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सात शव और एक सवाल: हम सब कब जागेंगे?

 “मरते एक हैं, दोषी हम सब हैं”

 “मौन अपराध है: पंचकूला की त्रासदी से सीख”

 “हर आत्महत्या एक पुकार है, क्या हम सुन रहे हैं?”

“जब रिश्ते रह गए सिर्फ़ त्योहारों तक”

 “आर्थिक तंगी से नहीं, सामाजिक बेरुख़ी से मरे वो लोग”

सिर्फ़ खबर नहीं थी वो, एक सामूहिक अपराध का दस्तावेज़ थी

> “आखिरकार छोड़कर तो सब कुछ यहीं जाना है। ऐसे में यदि किसी जरूरतमंद अपने की सहायता कर दी जाए, तो हम वैसे अपराध से बच सकते हैं जिससे प्रवीण मित्तल के अपने नहीं बच सके।”

पंचकूला में एक ही परिवार के सात सदस्यों ने सामूहिक आत्महत्या कर ली। ये पंक्तियाँ लिखते हुए हाथ काँपते हैं, और मन बार-बार वहीं लौट जाता है — उस बंद दरवाज़े के पीछे, जहाँ हर उम्र की उम्मीद दम तोड़ चुकी थी। उस दृश्य को केवल “सामूहिक आत्महत्या” कह देना एक आसान भागदौड़ है। असल में, यह एक सामूहिक सामाजिक असफलता है, जिसमें हम सब — पड़ोसी, रिश्तेदार, संस्थाएं, सरकारें — कहीं न कहीं सहभागी हैं।

चुप्पियों की चीत्कार

जब कोई आत्महत्या करता है, तो वह सिर्फ़ जीवन नहीं खोता, वह समाज से हार जाता है। वह संकेत देता है कि उसने बहुत पुकारा, बहुत झेला, बहुत सहा — और फिर, थककर ख़ामोशी चुन ली।

प्रवीण मित्तल और उनका परिवार भी शायद चुप नहीं था, बस उनकी आवाज़ों को हमने अनसुना कर दिया।

> “उसने क्यों नहीं बताया?”

शायद इसलिए नहीं बताया कि हर बार जब वह टूटा, हम सब अपने-अपने मोबाइलों में व्यस्त थे।

शायद इसलिए नहीं बताया कि गरीबी, कर्ज, और असफलता को अब भी हम शर्म से जोड़ते हैं, सहानुभूति से नहीं।

हम सब थोड़े-थोड़े दोषी हैं

हर आत्महत्या के पीछे कोई एक कारण नहीं होता, बल्कि एक सामाजिक ढांचा होता है — जिसमें व्यक्ति आर्थिक रूप से टूटता है, भावनात्मक रूप से अकेला पड़ता है, और फिर आत्मसम्मान की चादर ओढ़कर चुपचाप चला जाता है।

यह घटना भी वैसी ही थी। एक व्यापारी जो कभी आत्मनिर्भर था, आज बैंक और साहूकारों के बोझ में दबकर ख़त्म हो गया। उसके बच्चे, जो दुनिया देखना चाहते थे, अपने भविष्य को ही दफ़न कर बैठे।

क्या कोई भी पड़ोसी, रिश्तेदार या दोस्त इतना पास नहीं था कि उसकी पीड़ा जान सके?

मौन भी अपराध है

हम अक्सर अपराध को केवल ‘किया हुआ’ समझते हैं — पर सच यह है कि जो समय पर कुछ नहीं करते, वे भी अपराध में सहभागी होते हैं।

अगर एक दोस्त, एक भाई, एक ग्राहक, एक पड़ोसी — समय पर एक बात भी कह देता, “चलो, कुछ करते हैं,” तो शायद इन सात जीवनों को बचाया जा सकता था।

क्या आत्महत्या एक विकल्प है? नहीं, पर कभी-कभी लगती है।

हमारे देश में मानसिक स्वास्थ्य अब भी ‘कमज़ोरी’ माना जाता है। आर्थिक संकट को ‘कर्मों की सज़ा’ समझ लिया जाता है। और मदद माँगना तो जैसे अपराध है।

एक खुद्दार व्यक्ति जब हार मानता है, तो इसका मतलब है कि उसने हिम्मत नहीं हारी, बल्कि समाज से उम्मीद ही छोड़ दी।

क्या इस परिवार को आत्महत्या से रोका जा सकता था?

हाँ। बिल्कुल हाँ।

अगर सरकारी योजनाएं ठीक से काम कर रही होतीं।

अगर कर्ज़ माफ़ी की प्रक्रिया मानवीय होती।

अगर पड़ोसियों में संवेदना होती।

अगर कोई रिश्ता इतना सजीव होता कि दरवाज़ा खटखटा देता।

हम क्या कर सकते हैं?

1. संवेदनशील बने रहें – अगली बार जब कोई चुप हो, तो उसका हाल ज़रूर पूछें।

2. मदद करें – यह ज़रूरी नहीं कि आप लाखों रुपये दे सकें, पर एक कंधा, एक बात, एक रास्ता बहुत बड़ा सहारा हो सकता है।

3. संकट में अपनों को न छोड़ें – जब कोई तकलीफ़ में हो, तो उससे दूरी न बनाएं। यही वो समय होता है जब सबसे ज़्यादा साथ की ज़रूरत होती है।

4. सरकार और प्रशासन से माँग करें – आत्महत्या की घटनाओं की सिर्फ़ जाँच न हो, उनसे सबक लेकर सामाजिक सुरक्षा ढाँचा और मज़बूत किया जाए।

5. अपने बच्चों को सिखाएँ कि हार इंसान को नहीं, इंसान हार को बदल सकता है।

मीडिया की भूमिका: सहानुभूति या सनसनी?

इस घटना को मीडिया ने खूब चलाया। हर चैनल पर हेडलाइन थी –

“सात लोगों की सामूहिक आत्महत्या से हड़कंप!”

“सुसाइड नोट में लिखी दर्दनाक बातें!”

पर सवाल है — क्या मीडिया ने इसे एक मानवीय संकट की तरह देखा, या TRP का मौका?

इस परिघटना को सनसनीखेज बनाना बहुत आसान है,

पर यह समझना जरूरी है कि किसी की मौत को खबर बनाना नहीं,

किसी की जिंदगी को बचाना ज़्यादा महत्वपूर्ण है।

मीडिया को चाहिए कि वह ऐसी घटनाओं को नीतिगत बदलाव, सामाजिक सुधार, और मानसिक स्वास्थ्य जागरूकता की दिशा में ले जाए, न कि केवल एक रोचक सामग्री की तरह पेश करे।

हर आत्महत्या के बाद एक सवाल हमारे सामने होता है – अब क्या?

अब रोने से कुछ नहीं बदलेगा। अब अफ़सोस से आत्मग्लानि मिटेगी नहीं।

अब समय है कि हम अपने-अपने जीवन के छोटे-छोटे दायरों में सजीव संवेदनशीलता को वापस लाएँ।

हर पड़ोसी, हर दोस्त, हर रिश्तेदार — अब एक वचन लें:

“मैं किसी अपने को यूँ अकेला नहीं मरने दूँगा।”

अंतिम बात: चुप रहना अब अपराध है

आज, जब हम इस त्रासदी के बाद दुःखी हैं, एक सवाल हमारे सामने खड़ा है —

“क्या हम अगली प्रवीण मित्तल कहानी को होने से रोक पाएँगे?”

शायद हाँ —

अगर हम अपने जीवन में थोड़ा ठहराव लाएँ,

अगर हम रिश्तों को केवल औपचारिकता नहीं, संवेदना का माध्यम मानें,

अगर हम यह मान लें कि चुप रहना भी एक किस्म का अपराध है।

इस बार मोमबत्तियाँ नहीं जलाइए,

एक संकल्प लीजिए —

“मैं किसी अपने को इस कदर टूटने नहीं दूँगा कि वो मरना चुने, जीना नहीं।”

अंत में, प्रार्थना नहीं — प्रतिज्ञा चाहिए।

इस बार मोमबत्तियाँ न जलाइए, संकल्प कीजिए।

कि अगली बार कोई प्रवीण मित्तल न मरे।

कोई बच्चा ज़हर न खाए।

कोई माँ अपनी आँखों से अपने सपनों को फांसी पर झूलते न देखे।

और अगर फिर भी कुछ न कर सकें,

तो कम से कम इतना ज़रूर करें —

चुप न रहें।

क्यों बिगड़ रहा है शादियों का मिजाज

भाषणा बंसल गुप्ता

समझ नहीं आती कि हमारे समाज में हो क्या रहा है। एक तरफ इतने सारे अतुल सुभाष हैं और दूसरी तरफ बहुत-सी विक्टिम लड़कियां भी हैं जो ससुराल के टॉक्सिक माहौल को झेल रही हैं, प्रताड़ित हो रही हैं और चाहकर भी उससे बाहर नहीं निकल पा रही हैं।

शादी अब नहीं रही पवित्र बंधन

शादियां एक तमाशा बनकर रह गई हैं। कुछेक सालों में शादियों की जो हालत हुई है, उसे देखकर कह ही नहीं सकते कि लोग शादी को गंभीरता से लेते हैं। एक लड़की ने केवल इसलिए शादी कर ली क्योंकि वो वेडिंग ड्रेस में फोटोशूट कराना चाहती थी। एक जगह बारात को रसगुल्ला न परोसे जाने की वजह से दूल्हे ने नाराज होकर शादी तोड़ दी। कहीं पर बारात को खाना परोसने में देर हुई तो दूल्हा नाराज हो गया और अपनी शादी बीच में छोड़कर चला गया। यही नहीं, उसने उसी दिन किसी और से शादी भी कर ली।

छोटे शहरों, यहां तक कि मेट्रो सिटीज में लुटेरी दुल्हनें हैं जो कई-कई लड़कों के साथ शादी करके कुछ घंटों, दिनों या महीनों बाद ससुराल वालों को लूटकर फरार हो जाती हैं। “डॉली की डोली” फिल्म ऐसी लुटेरी दुल्हन की कहानी पर ही बनी थी। असलियत में तो लुटेरी दुल्हनें इससे कई कदम आगे चल रही हैं।

लुटेरे दूल्हे भी एक्टिव हो रहे हैं। कुछ महीने पहले बैंग्लोर के एक लड़के ने लगभग 15 महिलाओं को शादी करके लूट लिया। बिल्कुल लुटेरी दुल्हनों की तर्ज पर। फिल्म “फ्रॉड सईयां” इसी विषय पर बनी है, जिसमें एक्टर अरशद वारसी लुटेरा दूल्हा बने हैं।

शादी करते वक्त नहीं देते हैं ध्यान

अंतर्राष्ट्रीय प्राइवेट डिटेक्टिव राहुल राय गुप्ता का कहना है, “लोग शादी से पहले पूरी तरह से छानबीन नहीं करते। बस शक्ल देखते हैं, काम देखते हैं, परिवार में कौन-कौन है, घर अपना है या किराए का, इतना जानना उनके लिए काफी होता है। जबकि ऐसी और बहुत-सी बातें होती हैं, जो रिश्ता पक्का करने से पहले पता होनी चाहिएं। जैसे जो रिश्ता आप कंसीडर कर रहे हैं, कहीं वो क्रिमिनल माइंड का तो नहीं है। कहीं उसकी पहले शादी तो नहीं हुई है। अगर उसका पहले से अफेयर था तो कहीं उसका एक्स क्रिमिनल माइंडेड तो नहीं है, जिससे आपकी आने वाली जिंदगी प्रभावित हो सकती है। लुटेरी दुल्हनें और लुटेरे दूल्हे इसीलिए सफल हो रहे हैं क्योंकि लोग शादी से पहले होने वाले पार्टनर की हिस्ट्री चेक नहीं करते। वो सोचते हैं कि हिस्ट्री से क्या लेना-देना। बहुत-सी मुलाकातों के बाद भी लोगों को एक-दूसरे का हर सच पता नहीं होता। दोनों अपना-अपना वर्जन बताते हैं, अपने परिवार को लेकर, रिश्तों, दोस्तों, नौकरी को लेकर, और उसे ही सच मान लिया जाता है। गहराई से कोई इस बात पर ध्यान ही नहीं देता कि उनकी कही बातें झूठी भी हो सकती हैं।”

ये तो मानना पड़ेगा कि लोगों की जानकारी में कहीं तो कमी रह जाती है, तभी तो उनको पता नहीं चलता कि जिसके साथ वो सात फेरे ले रहे हैं, उसके पता नहीं कितने फेरे हो चुके हैं। मेट्रिमोनियल साइट्स पर देखे रिश्तों पर लोग आंख मूंदकर भरोसा करते हैं। जयपुर में जो लुटेरी दुल्हन पकड़ी गई थी, वो एक मशहूर मेट्रिमोनियल साइट पर ही मिली थी।

आखिर ऐसा क्या बदल गया

शादियों का ये मिजाज समझ से परे है। सिंगल मदर्स और सिंगल फादर्स की संख्या तेजी से बढ़ रही है। इससे बच्चों का फ्यूचर काफी प्रभावित हो रहा है।

मनोवैज्ञानिक और मैरिज काउंसलर शिवानी मिसरी साधु बताती हैं, “आजकल के कपल्स अपने कैरियर, आर्थिक जिम्मेदारियों और निजी महत्वाकांक्षाओं की वजह से तनावग्रस्त रहते हैं और साथ में क्वालिटी टाइम नहीं बिता पाते। ज्यादातर मामलों में कपल्स को समझ ही नहीं होती कि वो अपने विवादों को कैसे सुलझाएं। जिससे उनके बीच की छोटी-मोटी असहमतियां कब बड़ा मुद्दा बन जाती हैं, उन्हें पता ही नहीं चलता।”

अंतर्राष्ट्रीय मनोवैज्ञानिक डॉ. कशिका जैन का मानना है, “डेटिंग ऐप्स और सोशल मीडिया के कारण रिश्ते तेजी से बनते हैं, लेकिन अकसर रिश्तों में गहराई की कमी होती है। इसी के कारण कपल्स एक-दूसरे के प्रति समर्पण नहीं दिखाते, जिम्मेदारी नहीं बांटते तो संघर्ष बढ़ता है। पति-पत्नी के बीच खुलकर बातचीत न होना, समस्याओं और भावनाओं को सही तरीके से व्यक्त न कर पाना, रिश्ते में दरार का बड़ा कारण है। पहले तलाक को कलंक माना जाता था। अब इसे ‘नई शुरुआत’ के रूप में देखा जाता है।”

सोशल मीडिया की भूमिका  

डॉ. कशिका जैन कहती हैं, “सोशल मीडिया पर परफेक्ट कपल्स की तस्वीरें देखकर लोग उनसे अपनी शादी की, सुविधाओं की, पार्टनर की तुलना करने लगते हैं। इससे रिश्ते में असंतोष बढ़ता है। सोशल मीडिया और फिल्मों की देखादेखी लोग अपने जीवनसाथी से बेवजह की उम्मीदें रखने लगे हैं, जो पूरी नहीं होती हैं तो रिश्तों में तनाव आता है। चमक-धमक और रुतबा बनाए रखने की चाहत और उस पर बढ़ती महंगाई, कर्ज का बोझ, और दोनों की अलग-अलग आर्थिक प्राथमिकताओं के कारण रिश्ते पर असर पड़ता है।”

डिटेक्टिव राहुल राय गुप्ता कहते हैं, “हर कोई अपनी शादी को अच्छा दिखाना चाहता है। शादी के फंक्शन्स तक तो सब खुश होते हैं, लेकिन असली जिंदगी में कदम रखते ही पैसों को लेकर झगड़े होने लगते हैं। कई कपल्स अपने छोटे-मोटे झगड़ों को भी सोशल मीडिया पर पोस्ट कर देते हैं। असल में वो पूरी दुनिया के सामने खुद को विक्टिम शो करना चाहते हैं और उनको हमदर्दी मिल भी जाती है। लेकिन उनके पार्टनर पर इसका गलत असर पड़ता है। उसके अहं को चोट पहुंचती है। दोनों के बीच फासले बढ़ने लगते हैं। कम्युनिकेशन गैप आ जाता है, जिससे रिश्ता खराब होने लगता है।”

रिश्ता करते वक्त पारदर्शिता है जरूरी

शादी से पहले चीजें जितनी साफ होंगी, शादी सफल होने की संभावना उतनी ज्यादा बढ़ेगी। लेकिन हमारे समाज में शादी के लिए रिश्ता तय करते समय बहुत दिखावा किया जाता है।

डिटेक्टिव राहुल राय गुप्ता कहते हैं, “अकसर लोग शादी से पहले बहुत-सी बातें छिपा लेते हैं। कोई बीमारी, कोई ऐसा अतीत, जिससे शादी प्रभावित हो सकती है। लड़के या लड़की का काम या फैमिली की कोई ऐसी बात, जिससे बदनामी होने का डर हो। उनका फोकस इस बात पर होता है कि बस किसी तरह रिश्ता पक्का हो जाए। बाद की बाद में देखी जाएगी। लेकिन शादी के बाद वही बातें जब खुलती हैं तो शादी टूटने की नौबत आ जाती है।”

शादी से डरने लगा है युवावर्ग

शादियों का ऐसा मंजर देखकर आज के बहुत-से यंगस्टर्स शादी को खौफनाक समझने लगे हैं।

शिवानी मिसरी साधु युवाओं को ये सलाह देती हैं कि, “मौजूदा हालातों में शादी डरावनी लग सकती है लेकिन सही माइंडसेट होने से ये डर खत्म हो सकता है। युवाओं को ये याद रखना चाहिए कि शादी एक पार्टनरशिप है, कोई दौड़ या जिम्मेदारी नहीं। पार्टनर ढूंढने से पहले अपने मूल्यों, लक्ष्यों, प्राथमिकताओं पर गौर करें। होने वाले पार्टनर से खुलकर बातचीत करें, अपनी उम्मीदों और भविष्य की योजनाओं के बारे में बताएं। कोई भी शादी परफेक्ट नहीं होती। लेकिन धैर्य और आपसी सम्मान होने से चुनौतियों का सामना किया जा सकता है। समाज के प्रेशर में न आएं। शादी तभी करें, जब आप मानसिक रूप से तैयार हों।”

डॉ. कशिका जैन सुझाव देती हैं कि, “बातचीत को प्राथमिकता दें। एक-दूसरे को आजादी दें। फैमिली के दखल को कम करें। दोनों परिवारों के साथ संबंधों को संतुलित करें। सोशल मीडिया का प्रयोग कम करें। रिश्ते में असुरक्षा और तुलना से बचें। समस्या बढ़ जाए तो पेशेवर मदद लेने में न हिचकिचाएं। धैर्य, आजादी, छोटी छोटी बातों को संभालने की समझदारी और बातचीत जरूरी है। सप्ताह में एक बार डिजीटल डिटॉक्स करें। एक बार डेट नाइट रखें।”

डिटेक्टिव राहुल राय गुप्ता के सुझाव हैं कि “यंगस्टर्स को शादी करने से पहले खुद को पूरी तरह तैयार करना चाहिए। दिखावे को छोड़कर असली जिंदगी जीना सीखें। वर्चुअल दुनिया को केवल मनोरंजन तक सीमित रखें। शादी के बाद हर जिम्मेदारी को बांटें। एक-दूसरे को स्पेस दें। छोटी-छोटी चीजों में खुशियां तलाशें। आर्थिक मामले मिलकर संभालें ताकि एक पर बोझ न पड़े। सपने पूरे करने में एक-दूसरे का साथ दें। एक-दूसरे के पेरेंट्स की जिम्मेदारी मिलकर संभालें। जेंडर को कभी रिश्ते के बीच में न लाएं क्योंकि अब जमाना बहुत बदल चुका है। समय के साथ चलना सीखें।”

क्या हो समाज की भागीदारी

डॉ. कशिका जैन बताती हैं, “बेटी के माता पिता भी लड़की के परिवार में बहुत ज्यादा दखलअंदाज़ी करने लगे हैं। उनके इस दखल की वजह से लड़की को छोटी बात कभी-कभी बड़ी लगने लगती है और रिश्ता ज्यादा खराब हो जाता है।”

राहुल राय गुप्ता कहते हैं, “हमारे समाज को शादियों को लेकर प्रेक्टिकल दृष्टिकोण अपनाना होगा। शादी केवल इसलिए नहीं होनी चाहिए क्योंकि उम्र हो गई है। या कैरियर बन चुका है, तो शादी कर लो। बल्कि शादी तब होनी चाहिए, जब लड़का-लड़की दोनों पूरी तरह से तैयार हों। आजकल कई कपल्स इसलिए भी शादी बचाने की ज्यादा कोशिश नहीं करते क्योंकि वो शादी करना ही नहीं चाहते थे। करीब 80 प्रतिशत शादियां किसी न किसी दबाव के कारण होती हैं। उनमें से ज्यादातर शादियों के न चलने की यही मुख्य वजह होती है।”

मैरिज काउंसलर शिवानी मिसरी साधु के मुताबिक, “समाज और परिवार, कपल्स में आपसी समझ, सहयोग और बराबरी के कल्चर को विकसित करके उनकी मदद कर सकते हैं। साथ ही वे उनसे बेतहाशा उम्मीदें रखने या बेवजह दखल देने की बजाय उनको भावनात्मक सहयोग देकर उनका साथ दे सकते हैं। हमारा समाज दहेज, लिंगभेद या समय से पहले शादी जैसे सामाजिक दबावों को खत्म करके, कपल्स को ऐसा माहौल दे सकता है, जहां शादी को प्यार, भरोसे और साझे मूल्यों के आधार पर आगे बढ़ाया जाए।”

कपल्स खुद, उनका परिवार और समाज मिलकर कोशिश करें तो शादी जरूर सफल होगी। इसके लिए सबको अपनी-अपनी जिम्मेदारी बखूबी संभालनी होगी ताकि शादी के इंस्टीट्यूशन को बचाया जा सके।

भाषणा बंसल गुप्ता

बर्बादी के बटन पर उंगलियां : सोशल मीडिया की गहराई में डूबता बचपन

उमेश कुमार साहू

“जब एक बच्चा अपने खिलौनों से नहीं, कैमरे के एंगल से खेलना शुरू कर दे, तो समझ लीजिए… बचपन अब मासूम नहीं रहा।”

आज की पीढ़ी के बच्चे किताबों में नहीं, की-बोर्ड में खो गए हैं। वे रिश्तों में नहीं, रील्स में जी रहे हैं। और यह सब हो रहा है एक ऐसे माध्यम की वजह से, जिसे हम ‘सोशल’ मीडिया कहते हैं लेकिन असल में यह बच्चों को धीरे-धीरे ‘असामाजिक’ बना रहा है, खुद से, अपनों से और अपने सपनों से।

क्लिक से क्लासरूम तक का अपहरण

कोविड के बाद जब बच्चों के हाथ में मजबूरी में मोबाइल आया, तब किसी ने नहीं सोचा था कि ये स्क्रीन उनकी दुनिया पर राज करने लगेगी। क्लास खत्म होने के बाद भी मोबाइल खत्म नहीं हुआ। क्लास की जगह कैमरा ले बैठा, किताबों की जगह कंटेंट आ गया, और संवाद की जगह साउंड इफेक्ट्स।

अब बच्चा किताब खोलने से पहले कैमरा खोलता है। ‘गुड मॉर्निंग’ कहने से पहले ‘रिल’ अपलोड करता है। यह बदलाव नहीं, बर्बादी की शुरुआत है। और हम सभी इसकी मूक गवाही दे रहे हैं।

दिमागी डेटा फुल लेकिन ज्ञान जीरो

सोचिए! एक 10 साल का बच्चा 100 गानों की लिप्सिंग कर सकता है, लेकिन अपनी कक्षा की कविता की दो पंक्तियाँ याद नहीं कर सकता। वो सोशल मीडिया ट्रेंड्स की बात करता है, पर देश-दुनिया की खबरों से बेखबर है। यह ज्ञान नहीं, ‘ग्लैमर’ का बोझ है, जो बचपन की रीढ़ तोड़ रहा है।

हर ‘लाइक’ के पीछे एक अकेला दिल

बच्चे अब रियलिटी से नहीं, वर्चुअल दुनिया से अपनापन तलाश रहे हैं। उन्हें लगता है कि जितना ज्यादा ‘लाइक’, उतनी ज्यादा क़द्र। पर सच तो यह है कि सोशल मीडिया ने उन्हें अंदर से खोखला कर दिया है। आत्म-संयम, धैर्य, मेहनत, आदर्श। सब कुछ एक-एक करके छीन लिया गया है।

और सबसे खतरनाक बात, वे जो नहीं हैं, वो बनने की कोशिश कर रहे हैं। नकली हंसी, बनावटी पोज, दिखावे के डायलॉग्स। ये सब उन्हें धीरे-धीरे खुद से दूर कर रहे हैं।

माँ-बाप, आप सिर्फ दर्शक नहीं, दिशा हैं!

सवाल उठता है, क्या इस बर्बादी के लिए सिर्फ बच्चे जिम्मेदार हैं? नहीं! दरअसल, हम माता-पिता ने भी उन्हें इस दलदल में धकेला है। मोबाइल देकर हम शांत हो गए, पर यह भूल गए कि वो मोबाइल क्या-क्या सिखा रहा है।

ज़रूरत है कि अब हम बच्चों के दोस्त बनें, उनके गाइड बनें। हर दिन कुछ वक्त बिना फोन बिताएं, उनसे बातें करें, उनकी दुनिया में दिलचस्पी दिखाएं। ये बातें सुनने में मामूली लगती हैं, लेकिन असर गहरा होता है।

समाधान सिर्फ नियंत्रण नहीं, संबंध है।

बच्चों को मोबाइल से दूर करना है तो उन्हें जीवन से जोड़ना होगा। उन्हें सिखाएं कि ‘वायरल’ होने से कहीं बेहतर है ‘वैल्यू’ वाला इंसान बनना। उन्हें खेल, कला, किताब, प्रकृति और रिश्तों की ओर मोड़ें।

स्कूलों में डिजिटल हेल्थ की शिक्षा दी जाए। परिवारों में हर दिन ‘नो स्क्रीन टाइम’ लागू हो। और समाज मिलकर यह तय करे कि ‘रील’ से पहले ‘रियल’ ज़िंदगी ज़रूरी है।

अंत में बस यही सवाल…

क्या हम अगली पीढ़ी को ‘डिजिटल एडिक्ट’ बनने देंगे?

या उन्हें फिर से इंसानियत, संवेदनशीलता और समझ की राह पर लाएंगे?

क्योंकि बच्चे वो बीज हैं,

जिन्हें मोबाइल की गर्मी नहीं,

मिट्टी की ठंडक चाहिए।

उमेश कुमार साहू

राष्ट्र रक्षा सभी का धर्म बने

डा.वेदप्रकाश

    राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने एक मंत्र दिया- इदं राष्ट्राय इदं न मम् अर्थात् मेरा कुछ भी नहीं है, मेरा सब कुछ राष्ट्र के लिए है अथवा राष्ट्र को समर्पित है। क्या आज जब भारत सशक्त, समृद्ध , आत्मनिर्भर और विकसित भारत का संकल्प लेकर आगे बढ़ रहा है और जब पड़ोसी देशों के साथ आतंकवाद जैसे गंभीर मुद्दों पर संघर्ष भी लगातार बढ़ रहा है, क्या तब यह मंत्र सभी को आत्मसात नहीं करना चाहिए? क्या यह समय जाति, संप्रदाय, भाषा अथवा क्षेत्रीयता के आधार पर आपसी वैमनस्य फैलाने का है? क्या ऐसे में देव भक्ति अपनी-अपनी और राष्ट्रभक्ति मिलकर करने की आवश्यकता नहीं है? क्या भारतवर्ष के स्वतंत्रता संग्राम में अनेक बलिदानी राष्ट्र रक्षा को ही अपना धर्म बनाकर बलिवेदी पर नहीं चढ़े?


    भूमि,जन, संस्कृति, प्रकृति-पर्यावरण, आचार और व्यवहार की विविधता मिलकर राष्ट्र की संकल्पना को आकार देते हैं। जन के लिए यह आवश्यक है कि वह भूमि को माता मानकर मानवता के कल्याण की संस्कृति का पालन और निर्माण करें। प्रकृति-पर्यावरण के बिना किसी भी जीवधारी का जीवन संभव नहीं है इसलिए इनके संरक्षण-संवर्धन हेतु भी कार्य करें। साथ ही वे ऐसे आचार और व्यवहारों का अनुसरण करें जिनमें सर्वे भवंतु सुखिन: की कामना निहित हो।


       विश्व ज्ञान के आदि ग्रंथ ऋग्वेद में इसी जन को केंद्र में रखकर सबसे पहले उसे मनुर्भव… अर्थात मनुष्य बनने का उपदेश है। तदुपरांत उसे वसुधैव कुटुंबकम का मंत्र देते हुए  सर्वे भवंतु के सुख की कामना की गई है। ध्यान रहे भारतीय चिंतन में जन का आह्वान है- माताभूमि: पुत्रोअहं…अर्थात यह भूमि मेरी माता है और मैं इसका पुत्र हूं। क्या इसके मूल में मातृभूमि की रक्षा का संकल्प और संदेश निहित नहीं है? आज यह समझने की आवश्यकता है कि राष्ट्र रक्षा स्वयं के अस्तित्वबोध व आत्मबोध का भी विषय है। हमारी धार्मिक मान्यताएं, पूजा पद्धतियां और उनका पालन हम अपने राष्ट्र की सीमाओं में रहकर ही सहजता से कर पाते हैं, इसलिए यदि राष्ट्र सुरक्षित होगा तो ही हम सुरक्षित रह सकते हैं, राष्ट्र के बिना हमारा कोई अस्तित्व नहीं है। सर्वविदित है कि अतीत में भारतवर्ष ने भिन्न-भिन्न कारणों से लंबे समय तक विदेशी दासता और अत्याचार झेले हैं। इस लंबे कालखंड में विदेशी आक्रांताओं एवं शासकों से अनेक युद्ध और संघर्षों से भी गुजरना पड़ा। अनेक कष्ट सहकर और अनेकानेक  बलिदानों के बाद भी राष्ट्र रक्षा के लिए यहां का जन जन सर्वस्व अर्पण करता रहा है। सैनिक सीमा पर केवल वेतन के लिए नहीं खड़ा होता अपितु वह वतन और उसकी रक्षा को धर्म मानकर लड़ता है।
     स्वतंत्रता के बाद औपनिवेशिक विचारों की व्यापकता, राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं एवं विभिन्न स्वार्थों के कारण कुछ कथित संगठन बनाकर और व्यक्तिगत रूप से समाज और राष्ट्र को कमजोर करने हेतु प्रयास करते रहे हैं। जन भागीदारी का संबल पाकर यह राष्ट्र विकसित भारत का संकल्प लेकर जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा है वैसे-वैसे कथित बुद्धिजीवी भारत विरोध हेतु एकजुट होकर इकोसिस्टम में काम करने लगते हैं। ऐसे लोग कभी जाति,संप्रदाय अथवा भाषा के विवाद खड़े करते हैं तो कभी सोशल मीडिया में सेना, सरकार और सकारात्मकता के विरुद्ध झूठा प्रोपेगेंडा चलते हैं। ये कभी प्रधानमंत्री को तानाशाह  बताते हैं तो कभी आरएसएस पर इस देश और शिक्षण संस्थानों के भगवाकरण का दोष लगाते हैं। ये कभी अल्पसंख्यकों को दमित बताते हैं तो कभी किसानों को। नए कृषि कानून, तीन तलाक कानून, कश्मीर से धारा 370 हटाने का कानून और हाल ही में वक्फ संशोधन कानून आदि ऐसे अनेक महत्वपूर्ण कानूनों के विरोध में कथितों का यह इकोसिस्टम लगातार सक्रिय रहा है।

 हाल ही में पहलगाम आतंकी हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच सैन्य कारवाई हुई। सीमा पर लंबे समय तक तनाव बना रहा। कई सैनिकों और नागरिकों का बलिदान हुआ। सारा देश सेना और सरकार के साथ खड़ा रहा लेकिन कुछ कथित वामपंथी- दामपंथी और भारत विरोधी तरह-तरह के झूठे प्रोपेगेंडा बनाकर सेना और सरकार का मनोबल गिराते रहे। व्हाट्सएप और फेसबुक जैसे प्लेटफार्म पर ऑपरेशन सिंदूर को लेकर विरोध में लिखते रहे। ये गिरगिट हैं, रंग बदलते रहते हैं। कभी ये युद्ध करने के लिए आदेशात्मक प्रचार चलते हैं तो कभी शांति दूत बन जाते हैं। कभी ये फिलिस्तीन की तरफदारी करते हैं तो कभी पाकिस्तान और चीन का गुणगान करते हैं, क्या ऐसे लोग सामाजिक समरसता और राष्ट्र की सुरक्षा के लिए खतरा नहीं हैं?

ऐसे लोग सोशल मीडिया के जरिए एक ऐसे उन्मादी वर्ग को तैयार कर रहे हैं जो राष्ट्र भाव के विरुद्ध काम करता है। भारत में धरने-प्रदर्शन और रैलियों में पाकिस्तान और फिलिस्तीन का झंडा लहराने वाले और उनके समर्थन में नारे लगाने वाले ये उन्मादी राजनीतिक संरक्षण और विदेशी चंदे से पल रहे हैं। हाल ही में बंगाल,बिहार और राजस्थान आदि कई प्रदेशों से देश और सेना के विरोध में काम करने वाले व सोशल मीडिया पर भारत के खिलाफ दुष्प्रचार करने वाले सैकड़ों लोगों को गिरफ्तार किया गया है। इनका काम केवल दुष्प्रचार और वैमनस्य का प्रचार करना है।


      राजनीति में विपक्ष की भूमिका सरकार पर जन कल्याणकारी कार्यों के लिए दबाव बनाने और सकारात्मक वातावरण बनाने की होती है लेकिन भारत में यह उल्टा है। विभिन्न जन कल्याणकारी योजनाओं और संसद में बने संविधान सम्मत कानूनों को विपक्ष झूठ और भ्रम के सहारे गलत ठहराने का प्रयास करता है। विपक्ष के छोटे बड़े अनेक दल एयर स्ट्राइक और सैन्य अभियानों के प्रमाण मांगते हैं। हाल ही में कांग्रेस नेता राहुल गांधी एवं मल्लिकार्जुन खड़गे ने ऑपरेशन सिंदूर के तहत पाकिस्तान के खिलाफ कार्रवाई रोके जाने पर अलग-अलग तरह के सवाल उठाए हैं। कभी वे संसद का विशेष सत्र बुलाने की मांग करते हैं तो कभी सरकार से स्पष्टीकरण मांगते हैं, क्या यह जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका है? ध्यान रहे एकजुट होकर राष्ट्र रक्षा के संकल्प से ही सीमा सुरक्षित रह सकती हैं। पड़ोसी देशों के साथ किसी भी प्रकार के संघर्ष अथवा युद्ध जैसी स्थिति में जहां सैनिक सीमा पर रहकर अपने राष्ट्र रक्षा धर्म का पालन करते हैं वहीं यह आवश्यक है कि एक नागरिक के नाते समाज में रहते हुए हम सभी राष्ट्र की रक्षा हेतु एकजुट रहें। झूठे प्रोपेगेंडा  चलाकर भ्रम और भय न फैलाएं। 
     संविधान की उद्देशिका में राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए सभी को दृढ़ संकल्पित होने की बात है तो संविधान के मूल कर्तव्य (51ए)  सभी को संविधान का पालन करने, स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शो को हृदय में संजोए रखने, भारत की प्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा और उसे अक्षुण्ण रखने व देश की रक्षा करने और आवाह्न किए जाने पर राष्ट्र की सेवा करने हेतु उल्लेख करता है। क्या देश के विरुद्ध झूठा प्रचार करने और देश की सुरक्षा से संबंधित गोपनीय जानकारियां साझा करके कुछ लोग संविधान के विपरीत काम नहीं कर रहे हैं? ध्यान रहे यदि हम अपने अधिकारों के प्रति सचेत रहते हैं तो हमें राष्ट्रहित में संविधान सम्मत कर्तव्यों का भी पालन करना चाहिए।


धर्म पूछकर निर्दोष लोगों की हत्या धर्म नहीं हो सकता बल्कि राष्ट्र रक्षा और मानवता के कल्याण हेतु तत्पर रहना सभी का धर्म बनना चाहिए।


डा.वेदप्रकाश

लगातार मौतें न्याय मांगती हैं, चुप्पी नहीं

कुमार कृष्णन 

जब सरकार यह दावा करती है कि भारत में मैनुअल स्कैवेंजिंग का उन्मूलन हो चुका है, उस समय देशभर में सीवर और सेप्टिक टैंकों की सफाई के दौरान हो रही रोकी जा सकने वाली मौतें एक भयावह सच्चाई को उजागर करती हैं — एक ऐसी सच्चाई जो दंडहीनता, प्रणालीगत जातीय हिंसा और संस्थागत उपेक्षा से भरी है।

मैनुअल स्कैवेंजिंग का अर्थ है अस्वास्थ्यकर शौचालयों, नालियों या खुले गड्ढों से मानव मल को बिना किसी सुरक्षा उपकरण के हाथ से साफ करने, ले जाने या हटाने की प्रथा। 

2 फरवरी 2025 को, दो सफाई कर्मियों की मौत हो गई और एक गंभीर रूप से घायल हो गया जब वे नरेला, बाहरी दिल्ली के मनसा देवी अपार्टमेंट्स के पास एक सीवर की सफाई कर रहे थे। निजी ठेकेदार द्वारा नियुक्त इन लोगों को किसी भी सुरक्षा उपकरण के बिना जहरीले गड्ढे में उतारा गया था। कुछ दिन बाद, उसी सुबह कोलकाता लेदर कॉम्प्लेक्स के बंटाला क्षेत्र में नाले की सफाई करते समय फर्ज़ेम शेख, हाशी शेख और सुमन सरदार — सभी मुर्शिदाबाद, पश्चिम बंगाल के निवासी — की मौत हो गई। कोलकाता महानगर विकास प्राधिकरण  द्वारा नियोजित इन मजदूरों को एक पाइप फटने के कारण मैनहोल में बहा दिया गया। उनके शव कई घंटे बाद पुलिस, अग्निशमन और आपदा प्रतिक्रिया दलों द्वारा बरामद किए गए। कोलकाता के मेयर फिरहाद हकीम ने औद्योगिक अपशिष्ट से उत्पन्न विषैली गैस को घटना का कारण बताया और जांच की घोषणा की लेकिन ऐसी जांचें शायद ही कभी दोषियों को सजा या सुधार की ओर ले जाती हैं।

ये मौतें 29 जनवरी 2025 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए आदेश के केवल चार दिन बाद हुईं जिसमें भारत के प्रमुख महानगरों (दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता, बेंगलुरु, हैदराबाद) में मैनुअल स्कैवेंजिंग और खतरनाक सीवर सफाई को स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित किया गया था। यह फैसला जस्टिस सुधांशु धूलिया और अरविंद कुमार की अध्यक्षता वाली पीठ ने डॉ. बलराम सिंह द्वारा दायर याचिका पर दिया।

सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि मैनुअल स्कैवेंजिंग को पूरी तरह खत्म किया जाना चाहिए। इसके अलावा अदालत ने मेट्रो शहरों के अधिकारियों को निर्देश दिया कि पिछले तीन महीनों में मैनुअल स्कैवेंजिंग के कारण हुई मौतों के परिजन को चार हफ्तों के अंदर 30 लाख का मुआवजा दिया जाए। जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस अरविंद कुमार की बेंच मैनुअल स्कैवेंजिंग और खतरनाक सफाई कार्यों पर बैन की मांग वाली जनहित याचिका पर सुनवाई कर रही है।कोर्ट ने दिल्ली, कोलकाता, हैदराबाद और बेंगलुरु के अधिकारियों को मैनुअल स्कैवेंजिंग और सीवर सफाई पर दिए गए असंतोषजनक हलफनामों को लेकर तलब किया था।

 अदालत ने अब पाया कि नए हलफनामे भी चालाकी से शब्दों को घुमा-फिराकर पेश किए गए हैं। अदालत ने कहा कि सभी अधिकारियों को प्रोहिबिशन ऑफ इंप्लायमेंट एस मैन्युअल स्कैविंजर एंड देयर रिहेबिलेशन एक्ट 2013  के तहत आज से चार हफ्तों के भीतर उन सभी मौतों के लिए 30 लाख का मुआवजा देना होगा। सुनवाई के दौरान दिल्ली जल बोर्ड के वकील ने तर्क दिया कि जिस सीवर में मौतें हुईं, वह उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता लेकिन जब जस्टिस धूलिया ने दिल्ली जल बोर्ड निदेशक पंकज कुमार अत्रे से सीधा सवाल किया तो उन्होंने स्वीकार किया कि यह इलाका दिल्ली जल बोर्ड के अंतर्गत आता है हालांकि, दिल्ली जल बोर्ड ने दावा किया कि यह एक अनधिकृत निजी प्रवेश था और उनके कर्मचारी वहां मौजूद नहीं थे। इस पर जस्टिस कुमार ने चेतावनी दी कि यदि संतोषजनक जवाब नहीं आया, तो अवमानना कार्यवाही शुरू की जाएगी। अदालत ने दिल्ली जल बोर्ड को एक विस्तृत हलफनामा दाखिल करने और यह स्पष्ट करने का आदेश दिया कि मैनुअल स्कैवेंजिंग को कब और कैसे रोका गया।

बीबीएमपी ने दावा किया कि 2013 से मैनुअल स्कैवेंजिंग बंद है और 2017 के बाद कोई मौत नहीं हुई लेकिन कोर्ट ने सरकारी आंकड़ों के आधार पर साफ किया कि 2024 में 4 और 2023 में 3 मौतें हुई हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि अगली सुनवाई में हलफनामा संतोषजनक नहीं हुआ, तो प्राथमिकी दर्ज की जाएगी। हैदराबाद जल एवं सीवरेज बोर्ड ने तर्क दिया कि मौतें मैनुअल स्कैवेंजिंग के कारण नहीं बल्कि पुरानी पाइपलाइन मरम्मत के दौरान हुईं। जस्टिस धूलिया ने कहा कि सीवर लाइन की सफाई और मरम्मत के दौरान मजदूरों की मौत को अलग नहीं किया जा सकता हालांकि, अत्याधुनिक सफाई मशीनों की उपलब्धता के लिए कोर्ट ने हैदराबाद की सराहना की। वहीं, पश्चिम बंगाल सरकार ने बताया कि कोलकाता में 3 मौतों पर प्राथमिकी दर्ज की गई है और ठेकेदार ने 10 लाख मुआवजा दिया है लेकिन कोर्ट ने 30 लाख मुआवजा देने का आदेश दिया और कहा कि यह मैनुअल स्कैवेंजिंग का मामला ही माना जाएगा। हाथ से मैले की सफाई यानी मैन्युअल स्कैवेंजिंग को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने पहले से कई निर्देश जारी कर रखे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इसके लिए 2014 में गाइडलाइंस भी जारी की थीं। कोर्ट ने केंद्र सरकार से फरवरी 2023 में कहा था कि वह बताए कि इस मामले में बने 2013 के कानून को लागू करने के लिए क्या कदम उठाए हैं।

कोर्ट ने कहा था कि केंद्र बताए कि 2014 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तहत जारी गाइडलाइंस को लागू करने के लिए क्या कदम उठाए हैं। मामले की सुनवाई अभी भी जारी है. सुप्रीम कोर्ट ने अधिकारियों को चेताया है कि अगर संतोषजनक जवाब और कदम नहीं उठाए गए तो प्राथमिकी भी दर्ज की जाएगी। सुप्रीम कोर्ट इस मामले में बेहद सख्त है अब देखना है कि इस पर किस हद तक लगाम लग पाता है।

सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में एक ऐतिहासिक फैसले में हाथ से कचरे और गंदगी की सफाई रोकने के लिए तमाम निर्देश जारी किए थे। साथ ही कहा था कि सीवर की खतरनाक सफाई के लिए किसी मजदूर को न लगाया जाए।

– बिना सेफ्टी के सीवर लाइन में मजदूर को न उतारा जाए। कानून का उल्लंघन करने वालों को सख्त सजा का भी प्रावधान किया गया था।

– देश भर के तमाम राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश दिया था कि वह 2013 के उस कानून को लागू करे जिसमें हाथ  से  कचरा उठाने की प्रथा को खत्म करने के लिए कानूनी प्रावधान किया गया और पीड़ितों के पुनर्वास के लिए प्रावधान किया गया था।

– सुप्रीम कोर्ट में केस पेंडिंग रहने के दौरान ही केंद्र सरकार ने एक्ट (प्रोहिबिशन ऑफ इंप्लायमेंट एस मैन्युअल स्कैविंजर एंड देयर रिहेबिलेशन एक्ट 2013) बनाया था। याचिका में कहा गया था कि उनके जीवन के अधिकार और समानता के अधिकार की रक्षा की जाए। इसके बावजूद मौतों का सिलसिला थमा नहीं है।

भारत में मौत और चुप्पी का सिलसिला

तिरुप्पुर, तमिलनाडु (19 मई 2025): तीन दलित मजदूर — सरवनन (30), वेणुगोपाल (30), और हरि कृष्णन (27) — अलाया डाइंग मिल्स में सीवेज टैंक की सफाई करते समय जहरीली गैस से मारे गए। एक अन्य मजदूर अस्पताल में है। फैक्ट्री मालिक, मैनेजर और सुपरवाइजर के खिलाफ मैनुअल स्कैवेंजर्स अधिनियम 2013, एससी/एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम, और भारतीय न्याय संहिता की धाराओं के तहत मामला दर्ज।

खंडवा, मध्य प्रदेश (3 अप्रैल 2025): गंगौर त्योहार से पहले कुएं की सफाई करते समय कोंडावत गांव में आठ लोगों की मौत जहरीली गैस से हुई। जांच जारी है।

फरीदाबाद, हरियाणा (21 मई 2025): सिकरी गांव के हरिजन मोहल्ले में एक मजदूर की सेप्टिक टैंक की सफाई करते समय मौत हो गई और उसे बचाने की कोशिश में मकान मालिक भी मारा गया। कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं हुई; पुलिस ने कहा “कोई शिकायत नहीं मिली”, और घटना को “जांच कार्यवाही” कहकर टाल दिया गया।

अहमदाबाद, गुजरात – दानीलिमड़ा (16 मई 2025): तीन ठेका मजदूर — प्रकाश परमार, विशाल ठाकोर, और सुनील राठवा, सभी लगभग 20 वर्ष के — एक कपड़ा फैक्ट्री में सेप्टिक टैंक की सफाई करते समय मारे गए। फैक्ट्री एक साल से बंद थी और पुनः आरंभ के लिए सफाई हो रही थी। कोई सुरक्षा प्रोटोकॉल नहीं अपनाया गया था। चौथा मजदूर बच गया। मामला जांच में है।

फरवरी 2025 से मई 2025 के बीच 20 मैनुअल स्कैवेंजरों की मौत की रिपोर्ट मिली है।

आँकड़ों के अनुसार, लगभग 92% सफाई कर्मचारी अनुसूचित जाति, जनजाति या पिछड़ा वर्ग से आते हैं। ये मौतें केवल दुर्घटनाएँ नहीं हैं — यह संरचनात्मक जातिवाद, आर्थिक शोषण और जानबूझकर की गई उपेक्षा का नतीजा हैं।

हालाँकि मैनुअल स्कैवेंजर्स अधिनियम 2013 और संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) और अनुच्छेद 17 (अछूत प्रथा की समाप्ति) के तहत यह कार्य स्पष्ट रूप से निषिद्ध है, फिर भी सरकार और निजी संस्थाएं बिना किसी डर के कानून का उल्लंघन करती हैं।

 दलित आदिवासी शक्ति अधिकार मंच के संजीव कुमार के अनुसार मंच भारत में मैनुअल स्कैवेंजरों की निरंतर और रोकी जा सकने वाली मौतों पर त्वरित और निर्णायक कार्रवाई की माँग करती हैं। साथ ही हाल की सभी मौतों में सभी संबंधित कानूनों के तहत तत्काल प्राथमिकी दर्ज हो जिनमें मैनुअल स्कैवेंजर्स अधिनियम 2013 की धारा 9, भारतीय न्याय संहिता की धाराएं 106(1), 125A, 194, और एससी/एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम की धाराएं 3(1)(r) और 3(2)(v) शामिल हैं। प्रत्येक घटना की स्वतंत्र, समयबद्ध न्यायिक जांच होनी चाहिए जिसकी पूरी पारदर्शिता और सार्वजनिक रिपोर्टिंग सुनिश्चित हो। मंच ने  मृतकों के परिजनों को कम से कम 30 लाख रुपये मुआवजा, और आवास, शिक्षा, और आजीविका के अवसरों सहित समग्र पुनर्वास की माँग की हैं। इसके साथ ही 29 जनवरी 2025 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन सुनिश्चित करने के लिए  एक केंद्रीय निगरानी निकाय के गठन और नियमों का उल्लंघन करने वाले सभी ठेकेदारों के लाइसेंस रद्द करने की माँग भी की हैं। इसके अतिरिक्त, मंच ने कहा है कि वह सफाई कार्यप्रणालियों का राष्ट्रीय ऑडिट चाहते हैं, खासकर निजी और शहरी निकायों में, और अनियमित श्रम बिचौलियों को दिए जाने वाले ऐसे ठेकों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना आवश्यक है।

ये कदम केवल उपचारात्मक नहीं हैं — ये हमारे संवैधानिक अधिकारों को बनाए रखने, कानूनी जवाबदेही सुनिश्चित करने और सफाई कर्मियों की गरिमा और मानवता को मान्यता देने की दिशा में आवश्यक प्रयास हैं।

 सीवर में हुई मौतों को चुप्पी से नहीं, न्याय से जवाब मिलना चाहिए। ये मजदूर अदृश्य नहीं हैं। उनकी जान की कीमत है। उनकी मौतें अनिवार्य नहीं हैं। हम पीड़ितों के परिवारों के साथ अटूट एकजुटता में खड़े हैं और माँग करते हैं कि उनके नाम भुलाए न जाएँ, उनकी कहानियाँ दफ़न न हों, और उनके अपराधियों — चाहे व्यक्ति हों या संस्थान — को जवाबदेह ठहराया जाए।

यह दया का विषय नहीं है — यह संवैधानिक कर्तव्य, कानूनी बाध्यता, और मानवीय गरिमा का सवाल है।

कुमार कृष्णन 

सेना के शौर्य का यशोगान, विपक्ष क्यों परेशान?

प्रदीप कुमार वर्मा

पाकिस्तानी आतंकवादियों के विरुद्ध ऑपरेशन सिंदूर के जरिए निर्णायक कार्रवाई, आतंकियों का आका कहे जाने वाली पाकिस्तान सेना के ठिकानों पर प्रहार, शानदार कूटनीति के माध्यम से सिंधु जल समझौता रद्द करने के साथ अन्य व्यापारिक संबंधों पर पूर्ण विराम, पाकिस्तान के साथ अब सिर्फ पीओके और आतंकवादियों को सोंपने ही पर बातचीत का एलान,। और देश सहित सारी दुनिया में भारतीय सेना के पराक्रम तथा शौर्य का यशोगान। पहलगाम के आतंकी हमले के बाद केंद्र की मोदी सरकार द्वारा आतंकवाद के विरुद्ध सबसे बड़ा प्रहार “ऑपरेशन सिंदूर” की यही दास्तान है। देश और दुनिया में भारत सरकार के इस कदम की सराहना की जा रही है। वहीं,भारत की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस द्वारा इस बार भी ऑपरेशन सिंदूर के संबंध में सबूत मांगे जा रहे हैं। यही नहीं ,कांग्रेस द्वारा भारत और पाकिस्तान के बीच “सीज फायर” को लेकर भी कई सवाल उठाये जा रहे है। 

        पाकिस्तानी आतंकवादियों द्वारा जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में आतंकी हमला करते हुए 26 पर्यटकों को मौत के घाट उतार दिया था। बीते महीने की 22 तारीख को हुई इस कायरतापूर्ण कार्रवाई में सबसे पहले आतंकियों ने पर्यटकों से उनका धर्म पूछा। इसके बाद उनके हिंदू होने की तसल्ली करने के लिए उनको कलमा पढ़ने को कहा। और फिर पर्यटकों को अपनी जान देकर हिंदू होने की कीमत चुकानी पड़ी। इस कायराना कार्रवाई में सबसे बड़ा पहलू यह रहा कि आतंकियों ने “हमास” स्टाइल में पत्नी और बच्चों के सामने पुरुषों को बर्बर तरीके से सिर में गोली मारकर उन्हें मौत की नींद सुला दिया। इस आतंकी घटना के बाद भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आतंकवाद के विरुद्ध निर्णायक कार्रवाई का ऐलान किया और भारत ने पाकिस्तान के आतंकवादियों के विरुद्ध “ऑपरेशन सिंदूर” शुरू किया। इससे पूर्व केंद्र सरकार ने जब सर्वदलीय बैठक बुलाई तो, कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दलों ने सेना और सरकार की प्रत्येक कार्रवाई में “सहयोग और समर्थन” का संकल्प व्यक्त किया। 

            सभी दलों के राजनीतिक सर्वमान्य निर्णय के बाद केंद्र की मोदी सरकार ने तीनों सेनाओं को खुली छूट दी। जिसके जरिए सरकार द्वारा सेना को समय, दिन, स्थान और तरीका चुनकर आतंकियों को कड़ा जवाब देने के लिए अधिकृत कर दिया। भारत की तीनों सेनाओं ने आपसी समन्वय और सरकार के निर्णय को अमलीजामा पहनाते हुए 7 मई को पाकिस्तान के 9 आतंकी ठिकानों पर एयर स्ट्राइक कर उन्हें ध्वस्त कर दिया। इसके बाद जब पाकिस्तान की सेना ने भारत के सैनिक ठिकानों, एयरवेस, धर्मस्थलों तथा आबादी के इलाकों को अपना निशाना बनाया तो भारतीय सेना ने भी इसका मुंहतोड़ जवाब देते हुए पाकिस्तान की सेना के 11 एयरबेस तबाह कर दिए। इस कार्रवाई से घुटनों पर आए पाकिस्तान ने अपने डीजीएमओ के जरिए भारत से “सीजफायर” की गुहार लगाई, तो भारत ने भी इस पर सकारात्मक रुख रखते हुए 10 मई को सीजफायर का ऐलान कर दिया।

              इसके बाद में भारतीय सेना और विदेश मंत्रालय के नुमाइंदों ने बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस कर सेना तथा भारत सरकार द्वारा चलाए गए  ” आपरेशन सिंदूर” और सीजफायर के संबंध में उठाए गए सभी सवालों के जबाब देने साथ “ऑपरेशन सिंदूर” के सिर्फ स्थगित करने के बारे में जानकारी दी। लेकिन इसके उलट कांग्रेस ने अपनी पुरानी परंपरा की तरह इस बार भी केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया है। कांग्रेस नेताओं ने इस बार भी ऑपरेशन सिंदूर में भारतीय सेना को हुए नुकसान तथा सीज फायर की आवश्यकता और इसके समय पर सवाल उठा दिए हैं। यही नहीं भारत सरकार द्वारा विश्व बिरादरी को पाकिस्तान की करतूत तथा “आतंकपरस्ती” के बारे में जानकारी देने के लिए सात डेलिगेशन बनाकर उन्हें अलग-अलग देश को भेजा गया है। सरकार की इस कार्रवाई पर भी कांग्रेस डेलिगेशन में शामिल सदस्यों के नाम पर सवाल उठा रही है। कांग्रेस ने केंद्र सरकार से यह सवाल किया है कि पीओके को वापस लिए बिना पाकिस्तान के साथ सीजफायर पर करने का क्या औचित्य है?

              उधर, इस मामले में भाजपा सहित केंद्र की सरकार में शामिल एनडीए के अन्य राजनीतिक दलों ने कांग्रेस के इस रवैये पर सवाल उठाए हैं। भाजपा सहित उसके अन्य सहयोगी दलों का कहना है कि वर्ष 1971 की जंग में जब पाकिस्तान के 93 हजार सरेंडर किए हुए सैनिक और एक बड़ा भू-भाग भारत के कब्जे में आ गया था। तब कांग्रेस की सरकार में पीओके को वापस क्यों नहीं लिया? पीओके को वापस लेने की बजाय भारत की तत्कालीन सरकार ने युद्द में सरेंडर करने वाले पाकिस्तान के सभी सैनिकों और जीते गए भूभाग को वापस कर दिया। इसके साथ ही भाजपा के आरोपों के मुताबिक पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा कश्मीर के मसले को यूएन में ले जाने को लेकर भी कांग्रेस खुद सवालों के घेरे में है। भाजपा नेताओं का यह भी कहना है कि बीते सालों में कांग्रेस सरकार की गलत नीतियों के कारण ही सेना ने अपने पराक्रम से पाकिस्तान के विरुद्ध जीत दर्ज करते हुए जो भू-भाग जीते थे, उन्हें कांग्रेस की सरकारों ने “समझौते” के नाम पर पाकिस्तान को वापस दे दिया। यही नहीं, कांग्रेस की तत्कालीन सरकारों द्वारा चीन को “अक्साई चीन” दिए जाने को लेकर भी भाजपा इन दिनों कांग्रेस पर हमलावर है, जिसके चलते कांग्रेस खुद सवालों के घेरे में आ गई है।

        भाजपा और कांग्रेस के बीच सवालों के सिलसिले में एक वजह “ऑपरेशन सिंदूर” का श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्र सरकार द्वारा लेने के चलते भी है। ऑपरेशन सिंदूर को लेकर कथित तौर पर भ्रमित कांग्रेस सेना के विरुद्ध सीधे-सीधे कुछ भी कहने से बच रही है लेकिन वह पीएम नरेंद्र मोदी तथा केंद्र की एनडीए सरकार पर हमलावर है।  इस मामले में पूर्व वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों तथा राजनीतिक प्रेक्षकों का कहना है कि वर्ष 1971 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पाकिस्तान पर जीत का “श्रेय” दिया जा सकता है। तो फिर आतंक एवं पाकिस्तान के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई का जज्बा रखने और इसके लिए सेना को खुली छूट देने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी “ऑपरेशन सिंदूर” की सफलता का श्रेय दिया जाना चाहिए। फिलहाल केंद्र की मोदी सरकार और भारतीय सेना ने आतंकवाद के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई करने वाले “ऑपरेशन सिंदूर” को भले ही स्थगित किया है लेकिन “ऑपरेशन सिंदूर” के नाम पर कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों का कथित “राजनीतिक विलाप” तथा भाजपा द्वारा सेना के पराक्रम और शौर्य के सम्मान में देशव्यापी तिरंगा यात्रा जारी है।

प्रदीप कुमार वर्मा

कई ओबीसी जातियों पर होगा क्रीमी लेयर और जाति गणना का प्रभाव

संदीप सृजन

भारत में जाति आधारित जनगणना का मुद्दा लंबे समय से राजनीतिक और सामाजिक बहस का केंद्र रहा है। 1931 के बाद, भारत में व्यापक जाति जनगणना नहीं हुई है। 2011 की जनगणना में सामाजिक-आर्थिक और जाति सर्वेक्षण (SECC) किया गया था लेकिन इसके आंकड़े पूरी तरह से सार्वजनिक नहीं किए गए। हाल ही में, केंद्र सरकार ने 2025 में होने वाली जनगणना में जाति आधारित गणना को शामिल करने की घोषणा की है। यह निर्णय सामाजिक न्याय और नीतिगत योजनाओं को अधिक प्रभावी बनाने के लिए लिया गया है।

जाति जनगणना का मुख्य उद्देश्य प्रत्येक जाति की जनसंख्या, सामाजिक-आर्थिक स्थिति और शैक्षिक स्तर का सटीक डेटा एकत्र करना है। इससे सरकार को यह समझने में मदद मिलेगी कि कौन सी जातियां वास्तव में पिछड़ी हैं और किन्हें आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए। क्रीमी लेयर और जाति जनगणना का संयुक्त प्रभाव भारत में ओबीसी आरक्षण नीति को नया आकार दे सकता है। यह प्रक्रिया कुछ प्रभावशाली ओबीसी जातियों के लिए चुनौतियां ला सकती है जिन्हें ओबीसी सूची से बाहर करने या क्रीमी लेयर के कारण लाभ से वंचित करने का दबाव बढ़ सकता है। दूसरी ओर, यह उन अति पिछड़ी जातियों के लिए अवसर प्रदान कर सकता है जो अभी तक आरक्षण के लाभ से वंचित रही हैं हालांकि इस प्रक्रिया में कई चुनौतियां हैं जिनमें आंकड़ों की विश्वसनीयता, राजनीतिक दुरुपयोग, और सामाजिक तनाव शामिल हैं। सरकार को इन चुनौतियों का सामना करने के लिए पारदर्शी और समावेशी नीतियां अपनानी होंगी।

भारत में सामाजिक और आर्थिक समानता को बढ़ावा देने के लिए आरक्षण नीति एक महत्वपूर्ण उपकरण रही है। अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए आरक्षण, जो सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े समुदायों को समर्थन प्रदान करता है, 1991 में मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर लागू किया गया था हालांकि हाल के वर्षों में क्रीमी लेयर की अवधारणा और जाति आधारित जनगणना जैसे मुद्दों ने ओबीसी आरक्षण नीति पर गहरा प्रभाव डाला है। क्रीमी लेयर और प्रस्तावित जाति जनगणना कई ओबीसी जातियों को प्रभावित कर सकती है जिसमें कुछ जातियों को ओबीसी सूची से बाहर करने की संभावना है।

अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) भारत सरकार द्वारा सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े समुदायों को वर्गीकृत करने के लिए उपयोग किया जाने वाला एक सामूहिक शब्द है। मंडल आयोग (1980) ने अनुमान लगाया था कि भारत की कुल आबादी का लगभग 52% हिस्सा ओबीसी समुदायों का है। ओबीसी को सरकारी नौकरियों और शैक्षिक संस्थानों में 27% आरक्षण प्रदान किया जाता है। इस वर्ग के भीतर असमानता को दूर करने के लिए ‘क्रीमी लेयर’ की अवधारणा शुरू की गई।

क्रीमी लेयर उन ओबीसी व्यक्तियों या परिवारों को संदर्भित करता है जो आर्थिक और सामाजिक रूप से अपेक्षाकृत समृद्ध हैं और इसलिए आरक्षण के लाभ के लिए प्राथमिकता के पात्र नहीं माने जाते। 1993 में सुप्रीम कोर्ट के इंद्रा साहनी मामले में दिए गए फैसले के बाद क्रीमी लेयर की पहचान के लिए मानदंड स्थापित किए गए। वर्तमान में, क्रीमी लेयर की आय सीमा 8 लाख रुपये प्रति वर्ष है, और इसमें उच्च सरकारी पदों पर कार्यरत व्यक्तियों के परिवार भी शामिल हैं। क्रीमी लेयर की अवधारणा का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि आरक्षण का लाभ उन लोगों तक पहुंचे जो वास्तव में सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हैं। इस नीति ने कई ओबीसी जातियों के बीच असंतोष पैदा किया है, खासकर उन जातियों में जो आर्थिक रूप से उन्नत हो चुकी हैं।

क्रीमी लेयर की आय सीमा को समय-समय पर संशोधित किया जाता है। हाल के वर्षों में इसे 6 लाख रुपये से बढ़ाकर 8 लाख रुपये किया गया है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि जाति जनगणना के बाद क्रीमी लेयर के मानदंडों को और सख्त किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, आय के साथ-साथ शैक्षिक योग्यता, संपत्ति और सामाजिक स्थिति जैसे अन्य कारकों को भी शामिल किया जा सकता है। इस तरह के बदलाव उन ओबीसी जातियों को प्रभावित कर सकते हैं जो आर्थिक रूप से समृद्ध हो चुकी हैं।कुछ जातियों ने सरकारी नौकरियों में ओबीसी कोटे का बड़ा हिस्सा हासिल किया है। यदि क्रीमी लेयर के मानदंड सख्त होते हैं तो इन जातियों के कई परिवार आरक्षण के लाभ से वंचित हो सकते हैं।

कई ओबीसी जातियों को सूची से बाहर करने या क्रीमी लेयर के कारण लाभ से वंचित करने का सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव भी हो सकता है। उत्तर भारत में, खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में, यादव और कुर्मी जैसी जातियां राजनीतिक रूप से प्रभावशाली हैं। यदि इन जातियों को ओबीसी सूची से हटा दिया जाता है तो यह उनके राजनीतिक प्रभाव को कम कर सकता है और क्षेत्रीय राजनीति में नए समीकरण पैदा कर सकता है। इसके अलावा यह कदम सामाजिक तनाव को भी बढ़ा सकता है। कुछ जातियां यह तर्क दे सकती हैं कि उन्हें सामाजिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है भले ही वे आर्थिक रूप से समृद्ध हों।

जाति जनगणना और क्रीमी लेयर नीति से संबंधित कई चुनौतियां और विवाद हैं। जाति जनगणना एक जटिल प्रक्रिया है और इसके आंकड़ों की विश्वसनीयता पर सवाल उठ सकते हैं। 2011 के SECC में तकनीकी खामियां पाई गई थीं जिसके कारण इसके आंकड़े उपयोगी नहीं माने गए। कुछ आलोचकों का मानना है कि जाति जनगणना का उपयोग राजनीतिक दलों द्वारा वोट बैंक को मजबूत करने के लिए किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, कुछ दल प्रभावशाली ओबीसी जातियों को लाभ पहुंचाने के लिए नीतियों में बदलाव कर सकते हैं। जाति जनगणना से समाज में जातिगत आधार पर विभाजन बढ़ सकता है। यह सामाजिक एकता को नुकसान पहुंचा सकता है और सामाजिक तनाव को बढ़ा सकता है। यदि कुछ जातियों को ओबीसी सूची से हटाया जाता है तो यह कानूनी चुनौतियों को जन्म दे सकता है। प्रभावित समुदाय कोर्ट में जा सकते हैं, जिससे नीतिगत बदलाव में देरी हो सकती है।

जाति जनगणना और क्रीमी लेयर नीति का भविष्य कई कारकों पर निर्भर करेगा। सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि जनगणना के आंकड़े पारदर्शी और विश्वसनीय हों। साथ ही, क्रीमी लेयर के मानदंडों को इस तरह से संशोधित करना होगा कि यह सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को बढ़ावा दे। समाज को यह समझने की जरूरत है कि आरक्षण का उद्देश्य सामाजिक और आर्थिक समानता को बढ़ावा देना है। इसके लिए व्यापक जागरूकता अभियान चलाए जा सकते हैं। जाति जनगणना और क्रीमी लेयर नीति पर सभी राजनीतिक दलों की सहमति जरूरी है। यह सुनिश्चित करेगा कि नीतियां दीर्घकालिक और प्रभावी हों।

संदीप सृजन

बॉलीवुड में डेब्यू करने जा रहे है अल्लूअर्जुन

सुभाष शिरढोनकर

8 अप्रेल, 1983 को चैन्नई में पैदा हुए अल्लू अर्जुन को साउथ फिल्म इंडस्ट्री के सबसे स्टाइलिश सुपर स्टार का दर्जा हासिल हैं। मूलत: तेलुगु फिल्मों के स्टार होने के बावजूद वे, वहां की चारों भाषाओं की 100 से अधिक फिल्मों में काम कर चुके हैं।  

एक फिल्मी बैकग्राउंड से ताल्लुक रखने की वजह से अल्लू का रुझान हमेशा ही फिल्मों की तरफ था। अल्लू अर्जुन के दादा अल्लू रामलिंगैया ने साउथ की 1000 से अधिक फिल्मों में काम किया था। वे तेलुगु फिल्‍मों  के बेहद फेमस एक्टर थे।

अल्लू अर्जुन के पिता अल्लू अरविंद साउथ फिल्म इंडस्ट्री एक बेहद सम्मानित फिल्म निर्माता हैं और उन्होंने अब तक कई हिट फिल्में बनाई हैं।

सुपरस्टार चिरंजीवी अल्लू अर्जुन के फूफा हैं। चिरंजीवी के बेटे रामचरण अल्लू अर्जुन के चचेरे भाई हैं। चिरंजीवी के भाई एक्‍टर पवन कल्याण वर्तमान में आंध्र प्रदेश के डिप्टी सीएम हैं।

अल्‍लू ने 2 साल की उम्र में ए.के रेड्डी निर्देशित ’विजेता’ (1985) में पहली बार एक बाल कलाकार के तौर पर अपने एक्टिंग कैरियर की शुरूआत की। के विश्वनाथ निर्देर्शित ’स्वाती मुत्यम’ (1986) में भी वो बाल कलाकार के रूप में नजर आए।

अल्लू अर्जुन ने सुरेश कृष्ण की ’डैडी’ (2001) में एक मेल डांसर का कैमियो किया था। उसके बाद लीड एक्टर के तौर पर उनकी पहली फिल्म के. राघवेन्द्र राव निर्देशित ’गंगोत्री’ (2003) थी।

सुकुमार की फिल्म ’आर्य’ (2004) अल्लू अर्जुन की पहली न केवल पहली हिट थी बल्कि इसके लिए उन्हें पहली बार सर्वश्रेष्ठ तेलुगु अभिनेता के फिल्मफेयर पुरस्कार हेतु नॉमिनेशन मिला।

वी.वी.विनायक की ’बन्नी’ (2005) में अल्लू अर्जुन एक कॉलेज स्टूडेंट बने थे। ए करूणाकरण की म्‍यूजिकल लव स्‍टोरी फिल्‍म  ’हैप्पी’ (2006) और उसके बाद पुरी जगन्नाथ की एक्शन फिल्म ‘देसा मुदरू’ (2007) के साथ अल्लू अर्जुन एक्शन स्टार बन गये।

प्रभु देवा निर्देशित ’शंकरदादा जिंदाबाद’ (2007) में अल्लू एक छोटे लेकिन बेहद असरदार कैमियो में थे।  भास्कर की ’परूगू’ (2008) और सुकुमार की साइक्लोजीकल एक्शन ड्रामा ’आर्या 2’ (2009) में ऑडियंस ने उन्हें खूब पसंद किया।

इसके बाद अल्लू अर्जुन ’वरूदू’ (2010) ’वेदम’ (2010) ’बद्रीनाथ’ (2011) ’येवादू’ (2014) ’सारिनोडू’ (2016) और ’अला वेंकटापुरूमुलू’ (2020) जैसी फिल्मों से निरंतर आगे बढते रहे। अपने दो दशक से अधिक के शानदार फिल्मी करियर में, अल्लू अर्जुन ने एक से बढकर एक कई फिल्‍मों में काम किया। 

लेकिन अल्लू अर्जुन के करियर में एक बड़ा बदलाव तब आया जब ‘पुष्पा: द राइज’ (2021) में उनकी अदाकारी ने उन्हें एक नई ऊंचाई पर पहुंचा दिया। फिल्‍म में अल्लू अर्जुन द्वारा निभाया गया पुष्पराज का किरदार भारतीय सिनेमा में सबसे पसंदीदा किरदारों में से एक बन गया । इस फिल्म ने उन्हें ग्लोबल पहचान दिलाई।    

69 वें नेशनल फिल्म अवॉर्ड्स में ‘पुष्पा: द राइज’ (2021) के लिए अल्लू अर्जुन को बेस्ट एक्टर अवॉर्ड दिया गया है। यह सम्मान पाने वाले अल्लू पहले तेलुगु एक्टर हैं। अल्लू अर्जुन, अब तक 05 बार बेस्ट एक्टर के फिल्मफेयर अवार्ड हासिल कर चुके हैं।

सुकुमार व्दारा निर्देशित और मैत्री मूवी मेकर्स व्‍दारा प्रोड्यूस की गई 350 करोड़ के बजट में बनी अल्लू अर्जुन और रश्मिका मंदाना स्टारर ‘पुष्पा 2: द रूल’ 15 अगस्त 2024 को रिलीज हुई। इसमें दर्शकों को पहले भाग के मुकाबले कहीं ज्यादा दमदार एक्शन देखने मिला।  

‘पुष्पा 2: द रूल’ (2024) ने पहले दिन 175 करोड़ का कलेक्शन किया इस तरह ये फिल्म ‘आररआरआर’ (2022) की पहले दिन की 133 करोड़ की कमाई से आगे निकलकर इंडिया की अब तक की ओपनिंग डे पर सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म बनी।   

‘पुष्पा 2: द रूल’ (2024) के बाद से अल्‍लू के फैंस का दायरा लगातार बढता जा रहा है। बॉलीवुड के जो दर्शक साउथ की फिल्में देखते हैं वे चाहते हैं कि अल्लू अब बॉलीवुड फिल्मो में भी काम करें। अल्लू उनकी ख्वाहिश का सम्मान करते हुए बॉलीवुड में आने की सोच रहे हैं। उनकी एक हां के लिए बड़े मेकर इंतजार कर रहे हैं।

अल्लू अर्जुन के फैंस के लिए अब एक अच्‍छी खबर आ रही है कि वे जल्‍दी ही संदीप रेड्डी वंगा और भूषण कुमार की फिल्म के साथ बॉलीवुड में डेब्यू करने जा रहे है।  

सुभाष शिरढोनकर

अहिल्यादेवी होलकर: दूरदर्शी एवं साहसी महिला शासक

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अहिल्याबाई होलकर: 31 मई 2025 तीन सौवीं जन्म जयन्ती
– ललित गर्ग –

भारतीय संस्कृति के उज्ज्वल इतिहास के सुवर्ण पृष्ठों पर अनेक शील, शौर्य, शक्ति एवं पराक्रम संपन्न नारियों के नाम अंकित हुए हैं। शील, भक्ति, आस्था, शौर्य, शक्ति एवं धर्मनिष्ठा के अद्वितीय प्रभाव के कारण ही वे प्रणम्य हैं। ऐसी ही श्रृंखला में एक नाम है राजमाता अहिल्याबाई होलकर का, जो परम विदुषी, सनातन धर्म-शासन प्रभाविका, मातृहृदया, कुशल शासक एवं प्रबल धर्मनिष्ठा पूज्याप्रवर हैं। वे हिन्दू धर्म की उच्चतम परम्पराओं, संस्कारों और जीवनमूल्यों से प्रतिबद्ध एक महान विभूति थी, शासक रश्मि थी, सृजन रश्मि थी, नेतृत्व रश्मि थी, विकास रश्मि थी। सनातन धर्म की ध्वजवाहिका थी, एक ऊर्जा थी। उन्होंने ने न केवल कुशल-शासक व्यवस्था के मूल्य मानक गढ़े, बल्कि सामाजिकता, सेवा एवं परोपकार के नये आयाम भी उद्घाटित किये। जन कल्याण एवं सेवा के क्षेत्र में भी उन्होंने अनेक कार्य किए। भारत ऐसी ही आदर्श नारी चरित्रों की गौरव-गाथा से विश्व गुरु कहलाता था। इस वर्ष 31 मई, 2025 को उनकी जन्म जयन्ती का त्रिशताब्दी दिवस है।
कभी-कभी वास्तविक जीवन की घटनाएं कहानियों से भी अधिक अद्भुत, साहसी, रोमांचकारी एवं विलक्षण होती है। सच यह भी है कि कभी-कभी जिन्दगी की किताब के किरदार कहानियों, फिल्मों एवं उपन्यासों के किरदारों से भी कहीं अधिक सशक्त और अविस्मरणीय होते हैं। लौह महिला महारानी अहिल्याबाई होल्कर का व्यक्तित्व व कृतित्व भी ऐसा ही है, जो उन्हें विश्व की श्रेष्ठतम महिलाओं की पंक्ति में अग्रणी बनाता है, जिनका भारत के इतिहास और जनमानस पर विशेष प्रभाव रहा है। वे भारतीय इतिहास की एक विलक्षण, साहसी, दूरदर्शी, दार्शनिक एवं पराक्रमी नायिका है। राजमाता अहिल्याबाई होलकर, मालवा साम्राज्य की होलकर रानी थीं। उन्हें भारत की सबसे दूरदर्शी एवं साहसी महिला शासकों में से एक माना जाता है। 18वीं शताब्दी में, मालवा की महारानी के रूप में, धर्म का संदेश फैलाने में, नयी शासन-व्यवस्था स्थापित करने और औद्योगीकरण के प्रचार-प्रसार में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा था। अतीत से आज तक वे व्यापक रूप से अपनी बुद्धिमत्ता, साहस और प्रशासनिक कौशल के लिए जानी जाती हैं।
31 मई 1725 को जामखेड, अहमदनगर (महाराष्ट्र) के चोंडी गाँव में जन्मी अहिल्या, एक साधारण परिवार से थीं। उनके पिता मनकोजी राव शिंदे, ग्राम प्रधान थे, जिन्होंने उन्हें पढ़ना-लिखना सिखाया था। एक युवा लड़की के रूप में, उनकी सादगी और सुचरित्र के संयोजन ने, मालवा क्षेत्र के राजा मल्हार राव होलकर का ध्यान उनकी ओर आकर्षित किया। वे युवा अहिल्या से इतने प्रभावित थे कि 1733 में जब वे मुश्किल से आठ साल की भी नहीं हुई थीं, तब उन्होंने उनका विवाह अपने बेटे खंडेराव होलकर से करवा दिया। उनकी शादी के बारह साल बाद, कुम्हेर किले की घेराबंदी के दौरान, उनके पति खंडेराव की मृत्यु हो गई। अहिल्याबाई इतनी आहत हुईं कि उन्होंने सती होने का फ़ैसला कर लिया। लेकिन उनके ससुर मल्हार राव ने उन्हें इतना कठोर कदम उठाने से रोक लिया और अहिल्या को अपनी छत्र-छाया में लेकर, उन्हें सैन्य, राजनीतिक और प्रशासनिक मामलों में प्रशिक्षित किया। राज-काज की बारीकियां समझाई।
‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’- मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। ज्योति की यात्रा मनुष्य की शाश्वत अभीप्सा है। इस यात्रा का उद्देश्य है, प्रकाश की खोज। प्रकाश उसे मिलता है, जो उसकी खोज करता है। कुछ व्यक्तित्व प्रकाश के स्रोत होते हैं। वे स्वयं प्रकाशित होते हैं और दूसरों को भी निरंतर रोशनी बांटते हैं। अहिल्याबाई ऐसा ही एक लाइटहाउस था यानी प्रकाश-गृह, जिसके चारों ओर रोशनदान थे, खुले वातायन थे। उनका चिंतन, शासन-व्यवस्था, संस्कृति-प्रेम, संभाषण, आचरण, सृजन, सेवा, परोपकार- ये सब ऐसे खुले वातायन थे, जिनसे निरंतर आलोक प्रस्फुटित होता रहा और पूरी मानवजाति को उपकृत किया। राजमाता अहिल्याबाई होलकर का जीवन अनेक संकटों एवं संघर्षों का साक्षी बना। एक के बाद एक पहाड जैसे दुःख, आघात उन्हें झेलने पड़े। 1766 में अहिल्या के ससुर मल्हार राव का भी निधन हो गया। उसके अगले ही वर्ष, उन्होंने अपने बेटे माले राव को भी खो दिया। बेटे को खोने का दुःख उन्होंने अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। राज्य और अपनी प्रजा के कल्याण को ध्यान में रखते हुए उन्होंने पेशवा से, मालवा के शासन को संभालने की अनुमति मांगी। हालांकि, कुछ अभिजातों ने इसका विरोध किया, लेकिन उन्हें सेना का समर्थन प्राप्त था। सेना को उन पर पूरी श्रद्धा और विश्वास था, क्योंकि वह सैन्य और प्रशासनिक मामलों में अच्छी तरह से प्रशिक्षित थीं। उन्होंने कई मौकों पर सेना का नेतृत्व किया था और एक सच्चे योद्धा की तरह लड़ाई लड़ी थी। 1767 में, पेशवा ने अहिल्याबाई को मालवा पर अधिकार करने की अनुमति दे दी। 11 दिसंबर 1767 को वे गद्दी पर बैठीं और इंदौर की शासक बनीं। अगले 28 वर्षों तक महारानी अहिल्याबाई ने न्यायोचित, बुद्धिमत्तापूर्ण और ज्ञानपूर्वक तरीके से मालवा पर शासन किया। अहिल्याबाई के शासन के तहत, मालवा में शांति, समृद्धि, खुशहाली और स्थिरता बनी रही। साथ ही साथ उनकी राजधानी साहित्यिक, संगीतात्मक, कलात्मक और औद्योगिक गतिविधियों के एक बेहतरीन स्थान में परिवर्तित हो गई। कवियों, कलाकारों, मूर्तिकारों और विद्वानों का उनके राज्य में स्वागत किया गया, क्योंकि वे उनके काम को बहुत सम्मान दिया करती थीं।
रानी अहिल्याबाई ने अपने समय में विभिन्न दिशाओं में सृजन की ऋचाएं लिखी हैं, नया इतिहास रचा है। अपनी योग्यता और क्षमता से स्वयं को साबित किया है। नारी शासक के रूप उन्होंने एक छलांग लगाई, राज-व्यवस्था एवं उन्नत समाज संरचना को निर्मित करते हुए जीवन की आदर्श परिभाषाएं गढ़ी थीं। वह अपनी प्रजा को अपनी संतान मानती थी। उन्होंने अपने शासनकाल में कई कानूनों को समाप्त किया, किसानों का लगान कम किया, कृषि, उद्योग धन्धों को सुविधा देकर विकास के अनेक काम किए। चोर, डाकुओं एवं अन्य अपराधियों को सही रास्ते पर लाकर उनके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाकर उनकी जीवन दिशाएं बदली। रानी अहिल्याबाई महान् परोपकारी, संवेदनशील एवं करूणामयी थी। राहगीरों, गरीबों, विकलांगों, साधु- संतों,पशु-पक्षियों, जीव-जंतुओं सभी का ध्यान रखती थी यहां तक कि अपने सैनिकों, कर्मचारियों के कल्याण के लिए भी वह कभी पीछे नहीं हटी। मन्दिरों का जीर्णाेद्धार, पर्यावरण एवं जलसंधारण, विधि एवं न्याय व्यवस्था, नारी सम्मान और नारी शिक्षा, व्यापार, कौशल-विकास आदि उनके शासन की विशेष उपलब्धियां बनी। अहिल्याबाई का हृदय समाज के सभी वर्गों के लिए धड़कता था।
रानी अहिल्याबाई हिन्दू धर्म की पुरोधा, उन्नायक एवं रक्षक थी। उन्होंने बद्रीनाथ, केदारनाथ, रामेश्वरम, जगन्नाथ पुरी, द्वारका, पैठण, महेश्वर, वृंदावन, सुपलेश्वर, उज्जैन, पुष्कर, पंढरपुर, चिंचवाड़, चिखलदा, आलमपुर, देवप्रयाग, राजापुर स्थानों पर मंदिरों का पुनर्निर्माण करवाया तथा घाट बनवाएं और धर्मशालाएं खुलवाए, जहां लोगों को प्रतिदिन भोजन मिलता था। काशी विश्वेश्वर मंदिर के साथ-साथ पूरे देश के मंदिरों का निर्माण व पुनर्निर्माण का कार्य रानी ने करवाया। त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग में तीर्थ यात्रा के लिए विश्रामगृह, अयोध्या, नासिक में भगवान श्रीराम के मंदिरों का निर्माण, सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण, उज्जैन में चिंतामणि गणपति मंदिर निर्माण-ये सभी कार्य रानी ने दिल खोलकर किए हैं। उन्होंने कल्याणकारी व परोपकारी कार्यों द्वारा राष्ट्र निर्माण का महत्ती कार्य भी किया तथा देश में धार्मिक, सामाजिक, राष्ट्रीय एकता कायम करने के लिए सराहनीय प्रयास किए। अहिल्याबाई ने महेश्वर में वस्त्र उद्योग भी स्थापित किया, जो वर्तमान में अपनी महेश्वरी साड़ियों के लिए बहुत प्रसिद्ध है। शासन से लेकर संस्कार तक, साहित्य से लेकर समाज-निर्माण तक अनुभव गुम्फित है। न केवल राजनीति के क्षेत्र में बल्कि व्यक्ति निर्माण एवं समाज निर्माण के क्षेत्र में भी आपके विचारों का क्रांतिकारी प्रभाव देखने को मिलता है।
‘दार्शनिक महारानी’ की उपाधि से सम्मानित, अहिल्याबाई का 13 अगस्त 1795 को सत्तर वर्ष की आयु में निधन हो गया। रानी अहिल्याबाई में इतिहास के गौरवशाली वीरों के गुण देखने को मिलते हैं। कोई भी महिला इतनी सर्वगुण संपन्न कैसे हो सकती है? इतिहास, वर्तमान और भविष्य में केवल एक ही नारी में इतने गुणों का समावेश होना संभव ही नहीं है। धर्माचरण, शासन प्रबंध, विद्वानों का सम्मान व न्याय, दानशीलता ,उदार धर्म नीति, भक्ति भावना, वीरता, त्याग व बलिदान, साहस, शौर्य से परिपूर्ण रानी अहिल्याबाई युगों- युगों तक अमर रहेगी। 

अनियोजित शहरीकरण से जलमग्न होते शहर !

हमारे देश में मानसून या यूं कहें कि बारिश का मौसम लगभग जून से सितंबर तक रहता है और इस अवधि के दौरान देश के ज्यादातर हिस्सों में बारिश होती है।यह आलेख लिखे जाने तक अभी भी मई माह का ही लगभग एक सप्ताह शेष बचा है। मतलब मानसून की देश में अभी शुरुआत भी नहीं हुई है।उत्तर भारत समेत देशभर के इलाकों में इन दिनों भीषण गर्मी का कहर जारी है।भीषण गर्मी में लोगों को मॉनसून(बारिश) का बेसब्री से इंतजार है और वर्तमान में हमारे यहां जल्द ही मॉनसून की दस्तक होने जा रही है। मौसम विभाग ने खुशखबरी दी है कि तीन से चार दिनों में मॉनसून केरल में एंट्री दे देगा। पाठकों को बताता चलूं कि आमतौर पर मॉनसून की केरल में आने की तारीख एक जून होती है, लेकिन इस बार समय से काफी पहले ही मॉनसून की झमाझम बारिश देखने को मिलने की संभावनाएं जताई जा रहीं हैं। देश में मानसून की ढंग से शुरूआत भी नहीं हुई कि देश के महानगरों का अभी से बारिश से बुरा हाल होने लगा है। कहना ग़लत नहीं होगा कि महज़ कुछ घंटों की बारिश से महानगरों का हाल बुरा होने लगा है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार हाल ही में 

20 मई को ही प्री-मानसून बारिश के बाद बेंगलुरु की सड़कें जलमग्न हो गईं और ट्रैफिक जाम की स्थिति पैदा हो गई। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक 19 मई और 20 मई को सुबह 8.30 बजे के बीच, भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आइएमडी) के बेंगलुरु सिटी स्टेशन पर 37.2 मिमी बारिश दर्ज की गई, जबकि बेंगलुरु एचएएल एयरपोर्ट स्टेशन पर 46.5 मिमी बारिश दर्ज की गई। भारत की सिलिकॉन वैली कहलाने वाला बेंगलुरु फिलहाल भीषण गर्मी नहीं, बल्कि बारिश से त्रस्त है। बारिश से शहर जलमग्न हो गया और जीवन अस्त-व्यस्त हो गया। जानकारी के अनुसार वहां 5 लोगों की मौत हो गई और घर व निचले इलाके जलमग्न हो गए। जानकारी के अनुसार शहर की 20 से अधिक झीलें पानी से लबालब भरी हुई हैं। अंडरपास और फ्लाईओवरों पर पानी भर गया है, जिससे पूरे शहर का ट्रैफिक कई घंटों के लिए बाधित रहा। गाड़ियों की आवाजाही रुकी रही और कई इलाकों में सार्वजनिक बस सेवाएं ठप्प रहीं। न केवल सिलिकॉन वैली बेंगलुरु बल्कि मॉनसून से पहले ही मई में होने वाली बारिश ने महाराष्ट्र में भी हर तरफ पानी ही पानी कर दिया है। मुंबई और उसके आसपास के इलाके जैसे तालाब में तब्दील हो गए। पाठकों को बताता चलूं कि बारिश ने मुंबई की ड्रेनेज सिस्टम की एक बार फिर से पोल खोलकर रख दी है। मुंबई, पुणे और ठाणे का लगातार हुई बारिश से बुरा हाल हो गया। नवी मुंबई और ठाणे से कुछ वीडियो सामने आए हैं, जिनमें सड़कों पर भरा पानी देखा जा सकता है।लोग गंदे पानी में घुसकर रास्ता पार करने को मजबूर हैं और कई इलाकों में लोग अपने घरों से पंप के सहारे पानी निकालते दिखे। पाठकों को बताता चलूं कि बेंगलुरु भारत का आइटी हब कहलाता है। यदि वहां पर ऐसे हालात हैं तो यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत के अन्य शहरों के हालात कैसे होने वाले हैं, जबकि अभी तो यह प्री-मानसून का ही सीजन है। असली मानसून आएगा तो कैसे हालात होंगे ? अगर हम यहां बेंगलुरु की ही बात करें तो आंकड़ों के मुताबिक यहां करीब 204 झीलें हैं, जिनमें से करीब 180 झीलें अतिक्रमण का दंश झेल रही हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि अतिक्रमण कहीं न कहीं बाढ़ जैसे हालातों को जन्म देता है। आज हमारे देश के लगभग लगभग शहरों में पानी की निकासी की सही व माकूल व्यवस्थाएं नहीं हैं। थोड़ा सा पानी बरसता है तो हमारी सड़कें, गलियां और मोहल्ले जलमग्न होने लगते हैं। आखिर हमारे देश के बड़े महानगरों और शहरों में जलभराव की समस्या क्यों जन्म लेतीं हैं? इसके पीछे कारण क्या हैं? तो यहां पाठकों को बताता चलूं कि आज देश की आबादी लगातार बढ़ती जा रही है और पेड़-पौधे लगातार कम होते जा रहे हैं। हमारे देश के बड़े महानगरों और शहरों में नित नई-नई इमारतों का निर्माण हो रहा है, लेकिन जल निकासी की नई व मजबूत व्यवस्था पर काम नहीं किया जा रहा है। आज जगह-जगह कंक्रीट की दीवारें खड़ी होने के चलते जमीन पानी नहीं सोख पा रही है। हमारे ड्रेनेज सिस्‍टम अक्सर ब्लॉक होते हैं। उनकी नियमित साफ-सफाई पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता है।पानी की प्रॉपर निकासी नहीं है। ज्यादातर छोटे-बड़े शहरों में बरसात के पानी की निकासी के लिए स्टॉर्म वॉटर ड्रेन (बरसाती नाले) बने हुए हैं। लेकिन जब ये बनाए जाते हैं, तब ये ठीक होते हैं और बाद में उनमें मिट्टी और कचरा भर जाता है।

कहना ग़लत नहीं होगा कि बारिश में सीवर ओवरफ्लो होते हैं, जिससे दूषित पानी गलियों और सड़कों में भर जाता है। यह विडंबना ही है कि आज टाउनशिप डेपलवमेट प्लानिंग में हम भविष्य और डेंसिटी दोनों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पा रहे हैं। सच तो यह है कि आज ठोस कचरे को बरसाती नालों में डाल दिया जाता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि आज अवैध निर्माणों से बुनियादी ढांचे पर असर पड़ रहा है। हमारे यहां जल नियोजन व्यवस्थाएं ठीक नहीं हैं। हमारे यहां भूजल को रिचार्ज करने की व्यवस्थाएं भी ठीक नहीं हैं। क्रंकीट की दीवारें बारिश जल को सोख नहीं पातीं हैं। सच तो यह है कि कंक्रीट की लगातार फैलती परत (अनियंत्रित ऊंची इमारतों का निर्माण) प्राकृतिक बारिश को नहीं सोख पाता है और शहर जलमग्न होते हैं। अनियमित शहरीकरण के कारण और औधोगिकीकरण के कारण समस्याएं पैदा हो रहीं हैं। पहले के जमाने में नगर नियोजन बहुत बेहतर था, आज नहीं है। पाठकों को बताता चलूं कि सिंधु घाटी सभ्यता में, लोथल और धोलावीरा जैसे शहरों में व्यवस्थित शहरी नियोजन था। रोमवासियों ने भी अपने साम्राज्य में शहरों को समकोण पर सड़कों के साथ डिजाइन किया था, आज वैसी व्यवस्थाओं का नितांत अभाव सा हो गया है। शहर अव्यवस्थित तरीके से आगे बढ़ रहें हैं। इसके अलावा आज वायुमंडलीय अस्थिरता के कारण भी बेमौसम बारिश हो रही है। वनों की अंधाधुंध और अनियोजित कटाई, शहरीकरण और प्रदूषण जैसी मानवीय गतिविधियों से बेमौसम बारिश हो रही है। समय के साथ आज बारिश का पैटर्न भी पूरी तरह से बदल गया है। संक्षेप में कहें तो आज जलवायु परिवर्तन, गर्म महासागर, और हवा में नमी की मात्रा में वृद्धि अधिक बारिश के प्रमुख कारण बनकर सामने आ रहें हैं। इन कारणों से, वायुमंडल में अधिक पानी की वाष्प होती है, जिससे मूसलाधार बारिश और बाढ़ जैसी घटनाएं बढ़ जाती हैं। प्रकृति से छेड़छाड़ के कारण और अनियोजित मानवीय गतिविधियों के कारण प्रकृति का संतुलन हमने बिगाड़ कर रख दिया है। शायद यही कारण भी है कि आज भारत के प्रमुख शहर- दिल्ली, मुंबई, चेन्नई और कोलकाता धीरे-धीरे बारिश में डूब रहे हैं। हमारा बुनियादी ढांचा आज अपंग सा हो चुका है। कहना ग़लत नहीं होगा कि आज मानसून आपदाओं की मूल समस्या अनियंत्रित शहरी जनसंख्या वृद्धि है। जलवायु परिवर्तन के कारण आज ग्लेशियर भी पिघलने लगे हैं।जल संसाधनों की इष्टतम उपयोगिता सुनिश्चित करने के लिए आज जल नियोजन बहुत जरूरी हो गया है, हमें चाहिए कि हम इस ओर ध्यान दें। आज जरूरत इस बात की है कि हम अनियमित, अनियोजित शहरीकरण और औधोगिकीकरण पर अंकुश लगाने की दिशा में जागरूक होकर काम करें। मानसून सीजन में बाढ़ के ख़तरों से निपटने के लिए एक प्रभावी और मजबूत रणनीति के साथ ही साथ बुनियादी ढांचे और समुदाय की भागीदारी की नितांत आवश्यकता है। योजनाओं का सही व सुचारू कार्यान्वयन होना चाहिए। हमें यह बात अपने जेहन में रखनी चाहिए कि जल नियोजन जल प्रबंधन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

सुनील कुमार महला

रिश्तों की रणभूमि

लहू बहाया मैदानों में,
जीत के ताज सिर पर सजाए,
हर युद्ध से निकला विजेता,
पर अपनों में खुद को हारता पाए।

कंधों पर था भार दुनिया का,
पर घर की बातों ने झुका दिया,
जिसे बाहरी शोर न तोड़ सका,
उसी को अपनों के मौन ने रुला दिया।

सम्मान मिला दरबारों में,
पर अपमान मिला दालानों में,
जहां प्यार होना चाहिए था,
मिला सवालों की दीवारों में।

माँ की नज़रों में मौन था,
पिता के लबों पर सिकुड़न,
भाई की बातों में व्यंग्य था,
बहन की चुप्पी बनी चोट की धुन।

जो रिश्ते थे आत्मा के निकट,
वही बन गए आज दुश्मन से कठिन,
हर जीत अब बोझ लगती है,
जब घर की हार आंखों में छिन।

दुनिया जीतना आसान था,
पर अपनों को समझना मुश्किल,
जहां तर्क थम जाते हैं,
वहीं भावना बनती है असली शस्त्रधार।

कभी वक़्त निकाल कर बैठो,
उनके पास जो चुपचाप रोते हैं,
क्योंकि दुनिया नहीं,
परिवार ही असली रणभूमि होता है।

— डॉ सत्यवान सौरभ

फेसबुक या फूहड़बुक?: डिजिटल अश्लीलता का बढ़ता आतंक और समाज की गिरती संवेदनशीलता

लेखिका: प्रियंका सौरभ

जब सोशल मीडिया हमारे जीवन में आया, तो उम्मीद थी कि यह विचारों को जोड़ने, संवाद को मज़बूत करने और जन-जागरूकता फैलाने का एक सशक्त माध्यम बनेगा। लेकिन आज, 2025 में, विशेषकर फेसबुक जैसे मंच पर जिस तरह से अश्लीलता और फूहड़ता का आतंक फैलता जा रहा है, वह न केवल चिंताजनक है, बल्कि सभ्यता की चादर में लिपटे हमारे समाज की मानसिक पतनशीलता को भी उजागर करता है।

अश्लील वीडियो की वायरल संस्कृति: मनोरंजन या मानसिक विकृति?

आज फेसबुक पर एक महिला या किसी व्यक्ति की निजता से खिलवाड़ करती हुई अश्लील वीडियो अगर गलती से अपलोड हो जाती है, तो उसके रिपोर्ट और हटने से पहले ही लाखों लोग उसे डाउनलोड, साझा और एक-दूसरे से माँग लेते हैं। यह सिलसिला इतना भयावह और संगठित रूप में होता है कि लगता है जैसे सभ्य समाज नहीं, किसी डिजिटल भेड़िया झुंड में रह रहे हों।

सबसे अधिक विचलित करने वाली बात यह है कि यह सब पढ़े-लिखे, संस्कारी दिखने वाले, प्रोफ़ाइल पर तिरंगा, ॐ या गीता का श्लोक डालने वाले लोग ही सबसे ज़्यादा करते हैं।
तो फिर सवाल उठता है — क्या यही हमारी वास्तविक मानसिकता है?
क्या हम दोहरे चरित्र वाले समाज के प्रतिनिधि हैं जो मंच पर नैतिकता की बात करता है और अकेले में अश्लीलता का उपभोग करता है?

समाज की चुप्पी: एक और अपराध

इन वीडियो को रिपोर्ट करना, विरोध करना और हटवाना तो दूर की बात, लोग इन्हें चुपचाप देखते हैं, सहेजते हैं, और निजी संदेशों में साझा करते हैं। जो कृत्य समाज में निंदा के योग्य होना चाहिए, वह मनोरंजन और मोबाइल संदेशों का हिस्सा बन जाता है। ऐसे में समाज केवल अपराधी का साथ नहीं देता, बल्कि वह खुद अपराध का भागीदार बन जाता है।

पीड़िता नहीं, समाज शर्मसार हो

हर बार जब कोई महिला किसी वीडियो में जबरन या धोखे से दिखा दी जाती है, तो समाज उसे कोसने लगता है — जबकि असली दोषी वह नहीं, वह व्यक्ति होता है जिसने उसका वीडियो बनाया, और वे लोग होते हैं जो उसे साझा करते हैं।
वास्तव में शर्म तो उस समाज को आनी चाहिए जो दूसरों की पीड़ा को ‘क्लिकबेट’ और मज़ा’ समझता है।

फेसबुक की असफलता: सामुदायिक मानक या बिके हुए नियम?

फेसबुक दावा करता है कि उसके पास सामुदायिक मानक हैं — जो नफ़रत फैलाने, अश्लीलता परोसने और हिंसा भड़काने वाले सामग्री को रोकते हैं। लेकिन हकीकत इसके ठीक उलट है।
अगर कोई उपयोगकर्ता कोई राजनीतिक सच्चाई या तीखी भाषा लिख दे, तो उसकी पहचान कुछ मिनट में अवरुद्ध हो जाती है। लेकिन वही मंच घंटों तक अश्लील वीडियो वायरल होते देखने देता है, बिना किसी हस्तक्षेप के।

क्या यह मान लिया जाए कि फेसबुक की नीति यह है —
“अगर आप सत्य बोलेंगे तो आप खतरनाक हैं,
और अगर आप अश्लीलता फैलाएंगे तो आप व्यस्त और उपयोगी उपयोगकर्ता हैं!”

तकनीक के साथ जिम्मेदारी कहाँ?

हमें यह समझना होगा कि सोशल मीडिया केवल एक तकनीकी मंच नहीं है, यह अब जनमानस को प्रभावित करने वाला एक सामाजिक ढाँचा बन चुका है। और हर ढाँचे की कुछ जिम्मेदारियाँ होती हैं।

अगर फेसबुक और अन्य मंचों पर सामग्री निगरानी के नाम पर केवल कृत्रिम बुद्धिमत्ता का सहारा लिया जाएगा, और “रिपोर्ट करें” का विकल्प केवल दिखावा बन कर रह जाएगा, तो यह मंच एक दिन नैतिक रूप से दिवालिया हो जाएगा।

हम, समाज और हमारी भागीदारी

अब प्रश्न यह है कि क्या हम केवल फेसबुक को दोष देकर अपने दामन को पाक-साफ़ मान सकते हैं?

बिलकुल नहीं।
जब हम स्वयं ऐसे सामग्री को देख रहे हैं, साझा कर रहे हैं या मौन हैं, तो हम भी अपराध में साझेदार बन जाते हैं।

हमारे बच्चों, बहनों, पत्नियों और समाज की महिलाओं की सुरक्षा केवल कानून से नहीं होगी — बल्कि हमारी मानसिकता से होगी।
और अगर हम वही मानसिकता पालें जो अपराधियों की होती है — दूसरों की निजता को ताकना, उन्हें वस्तु समझना, उन्हें मानवता से नीचे गिराना — तो फिर हम भी किसी से कम दोषी नहीं हैं।

समाधान की दिशा में कुछ सुझाव:

  1. डिजिटल नैतिक शिक्षा: विद्यालयों, महाविद्यालयों और नौकरी के प्रशिक्षण केंद्रों में डिजिटल आचार संहिता पर विशेष कक्षाएँ होनी चाहिए।
  2. कड़ा कानून और डिजिटल सतर्कता: अश्लील वीडियो को साझा करने वालों पर सख्त साइबर कानून लागू हों और समय पर कार्रवाई हो।
  3. सोशल मीडिया मंचों की जवाबदेही: फेसबुक जैसी कंपनियों को भारत सरकार के अधीन विशेष निगरानी प्रकोष्ठ में जवाबदेह बनाया जाए।
  4. जन-जागरूकता अभियान: स्वयंसेवी संस्थाओं, लेखकों, पत्रकारों और जागरूक नागरिकों को मिलकर डिजिटल शुचिता पर अभियान चलाने चाहिए।

सोच बदलनी होगी

सभ्यता केवल तन से नहीं होती, मन से होती है।
शब्दों से नहीं, कर्मों से होती है।
अगर हम अपने ही समाज की बहनों की पीड़ा में लज्जा नहीं, मज़ा ढूंढने लगें — तो यह गिरावट नहीं, मानवता की हत्या है।

इसलिए यह समय है जब हमें फेसबुक को भी आईना दिखाना होगा और खुद को भी।
नहीं तो फेसबुक जल्द ही फूहड़बुक में बदल जाएगा, और हम सब उसमें एक-एक कर डूब जाएंगे — बिना किसी पश्चाताप के।