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समाज

बदलते भारत में बदलती शिक्षा

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उच्च शिक्षा के संबध में लोगो की राय जानने के लिए दिल्ली स्थित गैर सरकारी संगठन चरखा ने कुछ छात्रों से बात की। इस संबध में जम्मू विश्वविद्यालय के छात्र जफर कहते हैं कि "विश्वविद्यालय में एडमिशन के बारे पिछड़े क्षेत्रों में जागरूकता की कमी है। उनके पास जानकारी नहीं है कि कब प्रवेश परीक्षा आयोजित की जा रही है। हालांकि सरकार कई योजनाएं लाती है, लेकिन छात्रों को इन योजनाओं के बारे में सूचित करने का कोई रास्ता नहीं है। जम्मू जैसे क्षेत्र में कभी कभी सूचना इतनी देर से पहुंचती है कि छात्र उसके लाभ से वंचित रह जाते है”।

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कला-संस्कृति विधि-कानून

नवसंवत्सर एक नये सफर की शुरूआत

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नवसंवत्सर 'न्यू ईयर' जैसे केवल 12 महीने का समय नापने की एक ईकाई न होकर खगोलीय घटनाओं के आधार पर भारतीय समाज के लिए सामाजिक सांस्कृतिक एवं वैज्ञानिक तरीके से जीवन पद्धति का पथ प्रदर्शक है। यह केवल एक नए महीने की एक नई तारीख़ न होकर पृथ्वी के एक चक्र को पूर्ण कर एक नए सफर का आरंभ काल है। यह वह समय है जब सम्पूर्ण प्रकृति पृथ्वी को इस नए सफर के लिए शुभकामनाएँ दे रही होती है। जब नए फूलों और पत्तियों से पेड़ पौधे इठला रहे होते हैं , जब मनुष्य को उसके द्वारा साल भर की गई मेहनत का फल लहलहाती फसलों के रूप में मिल चुका होता है ( होली पर फसलें कटती हैं ) और पुनः एक नई शुरुआत की प्रेरणा प्रकृति से मिल रही होती है।

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कला-संस्कृति विविधा

सृष्टि की रचना का पहला दिन

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प्रचीन भारत और मघ्यअमेरिका दो ही ऐसे देश थे, जहां आधुनिक सैकेण्ड से सूक्ष्मतर और प्रकाशवर्ष जैसे उत्कृष्ठ कालमान प्रचलन में थे। अमेरिका में मय सभ्यता का वर्चस्व था। मय संस्कृति में शुक्रग्रह के आधार पर कालगणना की जाती थी। विश्वकर्मा मय दानवों के गुरू शुक्राचार्य का पौत्र और शिल्पकार त्वष्टा का पुत्र था। मय के वंशजो ने अनेक देशों में अपनी सभ्यता को विस्तार दिया। इस सभ्यता की दो प्रमुख विशेषताएं थीं, स्थापत्य कला और दूसरी सूक्ष्म ज्योतिष व खगोलीय गणना में निपुणता। रावण की लंका का निर्माण इन्हीं मय दानवों ने किया था। प्रचीन समय में युग,मनवन्तर,कल्प जैसे महत्तम और कालांश लधुतम समय मापक विधियां प्रचलन में थीं। समय नापने के कालांश को निम्न नाम दिए गए

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राजनीति

भाजपाः वैचारिक हीनग्रंथि से मुक्ति का समय

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लंबे समय के बाद भाजपा में अपनी वैचारिक लाइन को लेकर गर्व का बोध दिख रहा है। असरे बाद वे भारतीय राजनीति के सेकुलर संक्रमण से मुक्त होकर अपनी वैचारिक भूमि पर गरिमा के साथ खड़े दिख रहे हैं। समझौतों और आत्मसमर्पण की मुद्राओं के बजाए उनमें अपनी वैचारिक भूमि के प्रति हीनताग्रंथि के भाव कम हुए हैं। अब वे अन्य दलों की नकल के बजाए एक वैचारिक लाइन लेते हुए दिख रहे हैं। दिखावटी सेकुलरिज्म के बजाए वास्तविक राष्ट्रीयता के उनमें दर्शन हो रहे हैं। मोदी जब एक सौ पचीस करोड़ हिंदुस्तानियों की बात करते हैं तो बात अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक से ऊपर चली जाती है। यहां देश सम्मानित होता है, एक नई राजनीति का प्रारंभ दिखता है। एक भगवाधारी सन्यासी जब मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठता है तो वह एक नया संदेश देता है। वह संदेश त्याग का है, परिवारवाद के विरोध का है, तुष्टिकरण के विरोध का है, सबको न्याय का है।

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राजनीति समाज

मैकाले-पद्धति को शीर्षासन कराता महर्षि अरविन्द का शिक्षा-दर्शन

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“ वास्तविक शिक्षण का प्रथम सिद्धान्त है- ‘कुछ भी न पढ़ाना’ , अर्थात् शिक्षार्थी के मस्तिष्क पर बाहर से कोई ज्ञान थोपा न जाये । शिक्षण प्रक्रिया द्वारा शिक्षार्थी के मस्तिष्क की क्रिया को सिर्फ सही दिशा देते रहने से उसकी मेधा-प्रतिभा ही नहीं, चेतना भी विकसित हो सकती है, जबकि बाहर से ज्ञान की घुट्टी पिलाने पर उसका आत्मिक विकास बाधित हो जाता है ।”

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राजनीति

दिलचस्प दिन

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साठ के दशक के मध्य में अमेरिका में युवा आन्दोलन की एक धारा के रुप में हिप्पी उपसंस्कृति का जन्म हुआ और दुनिया भर के अनेको देशों में फैल गया। हिप्पियों के फैशन और मूल्य-बोध ने संगीत, फिल्म, साहित्य और शिल्प पर गहरा असर डाला। इस हिप्पी संस्कृति के अनेको पहलुओं का दुनिया भर के देशों की आज की संस्कृति की मुख्य धारा में समावेश हो गया है। साठ के दशक में दुनिया के विभिन्न देशों में प्रतिवाद और प्रतिरोध के स्वर गूँजते रहे थे। अमेरिका, यूरोप और एशिया के विश्वविद्यालयों के कैम्पस में छात्र अशान्त और उत्तेजित रहा करते थे।

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विविधा

राम जन्मभूमि का सच

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माननीय उच्चतम न्यायालय ने मन्दिर मस्जिद विवाद को आपसी सहमति से सुलझाने का नवीनतम निर्देश जारी किया है। जहां हिन्दू संगठनों ने इस सकारात्मक पहल का स्वागत किया है। कुछ मुस्लिम संगठन भी इसे आपसी रजा मन्दी से हल किये जाने के पक्ष में हैं, परन्तु कुछ कट्टर पंथी लोग इसका समाधान चाहते ही नहीं हैं और न्यायालय के निर्णय को ही प्रमुखता दे रहें हैं। इतना ही नहीं वामपंथी इतिहासकारों ने अयोध्या के मन्दिर मस्जिद मुद्दे पर इलाहाबाद हाई कोर्ट को गुमराह करने की पहले भी कोशिश की थी। अदालत द्वारा निर्णय दिए जाने के बाद भी इरफान हबीब और उनकी टीम सच मानने को तैयार नहीं रहे। अयोध्या मुद्दे पर राजनेताओं से कृतकत्य होने के चक्कर में इतिहासकारों ने इस स्पष्ट विषय को और विवादित बना दिया है। 6 दिसंबर को ढांचा गिरने के उपरांत जब न्यायालय के संरक्षण में खुदाई हुई, उसमें मंदिरों का मलवा, खंडित मूर्तियां एवं फर्श के अवशेष निकले थे। लेकिन तथाकथित इतिहासकारों ने तब भी विवाद को सुलझने नहीं दिया था।

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विविधा

संपूर्ण स्वतन्त्रता : सांस्कृतिक स्वतंत्रता की ओर भारतीय समाज

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क्यों नहीं हम फिर से उस स्थान पर अवस्थित हो सकते जो स्थान हमारा था । हमें पूरा अधिकार है उसे प्राप्त करने का एवं इसी में विश्व का भला है। हमने फिर से उस सांस्कृतिक विरासत को प्राप्त करना है जहाँ स्वय के धर्म, संस्कृति, भाषा साहित्य का सम्मान हो उन पर गर्व हो। जगत यह जान सके कि धर्म प्रतिष्ठा धर्म पर चल कर होती है न कि जिहाद का भय दिखा कर या सेवा के आड़ में धर्म परिवर्तन करा कर भारतीय संस्कृति की पूर्ण स्वतंत्रता के लिए प्रत्येक भारतीय कटिबद्ध है ।

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