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    कम मतदान ने भाजपा की परेशानी बढ़ाई

    प्रमोद भार्गव

                   देश  में हुए दो चरणों के चुनाव में 190 सीटों पर मतदान हो चुका है। यानी कुल 543 में से 35 प्रतिशत  संसदीय क्षेत्रों के उम्मीदवारों का भाग्य ईवीएम में बंद हो चुका है। इन दो चरणों में हुए कम मतदान ने राजनीतिक दलों के साथ मतदाता को भी भ्रमित कर दिया है। जबकि चुनाव प्रचार चरम पर है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो ओबीसी के कोटे में कांग्रेस द्वारा कर्नाटक में मुस्लिमों को आरक्षण देने का मुद्दा उछालकर हिंदु वोटों को धु्रवीकृत करने का काम भी किया, बावजूद मतदान का नहीं बढ़ना भाजपा के लिए चिंता का सबब बन गया है। मध्यप्रदेश  में लोकसभा चुनाव के पहले चरण के बाद दूसरे चरण में भी मतदान में कमी ने भाजपा नेताओं की परेशानी बढ़ा दी है। दूसरे चरण में उन महिला मतदाताओं अर्थात लाडली बहनों ने भी कम मतदान किया है, जिन्होंने विधानसभा चुनाव में बढ़-चढ़कर मतदान करके भाजपा को 163 सीटें दिलाई थीं। मतदाता के इस रुख के चलते जीत-हार का अनुमान लगाने वाली एजेंसियां भी असमंजस में है। मतदाता की उदासीनता ने ऊंट किस करवट बैठेगा, यह संशय बढ़ा दिया है।

                   लोकतंत्र में वैसे तो जनता देश  की भाग्य-विधाता होती है, लेकिन जीत के बाद नेता और दल जनता के भाग्य-विधाता विकास का दावा करते-करते बन जाते है। इस कथित भाग्य-विधाता की दूसरे चरण में हुए कम मतदान के बाद नींद उड़ी हुई है। कम मतदान को राजनैतिक दल अपने हिसाब से परिभाशित करते हैं। ज्यादातर इसे सत्ताधारी दल के विपरीत हुआ मतदान माना जाता है। लेकिन नरेंद्र मोदी के आक्रामक प्रचार और हिंदुओं के धु्रवीकरण की रणनीति के चलते फिलहाल यह कहना जल्दबाजी होगी कि मतदाता ने अपना रुख बदल दिया है। 60 प्रतिशत  के आसपास पहुंचा मतदान अभी भी इस बात का संकेत है कि समूचे देश  में भाजपा की बढ़त बनी हुई है। लेकिन जिस मध्यप्रदेश  में भाजपा को लाडली बहनों से सबसे ज्यादा उम्मीद थी, वे मतदान के प्रति उदासीन दिखाई दी है। दूसरे चरण में खजुराहो, टीकमगढ़, दमोह, होषांगाबाद, रीवा और सतना में 59 प्रतिशत  मतदान हुआ है। जबकि यहां 2019 में 67 प्रतिशत  मतदान हुआ था। 2019 की तुलना में इनमें से चार सीटों पर महिलाओं ने कम मतदान किया है। टीकमगढ़ में 2019 में 63.80 प्रतिशत  मतदान हुआ था, जबकि 2024 में 56.35 प्रतिशत  रह गया। सतना में 2019 में 70.77 था, जो अब 59.21 रह गया। खजुराहो में 2019 में 64.76 प्रतिशत  मतदान हुआ था, जो अब 53.06 रह गया। हालांकि दमोह और होशंगाबाद  में महिलाओं ने वोट 2019 की तुलना में ज्यादा डाले। 

                   दो चरणों में 190 सीटों पर हुए मतदान में ज्यादातर सीटों पर कम मतदान के चलते भाजपा को झटका लगा है। जबकि अच्छे मतदान के लिए भाजपा ने प्रत्येक मतदान केंद्र पर सूक्ष्म प्रबंधन के दावे किए थे। कार्यकर्ताओं को जुटाकर अमित शाह तक ने मतदाता को मतदान केंद्र तक पहुंचाने के गुर सिखाए थे। उधर जिला प्रशासन भी अधिक मतदान के लिए उन सब टोने-टोटकों को आजमाता रहा है, जिन्हें मतदान बढ़ाने का परंपरागत फार्मूला माना गया है। हालांकि इन टोटकों में ज्यादा कुछ असरकारी कभी दिखाई नहीं दिया। प्रशासन की हुंकार पर सरकारी स्कूलों के विद्यार्थियों, आंगनवाड़ी महिला कार्यकर्ताओं और स्व-सहायता समूह की महिलाओं को इकट्ठा करके मानव श्रृंखला बनाकर और कुछ नारे लगाकर इन टोटकों की इतिश्री न केवल प्रदेश  बल्कि पूरे देश  में कर ली जाती है। जिसके नतीजे लगभग शून्य  होते हैं।

                   बहरहाल भाजपा संगठन इस तैयारी में लगा रहा था कि मतदान लगभग 10 प्रतिशत  तक बढ़ जाए। इस नाते भाजपा ने प्रत्येक मतदान केंद्र पर 370 वोट बढ़ाने का पाठ भी कार्यकर्ताओं को पढ़ाया था। परंतु हुआ इसका उल्टा, 10 से 12 प्रतिशत  तक मत-प्रतिशत  कम हो गया। साफ है, वोट बढ़ाने का फार्मूला कारगर साबित नहीं हुआ है। संभव है अगले पांच चरणों में भी अब यही ट्रैंड देखने में आए ? मध्यप्रदेश  में भाजपा ने विधानसभा चुनाव में युद्ध स्तर पर मतदान केंद्रों तक मतदाता को पहुंचाने की जिम्मेबारी लेते हुए वोट-प्रतिशत  48.55 प्रतिशत  तक पहुंचा दिया था। इसी का नतीजा रहा कि 230 विधानसभा सीटों में से भाजपा ने 163 सीटों पर विजय प्राप्त कर ली थी। भाजपा के इस केंद्र प्रबंधन की तारीफ भाजपा के राश्ट्रीय अधिवेशन में भी हुई। अतएव इसी फार्मूले को लोकसभा चुनाव में भी अजमाने के प्रबंध किए गए। बड़ी संख्या में कार्यकर्ताओं को कार्यशालाएं लगाकर प्रशिक्षित भी किया गया। लेकिन मत-प्रतिशत  बढ़ने की बजाय घट गया। कार्यकर्ता और मतदाता के उदासीन होने के कारणों में विधानसभा चुनाव परिणाम में स्पष्ट  बहुमत के बावजूद मुख्यमंत्री के चयन में उम्मीद से ज्यादा देरी और फिर मंत्रीमंडल के गठन में भी इसी देरी को दोहराना प्रमुख कारण रहे हैं। इस उदासीनता के पीछे एक बड़ा कारण शिवराज सिंह चैहान को हाशिए पर डालना भी रहा है। जबकि विधानसभा चुनाव में जीत का प्रमुख आधार उनकी लाडली लक्ष्मियां और बहनें रही हैं। शिवराज की लोक-लुभावन भाषण कला भी इस बड़ी जीत का एक राज रही है। जबकि मोहन यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद से लेकर अब तक उनका करिष्माई नेतृत्व किसी भी क्षेत्र में देखने में नहीं आया है। हालांकि अब नरेंद्र मोदी ने कहा है कि शिवराज को केंद्र में ले जाएंगे।

                    देश  और मध्यप्रदेश  में कम मतदान की झलक यह जता रही है कि फिलहाल कांग्रेस शून्य  नहीं हो रही है। सुविधा भोगी मतदाता ने कम मतदान किया है। ज्यादातर शहरी मतदाता इन दोनों चरणों में शुक्रवार को मतदान के चलते शनिवार और रविवार की छुट्टी होने के कारण सपरिवार पर्यटन पर निकल गया। नतीजतन ऐसे लोगों ने मतदान की जिम्मेदारी से पलड़ा झाड़ लिया। दूसरी तरफ दलों और कार्यकर्ताओं ने मतदाताओं को मतदान केंद्रों तक पहुंचाने से किनारा कर लिया। भाजपा कार्यकर्ताओं ने यह किनारा इसलिए किया, क्योंकि वे इस अतिविश्वास के शिकार हो गए हैं कि मोदी और राम में लहर बन जाने के कारण भाजपा 400 पार जा रही है। कांग्रेस और अन्य दलों के कार्यकर्ता इस गलतफहमी में हैं कि मोदी लहर के चलते उनके दल का पार पाना मुश्किल  है। इसलिए उसने मतदाता को मतदान केंद्र तक पहुंचाने से दूरी बनाए रखी। कांग्रेस के पास संसाधनों की कमी के चलते भी यह स्थिति देखने में आई है। विपक्षी दल मतदाता को मुद्दों के आधार पर लुभाने में भी सफल नहीं हुए। विपक्षी दलों के बिखराव ने भी मतदाता को उदासीन बनाने का काम किया है। मतदाता ने सोच बना लिया कि इंडिया गठबंधन बन जाने के बावजूद इसका कोई केंद्रीय नेतृत्वकर्ता सामने नहीं है। इसलिए मोदी पर भरोसा करना ही ठीक है। लेकिन यह उदासीनता देश हित में कतई उचित नहीं है।

    प्रमोद भार्गव

    सबसे प्यारा नाम ‘मां’

    दिया दसिला
    कपकोट, उत्तराखंड

    किसी ने पूछा जरा बताना,
    दुनिया का सबसे प्यारा नाम नाम,
    मैंने हंस कर उसे कहा,
    तुम्हें इतना सोचना क्यों पड़ा?
    वो दो अक्षर का प्यारा नाम,
    दुनिया जानती है वह है मां,
    बच्चों की खुशियों की खातिर,
    जग से लड़ जाती है मां,
    तनिक भी विपदा आए जो बच्चे पर,
    तो घर सर पर उठा लेती है मां,
    खुद भूखी रह कर हमें खिलाती मां,
    यूं ही नहीं वह कहलाती है मां,
    अंधकार में रौशनी की किरण है वो,
    डर के सामने हिम्मत है वो,
    मेरी तूफान सी जिंदगी में शांति है वो,
    दुविधा में असली सुकून है मां।

    दुनिया का सबसे महंगा चुनाव है गंभीर चुनौती

    – ललित गर्ग –
    विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के लोकसभा चुनाव 2024 अनेक दृष्टियों से यादगार, चर्चित, आक्रामक एवं ऐतिहासिक होने के साथ-साथ अब तक का सबसे महंगा एवं दुनिया का सबसे खर्चीला चुनाव है। सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की हालिया रिपोर्ट के अनुसार इस बार का चुनावी खर्च एक लाख बीस हजार करोड़ रुपये के खर्च के साथ दुनिया का सबसे महंगा चुनाव होने की ओर अग्रसर है। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव के खर्च की तुलना में इस बार दुगुना खर्च होगा। चुनाव प्रक्रिया अत्यधिक महंगी एवं धन के वर्चस्व वाली होने से राजनीतिक मूल्यों का विसंगतिपूर्ण एवं लोकतंत्र की आत्मा का हनन होना स्वाभाविक है। चुनाव जनतंत्र की जीवनी शक्ति है। यह राष्ट्रीय चरित्र का प्रतिबिम्ब होता है। जनतंत्र के स्वस्थ मूल्यों को बनाए रखने के लिए चुनाव की स्वस्थता, पारदर्शिता, मितव्ययता और उसकी शुद्धि अनिवार्य है। चुनाव की प्रक्रिया गलत होने पर लोकतंत्र की जड़े खोखली होती चली जाती हैं। करोड़ों रुपए का खर्चीला चुनाव, अच्छे लोगों के लिये जनप्रतिनिधि बनने का रास्ता बन्द करता है और धनबल एवं धंधेबाजों के लिये रास्ता खोलता है। इन चुनावों में अर्थ का अनुचित एवं अतिशयोक्तिपूर्ण खर्च का प्रवाह जहां चिन्ता का कारण बन रहा है, वहीं समूची लोकतांत्रिक प्रणाली को दूषित करने का सबब भी बन रहा है। इस तरह की बुराई एवं विकृति को देखकर आंख मंूदना या कानों में अंगुलियां डालना दुर्भाग्यपूर्ण है, इसके विरोध में व्यापक जनचेतना को जगाना जरूरी है। यह समस्या या विकृति किसी एक देश की नहीं, बल्कि दुनिया के समूचे लोकतांत्रिक राष्ट्रों की समस्या है।
    18वीं लोकसभा चुनाव में हर राजनैतिक दल अपने स्वार्थ की बात सोच रहा है तथा येन-केन-प्रकारेण ज्यादा से ज्यादा वोट प्राप्त करने की अनैतिक तरकीबें निकाल रहा है। एक-एक प्रत्याशी चुनाव का प्रचार-प्रसार करने में करोड़ों रुपयों का व्यय करता है। यह धन उसे पूंजीपतियों, उद्योगपतियों, राजनीतिक दलों एवं प्रायोजकों से मिलता है। चुनाव जीतने के बाद वे उद्योगपति उनसे अनेक सुविधाएं प्राप्त करते हैं। इसी कारण सरकार उनके अनुचित दबाव के विरुद्ध कोई आवाज नहीं उठा पाती और अनैतिकता एवं आर्थिक अपराध की परम्परा को सिंचन मिलता रहता है। यथार्थ में देखा जाए तो जनतंत्र अर्थतंत्र बनकर रह जाता है, जिसके पास जितना अधिक पैसा होगा, वह उतने ही अधिक वोट खरीद सकेगा। लेकिन इस तरह लोकतंत्र की आत्मा का ही हनन होता है, इस सबसे उन्नत एवं आदर्श शासन प्रणाली पर अनेक प्रश्नचिन्ह खड़े होते हैं।
    सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज रिपोर्ट के मुताबिक आमतौर पर चुनाव अभियान के लिए धन अलग-अलग स्रोतों से अलग-अलग तरीको से उम्मीदरवारों और राजनीतिक दलों के पास आता है। राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों को चुनाव खर्च के लिए मुख्य रूप से रियल इस्टेट, खनन, कारपोरेट, उद्योग, व्यापार, ठेकेदार, चिटफण्ड कंपनियां, ट्रांसपोर्टर, परिवहन ठेकेदार, शिक्षा उद्यमकर्ता, एनआआई, फिल्म, दूरसंचार जैसे प्रमुख स्रोत है। इस साल डिजिटल मीडिया द्वारा प्रचार बहुत ज्यादा हो रहा है। राजनीतिक दल पेशेवर एजेंसिया की सेवाएं ले रहे हैं। इनसे सबसे अधिक राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों द्वारा प्रचार अभियान, रैली, यात्रा खर्च के साथ-साथ सीधे तौर पर गोपनीय रूप से मतदाताओं को सीधे नकदी, शराब, उपहारों का वितरण भी शामिल है। देश में 1952 में हुए पहले आम चुनाव की तुलना में 2024 में 500 गुणा अधिक खर्च होने का अनुमान है। प्रति मतदाता 6 पैसे से बढ़कर आज 52 रुपये खर्च होने का अनुमान है। हालांकि रिपोर्ट के मुताबिक चुनाव में होने वाले वास्तविक खर्च और अधिकारिक तौर पर दिखाए गए खर्चे में काफी अंतर है। रिपोर्ट के मुताबिक 2019 के लोकसभा चुनाव में देश के 32 राष्ट्रीय और राज्य पार्टियों द्वारा आधिकारिक तौर पर सिर्फ 2,994 करोड़ रुपये का खर्च दिखाया। इनमें दिखाया गया कि राजनीतिक दलों ने 529 करोड़ रुपये उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने के लिए दिए थे। रिपोर्ट के मुताबिक चुनाव में राजनीतिक दलों द्वारा निर्वाचन आयोग में पेश खर्च का ब्यौरा और वास्तविक खर्च के साथ-साथ उम्मीदवारों द्वारा अपने स्तर पर किए जा रहे खर्चे में काफी अंतर है। अमेरिकी चुनाव पर नजर रखने वाली एक वेबसाइट के रिपोर्ट का हवाला देते हुए, सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के अध्यक्ष एन भास्कर राव ने कहा कि यह 2020 के अमेरिकी चुनावों पर हुए खर्च के लगभग बराबर है, जो 14.4 बिलियन डॉलर यानी 1 लाख 20 करोड़ रुपये था। उन्होंने कहा कि दूसरे शब्दों में कहें तो भारत में 2024 में दुनिया का सबसे बड़ा चुनाव अब तक का सबसे महंगा चुनाव साबित होगा।
    भारत में होने वाले चुनाव में हो रहे बेसुमार खर्च की तपीश समूची दुनिया तक पहुंच रही है। समूची दुनिया के तमाम देशांे में भारत के चुनाव को न केवल दम साध कर देखा जा रहा है बल्कि इन चुनाव के खर्चों एवं लगातार महंगे होते चुनाव की चर्चा भी पूरी दुनिया में व्याप्त है। लोकसभा चुनाव में भाजपा, कांग्रेस, सपा, बसपा, तूणमूल कांग्रेस आदि दलों एवं उनके उम्मीदावारों ने मतदाताओं को प्रभावित करने के लिये तिजोरियां खोल दी है। यह चुनाव राष्ट्रीय मसलों के मुकाबले राजनीतिक दलों के हित सुरक्षित रखने के वादे पर ज्यादा केंद्रित लग रहा है और टकराव के मुद्दे थोड़े ज्यादा तीखे हैं। लेकिन अगर मुद्दों से इतर अभियानों की बात करें तो यह खबर ज्यादा ध्यान खींच रही है कि इस बार चुनाव अब तक के इतिहास में सबसे खर्चीला साबित होने जा रहा है। इस चुनावों के अत्यधिक खर्चीले होने का असर व्यापक होगा। चुनाव के तवे को गर्म करके अपनी रोटियां संेकने की तैयारी में प्रत्याशी वह सब कुछ कर रहे हैं, जो लोकतंत्र की बुनियाद को खोखला करता है। काफी लंबे और जटिल प्रक्रिया के तहत चलने वाले चुनाव में जनता के बीच समर्थन जुटाने के लिए उम्मीदरवार जितने बड़े पैमाने पर अभियान चलाते हैं, उसमें उन्हें स्थानीय कार्यकर्ताओं से लेकर सामग्रियों और जनसंपर्कों तक के मामले में कई स्तरों पर खर्च चुकाने पड़ते हैं। यों किसी भी देश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत होने वाले चुनावों में ऐसा ही होता है, लेकिन भारत में इसी कसौटी पर खर्च में कई गुना ज्यादा होना चिन्ता का सबब बनना चाहिए।
    दुनिया की आर्थिक बदहाली एवं युद्ध की विभीषिका से चौपट काम-धंधों एवं जीवन संकट में लोकसभा के चुनाव कहां कोई आदर्श प्रस्तुत कर पा रहे हैं? इस बात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है, जो लोग चुनाव जीतने के लिए इतना अधिक खर्च कर सकते हैं तो वे जीतने के बाद क्या करेंगे, पहले अपनी जेब को भरेंगे, अर्थव्यवस्था पर आर्थिक दबाव बनायेंगे। और मुख्य बात तो यह है कि यह सब पैसा आता कहां से है? कौन देता है इतने रुपये? धनाढ्य अपनी तिजोरियां तो खोलते ही है, कई कम्पनियां हैं जो इन सभी चुनावी दलों एवं उम्मीदवारों को पैसे देती है, चंदे के रूप में। चन्दा के नाम पर यदि किसी बड़ी कम्पनी ने धन दिया है तो वह सरकार की नीतियों में हेरफेर करवा कर लगाये गये धन से कई गुणा वसूल लेती है। इसीलिये वर्तमान देश की राजनीति में धनबल का प्रयोग चुनाव में बड़ी चुनौती है। सभी दल पैसे के दम पर चुनाव जीतना चाहते हैं, जनता से जुड़े मुद्दों एवं समस्याओं के समाधान के नाम पर नहीं। कोई भी ईमानदारी और सेवाभाव के साथ चुनाव नहीं लड़ना चाहते हैं। राजनीति के खिलाड़ी सत्ता की दौड़ में इतने व्यस्त है कि उनके लिए विकास, जनसेवा, सुरक्षा, महामारियां, युद्ध, आतंकवाद की बात करना व्यर्थ हो गया है। सभी पार्टियां जनता को गुमराह करती नजर आती है। सभी पार्टियां नोट के बदले वोट चाहती है। राजनीति अब एक व्यवसाय बन गई है। सभी जीवन मूल्य बिखर गए है, धन तथा व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए सत्ता का अर्जन सर्वाेच्च लक्ष्य बन गया है। लोकसभा चुनाव की सबसे बड़ी विडम्बना एवं विसंगति है कि यह चुनाव आर्थिक विषमता की खाई को पाटने की बजाय बढ़ाने वाले साबित होने जा रहे हैं। आखिर कब तक चुनाव इस तरह की विसंगतियों पर सवार होता रहेगा? 

    जीवन में रामत्व          

    ऋचा सिंह

    श्रीराम को सनातन धर्म में विष्णु का अवतार माना गया है । लोग उनको भगवान और आराध्य मान कर पूजार्चन करते हैं । लेकीन जब हम राम के सम्पूर्ण जीवन का अवलोकन करते हैं तो पाते हैं कि राम केवल पूजा के विषय नहीं हैं वह अनुकरणीय हैं हर स्थिति काल में जीवन को दिशा प्रदान करने वाले प्रेरणा पुंज हैं । ऐसा इसलिए क्योंकि राम ने स्वयं को एक राजा और भगवान के अवतार के रूप में नहीं अपितु जननायक के रूप में स्थापित किया। हम उनके संपूर्ण जीवन में देखते हैं कि कैसे उन्होने कठिन  स्थितियों में भी मर्यादा के नूतन आयाम स्थापित किए । राजकुल में जन्म लेने के बाद भी राम ने अपना जीवन राजसी वैभव में नहीं बिताया । उनका बाल्यकाल आश्रम में व्यतीत हुआ, गुरुकुल में वह राजकुमारों की भांति नहीं अपितु समान्य बालकों की भांति अपने और आश्रम के सारे कार्य करते थे । जब वह युवा हुए और राज्याभिषेक का समय आया तो उन्हे पिता के वचन के लिए वनगमन करना पड़ा । राम का जीवन मानवीय संबंधों के मार्गदर्शन में प्रेरणा देता आया है जिसके कारण वह लोक चेतना और परम्परा में सदैव जीवंत रहते हैं ।

    जो लोक में व्याप्त है वह कालजयी है,वही सर्वमान्य है ,वही अनुकरणीय है, वही वंदनीय है। लोक परंपरा में भी हम पाते हैं कि जन्मोत्सव ,विवाह , हवन, कीर्तन, मांगलिक अयोजन आदि में महिलाएं जो मंगल गीत गाती हैं उसमें भी राम  का नाम और उनका संबंध मूल्य ही समाहित है । ऐसे मर्यादा पुरुषोत्तम राम जो लोक के मन में हैं जो जन जन के  हृदय  में बसते हैं । देखें तो राम ही त्यौहार हैं ,उल्लास हैं उत्सव हैं ,भक्ती हैं ,शक्ति हैं ,पूजा हैं ,ज्ञान हैं ,प्रेरणा हैं और जीवन के प्रकाश स्तम्भ हैं । राम केवल जन जन की भावना नहीं या सनातन धर्म को मानने वालों की आस्था का केंद्र नहीं बल्कि भगवान राम तो जीवन जीने का तरीका है । फिर चाहे वह संबंध मूल्यों को निभाना हो धर्म के मार्ग पर चलना हो या फिर अपने दिए  हुए वचन को पूर्ण करने के साथ कर्त्तव्य निर्वहन हो । राम सिर्फ कहने में ही मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं है बल्कि हर मायने में वह एक उत्तम और आदर्श पुरुष है वह जीवन के मार्ग को प्रशस्त करने वाले प्रकाश हैं । राम के जीवन आदर्शों को अनुकूल स्थिति में अपने आचरण में लाना जीवन को सरल और सहज बनाता है। राम का जीवन आदर्श, नैतिकता और व्यवहार का उच्चतम मापदंड है जो  हर स्थिती में प्रासंगिक हैं । गुरु -शिष्य ,राजा -प्रजा,स्वामी -सेवक, पिता -पुत्र ,पति -पत्नी,भाई-भाई, मित्र-मित्र के आदर्शों के साथ धर्म नीति ,राजनीतिक ,अर्थनीति के साथ सत्य, त्याग,सेवा,प्रेम,क्षमा,शौर्य,  

    परोपकार,दान आदि मूल्यों का सुंदर ,समन्वित आदर्श रूप राम के संपूर्ण जीवन में समय समय पर  देखने को मिलता है। राम के जीवन के पुरुषोत्तम होने की विशेषताओं का संदर्भ रामायण में अनेक स्थानों पर देखने को मिलता है जिसका जीवन में अनुकरण करने पर समरसता पूर्ण समन्वित और खुशहाल व्यक्तित्व का निर्माण होता है ।राम का जीवन इतना अदभुत और विशाल है कि उनके जीवन के प्रसंगों को बार-बार देखने और सुनने से भी मन नहीं भरता ।

    आज ज्ञान, विज्ञान , तकनीकी ने कितनी भी प्रगति करली हो लेकिन जब व्यक्ति भावनात्मक रूप से  खुद को कमजोर पाता है तब वह श्रीराम के जीवन आदर्शों में ही समाधान  ढूंढने का प्रयास करता है। राम तो प्रभु का अवतार थे लेकिन जब उन्होंने भी मानव शरीर में धरती पर जन्म लिया तब उन्हे भी सामाजिक, पारिवारिक, सांसारिक बहुत सारी समस्याओं  का सामना करना पड़ा, लेकिन राम ने हर स्थिति में स्थित प्रज्ञ होकर कभी मर्यादा का उलंघन नहीं किया उनके जीवन में यह विशेष और अनुकरणीय है । राम का जीवन हर मानव के हृदय में मन मस्तिष्क में इसलिए बसा हुआ है क्योंकि उनकी कथाएं लोक में व्याप्त हैं । हजारों वर्षों से राम कथा का जतन एवं संवर्धन कलाओं के माध्यम से ,गीतों के माध्यम से, मंचन के माध्यम से आम जनमानस के बीच होता रहा है । देखा जाए तो लोक संस्कृति के विभिन्न प्रकारों में रामायण प्रदर्शित होता है जिसमें अपनी भिन्न भिन्न परंपराएं ,अपनी विशिष्ठ वेशभूषा , भाषा के साथ जन जीवन के कई आयाम देखने को मिलते हैं । जिससे  जनमानस अपने आप को समृद्ध करता आया है ।  लोकमंगल की भावना में भी राम  के जीवन की अनंत  कहानियों द्वारा बच्चों में मूल्यों को रोपित करने की परम्परा चली आरही हैं। राम के नाम के सहारे  अनंत गीतों ,कहानियों,मनोभावो की जनमानस भावाभिव्यक्ति करता आया है। राम केवल लोगों की भावनाओं में समाए हुए देव नहीं है जिनके प्रति सिर्फ आस्था रखकर पूजा किया जाय बल्कि राम सही मायने में उत्तम पुरुष हैं जो हमें जीवन जीना सिखाते हैं। राम का चरित्र ,आदर्श ,धर्म पालन ,नैतिकता और मानवीय संबंधों के मार्गदर्शन हमें सदैव प्रेरणा प्रदान करता आया है,इसीलिए जनजीवन हर आयाम में हर कलाओं में राम के जीवन को उनके आदर्शों को प्रकट करता रहा है। हम देखे तो राम का जीवन ही ऐसा है जो जनमानस से रिश्ता जोड़कर रखता है।

      श्रीराम के लिए समाज के सभी वर्ग समान थे, उनके लिए कोई छोटा या  बड़ा नहीं था जैसा हम उनके जीवन में पाते हैं कि निषाद राज , केवट , शबरी माता, जटायु बानर सेना इसके उदाहरण हैं । उनके राज्य में सभी वर्गों में समानता और समान अवसर प्राप्त थे सभी को अपने विचार अभिव्यक्त की स्वतंत्रता प्राप्त थी। राम ने समाज के प्रत्येक वर्ग को आपस में जोड़कर रखने का संदेश दिया उन्होंने प्रेम ,भाईचारे का संदेश दिया । राम का व्यक्तित्व ऐसा था जहां प्रेम और विश्वास में भिलनी माता शबरी अपने राम के लिए चख कर मीठे बेर एकत्र करती थीं इस आस में की भक्ति और प्रेम के भूखे उनके राजा राम एक दिन उनकी कुटिया में अवश्य आयेंगे। राम प्रेम के जूठे बेर ग्रहण कर ऐसे नैतिकता के सुकृत संदेश प्रेषित करते हैं जो लोक चेतना में आज भी जीवंत होकर व्यक्ति को नर से नारायण बनने की प्रेरणा देते हैं ।

    श्रीराम का जीवन सामाजिक चेतना, समृद्धि ,सद्गुण और सहानुभुति के मार्ग पर  चलने के लिए प्रेरणा स्रोत है। राम को पिता के वचन के लिए वैभवशाली जीवन त्याग करने में एक क्षण नहीं लगा । आज के युग में अपने छोटे से अधिकार को लोग त्यागना नहीं चाहते लेकिन राम ने समाज ,परिवार में पुत्र और भाई  के रूप में एक आदर्श प्रस्तुत किया। राज्य छोटे भाई को सौंप कर राम ने भरत से न ही कभी ईर्ष्या की ओर न ही द्वेष बल्कि हमेशा भरत के प्रति प्रेम रखा और उन्हें राज संभालने के लिए प्रेरणा देते रहे। राम का व्यक्तित्व इतना विराट था कि उनमें संपूर्ण प्राणियों के लिए स्नेह और सम्मान का भाव था । राम मनुष्य से ही नहीं पशु ,पक्षियों और प्राकृति के प्रति भी स्नेह और लगाव रखते थे । कुछ प्रसंगो द्वारा हमें यह ज्ञात होता है कि माता सीता का हरण होने के बाद  राम पशु पक्षियों और प्रकृति से भी संवाद कर रहे हैं और माता सीता  के बारे में पूछ रहे हैं , राम सेतु निर्माण में  गिलहरी से संबंधित एक अत्यंत रोचक प्रसंग है , ऐसे अनगिनत प्रसंग हमे राम के जीवन से जुड़े हुए दिखाई और सुनाई पड़ते हैं जो समरसता, स्नेह और प्रेम के पर्याय  हैं।

    राम लोकनायक थे बानरो की छोटी सी सेना पर अटूट प्रेम ,श्रद्धा और विश्वास  के बल पर ही राम ने लंका पर विजय प्राप्त की

    जो असत्य पर सत्य की जीत का राम के जीवन से मानव जाति को सबसे बड़ा संदेश है । राम को अपनी जन्मभूमि से बहुत प्रेम था लंका विजय के बाद राम ने कहा 

    अपि स्वर्णमयी लंका न में लक्ष्मण रोचते ।

    जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।।

    अर्थात लंका स्वर्ण से निर्मित है ,फिर भी मुझे इसमें कोई रुचि नहीं है, जननी और जन्मभूमि तो स्वर्ग से भी बढ़कर है ।

    राज कुल में पैदा होने के बाद भी राम ने कभी राजसी वैभव का सुख भोग नहीं किया ,वनवास की समय अवधि में अनेकों कष्ट का सामना किया । वह चाहते तो चक्रवर्ती राजा की तरह स्वतंत्र निर्णय ले सकते थे परंतु उन्होंने लोकनायक के रूप में आदर्श स्थापित किया। उनके राज्य में सबको अपनी बात कहने का अधिकार था । जब प्रजा के एक व्यक्ती ने माता सीता  पर प्रश्न चिन्ह लगाया और माता सीता  एक बार पुनः वनवास के लिए प्रस्थान कर गईं तब राम ने भी राजसी जीवन त्याग दिया और वनवासी की भांति जीवन व्यतीत करने लगे । एक राजा के रूप में भी राम ने स्वयं को लोकनायक ही सिद्ध किया और उसी रूप में  प्रजा की देखभाल कि और उनके मनोभाव अनुसार कार्य किया।

    वर्तमान में युवा और बच्चों को राम के जीवन से सीख लेनी चाहिए कि हमें स्वयं के जीवन, दूसरों के जीवन एवं समाज के लिए अच्छा करने के लिए नियम, धैर्य और अनुशासन के सदमार्ग का चयन करना चहिए है। आज युवाओं और बच्चों में धैर्य की कमी है, क्षणिक परिवर्तन से वह चिंता में आ जाते हैं , मनवांछित कार्य न होने पर कुंठा और तनाव का शिकार होजाते हैं यदि हम राम के जीवन से सीखें तो पाएंगे कि राम का राज्याभिषेक होने वाला था और जब पिता के वचन के लिए उन्हें वनवास जाना पड़ा उस स्थिति में भी वह स्थिति प्रज्ञ रहे। इससे आजकी पीढ़ी को सीख लेना चाहिए कि कैसे जीवन में आने वाली चुनौतियों का सामना धैर्य के साथ करें।

    आज बहुत सारी सामाजिक ,नैतिक, मानसिक समस्याओं से युवा और बच्चे भी ग्रसित हैं ऐसे में आवश्यकता है कि वह राम के जीवन आदर्शों को अपने जीवन में उतारें । आज जहां कई देश अपना क्षेत्रीय विस्तार करना चाहते है, पिता -पुत्र , भाई-भाई में संपत्ति को लेकर  बंटवारे हो रहे हैं ,आपसी तनाव बढ़ रहे हैं वहीं जब मर्यादा पुरूषोत्तम राम के आदर्शों को देखते हैं जहां राम लंका पर विजय प्राप्त करने के बाद रावण के भाई विभीषण को राजा बना कर राज लौटा देते हैं हम ऐसी भारत भूमि के हिस्सा हैं । राम का जीवन आम जनमानस के समक्ष ऐसे आदर्श के छाप, संदेश और उदाहरण से भरा हुआ है  जिससे ज्ञात होता है कि राम सिर्फ पूजनीय नहीं होने चाहिए ,जीवन में हमें रामत्व को धारण करते  हुए  धर्म के पथ का अनुगामी होना चाहीए । धर्म वही है जो सत्य के मार्ग का अनुसरण करते हुए उचित अनुचित का ध्यान रखकर अपने कर्तव्यों का मर्यादा के साथ  निर्वहन करें जिसका राम ने अपने संपूर्ण जीवन में निर्वाह किया ।

    आज जब 500 वर्षों बाद रामलला  भव्य ,दिव्य , नव्य मंदिर में विराजमान हुए हैं ऐसे में हर व्यक्ति जो राम में आस्था रखता है और राम उसके प्रेरणा के प्रतीक हैं उसे अपने जीवन में रामराज की परिकल्पना और मर्यादा पुरुषोत्तम राम के जीवनआदर्शों का पालन करना चहिए । रामराज की स्थापना से आशय किसी धर्म ,जाति या फिर विशेष समुदाय के राज करने से नहीं है बल्कि इसका आशय सबको एक सूत्र में पिरोकर ऐसे राज की स्थापना करना है जहां हर और प्रेम, शांति, सुख ,भाईचारा स्थापित हो। श्री राम को भगवान के रूप में पूजते हुए यदि हम उनके आदर्शों को जीवन में उतार लें तो सही मायने में यही राम की भक्ति और पूजा होगी।  राम जहां संबंध मूल्य , समरसता,और आदर्श के पर्याय थे वही वह वचन निभाने धर्म पालन करने से लेकर शत्रु से भी सीखने का भाव रखने वाले, जात-पात से ऊपर उठकर समाज को सीख देने वाले उत्तम पुरुष थे।

    बच्चों को राम के जीवन से राम के आदर्शों से प्रेरणा दें जिससे वो भारतीय होने पर गर्व कर सकें और विश्व बंधुत्व का भाव रखकर अपने जीवन में रामत्व के मानवीय गुणों को धारण करे। रामत्व की प्राणप्रतिष्ठा अपने मन रूपी  मंदिर और जीवन में करें साथ ही राम के जीवन मूल्यों को स्वयं के जीवन में जीकर प्रमाणित करें, यही श्री राम की सच्ची पूजा और यही जीवन में रामत्व के भाव की प्रमाणिकता होगी ।

    भ्रमित होते आम मतदाता किस पर करे विश्वास

    सुरेश हिंदुस्तानी

    भारत में एक समय ऐसा भी था ज़ब राजनीति से आम जनमानस का विश्वास समाप्त होता जा रहा था। राजनीतिक दलों से जो अपेक्षा थी, सब जनता की इन अपेक्षाओं पर पानी फेरते दिखाई दे रहे थे। उस समय देश की यह अवधारणा बन गई थी कि अब भारत की राजनीति ऐसे ही चलती रहेगी। लेकिन 2014 के बाद देश ने एक नई राजनीति का साक्षात्कार किया। एक ऐसी राजनीति जिसमें सपने भी थे और एक उम्मीद भी थी। आज इस समय को दस वर्ष का समय व्यतीत हो गया है। सपने पूरे हुए या नहीं, यह तो परीक्षण का विषय है, लेकिन आज की राजनीति बदली हुई दिखाई देती है, यह अवश्य ही कहा जा सकता है। लेकिन आज भी जिस प्रकार से सत्ता प्राप्त करने की लालसा लेकर राजनीतिक दल राजनीति कर रहे हैं, वह प्रथम दृष्टया यही परिलक्षित कर रहे हैं कि राजनीतिक दलों के पास अपने कोई स्थायी सिद्धांत नहीं हैं। विपक्ष के दल वर्तमान केंद्र सरकार को घेरने के लिए कई प्रकार के राजनीतिक दांव पेच खेल रहे हैं, वहीं सत्ता धारी दल भाजपा भी किसी भी तरीके से पीछे नहीं कही जा सकती।

    इस प्रकार की राजनीति के चलते देश का आम जनमानस निश्चित रूप से भ्रम की अवस्था में है। सारे दल अन्य दलों से अपने आपको बेहतर बताने की राजनीति कर रहा है। इसके लिए कुछ राजनीतिक दल अपने हिसाब से तर्क भी दे रहे हैं। लेकिन एक बात स्पष्ट है कि इस बार विपक्षी दलों के राजनेता सधे हुए क़दमों से अपनी पारी को अंजाम दे रहे हैं। क्योंकि पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान जिस प्रकार से कांग्रेस नेता राहुल गांधी द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सार्वजनिक रूप से चोर कहने का दुस्साहस किया गया, उससे कांग्रेस की फ़जीहत हो गई थी, इतना ही नहीं राहुल गाँधी को माफ़ी भी मांगनी पड़ी। इस बार परिदृश्य बदला हुआ है। विपक्ष के नेता सरकार को लक्ष्य करके आलोचना कर रहे हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि इन आलोचनाओं में भी वह धार नहीं है कि वह अकेले दम पर सरकार बनाने का सामर्थ्य पैदा कर सकें।

    वर्तमान लोकसभा के प्रचार में विपक्षी दलों की ओर से जिस प्रकार की सक्रियता दिखाई जा रही है, उससे कमोवेश ऐसा ही लगता है कि विपक्ष ने इस चुनाव को आरपार की लड़ाई बना दिया है। यह सभी जानते हैं कि मुख्य विपक्ष की भूमिका निभाने वाली कांग्रेस पार्टी लम्बे समय तक सत्ता का सुख भोगा है, इसलिए यह कहा जाना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि कांग्रेस के नेताओं को सत्ता में बने रहने की आदत सी हो गई है। उनके बयानों में भी सत्ता प्राप्त करने की तड़प दिखाई देती है। यही तड़प चुनावी बयानों में पैनापन ला रही है।

    देश में अब दो चरणों के मतदान संपन्न हो चुके हैं, बचे हुए पांच चरणों के मतदान के लिए जोर आजमाईश की जा रही है। चुनावी रैलियों में राजनेताओं के बयानों की व्याख्या निकालने का क्रम भी चल रहा है। किसी बड़े मुद्दे पर समाचार चैनलों पर बहस भी होती है। इन बहस में सभी नेता अपने हिसाब से अर्थ निकाल कर बहस करते हैं। कोई किसी के कम नहीं दिखता, लेकिन इन बहस में लगभग विवाद जैसी स्थिति बनती दिखाई देती है। एक दूसरे से लड़ने की मुद्रा में आने वाले यह राजनेता शायद इस बात को भूल जाते हैं कि इसे जनता भी देख रही है और आज की जनता यह भी जानती है कि क्या अच्छा है और क्या बुरा। इसके बाद भी आम समाज का एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो इन चर्चाओं को सुनकर भ्रमित भी होते होंगे। राजनेताओं द्वारा दावे के साथ कही जाने वाली किस बात को जनता सही माने, आज यह सबसे बड़ी चिंता है। चैनलों पर जो बहस होती है, उसमें अपनी पार्टी के विचार को कम रखा जाता है, सामने वाले की बात को जोरदार तरीके से नकारने की ही राजनीति की जाती है। विपक्षी नेताओं को इन्हीं बहसों के दौरान एंकरों पर दबाव बनाते हुए भी देखा और सुना जा सकता है। यह बहस का सारा खेल जनता को गुमराह करने वाला होता है। इसमें पूरी तरह से आम जन के मुद्दों का अभाव ही रहता है। इस कारण यह आसानी से कहा जा सकता है कि आज की राजनीति केवल विरोध करने तक ही सीमित हो गई है, इसमें रचनात्मक विरोध समाप्त होता जा रहा है। रचनात्मक विरोध का आशय यही है कि सामने वाले के अच्छे कार्यों का समर्थन भी किया जाए। लेकिन आज की राजनीति में ऐसा होना असंभव सा ही लगता है। ऐसा पिछले दस वर्षों में कुछ ज्यादा ही होता जा रहा है। जहां तक चुनावी मुद्दों की बात है तो विपक्ष की ओर से कोई ख़ास मुद्दे नहीं उठाए जा रहे हैं। जिस महंगाई और बेरोजगारी को विपक्ष मुद्दा बनाकर राजनीति कर रहा है, वह कोई नया नहीं है। यह दोनों ही मुद्दे लगभग हर चुनाव में उठे हैं, और हो सकता है आगे भी उठते रहेंगे, क्योंकि बेरोजगारी का मुद्दा तभी तक होता है ज़ब तक व्यक्ति केवल नौकरी की तलाश में बैठा रहता है। सरकार सबको नौकरी दे भी नहीं सकती, फिर चाहे कोई भी सरकार क्यों न हो। हाँ इस चुनाव में पिछली बार की तरह हिंदुत्व का मुद्दा भी सामने आया है। हिंदुत्व राजनीति का विषय नहीं हो सकता, यह तो असली भारत की आत्मा है।

    यह बात सही है कि आज की राजनीति और दस वर्ष पहले की राजनीति में ज़मीन आसमान का अंतर है। भारतीय जनता पार्टी जिस प्रकार की राजनीति करती हुई दिखाई दे रही है, उसका अंदाज निराला है, वहीं कांग्रेस के नेताओं के बयानों से लगता है कि वे ही शासन करने के लिए आए हैं, जबकि उनको यह मालूम होना चाहिए कि वह विपक्षी की भूमिका में हैं। इसके अनुसार ही उनके कार्यक्रम होने चाहिए, लेकिन कभी कभी विपक्षी नेताओं का व्यवहार ऐसा होता है, जैसे वे सरकार से बड़े हैं। विपक्ष की इसे एक बड़ी कमजोरी माना जा सकता है, क्योंकि सामने वाली पार्टी ने सत्ता पर कब्ज़ा नहीं किया, बल्कि लोकतान्त्रिक तरीके से चुनकर आई है। विरोधी पक्ष को यह भी समझना चाहिए कि भारत में लोकतंत्र तभी तक जीवित है, ज़ब तक जनता की राय को महत्व दिया जाएगा। जनता के सही बात रखना चाहिए, ऐसी कोई बात नहीं आना चाहिए जिससे जनता भ्रमित हो। अन्यथा यह लोकतंत्र की भी हार होगी।

    अमेठी से चुनाव क्यों नहीं लड़ते राहुल गाँधी ?

                       प्रभुनाथ शुक्ल

    कांग्रेस अमेठी और रायबरेली को लेकर असमंजस में है। अपनी परम्परागत सीट पर अपना उम्मीदवार तय नहीं कर पाई है। अमेठी और रायबरेली को लेकर मंथन जारी है। कहा यह जा रहा है कि यहाँ पांचवें चरण में वोटिंग होगी इसलिए पर्याप्त समय है। लेकिन सम्भवत: सच यह है कि अभी राहुल गाँधी एवं प्रियंका खुद तय नहीं कर पाए हैं कि उन्हें चुनावी मैदान में उतरना है या नहीं। फिलहाल दिखावे के लिए यह फैसला पार्टी अध्यक्ष खड़गे पर छोड़ दिया गया है। कार्यकर्ता चाहते हैं कि राहुल गाँधी और प्रियंका रायबरेली और अमेठी से चुनाव लड़े। कार्यकर्ताओं की मांग जायज भी है, लेकिन पार्टी राहुल और प्रियंका को उम्मीदवार बनाने में डर क्यों रही है यह समझ से परे है। उन्हें क्या हार का भय भयभीत कर रहा या फिर वे चुनाव लड़ना नहीं चाहते हैं। ऐसा नहीं है तो उन्हें पार्टी का उम्मीदवार घोषित करना चाहिए

    कांग्रेस में संगठन या फिर गाँधी परिवार का फैसला सर्वमान्य है। मुझे तो ऐसा नहीं लगता क्योंकि अगर बात पार्टी स्तर पर होती तो अब तक फैसला हो गया होता। लेकिन मुझे लगता है इसमें राहुल और प्रियंका गांधी का निजी निर्णय है जिसकी वजह से पार्टी फैसला नहीं ले पा रहीं है। क्योंकि प्रियंका गांधी ने कई बार संकेत दिया है वह चुनाव नहीं लड़ना चाहती हैं। लेकिन वर्तमान समय में जो स्थिति है वह कांग्रेस पार्टी के लिए बेहद चुनौती पूर्ण है। लेकिन अमेठी और रायबरेली के लिए यह स्थित हम गाँधी परिवार के लिए कम से कम चुनौती पूर्ण नहीं मानते हैं। क्योंकि अभी तक वहां से सोनिया गाँधी संसद पहुँचती रहीं हैं। जहाँ तक मेरा मानना है राहुल और प्रियंका गांधी को निश्चित रूप से अमेठी और रायबरेली से चुनाव लड़ना चाहिए। कांग्रेस के लिए हार जीत के मायने से कहीं अधिक महत्वपूर्ण अमेठी और रायबरेली की जनता का सम्मान है। क्योंकि दोनों अहम सीट गांधी परिवार की परंपरागत विरासत रही है। यह अलग बात है कि अमेठी से भजपा की स्मृति ईरानी चुनाव जीतने में सफल रहीं हैं।

    कांग्रेस राजनीति के संक्रमण काल से  गुजर रही है लेकिन गांधी परिवार की अहमियत कांग्रेस और देश के लिए उतनी ही अहम है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने सियासी हमले के लिए सीधे तौर पर कांग्रेस को चुनते हैं। प्रधानमंत्री मोदी को अच्छी तरह मालूम है कि भाजपा का विकल्प कांग्रेस ही है। हम चाहते हुए भी कांग्रेस का अस्तित्व नहीं मिटा सकते हैं। उसी तरह राजनीति में यह भी सच है कि जब तक कांग्रेस है तब तक गांधी परिवार के अस्तित्व को मिटाया नहीं जा सकता है। क्योंकि गांधी परिवार ने देश, कांग्रेस और राजनीति के लिए जो योगदान दिया है देश की जनता में कहीं ना कहीं से उसके लिए सुरक्षित कोना महफूज है। सियासी आलोचनाओं की बात दीगर है। क्योंकि राजनीति एक ऐसा विषय है जिसमें विरोधी के लिए समालोचना का स्थान नहीं होता।

    दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है। उत्तर प्रदेश में अगर गांधी परिवार की उपस्थिति शून्य है तो यह राजनीति के विश्लेषण का विषय। लोकतंत्र में जय पराजय का खेल कोई मायने नहीं रखता है। क्योंकि यह फैसला जनता के हाथ में होता है। यह वही रायबरेली और अमेठी है जहां से श्रीमती इंदिरा गांधी को भी चुनाव हारना पड़ा। कांग्रेस विरोधी लहर में राज नारायण, जनता पार्टी से इंदिरा गाँधी के खिलाफ चुनाव जीत गए। राहुल गांधी के खिलाफ स्मृति ईरानी जीत गई। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि यह सीट कांग्रेस के हाथ से छीन गई। लोकतंत्र में हमेशा प्रयोग का विकल्प खुला रहता है। रायबरेली ने उन्हीं इंदिरा गांधी को फिर चुनकर दिल्ली भेजा। इसलिए हार जीत के डर से चुनाव न लड़ना गांधी परिवार की राजनीतिक कमजोरी होगी।

    उत्तर प्रदेश बड़ा हिंदी भाषी राज्य है। गांधी परिवार मूल रूप से उत्तर प्रदेश से आता है। उत्तर प्रदेश से ही उसकी राजनीतिक शून्यता बौद्धिक राजनीति का संकेत नहीं देती। गांधी परिवार के लिए रायबरेली और अमेठी अहम सीट रही है। यहां की जनता ने इंदिरा गांधी, सोनिया गांधी, राजीव गांधी और राहुल गाँधी के नेहरू जी को अनगिनत बार दिल्ली भेजा और प्रधानमंत्री का ताज़ पहनाया।अमेठी और रायबरेली गांधी परिवार की विरासत के रूप में जानी जाती है। यहां की जनता ने गांधी परिवार को बहुत सम्मान दिया है। रायबरेली में कांग्रेस 1952 से लेकर अब तक 17 बार जीत दर्ज कर चुकी है। लेकिन सोनिया गांधी की तरफ से सक्रिय राजनीति से अलविदा होने के बाद इस सीट पर गांधी परिवार को अपना राजनैतिक उत्तराधिकारी नहीं मिल पा रहा है। सियासी टिप्पणियों और आलोचना से बाहर निकलकर प्रियंका और राहुल गांधी को चुनावी मैदान में उतरना चाहिए।

    राहुल गांधी को अमेठी की जनता ने भरपूर स्नेह और सम्मान दिया है। 2004 में राहुल गांधी पहली बार अमेठी से चुनाव लड़े और तीन बार सांसद चुने गए।2019 में उन्होंने वायानाड और अमेठी दोनों से चुनाव लड़ा, लेकिन अमेठी में स्मृति ईरानी के सामने उन्हें पराजित होना पड़ा। हालांकि वायानाड की जनता ने उन्हें सांसद बनाकर दिल्ली भेजा। इस हालात में राहुल गांधी के सामने उत्तर और दक्षिण का पेंच फंसा  है। दक्षिण में बीजेपी के मुकाबले कांग्रेस अधिक मजबूत स्थित में है। जबकि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही है। ऐसी विषम स्थिति में राहुल गांधी वायनाड को वरियता देते हुए देखे जा सकते हैं। यह भी सच है जब मोदी लहर में अमेठी ने उन्हें नाकारा तो वायनाड ने गले लगाया।

    राहुल और प्रियंका गांधी को लगता है कि अगर भाई-बहन चुनावी जंग में अमेठी और रायबरेली से उतरते हैं तो पार्टी के प्रचार की कमान वे नहीं संभाल पाएंगे। जिसकी वजह से पार्टी को नुकसान हो सकता है। क्योंकि दोनों ही पार्टी के स्टार प्रचारक है। यह बात उनकी कुछ हद तक सही भी हो सकती है। लेकिन अमेठी और रायबरेली को लावारिश छोड़ना भी यहाँ की जनता का अपमान होगा और गांधी परिवार की यह सबसे बड़ी सियासी भूल होगी। विपक्ष राहुल और प्रियंका गांधी के चुनाव लड़ने को लेकर चाहे जो भी नैरेटिव गढ़े लेकिन जंग छोड़कर भागना उचित नहीं है। कार्यकर्ताओं की इच्छा का सम्मान करते हुए राहुल गाँधी और प्रियंका को अमेठी और रायबरेली से चुनाव लड़ना चाहिए।

    इलेक्ट्रिक तिपहिया वाहनों के लिए भारत बना सबसे बड़ा बाजार


    एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम में, अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) के नवीनतम ग्लोबल इलेक्ट्रिक वेहिकिल आउटलुक के अनुसार, भारत इलेक्ट्रिक थ्री-व्हीलर्स (3डब्ल्यू) के मामले में, चीन को पछाड़ते हुए, दुनिया का सबसे बड़ा बाजार बन गया है.
    रिपोर्ट में इलेक्ट्रिक वाहन अपनाने में भारत की उल्लेखनीय प्रगति पर प्रकाश डाला गया है, जिसमें सरकारी प्रोत्साहन और नीति समर्थन सहित विभिन्न कारकों को जिम्मेदार ठहराया गया है. विशेष रूप से, भारत में 2023 में इलेक्ट्रिक 3W की बिक्री में 65% की आश्चर्यजनक वृद्धि देखी गई, जिसमें 580,000 से अधिक 3W बेचे गए. इस वृद्धि को फास्टर एडॉप्शन एंड मैन्युफैक्चरिंग ऑफ इलेक्ट्रिक व्हीकल्स (FAME II) सब्सिडी योजना जैसी पहलों से बढ़ावा मिला, जिससे इलेक्ट्रिक 3W के स्वामित्व की लागत में काफी कमी आई.
    इसके अलावा, IEA रिपोर्ट भारत में इलेक्ट्रिक मोबिलिटी के व्यापक परिदृश्य पर भी प्रकाश डालती है. इलेक्ट्रिक दोपहिया वाहनों (2डब्ल्यू) में भी बढ़िया वृद्धि देखी गई. पिछले वर्ष की तुलना में साल 2023 में बिक्री में 40% की वृद्धि हुई. ओला इलेक्ट्रिक, टीवीएस मोटर और बजाज जैसी कंपनियों के उल्लेखनीय योगदान के साथ बाजार में घरेलू निर्माताओं का वर्चस्व है.
    इसके अलावा, रिपोर्ट देश भर में ईवी अपनाने में तेजी लाने में FAME II और नई शुरू की गई इलेक्ट्रिक मोबिलिटी प्रमोशन स्कीम (EMPS) जैसी सरकारी योजनाओं के महत्व पर जोर देती है. इन पहलों का उद्देश्य मौजूदा सब्सिडी और भविष्य के नीतिगत उपायों के बीच अंतर को पाटते हुए इलेक्ट्रिक 2W और 3W की खरीद को प्रोत्साहित करना है.
    क्लाइमेट ट्रेंड्स की निदेशक आरती खोसला ने वैश्विक इलेक्ट्रिक 3W बाजार का नेतृत्व करने में भारत की उपलब्धि की सराहना की, और शहरों के भीतर लास्ट माइल कनेक्टिविटी और छोटे सामानों की डिलीवरी में वाहनों के महत्व पर प्रकाश डाला. उन्होंने इलेक्ट्रिक और पारंपरिक वाहनों के बीच आसन्न मूल्य समानता पर भी ध्यान दिया.
    इंटरनेशनल काउंसिल ऑन क्लीन ट्रांसपोर्टेशन (आईसीसीटी) के भारत के प्रबंध निदेशक अमित भट्ट ने जलवायु परिवर्तन से प्रभावी ढंग से निपटने के लिए सभी प्रकार के वाहनों में व्यापक विद्युतीकरण की आवश्यकता पर बल दिया. इलेक्ट्रिक 2W और 3W बिक्री में गति को स्वीकार करते हुए, भट्ट ने अन्य वाहनों, विशेष रूप से ट्रकों को इलेक्ट्रिक पावर में बदलने के महत्व पर जोर दिया.
    इन विकासों के जवाब में, भारत सरकार ने ईवी अपनाने को बढ़ावा देने के लिए सक्रिय कदम उठाए हैं, जिसमें इलेक्ट्रिक ट्रकों पर केंद्रित ईवी टास्क फोर्स की स्थापना भी शामिल है. ICCT के नेतृत्व में इस सहयोगात्मक प्रयास का उद्देश्य टिकाऊ परिवहन समाधानों का समर्थन करने के लिए नीतियों और नियामक ढांचे को सुव्यवस्थित करना है.
    कुल मिलाकर, इलेक्ट्रिक 3डब्ल्यू बिक्री में वैश्विक नेता के रूप में भारत का उदय हरित गतिशीलता और सतत विकास के प्रति देश की प्रतिबद्धता को रेखांकित करता है, जिसका घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ईवी उद्योग के भविष्य पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है.

    गहराते जल-संकट से जीवन एवं कृषि खतरे में

    – ललित गर्ग –

    मानवीय गतिविधियों और क्रिया-कलापों के कारण दुनिया का तापमान बढ़ रहा है और इससे जलवायु में होता जा रहा परिवर्तन अब मानव जीवन के हर पहलू के साथ जलाशयों एवं नदियों के लिए खतरा बन चुका है। जलवायु परिवर्तन का खतरनाक प्रभाव गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र सहित प्रमुख जलाशयों और नदी घाटियों में कुल जल भंडारण पर खतरनाक स्तर पर महसूस किया जा रहा है, जिससे लोगों को गंभीर जल परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। केंद्रीय जल आयोग के नवीनतम आंकड़े भारत में बढ़ते इसी जल संकट की गंभीरता को ही दर्शाते हैं। आंकड़े देश भर के जलाशयों के स्तर में आई चिंताजनक गिरावट की तस्वीर उकेरते हैं। रिपोर्ट के अनुसार 25 अप्रैल 2024 तक देश में प्रमुख जलाशयों में उपलब्ध पानी में उनकी भंडारण क्षमता के अनुपात में तीस से पैंतीस प्रतिशत की गिरावट आई है। जो हाल के वर्षों की तुलना में बड़ी गिरावट है। जो सूखे जैसी स्थिति की ओर इशारा करती है। जिसके मूल में अल नीनो घटनाक्रम का प्रभाव एवं वर्षा की कमी को बताया जा रहा है। जल के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। मानव एवं जीव-जन्तुओं के अलावा जल कृषि के सभी रूपों और अधिकांश औद्योगिक उत्पादन प्रक्रियाओं के लिये भी बेहद आवश्यक है। परंतु आज भारत गंभीर जल-संकट के साए में खड़ा है। अनियोजित औद्योगीकरण, बढ़ता प्रदूषण, घटते रेगिस्तान एवं ग्लेशियर, नदियों के जलस्तर में गिरावट, वर्षा की कमी, पर्यावरण विनाश, प्रकृति के शोषण और इनके दुरुपयोग के प्रति असंवेदनशीलता भारत को एक बड़े जल संकट की ओर ले जा रही है।
    भारत भर में 150 प्रमुख जलाशयों में जल स्तर वर्तमान में 31 प्रतिशत है, दक्षिण भारत में सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र है, जिसके 42 जलाशय वर्तमान में केवल 17 प्रतिशत क्षमता पर हैं। यह भारत के विभिन्न क्षेत्रों में देखी गई सबसे कम जल क्षमता का प्रतीक है। स्थिति अन्य क्षेत्रों में भी चिंताजनक है, पश्चिम में 34 प्रतिशत और उत्तर में 32.5 प्रतिशत जलाशय क्षमता है। हालाँकि, पूर्वी और मध्य भारत की स्थिति बेहतर हैं, उनके पास अपने जलाशयों की सक्रिय क्षमता का क्रमशः 40.6 प्रतिशत और 40 प्रतिशत है, पिछले वर्ष वर्षा कम थी, विशेष रूप से दक्षिण भारत में, 2023 का मानसून असमान था क्योंकि यह अल नीनो वर्ष भी था – एक जलवायु पैटर्न जो आम तौर पर इस क्षेत्र में गर्म और शुष्क परिस्थितियों का कारण बनता है। इससे काफी चिंता पैदा हुई है. वर्तमान में, सिंचाई भी प्रभावित हो रही है, और देश भर में पीने के पानी की उपलब्धता और जलविद्युत उत्पादन पर प्रभाव के बारे में चिंताएं बढ़ रही हैं। भविष्य को देखते हुए, आने वाले महीनों में और अधिक गर्मी पड़ने की आशंका है, जो दर्शाता है कि आने वाले दिनों में बड़ा जल संकट उभरने वाला है।
    लंबे समय तक पर्याप्त बारिश न होने के कारण जल भंडारण में यह कमी आई है। जिसके चलते कई क्षेत्रों में सूखे जैसे और असुरक्षित हालात पैदा हो गये हैं। जिससे विभिन्न फसलों पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। इसका एक कारण यह भी है कि देश की आधी कृषि योग्य भूमि आज भी मानसूनी बारिश के निर्भर है। ऐसे में सामान्य मानसून की स्थिति पर कृषि का भविष्य पूरी तरह निर्भर करता है। वास्तव में लगातार बढ़ती गर्मी के कारण जल स्तर में तेजी से गिरावट आ रही है। इसके गंभीर परिणामों के चलते आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे राज्यों में पानी की कमी ने गंभीर रूप धारण कर लिया है। देश का आईटी हब बेंगलुरु गंभीर जल संकट से जूझ रहा है। जिसका असर न केवल कृषि गतिविधियों पर पड़ रहा है बल्कि रोजमर्रा की जिंदगी भी बुरी तरह प्रभावित हो रही है। ऐसे में किसी आसन्न संकट से निपटने के लिये जल संरक्षण के प्रयास घरों से लेकर तमाम कृषि पद्धतियों और औद्योगिक कार्यों तक में तेज करने की जरूरत है। जल भंडारण और वितरण दक्षता में सुधार के लिये पानी के बुनियादी ढांचे और प्रबंधन प्रणालियों में बड़े निवेश की तात्कालिक जरूरत भी है। इसके साथ ही जल संरक्षण की परंपरागत तकनीकों को भी बढ़ावा देने की जरूरत है। साथ ही आम लोगों को प्रकृति के इस बहुमूल्य संसाधन के विवेकपूर्ण उपयोग को बढ़ावा हेतु प्रेरित करने के लिए जनजागरण अभियान चलाने की जरूरत है।
    पानी के संरक्षण और समुचित उपलब्धता को सुनिश्चित कर हम पर्यावरण को भी बेहतर कर सकते हैं तथा जलवायु परिवर्तन की समस्या का भी समाधान निकाल सकते हैं। आप सोच सकते हैं कि एक मनुष्य अपने जीवन काल में कितने पानी का उपयोग करता है, किंतु क्या वह इतने पानी को बचाने का प्रयास करता है? जलवायु परिवर्तन के कारण 2000 से बाढ़ की घटनाओं में 134 प्रतिशत वृद्धि हुई है और सूखे की अवधि में 29 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। पानी धरती पर जीवन के अस्तित्व के लिए आधारभूत आवश्यकता है। आबादी में वृद्धि के साथ पानी की खपत बेतहाशा बढ़ी है, लेकिन पृथ्वी पर साफ पानी की मात्रा कम हो रही है। जलवायु परिवर्तन और धरती के बढ़ते तापमान ने इस समस्या को गंभीर संकट बना दिया है। दुनिया के कई हिस्सों की तरह भारत भी जल संकट का सामना कर रहा है। वैश्विक जनसंख्या का 18 प्रतिशत हिस्सा भारत मंे ंनिवास करता है, लेकिन चार प्रतिशत जल संसाधन ही हमें उपलब्ध है। भारत में जल-संकट की समस्या से निपटने के लिये प्राचीन समय से जो प्रयत्न किये गये है, उन्हीं प्रयत्नों को व्यापक स्तर पर अपनाने एवं जल-संरक्षण क्रांति को घटित करने की अपेक्षा है।
    सदियों से निर्मल जल का स्त्रोत बनी रहीं नदियाँ प्रदूषित हो रही हैं, अब उन पर जलवायु परिवर्तन का घातक प्रभाव पड़ने लगा है। जल संचयन तंत्र बिगड़ रहा है, और भू-जल स्तर लगातार घट रहा है। धरती पर सुरक्षित और पीने के पानी के बहुत कम प्रतिशत के आंकलन के द्वारा जल संरक्षण या जल बचाओ अभियान हम सभी के लिये बहुत जरूरी हो चुका है। जल को बचाने में अधिक कार्यक्षमता लाने के लिये सभी औद्योगिक बिल्डिंगें, अपार्टमेंट्स, स्कूल, अस्पतालों आदि में बिल्डरों के द्वारा उचित जल प्रबंधन व्यवस्था को बढ़ावा देना चाहिये। देश के सात राज्यों के 8220 ग्राम पंचायतों में भूजल प्रबंधनों के लिए अटल भूजल योजना चल रही है। स्थानीय समुदायों के नेतृत्व में चलने वाला यह दुनिया का सबसे बड़ा कार्यक्रम है। साथ ही, नल से जल, नदियों की सफाई, अतिक्रमण हटाने जैसे प्रयास प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में हो रहे हैं। हमारे यहां जल बचाने के मुख्य साधन हैं नदी, ताल एवं कूप। इन्हें अपनाओं, इनकी रक्षा करो, इन्हें अभय दो, इन्हें मरुस्थल के हवाले न करो। गाँव के स्तर पर लोगों के द्वारा बरसात के पानी को इकट्ठा करने की शुरुआत करनी चाहिये। उचित रख-रखाव के साथ छोटे या बड़े तालाबों को बनाकर या उनका जीर्णोद्धार करके बरसात के पानी को बचाया जा सकता है। धरती के क्षेत्रफल का लगभग 70 प्रतिशत भाग जल से भरा हुआ है। परंतु, पीने योग्य जल मात्र तीन प्रतिशत है। इसमें से भी मात्र एक प्रतिशत मीठे जल का ही वास्तव में हम उपयोग कर पाते हैं।
    पानी का इस्तेमाल करते हुए हम पानी की बचत के बारे में जरा भी नहीं सोचते, जिसके परिणामस्वरूप अधिकांश जगहों पर जल संकट की स्थिति पैदा हो चुकी है। जल का संकट एवं विकट स्थितियां अति प्राचीन समय से बनी हुई है। इसी कारण राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश आदि प्रांतों में जल संरक्षण के लिये नाड़ी, तालाब, जोहड़, बन्धा, सागर, समंद एवं सरोवर आदि बनाने की प्राचीन परम्परा रही है। जहाँ प्रकृति एवं संस्कृति परस्पर एक दूसरे से समायोजित रही हैं। राजस्थान के किले तो वैसे ही प्रसिद्ध हैं पर इनका जल प्रबन्धन विशेष रूप से देखने योग्य है और अनुकरणीय भी हैं। जल संचयन की परम्परा वहाँ के सामाजिक ढाँचे से जुड़ी हुई हैं तथा जल के प्रति धार्मिक दृष्टिकोण के कारण ही प्राकृतिक जलस्रोतों को पूजा जाता है। 

    धृतराष्ट्र उवाच से भगवतगीता की शुरुआत क्यो?

            सनातन धर्म और संस्कृति में श्रीमदभगवत गीता का अत्यन्त विशिष्ट महत्त्व है, कारण गीता एक मात्र साक्ष्य है जो महाभारत के युद्ध में श्रीकृष्ण के मुखारबिन्द से मोहग्रसित हुये अर्जुन के सभी संदेहों से मुक्त करने हेतु उदभूत हुई है। श्रीमदभगवतगीता का महत्व इसलिए सबसे ज्यादा है क्योकि गीता का पहला ही शब्द है धृष्टराष्ट्र उवाच अर्थात हस्तिनापुर साम्राज्य के कर्णधार चक्रव्रती सम्राट राजा धृष्टराष्ट्र जो जन्म से नेत्रहीन है साथ ही अपने आध्यात्मिक ज्ञान विवेक के प्रज्ञाचक्षु को अपनी ममता के वशीभूत कर कुरुवंश का ही हित साधने में पांडवों के साथ अन्याय, अधर्म, अनीति ओर छल प्रपंच पर मुक बने देखते रहे ओर भगवान श्रीकृष्ण के समझाने ओर हड़पे गए पांडवो के राज्य के स्थान पर पाँच गाँव दिये जाने के शांति प्रस्ताव के अंतिम प्रयास को भी ठूकुराने के बाद के निर्मित परिणाम महायुद्ध को स्वीकारने के पश्चात धर्मक्षैत्र  कुरुक्षेत्र मै युद्धके लिये कौरवों और पाण्डवोंकी सेनाएँ भयानक अस्त्र-शास्त्रों से सुसज्जित होकर खड़ी थीं, तब बोले इसके पहले वे बोले ही नही। युद्धभूमि का सारा वृतांत वह अपने महल में बैठकर दिव्यचक्षु प्राप्त संजय की आँखों से देखा सुन रहे थे। अभी युद्ध शुरू नहीं हुआ है लेकिन युद्ध करने दोनों सेनाए मैदान पर खड़ी है तभी राजा धृष्टराष्ट्र प्रश्न करता है, हे संजय- धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः । मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ।।’ जब भी में गीता पाठ करता हूँ तब शुरुआत का यह प्रश्न मेरे मस्तिष्क को झकझोरता है, क्या कारण है की महर्षि वेदव्यास जी ने महाभारत में समाहित श्रीमद भागवत गीता के ज्ञानामृत के प्रथम अध्याय के प्रथम श्लोक में हस्तिनापुर के अंधे राजा के अंधे प्रश्न से ही इसकी शुरुआत की है, इसका क्या कारण हो सकता है, बस में इसका उत्तर तलाशने जुट जाता हूँ।   

          मानव इतिहास की सबसे महान दार्शनिक तथा धार्मिक वार्ता का शुभारंभ महाभारत जैसे भीषण महायुद्ध से पूर्व घटित हुई जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अपने परम सखा ,भक्त अर्जुन को भगवतगीता का उपदेश दे रहे है जिसका पहला ही शब्द धृष्टराष्ट्र बोला यानि धृष्टराष्ट्र ने प्रश्न किया? हे संजय- धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः । मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ।।’  इस प्रश्न के सम्बन्ध में प्रश्न उपस्थित होता है कि “जब धृतराष्ट्र की अन्तःप्रेरणा से ही कोरव युद्ध में प्रवृत्त हुए थे. ओर जानते थे कि कुरुक्षेत्र में जाकर वे युद्ध करेंगे तो फिर जानते हुए भी धृतराष्ट्र ने- “किमकुर्वत? ये प्रश्न क्यों किया ?”  यही प्रश्न गीता पाठ करने वाले प्रत्येक सुधिजन का हो सकता है। सामान्य दृष्टि से विचार किया जा सकता है कि “किमकुर्वत” का अभिप्राय युक्तिसंगत प्रतीत होता है कि “धृतराष्ट्र ने सञ्जय से पूछा कि मोर्चाबन्दी होने के बाद युद्ध कैसे शुरू हुआ , किसकी ओर से प्रहार आरम्भ हुआ, जिसमें कितनी उत्तेजना थी, किस बीर में कितना उत्साह था ? कौरव सेनापति भीष्म का कैसा रुख था”? राजनीतिज्ञ घृतराष्ट इन परिस्थितियों को जानने के बाद जय पराजय का अनुमान लगाने को उत्सुक था। यदि अन्तदृष्टि से विचार किया जाता है तो उक्त प्रश्न के सम्बन्ध में हम निर्णय पर पहुंचते हैं कि “किमकुर्वत” ये अक्षर क्षोम के सूचक हैं। यही क्षोभ कौरवों के पराजय का घोतक है।

           धृतराष्ट्र जानता था कि यह राज सिंहासन उसके चचेरे भाई पांडु का है जिसकी अल्पायु में मृत्यु हो जाने पर उस राज को उसके पांचों पुत्रो के वयस्क हो जाने पर उन्हें यह सिंहासन उन्हें लौटना है किन्तु वह अपने पुत्र दुर्योधन के साथ मिलकर उनकी हत्या करने के षड्यंत्र में शामिल रहा ताकि राज्य के उत्तराधिकारी कि मौत के बाद वह राज कर सके। राष्ट्र के कर्णधार धृतराष्ट्र की परिस्थिति कुछ और ही थी। वे जानते थे कि मेरे पुत्र धर्म-दृष्टि से युद्ध में प्रवृत्त नहीं हो रहे, जबकि पांडव पुत्र भगवान श्रीकृष्ण कि छत्रछाया में धर्म में ही प्रवृत्त है। जो धर्म के साथ है तथा धार्मिक है उसके हृदय में कभी “क्या हुआ, क्या किया,  क्या होगा” ऐसे संदिग्ध भावों को आश्रय नहीं मिलता। उसका तो एक- मात्र – “यदि जीत गए तो न्याय प्राप्त सत्ता  का उपभोग करेंगे, मारे गए तो अभ्युदय के अधिकारी बनेंगे” यही लक्ष्य रहता है। धृतराष्ट्र यह भी जानते थे कि कुरुक्षेत्र एक धर्मभूमि है, पवित्र भूमि है, देवभूमि है। इस भूमि में धार्मिक योद्धाओं को ही विजयश्री मिल सकती है।

           बस इन्हीं सब कारणों से धृतराष्ट्र का हृदय भावी परिणाम से क्षुब्ध था। क्षुब्ध मनुष्य के मुख से ही “अरे बतलाओ क्या किया, क्या होगा, कौन जीतेगा” ऐसे अक्षर निकला करते हैं। साथ ही में यह भी निश्चित बात है कि जिसके हृदय में आरंभ से ही ऐसा क्षोभ खड़ा हो जाता है, यह कभी विजयधी लाभ नहीं कर सकता। उसकी पराजय अवश्यम्भावी है। इसी पराजय को सूचित करने के लिए महर्षि वेदव्यास ने घृतराष्ट्र के मुख से “किमकुर्वतः ये अक्षर कहलवाए हैं। यह युद्धभूमि धर्म क्षैत्र है, यहाँ धर्मात्मा की विजय होगी। पापात्मा कौरवों का क्षय होगा। यही सूचित करने के लिए “कुरुक्षेत्रे” के साथ “धर्मक्षेत्रे” का सम्बन्ध किया जाना प्रतीत होता है।  “युद्ध का क्या परिणाम होगा” यह  जिज्ञासा उस व्यक्ति के हृदय में विशेष रूप रूप से जागृत रहती है, जो स्वयं तटस्थ रहता हुआ  भी युद्ध का बीजारोपण करता है। कौरववंश के सर्वेसर्वा इतिहासप्रसिद्ध वृद्ध घृतराष्ट्र उन्हीं व्यक्तियों में से एक थे। महाभारत समर के अन्तः प्रवर्तक यही थे तो युद्ध के फलाफल की जिज्ञासा ओरों की अपेक्षा इन्हीं में अधिक होनी चाहिए थी। यही बात सूचित करने के लिए इतिहासप्रसिद्ध युद्ध की आरम्भ की भूमिका में व्यासदेव को धृतराष्ट्र उवाच” यह कहना पड़ा है। कुरु- राष्ट्र का सारा भार इन्हीं पर था। राष्ट्र के हानि-लाभ के जिम्मेदार यही थे। भला राष्ट्र को धारण करने वाले धृतराष्ट्र के अतिरिक्त ओर किसे युद्ध के भावी परिणाम की विशेष चिंता हो सकती थी? इसी चिन्ता से क्षुब्ध बने हुए धृतराष्ट्र व्यासदेव की कृपा से दिव्यदृष्टि प्राप्त, युद्ध-वर्णन के लिए व्यासदेव की ओर से नियत सञ्जय से पूछने लगे कि बतलाओ सञ्जय युद्ध की इक्छा  से समवेत मेरे और पाण्डु पुत्रों ने क्या किया ?

             धृतराष्ट्र बुद्धिमान थे. विद्वान थे, वृद्ध थे सबके पूज्य थे। फिर उनमें यह अविद्या आई कैसे? उन्होंने सब कुछ जानते हुए, देखते हुए भी कौरवों को इस अधर्म युद्ध के लिए अनुमति कैसे दे दी ? इसी प्रश्न का समाधान करने के लिए ब्यास जी  को “मामकाः-पाण्डुपुत्राश्च” यह कहना पड़ा। कलह का मूलमूत्र “यह मेरा, यह तेरा यही वाक्य है। ममत्व ही वैभव के नाश का कारण है। हम सांसारिक विषयों के साथ, पुत्र पौत्रदि के साथ जितनी ममता बढ़ाते जायेंगे, उतने ही अधिक मोहपाश में फंसते जायेंगे। घृतराष्ट्र की बुद्धि का व्यामोह इसी ममता ने किया। उसे अपने पुत्रों के प्रति प्रेम राग  उत्पन हुआ, इस राग की कृपा से पाण्डुपुत्रों के प्रति द्वेष उत्पन्न हुआ। इसी रागद्वेषजनित आसक्ति ने युद्ध का बीजारोपण किया। यदि यह समझते कि पाण्डव भी मेरे ही हैं, एक ही सूत्र के दो धागे हैं, तो कभी युद्ध का प्रवसर न आता। यदि यह समझते कि न्यायतः दोनों ही कुरुसाम्राज्य के भोक्ता हैं तो कभी कलह का उदय न होता, परन्तु जब इनके हृदय में- “ये मेरे हैं, ये पराए हैं” यह प्रतिद्वन्द्वीभाव उत्पन्न हुआ तो ऐसी परिस्थिति में द्वन्द्व (युद्ध) होना अनिवार्य था। यही ममता, युद्धानुमति प्रदान कारण बनी। साथ ही में इसी ममता ने घृतराष्ट्र के हृदय में “किमकुर्वत” इत्यादिलक्षण क्षोभ उत्पन्न किया। यही क्षोभ कौरवों के पराजय का कारण बना ।

    आत्माराम यादव पीव

    भारत में धार्मिक पर्यटन छू रहा नित नई ऊचाईयां

    हाल ही के समय में भारत के नागरिकों में “स्व” का भाव विकसित होने के चलते देश में धार्मिक पर्यटन बहुत तेज गति से बढ़ा है। अयोध्या धाम में प्रभु श्रीराम के भव्य मंदिर में श्रीराम लला के विग्रहों की प्राण प्रतिष्ठा के पश्चात प्रत्येक दिन औसतन 2 लाख से अधिक श्रद्धालु अयोध्या पहुंच रहे हैं। यह तो केवल अयोध्या की कहानी है इसके साथ ही तिरुपति बालाजी, काशी विश्वनाथ मंदिर, उज्जैन में महाकाल लोक, जम्मू स्थित वैष्णो देवी मंदिर, उत्तराखंड में केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री एवं यमनोत्री जैसे कई मंदिरों में श्रद्धालुओं की अपार भीड़ उमड़ रही है। भारत में धार्मिक पर्यटन में आई जबरदस्त तेजी के बदौलत रोजगार के लाखों नए अवसर निर्मित हो रहे हैं, जो देश के आर्थिक विकास को गति देने में सहायक हो रहे हैं।

    जेफरीज नामक एक बड़ी अंतरराष्ट्रीय ब्रोकरेज कम्पनी ने बताया है कि अयोध्या में निर्मित प्रभु श्रीराम के मंदिर से भारत की आर्थिक सम्पन्नता बढ़ने जा रही है। दिनांक 22 जनवरी 2024 को अयोध्या में सम्पन्न हुए प्रभु श्रीराम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा समारोह के बाद स्थानीय कारोबारी अपना उज्जवल भविष्य देख रहे हैं। अयोध्या धार्मिक पर्यटन का हब बनाने जा रहा है तथा अब अयोध्या दुनिया का सबसे बड़ा तीर्थ क्षेत्र बन जाएगा। धार्मिक पर्यटन की दृष्टि से अयोध्या दुनिया का सबसे बड़ा केंद्र बनने जा रहा है। जेफरीज के अनुसार अयोध्या में प्रति वर्ष 5 करोड़ से अधिक पर्यटक आ सकते हैं। अभी अयोध्या में केवल 17 बड़े होटल हैं इनमें कुल मिलाकर 590 कमरे उपलब्ध हैं। लेकिन, अब 73 नए होटलों का निर्माण किया जा रहा है।  इनमें से 40 होटलों का निर्माण कार्य प्रारम्भ भी हो चुका है। अभी तक नए एयरपोर्ट, रेल्वे स्टेशन, टाउनशिप और रोड कनेक्टिविटी में सुधार जैसे कामों पर 85,000 करोड़ रुपए का निवेश किया गया है। इस निवेश का स्थानीय अर्थव्यवस्था पर बड़ा असर दिखाई देने जा रहा है। शीघ्र ही अयोध्या वैश्विक स्तर पर धार्मिक और आध्यात्मिक पर्यटन केंद्र के रूप में उभरेगा। इससे होटल, एयरलाईन, हॉस्पिटलिटी, ट्रैवल, सिमेंट जैसे क्षेत्रों को बहुत बड़ा फायदा होने जा रहा है। भारत के विभिन्न शहरों से 1000 के आसपास नई रेल अयोध्या के लिए चलाए जाने के प्रयास किए जा रहे हैं। पूरे देश से दिनांक 23 जनवरी 2024 के बाद से प्रतिदिन भारी संख्या में धार्मिक पर्यटक अयोध्या पहुंच रहे हैं। यह हर्ष का विषय है कि पहिले दिन ही 5 लाख से अधिक श्रद्धालुओं ने प्रभु श्रीराम के दर्शन किये हैं।

    विश्व के कई अन्य देश भी धार्मिक पर्यटन के माध्यम से अपनी अर्थव्यवस्थाएं सफलतापूर्वक मजबूत कर रहे हैं। सऊदी अरब धार्मिक पर्यटन से प्रति वर्ष 22,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर अर्जित करता है। सऊदी अरब इस आय को आगे आने वाले समय में 35,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर तक ले जाना चाहता है। मक्का में प्रतिवर्ष 2 करोड़ लोग पहुंचते हैं, जबकि मक्का में गैर मुस्लिम के पहुंचने पर पाबंदी है। इसी प्रकार, वेटिकन सिटी में प्रतिवर्ष 90 लाख लोग पहुंचते हैं। इस धार्मिक पर्यटन से अकेले वेटेकन सिटी को प्रतिवर्ष लगभग 32 करोड़ अमेरिकी डॉलर की आय होती है, और अकेले मक्का शहर को 12,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर की आमदनी होती है। अयोध्या में तो किसी भी धर्म, मत, पंथ मानने वाले नागरिकों पर किसी भी प्रकार की पाबंदी नहीं होगी। अतः अयोध्या पहुंचने वाले श्रद्धालुओं की संख्या 5 से 10 करोड़ तक प्रतिवर्ष जा सकती है। फिर अकेले अयोध्या नगर को होने वाली आय का अनुमान तो सहज रूप से लगाया जा सकता है। अभी अयोध्या आने वाले श्रद्धालु अयोध्या में रूकते नहीं थे प्रात: अयोध्या पहुंचकर प्रभु श्रीराम के दर्शन कर शाम तक वापिस चले जाते थे परंतु अब अयोध्या को इतना आकर्षक रूप से विकसित किया गया है कि श्रद्धालु 3 से 4 दिन रुकने का प्रयास करेंगे। एक अनुमान के अनुसार, प्रत्येक पर्यटक लगभग 6 लोगों को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से रोजगार उपलब्ध कराता है। इस संख्या के हिसाब से तो लाखों नए रोजगार के अवसर अयोध्या में उत्पन्न होने जा रहे हैं। अयोध्या के आसपास विकास का एक नया दौर शुरू होने जा रहा है। यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगा कि अब अयोध्या के रूप में वेटिकन एवं मक्का का जवाब भारत में खड़ा होने जा रहा है।

    धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से भारत सरकार ने भी धरातल पर बहुत कार्य सम्पन्न किया है। साथ ही, अब इसके अंतर्गत एक रामायण सर्किट रूट को भी विकसित किया जा रहा है। इस रूट पर विशेष रेलगाड़ियां भी चलाए जाने की योजना बनाई गई है। यह विशेष रेलगाड़ी 18 दिनों में 8000 किलो मीटर की यात्रा सम्पन्न करेगी, इस विशेष रेलगाड़ी के इस रेलमार्ग पर 18 स्टॉप होंगे। यह विशेष रेलमार्ग प्रभु श्रीराम से जुड़े ऐतिहासिक नगरों अयोध्या, चित्रकूट एवं छतीसगढ़ को जोड़ेगा। अयोध्या में नवनिर्मित प्रभु श्रीराम मंदिर वैश्विक पटल पर इस रूट को भी  रखेगा।

    केंद्र सरकार द्वारा भारत में पर्यटन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से लगातार किए जा रहे प्रयासों का परिणाम भी अब दिखाई देने लगा है। “मेक माई ट्रिप इंडिया ट्रैवल ट्रेंड्स रिपोर्ट” के अनुसार, भारत के नागरिक अब पहले के मुकाबले अधिक यात्रा कर रहे हैं। भारत के नागरिकों द्वारा विशेष रूप से अयोध्या, उज्जैन एवं बदरीनाथ जैसे आध्यात्मिक स्थलों के बारे में अधिक जानकारी हासिल की जा रही है। उक्त जानकारी  “मेक माई ट्रिप” के प्लेटफार्म के 10 करोड़ से अधिक सक्रिय उपयोगकर्ताओं से प्राप्त जानकारी के आधार पर सामने आई है। वर्ष 2019 के बाद से भारत में एक वर्ष में तीन से अधिक यात्राएं करने वाले लोगों की संख्या में 25 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई है। उक्त रिपोर्ट के अनुसार, आध्यात्मिक पर्यटन सम्बंधी जानकारी हासिल करने की गतिविधियों में वर्ष 2021 की तुलना में वर्ष 2023 में 97 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है। विशेष रूप से अयोध्या के सम्बंध में जानकारी हासिल करने सम्बंधी गतिविधियों में वर्ष 2022 की तुलना में वर्ष 2023 में 585 प्रतिशत की भारी वृद्धि दर्ज हुई है। इसी प्रकार, उज्जैन एवं बदरीनाथ जैसे धार्मिक स्थलों के सम्बंध में भी जानकारी हासिल करने वाले नागरिकों की संख्या में क्रमशः 359 प्रतिशत और 343 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है। भारत में अब पारिवारिक यात्रा की बुकिंग भी बहुत तेज गति से बढ़ रही है। इसमें वर्ष 2022 के तुलना में वर्ष 2023 में 64 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई है। जबकि इसी अवधि में एकल यात्रा की बुकिंग में केवल 23 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है।

    उक्त जानकारी को भारत के नागरिक विमानन मंत्रालय द्वारा जारी एक जानकारी से भी बल मिलता है कि भारत में घरेलू हवाई यातायात अब एक नए मुकाम पर पहुंच गया है। दिनांक 21 अप्रेल 2024 (रविवार) को रिकार्ड 471,751 यात्रियों ने 6,128 उड़ानों के माध्यम से, भारत में हवाई सफर किया है। इसके पूर्व हवाई यातायात करने वाले नागरिकों की औसत संख्या, कोरोना महामारी के पूर्व के खंडकाल में, 398,579 यात्रियों की थी। इसमें 14 प्रतिशत  वृद्धि दर्ज की गई है।

    देश में धार्मिक पर्यटन में हो रही भारी वृद्धि के चलते भारत के सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर में भी तेजी दिखाई देने लगी है। वित्तीय वर्ष 2023-24 की तृतीय तिमाही के दौरान सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर ने भारत सहित विश्व के समस्त आर्थिक विश्लेशकों को चौंका दिया है। इस दौरान, भारत में सकल घरेलू उत्पाद में 8.4 प्रतिशत की वृद्धि हासिल हुई है जबकि प्रथम तिमाही के दौरान वृद्धि दर 7.8 प्रतिशत एवं द्वितीय तिमाही के दौरान 7.6 प्रतिशत की रही थी। पिछले वर्ष इसी अवधि के दौरान वृद्धि दर 4.4 प्रतिशत रही थी। जबकि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष एवं विश्व बैंक ने वित्तीय वर्ष 2023-24 में भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 6.3 प्रतिशत की वृद्धि दर का अनुमान लगाया था। इसी प्रकार, क्रेडिट रेटिंग एजेंसी इकरा ने 6.5 प्रतिशत, एशिया विकास बैंक एवं बार्कलेस एवं प्राइस वॉटर कूपर्स ने 6.7 प्रतिशत, डेलाईट इंडिया ने 7 प्रतिशत की वृद्धि दर का अनुमान लगाया था। परंतु, समस्त विदेशी संस्थानों के अनुमानों के झुठलाते हुए भारत की आर्थिक विकास दर लगभग 8 प्रतिशत की रही है। यह सब देश में लगातार बढ़ते धार्मिक पर्यटन एवं विभिन त्यौहारों तथा शादी जैसे समारोहों पर भारतीय नागरिकों द्वारा दिल खोलकर पैसा खर्च करने के चलते सम्भव हो पा रहा है। इससे त्यौहारों एवं शादी के मौसम में व्यापार के विभिन्न क्षेत्रों में अतुलनीय वृद्धि दृष्टिगोचर होती है। जैसे दीपावली त्यौहार के समय भारत में नागरिकों के बीच विभिन्न नए उत्पादों की खरीद के लिए जैसे आपस में होड़ सी लग जाती है। भारत में लाखों करोड़ रुपए का व्यापार दीपावली त्यौहार के समय में होता है। इसी प्रकार की स्थिति शादियों के मौसम में भी पाई जाती है। संभवत: विदेशी वित्तीय संस्थान भारत में हो रहे इस तरह के उक्त वर्णित परिवर्तनों को समझ नहीं पा रहे हैं एवं केवल पारंपरिक विधि से ही सकल घरेलू उत्पाद को आंकने का प्रयास कर रहे हैं। इसलिए भारत की विकास दर के संबंच में विभिन्न विदेशी संस्थानों के अनुमान गलत साबित हो रहे हैं।    

    प्रहलाद सबनानी

    विरासत टैक्स एवं निजी सम्पत्ति सर्वे पर संकट में घिरी कांग्रेस

    – ललित गर्ग –

    लोकसभा चुनाव में कांग्रेस जनता के बीच जिस तरह के मुद्दों को लेकर चर्चा में हैं, उनमें देश विकास से अधिक मुक्त की रेवड़िया बांटने या अतिश्योक्तिपूर्ण सुविधा देने की बातें हैं तो ‘विरासत टैक्स’ के नाम पर जनता की गाड़ी कमाई को हड़पने के सुझाव है। ऐसी विरोधीभासी सोच एवं योजनाएं कांग्रेस की अपरिपक्व एवं स्वार्थप्रेरित राजनीति को ही उजागर करती है। इंडिया ओवरसीज कांग्रेस के अध्यक्ष एवं राहुल गांधी के विश्वस्त सलाहकार सैम पित्रोदा ने चुनावी समर में अपने ताजा बयान में विरासत टैक्स की वकालत की है। उन्होंने अमेरिका में लागू इस टैक्स की पैरवी करते हुए भारत के लिये उपयोगी बताया। सैम ने अपने बयान पर विवाद बढ़ता देख सफाई दी है, तो कांग्रेस ने इस बयान से खुद को अलग कर लिया है। लेकिन राजनीति की इन कुचालों एवं ऐसे बयानों में कांग्रेस का इरादा जनता की मेहनत की कमाई की संगठित लूट और वैध लूट ही नजर आता है। सैम पित्रोदा के बयान में कांग्रेस की सोच एवं संकल्प ही नहीं दिखा बल्कि कांग्रेस की भावी योजनाओं की परतें भी खुली है। भले ही इस बयान ने कांग्रेस के लिए मुश्किलें बढ़ा दी हो, लेकिन जनता को मूर्ख समझ हर बार हंगामा खड़ा करना कांग्रेस की नीति एवं नियत रही है। सैम ऐसे ही विवादास्पद बयानों से पूर्व में भी चर्चा में रहे हैं।
    अमेरिका में विरासत टैक्स जैसी अनेक स्थितियां एवं कानून हैं जो भारत में नहीं है क्योंकि हर देश की अपनी स्थितियां होती है। सैम के इस बयान ने इसलिए तूल पकड़ लिया, क्योंकि कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में लोगों की संपत्ति के सर्वे का वादा किया है। इसकी व्याख्या भाजपा पहले से ही इस रूप में कर रही है कि कांग्रेस लोगों की संपत्ति का आकलन करके संपन्न-सक्षम लोगों की संपदा का एक हिस्सा लेने का इरादा रखती है। चूंकि सैम पित्रोदा का कथन कुछ इसी ओर संकेत करता दिख रहा था, इसलिए भाजपा ने नए सिरे से उनके बयान को मुद्दा बना दिया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तो कहा जब तक आप जीवित रहेंगे, तब तक कांग्रेस आपको ज्यादा टैक्स से मारेगी और जब जीवित नहीं रहेंगे, तब आप पर विरासत का बोझ लाद देगी।’ कांग्रेस की लूट जिन्दगी के साथ भी और जिन्दगी के बाद भी कह कर मोदी ने कांग्रेस को निशाने पर लिया है। गृह मंत्री अमित शाह ने भी यह कह दिया कि यदि कांग्रेस वैसा कुछ करने का नहीं सोच रही है, जैसा सैम पित्रोदा कह रहे हैं तो वह अपने घोषणा पत्र से संपत्ति के सर्वेक्षण वाली बात हटाए।’ निश्चित ही कांग्रेस की संपत्ति के सर्वेक्षण की बात में गहरे अर्थ, संदेह एवं शंकाएं निहित हैं। राजननेताओं के बयानों पर राजनीति होना लोकतंत्र का एक हिस्सा है, लेकिन जनता के हितों पर आघात करना दुर्भाग्यपूर्ण है। लोकतन्त्र में सतत् रूप से अमीर-गरीब का विमर्श चलता रहता है, गरीबों के हित की बात करके अधिसंख्य मतदाताओं को लुभाना राजनीतिक चतुराई है, लेकिन जनता को बांटना एवं अलग-अलग खेमों में खड़ा करना, लोकतंत्र को कमजोर करता है। मगर भारत का मतदाता अब इतना सुविज्ञ एवं समझदार हैं कि वे राजनेताओं की मंशा को समझकर उस समय आगे बढ़कर नेतृत्व खुद संभाल लेते हैं जब नेतागण अपना पथ भूल जाते हैं। भारत के चुनावों का इतिहास इसका गवाह रहा है। इसलिए राजनैतिक विमर्श चाहे जितना गर्त में चला जाये मगर मतदाता की सूझबूझ, जागरूकता एवं विवेक कभी मंद नहीं पड़ती।
    भले ही सैम पित्रोदा अमेरिका का उदाहरण देकर उस पर भारत में बहस की जरूरत जता रहे थे, लेकिन उन्हें गलत समय ऐसा उदाहरण नहीं देना चाहिए था, जो तथ्यात्मक रूप से पूरी तरह भारत की परिस्थितियों के लिये सही न हो और जिसके विवाद का विषय बनने की भरी-पूरी संभावनाएं हो। यह तो कांग्रेस ही जाने कि वह संपत्ति के सर्वे के जरिये क्या हासिल करना चाहती है, लेकिन इससे इन्कार नहीं कि देश में आर्थिक असमानता कम करने की आवश्यकता है। इसके बाद भी इस आवश्यकता की पूर्ति न तो वामपंथी सोच वाले तौर-तरीकों से की जा सकती है और न ही उन उपायों से, जो समाज में विभाजन पैदा करें। जो भी निर्धन-वंचित हैं या सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछडे़ हैं, उनके उत्थान की अतिरिक्त चिंता की जानी चाहिए, लेकिन बिना उनका जाति, मजहब देखे, बिना विभाजन की राजनीति को किये।
    सैम पित्रोदा, राजनीति की दुनिया में यह नाम कोई नया नहीं है, कांग्रेस के शासन में तकनीकी एवं आधुनिक विकास के वे पुरोध रहे हैं। इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और मनमोहन सिंह के सलाहकार रह चुके पित्रोदा इस समय राहुल के खास लोगों में से एक हैं। पित्रोदा अपने काम से कम अपने बयानों के चलते ज्यादा चर्चे में रहते हैं। उनके बयान अक्सर कांग्रेस के लिए भी सरदर्द बनते रहे हैं। पित्रोदा के अनेक बयान पहले भी विवाद एवं कांग्रेस के सिरदर्द की वजह बन चुके हैं। साल 2019 में ही उन्होंने एक टीवी इंटरव्यू में कहा कि मिडिल क्लास को स्वार्थी नहीं होना चाहिए। उन्हें अधिक से अधिक टैक्स देने के लिए तैयार रहना चाहिए। मध्यमवर्गीय परिवार को रोजगार और अधिक अवसर मिलेंगे। इस बयान ने भी कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ाई थीं और पार्टी को डैमेज कंट्रोल करना पड़ा था। पित्रोदा यहीं नहीं रुके, उन्होंने 2019 के ही पुलवामा हमले पर कहा था कि ऐसे हमले तो होते रहते हैं, मुंबई में भी हमला हुआ था। निश्चित ही कांग्रेस के शासन में ऐसे हमले एवं साम्प्रदायिक दंगे होते ही रहते थे। उन्होंने बालाकोट एयरस्ट्राइक ऑपरेशन पर सबूत मांगे थे।
    सैम पित्रोदा के बयान एवं कांग्रेस के घोषणा पत्र के निजी सम्पत्ति सर्वे की बात में अवश्य ही रिश्ता है, जिसने पूरे देश के सामने कांग्रेस का मकसद स्पष्ट कर दिया है कि निजी संपत्ति का सर्वे कर निजी संपत्ति को सरकारी खजाने में डालकर वह इस धन को अपने वोट बैंक में बांटना चाहती है। ऐसी योजना यूपीए सरकार में तय भी हुई थी कि देश के संसाधनों पर पहला अधिकार अल्पसंख्यक और उसमें भी सबसे अधिक मुस्लिमों का है, उस प्रकार से कांग्रेस की यह मुसलमानों को लुभाने एवं उन्हें लाभ पहुंचाने की अघोषित चुनावी घोषणा है, इस तरह की घोषणाएं लोकतंत्र में सुशासन एवं राजनीति मूल्यों को धुंधलाने की कुचेष्टा ही कही जायेगी। लोकतांत्रिक व्यवस्था में नेता बादशाह नहीं होता बल्कि साधारण मतदाता बादशाह होता है क्योंकि उसके ही एक वोट से सरकारें बनती और बिगड़ती हैं। मतदाता को जो मूर्ख समझते हैं उनसे बड़ा मूर्ख दूसरा नहीं होता। ऐसे तथाकथित बयानों से भारत में संसदीय प्रणाली का लोकतंत्र कभी भी प्रभावित नहीं होगा, वह सफल रहा है और रहेगा क्योंकि भारत के लोग अनपढ़ व गरीब हो सकते हैं मगर वे अज्ञानी या मूर्ख नहीं है। उनका व्यावहारिक ज्ञान बहुत मजबूत होता है और वे राजनीतिक दलों के भ्रम में नहीं आने वाले, गुमराह नहीं होने वाले। यह सच है कि जब से भारत में जातिवादी, क्षेत्रवादी, भाषावादी, वर्गवादी व सम्प्रदायवादी राजनीति का बोलबाला हुआ है तभी से राजनीति के विमर्श में गिरावट आनी शुरू हुई है, लेकिन इस गिरावट को संभालने के लिये मतदाता को अधिक परिवक्व एवं समझदार होने की अपेक्षा है।

    मक्खी मरी नही, तो गई कहाँ?

                                    आत्माराम यादव पीव

           नन्हें-नन्हें पंखों वाली नन्ही सी सुंदर काया वाली मक्खी ओर मक्खा यत्र तत्र सर्वत्र निवास करते है। सबसे ज्यादा नटखट, फुर्तीली यह मक्खी सभी जगह घट-घट में मिल जाएगी, दुनिया का ऐसा कोई स्थान नहीं जो मक्खी से अछूता हो। दिन हो या रात मक्खी बिना आलस किए काम करती है। मरघट हो, मुर्दा हो, मिठाई हो, खटाई हो, नाला हो नाली हो, सड़ा गला हो, खाना हो अथवा पाखाना हर जगह मक्खी की मौजूदगी होती है ओर यह मक्खी हर अच्छी- बुरी जगह पर बैठने का एकाधिकार रखती है। अमृतमयी मिठास हो या गंदा बदबूदार स्वाद हो मक्खी  इन सारे स्वादों का अनुभव इंसान के कान के पास जाकर भिनभिना कर सुनाती है ओर जो नहीं सुनते उनकी नाक कान में दम कर उसके शरीर के किसी भी भाग मे उछलकूद कर उसे छोड़ जाती है। फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन का भी एक मक्खी से पाला पड़ गया था जिसे लेकर मैं आज भी अचंभित हूँ की जिस मक्खी से उनका सामना हुआ आखिर वह मक्खी मरी नही तो कहा गई? अमिताभ बच्चन का में बचपन से प्रशंसक रहा हूँ ओर उनकी स्टाइल व डिजाइन किए कपड़े विशेषकर बेलवाटम तथा हेयरस्टाइल की दीवानगी मेरे मित्रो पर सवार थी वे  तो पहन लिया करते थे किन्तु तब गरीबी के कारण मेरे लिए बेलवाटम पहनना एक सपना था, क्योकि तब मुझे पिताजी के रिजैक्ट किए गए कपड़ों को आल्टर कराकर संतुष्ट होना पड़ता था। बात मक्खी की है इसमें अन्य बातें अनुपयोगी है, अमिताभ बच्चन ओर उनके द्वारा मक्खी मारा जाना उपयोगी है।

           नमक हलाल फिल्म के मुख्य किरदार अमिताभ बच्चन के मालिक शशि कपूर साहब कुछ रईस सेठों के साथ भोजन करने को तैयार है तभी एक प्लेट पर मक्खी के बैठने ओर अपने मालिक के एतराज की मुझे मक्खियों से सख्त नफरत है कहे जाने के बाद अमिताभ बच्चन ने उस मक्खी का पीछा किया ओर पूरी सतर्कता के साथ जैसे अर्जुन का ध्यान मछली पर था, अमिताभ का ध्यान मक्खी पर था ओर वे लक्ष्य साधकर टेबल पर बैठे अमीरों का आश्रय लेने वाली मक्खी का पीछा करते रहे, लेकिन आखिर तक मक्खी को मार नहीं सके ओर मक्खी खुद उनकी नाक पर जा बैठी जिसे उनके सेठ ने घूसा मारकर मारना चाहा पर वह मरी नहीं, तभी से यह बात मेरे जेहन में थी की आखिर मेरे हीरो को तंग करने वाली वह मक्खी कहां गई? मक्खी का पता नहीं पर अमिताभ बच्चन ने मक्खी मारने का काम कर जबरदस्त वाहवाही लूटी तभी से मक्खी की लोकप्रियता का ग्राफ पूरी दुनिया में छा गया था। अमिताभ की फिल्म रीलीज़ होने के बाद अनेक जगह उनके प्रशंसकों में मक्खी मारने की होड लग गई थी, एक बार लगा की ये सभी इस धरती की सारी मक्खी मारकर धरती को मक्खीविहीन कर देंगे,किन्तु इसी बीच मक्खी नाम की फिल्म आ गई जिसमे मक्खी की आत्मा का आतंक फैलाकर लोगो को डराने  का काम इस मक्खी  फिल्म ने किया, बस लोग अपने सुपरस्टार अमिताभ के पदचिन्हों पर चलकर मक्खी मारना भूल गए ओर मक्खी फिल्म का खौफ से सभी मक्खीमार गायब हो गए ओर मक्खी की प्रजाति विलुप्त होने से रह गई । मक्खीचूस की बात जरूर निकली जो अपनी कंजूसी के रहते चाय की प्याली मे मक्खी गिरने पर समझता था की इसने चाय पीकर प्याली की चाय कम कर दी तब वह मक्खी उठाकर उसे चूस कर अपनी चाय की नुकसानी की भरपाई मक्खी से करता था।    

           आप सभी मक्खी को बेहतर जानते है ओर यह भी तय है की आप भी मक्खी से आए दिन परेशान होते रहे है? जब भी मक्खियों ने आपको तंग किया होगा तो आपने उन्हे मारने का प्रयास किया होगा किन्तु नटखट तेजतर्रार मक्खी आपकी पकड़ से नौ –दो ग्यारह होने से खुद को बचाती रही ओर आप एक मक्खी भी न मार सके तब आप मक्खी से हार मान ग़ुस्से से लाल पीले हुये होकर रह जाते है।  मक्खी हर तरह की गंदगी पर बैठती है ओर अपने पैरों के माध्यम से वह आपके, मेरे, सभी के घरों में किचन से लेकर डायनिग टेबल तक में रखी खाने की वस्तुओं पर बैठकर बीमारी फैलाती है ताकि इस बीमारी से तबाही फैले ओर आप सहित दुनिया में लोग हैजा, प्लेग, शीतला आदि प्राणघातक बीमारी के शिकार हो मर खप सको। आप मक्खी को तबाह करना चाहते है जबकि मक्खी गंदी मैली रहकर मल आदि अपने परों ओर पैरों मे लेकर उडती हुई सभी  ओर उछलकूद कर जी भरकर हमे ओर आपको सुरधाम पहुचाने के लिए दिन रात जुटी है। आप भोजन करते हो तब दर्जनों बार यही गंदली मक्खी आपके भोजन ही नही आपके मुह, नाक, कान, गाल सहित अन्य अंगों पर मुह मार चुकती है ओर आप हाथ से उसे भगाने में अपनी ताकत खराब करते हो। आपके जागते, काम करते, पुजा पाठ करते सहित आराम में खलल डालकर सोते समय यही मक्खी आपको दिक्कत में डालकर परेशान करती है , जितना भी उसे भगाने की कोशिस करोगे उड़कर यही मक्खी एक जिद्दी की तरह आपके सामने होगी। आप मक्खी की शरारत ओर नटखटपन से गुस्से में उसे भगा कर थकने के बाद मारने जुट जाते हो ओर भूल जाते हो की आप आम आदमी नहीं जो मक्खी मारे, फिर भी आप उच्च पदों पर उच्च शिक्षित होते हुए बेचारी निम्न मक्खी को मारने मोर्चा संभाल लेते हो ठीक वैसे ही जैसे वीर बहादुर अमिताभ बच्चन ने फिल्म में संभाला था ओर मक्खी मारने में सफल न होकर हसी के पात्र बने थे।   

           सवाल उठता है कि हम एक से एक आधुनिक मशीनों को ईजाद कर चुके है, मक्खी मच्छर मारने के लिए जिस जहर का इस्तेमाल कर रहे है उससे खुद का स्वास्थ्य भी खराब कर रहे है, पर खुद की दम पर हम एक मक्खी तक नहीं मार सकते है, तब क्या मरी मक्खी का पंख उखाड़ने को अपनी वीरता समझ अपना सीना 56 इंच का बतलाकर फूले नही समाते हो ? समाज मे कुछ लोग जो कुछ भी न करने पर विश्वास रखते है पर ढींग हाँकते है की मक्खी मार रहे है। मक्खी मारना वैसे भी उनके लिए प्रयोग है जो कुछ भी नहीं करते या बेकार का काम करते है। आज सारे देश में युवाओ के पास डिग्री है पर काम नहीं होने से वे बेरोजगार है, उनसे पूंछे कि क्या कर रहे हो तो वे तपाक से कहते है आजकल मक्खियाँ मार रहा हूँ, मतलब कुछ नही कर रहे है।  यही हाल राजनीति में हो गया है, नेता एक बार राजनीति में किस्मत प्रयोग कर विधायक, सांसद या स्थानीय नेता चुने जाने के बाद उसे कौन से हीरे जवाहरात की खदान मिल जाती है की वह शून्य से शिखर पर पहुँच जाता है ओर उसके पैर जमीन पर नहीं होते, पर जैसे ही कुर्सी से नीचे पटक दिये जाए तब भी वे क्या कर रहे हो के सबाल का जबाव आजकल जनसेवा कर रहा हूँ अर्थात बेकार हूँ मक्खी मार रहा हूँ होता है। काश राजनेताओं जैसा भाग्य देश के इन युवा बेरोजगारों का क्यो नही होता, उन्हे भी सरकार अपने नेताओं की तरह मक्खी मारने का काम दे देवे तो कम से कम वे आत्मनिर्भर होकर परिवार की ज़िम्मेदारी में शामिल हो सके। देश में जनता ही नहीं सरकार भी गंदगी फैलाती है ताकि उसपर मक्खी बैठे ओर लोगों को मक्खी मारने का काम मिल सके, भले हकीकत में एक भी मक्खी न मर सके पर सरकारी आंकड़ों में मक्खियों को टनों से मरा साबित करेंगे ताकि अधिक मक्खी होने पर आगे मक्खी मारने का धंधा चला सकें?