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सबको रुला गये हमेशा हंसाने वाले राजू श्रीवास्तव

 ललित गर्ग

कॉमेडी की दुनिया के सबसे चर्चित कॉमेडियन्स में से एक राजू श्रीवास्तव 21 सितंबर 2022 को 41 दिन से चल रही जीवन और मृत्यु के बीच की जंग हार गए। आज सुबह कॉमेडियन का दिल्ली के एम्स हॉस्पिटल में निधन हो गया। स्टैंड अप कॉमेडी के जरिए सबको हंसाने वाले राजू श्रीवास्तव के निधन की खबर से पूरे देश में शोक की लहर दौड़ पड़ी है। सभी जगह गम का मौहाल हैं, वे एक अच्छे कॉमेडियन होने के साथ साथ बहुत अच्छे इंसान भी थे। उन्होंने अपनी प्रतिभा एवं मेहनत से बहुत नाम कमाया। उनका एक विशिष्ट अंदाज था, उन्होंने अपनी अद्भुत प्रतिभा से सभी को न केवल प्रभावित किया बल्कि असंख्य दिलों पर राज किया। उनका निधन कला जगत के लिए एक बड़ी क्षति है। हंसते-हंसाते आप ऐसे चले गये कि मनोरंजन जगत में कभी न भरने वाला एक बड़ा शून्य छोड़ गये।
हास्य अभिनेता का अर्थ वह अभिनेता होता है जो अपने अभिनय के माध्यम से लोगों को हँसा देता है। हिंदी फिल्मों में कुछ लोग इसी कार्य के लिए विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं जैसे जॉनी वॉकर, महमूद, आदि। कुछ मुख्य पात्रों ने भी हास्य अभिनय का खूब प्रदर्शन किया है जैसे गोविन्दा, ऋतेश देशमुख, आदि कलाकार। इस दुनिया में सबसे मुश्किल काम है किसी को हंसाना। आप भावुक होकर किसी को रुला तो सकते हैं लेकिन खुद मजाक बनकर दूसरे को हंसाने के लिए काबिलियत की जरूरत पड़ती है, जिसकी कमी कम-से-कम बॉलिवुड में तो नहीं है। बॉलिवुड सितारे भी इस बात से इत्तेफाक रखते हैं कि उनके कॅरियर की सबसे मुश्किल भूमिका वहीं होती है जिसमें उन्हें दर्शकों को हंसाने का काम सौंपा जाता है। राजू श्रीवास्तव ने प्रतिभा, ईमानदारी और दृढ़ संकल्प से यह विलक्षण कार्य किया। कला का दायरा सारे बंधनों से परे है। राजू श्रीवास्तव खुद को सिर्फ हीरो नहीं बल्कि एक हास्य अभिनेता के रूप में स्थापित करना चाहते थें। वे भारत के प्रसिद्ध हास्य कलाकार थे। वे मुख्यतः आम आदमी और रोज़मर्रा की छोटी-छोटी घटनाओं पर व्यंग्य सुनाने के लिये जाने जाते थे।
          राजू श्रीवास्तव का जन्म 25 दिसम्बर, 1963 को कानपुर में हुआ था। इनके पिता रमेश चंद्र श्रीवास्तव को बलाई काका कहा जाता था, क्योंकि वह एक कवि थे। उनके माता का नाम सरस्वती श्रीवास्तव हैं। राजू श्रीवास्तव ने शिखा श्रीवास्तव से शादी की हैं। उनका एक बीटा आयुष्मान श्रीवास्तव और बेटी अंतरा श्रीवास्तव हैं। राजू श्रीवास्तव बचपन से ही कॉमेडी करते थे और इसी में भविष्य बनाने की सोची। इन्होने बचपन से ही स्टेज शो करने लगे। उनका वास्तविक नाम सूर्यप्रकाश श्रीवास्तव था। वे गजोधर और राजू भैया के नाम से जाने जाते थे। दरअसल, राजू के ननिहाल में गजोधर नामक एक नाई था, जिससे वे अपने बाल कटवाते थे। राजू की मशहूर भूमिकाओं में एक गजोधर की भूमिका थी। उनके पसंदीदा अभिनेता अमिताभ बच्चन थे। जब राजू पहली बार मुम्बई आये थे तो उन्होंने अमिताभ बच्चन की नकल करके ख्याति प्राप्त की थी। राजू श्रीवास्तव 1993 से हास्य की दुनिया में काम कर रहे थे। उन्होंने कल्यानजी आनंदजी, बप्पी लाहिड़ी एवं नितिन मुकेश जैसे कलाकारों के साथ भारत व विदेश में अनेक स्टेज शो में काम किया है। वह अपनी कुशल मिमिक्री के लिए जाने जाते हैं। उनको असली सफलता ग्रेट इंडियन लाफ्टर चैलेंज से मिली। इस शो में अपने कमाल के प्रदर्शन की बदौलत वह जन-जन एवं घर-घर में सबकी जुबान पर छा गए। उन्होंने बिग बॉस 3 में हिस्सा लिया और 2 महीने तक घर में सबको गुदगुदाने के बाद 4 दिसम्बर 2009 को वोट आउट कर गए। उन्होंने अन्य टीवी धारावाहिकों जैसे शक्तिमान, बिग बॉस, कॉमेडी का महा मुकाबला, कॉमेडी सर्कस, कॉमेडी नाइट्स विद कपिल, इत्यादि में कार्य किया।
  1988 ई में रिलीज फ़िल्म ‘तेज़ाब’ से राजू श्रीवास्तव ने अपने अभिनय की शुरुआत की थी। उसके बाद कई बॉलीवुड फिल्मों जैसे-मैंने प्यार किया, बाज़ीगर, आमदनी अट्ठनी खर्चा रुपैया, बिग ब्रदर, बॉम्बे टू गोवा आदि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने कई टीवी धारावाहिकों में भी कार्य किया। उन्होंने मच्छर चालीसा को बनाया, जिसके चलते उन्हें हिंदू कट्टरपंथियों द्वारा कड़ी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा, क्योंकि वह हिंदू देवता व्यंग करते थे। इसी तरह और एक बार पाकिस्तान से कई धमकी भरेे फोन कॉल आई, उन्हें चेतावनी दी गई कि वह अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहिम पर चुटकुले न करें। इस तरह संघर्षों एवं संकटों से भरे जीवन में वे एक मंझे हुए कलाकार होने के साथ-साथ एक बेहद ज़िंदादिल इंसान भी थे। सामाजिक क्षेत्र में भी वे काफ़ी सक्रिय रहते थे।
राजू श्रीवास्तव के कुशल राजनीतिज्ञ भी बनने की लालसा रखते रहे। इसके चलते उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने  वर्ष 2014 के लोकसभा में कानपुर की सीट से उन्हें चुनाव-मैदान में उतारा था। हालांकि, बाद में 18 मार्च 2014 को राजू श्रीवास्तव ने टिकट वापस कर दिया था। और बाद 19 मार्च 2014 को वे भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गये थे। तभी से वे भाजपा के सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में कार्य करते रहे। 10 अगस्त 2022 को दिल्ली के कल्ट जिम में ट्रेडमिल व्यायाम करते समय राजू श्रीवास्तव को  दिल का दौरा पड़ा और उन्हें दिल्ली के एम्स में भर्ती कराया गया था।
राजू श्रीवास्तव को हम भारतीय सिनेमा का उज्ज्वल नक्षत्र कह सकते हैं, वे चित्रता में मित्रता के प्रतीक थे तो गहन मानवीय चेतना के चितेरे जुझारु, नीडर, साहसिक एवं प्रखर व्यक्तित्व थे। वे एक ऐसे बहुआयामी व्यक्तित्व थे, जिन्हें अभिनय एवं हास्य जगत का एक यशस्वी योद्धा माना जाता है। उन्होंने आमजन के बीच, हर जगह अपनी काबिलियत का लोहा मनवाया। लाखों-लाखों की भीड़ में कोई-कोई राजू जैसा विलक्षण एवं प्रतिभाशाली व्यक्ति अभिनय-विकास की प्रयोगशाला में विभिन्न प्रशिक्षणों-परीक्षणों से गुजरकर महानता का वरन करता है, विकास के उच्च शिखरों पर आरूढ़ होता है और अपनी अनूठी अभिनय क्षमता, मौलिक सोच, कर्मठता, जिजीविषा, पुरुषार्थ एवं राष्ट्र-भावना से सिनेमा-जगत, समाज एवं राष्ट्र को अभिप्रेरित करता है। वे भारतीय फिल्म-जगत एवं हास्य-जगत का एक आदर्श चेहरा थे। देश और देशवासियों के लिये कुछ खास करने का जज्बा उनमें कूट-कूट कर भरा था। वे कोरोना महासंकट के समय अनेक सेवा-कार्यों के लिये चर्चा में थे। देश की एकता एवं अखण्डता को खंडित करने की घटनाओं पर उनके भीतर एक ज्वार उफनने लगता और इसकी वे अभिव्यक्ति भी साहस से करते, जिसके कारण इन वर्षों में उनका एक नया स्वरूप उभरा।
राजू श्रीवास्तव एक ऐसे जीवन की दास्तान है जिन्होंने अपने जीवन को बिन्दु से सिन्धु बनाया है। उनके जीवन की दास्तान को पढ़ते हुए जीवन के बारे में एक नई सोच पैदा होती है। जीवन सभी जीते हैं पर सार्थक जीवन जीने की कला बहुत कम व्यक्ति जान पाते हैं। लोगों को हंसाने एवं खुशियां देने का विरल काम करने वाले राजू के जीवन कथानक की प्रस्तुति को देखते हुए सुखद आश्चर्य होता है एवं प्रेरणा मिलती है कि जीवन आदर्शों के माध्यम से भारतीय सिनेमा, राजनीति, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और वैयक्तिक जीवन की अनेक सार्थक दिशाएँ उद्घाटित की जा सकती हैं। उन्होंने व्यापक संदर्भों में जीवन के सार्थक आयामों को प्रकट किया है, वे आदर्श जीवन का एक अनुकरणीय उदाहरण हैं, उनके जीवन से कुछ नया करने, कुछ मौलिक सोचने, समाज को मूल्य प्रेरित बनाने, सेवा का संसार रचने, सद्प्रवृत्तियों को जागृत करने की प्रेरणा मिलती रहेगी। उनके जीवन से जुड़ी विधायक धारणा और यथार्थपरक सोच ऐसे शक्तिशाली हथियार थे जिसका वार कभी खाली नहीं गया। वे जितने उच्च नैतिक-चारित्रिक व्यक्तित्व एवं नायक थे, उससे अधिक मानवीय एवं सामाजिक थे। उनका निधन एक जीवंत, हास्यभरी, प्यारभरी सोच के कला का अंत है। वे सिद्धांतों एवं आदर्शों पर जीने वाले व्यक्तियों की श्रृंखला के प्रतीक थे। आपके जीवन की खिड़कियाँ सिनेमा-जगत, हास्य-जगत, समाज एवं राष्ट्र को नई दृष्टि देने के लिए सदैव खुली रही। उनकी सहजता और सरलता में गोता लगाने से ज्ञात होता है कि वे गहरे मानवीय सरोकार से ओतप्रोत एक अल्हड़ व्यक्तित्व थे। बेशक राजू श्रीवास्तव अब इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन अपने सफल, सार्थक एवं जीवंत अभिनय के दम पर वे हमेशा भारतीय सिनेमा एवं हास्य जगत के आसमान में एक सितारे की तरह टिमटिमाते रहेंगे।

शिक्षा के क्षेत्र की शर्मनाक और दुखद घटना

 ललित गर्ग

पंजाब के मोहाली में चंडीगढ़ यूनिवर्सिटी में कथित अश्लील वीडियो लीक मामले ने समूचे राष्ट्र को हिला कर रख दिया। कई छात्राओं का आपत्तिजनक वीडियो बनाने और उसे अन्य लोगों को भेजने की जो यह शर्मनाक एवं चिन्ताजनक घटना सामने आई है, वह कई स्तर पर दुखी और हैरान करने के साथ-साथ ऊच्च शिक्षण संस्थानों की अराजक एवं असुरक्षित होती स्थितियांे का खुलासा करती है। यह खौफनाक हरकत पीड़ित लड़कियों के सम्मान और उनकी जिंदगी से भी खिलवाड़ है। इन शिक्षा के मन्दिरों में संस्कार, ज्ञान एवं आदर्शों की जगह आज की युवा पीढ़ी का मस्तिष्क किस हद तक प्रदूषित हो गया है, अश्लील वीडियो प्रकरण उसकी भयावह प्रस्तुति है। यह एक गंभीर मसला है जिस पर मंथन किया जाना अपेक्षित है।
अब तक जैसी खबरें आई हैं, उस संदर्भ में यह समझना मुश्किल है कि वहां पढ़ने वाली एक लड़की ने ही कई अन्य लड़कियों के नहाने के क्रम में चुपके से वीडियो बनाया तो उसके पीछे उसकी कौन-सी मंशा काम कर रही थी। अगर उसने अपने किसी दोस्त के कहने पर ऐसा किया तो उसका अपना विवेक क्या कर रहा था! इस प्रकरण को लेकर यूनिवर्सिटी की छात्राओं में आक्रोश होना स्वाभाविक है। उनके अभिभावक चिंतित हैं। पिछले दो दिन से जमकर बवाल मचा हुआ है। हजारों छात्राएं इंसाफ की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रही हैं। यूनिवर्सिटी को एक हफ्ते के लिए बंद कर दिया गया है। यद्यपि पंजाब पुलिस ने कथित अश्लील वीडियो बनाने वाली छात्रा, उसके ब्वाय फ्रैंड और उसके एक साथी को गिरफ्तार कर लिया है। होस्टल के सभी वार्डनों का तबादला कर दिया गया है। घटना की गंभीरता को देखते हुए ये उपाय ज्यादा कारगर नहीं कहे जा सकते। इसीलिये छात्राओं और उनके अभिभावकों की चिंता और गुस्सा शांत होता दिखाई नहीं दे रहा।
हमारे उच्च शिक्षण संस्थान हिंसा, ड्रग्स, नशा, अश्लीलता एवं अराष्ट्रीयता को पोषण देने के केन्द्र बनते जा रहे हैं। मोहाली में जो भी हुआ वह शिक्षा के क्षेत्र में काफी शर्मनाक और दुखद है। विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में जिस तरह का वातावरण बन रहा है, वह न केवल हमारी युवा पीढ़ी के लिए बल्कि समाज के लिए भी घातक साबित हो रहा है। कौन नहीं जानता कि पंजाब के विश्वविद्यालय में और कॉलेज कैंपस में न केवल ड्रग्स उपलब्ध है बल्कि युवा पीढ़ी कई तरह के व्यसनों की शिकार है। इन परिसरों में छात्राओं के साथ अश्लील एवं आपत्तिजनक उत्तेजक दृश्य आम बात है। इस प्रकार की रिपोर्टें मिलती रही हैं कि एक लोकप्रिय और प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी के होस्टल में हथियार बरामद हुए और वहां से कुछ अवांछित तत्वों की गिरफ्तारी भी हुई लेकिन ऐसी खबरें भी दबा दी जाती हैं क्योंकि विश्वविद्यालय प्रशासन का दबदबा हर जगह है। इस यांत्रिक युग ने सामाजिक एवं सांस्कृतिक वातावरण को पूरी तरह प्रदूषित कर दिया। जहां एक ओर तकनीकी क्षेत्र में हमारा उत्थान हुआ है वहीं दूसरी ओर हमारा नैतिक रूप से पतन भी हुआ है।
देश के मासूम, नवजवान विशेषतः छात्राएं रोज अपने जीवन एवं जीवन के उद्देश्यों को स्वाह कर रहे हैं।  कॉलेज कैंपस में उठने वाली इन अश्लीलता, कामुकता हिंसा एवं नशे की घटनाएं केवल धुआं नहीं बल्कि ज्वालामुखी का रूप ले रही है। जो न मालूम क्या कुछ स्वाह कर देगी। जो न मालूम राष्ट्र से कितनी कीमत मांगेगी। देश की आशा जब किन्हीं मौज-मस्ती, संकीर्ण एवं अराष्ट्रीय स्वार्थों के लिये अपने जीवन को समाप्त करने के लिए आमादा हो जाए तो सचमुच पूरे राष्ट्र की आत्मा, स्वतंत्रता के पचहतर वर्षों की लम्बी यात्रा के बाद भी इन स्थितियों की दयनीयता देखकर चीत्कार कर उठती है। छात्र जीवन की इन घटनाओं ने देश के अधिकांश विद्यार्थियों और बुद्धिजीवियों को इतना अधिक उद्वेलित किया है जितना कि आज तक कोई भी अन्य मसला नहीं कर पाया था। क्यों अश्लीलता एवं अराजकता पर उतर रहा है देश का युवा वर्ग? शिक्षा के माध्यम से केवल भौतिक संपन्नता एवं उच्च डिग्रियां प्राप्त करना ही पर्याप्त नहीं होता, शिक्षा द्वारा हम एक अच्छे इनसान और बेहतर नागरिक भी बनने चाहिएं। इसके लिए अपनी शालीन परंपरा, आदर्शों व जीवन मूल्यों से जुड़ना आवश्यक हो जाता है। मानसिक विकास के बिना भौतिक विकास सार्थक नहीं हो सकता है।
अक्सर ऐसे मामलों में पुलिस एवं कालेज प्रशासन सत्य को छिपाने एवं दबाने के प्रयास करते हैं। यही मोहाली में देखने को मिल रहा है, जिसके कारण छात्राओं का भरोसा पुलिस और यूनिवर्सिटी प्रशासन से उठ चुका है और वे होस्टल छोड़कर घरों को वापिस लौटने लगी हैं। अब बहुत सारे सवाल उठ रहे हैं कि क्या जमकर हुआ बवाल महज अफवाह पर आधारित था या इसमें कोई सच्चाई है। छात्राओं का दावा है कि कम से कम 60 छात्राओं के वीडियो बनाए गए हैं। तरह-तरह की कहानियां सामने आ रही हैं, जितने मुंह उतनी बातें। सच सामने आना ही चाहिए लेकिन सच तभी सामने आएगा जब इस केस की जांच निष्पक्ष एवं ईमानदार ढंग से होगी। अर्ध सत्य कभी-कभी पूर्ण सत्य से भी ज्यादा खतरनाक हो जाता है।
सूचना प्रौद्योगिकी के इस दौर में इंटरनेट पर अश्लील सामग्री की सहज उपलब्धता एक ज्वलंत समस्या के रूप में हमारे सामने आ खड़ी हुई है। एक के बाद एक एमएमएस स्कैंडल सामने आ रहे हैं। दरअसल समस्या यह भी है कि अभिभावक छोटी उम्र में ही बच्चों को स्मार्ट फोन इस्तेमाल करने की आदतें डाल रहे हैं। इसका आगे चलकर बच्चों की मासूम मानसिकता पर गलत प्रभाव पड़ता है। स्मार्ट फोन पर आसानी से उपलब्ध अनुचित एवं अश्लील सामग्री से बच्चों को दूर रखना बहुत जटिल होता जा रहा है। आज के बच्चे किशोर तो होते ही नहीं बल्कि बचपन से सीधे युवा हो रहे हैं। सोशल साइटों पर और अन्य वैबसाइटों पर उपलब्ध अश्लील सामग्री का प्रभाव व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक देखने को मिल रहा है, आज के शिक्षण संस्थान उससे अछूते नहीं है।
मोहाली प्रकरण में प्याज के छिल्कों की तरह अब सच धीरे-धीरे सामने आने लगा है और कहानी के कई कोण उभरने लगे हैं। क्या यह सारा प्रकरण लड़कियों को ब्लैकमेल करने के लिए किया गया। अब एक और अन्य लड़की का वीडियो मिलने से पुलिस के बयानों एवं मामले की सत्यता भी सामने आ रही है कि पुलिस किस तरह सच को झूठ ठहरा रही है। अगर इसके पीछे कोई और व्यक्ति या समूह है तो उसे भी कानून के कठघरे में लाया जाना चाहिए। किसी भी संवेदनशील व्यक्ति की यह मांग होगी कि अगर ये आरोप साबित होते हैं तो कानून के मुताबिक दोषियों को सख्त सजा मिले। लेकिन सवाल यह भी है कि विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली छात्राओं के लिए जो छात्रावास बनाए गए हैं, उसमें नहाने की वह कैसी व्यवस्था है कि किसी छात्रा या अन्य व्यक्ति को चुपके से वीडियो बना लेने का मौका मिल जाता है?
छात्राओं की अस्मिता एवं इज्जत का ख्याल रखते हुए ही समुचित व्यवस्थाएं होनी चाहिए। अगर इस तरह की असुरक्षित और लापरवाही भरी परिस्थिति में छात्राओं को रहना पड़ता है तो इसकी जिम्मेदारी किस पर आती है? इस तरह की व्यवस्था से जुड़े प्रश्नों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, खासतौर पर जब ऐसी घटना होने की खबर आ चुकी है। यह छिपा नहीं है कि हमारे सामाजिक परिवेश में आजकल बहुत सारे लोगों के हाथ में कैमरे से लैस स्मार्टफोन तो आ गए हैं, लेकिन इसके इस्तेमाल और इसके जोखिम को लेकर बहुत कम लोग जागरूक हैं। फिर युवाओं के भीतर उम्र या अन्य वजहों से जो मानसिक-शारीरिक उथल-पुथल होती है, उससे संतुलित तरीके से निपटने और खुद को दिमागी रूप से स्वस्थ और संवेदनशील बनाए रखने में इस तरह की आधुनिक तकनीक बाधा बन रही है। अगर ऐसी प्रवृत्तियां कभी किसी अपराध के रूप में सामने आती हैं तो निश्चित रूप से कानूनी तरीके से निपटना ही चाहिए, लेकिन इसके दीर्घकालिक निदान के लिए इन आधुनिक तकनीकों या संसाधनों के इस्तेमाल को लेकर विवेक और संवेदना का खयाल रखने के साथ-साथ सामाजिक प्रशिक्षण भी जरूरी है।

पदयात्रायें कुछ न कुछ तो बदलती ही हैं

 अरुण तिवारी

चरेवैति…चरेवैति – लक्ष्य मिले न मिले, चलते रहिए। इसका मतलब यह है कि चलते रहिए। चलते रहेंगे तो आपके द्वारा तय लक्ष्य मिले न मिले; कुछ न कुछ हासिल तो होगा ही। पदयात्राओं का सच यही है।
यात्री कोई भी हो; यात्रा कितनी ही छोटी हो अथवा लम्बी; पदयात्राओं के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। यात्रा मनोरंजनात्मक हो, आध्यात्मिक, धार्मिक, व्यापारिक अथवा राजनीतिक; पदयात्राओं का इतिहास बताता है कि इनके नतीजे कुछ न कुछ तो बदलते ही हैं। भारत जोड़ो यात्रा भी बदलेगी।
अनुभव कहते हैं कि पदयात्रायें बीज बिखेरने जैसा असर रखती हैं। बीज, मिट्टी के भीतर उतरेगा या नहीं ? बीज अंकुरित होगा या नहीं ? कब होगा ? ये सब उसके पर्यावरण 

मेंमौजूद हवा, नमी और गर्मी पर निर्भर करता है। हां, यदि यात्री का संकल्प मज़बूत और दृष्टि स्पष्ट है, तो यह तय है कि बिखेरा बीज अत्यंत पुष्ट होगा। वह मरेगा नहीं। वह यात्री के भीतर और बाहर…दोनो जगह कभी न कभी अंकुरित होगा ही होगा।
मात्र 12 साल की उम्र में दक्षिण से सम्पूर्ण भारत का कठिन भूगोल नापते हुए निकल पडे़ शंकर को उनकी पदयात्रा ने आदिगुरु शंकराचार्य बना दिया। वह मात्र 32 साल जिए, मगर सनातनी संस्कार और चार धाम के रुप में भारत को वह दे गए, जिसकी परिक्रमा आज तक जारी है। बालक नानक की यात्राओं ने उन्हे सेवा को धर्म मानने वाले सम्पद्राय का प्रणेता व परम् स्नेही शीर्ष गुरु बना दिया। राजकुमार सिद्धार्थ ने महात्मा बुद्ध बन यात्राओं के जरिए ही बौद्ध आस्थाओं को प्रसार दिया; अजेय सम्राट अशोक को विरक्त बना दिया। गांधी को मोहन से महात्मा और राष्ट्रपिता बनाने में उनकी पदयात्राओं का महत्व कम नहीं। विनोबा की भूदान यात्रा की खींची रेखा भूमिहीनों के अध्ययन ग्रंथों में हमेशा दर्ज़ रहेगी।
कल्पना कीजिए कि यदि रामायण में से चौदह वर्ष के वनवास की पदयात्रा कथा निकाल दी जाए, तो क्या राजकुमार राम, मर्यादा पुरुषोत्म श्री राम हो पाते ? क्या उनके स्वरूप की आभा इतनी शेष होती, जितनी आज प्रकाशमयी और विस्तारित है। मक्का में पैगम्बर मुहम्मद का जितना अधिक व हिंसक विरोध हो रहा था, यदि वह वहां से मदीना की यात्रा पर न निकल गए होते तो ? क्या इस्लाम का इतना व्यापक प्रसार हो पाता, जितना विश्वव्यापी आज है ? पैगम्बर मुहम्मद की मक्का से मदीना यात्रा ने न सिर्फ पहली महजिद दी; उनके इस्लामिक के विस्तार का आधार दिया, बल्कि पहले इस्लामी कैलेण्डर को भी जन्म दिया। हिजरत यानी प्रवास। प्रवास के फलस्वरूप अस्तित्व में आने के कारण इस्लामी कैलेण्डर का नाम ही हिजरी कैलेण्डर हो गया।
यूं ईसामसीह की जीवन यात्रा में 13 से 29 वर्ष की उम्र के बारे में कुछ स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता; फिर भी यदि स्वामी परमहंस योगानंद की किताब (द सेकेण्ड कमिंग ऑफ क्राइस्ट : द रिसरेक्शन ऑफ क्राइस्ट विद इन) के दावे को सही मानें तो उनका यह काल भारत में भ्रमण करते हुए कश्मीर के बौद्ध व नाथ सम्पद्रायों के मठों में शिक्षा, योग, ध्यान व साधना में बीता। अपने दावे की पुष्टि में किताब यह भी उल्लेख करती है कि यीशु के जन्म के बाद उन्हे देखने बेथलेहम पहुंचे तीन विद्वान भारतीय बौद्ध थे। उन्होने ही यीशु का नाम ईसा रखा था। संस्कृत में ईसा का मतलब – भगवान ही होता है। यदि यह सत्य है तो कह सकते हैं कि ईसा की ज्ञान शक्ति और प्रकाशमान् स्वरूप में उनकी कश्मीर यात्रा का विशेष योगदान है।
किस-किस यात्रा के बारे में लिखूं; आधुनिक राजनीतिक कालखण्ड में भारत में देवीलाल, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, चन्द्रशेखर, सुनील दत्त से लेकर दिग्विजय सिंह की नर्मदा यात्रा के नतीजे़ हम जानते ही हैं। राजनीतिक विश्लेषक प्रशांत किशोर का बिहार यात्रा प्रस्ताव भी पदयात्रा के महत्व को रेखांकित करता है। सामाजिक कार्यकर्ताओं की बात करें तो वर्ष 2005 में नई दिल्ली से मुल्तान तक संदीप पाण्डेय के भारत-पाकिस्तान शांति मार्च ने उन्हे मैगसायसाय सम्मान दिलाया। राजेन्द्र सिंह द्वारा ग्रामीणों को एकजुट कर किए गये पानी के स्थानीय व ज़मीनी काम प्रेरक व सिखाने वाले हैं। यह सच है, किन्तु राजेन्द्र सिंह को जलपुरुष का दर्जा दिलाने तथा पानी को आम चिंतन का विषय बनाने में पानी के लिए उनके द्वारा की गई उनकी विश्वव्यापी यात्राओं का योगदान ही सबसे बड़ा है। 
मैंने खुद ज्यादा नहीं तो कुछेक नदियों के तट तो चूमे ही हैं। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि सई नदी की छह दिवसीय 

 पदयात्रा ने मुझे जितने स्थाई चित्र व सबक मेेरे मन-मस्तिष्क पर अंकित किए, उतने गंगासागर से लेकर बिजनौर तक की प्रवाह के उलट गंगा यात्रा ने भी नहीं। यहां ऐसी अनेक यात्राओं के उल्लेख संभव हैं।
और अधिक छोड़िए, यदि हम कुछ घण्टे, दिन या मिनट के लिए ही पैदल निकल जाएं तो भीतर से कुछ तरोताजा हो जाते हैं कि नहीं ? भोजन हो या पानी अथवा प्रेरणा…..ऊर्जा के सभी स्त्रोत अंततः जाकर विद्युत-चुम्बकीय तरंगों में ही परिवर्तित हो जाते हैं। अतः आप चाहे अकेले ही चलें; लम्बी पदयात्रायें तो ऊर्जा का अनुपम स्त्रोत होती ही हैं। क्यों ? क्योंकि यात्री की ऊर्जा प्रसारित होती है। वह जिस परिवेश अथवा व्यक्ति के सम्पर्क में आता है, उनकी ऊर्जा यात्री को स्पर्श करती है। कुछ को वह ग्रहण भी करता है। ऊर्जा पुष्ट करती हैं। तरंगें समान हों तो यात्री व कई अन्य एकभाव होने लगते हैं; यहां तक कि परिवेश भी। यह सब कुछ न सिर्फ यात्री के भीतर बदलाव व बेहतरी लाता है; बल्कि उसके आसपास के परिवेश व सम्पर्कों को भी बदल देता है।
अतः एक बात तो दावे से कही जा सकती है कि भारत जोड़ो भी कुछ न कुछ तो बदलेगी ही। क्या ? ’कुछ दिनों में शायद मैं कुछ और समझदार हो जाऊं’ – राहुल गांधी ने ऐसा कहा। शायद यह बदलाव हो। क्या यह होगा ? क्या कांग्रेस  को कुछ फायदा होगा ? क्या विपक्ष मज़बूत होगा ? क्या इससे भारतीय जनता पार्टी नेतृत्व की एक पार्टी फैलाव की लालसा पर लगाम लगेगी ? क्या एकरंगी  होती जा रही भीड़, वापस भारत के मूल इन्द्रधनुषी संस्कारों की ओर लौटेगी ? क्या भारत की राजनीति में व्यवहार बदलेगा ? क्या भारतीय राजनीति मेें कुछ स्वच्छ होने की गुजाइश बनेगी ?
कह सकते हैं कि ये सब यात्रियों की नीयत, नैतिकता, वाणी, व्यवहार, विचार, संयम, अनुशासन और सम्पर्क में आने वालों पर निर्भर करेगा। इस पर निर्भर करेगा कि वे एक राजनेता के तौर पर व्यवहार करते हैं, प्रतिनिधि के तौर पर, भारत जानने आए श्रोता के तौर पर अथवा भारत जोड़ने आए प्रणेता के तौर पर। यात्रा के एक व्यक्ति के केन्द्रित हो जाने के जहां चुम्बकीय फायदे हैं, वहीं इसके अपने नुक़सान भी हो सकते हैं।

नुकसान हो या फायदा; पदयात्रा से अच्छा शिक्षक कोई नहीं। अच्छा शिक्षक अच्छे एहसास और बदलाव के बीज का वाहक होता ही है। अतः भारत जोड़ो यात्रा की इस भूमिका से इंकार तो स्वयं भारतीय जनता पार्टी भी नहीं कर पायेगी। यह तय है।

अहिंसा और शांति ही जीवन का सौन्दर्य है

अन्तर्राष्ट्रीय शांति एवं अहिंसा दिवस,  21 सितम्बर 2022 पर विशेष
ललित गर्ग

विश्व शांति दिवस अथवा अंतरराष्ट्रीय शांति दिवस प्रत्येक वर्ष 21 सितम्बर को मनाया जाता है। यह दिवस सभी देशों और लोगों के बीच स्वतंत्रता, शांति, अहिंसा और खुशी का एक आदर्श माना जाता है। यह दिवस मुख्य रूप से पूरी पृथ्वी पर शांति और अहिंसा स्थापित करने के लिए मनाया जाता है। पहला शांति दिवस कई देशों द्वारा राजनीतिक दलों, सैन्य समूहों और लोगों की मदद से 1982 में मनाया गया था। इस साल 40वां अंतरराष्ट्रीय शांति दिवस 21 सितंबर 2022 को बुधवार के दिन मनाया जा रहा है, जिसकी थीम ‘जातिवाद खत्म करें, शांति का निर्माण करें‘ है। शांति सभी को प्यारी होती है। अहिंसा एवं शांति जीवन का सौन्दर्य है। इसकी खोज में मनुष्य अपना अधिकांश जीवन न्यौछावर कर देता है। किंतु यह काफी निराशाजनक है कि आज इंसान दिन-प्रतिदिन इस शांति एवं अहिंसा से दूर होता जा रहा है। आज चारों तरफ फैले बाजारवाद ने शांति एवं अहिंसा को व्यक्ति से और भी दूर कर दिया है।
मनुष्य, पशु, पक्षी, कीड़े, मकोड़े आदि सभी जीना चाहते हैं। कोई मरने की इच्छा नहीं रखता। जब कोई मृत्यु चाहता ही नहीं, तो उस पर उसको थोपना कहां का न्याय है। शांति एवं अहिंसा में विश्वास रखने वाले लोग किसी प्राणी को सताते नहीं, मारते नहीं, मर्माहत करते नहीं, इसी में से अहिंसा एवं शांति का तत्त्व निकला है। अहिंसा है स्वयं के साथ सम्पूर्ण मानवता को  मानवता को ऊपर उठाने में, आत्मपतन से बचने में और उससे किसी को बचाने में। अशांति अंधेरा है और शांति उजाला है। आंखें बंद करके अंधेरे को नहीं देखा जा सकता। इसी प्रकार अशांति से शांति को नहीं देखा जा सकता। शांति को देखने के लिए आंखों में अहिंसा का उजाला आंजने की अपेक्षा है। पृथ्वी, आकाश व सागर सभी अशांत हैं। स्वार्थ और घृणा ने मानव समाज को विखंडित कर दिया है। यूँ तो ‘विश्व शांति’ का संदेश हर युग और हर दौर में दिया गया है, लेकिन विश्व युद्ध की संभावनाओं के बीच इसकी आज अधिक प्रासंगिकता है।
विगत अनेक माह से रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध चल रहा है, और इस युद्ध की तमाम आशंकाओं और संभावनाओं के बीच शांति वार्ता की कोशिशें लगातार निस्तेज होती जा रही है। इस युद्ध की दूसरी बड़ी समस्या है की वास्तव में युद्ध यूक्रेन और रूस के बीच का युद्ध तो है ही नहीं। वास्तविक युद्ध तो पश्चिमी गठबंधन और रूस के बीच चल रहा है, और यह पक्ष तो शांति वार्ता से नदारद ही हैं। रूस को ये भली-भांति पता चल चुका है कि वो यूक्रेन पर कब्ज़ा नहीं कर सकता है, और यूक्रेन भी इस बात को समझता है कि इस युद्ध के दौरान जिन इलाकों को वो खो चुका है, वो उसे अब वापिस मिलने से रहे। आज जब हम वापस उसी शीत युद्ध के बीच अपने को पाते हैं तो उस शीत युद्ध में रूस के साथ-साथ चीन अब खड़ा है। और इस अंतराल में चीन सेर का सवा सेर नहीं बल्कि सवा सौ सेर बन चुका है। वास्तव में विश्व युद्ध की ओर बढ़ रही दुनिया को अयुद्ध, शांति एवं अहिंसा के पुनर्निर्माण की ज़रूरत है। और अगर ये पुनर्निर्माण नहीं किया गया तो यूक्रेन में धधकता उबाल सिर्फ़ यूक्रेन को ही नहीं बल्कि कई अन्य देशों को अपनी चपेट में लेगा।
ज़ाहिर है कि रणनीतिक दृष्टि में एक ग़हरी खामी थी जिसके कारण यह स्थिति पैदा हुई। यह उन त्रुटिपूर्ण सुरक्षा विचारों पर फिर से विचार करने का समय है। यदि ऐसा नहीं किया जाता है, तो अकेले यूक्रेन में शांति से समस्या का समाधान नहीं होगा। यह आग आगे भी यूं ही सुलगती रहेगी। सम्पूर्ण विश्व में शांति कायम करना आज संयुक्त राष्ट्र का मुख्य लक्ष्य है। संयुक्त राष्ट्र चार्टर में भी इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि अंतरराष्ट्रीय संघर्ष को रोकने और शांति की संस्कृति विकसित करने के लिए ही यूएन का जन्म हुआ है। संघर्ष, आतंक और अशांति के इस दौर में अमन की अहमियत का प्रचार-प्रसार करना बेहद जरूरी और प्रासंगिक हो गया है। इसलिए संयुक्त राष्ट्रसंघ, उसकी तमाम संस्थाएँ, गैर-सरकारी संगठन, सिविल सोसायटी और राष्ट्रीय सरकारें प्रतिवर्ष इस दिवस का आयोजन करती हैं। शांति का संदेश दुनिया के कोने-कोने में पहुँचाने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने कला, साहित्य, सिनेमा, संगीत और खेल जगत की विश्वविख्यात हस्तियों को शांतिदूत भी नियुक्त कर रखा है।
भारत अहिंसा एवं शांति को सर्वाधिक बल देने वाला देश है, यहां की रत्नगर्भा माटी ने अनेक संतपुरुषों, ऋषि-मनीषियों को जन्म दिया है, जिन्होंने अपने त्याग एवं साधनामय जीवन से दुनिया को अहिंसा एवं शांति का सन्देश दिया। महात्मा गांधी ने अहिंसा एवं शांति पर सर्वाधिक बल दिया। पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने विश्व में शांति और अमन स्थापित करने के लिए पाँच मूल मंत्र दिए थे, इन्हें ‘पंचशील के सिद्धांत’ भी कहा जाता है। मानव कल्याण तथा विश्व शांति के आदर्शों की स्थापना के लिए विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्था वाले देशों में पारस्परिक सहयोग के ये पंचशील के पाँच आधारभूत सिद्धांत हैं-एक दूसरे की प्रादेशिक अखंडता और प्रभुसत्ता का सम्मान करना, एक दूसरे के विरुद्ध आक्रामक कार्यवाही न करना, एक दूसरे के आंतरिक विषयों में हस्तक्षेप न करना, समानता और परस्पर लाभ की नीति का पालन करना एवं शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति में विश्वास रखना। माना जाता है अगर विश्व उपरोक्त पाँच बिंदुओं पर अमल करे तो हर तरफ चैन और अमन, अहिंसा एवं शांति का ही वास होगा।
‘विश्व शांति दिवस’ के उपलक्ष्य में हर देश में जगह-जगह सफेद रंग के कबूतरों को उड़ाया जाता है, जो कहीं ना कहीं ‘पंचशील’ के ही सिद्धांतों को दुनिया तक फैलाते हैं। एक शायर का निम्न शेर बहुत ही विचारणीय है-लेकर चलें हम पैगाम भाईचारे का, ताकि व्यर्थ खून न बहे किसी वतन के रखवाले का। आज कई लोगों का मानना है कि विश्व शांति को सबसे बड़ा खतरा साम्राज्यवादी आर्थिक और राजनीतिक कुचेष्टाओं से है। विकसित देश युद्ध की स्थिति उत्पन्न करते हैं, ताकि उनके सैन्य साजो-समान बिक सकें। यह एक ऐसा कड़वा सच है, जिससे कोई इंकार नहीं कर सकता। आज सैन्य साजो-सामान उद्योग विश्व में बड़े उद्योग के तौर पर उभरा है। आतंकवाद को अलग-अलग स्तर पर फैलाकर विकसित देश इससे निपटने के हथियार बेचते हैं और इसके जरिये अकूत संपत्ति जमा करते हैं।
हिंसा एवं अशांति विश्व की एक ज्वलन्त समस्या है। अहिंसा एवं शांति ही इस समस्या का समाधान है। भारतीय संस्कृति के घटक तत्वों में अहिंसा भी एक है। यहां सभी धर्मों के साधु-संन्यासी अहिंसा का उपदेश देते रहे हैं। इस संदर्भ में आचार्य श्री महाप्रज्ञ का कथन समस्या के स्थायी समाधान की दिशा प्रशस्त करने वाला है। उन्होंने अपनी अहिंसा यात्रा के दौरान बार-बार इस बात को दोहराया था कि वे अपनी यात्रा में हिंसा के कारणों की खोज कर रहे हैं। भगवान महावीर का दर्शन अहिंसा का दर्शन है। अहिंसा, समता, मैत्री, करुणा, संयम, उपशम आदि शब्द एक ही अर्थ को अभिव्यंजना देने वाले हैं।
अहिंसा सव्वभूयखेमंकरी-विश्व के समस्त प्राणियों का कल्याण करने वाली तेजोमयी अहिंसा की ज्योति पर जो राख आ गई, उसे दूर करने के लिए तथा अहिंसा की शक्ति पर लगे जंग को उतार कर उसकी धार को तेज करने के लिए अहिंसक समाज रचना की जरूरत है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दुनिया में विश्वशांति एवं अहिंसा की स्थापना के लिये प्रयत्नशील है, समूची दुनिया भारत की ओर आशाभरी नजरों से देख रही है कि एक बार फिर शांति एवं अहिंसा का उजाला भारत करें। हिंसा एवं अशांति के प्रतिरोध में शांति एवं अहिंसा दिवस का आयोजना के बारे में कुछ लोग कह सकते है-ंएक दिन शांति एवं अहिंसा-दिवस मना भी लिया तो क्या हुआ? लेकिन शांति एवं अहिंसा दिवस बनाने की बहुत सार्थकता है, उपयोगिता है, इससे अंतर-वृत्तियां उद्बुद्ध होंगी, अंतरमन से अहिंसा-शांति को अपनाने की आवाज उठेगी और हिंसा-अशांति में लिप्त मानवीय वृत्तियों में अहिंसा एवं शांति आएगी।

बेटे की तनख्वाह

(कश्मीरी कहानी)

संसारचन्द की गुलामी का यह आखिरी दिन था । चालीस साल की गुलामी बिताने के बाद आज वह आज़ाद होने जा रहा था । भीतर से वह एकदम पोला हो चुका था । गूदा खत्म और बाकी रह गया था ऊपर का छिलका । बस, छिलके को वह और अधिक रौंदवाना नहीं चाहता था । बहुत दिनों से उसे उस दिन की प्रतीक्षा थी जब उसके लड़के कुन्दनजी की नौकरी लग जाती और वह गुलामी के इस बन्धन से मुक्त हो जाता। उसकी मुराद अब पूरी हो चुकी थी । बी० ए० कर लेने तथा पूरे तीन साल बेरोजगार रहने के बाद अब उसका लड़का कुन्दनजी एकाउण्टेण्ट जनरल के ऑफिस में क्लर्क हो गया था । संसारचन्द की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। उसे लग रहा था जैसे उसके बेटे को कोई बादशाही या कोई ऊँची पदवी प्राप्त हो गई हो ।

बेटे को जिस दिन नियुक्ति पत्र मिला, संसारचन्द ने उसी दिन अपरान्ह अपने सेठ को एक महीने का नोटिस थमा दिया और कहा :”यह महीना पूरा हो जाने के बाद मैं नौकरी छोड़ना चाहता हूँ। खुदा साहब ने मेरी सुन ली, मेरे बेटे को नौकरी मिल गई। पूरे छ: सौ रुपये मिलेंगे । छः सौ उसके और पेंशन के मेरे दो सौ । हम दो बूढ़ों और दो लड़कों के लिए काफी हैं।”

संसारचन्द के घर में कुल चार सदस्य थे । वह खुद, पत्नी और दो लड़के । बड़ी लड़की का विवाह उसने सरकारी नौकरी से रिटायर होते ही छः वर्ष पहले कर दिया था। पिछले छः-सात सालों से वह हमारे साथ ही दुकान पर नौकरी कर रहा था । संसारचन्द इसे नौकरी नहीं गुलामी कहता था। इसलिए नहीं कि प्राइवेट नौकरी उसे पसन्द न थी, बल्कि वह समूचे जीवन को इसी नजर से देखता था । वह अक्सर कहा करता- ‘मैं तो भई, पैदाइशी गुलाम हूँ। मेरी तो सारी जिन्दगी गुलामी करते ही निकल गई। पहले सरकार की गुलामी करता रहा, अब सेठ की कर रहा हूँ।’ मगर अब उसे यकीन हो गया था कि उसकी गुलामी के दिन समाप्त हो चले हैं। उसके बेटे को नौकरी मिल गई है। अब उसे कोई चिन्ता नहीं है ।

महीने का आज आखिरी दिन था । संसारचन्द कुछ ज्यादा ही खुश नज़र आ रहा था। उसका बेटा कुन्दनजी आज अपनी पहली तनख्वाह घर लाने वाला था। पूरे छः सौ रुपये । यो संसारचन्द को खुद पेंशन के अलावा दुकान से चार सौ रुपये मिलते थे और इस तरह कुल मिलाकर उसकी अपनी आमदनी छ: सौ रुपये माहवार थी । मगर, बेटे के छः सौ रुपये उसे बहुत बड़ी रकम लग रही थी । सम्भवतः छः हजार और छः लाख के बराबर । मुझे लगता है कि चालीस साल पहले संसारचन्द जब अपनी पहली तनख्वाह घर लाया होगा, तब उसे उतनी खुशी नहीं हुई होगी जितनी आज कुन्दनजी को अपनी तनख्वाह घर लाते देख हो रही थी । मेरा वेतन संसारचन्द से ज्यादा न था, यही कोई चार सौ के लगभग, मगर मैं जैसे चाहता वैसे अपनी इच्छानुसार खर्च करता। घर-गृहस्थी का खर्च मेरे पिताजी और मेरे बड़े भाई चलाते थे । ऊपर से मैं अभी तक अविवाहित ही था । इसलिए घर की खास जिम्मेदारी भी मेरे ऊपर न थी। मुझमें और संसारचन्द में काफी अन्तर था । उसने एक लड़की की शादी कर दी थी और अभावग्रस्त जीवन बिताने पर भी ठीक-ठाक दहेज दिया था व लड़के वालों की हर फरमाइश पूरी कर दी थी । लड़की के सुख के लिए थोड़ा बहुत कर्ज भी लेना पड़ा था। यह बात अब सात साल पुरानी हो गई थी। इन सात सालों में उसने रिटायर होने के बाद एक दूसरे प्रकार की गुलामी स्वीकार की थी । घर चलाने के लिए, दो लड़कों को शिक्षा देने के लिए और आर्थिक दृष्टि से सुरक्षित अनुभव करने के लिए उसने न चाहते हुए भी सेठ की गुलामी स्वीकार कर ली थी । इधर, अब दो लड़कों में से एक की बड़ी दौड़-धूप के बाद, खूब गण्डे-ताबीज कराने के बाद नौकरी लगी थी। पिछले सात सालों से संसारचन्द इसी प्रतीक्षा में था और शायद सात हजार बार मुझसे बोला था: ‘मजीद भाई ! कुन्दनजी के नौकरी पर लगते ही मैं इस गुलामी से आज़ाद हो जाऊँगा । बहुत कर ली चाकरी !’

इसमें कोई सन्देह नहीं कि संसारचन्द अपने काम में काफी होशियार था। हमारे सेठजी की आज तक किसी भी एकाउण्ट जानने वाले कर्मचारी से नहीं बनी थी । मगर, संसारचन्द उनका विश्वास का आदमी बन गया था। उनके सभी व्यावसायिक राज़ों से वह वाकिफ हो चुका था । सेठजी जो भी करने को कहते- सच या झूठ, संसारचन्द उसे आँखें मींचकर चुपचाप कर डालता । उसका मानना था- “मैं तो आदेश का पालन करता हूँ, पाप-पुण्य का भागीदार तो सेठ खुद है। हम लोग तो भई चाकर हैं, गुलाम हैं। हमें तो पहले ही यह सजा मिल चुकी है। गुलामी और गरीबी दोनों सजाएँ ही तो हैं । सेल्स-टॅक्स व इन्कम टैक्स वालों के सामने गिड़गिड़ाना व बेचारगी प्रकट करना, अपने लिए नहीं सेठ की सुख-सुविधा के लिए, यह अभिशाप नहीं, सजा नहीं ता और क्या है ? इस सबकी एवज में सात तारीख को चार सौ रुपये मेहनताना लो, यह नैतिक और बौद्धिक दासता नहीं तो क्या है ? महीने की सात तारीख को तनख्वाह के रुपये आँखों से लगाकर व उन्हें चूमकर संसारचन्द अक्सर दोहराता–’मजीद भाई, खुदा से माँगना कि मेरे कुन्दनजी की नौकरी जल्दी से लग जाए। तब मैं हाथ-पैर पसारकर खूब आराम करूंगा। रिटायर होने के बाद भी मैं बेफ्रिकी की नींद कभी नहीं सोया । पहले यह सोचा करता था कि दफ्तर पहुँचने में देर न हो जाए, अफसर नाराज न हो जाये । आज भी कभी-कभी नींद उचट जाती है, यह सोचते-सोचते कि दुकान खुल गई होगी, सेठ घर से चल पड़ा होगा ।’

संसारचन्द की इन तमाम चिन्ताओं का आज अन्तिम दिन था । आज उसका बेटा अपना पहला वेतन घर लाने वाला था और इसी के साथ उस नोटिस का भी एक महीना होने वाला था जो संसारचन्द ने सेठजी को नौकरी से मुक्ति पाने के लिए दिया था। मुझे यकीन था कि आज संसारचन्द जिन्दगी में पहली बार चैन की नींद सोयेगा। अब वह किसी का चाकर नहीं, किसी का गुलाम नहीं । सरकारी नौकरी का मुझे खुद तो कोई अनुभव न था, मगर संसारचन्द की इस बात से मैं सहमत था कि प्राइवेट कर्मचारियों के लिए सेठ की नौकरी गुलामी से भी बदतर होती है। समान अधिकारों की बात वहाँ कल्पना मात्र है। कर्मचारी इन्सान नहीं सेठ का खरीदा हुआ गुलाम है। उसकी सात पीढ़ियां उसकी गुलाम हैं; उसके मुहल्ले वाले उसके गुलाम हैं । उसे दिन भर जाने क्या-क्या सुनना पड़ता है – ‘तू किस मुहल्ले का है बे ? ग्राहक को पटाने का तुझे कोई शऊर भी नहीं है, क्यों बे? खाएगा मन-भर मगर काम नहीं करेगा रत्तीभर, कौन-सी लद्धड़ बस्ती का है बे तू? तू तो किसी काम का नहीं है ।’आदि-आदि

वैसे तो हमारा सेठ उतना ढीठ नहीं था कि हर वक्त अपने मुलाजिमों को फटकारता रहता । उसने बहुत जगहें देखी थीं। दिल्ली, बंबई, कलकत्ता आदि वह महीने में दो-एक बार जाया ही करता था । यों तो वह खुले दिमाग का था पर फिर भी अपनी दुकान के मुलाजिमों से घर के छोटे-मोटे दो-एक काम करवा ही लेता था- राशन मंगवाना या नल-बिजली का बिल जमा करवाना, गैस-सिलेण्डर लाना, ले जाना, बच्चों को स्कूल ले जाना और लाना । सेठ का घर का काम करते मुझे बड़ी ग्लानि होती थी। मृत्यु-समान पीड़ा होती थी । मगर, दूसरे मुलाज़िम यह काम खुशी-खुशी कर लेते थे। खुद संसारचन्द भी उनमें शामिल था। उसका कहना था कि सेठ की नौकरी करो और उसके घर के दो-एक काम न करो, यह कैसे हो सकता है ? दुकान पर यदि काम नहीं है तो ठाले बैठे तनख्वाह नहीं देगा सेठ, कोई न कोई तो बेगार लेगा ही।

वे जाड़े के दिन थे । ठण्डे जमे हुए से। मौसम भारी-भारी और आकाश लटकता हुआ-सा । बर्फ और पानी से सड़कें लबालब । बिना लोगों के बाजार खाली जेबों की तरह। न कोई नई सूरत दिखाई दे और न आदमी और आदमी में कोई खास फर्क ही नजर आये । कनटोप लगाये, पट्टू के कोट पहने और ऊपर से ओवरकोट चढ़ाये सारे चेहरे व सारी सूरतें थकी-थकी व घिसी-घिसी-सी लगतीं, बिल्कुल संसारचन्द की तरह । मगर आज यह बात नहीं थी। पिछले एक महीने से संसारचन्द के चेहरे पर कुछ रौनक-सी आ गयी थी, क्योंकि यही एक महीना हुआ था कुन्दनजी को नौकरी पर लगे हुए । कुन्दनजी की नौकरी के आइने में संसारचन्द ने अपने सुखी-सुदृढ़ बुढ़ापे के जाने कितने मीठे-सच्चे ख्वाब देखे थे। उसके ये ख्वाब आज पूरे होने वाले थे। दुकान में आज उसका यह आखिरी दिन था। मेरा मन भारी हो चला था। इधर, पिछले कुछेक वर्षों से मेरा संसारचन्द के साथ एक अजीब तरह का रिश्ता व लगाव पैदा हो गया था। मगर, साथ ही मैं खुश भी था । सोचा, चलो अच्छा ही हुआ, आजाद हो गया इस गुलामी से । कहाँ तक घसीटता इस बूढ़ी काया को ? चालीस वर्षों से खट रहा है। अब इसे आराम की जरूरत है। बेटा आराम न देगा तो कौन देगा ? सभी मुलाजिमों से मिल-मिलाने के बाद संसारचन्द ने विदा ली और कुछ जल्दी ही घर चला गया ।

‘संसारचन्दजी, कभी बीच-बीच में दर्शन देते रहिएगा’ कहता हुआ मैं सड़क तक उनके साथ हो लिया । जिन्दगी का क्या भरोसा! जाने फिर कब मिलना हो ? मैं उस रात देर तक इस बात पर सोचता रहा।

अगले ही दिन संसारचन्द दुकान में पुनः उपस्थित हो गया। उसे देख हम सब को हैरानी हुई। वह सेठ से बोला–‘जनाब ! मैं अपना नोटिस वापस लेना चाहता हूँ।’

सारे कर्मचारी प्रसन्न हो गये । सेठ ज्यादा ही । मगर मैं नहीं । संसारचन्द को अलग ले जाकर मैंने पूछा- ‘क्यों संसारचन्दजी ? आप तो बेफिक्री की नींद सोने वाले थे, चालीस साल की थकान उतारनी थी, इस गुलामी से आज़ाद होना था ! कुन्दनजी को तनख्वाह नहीं मिली क्या ?’

‘हाँ जी, मिली।’ उसके गले से बड़ी मुश्किल से आवाज निकली।

‘तो फिर?’

‘भई तनख्वाह उसे मिली थी। मगर सारा-का-सारा घर लाने से पहले ही खर्च कर डाला । अपने लिए सूट-बूट और दूसरा सामान ले आया । ठीक ही कह रहा था वह । अपने स्वार्थ के कारण मैं असलियत समझ नहीं पा रहा था।’

‘क्या कहा उसने?’ मैंने बेताबी से पूछा ।

कहने लगा, ‘मेरे भी कई तरह के खर्चे हैं। मुझे भी दुनियादारी निभानी है। जैसे आज तक घर चल रहा था, वैसे अब क्यों नहीं चल सकता ?’

संसारचन्द की यह बातें सुनकर मैं उससे नजरें मिला न सका । ग्लानि की बदमज़गी मेरे अंग-अंग में फैल गई । मुझसे कुछ भी कहते न बना । आज महीने की पहली तारीख थी। सात तारीख को मुझे जैसे ही तनख्वाह मिली, मैंने सारे रुपये अपने बाप  के सामने रख दिए। अब्बू को विश्वास ही नहीं हुआ। उन्हें दौरा-सा पड़ा मेरी तनख्वाह देखकर !

कहानी के लेखक : बंसी निर्दोष  : अपनी विकास-यात्रा के दौरान कश्मीरी कहानी ने कई मंज़िलें तय कीं। ज़िन शलाका पुरुषों के हाथों कश्मीरी की यह लोकप्रिय विधा समुन्नत हुई, उनमें स्वर्गीय निर्दोष का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है ।निर्दोष की कथा-रचनाएं कश्मीरी जीवन और संस्कृति का दस्तावेज़ हैं । इन में मध्य्वार्गीय समाज की हसरतों और लाचारियों का परिवेश की प्रमाणिकता को केन्द्र में रखकर, जो सजीव वर्णन मिलता है, वह अन्यतम है। कश्मीरी परिवेश को ताज़गी और जीवंतता के साथ रूपायित करने में निर्दोष की क्षमताएं स्पृहणीय हैं। इसी से इन्हें ‘कश्मीरियत का कुशल चितेरा’ भी कहा जाता है ।

श्राद्ध पक्ष से जुड़ी एक संस्मरनात्मक रचना

शिबन कृष्ण रैणा

प्रायः लोग कहते हैं कि अपने दुःख को बांटने से कोई फायदा नहीं है।लोग एक कान से सुनते हैं और दूसरे से निकाल देते हैं।ऐसे लोग रहीम का वह दोहा भी कोट करते हैं जिसमें रहीम कहते हैं कि ‘रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय। सुनी इठलैहैं लोग सब, बांटी न लेंहैं कोय।अर्थात रहीम कहते हैं कि अपने मन के दुःख को मन के भीतर छिपा कर ही रखना चाहिए।दूसरे का दुःख सुनकर लोग इठला लेंगे,उसे बाँट कर कम करने वाला कोई नहीं होता।

बहुत पहले की बात है।मुझे अपने किसी ज़रूरी काम से दिल्ली के शास्त्री-भवन स्थित मानव-संसाधन-विकास मंत्रालय जाना पड़ा।मेरा कोई काम रुका हुआ था और सम्बंधित अधिकारी से मेरा मिलना ज़रूरी था।दिल्ली में जिस बस में मैं बैठा,ठीक मेरी बगल वाली सीट पर एक बुजुर्गवार पहले से बैठे हुए थे।बात चली और जब उनको पता चला कि मैं शास्त्री-भवन जा रहा हूँ और अमुक अधिकारी से मुझे मिलना है, तो उनका स्नेह जैसे मुझ पर उमड़ पड़ा।बोले “हो जायेगा”,हो जायेगा।काम हो जायेगा।” इससे पहले कि मैं उनसे कुछ पूछता, वे उधर से बोल पड़े “मेरे घर से हो के जाना।उनके लिए एक चिठ्ठी और प्रसाद दे दूंगा।वे दोनों चीज़े उन्हें दे देना।” बड़े शहरों की चालाकियां मैं ने सुन-पढ़ रखी थीं।सोचा इन महाशय के साथ उनके घर जाना ठीक रहेगा कि नहीं?तभी ख्याल आया मेरे पास ऐसा कौनसा खजाना है जो यह बुज़ुर्ग आदमी मुझ से छीन लेगा।दो-दो हाथ करने की नौबत भी अगर आन पड़ी तो भारी मैं ही पडूँगा।

बस रुकी और मैं उनके साथ हो लिया।उन्होंने अपने फ्लैट की बेल बजायी।भीतर से एक महिला ने दरवाज़ा खोला।’बहू,जल्दी से चाय बनाओ,इनको शास्त्री-भवन जाना है।दूर से आए हैं।वहां इनका कुछ काम है’।इस बीच उन्होंने फोन पर किसी से बात की।भाषा बंगला थी।मैं ने अंदाज़ लगाया कि ज़रूर मेरे बारे में ही बात की होगी क्योंकि जिस अधिकारी से मुझे मिलना था उसका सरनेम भी बंगाली था।

समय तेज़ी से बीत रहा था।चाय पीकर मैं वहां से चलने को हुआ।वे महाशय मुझे नीचे तक छोड़ने आए और हाथ में एक लिफाफा पकडाया यह कहते हुए कि इसमें चिट्ठी भी है और प्रसाद भी।यह सम्बंधित महानुभाव को दे देना।काम हो जाएगा।यह भी ताकीद की कि लौटती बार मुझ से मिल कर जाना।अब तक सवेरे के लगभग ग्यारह बज चुके थे।ओटो-रिक्शा लेकर मैं सीधे शास्त्री-भवन पहुंचा।आवश्यक औपचारिकतायें पूरी करने के बाद मैं सम्बंधित अधिकारी से मिला।वे मेरा केस समझ गये।उन्होंने मेरी फाइल भी मंगवा रखी थी।मेरे केस पर सकारात्मक/अनुकूल कार्रवाई चल रही है,ऐसा आश्वासन उन्होंने मुझे दिया।जैसे ही मैं उठने को हुआ, मुझे बुज़ुर्ग-महाशयजी का वह लिफाफा याद आया।सोचा, दूँ कि नहीं दूँ।मन मैं खूब विचार करने के बाद निर्णय लिया कि नहीं,यह सब ठीक नहीं रहेगा।जो होना होगा हो जाएगा।

शास्त्री-भवन से निकल कर मैं सीधे उन बुजुर्गवार से पुनः मिलने गया।वे जैसे मेरा इंतज़ार ही कर रहे थे।मुझे सीधे खाने की मेज़ पर ले गये।इस से पहले कि मैं कुछ कहता वे मेरे लिए थाली सजाकर उसमें तरह-तरह के पकवान रखने लगे।साग,पूड़ी,खीर,लड्डू आदि-आदि।मेरे से न कुछ कहते बना और न ही कुछ सुनते।वे मग्न-भाव से मुझे खिलाते रहे और मैं भी मग्न-भाव से खाता रहा।इस बीच मेरे कार्य की प्रगति सुनकर प्रसन्न हुए और दुबारा बोले कि काम हो जायेगा।जब उन्होंने मुझ से यह पूछा कि वह लिफाफा मैं ने दिया कि नहीं तो मेरे मुंह से ‘नहीं’ सुनकर वे मुस्कराए और बोले बहुत संकोची-स्वभाव के लगते हो।

वे मुझे एक बार फिर नीचे छोड़ने के लिए आए।मेरे यह कहने पर कि आपने बहुत कष्ट उठाया मेरे लिए,मैं आभार व्यक्त करता हूँ और ऊपर से इतना बढ़िया भोजन कराया,इसे मैं भूल नहीं सकता।उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए जो बात कही वह मुझे अभी तक याद है: ’वह व्यक्ति ही क्या जो दूसरों के काम न आए। सेवा-भाव से बढ़कर और कोई धर्म नहीं है इस संसार में।रही बात भोजन की।वह भी एक संयोगमात्र है।दाने-दाने पर खाने वाले का नाम लिखा होता है।आज मेरे पिताजी का श्राद्ध था।

माता पिता गुरु ईश्वर इंसान व इंसानियत पर आस्था हो

—विनय कुमार विनायक
जीवों की सृष्टि प्राकृतिक नैसर्गिक क्रिया है
जबकि नामकरण धर्माचरण व संस्कारवरण
आरोपित बाह्य विशेषण थोप दिया गया है!

अन्य जीव जन्तुओं की तरह मनुष्य भी
बेनाम बिना धर्म बिना संस्कार के जन्म लेते
किन्तु समस्त मानव जाति की खासियत है
कि मानव बिना नाम बिना धर्म के नहीं रहते!

पूरी दुनिया में जन्म लेते ही शिशु को दिए जाते
एक नाम एक जाति एक धर्माचरण एक पहचान
और वो सबकुछ जो जन्म से साथ नहीं थे उनके!

नाम जो जन्म के साथ नही आया, दूसरों ने दिया
उसपे आत्ममुग्ध हो गुमान कर आत्मचेतना से दूर गया
धर्म मजहब जो रब से नही मिला दूसरों से पाया
उसपर गुरूर करके आत्मवत् जीवों का जीना दूभर किया!

फिर तो लड़ाई आरंभ हो गई उन्हीं बाह्य चीजों के लिए
संज्ञा मिली संस्कृत की तो मानव संस्कृतिवादी हो जाते,
राम राम जैसे/रावण रावण जैसे/विभीषण विभीषण जैसे
कृष्ण कृष्ण जैसे/कंश कंश जैसे/दुर्योधन दुर्योधन के जैसे!

अगर नाम हो गौतम महावीर नानक गोविन्द शिवा का
तो सत्य अहिंसा शान्ति शौर्य देशभक्ति का मिला जज्बा,
अगर संज्ञा मिली अरबी फारसी तुर्की तो सुन्नी व सिया,
महमूद गजनवी मुहम्मद गोरी तैमूर बाबर औरंगजेब सा!

अगर नाम मिले रोमन यूरोपियन तो मसीही मसीहा,
फिर कुछ भी फर्क नही पड़ता है कि कोई भारतीय हो
या मध्य एशियाई खून या कि रोम यूनान ब्रिटेन का!

जब तुम्हारे राम नाम के कारण से तुम्हें कोई गाली देते,
तो भी तुम त्यागी राम सा अर्जित स्वर्ण लंका लौटा देते,
जब रावण बोल पुकारता कोई तुम अहंवश डंका बजा देते,
विभीषण जयचंद नाम से लोग भातृद्रोही की शंका करते!

जब तुम्हारे कृष्ण नाम को बदनाम करेगा कोई
उम्मीद है तुम गीता ज्ञान सुनाओगे, विश्वरुप दिखाओगे,
जब कंश दुर्योधन दुशासन नाम से पुकारे जाओगे
तो आशंका है इंच भर भूमि खातिर द्वंद्व युद्ध मचाओगे!

भले राम कृष्ण हनुमान शबरी के वंशज हो तुम
किन्तु नाम तुम्हारा महमूद गजनवी मुहम्मद गोरी
खिलजी तैमूर बाबर औरंगजेब रख दिया किसी ने
फिर तो तुम्हारा आदर्श वे ही होंगे पाकिस्तानी जैसे!

अस्तु नामकरण हो देशधर्म और संस्कृति के हिसाब से,
जीव दया अहिंसा करुणा भाव जगे मानवता विकास से,
पशुता की निशानी मिटे सात्विक सहिष्णु हो मिजाज से,
शिक्षा दीक्षा संस्कार मिले स्वदेशी सभ्यता के रिवाज से!

ब्रह्मचर्य गृहस्थ वानप्रस्थ संन्यास आश्रम व्यवस्था हो,
हिंसा बलात्कार भाव मिटे पराई नारी के प्रति श्रद्धा हो,
माता पिता गुरु ईश्वर इंसान व इंसानियत पर आस्था हो,
मानव हो मानव बनो खुद जिओ जीव जन्तु को जीने दो!
—विनय कुमार विनायक

बाघों के बाद मध्य प्रदेश को चीतों का स्टेट बनाने के लिए धन्यवाद शिवराज जी!

    डॉ मयंक चतुर्वेदी

भारत सरकार ने मध्य प्रदेश को विश्व की पहली अंतरमहाद्वीपीय बड़े जंगली जानवर की स्थानांतरण परियोजना के लिए चुना और देश से विलुप्त हो चुके चीतों को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा भारत के हृदय प्रदेश में बसाहट कार्य को पूर्णता प्रदान की गई। निश्चित ही मध्य प्रदेश के जो भी वासी हैं, उन्हें अवश्य ही इस बात के लिए गौरव होगा कि देश के तमाम बड़े राज्यों को छोड़कर मध्य प्रदेश के कूनो राष्ट्रीय उद्यान को इस कार्य के लिए चिह्नित किया गया। किंतु सच पूछिए तो इस पूरी योजना को अन्य राज्यों के बीच से मध्य प्रदेश लाने के लिए जितना प्रयास राज्य सरकार के अधिकारियों एवं स्वयं मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा किया गया है, उसके लिए उनको जितना धन्यवाद दिया जाएगा, आज वास्तव में वह कम ही होगा।

वस्तुत: राजनीतिक जीवन में कार्य करते हुए कई बार कुछ काम ऐसे भी हो जाते हैं, जोकि न केवल वर्तमान समय में बल्कि भविष्य के लिए भी एक दिशा तय कर देते हैं। इस दृष्टिकोण से भी देखें तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उनके शासन-प्रशासन द्वारा चीतों की बसाहट वाला प्रदेश बनाने के लिए किए यह प्रयास आनेवाली पीढ़ियों के लिए निश्चित ही उदाहरण प्रस्तुत करेगा कि कैसे अपने राज्य को हर स्थिति में समृद्ध बनाए जाने और रखने के लिए योजनाओं को बनाने के साथ उसकी सफलता के लिए पूर्ण मनोयोग से लगा जाता है। अब मध्य प्रदेश का चीता स्टेट बनना कई मायनों में अहम है।

कहना होगा कि देश के दिल मध्य प्रदेश के कूनो राष्ट्रीय उद्यान में चीतों को 70 वर्ष के लम्बे अंतराल के बाद पुन: बसाने का कार्य हुआ है। इससे पहले की स्थिति को देखें तो भारत में वर्ष 1952 में इस प्राणी को विलुप्त घोषित कर दिया गया था। तब से देश में कोई चीता दिखाई नहीं दिया, किंतु भारत सरकार के अथक प्रयासों से ‘चीता’ वर्ष 2022 में पुन: पुनर्स्थापित किया जा सका है। वस्तुत: इससे जुड़े तथ्यों को देखें तो भारत में चीतों के विलुप्त होने के बाद तत्कालीन केंद्र सरकार 1972 में वाइल्डलाइफ (प्रोटेक्शन) एक्ट लेकर आई थी, जिसमें कि किसी भी जंगली जानवर के शिकार को प्रतिबंधित कर दिया गया।

साल 2009 में राजस्थान के गजनेर में वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया (डब्ल्यूटीआई) की ओर से एक वर्कशॉप का आयोजन किया गया और इसी में सर्वप्रथम यह विषय आया कि कैसे पुन: भारत में चीतों की बसाहट संभव हो सकती है। बैठक में देश भर की कुछ जगहों को चिन्हित किया गया, राज्यों के स्तर पर पाया गया कि गुजरात, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ का वातावरण चीतों के लिए सबसे अधिक उपयुक्त है । इसके पीछे वन्यजीव वैज्ञानिकों का चीतों को लेकर किया गया जेनेटिक अध्ययन भी था जिसमें बताया गया कि कहां पर रखने से वे तेजी के साथ अपने कुनबे को भारत में बढ़ाने में सफल रहेंगे। किंतु आगे 10 वर्षों तक इस कार्य में कोई सफलता नहीं मिल सकी थी, फिर जब 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी को इसकी मंजूरी दी, तब जाकर प्रयोग के लिए अफ्रीकन चीते को भारत के जंगलों में लाए जाने को लेकर सार्वजनिक सहमति बन सकी।

प्राय: देखा यही गया है कि तेंदुए और चीते में भेद करना मुश्किल होता है। भारत में तेंदुए तो पर्याप्त हैं लेकिन एक बार चीते जंगलों से गायब हुए तो पुन: कहीं भी वन्य विभाग को दिखाई नहीं दिए थे। किंतु जब प्रधानमंत्री मोदी और प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के विचार इस संदर्भ में मिले तो चीते कई हजार किलोमीटर सुदूर अफ्रीका के नामीबिया से चलकर भारत में प्रकट हो गए हैं। बड़े मांसाहारी वन्यप्राणी की शिफ्टिंग की यह दुनिया की पहली परियोजना है। जिन चीतों को पार्क में छोड़ा गया है, उन्हें लाने के लिए भारत और नामीबिया सरकार के बीच 20 जुलाई 2022 को एग्रीमेंट हुआ था।

वस्तुत: बात सिर्फ चीतों को मध्य प्रदेश में बसाने की नहीं है। यह इससे भी आगे उस विश्वास की है, जिस पर स्वयं प्रधानमंत्री मोदी भरोसा करते हैं। उन्हें विश्वास है कि कभी विलुप्त प्राय: हो चुके बाघों की तरह ही मध्य प्रदेश में चीतों का इतना ध्यान रखा जाएगा कि वह भी आनेवाले समय में बाघों की सघन संख्या के बराबर आ जाएंगे या उनसे कुछ अधिक हो जाएंगे। यह गर्व की बात है कि देश में सबसे ज्यादा बाघ मध्य प्रदेश में है और मध्य प्रदेश को बाघ प्रदेश का दर्जा मिला हुआ है। मध्य प्रदेश में देश में सबसे अधिक संख्या में 526 बाघ हैं। इसके बाद कर्नाटक में 524 बाघ और उत्तराखंड 442 बाघ के साथ तीसरे नंबर पर है।

यहां याद आता है वह घोषणा पत्र, जो दुनिया के तमाम देशों के बीच न केवल पढ़ा गया था, बल्कि उसका पालन पूरी दुनिया के देशों को करना था, किंतु कभी ऐसा हुआ नहीं। प्रत्येक वर्ष विश्व बाघ दिवस 29 जुलाई को मनाए जाने का निर्णय वर्ष 2010 में सेंट पीटर्सबर्ग बाघ सम्मेलन में किया गया था। इस सम्मेलन में बाघ की आबादी वाले 13 देशों ने वादा किया था कि वर्ष 2022 तक वे बाघों की आबादी दोगुनी कर देंगे। किंतु भारत को छोड़कर कोई देश अपने लक्ष्य को हासिल करते हुए नहीं दिखा है। राज्य के स्तर पर बात की जाए तो मध्यप्रदेश बाघों के प्रबंधन में इस लक्ष्य को प्राप्त करने में उत्तरोत्तर हुए सुधारों के कारण से बहुत सफल रहा है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की संवेदनशील पहल के परिणामस्वरूप बाघों की संख्या में वृद्धि के लिये निरंतर प्रयास किए गए हैं । यही कारण है कि आज विश्व वन्य-प्राणी निधि एवं ग्लोबल टाईगर फोरम द्वारा प्रस्तुत आँकड़ों के अनुसार विश्व में आधे से ज्यादा बाघ भारत में रहते हैं।

यह मध्य प्रदेश के लिये गौरव की बात है कि भारतीय वन्य जीव संस्थान (वाईल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट) ने भारत में चीता पुनर्स्थापना के लिए किये गये संभावित क्षेत्रों के सर्वेक्षण में देश में चयनित दस स्थानों में राज्य के कूनो राष्ट्रीय उद्यान को सर्वाधिक उपयुक्त पाया। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान इस प्रोजेक्ट को लेकर इतने उत्साहित रहे कि वे अपने अधिकारियों के साथ लगातार इस विषय को लेकर समय-समय पर बैठते रहे।

कूनो राष्ट्रीय पार्क 750 वर्ग किलोमीटर में फैला है। साथ ही यह तीन हजार वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र दो जिलों श्योपुर और शिवपुरी तक विस्तारित है, इसलिए यह संपूर्ण क्षेत्र चीतों के स्वच्छंद विचरण के लिए उपयुक्त है। चीते को ग्रासलैंड यानी थोड़े ऊंचे घास वाले मैदानी इलाकों में रहना पसंद है। यहां चीतों के लिए खाने की कोई कमी नहीं है। जिन्हें चीते पसंद से खाते हैं, ऐसे चीतल जैसे जीव काफी बड़ी संख्या में यहां मौजूद हैं। इसके अलावा यहां चीतों के शिकार के लिए पहले ही 200 सांभर, चीतल अन्य जानवर खासतौर पर लाकर बसाए गए थे, जिनकी जनसंख्या समय के साथ बढ़ती रही। कूनो में सांभर, नीलगाय, जंगली सुअर, चिंकारा, चौसिंघा, ब्लैक बक, ग्रे लंगूर, लाल मुंह वाले बंदर, शाही, भालू, सियार, लकड़बग्घे, ग्रे भेड़िये, गोल्डेन सियार, बिल्लियां, मंगूज जैसे कई जीव भी मौजूद हैं।

वस्तुत: इससे चीते को शिकार का भरपूर मौका मिलेगा। इतना ही नहीं पार्क के बीच में कूनो नदी बहती है, इंसानों का आना-जाना भी इस संपूर्ण क्षेत्र में बहुत कम है, इसलिए ही विशेषज्ञों ने यहां पर चीतों के सर्वाइव करने की संभावना सबसे अधिक बताई है । वैसे मध्य प्रदेश अपनी वन्य संपदा एवं विविधता से भरे वन्य प्राणियों के लिए विश्व प्रसिद्ध है, इसलिए ही यहां देश-विदेश के पर्यटक भरपूर संख्या में आते हैं। ऐसे में अब बाघों के बाद चीता स्टेट बन जाने के बाद यह उम्मीद भी बंधी है कि मध्य प्रदेश इस परियोजना की सफलता के साथ ही दुनिया भर के देशों के लिए भी एक नजीर बनेगा कि कैसे सफल प्रबंधन से आप असंभव को भी संभव बना सकते हैं।

भारत को पुनः विश्व गुरु बनाने हेतु नागरिकों में “स्व” का भाव जगाना आवश्यक

किसी भी देश में सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए “स्व” आधारित सामूहिक दृष्टिकोण होना आवश्यक है। भारत के संदर्भ में “स्व” का मूल हिंदुत्व में ही निहित है, और भारत में “स्व” आधारित इतिहास मिलता है। इस दृष्टि से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम भी एक आध्यात्मिक एवं नैतिक कार्य था, क्योंकि यह भारत में पुनः सनातन धर्म को स्थापित करने हेतु किया गया संघर्ष था। महर्षि श्री अरबिंदो ने तो इसी कारण से उस समय पर कहा भी था कि “स्व” आधारित स्वतंत्रता संग्राम को हमारे जीवन के सभी क्षेत्रों में ले जाने की आवश्यकता है।

ऐसा कहा जाता है कि वर्ष 1498 में वास्को डिगामा पुर्तगाल से कालिकट में व्यापार करने नहीं आया था, बल्कि वह सम्भवतः ईसाई धर्म का प्रचार प्रसार करने के लिए आया था। अंग्रेजों के बारे में भी कहा जाता है कि वे व्यापार के लिए आए थे पर शायद उनका भी अप्रत्यक्ष कार्यक्रम भारत में ईसाईयत फैलाना ही था। वरना वे पादरियों को साथ क्यों लाए थे? ईसाई धर्म की पुस्तकें भी साथ क्यों लाए थे?

इसीलिए कहा जाता है कि  पहला स्वतंत्रता युद्ध वर्ष 1857 में नहीं हुआ था बल्कि इसके पूर्व भी इस प्रकार के युद्ध भारत में होते रहे हैं। रानी अबक्का (कालिकट) ने पुर्तगालियों से युद्ध किया था और यह विरोध वर्ष 1554 आते आते बहुत बढ़ गया था।  स्वतंत्रता संग्राम की मूल प्रेरणा भी “स्व” का भाव ही थी। यह युद्ध भी “स्व” के लिए ही था। इसलिए आज “स्व” के भाव को समाज में ले जाने के प्रयास हम सभी को करने चाहिए।

देश के इतिहास को कैसे बदला जाता हैं और इसका समाज पर कैसा प्रभाव पड़ता है यह भारत की स्थिति में स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आता है। अपने ही देश का गल्त इतिहास पढ़कर समाज निरुत्साहित हो जाता है। जैसा कि भारत के बारे में अंग्रेज कहते थे कि भारत   एक देश नहीं है बल्कि यह टुकड़ों टुकड़ों में बटां कई राज्यों का एक समूह है, क्योंकि यहां के विभिन्न भौगौलिक क्षेत्रों पर अलग अलग राजाओं का राज्य स्थापित था। अंग्रेज कहते थे कि उन्होंने इन समस्त राजाओं को एक किया और भारत को एक देश बनाया। जबकि देश के विभिन्न भूभाग पर अलग अलग राजा राज्य जरूर करते थे परंतु वे “स्व” के भाव को लेकर भारत को एक महान शक्ति बनाए हुए थे। देश के नागरिकों में नकारात्मक भाव विकसित करने वाले व्यक्ति, देश के नागरिकों का मानसिक और बौद्धिक विनाश करते हैं, और ऐसा अंग्रेजों ने भारत में किया था। आक्रांताओं एवं अंग्रेजों द्वारा सनातन हिंदू बुद्धिजीवी पुस्तकों का योजनाबद्ध तरीके से एक तरह का संहार किया गया था।

ब्रिटिश शासन काल में अंग्रेजों ने जाति और साम्प्रदायिक चेतना को उकसाते हुए प्रतिक्रियावादी ताकतों की मदद भी की थी। ईस्ट इंडिया कम्पनी शासनकाल में, पश्चिमी सभ्यता के आगमन के फलस्वरूप ईसाई मिशनरियों की गतिविधियां सक्रिय रूप में काफी व्यापक हो गई थीं। ये मिशनरियां ईसाइयत को श्रेष्ठ धर्म के रूप में मानती थी, और पश्चिमीकरण के माध्यम से वे भारत में इसका प्रसार करना चाहती थीं, जो उनके अनुसार धर्म, संस्कृति और भारतीयता के “स्व” में यहां के मूल निवासियों के विश्वास को नष्ट कर देगा। इस दृष्टि से ईसाई मिशनरियों ने उन कट्टरपंथियों का समर्थन किया, जिनका वैज्ञानिक दृष्टिकोण, उनके अनुसार, भारतीय देशी संस्कृति और विश्वासों तथा भारतीयता के “स्व” को कमजोर करने वाला था। साथ ही उन्होंने साम्राज्यवादियों का भी समर्थन किया, क्योंकि उनके प्रसार के लिए कानून और व्यवस्था एवं ब्रिटिश वर्चस्व का बना रहना आवश्यक था।

भारतीय नागरिकों में जब जब स्व की प्रेरणा जागी है तब तब भारत जीता है।  वर्ष 1911 में बंगाल में एक प्रेजीडेन्सी के विभाजन किए जाने के विरुद्ध पूरा भारत एक साथ उठ खड़ा हुआ था। जबकि, वर्ष 1947 में भारत के विभाजन को रोकने ने लिए संघर्ष क्यों नहीं हुआ। क्योंकि इस खंडकाल में भारत में नागरिकों के “स्व” के भाव को व्यवस्थित तरीके से अंग्रेजों ने कमजोर कर दिया था। अंग्रेजों ने सोची समझी रणनीति के अंतर्गत मुस्लिम अतिवादी संगठनों, जैसे मुस्लिम लीग, आदि को बढ़ावा दिया। कांग्रेस जो कभी हिंदू पार्टी मानी जाती थी उन्होंने अपने ऊपर इस लेबल को हटाने के लिए मुस्लिमों की जायज/नाजायज मांगे माननी शुरू कर दीं ताकि वह एक धर्मनिरपेक्ष (सेक्युलर) पार्टी कहलाए। हालांकि, इसके बाद कांग्रेस का झुकाव भी मुस्लिमों की ओर होता चला गया एवं कांग्रेस में हिंदुओं का तिरस्कार प्रारम्भ हो गया था। वर्ष 1923 आते आते कांग्रेस ने “वन्दे मातरम” गीत को अपने विभिन्न आयोजनों से बाहर कर दिया। नेताजी सुभाषचंद्र बोस को कांग्रेस में अप्रासंगिक बना दिया गया। स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरबिंदो, वीर सावरकर, आदि जिन्होंने भारत के नागरिकों में “स्व” के भाव को जगाया था उनके योगदान को भी व्यवस्थित तरीके से भुला दिया गया। भारत को भाषाई आधार पर भी विभिन्न टुकड़ों में बांटने के प्रयास हुए।

दुर्भाग्य से भारत, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी, अपने नागरिकों में “स्व” का भाव जगाने में असफल रहा है क्योंकि भारत में जिस प्रकार की नीतियों को लागू किया गया उससे देश के नागरिकों में देशप्रेम की भावना बलवती नहीं हो पाई एवं “स्व” का भाव विकसित ही नहीं हो पाया। अंग्रेजों एवं विदेशी आक्रांताओं ने अपने अपने शासनकाल में भारत की सांस्कृतिक विरासत पर जो आक्रमण किया था, उसका प्रभाव वर्ष 1947 के बाद भी जारी रहा। जबकि आजादी प्राप्त करने के बाद देश के नागरिकों में देशप्रेम की भावना विकसित कर “स्व” का भाव जगाया जाना चाहिए था क्योंकि भारत की महान संस्कृति के चलते ही भारत का आर्थिक इतिहास बहुत ही वैभवशाली रहा है। भारत को “सोने की चिड़िया” कहा जाता रहा है।

भारत में अब “स्व” पर आधारित दृष्टिकोण को लागू करने की सख्त आवश्यकता है। जापान, इजरायल, ब्रिटेन, जर्मनी आदि देशों ने भी अपने नागरिकों में “स्व” का भाव जगाकर ही अपने आपको विकसित देशों की श्रेणी में ला खड़ा किया है। भारत सहित उक्त चारों देशों ने भी एक तरह से वर्ष 1945 के द्वितीय विश्व युद्ध अथवा इसके पश्चात ही विकास प्रारम्भ किया है। भारत चूंकि वर्ष 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात अपने नागरिकों में “स्व” का भाव जागृत नहीं कर सका अतः वह आज भी विकासशील देश की श्रेणी में संघर्ष कर रहा है। “स्व” आधारित दृष्टिकोण के अभाव में भारत को आज जिस स्थान पर पहुंच जाना चाहिए था, वहां नहीं पहुंच सका है। अतः भारत को यदि पुनः विश्व गुरु बनना है तो अपने नागरिकों में “स्व” का भाव जगाना ही होगा। यह संकल्प आज हम सभी नागरिकों को लेना चाहिए।

भारत की स्वतंत्रता के 25 वर्ष पूर्ण होने पर देश में श्रीमती इंदिरा गांधी की सरकार ने सम्भवतः किसी प्रकार का भव्य कार्यक्रम आयोजित नहीं किया था। इसी प्रकार भारत की  स्वतंत्रता के 50 वर्ष पूर्ण होने पर श्री नरसिंहराव की सरकार ने भी सम्भवतः किसी भव्य कार्यक्रम का आयोजन नहीं किया था। परंतु अब स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूर्ण होने पर न केवल भारत बल्कि पूरे विश्व में ही भव्य कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। अब भारतीय विदेशों में भी भारत माता का नमन करने लगे हैं। धीमे धीमे ही सही, भारतीयों में “स्व” की भावना जागृत हो रही है। देश के नागरिकों में अब अपने पैरों पर खड़ा होने का भाव जागा है। इसके चलते भारत अब विकसित राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर हुआ है।

कुछ समय पूर्व ग्वालियर में आयोजित स्वर साधक शिविर में पधारे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक माननीय डॉ. मोहन भागवत जी ने एक कार्यक्रम में कहा था कि दुनिया विभिन्न क्षेत्रों में आ रही समस्याओं के हल हेतु कई कारणों से अब भारत की ओर बहुत उम्मीद भरी नजरों से देख रही है। यह सब भारतीय नागरिकों में भारतीयता के “स्व” के भाव के जागने के कारण सम्भव हो रहा है और अब समय आ गया है कि भारत के नागरिकों में “स्व” के भाव का बड़े स्तर पर अबलंबन किया जाय क्योंकि हमारा अस्तित्व ही भारतीयता के “स्व” के कारण है।

प्रहलाद सबनानी

चीन कर रहा पाक का नुकसान

वेद प्रताप वैदिक

चीन कहता है कि पाकिस्तान और उसकी दोस्ती ‘इस्पाती’ है लेकिन मेरी समझ में चीन ही उसका सबसे ज्यादा नुकसान कर रहा है। आतंकवादियों को बचाने में चीन पाकिस्तान की मदद खम ठोक कर करता है और इसी कारण पाकिस्तान को पेरिस की अंतरराष्ट्र्रीय वित्तीय संस्था (एफएटीएफ) मदद देने में देर लगाती है। इस समय पाकिस्तान भयंकर संकट में फंसा हुआ है। अतिवर्षा के कारण डेढ़ हजार लोग मर चुके हैं और लाखों लोग बेघर-बार हो चुके हैं।

मंहगाई आसमान छू रही है। बेरोजगारी ने लोगों के हौंसले पस्त कर दिए हैं। प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ इस आपदा का सामना बड़ी मशक्कत से कर रहे हैं। वे बाढ़-पीड़ितों की मदद के लिए दुनिया के राष्ट्रों के आगे झोली फैला रहे हैं लेकिन चीन ने अभी-अभी फिर ऐसा कदम उठा लिया है, जिसके कारण पाकिस्तान बदनाम भी हो रहा है और उसे अंतरराष्ट्रीय सहायता मिलने में भी दिक्कत होगी।

संयुक्तराष्ट्र संघ ने लश्करे-तयबा के कुख्यात आतंकवादी साजिद मीर को ज्यों ही अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित करने की कोशिश की, चीन ने उसमें अडंगा लगा दिया। यह प्रस्ताव भारत और अमेरिका लाए थे। सुरक्षा परिषद ने जब-जब पाकिस्तान के इन लोगों को अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित करके इन पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगाने की कोशिश की, चीन ने उसका विरोध कर दिया। गत माह अब्दुल रउफ अजहर और गत जून अब्दुल रहमान मक्की के मामले में भी चीन ने यही किया।

चीन यही समझ रहा है कि ऐसा करके वह पाकिस्तान का भला कर रहा है लेकिन पाकिस्तान की सरकार को पता है कि ऐसा होने से पाकिस्तान का नुकसान होने की पूरी संभावना है। इस वक्त अमेरिका ने पाकिस्तान को एफ-16 युद्धक जहाजों की मदद क्यों भेजी है? क्योंकि उसने काबुल स्थित अल-क़ायदा के आतंकवादी ईमान-अल-जवाहिरी को मारने में अमेरिका की मदद की थी।

यदि भारत पर हमला करने वाले आतंकवादियों की चीन इसी तरह रक्षा करता रहेगा तो पाकिस्तान को मदद देने में पश्चिमी राष्ट्रों का उत्साह ठंडा पड़ सकता है। पाकिस्तान के लिए यह कितनी शर्म की बात है कि चीन के उइगर मुसलमानों पर चीन इतना भयंकर अत्याचार कर रहा है और पाकिस्तान के सारे नेता उस पर चुप्पी मारे बैठे हुए हैं।

दूसरे शब्दों में चीन बहुत चालाकी से पाकिस्तान का दोतरफा नुकसान कर रहा है। एक तो पाकिस्तान को मिलनेवाली पश्चिमी मदद में चीन अडंगा लगा रहा है और दूसरा, उइगर मुसलमानों पर चुप्पी साधकर पाकिस्तान इस्लामी राष्ट्र होने के अपने नाम को धूल में मिला रहा है। साजिद मीर को मरा हुआ बताकर क्या पाकिस्तान अपने आप को झूठों का सरदार सिद्ध नहीं कर रहा है? बेहतर तो यह हो कि शाहबाज शरीफ हिम्मत करें और संयुक्त्राष्ट्र संघ का साथ दें। वे पाकिस्तान को बदनामी और कलंक से बचाएं।

करिश्माई व्यक्तित्व के धनी प्रधानमंत्री ‘नरेन्द्र मोदी’

दीपक कुमार त्यागी

भारत की राजनीति में चंद लोग ही ऐसी शख्सियतों में शुमार हैं, जो देश के आम जनमानस के बीच बहुत लंबे समय तक अपनी लोकप्रियता को कारगर रूप में बनाए रखने में सफल हो पाये हैं। ‘भारतीय जनता पार्टी’ जनता की अदालत में वर्ष 2014 से आम जनमानस के बीच लोकप्रियता के नित-नये कीर्तिमान बनाने के एक बेहद शानदार दौर से गुजर रही है, भाजपा अपने सबसे प्रभावशाली ब्रांड ‘नरेन्द्र मोदी’ के बलबूते देश के सभी विपक्षी दलों को चुनावी रणभूमि में आयेदिन जबरदस्त ढंग से शिकस्त दे रही है। आज देश में भाजपा प्रधानमंत्री ‘नरेन्द्र मोदी’ के बेहद करिश्माई व्यक्तित्व की बदौलत ही लगातार केन्द्र की सरकार में दूसरी बार भी भारी बहुमत के साथ काबिज है। वर्ष 2014 से देखें तो भाजपा ‘नरेन्द्र मोदी’ के नेतृत्व में जनता के बीच में अपनी बेहद मजबूत पैठ बनाने में कामयाब हो गयी है, प्रधानमंत्री ‘नरेन्द्र मोदी’ अपनी कार्यशैली के चलते जनता के द्वारा मिल रहे अपार प्रेम के दम पर भारतीय राजनीति में सफलता की गारंटी वाला सबसे बड़ा ब्रांड बन चुके हैं। आज देश के राजनीतिक गलियारों में सत्ता पक्ष व विपक्ष किसी के भी पास ‘नरेन्द्र मोदी’ के करिश्माई व्यक्तित्व का कोई भी तोड़ नहीं है, जनता की अदालत में ‘मोदी’ आज देश के सबसे बड़े विश्वसनीय राजनेता का चेहरा बन के सर्वोच्च पायदान पर पहुंच कर एक सफल बड़ा ब्रांड बन चुके हैं। गुजरात के वडनगर के एक बेहद साधारण एक आम परिवार में 17 सितंबर 1950 को जन्में ‘नरेन्द्र मोदी’ 17 सितंबर को 72 बरस के हो गए हैं, कभी स्टेशन पर एक चाय बेचने वाले बच्चे के रूप में अपने जीवन का सफ़र शुरू करने वाले ‘नरेन्द्र मोदी’ ने अपने मेहनत के बलबूते ही शून्य से शिखर तक की दूरी सफलतापूर्वक तय करते हुए, देश का प्रधानमंत्री बनने का तक का कार्य करके देश-दुनिया के इतिहास में दर्ज होने का कार्य किया है। हालांकि जीवन पथ पर चलते हुए आम आदमी की तरह ही ‘नरेन्द्र मोदी’ ने भी दुश्वारियों से परिपूर्ण अनेकानेक उतार-चढ़ाव देखें थे, लेकिन ‘नरेन्द्र मोदी’ ने हमेशा ही बिना घबराए धैर्य के साथ लक्ष्य को हासिल करने के लिए निरंतर संघर्ष करना जारी रखा, जिसके दम पर ही वह पहले तो गुजरात के मुख्यमंत्री बने और आज उस जुनून के दम पर ही ‘नरेन्द्र मोदी’ भारत के  सर्वोच्च पदों में से एक प्रधानमंत्री पद पर 26 मई 2014 से लगातार काबिज हैं, अब इस पद पर उनका दूसरा सफल कार्यकाल चल रहा है। हालांकि जिस वक्त 26 मई 2014 में गुजरात के मुख्यमंत्री से ‘नरेन्द्र मोदी’ ने पहली बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी, उस वक्त देश में एक अलग ही तरह की बेहद नकारात्मक राजनीतिक हालात वाला दौर चल रहा था, देश की जनता को लगता था कि पूर्ववर्ती सरकार में व्याप्त अव्यवस्थाओं के चलते भ्रष्टाचार, निर्णय लेने की क्षमता की भारी कमी, सिस्टम में बैठे लोगों में आत्मविश्वास की कमी, विभिन्न आर्थिक अपराधों से ‘नरेन्द्र मोदी’ उन लोगों को कैसे पार दिला पाएंगे। उस वक्त देश का एक आम देशवासी भी यह सोचता था कि प्रधानमंत्री ‘नरेन्द्र मोदी’ आम जनमानस के बीच में ‘देश में अब कुछ नहीं हो पाएगा’ कि नकारात्मक सोच को कैसे बदल पाएंगे। लेकिन प्रधानमंत्री ‘नरेन्द्र मोदी’ ने अपने करिश्माई व्यक्तित्व व बेहद दमदार कारगर कार्यशैली के दम पर देश में बहुत ही कम समय में नकारात्मक हालातों को बदलना शुरू कर दिया और आम जनमानस के बीच यह विश्वास जगाने का कार्य किया कि ‘मोदी है तो मुमकिन है’, उस वक्त बेहद कम समय में ही ‘नरेन्द्र मोदी’ प्रधानमंत्री के रूप में देश के आम लोगों की उम्मीदों पर खरे उतरे। वैसे तो उस वक्त बहुत सारे देशवासियों के मन में ‘नरेन्द्र मोदी’ को प्रधानमंत्री के रूप में लेकर के बहुत सारी शंकाएं व आकांक्षाएं दोनों ही बहुत ज्यादा थीं, लेकिन प्रधानमंत्री ‘नरेन्द्र मोदी’ ने भी लोगों की इन सभी शंकाओं व धारणाओं को बदलते हुए, उनकी उम्मीद व आकांक्षाओं पर खरा उतरते हुए, देश में अपने इर्दगिर्द घूमती हुई सत्ता के बेहद ताकतवर केंद्र बिंदु का निर्माण  करके इतिहास रचने का कार्य किया था। जिसके चलते ही आज प्रधानमंत्री ‘नरेन्द्र मोदी’ भाजपा के दिग्गज राजनेताओं के साथ, पार्टी के आम कार्यकर्ताओं से लेकर के, देश के आम जनमानस के एक बहुत बड़े वर्ग के बीच में भी बेहद लोकप्रिय हैं, उनका देश के आम जनमानस व भाजपा के बीच आज भी जबरदस्त ढंग से जलवा पूरी तरह से कायम है।

*”देश की राष्ट्रीय राजनीति में प्रधानमंत्री ‘नरेन्द्र मोदी’ की लोकप्रियता का ग्राफ आज भी आम जनता के बीच जबरदस्त रूप से कायम है। देश की आम जनता का एक बहुत बड़ा वर्ग आज यह मानता है कि देश के किसी भी राजनीतिक दल के पास आज भी ‘नरेन्द्र मोदी’ का कोई भी कारगर विकल्प मौजूद नहीं है। देश के राजनीतिक गलियारों में आज ‘नरेन्द्र मोदी’ को कुशल राजन‌ीतिज्ञ, कारगर रणनीतिकार और एक बेहद ही मजबूत व कुशल संगठनकर्ता माना जाता है। लोग मानते हैं कि प्रधानमंत्री ‘नरेंद्र मोदी’ अपने व्यक्तित्व के दम पर एक छोटे से कार्यक्रम को भी बहुत बड़ा इवेंट बनाकर आम लोगों के दिलोदिमाग पर छा जाना बहुत ही अच्छे से जानते हैं, जिसकी बानगी देश की जनता  आयेदिन देखती रहती है। देश में नरेन्द्र मोदी’ के करिश्माई व्यक्तित्व का ही कमाल है कि आज भी देश के आम लोग उनके द्वारा कहीं बातों को बेहद ध्यान से सुनते हैं और उन बातों पर बड़े पैमाने पर उनके दिशा निर्देशानुसार अक्षरशः अमल करते हुए, उनकी बातों का अनुसरण करना चाहते हैं। वैसे भी आज देश के अधिकांश राजनीतिक विश्लेषकों का मत है कि देश में किसी राजनेता कि इतनी अधिक लोकप्रियता कई दशकों के बाद देखने को मिली है।”*

यह प्रधानमंत्री ‘नरेन्द्र मोदी’ के करिश्माई व्यक्तित्व का ही कमाल था कि जो देश पिछले कई दशकों से केन्द्र में गठबंधन की सरकारों को बनाने में उल्टा सीधे समझौते करने में बुरी तरह से उलझा हो, उसको अचानक ‘नरेन्द्र मोदी’ के नेतृत्व में स्पष्ट बहुमत वाली केन्द्र सरकार वर्ष 2014 व 2019 में लगातार मिल जाती है। अब तो स्थिति यह हो गयी है कि ‘भारतीय जनता पार्टी’ के बारे में कुछ भी लिखते समय या बात करते समय जब तक प्रधानमंत्री ‘नरेन्द्र मोदी’ का जिक्र ना हो जाये तब तक वह बात अधूरी रहती है, आज ब्रांड ‘मोदी’ भाजपा का अभिन्न अंग बन गया है, भाजपा संगठन के दृष्टिकोण से इसका निहितार्थ यह है कि आम जनता के बीच ‘नरेन्द्र मोदी’ की यश, कीर्ति, लोकप्रियता बेहद व्यापक है, खुद ‘नरेन्द्र मोदी’  भी अपनी कार्यशैली के दम पर व्यक्तिगत रूप से एक कुशल राजनीतिज्ञ, कारगर रणनीतिकार व बेहतरीन संगठनकर्ता के तौर पर देश के राजनीतिक गलियारों में पूरी तरह से स्थापित हो गये हैं। भारत की राजनीति में चंद ही ऐसे राजनेता रहे हैं जिनके नाम पर इस तरह की उपलब्धि रही है, पिछले कई वर्षों से प्रधानमंत्री ‘नरेन्द्र मोदी’ उस क्लब में शुमार हैं और वह अपनी लोकप्रियता का नित-नया कीर्तिमान बनाते नज़र आते हैं। आज प्रधानमंत्री ‘नरेन्द्र मोदी’ की लोकप्रियता का आलम यह है कि ‘भारतीय जनता पार्टी’ उनके विचारों को ही अपनी  राजनीतिक नीतियों का आकार देकर के देश भर में अपने बेहद निष्ठावान कार्यकर्ताओं के माध्यम से आम जनमानस के बीच में प्रस्तुत करने का कार्य करती है। आज भाजपा अपने सबसे बड़े स्टार प्रचारक, सबसे विश्वसनीय संगठनकर्ता, कुशल व कारगर रणनीतिकार प्रधानमंत्री ‘नरेन्द्र मोदी’ के विचारों को ही धरातल पर मूर्त रूप देने के लिए कार्य करने की रणनीति पर काम करते हुए नज़र आती है, इसके चलते ही वह केन्द्र व राज्यों की सत्ता में बनी हुई है। वैसे भी देखा जाये तो देश की आम जनता ने वर्ष 2019 में जब ‘नरेन्द्र मोदी’ को पुनः केन्द्र में सरकार बनाने के लिए स्पष्ट बहुमत दिया था तब ही जनता की अदालत में यह तय हो गया था कि अब ‘नरेन्द्र मोदी’ ही भाजपा की नैया को पार लगाने वाले एक मात्र सफल राजनेता हैं, आज भाजपा को हर स्तर का चुनाव जीतने के लिए उनके चेहरे यानी कि ब्रांड ‘नरेन्द्र मोदी’ का उपयोग बेहद जरूरी हो गया है, आज देश में ‘नरेन्द्र मोदी’ के लोकप्रिय व करिश्माई व्यक्तित्व के दम पर ही ‘भारतीय जनता पार्टी’ को चुनावी रणभूमि में विजय प्राप्त होती है, तब ही तो लोग कहते हैं कि ‘मोदी है तो मुमकिन है’।