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‘देशहित’ से ही बचेगी पत्रकारिता की साख

– लोकेन्द्र सिंह 

‘हिंदुस्थानियों के हित के हेत’ इस उद्देश्य के साथ 30 मई, 1826 को भारत में हिंदी पत्रकारिता की नींव रखी जाती है। पत्रकारिता के अधिष्ठाता देवर्षि नारद के जयंती प्रसंग (वैशाख कृष्ण पक्ष द्वितीया) पर हिंदी के पहले समाचार-पत्र ‘उदंत मार्तंड’ का प्रकाशन होता है। इस सुअवसर पर हिंदी पत्रकारिता का सूत्रपात होने पर संपादक पंडित युगलकिशोर समाचार-पत्र के पहले ही पृष्ठ पर अपनी प्रसन्नता प्रकट करते हुए उदंत मार्तंड का उद्देश्य स्पष्ट करते हैं। आज की तरह लाभ कमाना उस समय की पत्रकारिता का उद्देश्य नहीं था। भारत की स्वतंत्रता से पूर्व प्रकाशित ज्यादातर समाचार-पत्र आजादी के आंदोलन के माध्यम बने। अंग्रेज सरकार के विरुद्ध मुखर रहे। यही रुख उदंत मार्तंड ने अपनाया। अत्यंत कठिनाईयों के बाद भी पंडित युगलकिशोर उदंत मार्तंड का प्रकाशन करते रहे। किंतु, यह संघर्ष लंबा नहीं चला। हिंदी पत्रकारिता के इस बीज की आयु 79 अंक और लगभग डेढ़ वर्ष रही। इस बीज की जीवटता से प्रेरणा लेकर बाद में हिंदी के अन्य समाचार-पत्र प्रारंभ हुए। आज भारत में हिंदी के समाचार-पत्र सबसे अधिक पढ़े जा रहे हैं। प्रसार संख्या की दृष्टि से शीर्ष पर हिंदी के समाचार-पत्र ही हैं। किंतु, आज हिंदी पत्रकारिता में वह बात नहीं रह गई, जो उदंत मार्तंड में थी। संघर्ष और साहस की कमी कहीं न कहीं दिखाई देती है। दरअसल, उदंत मार्तंड के घोषित उद्देश्य ‘हिंदुस्थानियों के हित के हेत’ का अभाव आज की हिंदी पत्रकारिता में दिखाई दे रहा है। हालाँकि, यह भाव पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है, लेकिन बाजार के बोझ तले दब गया है। व्यक्तिगत तौर पर मैं मानता हूँ कि जब तक अंश मात्र भी ‘देशहित’ पत्रकारिता की प्राथमिकता में है, तब तक ही पत्रकारिता जीवित है। आवश्यकता है कि प्राथमिकता में यह भाव पुष्ट हो, उसकी मात्रा बढ़े। समय आ गया है कि एक बार हम अपनी पत्रकारीय यात्रा का सिंहावलोकन करें। अपनी पत्रकारिता की प्राथमिकताओं को जरा टटोलें। समय के थपेडों के साथ आई विषंगतियों को दूर करें। समाचार-पत्रों या कहें पूरी पत्रकारिता को अपना अस्तित्व बचाना है, तब उदंत मार्तंड के उद्देश्य को आज फिर से अपनाना होगा। अन्यथा सूचना के डिजिटल माध्यम बढ़ने से समूची पत्रकारिता पर अप्रासंगिक होने का खतरा मंडरा ही रहा है।   

              असल में आज की पत्रकारिता के समक्ष अनेक प्रकार की चुनौतियां मुंहबांए खड़ी हैं। यह चुनौतियां पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों से डिगने के कारण उत्पन्न हुई हैं। पूर्वजों ने जो सिद्धांत और मूल्य स्थापित किए थे, उनको साथ लेकर पत्रकारिता मिशन से प्रोफेशन की ओर जाती, तब संभवत: कम समस्याएं आतीं। क्योंकि मूल्यों और सिद्धांतों की उपस्थिति में प्रत्येक व्यवसाय में मर्यादा और नैतिकता का ख्याल रखा जाता है। किंतु, जैसे ही हम तय सिद्धांतों से हटते हैं, मर्यादा को लांघते हैं, तब स्वाभाविक तौर पर चुनौतियां सामने आने लगती हैं। नैतिकता के प्रश्न भी खड़े होने लगते हैं। यही आज मीडिया के साथ हो रहा है। मीडिया के समक्ष अनेक प्रश्न खड़े हैं। स्वामित्व का प्रश्न। भ्रष्टाचार का प्रश्न। मीडिया संस्थानों में काम करने वाले पत्रकारों के शोषण, स्वाभिमान और स्वतंत्रता के प्रश्न हैं। वैचारिक पक्षधरता के प्रश्न हैं। ‘भारतीय भाव’ को तिरोहित करने का प्रश्न। इन प्रश्नों के कारण उत्पन्न हुआ सबसे बड़ा प्रश्न- विश्वसनीयता का है।  

यह सब प्रश्न उत्पन्न हुए हैं पूँजीवाद और कम्युनिज्म के उदर से। सामान्य-सा फलसफा है कि बड़े लाभ के लिए बड़ी पूँजी का निवेश किया जाता है। आज अखबार और न्यूज चैनल का संचालन कितना महंगा है, हम सब जानते हैं। अर्थात् मौजूदा दौर में मीडिया पूँजी का खेल हो गया है। एक समय में पत्रकारिता के व्यवसाय में पैसा ‘बाय प्रोडक्ट’ था। लेकिन, उदारीकरण के बाद बड़ा बदलाव मीडिया में आया है। ‘बाय प्रोडक्ट’ को प्रमुख मान कर अधिक से अधिक धन उत्पन्न करने के लिए धन्नासेठों ने समाचारों का ही व्यवसायीकरण कर दिया है। यही कारण है कि मीडिया में कभी जो छुट-पुट भ्रष्टाचार था, अब उसने संस्थागत रूप ले लिया है। वहीं, कम्युनिस्टों ने अपनी विचारधारा के प्रसार और भारतीयता को कमजोर करने के लिए पत्रकारिता को एक साधन के रूप में अपनाया। आज भी मीडिया में कम्युनिस्टों की पकड़ साफ दिखायी देती है। इसलिए वे जब चाहते हैं, भारत विरोधी विमर्श खड़े कर देते हैं।

इस्लामिक आक्रामकता पर पर्दा डालने और हिन्दुओं को सांप्रदायिक सिद्ध करने में कम्युनिस्ट पत्रकारों ने ऐड़ी-चोटी का जोर लगाया है। अभी हाल ही में भोपाल में ‘लव जिहाद’ का बड़ा मामला सामने आया, जिसमें आरोपी मुस्लिम लड़के भी स्वीकार कर रहे हैं कि हिन्दू लड़कियों को धोखे स फंसाना और उनका यौन शोषण करना, उनके लिए सवाब का काम है। जब हिन्दी के प्रमुख समाचारपत्रों ने मुस्लिम लड़कों की इस स्वीकारोक्ति को प्रकाशित किया, तब कम्युनिस्ट माइंडसेट के मीडियाकर्मियों को बहुत बुरा लगा। उन्होंने अपने संस्थानों के डिजिटल एवं प्रिंट संस्थानों में इसके खिलाफ लिखना शुरू कर दिया। मतलब सच सामने नहीं आना चाहिए। भले ही हिन्दू लड़कियां मजहबी दरिंदों का शिकार होती रहें। पता नहीं उन्हें सच्ची बात लिखना, सांप्रदायिकता और मुस्लिम विरोध क्यों लगता है? इस्लामिक अपराध पर पर्दा डालने के लिए इसी प्रकार के कम्युनिस्ट एक से बढ़कर एक चालाकियां दिखाते हैं। जब कोई मौलवी दुष्कर्म या किसी आपराधिक कृत्य में पकड़ा जाता है, तब ये उसके लिए मौलवी या औलिया नहीं अपितु साधु या बाबा शब्द का उपयोग करते हैं। लोगों को इसी प्रकार भ्रमित करने की पत्रकारिता कम्युनिस्टों ने की है। हिन्दुओं की मॉब लिंचिंग के समाचार को सिंगल कॉलम में कहीं छिपा दिया जाता है, जबकि मुस्लिम व्यक्ति की मॉब लिंचिंग पर भारत से लेकर अमेरिका तक के समाचारपत्रों के प्रथम पृष्ठ से लेकर संपादकीय पृष्ठ तक रच दिए जाते हैं। यह दोहरा आचरण ही दोनों समुदायों के बीच नफरत फैलाता है।

ऐसे ही कुछ तथाकथित विद्वानों ने यह भ्रम भी पैदा कर दिया है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में पत्रकारिता की भूमिका विपक्ष की है। जिस प्रकार विपक्ष ने हंगामा करने और प्रश्न उछालकर भाग खड़े होने को ही अपना कर्तव्य समझ लिया है, ठीक उसी प्रकार कुछ पत्रकारों ने भी सनसनी पैदा करना ही पत्रकारिता का धर्म समझ लिया है। लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की विराट भूमिका से हटाकर न जाने क्यों पत्रकारिता को हंगामाखेज विपक्ष बनाने का प्रयत्न किया जा रहा है? यह अवश्य है कि लोकतंत्र में संतुलन बनाए रखने के लिए चारों स्तम्भों को परस्पर एक-दूसरे की निगरानी करनी है। पत्रकारिता को भी सत्ता के कामकाज की समीक्षा करनी है और उसको आईना दिखाना है। हम पत्रकारिता की इस भूमिका को देखते हैं, तब हमें वह हंगामाखेज नहीं अपितु समाधानमूलक दिखाई देती है। भारतीय दृष्टिकोण से जब हम संचार की परंपरा को देखते हैं, तब प्रत्येक कालखंड में संचार का प्रत्येक स्वरूप लोकहितकारी दिखाई देता है। संचार का उद्देश्य समस्याओं का समाधान देना रहा है।

पत्रकारिता का केवल एक ही पक्ष होना चाहिए- देशहित। कलम का जनता के पक्ष और देशहित में चलना ही उसकी सार्थकता है। पत्रकारिता में हमें जरूर ध्यान रखना चाहिए कि हमारे शब्दों एवं प्रश्नों से राष्ट्र की प्रतिष्ठा पर आँच न आए। हमारी कलम से निकल बहने वाली पत्रकारिता की धारा भारतीय स्वाभिमान, सम्मान और सुरक्षा के विरुद्ध न हो। कहने का अभिप्राय इतना-सा है कि हमारी पत्रकारिता में ‘राष्ट्र सबसे पहले’ का भाव जागृत होना चाहिए। वर्तमान पत्रकारिता में इस भाव की अनुपस्थिति दिखाई दे रही है। यदि पत्रकारिता में ‘राष्ट्र सबसे पहले’ का भाव जाग गया तब पत्रकारिता के समक्ष आकर खड़ी हो गईं ज्यादातर चुनौतियां स्वत: ही समाप्त हो जाएंगी। हिंदी के पहले समाचार पत्र उदंत मार्तंड का जो ध्येय वाक्य था- ‘हिंदुस्थानियों के हित के हेत’। अर्थात् देशवासियों का हित-साधन। यही तो ‘राष्ट्र सबसे पहले’ का भाव है। समाज के सामान्य व्यक्ति के हित की चिंता करना। उसको न्याय दिलाना। उसकी बुनियादी समस्याओं को हल करने में सहयोगी होना। न्यायपूर्ण बात कहना।  

एमएसपी में वृद्धि :कृषि और किसान कल्याण को गति

हाल ही में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति ने विपणन(मार्केटिंग) सीजन 2025-26 के लिए 14 खरीफ फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में वृद्धि को मंजूरी  दी है, यह कृषि और किसान कल्याण के विचार से एक स्वागत योग्य कदम कहा जा सकता है। अच्छी बात है कि आज भारत सरकार कृषि उत्पादन बढ़ाने के साथ ही साथ उत्पादन की लागत घटाने की दिशा में लगातार अपना फोकस कर रही है। बहरहाल, अच्छी बात यह भी है कि सरकार ने वित्त वर्ष 2025-26 के लिए संशोधित ब्याज छूट योजना के अंतर्गत ब्याज छूट को जारी रखने और आवश्यक निधि व्यवस्था को भी मंजूरी दी है। पाठकों को बताता चलूं कि पिछले वर्ष की तुलना में एमएसपी में सबसे अधिक वृद्धि रामतिल (820 रुपये प्रति क्विंटल) के लिए की गई है, इसके बाद रागी (596 रुपये प्रति क्विंटल), कपास (589 रुपये प्रति क्विंटल) और तिल (579 रुपये प्रति क्विंटल) के लिए एमएसपी में वृद्धि की गई है। निश्चित ही एमएसपी में वृद्धि से उत्पादकों को उनकी उपज के लिए लाभकारी मूल्य सुनिश्चित हो सकेगा। कहना ग़लत नहीं होगा कि खरीफ सीजन 2025-26 के लिए 14 खरीफ फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में बढ़ोतरी का यह एक ऐतिहासिक निर्णय है। सभी फसलों की एमएसपी में वृद्धि देशभर की औसत उत्पादन लागत का कम से कम 1.5 गुना सुनिश्चित करते हुए की गई है। वास्तव में सरकार का यह निर्णय हमारे देश के किसानों को सशक्त, समृद्ध और आत्मनिर्भर बनाने तथा उनकी आय बढ़ाने की दिशा में बड़ा कदम कहा जा सकता है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार किसानों को उनकी उत्पादन लागत पर अपेक्षित मार्जिन बाजरा (63 प्रतिशत) के मामले में सबसे अधिक होने का अनुमान है, उसके बाद मक्का (59 प्रतिशत), तुअर (59 प्रतिशत) और उड़द (53 प्रतिशत) का स्थान है. शेष फसलों के लिए, किसानों को उनकी उत्पादन लागत पर मार्जिन 50 प्रतिशत होने का अनुमान है। बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि आज कृषि और किसान कल्याण के क्षेत्र में लगातार काम हो रहा है। मसलन, आज किसानों को आज क्रेडिट कार्ड के तहत कम ब्याज पर ऋण उपलब्ध हो रहा है। किसानों को सस्ती खाद,बीज उपलब्ध करवायें जा रहे हैं और फर्टिलाइजर पर भी सब्सिडी प्रदान की जा रही है। इतना ही नहीं, प्रधान मंत्री किसान सम्मान निधि भारत सरकार की एक पहल है, जो किसानों को न्यूनतम आय सहायता के रूप में प्रति वर्ष ₹6,000 तक देती है। पाठकों को बताता चलूं कि इस पहल की घोषणा पीयूष गोयल ने 1 फरवरी 2019 को भारत के अंतरिम केंद्रीय बजट 2019 के दौरान की गई थी। हाल फिलहाल, फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में वृद्धि के तहत सामान्य धान के लिए एमएसपी में 3% की वृद्धि की गई है, जो अब ₹2,369 प्रति क्विंटल निर्धारित की गई है, जबकि ग्रेड ए किस्म ₹2,389 प्रति क्विंटल पर उपलब्ध होगी। ये पिछले वर्ष की तुलना में ₹69 की वृद्धि को दर्शाती है। दालों में, तुअर (अरहर) के लिए एमएसपी को ₹450 बढ़ाकर ₹8,000 प्रति क्विंटल कर दिया गया है, जबकि उड़द में ₹400 की वृद्धि करके ₹7,800 प्रति क्विंटल कर दिया गया है। मूंग के एमएसपी को एडजस्ट किया गया है, जो ₹86 बढ़ाकर ₹8,768 प्रति क्विंटल कर दिया गया है। बहरहाल, अच्छी बात है कि सरकार ने खरीफ की फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा जरूर कर दी है लेकिन अब जरूरत इस बात की है कि सरकार इस पर प्रभावी निगरानी रखें और यह सुनिश्चित करें कि इसका क्रियान्वयन भी धरातल पर सही तरीके से हो सके। इसके साथ ही सरकार को विभिन्न दीर्घकालिक कृषि सुधारों पर भी ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है। पाठक जानते हैं कि भारत विश्व का एक बड़ा कृषि प्रधान देश है और यहां की अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित है। ऐसे में फसलों के समर्थन मूल्यों में बढ़ोत्तरी से भारतीय कृषि क्षेत्र निश्चित ही मजबूत और सुदृढ़ हो सकेगा। बहरहाल, यहां पाठकों को बताता चलूं कि एमएसपी यानी कि न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था की स्थापना वर्ष 1965 में कृषि मूल्य आयोग (एपीसी) (जिसे बाद में सीएसीपी नाम दिया गया) की स्थापना करके की गई थी, जो राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा को बढ़ाने और किसानों को बाजार मूल्यों में महत्वपूर्ण गिरावट से बचाने के लिए बाजार हस्तक्षेप का एक रूप था। दूसरे शब्दों में कहें तो एमएसपी दरअसल वह तयशुदा मूल्य होता है, जो किसानों को बाजार में उनकी उपज के मूल्य से अप्रभावित रहते हुए दिया जाता है। पाठकों को बताता चलूं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य या यूं कहें कि एमएसपी का फायदा यह होता है कि बाजार में फसलों की कीमतों में भले ही कितना ही उतार चढ़ाव क्यों न हो, यदि किसी फसल की एमएसपी(न्यूनतम समर्थन मूल्य) तय होती है तो भी किसान को फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य (सरकार द्वारा तय) तो मिलता ही है। मतलब यह है कि बाजार में फसलों की कीमतों में होने वाले उत्तार-चढ़ाव का असर किसानों पर नहीं पड़ता है। गौरतलब है कि  फसलों के हर मौसम से पहले सरकार कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) की सिफारिश पर एमएसपी(न्यूनतम समर्थन मूल्य) तय करती है।ताजा निर्णय के तहत ज्वार, बाजरा और रागी इत्यादि फसलों की एमएसपी भी बढ़ा दी गई है। विभिन्न कारणों से आज भारतीय कृषि में खेती की लागत लगातार बढ़ रही है। किसानों को असामान्य जलवायु परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, जैसा कि भारतीय कृषि को ‘मानसून का जुआ’ कहा जाता है। वैश्विक मंदी के कारण आज बाजार भी लगातार अस्थिरता से जूझ रहे हैं। ऐसे समय में सरकार द्वारा धान एवं दालों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि से जहां एक ओर देश के लाखों-करोड़ों किसान लाभान्वित हो सकेंगे, वहीं दूसरी ओर उन्हें कृषि उत्पादन बढ़ाने हेतु प्रोत्साहन मिल सकेगा। इससे देश की खाद्य सुरक्षा भी कहीं न कहीं सुनिश्चित हो सकेगी, लेकिन कहना ग़लत नहीं होगा कि एमएसपी का प्रभावी कार्यान्वयन बहुत ही जरूरी और महत्वपूर्ण है, क्यों कि बिचौलिए आज भी एक बड़ी समस्या हैं। अंत में यही कहूंगा कि किसान और कृषि भारत की अर्थव्यवस्था की असली रीढ़ हैं। आज जरूरत इस बात की है कि खेती से बिचौलियों की भूमिका को खत्म करने की दिशा में आवश्यक व जरूरी कदम उठाए जाएं। कृषि क्षेत्र में आज फसलों के भंडारण की समस्या भी बहुत बड़ी समस्या है। हमारे यहां विदेशों की भांति पारदर्शी खरीद तंत्र विकसित नहीं है। फसलों की बाजार तक पहुंच भी सुनिश्चित करने की आवश्यकता है। आज भारतीय कृषि में दीर्घकालिक सुधारों की आवश्यकता है। यहां पाठकों को बताता चलूं कि कृषि में दीर्घकालिक सुधार का अर्थ है एक ऐसी प्रणाली विकसित करना जो खाद्य उत्पादन, प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण और पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए, कृषि क्षेत्र को टिकाऊ और लाभदायक बना सके।इस सुधार में भूमि पुनर्जनन, जैव विविधता का संरक्षण, और नई तकनीकों(सिंचाई, गुणवत्तापूर्ण बीज, तकनीकी सहायता व प्रशिक्षण) का उपयोग शामिल है।

सुखद है 199 वर्षों का हिन्दी पत्रकारिता का इतिहास

हिन्दी पत्रकारिता दिवस (30 मई) पर विशेष
जनसंचार का सशक्त माध्यम है हिन्दी पत्रकारिता
– योगेश कुमार गोयल

पूर्व राष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा ने लोकतंत्र में प्रेस की भूमिका के बारे में कहा था कि प्रेस पर लोकतांत्रिक परम्पराओं की रक्षा करने और शांति व भाईचारा बढ़ाने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। राष्ट्रीय अखण्डता के संदर्भ में पत्रकारिता की भूमिका की बात करें तो लोकतंत्र के अन्य स्तंभों के मुकाबले प्रेस की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि विश्वभर में भारत की प्रतिष्ठा के जो तीन प्रमुख कारण माने गए हैं, वे हैं जागरूक मतदाता, स्वतंत्र न्यायपालिका व स्वतंत्र प्रेस। भारत में प्रेस को जनता की एक ऐसी ‘संसद’ की उपाधि दी गई है, जिसका कभी सत्रावसान नहीं होता और जो सदैव जनता के लिए ही कार्य करती है। इसे समाज में परिवर्तन लाने का अथवा उसे जागृत करने के लिए जन संचार का सशक्त माध्यम माना गया है। प्रेस को समाज की चिंतन प्रक्रिया का एक ऐसा अनिवार्य तत्व माना गया है, जो उसे दिशा व गति देने में सक्षम हो। इसे जनता की ऐसी आंख माना गया है, जो सभी पर अपनी पैनी और निष्पक्ष दृष्टि रखे। प्रेस को जनता की उंगली माना गया है, जो गलत कार्यों के विरोध में स्वतः ही उठ जाती है। प्रेस को समाज के प्रति पूर्ण समर्पण के रूप में देखा जाता है। इसे केवल एक पेशा न मानकर जनसेवा का सबसे बड़ा माध्यम माना गया है।
प्रेस की भूमिका पर टिप्पणी करते हुए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था, ‘‘प्रेस का प्रथम उद्देश्य जनता की इच्छाओं व विचारों को समझना और उन्हें सही ढ़ंग से व्यक्त करना है जबकि दूसरा उद्देश्य जनता में वांछनीय भावनाओं को जागृत करना और तीसरा उद्देश्य सार्वजनिक दोषों को निर्भयतापूर्वक प्रकट करना है।’’ वैसे भारत-पाक युद्ध का उल्लेख करें अथवा भारत-चीन लड़ाई का या अन्य चुनौतीपूर्ण अवसरों का, प्रेस ने ऐसे हर अवसर पर अपनी महत्ता सिद्ध की है और कहना गलत न होगा कि हिन्दी पत्रकारिता का स्थान इसमें सर्वोपरि रहा है। चाहे हिन्दी भाषी टीवी चैनलों की बात हो या हिन्दी के समाचारपत्र अथवा पत्रिकाओं की, उनका देश की बहुसंख्यक आबादी के साथ विशेष जुड़ाव रहा है और इस दृष्टि से राष्ट्र की एकता, अखण्डता एवं विकास की दिशा में हिन्दी पत्रकारिता की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। हालांकि हिन्दी पत्रकारिता के 199 वर्षों के इतिहास में समय के साथ पत्रकारिता के मायने और उद्देश्य बदलते रहे हैं किन्तु उसके बावजूद सुखद स्थिति यह है कि हिन्दी पत्रकारिता के पाठकों या दर्शकों की रूचि में कोई कमी नहीं आई। यह अलग बात है कि अंग्रेजी मीडिया और उससे जुड़े कुछ पत्रकारों ने भले ही हिन्दी पत्रकारिता की उपेक्षा करते हुए सदैव उसकी प्रामाणिकता एवं विश्वसनीयता पर सवाल उठाने की कोशिशें की हैं किन्तु वास्तविकता यही है कि पिछले कुछ दशकों में हिन्दी पत्रकारिता ने अपनी ताकत का बखूबी अहसास कराया है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी उसकी विश्वसनीयता बढ़ी है। यह हिन्दी पत्रकारिता की बढ़ती ताकत का ही नतीजा है कि कुछ हिन्दी अखबारों ने अनेक संस्करणों के साथ प्रसार संख्या के मामले में कुछ अंग्रेजी अखबारों को भी पीछे छोड़ दिया है।
हिन्दी पत्रकारिता की शुरूआत 30 मई 1826 को कानपुर निवासी पं. युगुल किशोर शुक्ल द्वारा प्रथम हिन्दी समाचार पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ के प्रकाशन के साथ हुई थी, जिसका अर्थ था ‘समाचार सूर्य’। उस समय अंग्रेजी, फारसी और बांग्ला में कई समाचारपत्र निकल रहे थे किन्तु हिन्दी का पहला समाचारपत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ 30 मई 1826 को कलकत्ता से पहली बार प्रकाशित हुआ था, जो साप्ताहिक के रूप में आरंभ किया गया था। पहली बार उसकी केवल 500 प्रतियां ही छापी गई थी लेकिन चूंकि कलकत्ता में हिन्दी भाषियों की संख्या काफी कम थी और इसके पाठक कलकत्ता से बहुत दूर के भी होते थे, इसीलिए संसाधनों की कमी के कारण यह लंबे समय तक प्रकाशित नहीं हो पाया। 4 दिसम्बर 1826 से ‘उदन्त मार्तण्ड’ का प्रकाशन बंद कर दिया गया लेकिन इस समाचारपत्र के प्रकाशन के साथ ही हिन्दी पत्रकारिता की ऐसी नींव रखी जा चुकी थी कि उसके बाद से हिन्दी पत्रकारिता ने अनेक आयाम स्थापित किए हैं। ‘उदन्त मार्तण्ड’ के बाद अंग्रेजी शासनकाल में अनेक हिन्दी समाचारपत्र व पत्रिकाएं एक मिशन के रूप में निकलते गए किन्तु ब्रिटिश शासनकाल की ज्यादतियों के चलते उन्हें लंबे समय तक चलाते रहना बड़ा मुश्किल था, फिर भी कुछ पत्र-पत्रिकाओं ने सराहनीय सफर तय किया। अब परिस्थितियां बिल्कुल बदल चुकी हैं और हिन्दी पत्रकारिता भी मिशन न रहकर एक बड़ा व्यवसाय बन गई है किन्तु अच्छी बात यह है कि आज भी हिन्दी पाठक व दर्शक अपनी-अपनी पसंद के अखबारों व चैनलों के साथ पूरी शिद्दत से जुड़े हैं।
बहरहाल, घर बैठे-बैठे दुनिया की सैर कराने की बात हो या देश-विदेश की हर छोटी-बड़ी हलचल से लेकर तमाम ज्वलंत मुद्दों और हर प्रकार की नवीनतम जानकारियों को जुटाकर अपने पाठकों या दर्शकों के सामने प्रस्तुत करने की, व्यवसायीकरण के आरोपों या तमाम विरोधाभासों के बावजूद हिन्दी पत्रकारिता यह काम बखूबी कर रही है और आमजन के भरोसे पर खरा उतरते हुए हिन्दी पत्रकारिता आज आम जनजीवन का अभिन्न अंग बन चुकी है। अधिकांश हिन्दी समाचारपत्रों के अब ऑनलाइन संस्करण उपलब्ध हैं। विगत कुछ वर्षों में देश में बड़े-बड़े घोटालों का पर्दाफाश करके अनेक सफेदपोशों के चेहरों पर पड़े नकाब उतार फैंकने का श्रेय भी पत्रकारिता जगत को ही जाता है, जिसमें हिन्दी पत्रकारिता की भूमिका को भी किसी भी लिहाज से कमतर नहीं आंका जा सकता।
जहां तक राष्ट्रीय अखंडता में प्रेस की भूमिका और इसके दायित्वों का प्रश्न है तो प्रेस के कई प्रमुख दायित्व माने गए हैं, जिनमें कानून व्यवस्था की खामियों को प्रकाशित-प्रसारित करना, अपने प्रयासों से शासन को सुव्यवस्थित करना व लोक हितकारी बनाना, पथभ्रष्टों को सन्मार्ग पर लाना, भ्रष्ट तंत्र को चौकन्ना बनाना, असामाजिक तत्वों पर कड़ी नजर रखना, समाज के विभिन्न क्षेत्रों में पर्दे की ओट में होने वाले दुष्कृत्यों, अत्याचारों व अन्याय का जनहित में पर्दाफाश करना, समाज व मानवता के गुनाहगार चेहरों पर पड़े नकाब नोचकर जनता के सामने लाना, निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए धार्मिकता एवं राजनीति की आड़ लेने वालों के राज पर्दाफाश करना, समाज में स्वस्थ मानक स्थापित करना, लोक चेतना जागृत करना इत्यादि शामिल हैं। वर्तमान में जहां देशभर में नैतिक मूल्यों में बड़ी गिरावट आई है और राजनीतिज्ञों, विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायिक व्यवस्था पर से लोगों का विश्वास कम हो रहा है, वहीं हिन्दी पत्रकारिता भी इस नैतिक पतन का शिकार होने से नहीं बची है। फिर भी इतना संतोष तो किया ही जा सकता है कि इसने इसके बावजूद अधिकांश अवसरों पर सराहनीय भूमिका निभाई है। हालांकि आज के पूर्ण व्यावसायिकता के दौर में पत्रकारिता को अव्यावसायिक बनाए रखने की बात करना बेमानी होगा क्योंकि इस पेशे से जुड़े लोगों को भी अपने परिवार के पालन-पोषण के लिए इसे एक व्यवसाय के रूप में अपनाना अनिवार्य होता गया है लेकिन व्यावसायिकता के इस दौर में भी इसे एक उद्योग-धंधे के रूप में स्थापित करने के प्रयासों के चलते पत्रकारिता के मानदंडों को ताक पर रखने की प्रवृति से तो हर हाल में बचना ही चाहिए।

रक्षा में आत्मनिर्भरता के बढ़ते कदमों से बढ़ती सैन्य-ताकत

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– ललित गर्ग –

ऑपरेशन सिंदूर की शानदार कामयाबी, पाकिस्तान को करारी चोट पहुंचाने, विश्व को भारत की सैन्य ताकत दिखाने और अपने सैनिकों के अद्भुत पराक्रम के प्रदर्शन की गौरवपूर्ण स्थितियों के बीच एक बड़ी खुशखबरी है कि भारत सरकार ने पांचवीं पीढ़ी के स्वदेशी लड़ाकू विमान (एडवांस्ड मीडियम कॉम्बैट एयरक्राफ्ट यानी एएमसीए) के प्रोडक्शन मॉडल को मंजूरी देते हुए इस परियोजना पर आगे बढ़ने को हरी झंडी दिखा दी है। निश्चित ही इस फैसले से दुनिया की महाशक्तियां चौंकी है, वहीं यह भारतवासियों के लिये एक नई आशा एवं संभावनाभरी खुशखबरी है। क्योंकि दुनिया की महाशक्ति बनने के लिये सैन्य साजो-सामान की दृष्टि से आत्म निर्भर होना प्रथम प्राथमिकता है। दुनिया पर वर्चस्व स्थापित करने का यह सबसे बड़ा आधार है कि हम सैन्य साजो सामान में स्वावलम्बी ही नहीं, निर्यातक बने। क्योंकि उन्हें दूसरे देशों से खरीदने में विदेशी पूंजी का व्यय होने के साथ कई तरह के दबावों का भी सामना करना पड़ता है। दूसरे देश अपनी शर्तों पर ये हमें उपलब्ध कराते हैं, अर्थ का व्यय भी स्वदेशी उत्पादन की तुलना में बहुत ज्यादा करना पड़ता है। जबसे रक्षा सामग्री के निर्माण में निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाई गई है, तब से भारत का रक्षा निर्यात तेजी से बढ़ा है। रक्षा मंत्रालय के ताजा फैसले के बाद सरकारी और निजी क्षेत्र की कंपनियों के शेयर जिस तरह उछले, उससे यही पता चलता है कि देश रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर होने के लिए नई दिशाओं को उद्घाटित कर रहा है।
निश्चित ही पांचवीं पीढ़ी के उन्नत लड़ाकू विमानों का देश में ही निर्माण करने और उसमें निजी क्षेत्र का सहयोग लेने की रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की घोषणा एक ऐसा फैसला है, जो दूरगामी एवं देशहित का सराहनीय कदम है। ऐसे फैसलों में बिना विलम्ब के प्रोत्साहन एवं सहयोग होना चाहिए। हमें निश्चित करना चाहिए कि आधुनिक लड़ाकू विमानों के निर्माण तय समय में हो, इसके लिए हरसंभव उपाय किए जाने चाहिए। ऐसे फैसलों से भारत की ताकत बढ़ती है, दुनिया की अधीनता कमतर होती है। गौरतलब है, अभी तक अमेरिका, रूस और चीन ने ही पांचवीं पीढ़ी के स्वदेशी लड़ाकू विमान बनाने में सफलता हासिल की है। इस योजना के जरिये दुनिया को यह संदेश देना है कि भारत अब पांचवीं पीढ़ी का लड़ाकू विमान खरीदने की बजाय खुद बनाने का काम करेगा। इस स्वदेशी विमान के डिजाइन और विकास के लिए सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति ने हाल ही में पन्द्रह हजार करोड़ रुपये की राशि मंजूर की थी। अब रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) की एयरोनॉटिकल डेवलपमेंट एजेंसी (एडीए) इस प्रोजेक्ट का नेतृत्व करेगी और डीआरडीओ के मुखिया की मानें, तो अगले एक दशक में यह लड़ाकू विमान भारतीय वायु सेना के बेड़े का हिस्सा होगा। निस्संदेह, हमारे रक्षा वैज्ञानिकों की सराहना की जानी चाहिए कि उनके अथक परिश्रम, तकनीकी कौशल और मेधा के कारण देश जल्द ही सुरक्षा साजो-सामान के मामले में भी आत्म-निर्भर बन जाएगा। इन स्थितियों के लिये जहां रक्षामंत्री राजनाथ सिंह की सराहना होनी चाहिए वही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व का लोहा मानना चाहिए।
मौजूदा समय में भारत लड़ाकू विमान के मामले में दूसरे देशों पर निर्भर है। सरकार ने इस दिशा में भी आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए बड़ा कदम उठाया है। इस फैसले से घरेलू एयरोस्पेस इंडस्ट्री को सशक्त बनाने में मदद मिलेगी। एएमसीए का विकास भारतीय वायु सेना की लड़ाकू क्षमताओं को मजबूत करने और देश की रक्षा को बढ़ावा देने में मील का पत्थर साबित होगा। पडोसी देशों की हरकतों, युद्ध की संभावनाओं एवं षडयंत्रों को देखते हुए आने वाले समय में होने वाले युद्ध में वायुसेना की क्षमता और तकनीक को अधिक सशक्त बनाने की अपेक्षा है। भारत हमेशा से एक शांतिकामी मुल्क रहा है, मगर अपनी सरहदों व विशाल आबादी की सुरक्षा के लिए वह दूसरे देशों के हथियारों या सुरक्षा उपकरणों पर पूरी तरह निर्भर नहीं रह सकता। विदेशी लड़ाकू विमानों या हथियारों की खरीद में उनके तकनीकी हस्तांतरण को लेकर कई तरह की पेचीदगियां पेश आती हैं। कई देश उन्नत रक्षा उपकरण तो दे देते हैं, लेकिन उनकी तकनीक नहीं देते या फिर उनके कलपुर्जे देने में देरी करते हैं। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पर्याप्त संख्या में तेजस लड़ाकू विमान बनाने में इसलिए विलंब हो रहा है, क्योंकि अमेरिका उनके लिए इंजन देने में आनाकानी कर रहा है। इसलिए एचएएल, डीआरडीओ की स्थापना की जरूरत मससूस की गई थी और आज इनके बनाए हथियार न सिर्फ हमारी सैन्य शक्ति का हिस्सा बन रहे हैं, बल्कि इस वजह से हमारा 20 फीसदी से भी अधिक सैन्य आयात कम हुआ है। आज हम अपने स्वदेशी लड़ाकू विमान तेजस दुनिया को बेचने की स्थिति में हैं।
मौजूदा समय में लड़ाकू विमान के लिए भारत अमेरिका और पश्चिमी देशों और रूस पर निर्भर है। देश में लड़ाकू विमानों की कमी भी है। ऐसे में सरकार स्वदेशी निर्मित आधुनिक लड़ाकू विमान के निर्माण को बढ़ावा देने की दिशा में कदम उठाकर सूझबूझ एवं दूरगामी सोच का परिचय दिया है। आज जब युद्ध के तौर-तरीके बदल रहे हैं, तब भारत को हर तरह की रक्षा सामग्री स्वदेश में ही बनाने में इसलिए सक्षम होना होगा, क्योंकि ऐसा करके ही वह सच्चे अर्थों में महाशक्ति बन सकता है। प्रारंभ में विदेशी कंपनियों का सहयोग लेने में हर्ज नहीं, क्योंकि ऐसा करके ही तेजी के साथ उन्नत रक्षा समाग्री का निर्माण किया जा सकता है। भारत आधुनिक रक्षा उपकरण एवं तकनीक का निर्माण करने में सक्षम है, इसे आपरेशन सिंदूर ने साबित भी कर दिया। हमारे रक्षा उपकरणों और तकनीक ने जिस तरह तुर्किये के ड्रोन की हवा निकालने के साथ चीनी एयर डिफेंस की पोल खोल दी, उसे विश्व भर के रक्षा विशेषज्ञ भी मान रहे हैं। रूस के सहयोग से बनी ब्रह्मोस मिसाइल और स्वदेशी तकनीक पर आधारित आकाश ने सिद्ध किया कि हमारे रक्षा विज्ञानी किसी से कम नहीं। उन्हें भरपूर प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है।
भारत की रक्षा सेना दुनिया में सबसे शक्तिशाली और सम्मानित सेनाओं में से एक है, जो अपने आकार, ताकत और उन्नत तकनीक के साथ वैश्विक मंच पर धूम मचा रही है। चाहे सीमाओं पर गश्त करना हो, आसमान की सुरक्षा करनी हो या विशाल हिंद महासागर को सुरक्षित रखना हो, भारत की सेना एक ऐसी ताकत है जिसका लोहा माना जाना चाहिए। भारत का लक्ष्य सिर्फ़ वैश्विक सैन्य शक्तियों के साथ बने रहनाभर नहीं है-यह उनके साथ है बल्कि अब उससे आगे भी आना है। किसी भी युद्ध या संघर्ष में वायु सेना की भूमिका निर्णायक हो चली है। हमास-इजरायल जंग हो या रूस-यूक्रेन लड़ाई, इस तथ्य को पूरी दुनिया स्वीकारती है। ऑपरेशन सिंदूर के जरिये हमारी वायु सेना ने भी दिखा दिया है कि किस सटीकता से शत्रुओं के लक्ष्य को मटियामेट करने में वह सक्षम है। ऐसे में भारतीय वायु सेना की जरूरतों पर गंभीरता से ध्यान देने की आवश्यकता है। वर्तमान में, भारत दुनिया में चौथे स्थान पर है, जो केवल संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस और चीन से पीछे है। यह स्थान इसके उन्नत विमान, बेहतर प्रशिक्षण और रणनीतिक महत्व के संयोजन के कारण अर्जित किया गया है। बहुमुखी राफेल जेट से लेकर शक्तिशाली सुखोई अपने रास्ते में आने वाली किसी भी चुनौती से निपटने के लिए सुसज्जित है। निश्चित ही भारत ने एक ऐसा सैन्य बल बनाया है जो ध्यान आकर्षित करता है, जिसमें विशाल जनशक्ति, अत्याधुनिक तकनीक और गहन रणनीतिक फोकस का संतुलन है। यह अब सिर्फ़ एक क्षेत्रीय खिलाड़ी नहीं है; भारत खुद को एक प्रमुख वैश्विक शक्ति के रूप में स्थापित कर रहा है। भारतीय वायुसेना के पायलट दुनिया के सर्वश्रेष्ठ पायलटों में से हैं, जो न केवल हार्डवेयर बल्कि मानवीय तत्व के कारण हवाई प्रभुत्व बनाते हैं। चाहे वह सीमाओं पर खतरों का जवाब देना हो या हवाई श्रेष्ठता सुनिश्चित करना हो, भारत की वायु सेना अपनी रक्षा रणनीति में एक प्रमुख खिलाड़ी है, जो हमेशा आसमान की रक्षा के लिए तैयार रहती है।

शौर्य, स्वाभिमान और पराक्रम के प्रतीक: महाराणा प्रताप

महाराणा प्रताप जयंती (29 मई) विशेष-

संदीप सृजन

महाराणा प्रताप का जीवन एक ऐसी प्रेरक गाथा है जो हर भारतीय को गर्व से भर देती है। उन्होंने अपने जीवन में कभी हार नहीं मानी और स्वतंत्रता के लिए अंतिम सांस तक संघर्ष किया। उनकी जयंती हमें न केवल उनके बलिदान को याद करने का अवसर देती है, बल्कि यह हमें अपने जीवन में साहस, स्वाभिमान और देशभक्ति के मूल्यों को अपनाने के लिए प्रेरित करती है। महाराणा प्रताप का नाम हमेशा भारतीय इतिहास के पन्नों में अमर रहेगा, और उनकी गाथा आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देती रहेगी।

महाराणा प्रताप का जन्म जेष्ठ शुक्ला तृतीया, (9 मई 1540) को राजस्थान के कुम्भलगढ़ दुर्ग में हुआ था। उनके पिता महाराणा उदय सिंह द्वितीय मेवाड़ के शासक थे, और उनकी माता रानी जीवत कंवर थीं। प्रताप सिसोदिया राजवंश के गौरवशाली वंशज थे, जो अपनी वीरता और स्वतंत्रता की भावना के लिए प्रसिद्ध थे। बचपन से ही प्रताप में नेतृत्व, साहस और देशभक्ति के गुण दिखाई देने लगे थे। उन्हें युद्ध कला, घुड़सवारी, तलवारबाजी और धनुर्विद्या में प्रशिक्षित किया गया। उनके गुरुओं ने उन्हें न केवल शारीरिक बल, बल्कि मानसिक दृढ़ता और नैतिकता का पाठ भी पढ़ाया।

प्रताप का बचपन उस समय बीता जब मेवाड़ मुगल शासक अकबर की बढ़ती शक्ति के साये में था। उनके पिता उदय सिंह ने चित्तौड़गढ़ को मुगलों के अधीन होने से बचाने के लिए कड़ा संघर्ष किया, लेकिन 1568 में चित्तौड़गढ़ मुगलों के हाथों में चला गया। इस घटना ने युवा प्रताप के मन पर गहरा प्रभाव डाला और उन्होंने मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए जीवन समर्पित करने का संकल्प लिया।

1572 में उदय सिंह की मृत्यु के बाद प्रताप मेवाड़ के महाराणा बने। उस समय मेवाड़ की स्थिति अत्यंत नाजुक थी। मुगल सम्राट अकबर ने अधिकांश राजपूत रियासतों को अपने अधीन कर लिया था, और मेवाड़ भी उनके निशाने पर था। अकबर ने मेवाड़ को अपने साम्राज्य में मिलाने के लिए कई बार राजनयिक प्रयास किए, लेकिन प्रताप ने मुगलों की अधीनता स्वीकार करने से स्पष्ट इनकार कर दिया। उनके लिए स्वाभिमान और स्वतंत्रता सर्वोपरि थी।

प्रताप का यह निर्णय केवल एक राजनैतिक कदम नहीं था, बल्कि यह उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति और मातृभूमि के प्रति उनकी निष्ठा का प्रतीक था। उन्होंने कहा था, “मैं अपने पूर्वजों की स्वतंत्रता की विरासत को कभी नहीं छोडूंगा।” इस संकल्प ने उन्हें मुगल साम्राज्य के खिलाफ एक अडिग योद्धा के रूप में स्थापित किया।

महाराणा प्रताप की वीरता का सबसे प्रसिद्ध अध्याय है हल्दीघाटी का युद्ध, जो 18 जून 1576 को लड़ा गया। यह युद्ध मेवाड़ और मुगल सेना के बीच हुआ, जिसमें मुगल सेना का नेतृत्व मानसिंह और आसफ खान कर रहे थे। मुगल सेना की संख्या और संसाधन मेवाड़ की तुलना में कहीं अधिक थे। अनुमान के अनुसार, मुगल सेना में लगभग 80,000 सैनिक थे, जबकि प्रताप की सेना में केवल 20,000 योद्धा थे। फिर भी, प्रताप ने अपने साहस और रणनीति से इस युद्ध को इतिहास में अमर कर दिया।

हल्दीघाटी का युद्ध केवल एक सैन्य टकराव नहीं था, बल्कि यह स्वतंत्रता और स्वाभिमान की लड़ाई थी। प्रताप ने अपने प्रिय घोड़े चेतक के साथ युद्ध में अद्भुत पराक्रम दिखाया। चेतक ने अपने स्वामी को युद्ध के मैदान में सुरक्षित रखने के लिए अपनी जान तक न्यौछावर कर दी। एक प्रसिद्ध घटना में, चेतक ने घायल होने के बावजूद प्रताप को युद्धभूमि से सुरक्षित निकाला और एक नाले को पार करने के बाद दम तोड़ दिया। चेतक की यह वफादारी और बलिदान आज भी लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।

हल्दीघाटी युद्ध का परिणाम विवादास्पद रहा। कुछ इतिहासकार इसे मुगलों की जीत मानते हैं, क्योंकि मेवाड़ की सेना को पीछे हटना पड़ा, लेकिन प्रताप की रणनीति और साहस ने मुगलों को मेवाड़ पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित करने से रोक दिया। युद्ध के बाद भी प्रताप ने हार नहीं मानी और गुरिल्ला युद्ध की रणनीति अपनाकर मुगलों को लगातार चुनौती दी।

हल्दीघाटी युद्ध के बाद प्रताप ने मेवाड़ के जंगलों और पहाड़ों को अपना ठिकाना बनाया। उन्होंने गुरिल्ला युद्ध की रणनीति अपनाई, जिसमें छोटी-छोटी टुकड़ियों के साथ मुगल सेना पर आकस्मिक हमले किए जाते थे। इस रणनीति ने मुगलों को मेवाड़ के अधिकांश हिस्सों पर कब्जा करने से रोका। प्रताप की सेना में भील और अन्य जनजातीय योद्धा भी शामिल थे, जिन्होंने अपनी स्थानीय जानकारी और युद्ध कौशल से मेवाड़ की रक्षा में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

इस दौरान प्रताप को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उनके परिवार को जंगलों में भटकना पड़ा, और कई बार भोजन की कमी के कारण उन्हें घास की रोटियां खाकर गुजारा करना पड़ा। एक प्रसिद्ध कथा के अनुसार, जब प्रताप की बेटी भूख से रो रही थी, तब उनकी पत्नी ने घास की रोटी बनाई, जिसे देखकर प्रताप की आंखें नम हो गईं। लेकिन इन कठिन परिस्थितियों में भी प्रताप का संकल्प कभी नहीं डगमगाया।

महाराणा प्रताप न केवल एक योद्धा थे, बल्कि एक आदर्श नेता भी थे। उन्होंने अपने सैनिकों और प्रजा के साथ हमेशा सम्मान और सहानुभूति का व्यवहार किया। उनके नेतृत्व में मेवाड़ की जनता ने मुगलों के खिलाफ एकजुट होकर संघर्ष किया। प्रताप ने कभी भी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया, भले ही उन्हें कितनी भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।

उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण पहलू था उनकी धार्मिक सहिष्णुता। प्रताप ने सभी धर्मों का सम्मान किया और अपने शासनकाल में किसी भी समुदाय के साथ भेदभाव नहीं किया। उनके दरबार में हिंदू, मुस्लिम और अन्य समुदायों के लोग एक साथ काम करते थे। यह उनकी उदारता और समावेशी दृष्टिकोण को दर्शाता है।

1597 में एक शिकार के दौरान लगी चोट के कारण महाराणा प्रताप की मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु मेवाड़ के लिए एक बड़ा आघात थी, लेकिन उनकी विरासत आज भी जीवित है। मृत्यु से पहले उन्होंने अपने पुत्र अमर सिंह को मेवाड़ की स्वतंत्रता की रक्षा करने का दायित्व सौंपा।

महाराणा प्रताप की गाथा केवल मेवाड़ तक सीमित नहीं है। वे भारतीय इतिहास में स्वतंत्रता, स्वाभिमान और साहस के प्रतीक बन गए। उनकी कहानी आज भी स्कूलों, कविताओं, गीतों और नाटकों के माध्यम से लोगों तक पहुंचती है। राजस्थान में उनकी स्मृति में कई स्मारक और प्रतिमाएं स्थापित की गई हैं, जो उनकी वीरता को जीवित रखती हैं।

महाराणा प्रताप केवल एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व ही नहीं बल्कि हमारे समाज के लिए आदर्श है, जो स्वाभिमान से जीवन जीने की  प्रेरणा देते है। आज के समय में, जब हम आधुनिक चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, प्रताप का जीवन हमें सिखाता है कि दृढ़ संकल्प और साहस के साथ किसी भी कठिनाई को पार किया जा सकता है।महाराणा प्रताप का नाम भारतीय इतिहास के स्वर्ण पृष्ठों पर सदैव चमकता रहेगा, और उनकी यशगाथा आने वाली पीढ़ियों को उर्जा प्रदान करती रहेगी।

संदीप सृजन

समय के साथ क्यों नहीं बदल सकी हिंदी पत्रकारिता ?

30 मई, हिंदी पत्रकारिता दिवस

डा विनोद बब्बर

पिछले दिनों पत्रकारिता के एक छात्र ने पूछा कि ‘1993 से अब तक कितनी बदली हिंदी पत्रकारिता ?’ जब हम पत्रकारिता के क्षेत्र में 1993 की बात करते हैं तो स्पष्ट है कि बात सूडान में पड़े अकाल और पत्रकार केविन कार्टर के बहुचर्चित चित्र ‘द वल्चर एण्ड ए गर्ल’ से है। उस चित्र में एक गिद्ध भूख से मर रही एक बच्ची के मरने का इंतज़ार कर रहा है। इस चित्र के लिए पत्रकार महोदय को पुलित्जर पुरस्कार भी मिला लेकिन उसके कुछ समय बाद मात्र 33 वर्ष की आयु के उस पत्रकार से किसी ने पूछा लिया कि ‘ आपके उस चित्र में जो लड़की है उस लड़की का क्या हुआ?’ पत्रकार महोदय बोले, ‘मुझे नहीं मालूम। क्योंकि मुझे फ्लाइट पकड़नी थी।’ इस पर प्रश्नकर्ता ने कहा, ‘ओह, इसका मतलब उस समय वहां दो गिद्ध थे। उनमें एक के हाथ में कैमरा था।’ इस बात ने पत्रकार कार्टर को अपराधबोध से ग्रस्त कर दिया कि वह अवसाद में चला गया और उसने आत्महत्या कर ली।

निश्चित रूप से संवेदनशीलता कल भी मनुष्यता की कसौटी थी और आज भी है लेकिन तब से अब तक तो बहुत कुछ बदला है। उस समय केवल एक केविन कार्टर था, आज सोशल मीडिया के माध्यम से बने स्वयंभू पत्रकार भी तो दिनभर अनेक प्रकार के चित्र फेसबुक ट्विटर इंस्टाग्राम से व्हाट्सएप तक चिपकाते रहते हैं । केविन में संवेदनशीलता शेष थी इसलिए उसे अपराधबोध हुआ लेकिन आज हम सब भी तो किसी की दुर्घटना में छटपटा रहे व्यक्ति को अस्पताल पहुंचने अथवा इसी प्रकार की प्राथमिक चिकित्सा देने की बजाय वीडियो बना रहे होते हैं। हमारी यह हृदयहीनता आज ‘उपलब्धि’ बन गई है। इस पर जब कोई प्रश्न उठता है तो हम तुनकर कहते हैं, ‘पत्रकार का काम किसी की मदद करना नहीं है’. उनका यह तर्क गलत भी नहीं है लेकिन मन में एक सवाल कुलबुला रहा है कि ‘क्या अभिनेता का काम मदद करना होता है?’ शायद नहीं। अभिनेता का काम भी अभिनय करना है तो वैश्विक महामारी कोरोना के दौरान समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों को दुःखी परेशान लोगों की मदद करने की क्या जरूरत थी। बहुत संभव है हम कहें कि उन के पास पैसे थे अथवा उन्हें समाज सेवा के नाम पर राजनीति में अपने लिए स्थान सुरक्षित करना था। लेकिन क्या दुखी परेशान गरीब का दर्द बेचकर अपने समाचार पत्र अथवा चैनल की आय बढाने वालों का क्या कोई सामाजिक दायित्व नहीं होता?’

ऐसे प्रश्नों से घिरने पर ‘पत्रकार का काम समस्याओं को सामने लाना है न कि समाधान करना है?’ कहना बहुत गलत नहीं है लेकिन असाधारण संकट के समय में साधारण नियमों, परम्पराओं को दरकिनार करना मानवीय स्वभाव  है। ‘मैंने फलां समस्या के लिए फलां को ट्विट किया था।’ कहने वाले बेचारे बहुत भोले हैं इसलिए उन्हें नहीं मालूम कि अगर एक ट्विट पर समस्याओं का समाधान होने लगे तो समस्याएं ढ़ूंढ़ने पर भी नहीं मिलती। जहां बात पहुंचाई गई है वहां भी उन्हीं के भाई बंधु हैं इसलिए जिनके पास भी वहीं तर्क हैं, ‘यह समस्या हमारे नहीं, फलां विभाग से संबंधित है।‘ या ‘उचित कार्यवाही के आदेश दे दिये गये हैं’।

केवल यही क्यों, बड़े घरानों के समाचार पत्र जिनके अनेक संस्करण प्रतिदिन करोड़ों के विज्ञापन पाते हैं, वे क्या कर रहे है? वे शायद व्यापारी है पर स्वयं को ईमानदार बताने वालो को इस बात से कोई मतलब नहीं कि छोटे और मंझोले समाचार पत्र मरणसन्न स्थिति में है। किसी प्रकार की सुविधा अथवा सरकारी विज्ञापन मिलने तो दूर, उन्हें अपनी वार्षिक विवरणी ( एनुअल रिटर्न ) भरने में भी नाको चने चबाने पड़ते हैं । दूरदराज के क्षेत्रों में रहने वाले छोटे समाचार पत्र के स्वामी को 24 घंटे के अंदर अपना ताजा अंक प्रैस सूचना कार्यालय में जमा करना आवश्यक है । छोटे और मंझोले समाचार पत्र अपने अस्तित्व के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं और उन्हें सुविधा के नाम पर कुछ नहीं मिलता लेकिन कानूनी बाधाओ का ढेर है।

विशेष बात यह है कि जो समाज छोटे समाचार पत्रों को विज्ञापन अथवा वार्षिक सदस्यता शुल्क देकर सहयोग करता था, वह युग अब बहुत पीछे छूट चुका है। कभी समाचार पत्रों को देशभर में पहुंचने का महत्वपूर्ण दायित्व विभाग संभालता था लेकिन अब साधारण डाक का युग लगभग समाप्त हो चुका है। केवल पंजीकृत डाक ही पहुंचाई जाती है जिसका भारी भरकम शुल्क देना छोटे समाचार पत्रों के साधारण पाठकों की क्षमता से बाहर है । उस पर सस्ते इंटरनेट पैक और हर हाथ में पहुंचे मोबाइल ने भी सामान्यजन की रुचि बदलने का काम किया है। अब लगभग हर सूचना और समाचार तत्काल मोबाइल पर ही प्राप्त हो जाते हैं इसलिए अब समाचार पत्र पढ़ने की आदत समाप्ति की ओर है । यही नहीं, आज के कुछ स्वनाम-धन्य बड़े समाचार पत्र अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए राष्ट्रहित की बलि चढ़ते हुए नहीं सोचते हैं। पहलगाम की आतंकी घटना के बाद भारतीय सेना  द्वारा पाकिस्तान को सिखाए गए सबक पर कुछ समाचार पत्र इस तरह से प्रश्न चिन्ह लगा रहे हैं जो व्यक्तिगत अथवा राजनीतिक विरोध से बढ़कर राष्ट्रीय हितों पर कुठाराघात के समान है । इसके बावजूद तथाकथित बड़े समाचार पत्र बड़ा चढ़ा कर अपनी प्रचार प्रसार संख्या दिखाते और इस झोल का मोल वसूल कर फल-फूलते हैं। 

 30 मई हिंदी पत्रकारिता दिवस इसलिए बनाया जाता है क्योंकि इसी दिन 1826 में हिंदी का पहला समाचार पत्र ‘उदन्त मार्त्तण्ड’ कोलकाता से पं. युगलकिशोर शुक्ल ने प्रकाशित किया था। इसके बाद अनेक स्थानो से पत्र- पत्रिकाएं निकली जो कुछ दिन चलने के बाद बंद होती रही लेकिन यह क्रम चलता रहा। हिंदी पत्रकारिता के माध्यम से राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन में सबसे बड़ा योगदान किया है भारतेंदु हरिश्चंद्र ने। उन्होंने हरिश्चंद्र चंद्रिका, हरिश्चंद्र मैगज़ीन, कविवचन सुधा, बाला बोधिनी नाम के पत्र 1867 और 1874 के बीच में शुरू किये। उनके प्रकाशनों में प्रमुख स्वर राष्ट्रचेतना, निर्भीकता और प्रगतिशील आदर्शों का हुआ करता था। भारतीय संस्कृति के प्रसार को राष्ट्रीयता की शर्त माना जाता था। तत्पश्चात राष्ट्रीय एकता और स्वराज के लिए तथा सामाजिक कुरीतियों के विनाश तथा पश्चिमी संस्कृति की नकल के विरुद्ध कई पत्रिकाएं निकलीं लेकिन आज ‘एजेंडा पत्रकारिता’ के दौर में संस्कृति की बात करना तक अपराध हो गया है।

विदेशी शासन और संस्कृति के विरूद्ध पत्रकारिता की इस परंपरा को महामना मदनमोहन मालवीय, अमृतलाल चक्रवर्ती, प्रतापनारायण मिश्र, बालमुकुंद गुप्त, गणेशशंकर विद्यार्थी, बाबू श्रीप्रकाश, बाबूराव विष्णु पराडकर, माधवराव सप्रे, आचार्य नरेंद्र देव, जैसे महान संपादकों ने आगे बढ़ाया। उस समय तक पत्रकारिता एक मिशन मानी जाती थी। संपादकाचार्य बाबूराव विष्णु पराडकर कहा करते थे, ‘सच्चे भारतीय पत्रकार के लिए पत्रकारी केवल कला या जीविकोपार्जन का साधन-मात्र नहीं होनी चाहिये। उसके लिए वह कर्तव्य-साधन की पुनीत वृत्ति भी होनी चाहिये क्योंकि अपने राष्ट्र में जन-जागृति का आवश्यक और अनिवार्य कार्य करना भारतीय पत्रकार का उत्तरदायित्व है। पत्रकार बनने से पूर्व हमे समझ लेना चाहिये कि यह मार्ग त्याग का है, जोड़ का नहीं। जिसे भोग-विलास की लालसा हो, वह और धंधे करे।’ तब राष्ट्रीय एकता को मज़बूत करना पत्रकारिता की अनिवार्य शर्त थी। लेकिन आज ? पत्रकारिता के क्षेत्र में अनेक ऐसे लोगों का प्रवेश हो गया है जो अपनी दुकान चमकाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। 

लेकिन ऐसा भी नहीं है कि पत्रकारिता में कुछ भी सकारात्मक बचा ही न हो। उम्मीदों पर दुनिया कायम है तो हम आशा का दामन क्यों छोड़े। जो कुछ अच्छा हो रहा है उसका वंदन, अभिनंदन! आज भी अनेक ऐसे कलमकार हैं जो जनजागरण कर रहे हैं। जरूरत है उनके साथ कंधे से कंधे मिलाकर चलना अथवा दूर रहते हुए भी उनका उत्साह बढ़ाया जा सकता है।

 इतिहास साक्षी है,  प्रकृति का श्राप और कुछ नहीं अपितु व्यवस्था के पाप का फल होता है। इधर जिस तेजी से पर्यावरण नष्ट हो रहा है, परिवार टूट रहे हैं – मानवीय मूल्य रसातल में जा रहे हैं, समाज नित्य नई चुनौतियों से जूझ रहा है, समाज को जागृत करने का दायित्व हर बार पत्रकारिता संभालती रही है । दुर्भाग्य की बात यह है इलेक्ट्रॉनिक चैनल और बड़े समाचार पत्र पत्रिकाएं अपने कर्तव्य भुला चुके हैं तो दूसरी ओर व्यवस्था नित्य नए और कड़े नियम कानून की आड़ में छोटे समाचार पत्रों से वाणी और कलम छीनने पर आमादा है। आज यदि कुछ समाचार पत्र और पत्रिका प्रकाशित हो भी रही है उस दिए में तेल और पाती के स्थान पर अपनी और अपने परिवार की जरूरत को सिकोड कर निज संसाधन और जनून ही आहुति दे रहा है ! सब को खबर देने वाले की खबर आखिर कौन लेगा? महफिल का अंधेरा दूर करने के प्रयास में चिराग पे क्या-क्या बीत रही है, इसकी ख़बर रखना क्य समाज और व्यवस्था का दायित्व नहीं है?

डा विनोद बब्बर

तो सेना अलग: सरकार अलग!

वीरेन्द्र सिंह परिहार

दिनांक 6-7 मई की रात्रि पाकिस्तानी आतंकी अड्डो पर एयर स्ट्राइक किये जाने और बाद में पाकिस्तान के साथ खुले युद्ध में भारतीय सेना ने अनुपम शौर्य और कुशल रणनीति का परिचय दिया जिसके चलते पाकिस्तान में अधिकांश हवाई अड्डे तबाह हो गये, उसकी रक्षा प्रणाली एक तरह से ध्वस्त हो गई। दूसरी तरफ उसकी तरह से किये गये ड्रोन और मिसाइल हमलों को बेकार कर दिया गया। इसे लेकर सेना के समर्थन में कांग्रेस पार्टी एक तरफ जयहिंद यात्रा निकाल रही है तो दूसरी तरफ मोदी सरकार पर हमले कर रही है। विपक्ष के नेता राहुल गांधी आये दिन सरकार से इस सम्बन्ध में तरह-तरह के सवाल पूछ रहे हैं। कह रहे हैं कि बताओं कितने लड़ाकू विमान नष्ट हुये जबकि दुनिया भर के विशेषज्ञ यह कह रहे हैं कि इस छोटे से युद्ध में भारत ने जो कमाल दिखाया है तो उसकी शक्ति का लोहा पूरी दुनिया मान रही है। इसके पूर्व जब 2016 में भारतीय सेना ने उरी में स्ट्राइक और 2019 में बालाकोट में एयर स्ट्राइक की, तब भी कांग्रेस समेत विपक्ष का रवैया यही था कि जो कुछ किया है, भारतीय सेना ने किया है, भला सरकार का इसमें क्या श्रेय। यह बात और है कि ये लोग तब भी सरकार से स्ट्राइक का प्रमाण भी माँग रहे थे।

ऐसी स्थिति में बड़ा सवाल यह कि क्या सेना और सरकार इस तरह से अलग है कि उनके बीच कोई सम्बन्ध ही नहीं है। वस्तुतः सेना सरकार का ही एक अंग है जो सरकार के रक्षा मंत्रालय के अधीन काम करती है। गौर करने की बात यह है कि क्या वगैर राजनीतिक नेतृत्व के सेना कोई बड़ा निर्णय या कदम उठा सकती है। यह इससे समझा जा सकता है कि जब वर्ष 2008 में मुम्बई में 26/11 हुआ, तब सेना पाकिस्तान से दो-दो हाथ करना चाहती थी जिसे लेकर अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जार्ज बुश ने लिखा है कि मनमोहन सरकार ने सेना को पाकिस्तान के विरूद्ध कोई कदम उठाने की छूट इसलिये नहीं दी कि इससे हिन्दू राष्ट्रवाद की भावना का विस्तार होगा जिसका लाभ भाजपा को मिलेगा। यहाँ तक कि पाकिस्तानी भारतीय सैनिकों का सिर काट ले जाते थे पर भारत सरकार के रवैये के चलते यूपीए के दौर में सेना कुछ नहीं कर पाती थी. यदि सेना ही ऐसे मामलों में सब कुछ होती तो 1962 में जब चीन-भारत में युद्ध हुआ और भारतीय सेना के पास अस्त्रों का अभाव तो था ही, पैरों में पहनने के लिये सही जूते तक नहीं थे क्योंकि तब नेहरू सरकार सेना को मजबूत करने के बजाय पंचशील के कबूतर उड़ा रहे थे। सरकार के इस उदासीन रवैये के चलते भारतीय सेना को कितनी शर्मनाक पराजय मिली थी, यह सभी को पता है।

 यूपीए शासन के दौर में सेना के पास बुलेट प्रूफ जैकेट तक नहीं होती थी। राफेल विमानों की खरीदी को लेकर तब के रक्षामंत्री एन्टोनी ने संसद में कह दिया था कि राफेल लड़ाकू विमानों के खरीदने के लिये सरकार के पास रूपये नहीं हैं। ऐसी स्थिति में सेना सफलतापूर्वक कैसे कोई अभियान चला सकती या युद्ध लड़ सकती थी। आखिर राफेल विमानों के दम पर ही पाकिस्तान की सीमा पर प्रवेश किये वगैर ही आतंकवादी अड्डो पर एयर स्ट्राइक कर दी गई। इस मामले में कांग्रेस पार्टी का रवैया पूरी तरह दोहरे मापदण्ड वाला है। 1971 में जब भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हुआ और पूर्वी पाकिस्तान की जगह स्वतंत्र बांग्लादेश का निर्माण हुआ तो इस पैमाने के आधार पर कांग्रेस पार्टी को इसका श्रेय सेना को देना चाहिए था लेकिन तब इसका श्रेय न तो सेना को न तब के रक्षा मंत्री और यहाँ तक कि इंदिरा सरकार को भी नहीं दिया गया था। इसका एक मात्र श्रेय श्रीमती इंदिरा गांधी को दिया गया था और यह कहा गया कि श्रीमती इंदिरा गांधी ने इतिहास का नहीं, भूगोल भी बदल दिया है। निश्चित रूप से ऐसे संवेदनशील एवं राष्ट्र से जुडे मामलों में भी कांग्रेस पार्टी का रवैया पूरी तरह से अंध विरोध का रहता है।

लोगो को यह भी पता होगा कि वर्ष 1999 में करगिल युद्ध के दौरान तब की कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी ने कहा था- ‘‘वाजपेयी सेनाओं को कटवा रहा है। ऐसी बातों से जहाँ सेनाओं का मनोबल गिरता है तो दूसरी तरफ विश्व-फलक पर पाकिस्तान ऐसी बातों का उपयोग करता है।

बड़ी बात यह कि यूपीए शासन के दौर की तरह सेना को कोई छूट ही नहीं दी गई, उसके हाँथ बंद रखे गये तो सेना क्या कर लेगी जबकि मोदी सरकार ने सेना को हाथ खोलने की खुली छूट दी। दूसरी तरफ ऐसे मामले में भाजपा का रवैया पूरी तरह अलग रहता है। चाहे 1962 चीन के साथ युद्ध रहा हो, या 1965 एवं 1971 का पाकिस्तान के साथ युद्ध रहा हो, भाजपा जो तब जनसंघ पार्टी थी, वह पूरी तरह सरकार के साथ खड़ी थी। प्रचार तो यहाँ तक किया जाता है कि तब जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने इंदिरा गांधी को दुर्गा कहा था। हांलाकि इसमें कोई सच्चाई नहीं है लेकिन यह सच है कि उस दौर में वाजपेयी ने इंदिरा गांधी को देश का एकमात्र नेता बताया था। यानी देश के प्रधानमंत्री के साथ पूरा देश एकजुट है- ऐसा एहसास कराया था। लेकिन यह तब होता है जब राजनीति राष्ट्र के लिये होती है। निहित स्वाथों एवं मात्र सत्ता की राजनीति करने वाले या तो अंध समर्थक हो सकते हैं, या अंध विरोधी। बड़ी बात यह भी कि देश में कोई भी बड़ा काम हो, उसमें सरकार की भूमिका किसी न किसी रूप में होगी ही।

वीरेन्द्र सिंह परिहार

अमेरिका के रेमिटेंस टैक्स से भारतीय प्रवासियों पर पड़ेगा बड़ा असर

संजय सिन्हा

अमेरिका ने  रेमिटेंस टैक्स लागू कर दिया है। दरअसल अमेरिका में भारतीयों सहित अमेरिकी गैर नागरिकों के धन विदेश भेजे जाने पर राशि पर प्रस्तावित शुल्क 5 प्रतिशत से घटाकर 3.5 प्रतिशत करने की योजना पेश की गई है। इससे अमेरिका में रह रहे भारतीयों को आंशिक राहत मिल सकती है। अमेरिका की प्रतिनिधि सभा ने  ‘वन बिग ब्यूटीफुल बिल’ को संशोधित कर पारित किया है। अमेरिका के गैर भारतीय नागरिकों में एच-1बी, एल-1 और एफ-1 वीजा धारक के साथ-साथ ग्रीन कार्ड धारक हैं। हालांकि इस विधेयक में शुल्क से अमेरिकी नागरिकों और नैशनल्स को छूट दी गई है। आपको बता दूं कि  अमेरिका से अब घर पर पैसे भेजना भारतीयों को महंगा पड़ेगा। ट्रंप प्रशासन ने विदेश में भेजे जाने वाले धन पर पांच फीसदी टैक्स लगा दिया है। एक अनुमान के मुताबिक इस टैक्स के कारण अमेरिका में रहने वाले भारतीयों पर सालाना 1.6 अरब डॉलर से अधिक का बोझ पड़ सकता है। यह अनुमानित राशि आरबीआई के हालिया लेख में प्रकाशित 2023-24 के आंकड़ों पर आधारित है।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ‘बिग प्रयोरिटी बिल’ में रेमिटेंस (धन प्रेषण) पर पांच फीसदी उत्पाद शुल्क लगाने का प्रस्ताव किया है। यह ग्रीन कार्ड और एच1बी वीजा रखने वालों सहित चार करोड़ से अधिक लोगों को प्रभावित करेगा। प्रस्तावित शुल्क अमेरिकी नागरिकों पर लागू नहीं होगा। आरबीआई के मार्च बुलेटिन के प्रकाशित लेख के मुताबिक, विदेश में रहने वाले भारतीयों ने 2023-24 में 118.7 अरब डॉलर की राशि भारत भेजी है। यह आंकड़ा 2010-11 में भेजे गए 55.6 अरब डॉलर से दोगुना है। भारत भेजी गई कुल राशि में अमेरिका की हिस्सेदारी 2023-24 में बढ़कर 27.7 फीसदी पहुंच गई जबकि 2020-21 में यह 23.4 फीसदी रही थी। इस आधार पर अमेरिका में रहने वाले भारतीयों ने कुल 32.9 अरब डॉलर का राशि घर भेजी है। इसका पांच फीसदी 1.64 अरब डॉलर होगा।

लेख के मुताबिक, रेमिटेंस से मिली राशि का इस्तेमाल मुख्य रूप से परिवार के भरण-पोषण के लिए होता है। इसलिए, इसकी लागत बढ़ने का सामाजिक-आर्थिक प्रभाव होता है। इस लागत को कम करना वैश्विक स्तर पर एक महत्वपूर्ण नीतिगत एजेंडा रहा है। विश्व बैंक के मुताबिक, भारत 2008 से ही रेमिटेंस प्राप्त करने वाला शीर्ष देश बना हुआ है। वैश्विक स्तर पर धन प्रेषण में भारत की हिस्सेदारी 2001 के 11 फीसदी से बढ़कर 2024 में करीब 14 फीसदी पहुंच गई है। 2024 में जिन पांच देशों में विदेश से सबसे ज्यादा धन आया, उनमें 129 अरब डॉलर के साथ भारत शीर्ष पर रहा। अन्य देशों में मेक्सिको (68 अरब डॉलर), चीन (48 अरब डॉलर), फिलिपीन (40 अरब डॉलर) और पाकिस्तान (33 अरब डॉलर) शामिल हैं। ऐसा अनुमान है कि इस टैक्स से अमेरिका में रहने वाले भारतीयों पर हर साल 1.6 अरब अमेरिकी डॉलर से ज्यादा का बोझ पड़ेगा। आरबीआई के अनुसार, रेमिटेंस के तौर पर भारत में आने वाला पैसा 2010-11 में 55.6 अरब डॉलर था जो 2023-24 में बढ़कर 118.7 अरब डॉलर हो गया। भारत को मिलने वाले कुल पैसे में अमेरिका का हिस्सा 2020-21 में 23.4% था, जो 2023-24 में बढ़कर 27.7% हो गया। रेमिटेंस को भारत की ताकत माना जाता है। यह विदेशी मुद्रा का अहम जरिया है।

बिल में कहा गया है, ‘यह टैक्स रेमिटेंस सर्विस देने वाली कंपनियों को लेना होगा। फिर, इन कंपनियों को यह टैक्स हर तीन महीने में ट्रेजरी के सेक्रेटरी को जमा करना होगा।’ इसका मतलब है कि जो कंपनियां विदेश में पैसे भेजने की सुविधा देती हैं, उन्हें यह टैक्स वसूलना होगा और सरकार को देना होगा। इस बिल में कोई कम से कम सीमा नहीं तय की गई है। इसका मतलब है कि छोटे से छोटे लेनदेन पर भी टैक्स लगेगा। अगर भेजने वाला ‘वेरीफाइड यूएस सेंडर’ नहीं है तो उसे टैक्स देना होगा। ‘वेरीफाइड यूएस सेंडर’ का मतलब अमेरिका के नागरिक से है।

आप्रवासन को हतोत्साहित करने के अलावा यह समझ पाना मुश्किल है कि अमेरिका को इस कर से क्या लाभ होगा। सिलिकन वैली में पहले ही यह भय पैदा होने लगा है कि प्रशासन के प्रवासी विरोधी एजेंडे के कारण उसके पास प्रतिभाओं की कमी हो सकती है। अगर विदेशी छात्र-छात्राएं, जो विश्वविद्यालयों के राजस्व का मुख्य जरिया हैं, उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए वैकल्पिक देशों का रुख करते हैं तो प्रतिभाओं तक पहुंच और भी कम हो जाएगी। जहां तक भारत का संबंध है, रेमिटेंस कर दुर्भावना भी दर्शाता है क्योंकि भारत ने व्यापार समझौते के पहले सहृदयता के संकेत के रूप में ऑनलाइन विज्ञापन पर लगने वाला 6 फीसदी का ‘गूगल कर’ एक अप्रैल से समाप्त कर दिया था। यह भारत-अमेरिका दोहरे कराधन निवारण संधि के गैर भेदभावकारी प्रावधान का उल्लंघन भी हो सकता है हालांकि अभी इस बारे में कुछ स्पष्ट नहीं कहा जा सकता है।

यह विडंबना ही है कि प्रवासियों को अपना पैसा अमेरिका में रखने के लिए प्रेरित करने के बजाय यह कर उन्हें इस बात के लिए प्रोत्साहित कर सकता है कि वे तय सीमा से नीचे रहने की कोशिश करें। इससे हवाला कारोबार दोबारा सिर उठा सकता है। व्यक्तिगत स्तर पर विनिमय नियंत्रण उदार होने के साथ ही हवाला का तंत्र कमोबेश खत्म हो चुका था। यह कुछ ऐसा होगा जो वास्तव में कोई नहीं चाहेगा। इससे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा प्रवाह पर निगरानी रखने की व्यवस्था कमजोर पड़ेगी। इसमें चाहे जितनी बुराई हो लेकिन संभावना यही है कि जून में सीनेट इसे पारित कर देगी क्योंकि वहां रिपब्लिकंस के पास सहज बहुमत है। ऐसा लगता  है कि 2026 के आरंभ में उस पर हस्ताक्षर हो जाएंगे। भारत को इसके प्रभाव के लिए तैयार रहना चाहिए।

संजय सिन्हा

आतंकवाद को आतंकित करने की मोदी नीति

राजेश कुमार पासी

सैन्य नीति में कहा जाता है, आक्रमण ही सबसे बढ़िया रक्षा है । अब ऐसा लगता है कि मोदी सरकार इस नीति पर चल पड़ी है । पाकिस्तान द्वारा फैलाए जा रहे आतंकवाद के खिलाफ हम पिछले 45 सालों से बचाव की नीति पर चल रहे थे । इसका  नतीजा यह था कि आतंकवादी पूरे देश में दनदनाते घूम रहे थे । इतने बड़े देश में सभी को सुरक्षा देना संभव नहीं है, इसलिए गुप्तचर एजेंसियों और सुरक्षा बलों की भरपूर कोशिशों के बावजूद  भारत लगातार आतंकवादी हमले झेल रहा था । आतंकवाद के कारण भारत के 20000 निर्दोष नागरिकों को असमय अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है । इसके अलावा भारत की जो आर्थिक हानि हुई है और उसके विकास को चोट पहुंची है, इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है। आतंकवाद के बारे में कहा भी जाता है कि आतंकवादी हमले से बचने के लिए सुरक्षाबलों को हर बार कामयाब होना पड़ता है लेकिन आतंकवादियों को सिर्फ एक बार कामयाब होने की जरूरत होती है । 1980 से लेकर अब तक भारत के कोने-कोने में आतंकवादी हमले होते रहे हैं । 2014 में मोदी सरकार बनने के बाद आतंकवाद के खिलाफ बड़ी कार्यवाही शुरू की गई जिसके परिणामस्वरूप आतंकवाद को जम्मू-कश्मीर तक सीमित कर दिया गया । पिछले दस सालों से जम्मू-कश्मीर को छोड़कर देश का शेष हिस्सा आतंकवाद की मार से बचा रहा है । इसके बावजूद जम्मू-कश्मीर में आज भी आतंकवादी हमले जारी हैं । अब मोदी सरकार ने तय कर लिया है कि आतंकवाद को पूरे देश से समाप्त कर देना है और इसके लिए आतंकवादियों के आका पाकिस्तान के खिलाफ कार्यवाही करने का मन बना लिया गया है । पाकिस्तान बड़े-बड़े आतंकवादी हमलों के बाद भारत की प्रतिक्रिया से ये मान चुका था कि भारत एक कमजोर राज्य है । इसके खिलाफ बड़े से बड़ा हमला कर दो लेकिन वो कुछ करने वाला नहीं है । 

               आतंकवाद के इतिहास में दो बार ऐसा हुआ है जब पाकिस्तान ने भारत पर सीधा हमला किया है। एक बार लोकतंत्र के मंदिर संसद को निशाना बनाया गया और दूसरी बार देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में बड़ा आतंकवादी हमला करके 166 भारतीय नागरिकों को मौत के घाट उतार दिया गया । ये ऐसे दो मौके थे जब पाकिस्तान के खिलाफ बड़ी कार्यवाही की जरूरत थी लेकिन तत्कालीन सरकारें इसमें नाकामयाब रही । 2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद 2016 में उरी में हुए आतंकवादी हमले के बाद पहली  बार भारत सरकार ने पाकिस्तान को जवाब दिया । पीओके में भारतीय सेना ने घुसकर आतंकवादी कैंप को उड़ा दिया । दूसरी बार 2019 में पुलवामा में बड़ा आतंकवादी हमला करके 40 सीआरपीएफ जवानों को शहीद कर दिया गया । मोदी सरकार ने इसके  जवाब में पाकिस्तान स्थित बालाकोट में आतंकवादी कैंप पर हवाई हमला करके आतंकवादियों को मौत के घाट उतार दिया । इन दो कार्यवाहियों से भारत ने पाकिस्तान को बताया कि हम अब आतंकवादी हमलों पर चुप नहीं बैठेंगे बल्कि उसका  जवाब देंगे । आतंकवादियों को पाकिस्तान में घुसकर मारा जायेगा । पाकिस्तान ने इसे गंभीरता से नहीं लिया और  22 अप्रैल 2025 में कश्मीर घाटी के पहलगाम में बड़ा आतंकवादी हमला करके 26 निर्दोष लोगों की हत्या करवा दी । इस हमले के बाद भारत सरकार ने जो कार्यवाही की है, उसने बता दिया है कि अब जवाब बड़ा होगा और कितना बड़ा होगा, ये हम तय करेंगे ।  26 लोगों के बदले 9 आतंकवादी ठिकानों को मिट्टी में मिला दिया गया । इसके जवाब में जब पाकिस्तानी सेना ने भारत के 26 शहरों पर हमला किया तो पाकिस्तानी सेना के 11 सैन्य हवाई अड्डों को तबाह कर दिया गया । इसके अलावा पाकिस्तानी सेना को बड़ा नुकसान पहुंचाया गया है । 

                भारत ने 2025 में आतंकवाद के खिलाफ नई नीति बना ली है। 2016 और 2019 में की गई कार्यवाही आतंकवादी हमले का बदला लेने की कार्यवाही प्रतीत होती है लेकिन ऑपरेशन सिंदूर के अंतर्गत की गई कार्यवाही को आतंकवादी हमले का बदला नहीं कहा जा सकता बल्कि ये कार्यवाही पाकिस्तान को दंड देने की कार्यवाही है। प्रधानमंत्री मोदी ने घोषणा कर दी है कि अब वो आतंकवादी और उनके नेता, पाकिस्तान की सेना और सरकार को एक मानते हैं। अब अगर भारत पर आतंकवादी हमला होगा तो भारत उसका दंड सिर्फ आतंकवादियो को नहीं देगा बल्कि पाकिस्तान की सेना और सरकार को भी उसकी बड़ी कीमत चुकानी होगी ।

ऑपरेशन सिंदूर ने पहली बार आतंकवादियो, पाकिस्तान की सेना और सरकार को आतंकित कर दिया है। अब भारत पर आतंकवादी हमले का डर भारत से ज्यादा पाकिस्तान को हो रहा है। ऐसा लग रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी अब आतंकवाद के खिलाफ आतंक का इस्तेमाल करना चाहते हैं। वास्तव में आतंकवादी और उनके आका पाकिस्तान को यही भाषा समझ आती है। जैसे पहले भारत सरकार हर समय आतंकवादी हमले से डरी रहती थी अब आतंकवादी हमले का डर पाकिस्तान के आतंकियों और उसकी सेना एवं सरकार को सता रहा है । मोदी सरकार ने घोषणा कर दी है कि अब वो आतंकवादी हमले को एक्ट ऑफ वॉर की नजर से देखेगी और उसका जवाब सैन्य कार्यवाही के रूप में देगी । कार्यवाही की मात्रा और तरीका भारतीय सेना तय करेगी । वैसे मोदी सरकार को पाकिस्तान पर पूरा भरोसा है कि वो फिर आतंकवादी हमला करवा सकता है । यही कारण है कि भारत सरकार ने घोषणा की है कि ऑपरेशन सिंदूर खत्म नहीं हुआ है, सिर्फ रोका गया है । ऑपरेशन सिंदूर को जारी रखने की बात कहकर पाकिस्तान को संदेश दे दिया गया है कि इस बार आतंकवादी हमले का बड़ा जवाब दिया जाएगा । भारत जैसे बड़े देश के लिए पाकिस्तान जैसे छोटे देश से बदला लेने की बात करना सही नहीं लगता है । इसलिए भारत दुनिया को संदेश देना चाहता है कि अब वो बदला नहीं लेगा बल्कि पाकिस्तान को ऐसा दंड देगा कि वो भविष्य में भारत पर हमला करने से पहले सौ बार सोचे । 

               वास्तव में भारत अब एक बड़ी ताकत बन चुका है और पाकिस्तान के साथ अपनी तुलना नहीं चाहता है । भारत पाकिस्तान सहित अपने दुश्मनों के मन में ऐसा खौफ पैदा करना चाहता है कि वो भारत की तरफ आंख उठाकर देखने की हिम्मत ही न कर सकें । सिर्फ तीन दिन के युद्ध में भारत ने पाकिस्तानी सेना की रक्षा और आक्रमण करने की क्षमता ही खत्म कर दी । 10 मई को पाकिस्तान ऐसी हालत में पहुंच गया था कि वो न तो भारत पर हमला कर सकता था न ही भारतीय हमले को रोक सकता था । सिर्फ कुछ घंटो में पाकिस्तानी सेना की ऐसी हालत करके भारत ने संदेश दिया है कि अब भी वक्त है रूक जाओ अन्यथा अगली कार्यवाही कई गुना बड़ी हो सकती है । इस बार तो भारत ने युद्ध-विराम कर लिया लेकिन अगली बार हो सकता है कि युद्ध-विराम तक पाकिस्तान की पूरी सेना बर्बाद कर दी जाये । सिंधू जल समझौता भी निलंबित रखा गया है ताकि पाकिस्तान को सुधरने का मौका दिया जाए । भारत ने कहा है कि अगर पाकिस्तान की सरकार आतंकवाद के खिलाफ ऐसी कार्यवाही करती है जिसका बड़ा असर हो तो भारत इस समझौते पर बात करने को तैयार है । मोदी ने स्पष्ट संदेश दे दिया है कि आतंकवाद रोकने तक पाकिस्तान से कोई बात नहीं होगी । भारत ने तय कर  लिया है कि अब आतंकवाद को जड़ से खत्म करना है और ऐसा सिर्फ पाकिस्तान के द्वारा आतंकवाद की नीति को छोड़ने पर ही होगा । नक्सलवाद के खिलाफ  भारत ने आक्रामक कार्यवाही करके उसको जड़ से उखाड़ने का फैसला कर लिया है और उसका परिणाम सामने है । अब भारत आतंकवाद के खिलाफ भी पूरी तरह से आक्रामक हो गया है । पीएम मोदी ने पाकिस्तानी जनता को सम्बोधित करते हुआ कहा है कि सुख-चैन की रोटी खाओ अन्यथा मेरी गोली तो है । इसका सीधा मतलब है कि अब भारत आतंकवाद से अपने देश की रक्षा नहीं करेगा बल्कि आतंकवाद पर आक्रमण करेगा और उसको जड़ से मिटा देगा । अगर पाकिस्तान नहीं सुधरा तो उसके अस्तित्व को खतरा  पैदा हो सकता है ।

अब भारत की नीति आतंकियों और उनके आका पाकिस्तान को आतंकित करने की है । अब भारत नहीं, उन्हें डरना होगा कि अगर आतंकवादी हमला किया तो अंजाम सोच से परे होगा । हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय सेना को मोदी सरकार ने 11 साल में इतना शक्तिशाली बना दिया है कि पाकिस्तान की सेना उसके मुकाबले बहुत कमजोर दिखाई दे रही है । मोदी सरकार लगातार भारतीय सेना को ताकतवर बना रही है ताकि भारत  के दुश्मनों में आतंक बना रहे कि भारत पर हमला करने का क्या अंजाम हो सकता है । आज जैसी कार्यवाही भारतीय सेना से पाकिस्तानी सेना पर की है, क्या ऐसी कार्यवाही भारतीय सेना 2019 में कर सकती थी । मेरा मानना है कि मोदी सरकार ने जो  कार्यवाही की है, उसके लिए लम्बी तैयारी की गई है । आज भारतीय सेना इस हालत में है कि बिना अपनी सीमा को पार किये पाकिस्तानी सेना को तबाह कर सकती है । भारतीय सेना की बढ़ती क्षमता ही आतंकवाद के खिलाफ ऐसी सुरक्षा है जो पहले कभी नहीं थी ।

राजेश कुमार पासी

महाराणा प्रतापः शौर्य, बलिदान एवं साहस का अमिट आलेख

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महाराणा प्रताप जन्म जयन्ती- 29 मई, 2025
– ललित गर्ग –

हमारा देश भारत जिसे आस्था और विश्वास, शौर्य एवं शक्ति, बहादुरी और साहस, राष्ट्रभक्ति और स्वाभिमान की वीरभूमि कहा जाता है, जहां की सभ्यता और संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति में शुमार है, जिसका अनुसरण संपूर्ण विश्व करता है। भारत की भूमि महान योद्धाओं की भूमि रही है, जिन्होंने भारत की एकता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ऐसे ही एक वीर एवं साहसिक योद्धा एवं सच्चे भारतीय महानायक थे महाराणा प्रताप, जो राजपूतों के सिसोदिया वंश से संबंध रखते थे। महाराणा को भारत का प्रथम स्वतंत्रता सेनानी भी कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने कभी अकबर के सामने समर्पण नहीं किया। मुगल साम्राज्य के विस्तार के विरुद्ध उनके प्रबल प्रतिरोध ने उन्हें भारतीय इतिहास में अमर बना दिया है। हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर की विशाल सेना का सामना करते हुए उन्होंने जो वीरता दिखाई, वह आज भी शौर्य, पराक्रम, राष्ट्रभक्ति और स्वाभिमान की प्रेरणा देती है। उनके जीवन की घटनाएं गौरवमय इतिहास बनी है। वे एकलौते ऐसे महान् राजपूत योद्धा थे, जिन्होंने अकबर को चुनौती देने का साहस ही नहीं दिखाया बल्कि युद्ध के मैदान में लोहे के चने चबवाये।
महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 को राजस्थान के कुंभलगढ़ में हुआ था। जो हिंदू पंचांग के अनुसार ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि थी। जो इस वर्ष 29 मई को मनाई जाएगी। युवावस्था में ही महाराणा प्रताप ने तलवारबाजी, घुड़सवारी और युद्धनीति में महारत हासिल कर ली थी। उनकी जन्म जयंती न केवल उनके जन्म का उत्सव है, बल्कि उनके आदर्शों, विरासत और भारत की सांस्कृतिक धरोहर में दिए गए उनके अमूल्य योगदान का सम्मान भी है। महाराणा प्रताप और मुगल सम्राट अकबर के सेनापति राजा मानसिंह के बीच 8 जून 1576 में हल्दीघाटी का युद्ध हुआ था। महाराणा प्रताप ने लगभग 20 हजार सैनिकों के साथ 85 हजार की मुगल सेना से बहुत ही साहस, शौर्य, पराक्रम एवं बहादुरी के साथ सामना किया। दोनों सेनाओं के बीच गोगुडा के नजदीक अरावली पहाड़ी की हल्दीघाटी शाखा के बीच यह युद्ध हुआ। इस लड़ाई को हल्दीघाटी के युद्ध के नाम से जाना जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस युद्ध में न तो अकबर जीत सका और न ही राणा हारे। मुगलों के पास सैन्य शक्ति अधिक थी तो राणा प्रताप के पास जुझारू शक्ति की कोई कमी नहीं थी। उन्होंने आखिरी समय तक अकबर से संधि की बात स्वीकार नहीं की और मान-सम्मान के साथ जीवन व्यतीत करते हुए लड़ाइयां लड़ते रहे।
इस युद्ध में उनका प्रिय घोड़ा चेतक भी वीरगति को प्राप्त हो गया, लेकिन इसके बाद भी महाराणा प्रताप ने हार नहीं मानी और युद्ध जारी रखा। मुगल शासक अकबर ने मेवाड़ पर अपना अधिकार स्थापित करने की भरपूर कोशिश की। लेकिन महाराणा प्रताप ने कभी भी अकबर की अधीनता को स्वीकार नहीं किया और जीवन भर मुगलों के खिलाफ स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए संघर्ष करते रहे। उनका परिवार बहुत ही कठिन परिस्थितियों में रहा। वे कई सालों तक जंगलों, गुफाओं और पहाड़ियों में रहे। उन्होंने पेड़ों की छाल से बने साधारण कपड़े पहने और जंगली फल और जड़ें खाईं। उनकी पत्नी और बच्चे कभी-कभी घास की रोटी खाते थे। फिर भी, उन्होंने कभी आत्मसमर्पण नहीं किया या मुगलों के साथ समझौता नहीं किया। उनके शौर्य और वीरता की कहानी को आज भी बहुत ही गर्व के साथ याद किया जाता है। राजस्थानी भाषा के ख्यात कन्हैयालाल सेठिया की प्रसिद्ध राजस्थानी कविता ‘पातल और पीथल’ हल्दीघाटी युद्ध के बाद की घटनाओं पर आधारित राणा प्रताप के जीवन में आई कठिनाइयों और उनके संघर्ष को दर्शाती है।
आजाद भारत में महाराणा प्रताप जैसे शूरवीरों के त्याग एवं बलिदान, शौर्य एवं पराक्रम को विस्मृत करने की चेष्टायें व्यापक पैमाने पर हुई है। हमने इन असली महानायकों को भूलाकर अकबर एवं औरंगजेब जैसे आक्रांताओं को नायक बनाने की भारी भूल की है, नायक अकबर नहीं महाराणा प्रताप हैं, उन्होंने औरंगजेब को घुटने टेकने पर मजबूर किया और घुट-घुट कर मरने पर मजबूर किया। सनातन धर्म को नष्ट करने की साजिश करने वाले भारत के नायक कैसे हो सकते? अकबर हो या औरंगजेब, हिन्दुओं एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रति सबकी मानसिकता एक ही थी- भारत की सनातन परंपरा को रौंदने के लिए तमाम षड्यंत्र रचना एवं भारत की समृद्ध विरासत को लूटना। इसके विपरीत, महाराणा प्रताप ने अपने बलिदान से सनातन संस्कृति की रक्षा की। ये राष्ट्रनायक हमारी असली प्रेरणा हैं।
भारतीय इतिहास में जितनी महाराणा प्रताप की बहादुरी की चर्चा हुई है, उतनी ही प्रशंसा उनके घोड़े चेतक को भी मिली। कहा जाता है कि चेतक कई फीट ऊंचे हाथी के मस्तक तक उछल सकता था। कुछ लोकगीतों के अलावा हिन्दी कवि श्यामनारायण पांडेय की वीर रस कविता ‘चेतक की वीरता’ में उसकी बहादुरी की खूब तारीफ की गई है। जब मुगल सेना महाराणा के पीछे लगी थी, तब चेतक उन्हें अपनी पीठ पर लादकर 26 फीट लंबे नाले को लांघ गया, जिसे मुगल फौज का कोई घुड़सवार पार न कर सका। मेवाड़ की जनजाति ‘भील’ कहलाती है। भीलों ने हमेशा हर संकट एवं संघर्ष के क्षणों में महाराणा प्रताप साथ दिया। एक किवदंती है कि महाराणा प्रताप ने अपने वंशजों को वचन दिया था कि जब तक वह चित्तौड़ वापस हासिल नहीं कर लेते, तब तक वह पुआल यानी घास पर सोएंगे और पेड़ के पत्ते पर खाएंगे। आखिर तक महाराणा को चित्तौड़ वापस नहीं मिला। उनके वचन का मान रखते हुए आज भी कई राजपूत अपने खाने की प्लेट के नीचे एक पत्ता रखते हैं और बिस्तर के नीचे सूखी घास का तिनका रखते हैं।
महाराणा प्रताप का बचपन भील समुदाय के साथ बिता, भीलों के साथ ही वे युद्ध कला सीखते थे, भील अपने पुत्र को कीका कहकर पुकारते है, इसलिए भील महाराणा को भी कीका नाम से पुकारते थे। महाराणा प्रताप का दिल और दिमाग ही नहीं, बल्कि उनका शरीर भी साहसी एवं लोह समान था। कहा जाता है कि महाराणा प्रताप 7 फीट 5 इंच लंबे थे। वह 110 किलोग्राम का कवच पहनते थे, वह 25-25 किलो की 2 तलवारों के दम पर किसी भी दुश्मन से लड़ जाते थे। महाराणा प्रताप एक महान पराक्रमी और युद्ध रणनीति कौशल में दक्ष थे। उन्होंने मुगलों के बार-बार हुए हमलों से मेवाड़ की रक्षा की। उन्होंने अपने पूरे जीवन में कभी भी अपनी आन, बान और शान के साथ समझौता नहीं किया। उनको धन-दौलत की नहीं बल्कि मान-सम्मान की ज्यादा परवाह थी। अकबर के सामने महाराणा पूरे आत्मविश्वास से टिके रहे। एक ऐसा भी समय था, जब लगभग पूरा राजस्थान मुगल बादशाह अकबर के कब्जे में था, लेकिन महाराणा अपना मेवाड़ बचाने के लिए अकबर से 12 साल तक लड़ते रहे।
महाराणा प्रताप के देशप्रेम, साहस एवं समर्पण ने उनके लोगों को प्रेरित किया। भामाशाह ने एक बार सेना के पुनर्निर्माण में मदद करने के लिए अपनी सारी बचत और सोना दान कर दिया। अपने जीवन के अंतिम वर्षों में महाराणा प्रताप ने मुगलों से कई महत्वपूर्ण स्थानों को पुनः प्राप्त किया, जिनमें देवर, कुंभलगढ़, रणकपुर और चावंड शामिल हैं। उन्होंने चावंड को अपनी नई राजधानी बनाया और अपने राज्य की स्थिति को सुधारने के लिए कड़ी मेहनत की। उन्होंने सड़कें, झीलें, मंदिर और सिंचाई प्रणालियाँ बनवाईं। महाराणा प्रताप सिर्फ योद्धा ही नहीं थे बल्कि एक अच्छे शासक भी थे। उन्होंने स्थानीय कला, कृषि और संस्कृति को महत्व दिया। उनका शासन न्याय और लोगों के कल्याण पर आधारित था। उनका निडर स्वभाव, दृढ़ता और अपनी भूमि के प्रति प्रेम उन्हें भारतीय इतिहास के सबसे महान प्रतीकों में से एक बनाता है। उन्होंने साबित कर दिया कि असली ताकत संख्या में नहीं, बल्कि चरित्र में होती है। वह अपनी बहादुरी, बलिदान और देशभक्ति के उदाहरण से पीढ़ियों को प्रेरित करते रहते हैं।

सुप्रीम कोर्ट का मनोबल बढ़ाने वाला फैसला !

हाल ही में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक ऐतिहासिक व बड़े फैसले में केन्द्रीय सशस्त्र पुलिस बलों (सीएपीएफ) में महानिरीक्षक(आईजी) स्तर तक के आईपीएस अधिकारियों की नियुक्ति कम करने का निर्देश दिया है, ताकि कैडर अधिकारियों को अधिक अवसर मिल सकें। वास्तव में सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला कैडर अधिकारिक के लिए मनोबल बढ़ाने वाला फैसला कहा जा सकता है। पाठकों को यहां यह बताता चलूं कि सुप्रीम कोर्ट ने यह माना है कि केंद्रीय सशस्त्र बलों (सीएपीएफ) में कैडर अधिकारियों की पदोन्नति में विलंब से उनके मनोबल पर ‘प्रतिकूल प्रभाव’ पड़ सकता है। गौरतलब है कि माननीय कोर्ट ने यह बात कही है कि जब सीएपीएफ को ओजीएएस घोषित किया गया है, तो ओजीएएस को उपलब्ध सभी लाभ स्वाभाविक रूप से सीएपीएफ को मिलने चाहिए, यह नहीं हो सकता कि उन्हें एक लाभ दिया जाए और दूसरे से वंचित रखा जाए।यह बहुत ही काबिले-तारीफ है कि अब केंद्रीय अर्धसैनिक बलों में ओजीएएस(संगठित समूह ए सेवा) के लिए बाकायदा छह माह की समय-सीमा भी तय कर दी गई है। कहना ग़लत नहीं होगा कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से सीएपीएफ अधिकारियों की पदोन्नति और उनको फाइनेंशियल प्रोफिट(लाभ) की उम्मीदें बंध गई हैं।इस क्रम में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने चार वर्ष से लंबित कैडर रिव्यू प्रक्रिया, उक्त अवधि में ही पूरी किए जाने के आदेश दिए हैं। यहां पाठकों को यह बताता चलूं कि 3 सितंबर 2015 के दिन अदालत ने अपने फैसले में सीएपीएफ को 1986 से ‘संगठित समूह ए सेवा’ घोषित कर दिया था, लेकिन इसके बावजूद उन्हें इसका फायदा नहीं मिल पा रहा था। गौरतलब है कि  सीएपीएफ (केन्द्रीय सशस्त्र पुलिस बल) में ओजीएएस का मतलब है ‘संगठित समूह ए सेवा।’ दरअसल,ओजीएएस एक ऐसा संगठन है जो भारत सरकार द्वारा विभिन्न महत्वपूर्ण सेवाओं के लिए बनाया गया है, जैसे कि आईएएस, आईपीएस, आईआरएस आदि। वास्तव में, सीएपीएफ को ओजीएएस का दर्जा मिलने का मतलब है कि सीएपीएफ के अधिकारी भी आईएएस, आईपीएस, आईआरएस और अन्य केंद्रीय सेवाओं के अधिकारियों के समान लाभ प्राप्त करेंगे, जैसे कि पदोन्नति और गैर-कार्यात्मक वित्तीय उन्नयन। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि 3 जुलाई 2019 को, सर्वोच्च न्यायालय ने सीएपीएफ को ओजीएएस का दर्जा देने का आदेश दिया था। बहरहाल,सुप्रीम कोर्ट ने यह बात मानी है कि सीएपीएफ अधिकारी, देश की सेवा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं और वे कठिन परिस्थितियों में काम कर रहे हैं। दरअसल ,अदालत ने यह बात कही है कि ‘देश की सुरक्षा, अखंडता और संप्रभुता को बनाए रखने के साथ-साथ हमारी सीमाओं की रक्षा करने और देश के भीतर आंतरिक सुरक्षा बनाए रखने में उनकी समर्पित सेवा को अनदेखा या अनदेखा नहीं किया जा सकता है।’ इसके बावजूद, सीएपीएफ के कैडर अधिकारी, अपने करियर में बहुत अधिक ठहराव का सामना कर रहे हैं। अदालत ने इन बलों में बतौर प्रतिनियुक्ति बाहर से आने वाले अधिकारियों की संख्या (सीनियर एडमिनिस्ट्रेटिव ग्रेड के स्तर तक) को धीरे-धीरे कम किए जाने के साथ ही उनकी सेवा अवधि अधिकतम 2 वर्ष तक सीमित करने की बात भी कही है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार इस ग्रेड में आईजी(महानिरीक्षक)रैंक वाले अधिकारी आते हैं। यानी कुछ वर्षों के दौरान इन बलों में आईजी रैंक तक आईपीएस प्रतिनियुक्ति को खत्म किया जा सकता है। न्यायालय ने कहा है कि प्रतिनियुक्ति पदों में यह कमी सीएपीएफ कैडर अधिकारियों को बलों के प्रशासनिक कामकाज में अधिक भागीदारी करने की अनुमति देगी और लंबे समय से चली आ रही शिकायतों का समाधान करेगी। बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने आदेश दिया है कि सभी सीएपीएफ में कैडर समीक्षा, जो वर्ष 2021 में होनी थी, आज से छह महीने की अवधि के भीतर पूरी की जाए। हालांकि, गृह मंत्रालय ने सीएपीएफ कैडर अधिकारियों की याचिका का विरोध करते हुए यह बात कही है कि आईपीएस अधिकारी पदानुक्रम का एक ‘महत्वपूर्ण हिस्सा’ हैं। मंत्रालय ने यह बात कही कि चूंकि ये बल विभिन्न राज्यों में तैनात हैं, इसलिए आईपीएस अधिकारी सीएपीएफ के प्रभावी संचालन के लिए जरूरी हैं, जिससे संबंधित राज्य सरकारों और उनके संबंधित पुलिस बलों के साथ सहयोग की सुविधा मिलती है, जिससे संघीय ढांचे को संरक्षित किया जा सकता है। अंत में यही कहूंगा कि शीर्ष अदालत ने सीएपीएफ में महानिरीक्षक स्तर तक के आईपीएस अधिकारियों की प्रतिनियुक्ति दो वर्षों में ‘उत्तरोत्तर’ करने का आदेश दिया है, ताकि कैडर अधिकारी अपने जायज हक से वंचित न हों और उन्हें पदोन्नति के अधिक अवसर मिलें। यह काबिले-तारीफ है कि सुप्रीम कोर्ट ने यह बात कही है कि केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों (सीएपीएफ) को संगठित समूह-ए सेवाओं (ओजीएएस) का हिस्सा माना जाना चाहिए, न केवल गैर-कार्यात्मक वित्तीय उन्नयन (एनएफएफयू) प्रदान करने के उद्देश्य से, बल्कि कैडर समीक्षा सहित सभी कैडर-संबंधी मामलों के लिए भी।वास्तव में, यहां यह कहना ग़लत नहीं होगा कि अदालत के आदेश से सीएपीएफ कर्मियों को बड़ी राहत मिलेगी, जो उच्च स्तर पर आइपीएस से बड़ी संख्या में प्रतिनियुक्ति के कारण अपने करियर में ठहराव का आरोप लगा रहे थे। उम्मीद की जा सकती है कि इस फैसले से पांचों केंद्रीय पुलिस बलों-सीआरपीएफ, बीएसएफ, सीआईएसएफ, आईटीबीपी और एसएसबी के कैडर अफसरों को उनका जायज हक (पदोन्नति, वित्तीय लाभ आदि) मिल सकेगा और उनकी कर्तव्य भावना और मजबूत हो सकेगी।

सुनील कुमार महला

सात सन्नाटे, एक संसार

एक घर था कभी, जहाँ हँसी भी गूंजती थी,
आज वहीं शून्य की चीत्कार सुनाई देती है।
सात देहें, सात कहानियाँ, सात मौन प्रश्न,
और हम सब — अब भी चुप हैं… केवल देखते हैं।

कहते हैं — “क्यों नहीं बताया?”
पर क्या कभी हमने पूछा था — “कैसे हो?”
कभी चाय पर बैठकर पूछा होता
तो शायद ज़हर के प्याले तक बात न जाती।

प्रवीण मित्तल और उसका संसार,
अब सिर्फ़ अख़बार की एक खबर है।
पर उसकी तकलीफ़…
कई दरवाज़ों के पीछे आज भी साँस ले रही है।

क्या हमारे रिश्ते इतने खोखले हो गए हैं,
कि दुख बांटना बोझ लगने लगे?
क्या हर आत्महत्या से पहले
हम सब थोड़े-थोड़े हत्यारे नहीं बन जाते?

रिश्ते सिर्फ़ मौकों पर नहीं,
मुसीबतों में आज़माए जाते हैं।
और अगर कोई चुपचाप मर गया,
तो यक़ीन मानिए — हमने उसे जीने नहीं दिया।

हर पड़ोसी, हर भाई, हर मित्र,
आज खुद से पूछे —
क्या मैंने किसी टूटते व्यक्ति को थामने की कोशिश की थी?
या मैं भी उन्हीं में था जो कहते हैं — “उसने क्यों नहीं बताया?”

अब पछतावे की आग में जलने से बेहतर है,
कि आज से हम किसी एक भूखे चेहरे पर
मुस्कान बाँटें, किसी एक थके मन को सहारा दें।

क्योंकि एक छोटा-सा सहारा,
कभी-कभी मौत की ओर बढ़ते कदम को
ज़िंदगी की ओर मोड़ देता है।

तो आइए,
सिर्फ़ अफ़सोस न करें,
इंसानियत को ज़िंदा करें।

  • डॉ सत्यवान सौरभ