य के प्रशस्ति शिलालेखों को निकलवाकर अपना नाम लिखवा दिया। पानीपत के युद्ध के बाद जयचंद का भी अंत हो गया। अब भारत पर विदेशी आक्रांताओं का आक्रमण और बढ़ गया ।आक्रमणकारियों ने काशी, मथुरा के साथ ही अयोध्या में भी लूटपाट की और पुजारियों की हत्या कर मूर्तियों को खंडित करने का क्रम जारी रखा। किंतु १४वी शताब्दी तक वे अयोध्या में राम मंदिर को तोड़ने में सफल नहीं हो पाये।
विभिन्न आक्रमणों और आघातों के बाद भी सभी झंझावातों को सहते हुये श्री राम जन्मभूमि पर बना भव्य मंदिर १४ वीं शताब्दी तक अपना अस्तित्व बचाये रहा। कहा जाता है कि सिंकदर लोदी के शासनकाल के समय भी यहाँ मंदिर मौजूद था। १४वीं शताब्दी में भारत पर मुगलों का अधिकार हो गया और उसके बाद ही श्री राम जन्मभूमि एवं अयोध्या को नष्ट करने के लिये अनेक अभियान चलाये गये। अंततः १५२७-२८  में इस भव्य मंदिर को तोड़ दिया गया और उसके स्थान पर बाबरी ढांचा खड़ा किया गया।
कहा जाता है कि मुगल साम्राज्य के संस्थापक बाबर के एक सेनापति ने बिहार विजय अभियान के समय अयोध्या में श्रीराम के जन्मस्थान पर स्थित भव्य और प्राचीन मंदिर को तोड़कर एक मस्जिद बनवाई थी, जो १९९२ तक विद्यमान रही।
बाबरनामा के अनुसार १५२८ में अयोध्या पड़ाव के दौरान बाबर ने मस्जिद निर्माण का आदेश दिया था। अयोध्या में बनाई गई मस्जिद में खुदे दो संदेशो से इसका संकेत भी मिलता है।इसमें एक संदेश विशेष रूप से उल्लेखनीय है जिसका सार है, जन्नत तक जिसके न्याय के चर्चे हैं ऐसे महान शासक बाबर के आदेश पर दयालु मीर बकी ने फरिश्तों की इस जगह को मुकम्मल कर दिया। यह थी चोरी और ऊपर से सीनाजोरी जिसका खामियाजा वर्षों तक भारतवासी भोगते आयें हैं।
कहीं-कहीं यह भी कहा जाता है कि अकबर और जहांगीर के शासनकाल में हिंदुओं को चबूतरे के रुप में सौंप दी गई थी किंतु क्रूर आततायी औरंगजेब ने अपने पूर्वज बाबर के सपने को पूरा करते हुये यहाँ भव्य मस्जिद का निर्माण कर उसका नाम बाबरी मस्जिद रख दिया था।
श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन:-  असंख्य हिंदुओं के आराध्य भगवान राम और आस्था के केन्द्र श्रीराम जन्मभूमि स्थान के विधर्मियों द्वारा विध्वंस को भला हिंदु समाज कैसे सहता ? अनेक संघर्ष छोटे और बड़े स्वरूपों में चलते रहे और लगातार पाँच सौ वर्षो से हर मन मानस यही स्वप्न संजोता कि अपने जीवन में वह श्री रामलला को अपने भव्य मंदिर में विराजमान होते हुये देखे किंतु दुर्भाग्य अनेक पीढियां ये स्वप्न अपने मन में संजोये ही चली गयी। मुगल गये अंग्रेज आये, अंग्रेज गये अपने आये किंतु रामलला अपना स्थान न पा पाये। ये हिंदु समाज की कायरता थी ,सहिष्णुता थी,सहनशीलता थी या किसी चमत्कार की प्रतिक्षा थी,बहरहाल जो भी हो किंतु विश्व के एकमात्र सार्वभौमिक सत्य कि श्रीराम की जन्मस्थली अयोध्या है, उस सत्य को भी सत्य सिद्ध होने संघर्ष करना पड़ा।
अब उस घटना का उल्लेख जिस घटना ने रामजन्म भूमि आंदोलन को एक नयी दशा और दिशा दी और ये पूरा विवाद कोर्ट पहुंचा सुप्रीम कोर्ट का एतिहासिक निर्णय भी इसी घटना पर आया था।
जब अचानक एक सुबह अयोध्या में गूंजा “भए प्रकट कृपाला”
२२ दिसंबर १९४९ की रात मे एक ऐसी घटना होती है जिससे दिल्ली तक हड़कंप मच जाता है। कुछ युवाओं की टोली ने मस्जिद के प्रांगण में भगवान राम की मूर्तियों को देखा और बताया कि मस्जिद में भगवान प्रकट हुये हैं अगली सुबह पूरी अयोध्या में खबर फैल जाती है कि बाबरी मस्जिद में प्रभु श्रीराम प्रकट हुये हैं। तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिमहा राव ने अपनी पुस्तक “अयोध्या ६ दिसंबर १९९२” में इस घटना के संबंध में लिखी गई एफ.आई. आर.का उल्लेख किया है। एस.एच.ओ. रामदेव दुवे ने एफ आई आर में लिखा कि रात में ५०-६० लोग ताला तोड़कर दीवार फांदते हये मस्जिद में घुस गये।वहां उन्होंने श्री रामचन्द्र जी की मूर्ति की स्थापना कीः इतनी भीड़ के आगे सुरक्षा इंतजाम नाकाफी साबित हुये।
लिब्रहान आयोग मे भी लिखा गया था कि काँस्टेबल माता प्रसाद ने थाना इंचार्ज राम दुवे को इस घटना के बारे में जानकारी दी। और अगली सुबह अयोध्या वासी बाबरी मस्जिद में मूर्ति प्रकट होने की खुशी में भये प्रकट कृपाला गा रहे थे।
सत्ता के गलियारों में मच गया था हड़कंप:-  सुबह होते ही जिस तेजी से ये खबर अयोध्या में फैली उतनी ही तेजी से दिल्ली पंहुच गई। तब प्रधानमंत्री थे पंडित जवाहर लाल नेहरु और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे गोविंद बल्लभ पंत। तब देश को आजादी तो मिल गई थी किंतु संविधान अभी लागू नहीं हुआ था। धर्म निरपेक्षता अभी संवेधानिक ढांचे में नहीं थी।
लेकिन बिना किसी दुविधा के नेहरु ने पंत से सात कर अयोध्या में पूर्व स्थिति बहाल करने को कहा। फौरन ऊपर से आदेश आया, लेकिन उस समय फैजाबाद के डीएम के के नायर ने उसे मानने से ही इनकार कर दिया। ऐसा करने पर उन्होंने कानून-व्यवस्था और बिगड़ने का हवाला दिया, साथ ही उन्होंने यह सुझाव भी दे डाला कि बेहतर होगा अगर इसका निपटारा अब कोर्ट करे। सरकार को भी उनका सुझाव सही लगा और इस तरह ये मामला कोर्ट में पहुंच गया।
पूजा जारी रखने के लिए कोर्ट चले गए परमहंस
16 जनवरी 1950 को सिविल जज की अदालत में हिंदू पक्ष की ओर से मुकदमा दायर कर जन्मभूमि पर स्थापित भगवान राम और अन्य मूर्तियों को न हटाए जाने और पूजा की इजाजत देने की मांग की गई। दिगंबर अखाड़ा के महंत रहे परमहंस भी मूर्ति न हटाने और पूजा जारी रखने के लिए कोर्ट चले गए।कोर्ट ने उन्हें इसकी इजाजत दे दी। कई वर्षों बाद 1989 में जब रिटायर्ड जज देवकी नंदन अग्रवाल ने स्वयं भगवान राम की मूर्ति को न्यायिक व्यक्ति करार देते हुए नया मुकदमा दायर किया तब परमहंस ने अपना केस वापस कर लिया।
आगे की अदालती कार्यवाही और कारसेवकों पर किये गये मुलायम सरकार के बर्बरता पूर्ण अत्याचार, रथयात्रा, शिलापूजन हर घटना सभी के समक्ष आज भी जीवंत है तो लेख की व्यापकता को न बढाते हुये पाँच अगस्त की ये जो स्वर्णिम भोर जिसकी प्रतिक्षा में असंख्य आँखें पथरा गई थी, उस ऐतिहासिक पल का भावविभोर हो अभिनंदन करते हुये कुछ नाम अवश्य उल्लेखित करना चाहूंगी जो इस भूमिपूजन की वास्तविक नींव के पत्थर रहे।
शरद कोठारी और रामकुमार कोठारी, वासुदेव गुप्ता, राजेन्द्र धरकार, रमेश पांडेय जैसे अनेक हुतात्मा कारसेवक जिन्होंने 1989 और 1992 के आंदोलन में अपने प्राणों की आहुति दी। राम मंदिर आंदोलन की अगुवाई करने वाले दाऊ दयाल खन्ना, राजमाता विजया राजे सिंधिया, परमहंस रामचंद्र, महंत अवैद्यनाथ, स्वामी वामदेवजी महाराज, प.पू. रज्जू भैय्या, मोरोपंत पिंगले, प.पू. कुपसी सुदर्शन, अशोक सिंहल जी, आचार्य गिरिराज किशोर, ओंकार भावे, मफल सिंहं, जगद्गुरू पुरूषोत्तमाचार्य, महेश नारायण सिंह, श्रीषचन्द्र दीक्षित, ठाकुर गुरजन सिंह, ओम प्रकाश जी, बीएल शर्मा “प्रेम”, देवकीनंदन अग्रवाल जी सहित असंख्य जीवन जो आज के दिवस की नींव के पत्थर बने।अनेक ऐसे नाम जो इस एतिहासिक दिवस को प्रत्यक्ष अपनी आँखों से निहारेंगे लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, साध्वी ऋतंभरा जी,उमा भारती जी ,बाबा सत्यनारायण मौर्य और भी असंख्य सौभाग्यशाली जो प्रत्यक्ष और परोक्ष रुप से अयोध्या भूमि से जुड़कर स्वंय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ इस संघर्ष को साधना में परिलक्षित होने के साक्षी बन रहे।
आज का दिवस वास्तव में भारतवर्ष के आत्मगौरव और परम वैभव पर पहुंचने के स्वप्न को साकार करने का दिवस है।सवा सौ करोड़ भारतीयों की आस्था, धैर्य, प्रतिक्षा,तपस्या के फलीभूत होने का दिवस है। जाग्रत आँखों से साकार होते स्वप्न के साक्षी बनने का दिवस है।
इति शुभम…..

कोरोना वायरस का हवा से फैलना एक बड़ा खतरा है.

प्रियंका सौरभ 
आज भारत में कोरोना के मरीज सबसे ज्यादा हो चुके है जो एक बेहद चिंताजनक स्थिति है, हमारे लिए मृत्युदर कम होना ही एक संतोष की बात है जिसकी वजह से हमने आज इससे डरना बंद कर दिया है मगर ये स्थिति इलाज के अभाव में कभी भी करवट ले सकती है .तेजी से फैलते कोरोना संक्रमण पर  विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक एजेंसी ने स्वीकार किया कि कोरोनोवायरस के हवाई प्रसारण से इनडोर स्थानों में खतरा हो सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आख़िरकार यह स्वीकार किया कि कोरोना वायरस संक्रमण के ‘हवा से फैलने’ के सबूत हैं.  एजेंसी के वैज्ञानिकों ने एक समाचार ब्रीफिंग में कहा कि विशेष रूप से भीड़, बंद, खराब हवादार सेटिंग्स में एयरबोर्न ट्रांसमिशन की संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता है। एजेंसी के मुताबिक इनडोर वातावरण के लिए “उचित वेंटिलेशन” होना बेहद जरूरी है.

क्लीनिकल इंफ़ेक्शियस डिज़ीज़ जर्नल के एक खुले ख़त में 32 देशों के 239 वैज्ञानिकों ने इस बात के प्रमाण दिए है कि ये ‘फ़्लोटिंग वायरस’ है जो हवा में ठहर सकता है और सांस लेने पर लोगों को संक्रमित कर सकता है.  यदि किसी संक्रमित मरीज को किसी भी बंद स्थान पर काफी समय तक रखा जाए तो उस स्थान में भी हावी में कोरोना वायरस मौजूद रहेगा और उस हवा के संपर्क में आने से कोई भी कोरोना संक्रमित हो सकता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने माना है कि संक्रमित व्यक्ति के छींकने और खांसने से निकली छोटी बूंदें काफी  देर तक तक हवा में रहती हैं और इससे दूसरो को संक्रमण का खतरा रहता है इसलिए सबको हवा से हुए प्रसार से सतर्क रहने की जरूरत है

भारत के सीअसआईआर के चीफ शेखर सी मांडे ने भी अपने ब्लॉग में इन सभी चिंताओं पर अपनी राय रखी है और विभिन्न स्टडी तथा विश्लेषणों के हवाले से लिखा कि जितने भी सबूत निकले हैं उससे पता चलता है कि कोरोना का हवा से भी प्रसार संभव है। उन्होंने कहा कि ‘यह तो साफ है कि जब लोग छींकते हैं या खांसते हैं तो उससे हवा में बूंदें निकलती हैं।  बड़ी बूंदें तो जमीन पर गिर जाती हैं लेकिन छोटी बूदें हवा में  काफी समय तैरती रहती हैं। किसी संक्रमित व्यक्ति के छींकने या खांसने से निकलने वाली बड़ी बूंदें तो जमीन पर गिर जाती हैं और यह ज्यादा दूर तक नहीं जाती हैं। लेकिन छोटी बूंदें लंबे समय तक हवा में मौजूद रहती हैं। ये छोटी बूंदे एरोसोल की तरह होती है.

 एरोसोल हवा में निलंबित कण है जो धूल, धुंध, या धूम्रपान से बन सकते हैं। वायरस के संचरण के संदर्भ में एरोसोल सांस की बूंदों की तुलना में  छोटे (5 माइक्रोन या उससे कम) होते है, सामान्य इनडोर वायु वेगों पर, एक 5 माइक्रोन छोटी बूंद दस मीटर की दूरी तय करती है जो कि एक विशिष्ट कमरे के पैमाने से बहुत अधिक है। ये लंबे समय तक हवा में निलंबित रहते हैं, एक व्यक्ति जो कोरोना पॉजिटिव है, वह छोटे खराब हवादार कमरे में 1-2 मीटर की दूरी पर भी खड़े लोगों को संक्रमित करने की संभावना रखता है। ऐसे वातावरण में रहने वाले लोग इन वायरस को संभावित रूप से एक दूसरे में संक्रमित कर सकते हैं, जिसके परिणामस्वरूप संक्रमण और बीमारी होती है। इसलिए तो कोविद-19 संक्रमण फैलाने वाली सांस की बूंदों ने महामारी की शुरुआत से हमें मास्क पहनना, दूरी रखना, और हाथ धोने की दिनचर्या अपनाने को मजबूर किया है.

छोटी बूंद के रूप में बूंदों और एरोसोल को छोटी बूंदों के रूप में देखने से एक छोटी बूंद और एरोसोल के बीच अंतर का अनुमान लगाया जा सकता है। एक बीमार व्यक्ति के मुंह या नाक से आने वाली बूंदें भारी होती हैं, और छह फीट से अधिक आगे बढ़ने से पहले जमीन पर गिर सकती हैं। तभी तो  हम कोरोना से बचने के लिए एक दूसरे के बीच 1.5 मीटर से अधिक दूरी बनाए रखने  के लिए जोर दे रहे है। एरोसोल, जो बहुत छोटे होते हैं, लैंडिंग से पहले लंबे समय तक लम्बी यात्रा कर सकते हैं। एरोसोल की कल्पना कुछ हद तक एक शराबी की तरह हो सकती है जो रात में खराब रोशनी वाली सड़क पर चलता जाता है जब तक उसको उस रस्ते से दूर नहीं किया जाता.

ठीक वैसे ही छोटी बूंदों और कणों (व्यास <5 माइक्रोन -10 माइक्रोन) को हवा में अनिश्चित काल तक निलंबित रखा जा सकता है, जब तक कि वे एक हल्के हवा या वेंटिलेशन एयरफ्लो से दूर नहीं किए जाते हैं। यह एक दीवार, फर्नीचर या एक व्यक्ति का शरीर हो सकता है जो इस प्रकार सफलतापूर्वक लोगों को संक्रमित कर सकता है। वायरस का जीवनकाल जो किसी सतह पर गिरता है वह कुछ मिनटों से लेकर कुछ घंटों के बीच कहीं भी हो सकता है। एक हालिया अध्ययन में, यह पाया गया कि सबसे संक्रमित क्षेत्र रोगी क्षेत्र में 1 मीटर-वर्ग वाला मोबाइल शौचालय था। ये भी पाया गया है कि जोखिम वातानुकूलित कमरों में सबसे अधिक है, विशेष रूप से केबिन या पिंजरे जैसे कमरे।

दूसरी ओर विशाल हवादार कमरे, संचरण का कम जोखिम वहन करते हैं। इसका मतलब यह है कि एक आउटडोर सब्जी बाजार एक सुपरमार्केट से अधिक सुरक्षित है और एक सुपरमार्केट एक छोटे डिपार्टमेंटल स्टोर की तुलना में सुरक्षित है; हालांकि यह माना जाता है कि लोग शारीरिक संतुलन के मानदंडों को बनाए रखते हैं। तो अगर आप घर के अंदर हैं, तो अधिकतम वेंटिलेशन सुनिश्चित करने के लिए खिड़कियां खोलें। कोरोनावायरस का एयरबोर्न संचरण संभावित रूप से एक चिंता का विषय है,  इसका मतलब है कि वायरस आमतौर पर निकट संपर्क की अनुपस्थिति में यात्रा कर सकता या फ़ैल सकता है।

 यह इस संभावना को भी बढ़ाता है कि वायरस हवा की धाराओं पर यात्रा कर सकता है, और यहां तक कि एयर कंडीशनिंग के माध्यम से प्रेषित किया जा सकता है। इसका मतलब यह है कि सामाजिक दूरी हमेशा प्रभावी नहीं हो सकती है और कोरोना वायरस  विशेष रूप से कम वेंटिलेशन के साथ भीड़ वाले इनडोर क्षेत्रों में एक बड़ा खतरा हो सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन इस मामले में फिलहाल दुनियाभर के अलग-अलग देशों के वैज्ञानिकों के साथ मिलकर इस पर और ज्यादा काम कर रहा है और जानकारी ये जुटाने की कोशिश कर रहा है कि ऐसी और कौन सी जगह है जहां, हवा के माध्यम से  कोरोना वायरस फैल सकता है। खैर कुछ भी अभी तक हमें कोरोना के पैदा होने, फैलने और खत्म होने के बारे सही जानकारी नहीं मिल पाई है. इसलिए सावधानी ही बचाव है.

विश्व का एकमात्र ब्रह्माणी माता मंदिर जहाँ होती है देवी की पीठ की पूजा


राजस्थान का इतिहास वीरता , शौर्य और पराक्रम का इतिहास रहा है । वीरता के चरित्र को प्रेरणा देने वाली शक्ति की आराधना यहाँ की संस्कृति का अभिन्न अंग रही है । यहाँ पर शक्ति पूजा की परंपरा प्राचीनकाल से ही रही है । हनुमानगढ़ जिले के रंगमहल में मिली पकी हुई मिट्टी की देवी प्रतिमाएँ शक्ति उपासना की प्राचीन परम्परा की साक्षी हैं । इसी तरह टोंक जिले के उनियारा गाँव के पास महिषमर्दिनी की प्रतिमा मिली है जो प्रथम शताब्दी ईस्वी की मानी जाती है । ये कुछ उदाहरण राजस्थान में प्राचीनकाल से शक्ति उपासना को  प्रामाणिकता प्रदान करते हैं । राजस्थान में वैसे तो कई शक्ति स्थल हैं लेकिन एक शक्ति स्थल ऐसा भी है जहाँ पर देवी के विग्रह के मुख की नहीं बल्कि पीठ की पूजा की जाती है । राजस्थान के बाराँ जिले की अंता तहसील में स्थित सोरसन गाँव में ब्रह्माणी माता का मंदिर विश्व का एकमात्र मंदिर है जहाँ पर देवी के पृष्ठ भाग की अर्थात पीठ की ही पूजा अर्चना होती है । यह प्राचीन और ऐतिहासिक मंदिर बाराँ जिले से लगभग 35 किलोमीटर दूर सोरसन नामक गाँव की बाहरी सीमा में स्थित है । जनश्रुति के अनुसार कहा जाता है कि ब्रह्माणी माता का प्राकट्य यहाँ पर 700 वर्ष पूर्व हुआ था । तब यह देवी खोखर गौड़ ब्राह्मण पर प्रसन्न हुई थी इसलिए आज भी खोखरजी के वंशज ही मंदिर में पूजा अर्चना करते हैं । एक कथा यह भी है कि माना जी नामक बोहरा अपने खेत में काम कर रहे थे तब उनकी पत्नी उनके लिए खाना लेकर आई तो खेत में उन्हें ठोकर लग गई और पारस पत्थर निकल आया जिससे हल की लोहे की वस्तुएँ स्वर्ण की हो गई । जब माना जी को यह पता चला तो वे उस पारस पत्थर को लेकर घर आ गए । रात में देवी ने स्वप्न में आकर उन पर प्रसन्न होने की बात कही । धीरे धीरे माना जी की प्रसिद्धि चहुँओर फैलने लगी तो गुप्तचरों द्वारा यह बात राजा तक पहुँच गई कि माना जी के पास पारस पत्थर है । राजा ने उन्हें दरबार में हाजिर होने के लिए कहा लेकिन वे नहीं आये तो राजा ने उन्हें पकड़कर लाने के लिए अपने सैनिक भेज दिए परन्तु माना जी को जब इस विपत्ति का पता चला तो उन्होंने वह पारस पत्थर पास में स्थित कुंड में फेंक दिया । उधर उनकी पुत्रवधु ने अचानक आई इस विपत्ति का कारण देवी को मानकर अपशब्द कह दिए जिससे देवी नाराज हो गई और क्रोधित होकर वहाँ से जाने लगी । तब जाते समय देवी की पीठ माना जी की तरफ थी इसलिए पीछे से आवाज लगाते हुए उन्होंने कहा कि देवी ! मैं तीर्थयात्रा के लिए जा रहा हूँ अतः जब तक मैं लौटकर न आऊँ तब तक यहीं रहो , मेरे लौटकर आने के बाद चले जाना । कहा जाता है कि माना जी तीर्थयात्रा से कभी लौटकर नहीं आये और वचनबद्ध होने के कारण देवी वहीं विराजमान हो गई ।माना जाता है कि तबसे यहाँ पर देवी की पीठ ही पुजाने लगी । आज भी यहाँ पर 400 वर्षों से अखण्ड ज्योति अबाध रूप से जल रही है । यहाँ मंदिर परिसर में एक परम्परा यह भी है कि एक गुजराती परिवार के सदस्य ही दुर्गा सप्तशती का पाठ करते हैं और मीणों के राव भाट परिवार के सदस्य ही नगाड़े बजाते हैं । यह मंदिर चारों ओर परकोटे से घिरा हुआ है । यह गुफा मंदिर के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि मंदिर के गर्भगृह में एक विशाल चट्टान है जिस पर बनी चरण चौकी पर देवी की पाषाण प्रतिमा विराजमान है । मंदिर के तीन प्रवेश द्वार हैं जिनमें दो लघु आकार के हैं और एक जो मुख्य प्रवेश द्वार है वह दीर्घाकार और कलात्मक है । परिसर के मध्य स्थित देवी मंदिर में गुम्बद द्वार मण्डप और शिखर युक्त गर्भगृह है । गर्भगृह के प्रवेश द्वार की चौखट 5 गुणा 7 फुट आकार की है जिसमें भी देवी प्रतिमा तक जाने का गंतव्य मार्ग 3 गुणा 2 फुट का ही है । इसलिए इसमें झुककर ही प्रवेश करना पड़ता है और आज भी पुजारी झुककर ही पूजा करते हैं । मंदिर की विशेष खासियत यही है कि यहाँ पर देवी विग्रह के अग्रभाग की पूजा न होकर पृष्ठ भाग (पीठ) की पूजा की जाती है । यहाँ के स्थानीय निवासी इसे पीठ पुजाना भी कहते हैं । प्रतिदिन देवी की पीठ पर सिंदूर लगाया जाता है और कनेर के पत्तों से श्रृंगार किया जाता है । रोजाना दाल बाटी चूरमा का भोग लगाया जाता है । यह नन्दवाना बोहरा परिवार की आराध्य देवी मानी जाती है जिसमें माना जी नामक बोहरा का जन्म हुआ था । साथ ही गौतम ब्राह्मण भी इसे अपनी कुलदेवी मानकर पूजा करते हैं । मंदिर के परिक्रमा स्थल के मध्य में देवी के विग्रह का मुख भी है जहाँ पर भी लोग परिक्रमा देते समय ढोक लगाते हैं । मंदिर के दायीं ओर एक प्राचीन शिव मंदिर और नागा बाबाओं की समाधियाँ भी स्थित हैं ।यहाँ आने वाले हर दर्शनार्थी पीठ के ही दर्शन करते हैं । यहाँ श्रृंगार भी पीठ का ही होता है और भोग भी पीठ को ही लगाया जाता है तथा पीठ पर ही नेत्र स्थापित हैं । ब्रह्माणी माता के प्रति अंचल के लोगों में गहरी आस्था है । यहाँ आने वाले लोग मन्नत माँगते हैं और जिसकी मन्नत पूरी हो जाती है तो कोई पालना या झूला चढ़ाता है तो कोई चाँदी का छत्र । प्रतिवर्ष माघ मास की सप्तमी को मेला लगता है जिसमें रोज हजारों लोगों की भीड़ उमड़ती रहती है । यह मेला प्राचीनकाल में गर्दभ पशु मेले के रूप में जाना जाता था । देश के कई राज्यों से गधे खरीदने के लिए लोग आया करते थे परंतु अब गधों की अपेक्षा सिर्फ घोड़ों की खरीददारी होने लग गई । वर्तमान में यह पशु मेले के रूप में आयोजित होता है जिसमें मध्यप्रदेश , उत्तरप्रदेश से घोड़े खरीदने के लिए लोग आते हैं । माघ सप्तमी को सोरसन ग्राम पंचायत और मेला समिति के सहयोग से माता की विशाल शोभायात्रा निकाली जाती है जिसमें हजारों श्रद्धालु शामिल होते हैं । होली के त्योहार के 13 दिन बाद हाड़ौती के प्रसिद्ध तेरस के न्हाण के उपलक्ष्य में सांगोद में भी अखाड़ों और गाजे बाजे के साथ माता की झाँखी निकाली जाती है जिसे देखने के लिए दूरदराज के गाँवों से हजारों श्रद्धालु आते हैं । वर्तमान में यह क्षेत्र सोरसन अभयारण्य के रूप में भी संरक्षित है जहाँ पर राजस्थान के राजकीय पक्षी गोडावण को संरक्षण प्रदान किया गया । गोडावण के अलावा हिरण और प्रवासी पक्षी भी पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र बने रहते हैं । बारिश के दिनों में बहते झरने के सौंदर्य को देखने व पिकनिक मनाने के लिए पर्यटकों की काफी भीड़ लगी रहती है । मंदिर के पास ही स्थित कुंड और तालाब भी यहाँ आने वालों के लिए आकर्षण का केंद्र बना रहता है । परन्तु आज इस मंदिर को सरकार और प्रशासन की देखरेख की विशेष दरकार है तभी विश्व का एकमात्र यह ब्रह्माणी माता मंदिर विश्व में अपनी पहचान अक्षुण्ण बनाये रख सकेगा ।
नवीन गौतम

अभिजीत मुहूर्त में राम मंदिर निर्माण भूमि पूजन करना कैसा रहेगा ? – शुभ या अशुभ आईये जानें

5 अगस्त 2020 को सनातन हिन्दू धर्म के प्रतीक भगवान राम के मंदिर का भूमि पूजन किया जाएगा। राम मंदिर निर्माण का शुभ मुहूर्त अभिजीत मुहूर्त में रखा गया है। घनिष्ठा नक्षत्र में यह शुभ कार्य शुरु होगा और शतभिषा नक्षत्र में मुहुर्त कार्य संपन्न होने के योग बन रहे हैं। 5 अगस्त 2020 के दिन मुहूर्त का समय 32 सेकेंड का रखा गया है। दोपहर 12 बजकर 44 मिनट 8 सेकेंड से 12 बजकर 44 मिनट 40 सेकेंड के बीच है। इस समयावधि में नींव की प्रथम ईंट रखनी आवश्यक है। 

राम मंदिर निर्माण का भूमि पूजन होने के साथ ही राम राज्य की नींच, राम राज्य का शुभारम्भ हो जाएगा। अभिजीत मुहूर्त में भूमि पूजन कार्य करने की बात जब से खबरों में सामने आई है, तब से इस मुहूर्त को लेकर अनेक विवाद और मतभेद भी सामने आ रहे हैं। सभी यह जानने के इच्छुक है कि क्या यह मुहूर्त शुभ हैं या अशुभ हैं। राम मंदिर निर्माण भूमि पूजन मुहूर्त से जुड़े सवालों को ध्यान में रखते हुए, आज हम इस आलेख के माध्यम से हम सभी सवालों का जवाब देने का प्रयास करेंगे- 

सामान्यजन के शब्दों में मुहूर्त शब्द से अभिप्राय ऐसे समय / काल से हैं जो शुभ कार्यों के योग्य हो। अर्थात ऐसा काल जिसमें शुभता का अंश हों, जो शुभता से युक्त होकर अशुभता से मुक्त हों, वही मुहूर्त है। सामान्यता एक मुहूर्त दो घटी का समय काल होता है। दो घटी को हम 48 मिनट का समय भी कह सकते हैं। इस प्रकार मुहूर्त से अर्थ 48 मिनट की ऐसी शुभ घड़ी हैं जिसमें शुभता का अंश हों, जिससे संबंधित कार्य की कार्यसिद्धि की प्राप्ति हो। किसी भी मुहूर्त में तीन विषयों का होना आवश्यक है।

  • प्रथम कार्यसिद्धि की प्राप्ति हों, अर्थात कार्य से जुड़ा उद्देस्य पूर्ण हों।
  • द्वितीय कार्य सहजता से पूर्ण हों।
  • तृतीय कार्य बाधारहित पूर्ण हों।

राम मंदिर निर्माण भूमि पूजन मुहूर्त में उपरोक्त सभी उद्द्श्यों को ध्यान में रखते हुए ही मुहूर्त तय किया गया है। अभिजीत मुहूर्त अपने नाम के अनुरुप फल देने वाला मुहूर्त कहा गया है।

आईये अब अभिजीत मुहूर्त के विषय में भी जान लेते हैं कि अभिजीत मुहूर्त से क्या अभिप्राय है-  किसी भी दिन के मध्य भाग से पूर्व के 12 मिनट का समय और मध्य भाग के बाद के 12 मिनट का समय अभिजीत मुहूर्त समय के नाम से जाना जाता है। ऐसा माना जाता है कि अभिजीत मुहूर्त में किए जाने वाले सभी कार्य सफल होते हैं और व्यक्ति को कार्यसिद्धि की प्राप्ति होती है।  दिन का आठवां मुहूर्त होने के नाते  इसे आठवां मुहूर्त का नाम भी दिया जाता है। ज्योतिष विद्या में मुहूर्त शास्त्रों को विशेष महत्व दिया गया है। मुहूर्त शास्त्र जिसमें मुहूर्त मार्तंड, मुहूर्त चिंतामणि, मुहूर्त चूड़ामणि, मुहूर्त माला, मुहूर्त गणपति, मुहूर्त कल्पद्रुम, मुहूर्त सिंधु, मुहूर्त प्रकाश, मुहूर्त दीपक इत्यादि महान ग्रंथों का अध्ययन करने पर हम यह पाते हैं, वैसे तो अभिजीत मुहूर्त में सभी शुभ कार्यों का प्रारम्भ किया जा सकता है।

अभिजीत मुहूर्त के विषय में सभी शास्त्र यह कहते हैं कि यह अत्यंत शुभ मुहूर्त हैं।  परन्तु इस मुहूर्त को बुधवार के दिन प्रयोग नहीं करना चाहिए। अर्थात सभी मुहूर्त शास्त्रों में अभिजीत काल को बुधवार के दिन त्याज्य कहा गया है। 

पंचांग शुद्धि , लग्न शुद्धि के बाद अन्य मुहूर्त नियमों का पालन अवश्य करना चाहिए।  यहां यह जान लेना सही रहेगा कि  मुहूर्त दो तरह के होते हैं शुभ मुहूर्त और अशुभ मुहूर्त। शुभ को ग्राह्य समय और अशुभ को अग्राह्‍य समय कहते हैं। शुभ मुहूर्त में रुद्र, श्‍वेत, मित्र, सारभट, सावित्र, वैराज, विश्वावसु, अभिजित, रोहिण, बल, विजय, र्नेत, वरुण सौम्य और भग ये 15 मुहूर्त है। रविवार के दिन चौदहवां सोमवार के दिन बारहवां, मंगलवार के दिन दसवां, बुधवार के दिन आठवां, गुरु के दिन छ्ठवां, शुक्रवार के दिन चौथा और शनिवार के दिन दूसरा मुहूर्त कुलिक शुभ कार्यों में वर्जित हैं।

पंचांग शुद्धि , लग्न शुद्धि के बाद अन्य मुहूर्त नियमों का पालन अवश्य करना चाहिए। इस प्रकार देखें तो अभिजीत मुहूर्त में राम मंदिर निर्माण का भूमि पूजन मुहूर्त बुधवार अभिजीत काल में करना शुभ न होकर अशुभ है। जहां तक संभव हो इसका त्याग करना ही उचित रहेगा। मुहूर्त में शुभता की कमी कार्यसिद्धि में बाधक का कार्य करती हैं, और विवादों के जन्म का कारण बनती है।  

सच्चे मित्र की पहचान


मित्र वहीं जो बुरे वक़्त पर तुम्हारे काम आए।
बने सुख दुख का साथी सच्चा मित्र कहलाए।।

बन जायेगे सभी मित्र जब दौलत है होती।
बने उस वक़्त वह मित्र जब गरीबी है होती।।

देते है इसलिए कृष्ण सुदामा का उदाहरण।
एक था राजा दूसरा था गरीब बेचारा ब्राह्मण।।

मित्र वही हैं जो तेरे आंसू देख खुद रो जाए।
मिले एक रोटी दोनों बाट आधी आधी खाए।।

खून के रिश्ते से मित्रता का रिश्ता बड़ा है होता।
दुनिया के हर रिश्ते से ये रिश्ता अलग है होता।।

मित्र वही है जो एक आंसू से तुम्हे नहला दे।
बुरे वक़्त और बीमारी पर तुम्हे सहला दे।।

मित्र वही है जो तुमको रोते हुए भी oबहला दे।
खुद न खाकर अपने मुंह का गस्सा तुम्हे खिला दे।।

आर के रस्तोगी