कविता बच्चों का पन्ना कविता : प्रतीक September 18, 2014 by मिलन सिन्हा | Leave a Comment मिलन सिन्हा यह पेड़ है हम सबका पेड़ है। इसे मत छांटो इसे मत तोड़ो इसे मत काटो इसे मत उखाड़ो इसे फलने दो इसे फूलने दो इसे हंसने दो इसे गाने दो यह पेड़ है हम सबका पेड़ है। इसपर सबके घोसले हैं कौआ का है, मैना का है बोगला का […] Read more » प्रतीक
कविता व्यथा September 17, 2014 / September 17, 2014 by कुलदीप प्रजापति | 2 Comments on व्यथा कल-कल करती बहती नदियाँ हर पल मुझसे कहती हैं , तीर का पाने की चाहत मैं दिन रात सदा वह बहती हैं, कोई उन्हें पूछे यह जाकर जो हमसे नाराज बहुत , मैने सहा बिछुड़न का जो गम क्या इक पल भी सहती हैं | मयूरा की माधुर्य कूकन कानो मैं जब बजती […] Read more » व्यथा
कहानी अधर्मी September 16, 2014 / September 16, 2014 by राम सिंह यादव | 2 Comments on अधर्मी भाई, चल जरा, उस किले की मुंडेर पर बैठते हैं……… काल चक्र के पहिये पर वापस कुछ सौ साल पहले घूमते हैं !!!!!! भाई वो देख कितनी धूल सी उड़ रही है पश्चिम से….. लगता है काले स्याह बादल घिर आये हैं……… वो अपना ही गाँव है न ????? ओह, काले कपड़ों […] Read more » अधर्मी
दोहे हिंदी सबको जोड़ती September 15, 2014 by हिमकर श्याम | Leave a Comment आज़ादी बेशक़ मिली, मन से रहे गुलाम। राष्ट्रभाषा पिछड़ गयी, मिला न उचित मुक़ाम।। सरकारें चलती रहीं, मैकाले की चाल। हिंदी अपने देश में, उपेक्षित बदहाल।। निज भाषा को छोड़कर, परभाषा में काज। शिक्षा, शासन हर जगह, अंग्रेजी का राज।। मीरा, कबीर, जायसी, तुलसी, सुर, रसखान। भक्तिकाल ने बढ़ाया, हिंदी का […] Read more » हिंदी सबको जोड़ती
व्यंग्य व्यंग्य बाण : आधार कार्ड वाले हनुमान जी September 14, 2014 by विजय कुमार | 1 Comment on व्यंग्य बाण : आधार कार्ड वाले हनुमान जी लीजिए साहब, सचमुच देश में अच्छे दिन आ गये। अच्छे दिन क्या, रामराज्य कहिए। लोग अपने अगले दिनों की चिन्ता में घुलते रहते हैं; पर हमारे महान देश के अति महान सरकारी कर्मचारियों ने पूर्वजों की देखभाल शुरू कर दी है। दुनिया भर के इतिहासकार और अभिलेखागार वाले सिर पटक लें; कम्प्यूटर से लेकर नैनो […] Read more » आधार कार्ड वाले हनुमान जी
गजल ग़ज़ल-जावेद उस्मानी September 13, 2014 by जावेद उस्मानी | 1 Comment on ग़ज़ल-जावेद उस्मानी संस्कृति धरोहर की सारी पूंजी लूटाएंगे बनारस को अपने अब हम क्योटो बनाएंगे गंगा को बचाने भी को विदेशी को लाएंगे अपने देशवासियों को ये करिश्मा दिखाएंगे नीलामी में है गोशा गोशा वतन का जर्रा जर्रा बिकने को रखा है तैयार चमन का हुकूमत में आते ही मिजाज़ ऐसे बदल गए स्वदेशी के नारे वाले […] Read more »
कविता पीड़ा का पिंजरा September 12, 2014 by बीनू भटनागर | Leave a Comment पीड़ा के पिंजड़े की क़ैदी हूँ, पिंजड़े को तोडकर निकलना चाहती हूँ… पर सारी कोशिशें नाकाम हो रही हैं। जब भी ऐसा करने की कोशिश करती हूँ, पीड़ा बाँध लेती है, जकड़ लेती है। किस जुर्म की सज़ा मे क़ैद हूँ, नहीं पता…… कितने दिन के लिये क़ैद हूँ, ये भी नहीं पता… कुछ […] Read more » पीड़ा का पिंजरा
कविता तौहिनी लगाती है-कविता September 12, 2014 / September 12, 2014 by डॉ नन्द लाल भारती | Leave a Comment डॉ नन्द लाल भारती बोध के समंदर से जब तक था दूर सच लगता था सारा जहां अपना ही है बोध समंदर में डुबकी क्या लगी सारा भ्रम टूट गया पता चला पांव पसारने की इजाजत नहीं आदमी होकर आदमी नहीं क्योंकि जातिवाद के शिकंजे में कसा कटीली चहरदीवारी के पार झांकने तक की इजाजत […] Read more » कविता तौहिनी लगाती है
कविता कविता-जातिवाद का नरपिशाच September 11, 2014 / September 12, 2014 by डॉ नन्द लाल भारती | Leave a Comment डॉ नन्द लाल भारती मै कोई पत्थर नहीं रखना चाहता इस धरती पर दोबारा लौटने की आस जगाने के लिए तुम्ही बताओ यार योग्यता और कर्म-पूजा के समर्पण पर खंजर चले बेदर्द आदमी दोयम दर्ज का हो गया जहां क्यों लौटना चाहूंगा वहाँ रिसते जख्म के दर्द का ,जहर पीने के लिए ज़िन्दगी के हर […] Read more » जातिवाद का नरपिशाच
कविता जलियांवाला बाग September 10, 2014 by राघवेन्द्र कुमार 'राघव' | Leave a Comment राघवेन्द्र कुमार “राघव” सोलह सौ पचास गोलियां चली हमारे सीने पर , पैरों में बेड़ी डाल बंदिशें लगीं हमारे जीने पर | रक्त पात करुणाक्रंदन बस चारों ओर यही था , पत्नी के कंधे लाश पति की जड़ चेतन में मातम था | इंक़लाब का ऊँचा स्वर इस पर भी यारों दबा नहीं , भारत […] Read more » जलियांवाला बाग
व्यंग्य समाज जोधाएं बचेंगी तब न… September 10, 2014 by प्रवक्ता ब्यूरो | 1 Comment on जोधाएं बचेंगी तब न… ऋतू कृष्णा चैटरजी अकबर को जोधा नही दोगे ठीक बात है किन्तु अपने लिए भी नही चुनोगे ये कहां का इंसाफ है, उलटा जहां तक संभव होगा जोधा को धरती पर आने ही नही दोगे। भईया! अकबर को जोधा देने न देने की स्थिति तो तब आएगी न जब जोधाएं बचेंगी। लड़कियां बची ही कहां […] Read more » जोधाएं बचेंगी तब न
कविता अंधेरे रास्तों पर September 9, 2014 by लक्ष्मी जायसवाल | Leave a Comment जीवन में क्यों कोई राह नजर नहीं आती है ? हर राह पर क्यों नई परेशानी चली आती है ? जब जब चाहा भूल जाऊं अपनी उलझनों को तब तब एक और नई उलझन मिल जाती है। खुलकर जीना और हंसना मैं भी चाहती हूं पर ज़िन्दगी हर बार ही बेवजह रुला जाती है। पूछना […] Read more » अंधेरे रास्तों पर