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विविधा

अब वित्त मंत्री बजट में क्या बोलेंगे सरकार, घोषणाएं तो आपने ही कर डाली !

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-निरंजन परिहार- सन 2016 के जाते जाते और सन 2017 के आते आते, पूरा देश सांसे थामकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का इंतजार कर रहा था। हर किसी को उम्मीद थी कि नोटबंदी पर मोदी कुछ तो बोलेंगे। लेकिन नए साल की पूर्वसंध्या पर अपने बहुप्रतीक्षित संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक साथ कई मोर्चे […]

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समाज

शहर की चिंता में क़ाज़ी जी का दुबला होना

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ऐसा प्रतीत होता है कि आलोचना की आड़ में प्रसिद्धि कमाने की जुगत में लगे रहने वाले यह लोग भी मौका देखकर अपनी ज़हरीली आवाज़ बुलंद करते हैं। क्योंकि पीवी सिंधु,साक्षाी मलिक और दीपा करमारकर जैसी होनहार लड़कियां जब भारत के लिए पद जीतकर लाईं उस समय इन सभी खिलाडिय़ों की पोशाकें वही थीं जो उनके खेलों के लिए खेल नियम के अनुसार निर्धारित की गई थीं। परंतु चूंकि इनकी विजय का जश्र भारत में इतना ज़बरदस्त तरीके से मनाया जा रहा था कि पूरा देश इनके समर्थन में खड़ा था।

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राजनीति

देश मजहब-प्रेम से ऊपर है

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दीदी का मुस्लिम प्रेम ही था कि उन्होंने 30000 मदरसों को 2500 रुपये और 1500 मस्जिदों को 1500 रुपए प्रतिमाह देने का फैसला कर लिया था, जिसकी भविष्य में गंभीरता को देखते हुए माननीय कोलकाता हाईकोर्ट ने उस फैसले को ही खारिज कर दिया था। मां, माटी और मानुष की राजनीति के नारे की उस वक्त भी पोल खुली, जब मालदा हमले के ठीक पहले एक मदरसे के प्रधानाध्यापक काजी मसूम अख्तर पर इसलिए हमला कर दिया गया क्योंकि काजी छात्रों से राष्ट्रीय गान सुनना चाहते थे। यही नहीं सरकार ने कुछ मुस्लिम कट्टरपंथियों द्वारा आपत्ति जताने के बाद बांग्लादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन द्वारा लिखी गई पटकथा वाले नाटक सीरीज के प्रसारण पर भी रोक लगा दी और सलमान रुश्दी को कोलकाता आने पर प्रतिबंध लगा दिया।

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राजनीति

आरक्षण व्यवस्था की समीक्षा तक पर एतराज क्यों ..?

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धीरे-धीरे ही सही लेकिन चीजें बदलनी शुरू हुई हैं। दलित और पिछड़े समाज का शहरी युवा भी राजनैतिक दलों के इस गोरखधंधे को बखूबी समझने लगा है और समझने लगा है, कि जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रतियोगिता से ही पार पाया जा सकेगा। यही नहीं आरक्षण के बूते दलित और पिछड़े समाज के राजनैतिक मठाधीशों को लेकर भी समाज में माहौल अब बदल रहा है। लोग मानने लगें कि आरक्षण का यह लाभ जरूरतमंदों तक न पहँुचकर कुछ लोगों की जागीर बन रहा है। दलित और पिछड़े समाज के जागरूक युवाओं में भी यह धारणा बन रही है, कि आरक्षण व्यवस्था का लाभ जातिगत न होकर जरूरतमंदों को मिले तो समाज की तस्वीर ज्यादा तेजी के साथ बदलेगी।

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