Category: समाज

समाज सिनेमा

भारतीय सिनेमा में मुस्लिम प्रभाव को बढ़ावा

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सलमान खान, शाहरुख खान, आमिर खान, सैफ अली खान, नसीरुद्दीन शाह, फरहान अख्तर, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, फवाद खान जैसे अनेक नाम हिंदी फिल्मों की सफलता की गारंटी बना दिए गए हैं। अक्षय कुमार, मनोज कुमार और राकेश रोशन जैसे फिल्मकार इन दरिंदों की आंख के कांटे हैं। तब्बू, हुमा कुरैशी, सोहाअलीखान और जरीनखान जैसी प्रतिभाशाली अभिनेत्रियों का कैरियर जबरन खत्म कर दिया गया क्योंकि वे मुस्लिम हैं और इस्लामी कठमुल्लाओं को उनका काम गैरमजहबी लगता है। फिल्मों की कहानियां लिखने का काम भी सलीम खान और जावेद अख्तर जैसे मुस्लिम लेखकों के इर्द-गिर्द ही रहा जिनकी कहानियों में एक भला-ईमानदार मुसलमान, एक पाखंडी ब्राह्मण, एक अत्याचारी - बलात्कारी क्षत्रिय, एक कालाबाजारी वैश्य, एक राष्ट्रद्रोही नेता, एक भ्रष्ट पुलिस अफसर और एक गरीब दलित महिला होना अनिवार्य शर्त है।

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समाज

अहिंसा है सुखी समाज का आधार

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शोषण विहीन समाज की रचना के लिए संग्रह स्पर्धा और उपभोग वृत्ति पर रोक आवश्यक है। इससे न केवल स्वयं के जीवन में संतुलन एवं संयम आएगा, समाज में भी संतुलन आएगा। शोषण की प्रवृत्ति पर रोक लगेगी और इस चक्की में पिस रहे लोगों को राहत मिलेगी। इसलिए भगवान महावीर ने अपरिग्रह को धर्मयात्रा का अभिन्न अंग माना। अपरिग्रह का अर्थ है संग्रह पर सीमा लगाना। इससे शोषण की आधारशिला कमजोर होगी तब हिंसा का ताण्डव नृत्य भी कम होगा। अपरिग्रह के बिना अहिंसा की सही संकल्पना हो ही नहीं सकती और न इसकी सही अनुपालना हो सकती है।

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शख्सियत समाज

जयप्रकाश नारायण और नानाजी देशमुख – एक तुलनात्मक विश्लेषण

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नानाजी अक्सर राजा राम की तुलना में वनवासी राम की अधिक प्रशंसा करते थे । उनका कहना था कि राजा के रूप में राम इसलिए अधिक सफल हुए, क्योंकि उन्होंने वन में रहते हुए गरीबी को जाना, समझा | इसीलिए नानाजी ने भी राजनीति से विराम लेकर गरीब वर्गों के उत्थान के लिए अपना जीवन खपाने का निर्णय लिया । दीन दयाल शोध संस्थान भी बनाया तो चित्रकूट में, जहाँ वनवास के दौरान भगवान राम ने अपना समय व्यतीत किया । अपने चित्रकूट प्रवास के दौरान नानाजी ने वहां के पिछड़ेपन, अशिक्षा और अंधविश्वास में डूबी जनता का मूक रुदन अनुभव किया ।

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समाज

सुधार क्यों नहीं चाहता मुस्लिम समुदाय

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यह कैसी प्रथा है कि फोन पर, ई-मेल से, एसएमएस से या पत्र से भी तीन बार तलाक-तलाक-तलाक कह देने भर से संबंध खत्म कर लिया जाता है। मुस्लिम महिला को इसमें समानता का अधिकार कहाँ है? उसके पास तो अपना पक्ष रखने का अवसर भी नहीं है। इस कुरीति का समर्थन करने के लिए यह कहना कि यदि पुरुष के पास तीन तलाक का अधिकार नहीं होगा, तब वह महिला से छुटकारा पाने के लिए उसकी हत्या कर देगा। इसलिए तीन तलाक महिलाओं के हक में है, क्योंकि इससे उनका जीवन सुरक्षित होता है। यह कठमुल्लापन नहीं, तो क्या है?

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