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प्रतिस्पर्धी युग में अंक जीवन नहीं हैं 

देश में सीबीएसई और विभिन्न राज्यों की अन्य बोर्ड परीक्षाओं के रिजल्ट(परिणाम) लगभग-लगभग मई माह में घोषित हो चुके हैं। जिन बच्चों ने इन बोर्ड परीक्षाओं में अच्छे अंक हासिल किए हैं, वे बच्चे और उनके अभिभावक बहुत ही खुश हैं। लेकिन जो बच्चे किसी कारणवश बोर्ड(दसवीं और बारहवीं) की परीक्षाओं में अच्छे अंक हासिल नहीं कर पाए हैं अथवा अनुत्तीर्ण हो गये हैं, उन बच्चों व बच्चों के अभिभावकों के चेहरों पर चिन्ता की अनेक लकीरें हैं, तो वहीं दूसरी ओर वे नाखुश व निराश नजर आ रहे हैं। परीक्षा परिणाम आने पर अच्छे अंक हासिल नहीं कर पाने पर बच्चों के साथ ही अभिभावकों का नाखुश होना स्वाभाविक, लाज़िमी है, लेकिन जो बच्चे बोर्ड में अपनी अच्छी परफोर्मेंस नहीं दे पाए हैं,उनको हाल फिलहाल माता-पिता,अभिभावकों और शिक्षकों के साथ की बहुत जरूरत है। इस समय उन्हें(बच्चों को) मानसिक सपोर्ट देने की जरूरत है। अभिभावकों को अपने बच्चों को यह समझाना चाहिए कि बोर्ड की परीक्षाएं या कोई भी परीक्षा जीवन की अंतिम परीक्षा नहीं होती है। उन्हें अपने बच्चों को यह समझाना चाहिए कि असफलताएं हमारे जीवन का हिस्सा होतीं हैं और असफलताएं ही हमें जीवन में सफल होना सिखातीं हैं। ख़राब परिणाम देखकर कभी-कभी बच्चे अतिवादी कदम(आत्महत्या तक) उठा लेते हैं और वे घोर तनाव से और अवसादग्रस्त हो जाते हैं। जीवन उन्हें नीरस-नीरस सा लगने लगता है, ऐसे में अभिभावक और शिक्षकों को यह चाहिए कि वे अपने बच्चों को किसी भी हाल और परिस्थितियों में निराश नहीं होने दें, और उनमें सकारात्मक सोच विकसित कर उन्हें लगातार प्रेरित व प्रोत्साहित करें। वास्तव में, असफलता ही सफलता की असली सीढ़ी है, जो हमें सिखाती है और हमारे विकास में मदद करती है ।असफलता से हमें सीखने और आगे बढ़ने का मौका मिलता है, और इससे हम मजबूत बनते हैं। हमें बच्चों को यह सिखाना चाहिए कि असफलता मिलने पर निराश नहीं होना है, बल्कि इससे हमें सीखना चाहिए और आगे बढ़ना चाहिए।सकारात्मक दृष्टिकोण बहुत जरूरी है।असफलता को एक अवसर के रूप में देखना चाहिए, जिससे हम और मजबूत बन सकते हैं। हमें बच्चों को ठोस योजना बनाने में मदद करनी चाहिए और उन्हें यह बताना चाहिए कि वे अपने लक्ष्य निर्धारित करें, योजना बनाएं, और योजनाओं को सफल करने में जुट जाएं। कोई भी असफलता हमें अपनी कमजोरियों को समझने और सुधार करने का मौका देती है। हम अपने बच्चों को यह बताएं कि जीवन में आत्म-विश्वास का होना बहुत ज़रूरी है। वास्तव में, असफलता से सीखते हुए हम और मजबूत बनते हैं और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित होते हैं।असफलता से हमें अनुभव मिलता है जो हमें भविष्य में बेहतर तरीके से तैयार करता है।असफलता से हमें एक नया दृष्टिकोण मिलता है, जो हमारी प्रगति पथ को नई दिशा देता है। बहरहाल,मई जून का समय हमारे यहां स्कूली नतीजों के साथ ही विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं के परिणाम आने का भी समय होता है और ऐसी संवेदनशील परिस्थितियों में बच्चों को सकारात्मक वातावरण प्रदान करने, उन्हें संघर्ष करने का काम केवल माता-पिता, अभिभावक और शिक्षक ही कर सकते हैं। वास्तव में, माता-पिता, अभिभावकों को बच्चे की कोशिशों की सराहना करनी चाहिए, उन्हें नकारात्मकता से दूर रखना चाहिए, और उनकी रुचियों को प्रोत्साहित करना चाहिए । याद रखिए कि बच्चे की मेहनत को पहचानना और उसे सफल बनाने में मदद करना, यह महत्वपूर्ण है। अभिभावकों को यह चाहिए कि वे अपने बच्चों को उनकी इच्छा और रूचि के हिसाब से सही गाइडेंस लेकर ही विषयों का चुनाव करवाए। अभिभावकों को बच्चों पर विषय विशेष के चुनाव को लेकर कोई भी दवाब नहीं डालना चाहिए। बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि 

अपेक्षित अंक न आने पर बच्चे टूट जाते हैं और माता-पिता की नाराज़गी से उनका आत्मविश्वास और भी गिर जाता है। यहां पाठकों को बताता चलूं कि हाल ही में अलीगढ़ के एक बेसिक शिक्षा अधिकारी ने अपने बेटे की सीबीएसई कक्षा 12वीं की मार्कशीट को सोशल मीडिया पर शेयर किया। उनके बेटे को मात्र 60% अंक मिले, लेकिन इसके बावजूद उन्होंने ना केवल बेटे को बधाई दी, बल्कि उन्होंने अपने बच्चे के लिए मोटिवेशनल संदेश-‘जीवन को कहीं से भी, कभी भी शुरू किया जा सकता है। मेरे बेटे ने 60% अंकों के साथ इंटरमीडिएट परीक्षा उत्तीर्ण की है। बेटे को ढेर सारी बधाई और शुभकामनाएं।’ लिखा। उन्होंने आगे लिखा कि-‘रिजल्ट नहीं, नजरिया मायने रखता है।’ बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि कोई भी माता पिता बच्चों से बहुत सी अपेक्षाएं रखता है, लेकिन दुखद बात यह है कि हम सफलताओं या असफलताओं की स्वीकार्यता के प्रति नयी पीढ़ी को मानसिक रूप से तैयार नहीं करते।हम हमेशा अपने बच्चों की तुलना दूसरों बच्चों से करते हैं, लेकिन तुलना दूसरों से नहीं की जानी चाहिए, क्यों कि प्रत्येक बच्चे में व्यक्तिगत अंतर पाये जाते हैं। परीक्षा परिणाम के समय बच्चों को संबल प्रदान किया जाना बहुत आवश्यक और जरूरी है। हमें यह चाहिए कि हम अपने बच्चों को यह समझाएं कि किसी  परीक्षा विशेष में असफल होना जीवन में असफल होना नहीं है। होना तो यह चाहिए कि हम अपने बच्चों को असफलताओं का सामना करना सिखाएं। वास्तव में जब हम दिशाहीन होते हैं, हमारे लक्ष्य निर्धारित नहीं होते हैं, तभी हम असफल होते हैं। ज्ञानीजन कहते हैं कि अगर हम अपने जीवन को एक बड़ी संभावना को हासिल करने की दिशा में एक क़दम बना लें, तो फिर असफलता नाम की कोई चीज़ रहेगी ही नहीं। सच तो यह है कि  सफलता किसी और का विचार है। हमारे धर्म, समाज और  संस्कारों ने हमें ऐसा मानने के लिये प्रशिक्षित किया है।वह जो इस जीवन को एक बड़ी संभावना को पाने की दिशा में एक शुरुआती क़दम के रूप में देखता है, उसके लिये असफलता जैसी कोई चीज़ ही नहीं है। हम हमारे जीवन की सभी परिस्थितियों का उपयोग अपने आपको ज्यादा मजबूत और बेहतर बनाने के लिये कर सकते हैं, या फिर बैठ कर रो सकते हैं। हमारे पास यही विकल्प हैं और सफलता और असफलता हमारे स्वयं पर निर्भर है। हम अपने जीवन को जैसा चाहें वैसा बना सकते हैं। वास्तव में, असफलता जैसी कोई चीज़ है ही नहीं। ये बस एक विचार है, क्योंकि सफलता भी एक मूर्खता से भरा विचार ही है। हमें यह चाहिए कि हम दुनिया को बदलने की बजाय अपनी इस सोच को बदलें। अगर हम बस वही बदल देते हैं तो सब कुछ बढ़िया हो जायेगा। 

सुनील कुमार महला

अंतिम सांसे गिन रहा है नक्सलवाद।

शिवानन्द मिश्रा

कौन था बसवराजू? कोई छोटा-मोटा नक्सली नहीं, नक्सलियों का हाफिज सईद था बसवराजू। सुरक्षाबलों ने जंगल में घुसकर किया ढेर।

शीर्ष माओवादी नेता बसवराजू को सुरक्षाबलों ने किस रणनीति से किया ढेर? अब अंतिम चरण में है नक्सलवाद?

150 जवानों का हत्यारा, 1 करोड़ का इनाम, 70 घंटे का ऑपरेशन, आतंक के पर्याय नक्सली बसवराजू का खात्मा?

CM को मारने का बनाया था प्लान? विधायक की हत्या का जिम्मेदार। नक्सली हमलों का मास्टरमाइंड था बसवराजू ?

नक्सली पृष्ठभूमि:- बसवराजू का जन्म आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम जिले के जियन्नापेटा गांव में हुआ था। उसने वारंगल के रिजनल इंजीनियरिंग कॉलेज से बीटेक की डिग्री प्राप्त की थी।

नक्सली आंदोलन में प्रवेश: 1970 के दशक में बसवराजू ने नक्सली आंदोलन से जुड़ाव शुरू किया और 1980 के दशक में पूर्णकालिक सदस्य बन गया। वो पिछले 35 वर्षों से माओवादी संगठन की केंद्रीय समिति का सदस्य था।

प्रशिक्षण और रणनीति: बसवराजू ने श्रीलंका के तमिल संगठन लिट्टे (LTTE) से गुरिल्ला युद्ध और विस्फोटकों की ट्रेनिंग ली थी। वह संगठन के लिए बम बनाने और गुरिल्ला युद्ध की रणनीति तैयार करने में माहिर था।

महासचिव पद: नवंबर 2018 में बसवराजू ने मुप्पला लक्ष्मण राव (गणपति) के स्थान पर सीपीआई (माओवादी) के महासचिव का पद संभाला। यह माओवादियों का शीर्ष नेता था।

नंबाला केशव राव उर्फ बसवराजू पर छत्तीसगढ़ सरकार ने एक करोड़ रुपए का इनाम घोषित किया था। आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और महाराष्ट्र में भी उस पर अलग-अलग इनाम घोषित थे। ये 3 से 5 लेयर की सुरक्षा में रहता था। इसके साथ हर वक्त 50 बंदूकधारी रहते।

सुरक्षाबलों ने किया ढेर-

खुफिया सूचना थी कि बसवराजू कई सदस्यों के साथ नारायणपुर-बीजापुर-दंतेवाड़ा ट्राई-जंक्शन पर डेरा डाले हुए है। इसके बाद चार जिलों नारायणपुर, बीजापुर, दंतेवाड़ा और कोंडागांव की डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड, एसटीएफ और अन्य इकाइयों ने संयुक्त ऑपरेशन शुरू किया।

70 घंटे चले इस अभियान में एक बड़े जंगल क्षेत्र की घेराबंदी की गई और सुरक्षा बल बसवराजू के सुरक्षा घेरे को तोड़ने में सफल रहे। उसके मांद में घुसकर उसे ढेर कर दिया गया। इस ऑपरेशन में कुल 27 नक्सली मारे गए हैं।

बसवराजू के कार्यकाल में हुए दर्दनाक नक्सली हमले:

  • 2003 में अलीपीरी बम विस्फोट में आंध्र प्रदेश के तत्कालीन सीएम चंद्रबाबू नायडू की हत्या का नाकाम प्रयास
  • 2010 में दंतेवाड़ा हमले में 76 सीआरपीएफ जवानों की शहादत
  • 2013 में झीरम घाटी हमले में वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं सहित 27 लोगों की मौत
  • 2019 में श्यामगिरी हमले में बीजेपी विधायक भीमा मंडावी सहित पांच लोगों की मौत
  • 2020 में सुकमा नक्सली हमले में 17 सुरक्षाकर्मी शहीद
  • 2021 में बीजापुर में उस साल का सबसे बड़ा नक्सली हमला। जिसमें 22 जवान शहीद।

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने हाल ही में घोषणा की है कि भारत सरकार का लक्ष्य 31 मार्च 2026 तक देश को नक्सलवाद से पूरी तरह मुक्त करना है। उन्होंने यह भी बताया कि नक्सल प्रभावित जिलों की संख्या 12 से घटकर 6 रह गई है।

गृहमंत्री अमित शाह ने यह भी स्पष्ट किया कि जो नक्सली आत्मसमर्पण करेंगे, उन्हें मुख्यधारा में शामिल किया जाएगा जबकि हथियार उठाने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी।

बसवराजू का अंत केवल एक व्यक्ति की मौत नहीं, बल्कि उस रणनीतिक सोच और नेतृत्व का अंत है, जिसने दशकों तक “लाल गलियारे” में हिंसा की आग जलाए रखी।

उसके निधन के बाद माओवादी संगठन एक नेतृत्व संकट से जूझ रहा है जिससे पूरे क्षेत्र में असमंजस और खलबली की स्थिति उत्पन्न हो गई है।

शिवानन्द मिश्रा

बदलते विश्व में होगी भारत की बड़ी भूमिका, बशर्ते हम पिछलग्गू ना बनें

ट्रंप ने तोड़ा दिलतो यूरोप को आई भारत की याद

ईयू-यूके में हुआ ताजा समझौता ट्रंप के तानों से उपजा एक बड़े बदलाव का प्रतीक है। यह समझौता कोई रीसेट नहीं, बल्कि एक हिसाब है। ट्रम्प के फैसलों ने यूरोप को करारा झटका और सदियों का सबक दिया है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद का विश्व, जो अमेरिका के इर्द-गिर्द घूमता था, अब बदल रहा है। इसीलिए यूरोप को इंडिया की याद आ रही है। सवाल है कि क्या भारत तैयार है? 

ओंकारेश्वर पांडेय

बीते हफ्ते जब भारत-पाकिस्तान युद्ध विराम के बारूदी गुबार के बाद जीत हार के दावे और नुकसान के आकलन कर रहे थे और वाशिंगटन में बैठे राष्ट्रपति ट्रंप बार बार सीज फायर कराने का श्रेय लेने की कोशिश कर रहे थे, ठीक उसी समय ब्रुसेल्स में यूरोप और ब्रिटेन इतिहास के एक नये अध्याय पर हस्ताक्षर कर रहे थे, एक ऐसा इतिहास जो खामोशी से एक ध्रुवीय विश्व को बहुध्रुवीय दुनिया की तरफ ले जा रहा था। 19 मई 2025 को ब्रुसेल्स की सर्द हवाओं में यूरोपीय संघ और ब्रिटेन ने जो रणनीतिक समझौता किया, उसमें सुरक्षा, रक्षा, यूक्रेन समर्थन, प्रवास, जलवायु, शिक्षा और व्यापार तो शामिल था ही, इसमें अमेरिकी छत्रछाया से इतर एक नया यूरोप बनाने की दृढ़ इच्छा शक्ति की झलक भी थी।

यह समझौता महीनों की उस गोपनीय बातचीत का नतीजा था जो जनवरी 2025 में राष्ट्रपति ट्रंप की दी हुई अपमानजनक उपेक्षा और अवहेलना से शुरू हुई थी। यह ब्रेक्सिट के पुराने जख्मों पर मरहम नहीं, बल्कि यूरोप की उस जिद का प्रतीक था, जो अब अमेरिका के तलाकनामे के बाद अपनी नई राह तलाश रही है।

इस साल की शुरुआत में जब राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने सुनहरे बालों को हिलाते हुए व्हाइट हाउस में दोबारा कदम रखा तो शायद उन्हें अंदाजा भी नहीं था कि उनका तमाशा विश्व मंच पर एक नयी पटकथा लिख देगा, एक ऐसी पटकथा, जिसमें दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका खुद अकेला पड़ता जायेगा, तो वहीं इस राह पर कदम बढ़ाते यूरोप को रूस और चीन से अलग भारत की याद आएगी—उस भारत की जिसने नेहरु के जमाने से ही गुट निरपेक्षता की राह पकड़ी थी। आज यूरोप को लग रहा है कि नेहरु के रास्ते ठीक थे. उसने अमेरिका पर निर्भर रहकर कई दशक गंवा दिये।

ट्रम्प का तमाशा: तलाक की स्क्रिप्ट

शायद ट्रंप को अंदाज़ा भी नहीं होगा कि यूरोप के प्रति उनके जहरीले बयान विश्व राजनीति की दशा और दिशा ही बदल देंगे। 20 जनवरी 2025 को, वाशिंगटन डीसी में ट्रम्प ने अपने दूसरे कार्यकाल की शपथ ली। इसके बाद, 15 मार्च 2025 को पेन्सिलवेनिया की एक रैली में उन्होंने नाटो को बेकार का बोझ ठहराया और यूरोप को अमेरिकी खजाने पर पलने वाला मेहमान बताया। 10 अप्रैल 2025 को टेक्सास में रूढ़िवादी दानदाताओं के सामने उन्होंने ईयू के ग्रीन डील को आर्थिक हत्या करार दिया, यह कहते हुए कि अमेरिकी मज़दूर यूरोप के जलवायु सपनों का बोझ क्यों उठाए?

ट्रंप के ये तीखे बयान कोई तात्कालिक तुनकमिजाजी नहीं थे। राष्ट्रपति के रूप में उनका पहला कार्यकाल (2017–2021) भी इसी तरह के तानों से भरा था जब उन्होंने नाटो को पुराना ढाँचा कहा, जर्मनी को रूस का गुलाम बताया, और ईयू को अमेरिका का लाभ उठाने वाला करार दिया। उस वक़्त तो यूरोप आश्चर्य और सदमे में पड़ गया था, मगर अब, 2025 में, इससे मर्माहत और तिलमिलाये यूरोप की आँखों में रोष है, मुट्ठियाँ बँधी हैं, और इरादे पक्के। ट्रम्प का तलाकनामा यूरोप के लिए एक नई सुबह का न्योता बन गया है।

यूरोप की कलम: व्यंग्य में विद्रोह

ट्रम्प के अपमान भरे बयानों ने यूरोप के गौरव को ललकारा, तो यूरोप की कलम ने विद्रोह की स्याही से जवाब लिखा। 5 मई 2025 को, फ्रांस के अखबार ले मॉन्ड ने अपने संपादकीय में लिखा, ‘ट्रम्प ने साफ कर दिया कि यूरोप उनके लिए एक पुराना कोट है, जिसे वे कबाड़खाने में फेंकने को तैयार हैं।‘ 20 अप्रैल 2025 को, जर्मनी के डेर स्पीगल ने तंज कसा, ‘ट्रम्प हमें इसलिए नीचा दिखाते हैं क्योंकि वे शक्ति को केवल बम-बारूद में देखते हैं मगर यूरोप की ताकत उसकी कूटनीति, उसकी स्थिरता, उसका धैर्य है।‘

15 अप्रैल 2025 को, ब्रुसेल्स में यूरोपियन काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशन्स (ईसीएफआर) ने अपने पेपर नो लॉन्गर पार्टनर्स: ए पोस्ट-अटलांटिक यूरोप में ऐलान किया कि ‘ट्रान्सअटलांटिक गठबंधन अब इतिहास की बात है। स्वायत्तता अब सपना नहीं, बल्कि ज़रूरत है।‘ तथ्य यह है कि यूरोप और अमेरिका कभी विश्व मंच के दो जिगरी दोस्त थे। 1949 में दोनों ने मिलकर नाटो की नींव रखी, मार्शल प्लान (1948–1952) के ज़रिए यूरोप का पुनर्निर्माण किया। 11 सितंबर 2001 को, 9/11 हमलों के बाद नाटो ने पहली बार आर्टिकल 5 लागू किया, और यूरोप के सैनिक अफगानिस्तान में अमेरिका के साथ लड़े। 2008 के आर्थिक संकट में, यूरोपीय बैंकों ने अमेरिकी फेडरल रिजर्व के साथ मिलकर वैश्विक बाजारों को संभाला। मगर ट्रम्प के लिए ये सब पुरानी कहानियाँ हैं, जिन्हें वे लेन-देन के बहीखाते में बदलना चाहते हैं। ट्रम्प माने डील।

ईयू-यूके समझौता: नई राहनया साथी

ट्रम्प के पहले कार्यकाल में तो उनके तेवर यूरोप ने सह लिए। पर दूसरी बार भी वाशिंगटन का यही रवैया रहा तो आहत ब्रुसेल्स और लंदन ने एक नया गीत लिख डाला, जिसे 19 मई 2025 को गाया गया। हालांकि इसका अभ्यास जनवरी 2025 से ही गोपनीय रूप से चल रहा था। यह ब्रेक्सिट की कड़वाहट को भुलाने का प्रयास भर नहीं है बल्कि एक नया रिश्ता है—जिसमें दो पुराने दोस्त नाराज़गी भुलाकर बराबरी के साथ गले मिल रहे हैं।  

याद रहे कि ब्रिटेन में कीर स्टार्मर की लेबर सरकार ने जुलाई 2024 में सत्ता संभालते ही यूरोप की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया था। 18 जुलाई 2024 को, ब्लेनहेम पैलेस में स्टार्मर ने यूरोपीय पॉलिटिकल कम्युनिटी समिट की मेजबानी की। 10 सितंबर 2024 को, विदेश सचिव डेविड लैमी ने ईयू फॉरेन अफेयर्स काउंसिल में भाग लिया। 15 अक्टूबर 2024 को, लंदन और बर्लिन ने ट्रिनिटी हाउस समझौते पर हस्ताक्षर किए, जो एक ऐतिहासिक रक्षा सहयोग था। 1 नवंबर 2024 को, पोलैंड के साथ “विशेष साझेदारी” की योजना शुरू हुई। ट्रम्प के टेढ़े तेवरों से तिलमिलाये यूरोप ने आत्मनिर्भरता की ओर कदम बढ़ा दिये हैं।

नाटो का संकट

ट्रम्प ने जो कुछ कहा, उसने नाटो को हिलाकर रख दिया, जैसे कोई पुराना मकान हवा के झोंके से काँप उठे। 15 मार्च 2025 को, पेन्सिलवेनिया में ट्रम्प ने नाटो से निकलने की धमकी दी और 5% जीडीपी रक्षा खर्च की माँग की। नाटो के 32 सदस्यों में से 23 अभी तक 2% जीडीपी लक्ष्य को ही पूरा करते हैं, 5% का लक्ष्य तो दूर की कौड़ी है। तो नाटो का क्या होगा। हालांकि अक्टूबर 2024 में नियुक्त हुए नए महासचिव मार्क रुटे, यूरोपीय खर्च बढ़ाने की वकालत कर रहे हैं, ताकि अमेरिका का साथ बना रहे, लेकिन इस गठबंधन की एकजुटता का असली फैसला तो 10 जून 2025 को द हेग में होने वाले नाटो शिखर सम्मेलन में ही होगा।

अमेरिकी झटके के बाद ईयू का स्वाभिमान जोर मार रहा है। यूरोप किसी के भरोसे नहीं बैठना चाहता। जनवरी 2024 में ईयू ने यूरोपीय रक्षा संघ की योजना को गति दी, जिसमें €7.5 बिलियन का रक्षा कोष और संयुक्त कमांड सेंटर शामिल हैं। 15 मार्च 2025 को, यूरोपीय रक्षा औद्योगिक रणनीति की घोषणा हुई, एक रक्षा आयुक्त नियुक्त हुआ। यूरोप का रक्षा उद्योग अभी बिखरा हुआ है, और अमेरिकी हथियारों पर निर्भरता एक चुनौती है। मगर, जैसा ईसीएफआर कहता है, “द्विपक्षीय समझौतों का जाल” यूरोप की सामूहिक शक्ति को बढ़ा सकता है। ये सभी कोशिशें यूरोप की नई उड़ान का परिचय दे रही हैं। ट्रम्प ने यूरोप को न केवल जगा दिया, बल्कि उसे अपने पंखों पर उड़ने की हिम्मत भी दे दी है। ईयू अब एक स्वतंत्र खिलाड़ी बन गया है।

इंडिया की याद

यूरोपीय ब्रूगल थिंक टैंक ने अपने एक विश्लेषण में ठीक कहा कि, ‘ट्रम्प का पीछे हटना जोखिम के साथ अवसर लाता है।‘ तो जब ट्रम्प ने तलाक का नोटिस थमाया तो यूरोप ने नए दोस्त की तलाश में भारत की ओर देखा। 10 फरवरी 2025 को, नई दिल्ली में ईयू-भारत शिखर सम्मेलन हुआ, जिसमें ईयू अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लेयेन शामिल हुईं। इसमें 2021 के भारत-ईयू रणनीतिक रोडमैप को विस्तार देने का फैसला किया गया। व्यापार वार्ताएँ दिसंबर 2025 तक मुक्त व्यापार समझौते की ओर बढ़ रही हैं।

भारत और ईयू के बीच व्यापार 2024 में €120 बिलियन तक पहुँचा, और 2025 में यह और बढ़ने की उम्मीद है। भारत की जीडीपी वृद्धि 2024 में ठीक रही, और उसका रक्षा निर्यात 2025 में $5 बिलियन तक पहुँचने की राह पर है। टाटा और इन्फोसिस जैसी कंपनियाँ यूरोप में डेटा सेंटर और एआई परियोजनाओं में निवेश कर रही हैं। रक्षा में, भारत का तेजस लड़ाकू विमान और ब्रह्मोस मिसाइल यूरोप के रडार पर हैं। ईयू के साथ भारत की दोस्ती वैश्विक शक्ति संतुलन को नया आकार दे सकती है। भारत अगर नेहरू की पुरानी गुटनिरपेक्ष नीति पर चला तो यह उसे अमेरिका, ईयू और ग्लोबल साउथ के बीच संतुलन बनाने की ताकत दे सकता है।

विश्व मंच का नया रंगमंच

इसी साल जनवरी में ईयू ने रूस से गैस आयात को 2027 तक खत्म करने की योजना की घोषणा की। ईयू की जीडीपी ($18.8 ट्रिलियन, 2024) अमेरिका के बराबर है, इसकी आबादी (450 मिलियन) उससे अधिक है, और इसकी नियामक शक्ति (जैसे जीडीपीआर) वैश्विक बाजारों को आकार देती है। एआई और हरित प्रौद्योगिकी में ईयू के मानक अब वैश्विक बेंचमार्क हैं।

उधर चीन अपनी बेल्ट एंड रोड 2.0 और तकनीकी निर्यात के साथ अमेरिका के पीछे हटने का फायदा उठा रहा है। रूस, पश्चिम से अलग-थलग, नाटो की दरारों और वाशिंगटन-ब्रुसेल्स के अविश्वास से मजे ले रहा है। मगर भारत? वह विश्व मंच का नया नायक बनने की स्थिति में है। भारत का व्यापार, तकनीक और रक्षा में बढ़ता प्रभाव उसे यूरोप का पसंदीदा साझेदार बनाता है।

अमेरिकी प्रभुत्व का अंत?

20 मार्च 2025 को, स्ट्रासबर्ग में उर्सुला वॉन डेर लेयेन ने कहा, “यूरोप अब अमेरिकी चुनावों का मोहरा नहीं रहेगा। हम संप्रभु हैं।” यह भाषण यूरोप की नई हिम्मत का प्रतीक था। यह संप्रभुता ट्रम्प के तमाशे की देन है। नए गठबंधन बन रहे हैं, और ग्लोबल साउथ—भारत, ब्राजील, इंडोनेशिया—इसे उत्सुकता से देख रहे हैं। 10 मई 2025 को, पूर्व इतालवी प्रधानमंत्री एनरिको लेट्टा ने कहा, “ट्रम्प ने यूरोप को एकजुट किया—दोस्ती से नहीं, आग से।” शायद ट्रंप अनजाने में यूरोपीय स्वायत्तता के वाहक बन गए।

पर क्या भारत तैयार है?

ईयू-यूके समझौता एक बड़े बदलाव का प्रतीक है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद का विश्व, जो अमेरिका के इर्द-गिर्द घूमता था, अब बदल रहा है। यह समझौता कोई रीसेट नहीं, बल्कि एक हिसाब है। ट्रम्प के फैसलों ने यूरोप को करारा झटका और सदियों का सबक दिया है। इसीलिए उसे इंडिया की याद आ रही है। सवाल है कि क्या भारत तैयार है? जवाब तभी मिलेगा जब भारत संप्रभुता, सौम्यता और रणनीतिक गहराई के साथ कूटनीति करे। भारत को एक गंभीर, एकजुट, मजबूत और दूरदर्शी राष्ट्र की भूमिका निभानी होगी। इससे भी जरूरी है कि हम किसी देश के पिछलग्गू ना बनें। ट्रंप की दोस्ती ने भारत को कहीं का नहीं छोड़ा है। बेहतर हो कि हम गुट निरपेक्ष ही रहें। क्योकि यह नया युग है। इसमें कोई एक ध्रुव नहीं, बल्कि कई केंद्र हैं.

कूटनीति की सफलता विनम्रता से होती है, न जोर-जबरदस्ती और ना ही लप्पी झप्पी से। भारत पाक के बीच ताजा झड़प में हमने देख लिया कि कौन हमारे साथ खड़ा है। हमें आत्मावलोकन करना होगा। बयानबाज़ी और कड़े तेवर नहीं, बल्कि विनम्रता और धैर्य इस नए दौर की राजनयिक मुद्रा होगी। ये कहना ठीक है कि हमें दोस्त चाहिए, लेकिन ये कहना कि हमें उपदेश देने वाले नहीं चाहिए, राजनय की भाषा नहीं हो सकती। बेहतर डिप्लोमेसी खामोशी और मधुरता से होती है। एक अच्छा कूटनीतिज्ञ वह होता है जो तब भी एक दुश्मन का मित्र बना रहे, जब वह उसे नष्ट करने की योजना बना रहा हो। कूटनीति में लहरों को नहीं, धारा को पहचानना होता है। विंस्टन चर्चिल ने कहा था: “कूटनीति लोगों को नरक में जाने के लिए इस तरह से कहने की कला है, कि वे रास्ते पूछें।” (Diplomacy is the art of telling someone to go to hell in such a way that they ask for directions.)

किशोरों में बढ़ रही हिंसक प्रवृत्ति गंभीर चुनौती

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– ललित गर्ग –

भारतीय बच्चों में बढ़ रही हिंसक प्रवृत्ति एवं क्रूर मानसिकता चिन्ताजनक है, नये भारत एवं विकसित भारत के भाल पर यह बदनुमा दाग है। पिछले कुछ समय से स्कूली बच्चों में बढ़ती हिंसा की प्रवृत्ति निश्चित रूप से डरावनी, मर्मांतक एवं खौफनाक है। चिंता का बड़ा कारण इसलिए भी है क्योंकि जिस उम्र में बच्चों के मानसिक और सामाजिक विकास की नींव रखी जाती है, उसी उम्र में कई बच्चों में आक्रामकता एवं क्रूर मानसिकता घर करने लगी है और उनका व्यवहार हिंसक होता जा रहा है। कैथल जनपद के गांव धनौरी में दो किशोरों की निर्मम एवं क्रूर हत्या की हृदयविदारक घटना न केवल उद्वेलित एवं भयभीत करने वाली है बल्कि चिन्ताजनक है। चौदह-पंद्रह साल के दो किशोरों की गला रेतकर हत्या कर देना और वह भी उनके हमउम्र साथियों द्वारा, हर संवेदनशील इंसान को हिला देने वाली डरावनी एवं खैफनाक घटना है, जो किशोरों में पनप रहे हिंसक बर्ताव एवं हिंसक मानसिकता का घिनौना एवं घातक रूप है। जिस उम्र में बच्चों को पढ़ाई-लिखाई और खेलकूद में व्यस्त रहना चाहिए, उसमें उनमें बढ़ती आक्रामकता, हिंसा एवं क्रूरता एक अस्वाभाविक और परेशान करने वाली बात है। जाहिर है दसवीं-ग्यारहवीं के छात्रों की क्रूर हत्या हमारे समाज में बढ़ती संवेदनहीनता को भी दर्शाती है। ऐसी कई अन्य घटनाओं में स्कूल में पढ़ने वाले किसी बच्चे ने अपने सहपाठी पर चाकू या किसी घातक हथियार से हमला कर दिया और उसकी जान ले ली। अमेरिका की तर्ज पर भारत के बच्चों में हिंसक मानसिकता का पनपना हमारी शिक्षा, पारिवारिक एवं सामाजिक संरचना पर कई सवाल खड़े करती है।
जैसाकि घटना से संबंधित तथ्यों में बताया गया कि हत्या में शामिल युवक धनौरी गांव के ही थे और कुछ दिन पहले किशोरों को धमकाने उनके घर आए थे। मारे गए किशोरों पर हत्या आरोपियों ने आरोप लगाया था कि वे उनकी बहनों से छेड़खानी करते थे। निश्चय ही ऐसे छेड़खानी के कथित आरोप को नैतिक दृष्टि से अनुचित ही कहा जाएगा, लेकिन उसका बदला हत्या कदापि नहीं हो सकती। यह दुखद है कि एक मृतक किशोर अरमान पांच बहनों का अकेला भाई था। घटना से उपजी त्रासदी से अरमान के परिवार पर हुए वज्रपात को सहज महसूस किया जा सकता है। उनके लिये जीवनभर न भुलाया जा सकने वाला दुख एवं संत्रास पैदा हुआ है। बड़ा सवाल है कि जिन वजहों से बच्चों के भीतर आक्रामकता एवं हिंसा पैदा हो रही है, उससे निपटने के लिए क्या किया जा रहा है? पाठ्यक्रमों का स्वरूप, पढ़ाई-लिखाई के तौर-तरीके, बच्चों के साथ घर से लेकर स्कूलों में हो रहा व्यवहार, उनकी रोजमर्रा की गतिविधियों का दायरा, संगति, सोशल मीडिया या टीवी से लेकर सिनेमा तक उसकी सोच-समझ को प्रभावित करने वाले अन्य कारकों से तैयार होने वाली उनकी मनःस्थितियों के बारे में सरकार, समाजकर्मी एवं अभिभावक क्या समाधान खोज रहे हैं। बच्चों के व्यवहार और उनके भीतर घर करती प्रवृत्तियों पर मनोवैज्ञानिक पहलू से विचार किए बिना समस्या को कैसे दूर किया जा सकेगा?
बहरहाल, इस हृदयविदारक एवं त्रासद घटना ने नयी बन रही समाज एवं परिवार व्यवस्था पर अनेक सवाल खड़े किये हैं। सवाल नये बन रहे समाज की नैतिकता एवं चरित्र से भी जुड़े हैं। निश्चित ही किसी परिवार की उम्मीदों का यूं कत्ल होना मर्मांतक एवं खौफनाक ही है। लेकिन सवाल ये है कि चौदह-पंद्रह साल के किशोरों पर यूं किन्हीं लड़कियों को छेड़ने के आरोप क्यों लग रहे हैं? पढ़ने-लिखने की उम्र में ये सोच कहां से आ रही है? क्यों हमारे अभिभावक बच्चों को ऐसे संस्कार नहीं दे पा रहे हैं ताकि वे किसी की बेटी व बहन को यूं परेशान न करें? क्यों लड़कियों से छेड़छाड़ की अश्लील एवं कामूक घटनाएं बढ़ रही है। क्या हमारी शिक्षा व्यवस्था में नैतिक शिक्षा का वह पक्ष उपेक्षित हो चला है, जो उन्हें ऐसा करने से रोकता है? क्या शिक्षक छात्रों को सदाचारी व नैतिक मूल्यों का जीवन जीने की प्रेरणा देने में विफल हो रहे हैं? हत्या की घटना हत्यारों की मानसिकता पर भी सवाल उठाती है कि उन्होंने क्यों सोच लिया कि छेड़खानी का बदला हिंसा एवं क्रूरता से गला काटना हो सकता है? धनौरी की घटना के पूरे मामले की पुलिस अपने तरीके से जांच करेगी, लेकिन किशोर अवस्था में ऐसी घटना को अंजाम देने के पीछे बच्चे की मानसिकता का पता लगाना भी ज्यादा जरूरी है। दरअसल, दशकों तक बॉलीवुड की हिंदी फिल्मों ने समाज एवं विशेषतः किशोर पीढ़ी में जिस अपसंस्कृति का प्रसार किया, आज हमारा समाज उसकी त्रासदी झेल रहा है। इसमें दो राय नहीं कि किशोरवय में राह भटकने का खतरा ज्यादा रहता है।
अब तक हिन्दी सिनेमा से समाज के किशोरवय और युवाओं में गलत संदेश गया कि निजी जीवन में छेड़खानी ही प्रेम कहानी में तब्दील हो सकती है। हमारे टीवी धारावाहिकों की संवेदनहीनता ने गुमराह किया है। बॉक्स आफिस की सफलता और टीआरपी के खेल ने मनोरंजक कार्यक्रमों में ऐसी नकारात्मकता एवं हिंसक प्रवृत्ति भर दी कि किशोरों में हिंसक एवं अराजक सोच पैदा हुई। इंटरनेट के विस्तार और सोशल मीडिया के प्रसार से स्वच्छंद यौन व्यवहार का ऐसा अराजक एवं अनियंत्रित रूप सामने आया कि जिसने किशोरों व युवकों को पथभ्रष्ट एवं दिग्भ्रमित करना शुरू कर दिया। आज संकट ये है कि हर किशोर के हाथ में आया मोबाइल उसे समय से पहले वयस्क बना रहा है। जिस पर न परिवार का नियंत्रण है और न ही शिक्षकों का। ‘मन जो चाहे वही करो’ की मानसिकता वहां पनपती है जहां इंसानी रिश्तों के मूल्य समाप्त हो चुके होते हैं, जहां व्यक्तिवादी व्यवस्था में बच्चे बड़े होते-होते स्वछन्द हो जाते हैं। अर्थप्रधान दुनिया में माता-पिता के पास बच्चों के साथ बिताने के लिए समय ही नहीं बच पा रहा।
आज किशोरों एवं युवाओं को प्रभावित करने वाले सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म व नये-नये एप पश्चिमी अपसंस्कृति से संचालित हैं। इन पर अश्लीलता और यौन-विकृतियों वाले कार्यक्रमों का बोलबाला है। ऐसे कार्यक्रमों की बाढ़ हैं जिनमें हमारे पारिवारिक व सामाजिक रिश्तों में स्वच्छंद यौन व्यवहार को हकीकत बनानेे का खेल चल रहा है। पारिवारिक एवं सामाजिक उदासीनता एवं संवादहीनता से ऐसे बच्चों के पास सही जीने का शिष्ट एवं अहिंसक सलीका नहीं होता। वक्त की पहचान नहीं होती। ऐसे बच्चों में मान-मर्यादा, शिष्टाचार, संबंधों की आत्मीयता, शांतिपूर्ण सहजीवन आदि का कोई खास ख्याल नहीं रहता। भौतिक सुख-सुविधाएं एवं यौनाचार ही जीवन का अंतिम लक्ष्य बन जाता है। भारतीय बच्चों में इस तरह का एकाकीपन उनमें गहरी हताशा, तीव्र आक्रोश और विषैले प्रतिशोध का भाव भर रहा है। वे मानसिक तौर पर बीमार बन रहे हैं, वे आत्मघाती-हिंसक बन रहे हैं और अपने पास उपलब्ध खतरनाक एवं घातक हथियारों का इस्तेमाल कर हत्याकांड कर बैठते हैं।
ऑस्ट्रिया के क्लागेनफर्ट विश्वविद्यालय की ओर से किशोरों पर किए गए अध्ययन में पता चला है कि दुनिया भर में 35.8 प्रतिशत से ज्यादा किशोर मानसिक तनाव, अनिद्रा, अकारण भय, पारिवारिक अथवा सामाजिक हिंसा, चिड़चिड़ापन अथवा अन्य कारणों से जूझ रहे हैं। एकाकीपन बढ़ने से वे ज्यादा आक्रामक और विध्वंसक सोच की तरफ बढ़ने लगे हैं। मोबाइल व कथित सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर बह रहे नीले जहर से किशोर अराजक यौन व्यवहार एवं हिंसक प्रवृत्तियों की तरफ उन्मुख हुए हैं। किशोरों को समझाने वाला कोई नहीं है कि यह रास्ता आत्मघात का है। आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड व ब्रिटेन जैसे देश किशोरों को मोबाइल से दूर रखने हेतु कानून बना रहे हैं। हमारे देश में भी शीर्ष अदालत ने समय-समय पर ऐसी घटनाओं पर तल्ख टिप्पणियां की हैं। क्या इन दर्दनाक घटनाओं से हमारे अभिभावकों, समाज-निर्माताओं एवं हमारे सत्ताधीशों की आंख खुलेगी? बच्चों से जुड़ी हिंसा की इन वीभत्स एवं त्रासद घटनाओं से जिन्दगी सहम गयी है। हमें मानवीय मूल्यों के लिहाज से भी विकास एवं नयी समाज-व्यवस्था की परख करनी होगी। बच्चों के भीतर हिंसा मनोरंजन की जगह ले रही है। इसी का नतीजा है कि छोटे-छोटे स्कूली बच्चे भी अपने किसी सहपाठी की हत्या तक कर रहे हैं। बच्चों के व्यवहार और उनके भीतर घर करती प्रवृत्तियों पर मनोवैज्ञानिक पहलू से विचार किए बिना समस्या को कैसे दूर किया जा सकेगा?

“आई एस आई” आतंकवाद का पोषक

अधिक पीछे न जाते हुए केवल पिछले 2-3  वर्ष की गुप्तचर विभाग की सूचनाओँ में आई.एस.आई द्वारा हमारे देश में आतंकवादियों को उकसाने व भड़काने के महत्वपूर्ण समाचार आये थे । जिससे राष्ट्रीय पत्रकारिता  के सकारात्मक संकेत मिलने से मीडिया जगत की अनेक भ्रांतियाँ दूर हुई। साथ ही केंद्रीय सत्ता में  परिवर्तन से भी समाज में एक सकारात्मक  वातावरण बनने से उसमें राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों का बोध जागा है । 

मुगलकालीन इतिहास को अलग करते हुए वर्तमान में पाकिस्तान की गुप्तचर संस्था “इंटर सर्विसेस इंटैलिजेंस” (आई.एस.आई.) द्वारा पोषित जिहाद रूपी मुस्लिम आतंकवाद की गंभीर समस्या से देश पिछले लगभग पिछले 46 वर्षों से जूझ रहा है । आई.एस.आई.  बंग्लादेश के निर्माण (1971) से ही जिहाद के लिए अपने एजेंटों द्वारा भटके हुए कट्टरपंथी मुसलमानों को लोभ व लालच देकर अनेक साधनों व विभिन्न माध्यमों से बहका कर देश के विभिन्न क्षेत्रों में धीरे धीरे अपने स्लीपिंग सेल बनाने में सफल होती आ रही है । बंग्लादेश के निर्माण व अपनी हार से विचलित होकर उस समय (1971) पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने ही आई.एस.आई. का दुरुपयोग भारत के पंजाब व कश्मीर में अलगाववाद व आतंकवाद बढ़ाने में किया । आई.एस.आई. के सुझाव पर जनरल जिया उल हक़ को योग्य आधिकारियों की अवहेलना करते हुए भुट्टो ने सेना का मुखिया बनाया था । बाद में जिया उल हक़ पाक के राष्ट्रपति बने तो उन्होंने देश में मुस्लिम कट्टरता का बढ़ावा देते हुए ‘ईश निंदा कानून’ भी बनाया और उसी जिहादी मानसिकता व बदले की भावना के वशीभूत आई.एस.आई. के माध्यम से भारत को एक न ख़त्म होने वाले छद्म युद्ध में धकेल दिया, जो अभी तक जारी है ।

इसी भारत विरोध (हिन्दू विरोध) व कश्मीर को जीतने के प्रचार से पाकिस्तानी जनता को लुभाते रहकर जिया उल हक़ व आगे आने वाले अन्य शासक भी वहाँ सरकार चलाते रहे। इन सबसे आई.एस.आई.  सेना व सरकार से भी अधिक शक्तिसम्पन्न होती चली गयी । जिया उल हक़ ने आई.एस.आई. को नशीले पदार्थों व हथियारों  का अवैध व्यापार करवाने में भी सहयोग किया । सन 90 के दशक के समाचारों  के अनुसार ही आई.एस.आई. द्वारा लगभग 80 आतंकवादी प्राशिक्षण केंद्र अफगानिस्तान सहित पाक व पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में चलाये जा रहें थे । 1984 में कश्मीर की कथित आजादी के लिए वहाँ जंग छेड़ी गयी और 1990 में तो हिंसा का भरपूर नंगा नाच हुआ । उस समय 123 आतंकवादी संगठन कश्मीर में काम कर रहे थे और विभिन्न पाकिस्तानी संगठनों द्वारा करोड़ों रुपयों की सहायता भेजी गयी थी इस सब में सर्वाधिक योगदान आई.एस.आई. का ही रहा था ।

  1992 की एक अमरीकी रिपोर्ट के संदर्भ से कश्मीर के पूर्व राज्यपाल श्री जगमोहन जी की किताब “माय फ्रोज़न ट्रॉब्लेंस इन कश्मीर” के तृतीय संस्करण से ज्ञात होता है कि आई.एस.आई. के पास उस समय लगभग 3 अरब अमरीकी डॉलर की विराट पूँजी थी जो कि पाकिस्तान के रक्षा बजट से भी 5 गुना अधिक थी और वह अधिकांश नशीले पदार्थों के अवैध व्यापार से ही कमाई गयी थी । वह सिलसिला अभी भी जारी है और उसमें नकली करेंसी व अवैध हथियारों के व्यापार से तो अब और न जाने कितने अरब डॉलरों की सम्पदा द्वारा वह अनेक जिहादी योजनाओं को अंजाम देने में लगी हुई है । आज सम्पूर्ण भारत में कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक आई.एस.आई. ने अपने एजेंटों व कट्टरपंथी मुसलमानों द्वारा आतंकवादी संगठनों का भरपूर जाल फैला रखा है।

पूर्व में भी गुप्तचर विभाग की रिपोर्टों के आधार पर आये समाचारों से यह भलीभाँति ज्ञात होता रहा है कि आई.एस.आई.  ने अनेक आतंकवादी संगठनों के बल पर हजारों दंगे व सैकड़ों बम विस्फोटों द्वारा भारत में दहशतगर्दी फैलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है । कश्मीर का लगभग हिन्दू विहीन होना आई.एस.आई.  के दुःसाहस का स्पष्ट प्रमाण है।

आई.एस.आई.  ने लगभग चार दशक में हमारे देश के हज़ारों सुरक्षाकर्मियों व निर्दोषों के लहू को बहाने के अतिरिक्त अरबों रुपये की सरकारी व व्यक्तिगत सम्पतियों को नष्ट किया है । ऐसे में सैकड़ों आतंकवादियों की धरपकड़ भी हुई और मारे भी गए । सैकड़ों की संख्या में इनके एजेंट भी विभिन्न स्थानों से समय समय पर हमारे सुरक्षाकर्मियों द्वारा पकडे भी जाते रहें हैं । साथ ही साथ सैकड़ो / हज़ारों की संख्या में वैध वीसा पर भारत आये पाकिस्तानी नागरिक वीसा अवधि समाप्त हो जाने के बाद भी यहीं छिप कर रह रहें हैं यह भी कमोवेश आईएसआई के ही षडयंत्र का ही एक भाग हो सकता है।

 नवीन समाचारों के अनुसार मुस्लिम आतंकवादी संगठन ‘ इंडियन मुजाहिदीन ‘ को अब आई.एस.आई. देश में दंगे फसाद व बम ब्लास्ट आदि से दहशत फैलाने के लिए स्वयं आर्थिक सहायता न करके उनको विभिन्न अपराधों जैसे अपहरण, फ़िरौती व लूटपाट आदि से धन जुटाने के लिए उकसा रही है।

 याद रहे कि इन मुस्लिम आतंकवादियों को अब तक आई.एस.आई.  व लश्कर-ए-तैयबा भारी मात्रा में हथियार, विस्फोटक व अन्य आर्थिक सहायता देती आ रही थी । गुप्तचर विभाग के अनुसार इंडियन मुजाहिदीन का मासिक बजट 50 करोड़ से 150 करोड़ रूपये के लगभग होता था । अब कुछ वर्षों से ये संगठन उनके अनुसार जिहादी गतिविधियों को कार्यरूप नहीं दे पा रहे है तो उन्होंने इनके बजट में कटौती की है साथ ही आई.एस.आई.  ने यह सन्देश भी दिया है कि अगर वे (इंडियन मुजाहिदीन) उनके मंसूबे (भयानक जिहादी घटनाओं द्वारा तबाही ) को भारत में अन्जाम देने में सफल हुए तो वे उनको बजट की भरपाई पूरी कर देंगे।

इससे यह तो स्पष्ट ही होता है कि पाकिस्तान किसी भी प्रकार से जिहाद के लिए भारत में अपनी आतंकवादी गतिविधियों से पीछे हटना नहीं चाहता । क्योंकि वह हमारे देश को हज़ार घाव देने की मानसिकता से बाहर निकलना नहीं चाहता इसलिए वह अपनी गुप्तचर संस्था आई.एस. आई. को सक्रिय किये रखता है। परिणामस्वरूप प्राप्त सूचनाओं के आधार पर पाक गुप्तचर एजेंसी सिखों के वेश में आतंकियों को तैयार करके हमारे देश में बड़े पैमाने पर आतंकी घटनाओं द्वारा दहशत फैला कर पूर्व की भाँति  (1980 के लगभग)  हिन्दू -सिख  संबंधो में पुनः कड़वाहट घोलने के षड्यंत्र भी रचती रहती है।

केंद्र में मोदी जी की सशक्त सरकार बनने के बाद आतंकियों के विरुद्ध सुरक्षा बलों की अत्यधिक सजगता के कारण आतंकी आक्रमणों को कुचले जाने से, आई.एस. आई.  व  पाक परस्त आतंकी संगठनों की बेचैनी बढ़ गयी है । इसीलिए ये सब एकजुट होकर और कुछ सिख आतंकी संगठनों का साथ लेकर भारत के विभिन्न भागों में अपने जिहादी षडयंत्रो को अंजाम देने के कोई भी अवसर  छोड़ना नहीं चाहते। इसके लिए आवश्यक निर्देशों के अतिरिक्त आर्थिक सहायता भी इन संगठनों को आई.एस. आई. उपलब्ध कराती है।

पिछले वर्ष मोदी जी के “नोटबंदी” संबंधित कठोर निर्णय का स्वागत होना चाहिये क्योंकि आई.एस.आई. के वर्षों पुराने “जाली मुद्रा” से सम्बंधित षडयंत्रों की विस्तृत जानकारी देश की जनता को है ही नहीं। जिसके अंतर्गत पिछले लगभग 25 वर्षों से ‘जाली मुद्रा’  के माध्यम से हमारी अर्थव्यवस्था को क्षति पहुँचाने के साथ साथ आतंकवादियों की भी आर्थिक सहायता होती आ रही है। जिससे आतंकवादियों के सैकड़ों संगठन अपने हज़ारों स्लीपिंग सेलों द्वारा लाखों देशद्रोहियों को पाल रहे हैं। हमारी सुरक्षा एजेंसियों के संदर्भ से अक्टूबर 2014 को छपे एक समाचार से यह भी ज्ञात हुआ था कि आई.एस.आई. हज़ारों करोड़ रुपये से अधिक के नकली नोट प्रति वर्ष छापती है और इनको 10% के  मूल्य पर बिचौलियों को देती है। जिस जाली मुद्रा को दाऊद इब्राहिम के इक़बाल काना जैसे एजेंट अपने अपने नैटवर्क के माध्यम से 20% से 50% तक कमीशन पर देश के विभिन्न भागों में भेजते हैं। अगर पिछले 25 वर्षों के पुलिस रिकॉर्ड देखे जायें तो इस काम में आई.एस.आई. ने भारत के अधिकांश पाकिस्तान परस्त मुसलमानों को जोड़ा है जो बार बार पकड़े भी गये और कठोर कानूनों के अभाव में  छूटने के बाद फिर इन देशद्रोही/आतंकवादी कार्यों में संलिप्त पाये जाते रहे है। हमारी सुरक्षा एजेंसियों द्वारा जाली मुद्रा पर सितंबर 2014 में एक विस्तृत डोजियर तैयार किया गया था, जिसके अनुसार आई.एस.आई. उन्हीं प्रिंटिंग प्रैस में भारतीय नकली नोट छपवा रही थी जहाँ पाकिस्तान के अपने नोट छपते हैं।

 अगर भारत सरकार दृढ़ इच्छा शक्ति से देश के कोने कोने में सख्ती से छानबीन करे तो अनेक आतंकवादी व इनके गुप्तचरों के अतिरिक्त संभवतः  कुछ सफेदपोश नेता, अधिकारी व समाजसेवी आदि भी इनके एजेंट निकल सकते हैं। जबकि पिछले 35- 40 वर्षों के समाचारों के अनुसार  इनके हज़ारों एजेंट विभिन्न नगरों से पकड़े जाते रहे हैं पर दुर्भाग्य से साक्ष्यों के अभाव में  ऐसे अधिकतर विचाराधीन अपराधी ठोस कार्यवाही से बचते रहे और छोड़े जाते रहे।

आई.एस.आई. को आतंकवादी संगठनों का जनक / पोषक कहा जाय तो गलत नहीं होगा । परंतु हमारे सुरक्षा बलों की सक्रियता ने इस प्रकार इन जिहादियों की  विशेषतौर पर इनकी  गतिविधियों को नियंत्रित करके राष्ट्रवादी समाज का भी मनोबल बढ़ाया है उससे राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति सामान्य समाज भी अब जागरुक होने लगा है।

अतः गुप्तचर संस्थाओं द्वारा प्राप्त जिहादी शत्रुओं की योजनाओं को समझो और इन  चुनौतियों को स्वीकार करते हुए धर्म व देश की रक्षा के लिए सावधान रह कर अपने अपने स्तर से तैयार रहो।  सरकार के साथ साथ सभी राष्ट्रवादियों का सामूहिक कर्तव्य है कि इन जिहादी दानवों से राष्ट्र की सुरक्षा में अपना यथासंभव योगदान करें । यह मत सोचिए कि यह कार्य केवल सरकार का है, बल्कि यह सोचें कि यह मेरी मातृभूमि है तो इसकी रक्षा करना ही मेरा धर्म एवं कर्तव्य के साथ साथ मेरा जन्मसिद्ध अधिकार भी है। 

विनोद कुमार सर्वोदय

नीति नीयत सब नापाक, फिर भी कहिये ‘पाकिस्तान ‘ ?

तनवीर जाफ़री

        स्वतंत्रता पूर्व 1941 में ब्रिटिश हुकूमत द्वारा कराई गयी भारत की जनगणना के अनुसार अविभाजित भारत की कुल जनसंख्या लगभग 39-40 करोड़ थी। जिसमें मुस्लिम आबादी लगभग 24-25% थी । इस आधार पर अविभाजित भारत में मुस्लिम जनसंख्या लगभग 9.5 से 10 करोड़ के आसपास थी। 1947 के विभाजन के समय भारत की कुल मुस्लिम आबादी का लगभग 35-40% हिस्सा पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान (1971 के बाद का बांग्लादेश ) चला गया। जिन भारतीय राज्यों के अधिकांश मुस्लिम भारत छोड़कर गये उनमें ख़ासतौर से पंजाब, सिंध, और उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत जैसे क्षेत्रों के मुस्लिम शामिल थे। पूर्वी बंगाल या पूर्वी पाकिस्तान में पहले से ही मुस्लिम बहुसंख्यक थे, इसलिए वहां अपेक्षाकृत कम प्रवास हुआ। विभाजन के समय मुस्लिम आबादी का लगभग 60-65% हिस्सा भारत में ही रह गया। भारत में ही रहने का फ़ैसला करने वाले अधिकांश मुस्लिम ख़ास तौर से उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश व कई दक्षिणी राज्यों के थे। पाकिस्तान के अस्तित्व में आने के समय जो प्रक्रिया अपनाये गयी वह अत्यंत हिंसक और अव्यवस्थित थी जिसमें सभी धर्मों के लाखों लोग मारे गये।

                 बहरहाल, कहने को तो  भारत से विभाजित होकर पाकिस्तान का गठन विश्व के सबसे बड़े मुस्लिम राष्ट्र निर्माण जैसे दुःस्वप्न को लेकर किया गया था। इसी मुहिम के अंतर्गत 1943 में उर्दू शायर असग़र सौदाई  ने यह नारा लिखा था -‘पाकिस्तान का मतलब क्या है, ‘ला इलाहा इल्लललाह’। यह नारा हालांकि उस समय मुस्लिम लीग द्वारा अपनाया गया था परन्तु आज वहां कि न केवल अनेक कट्टरपंथी धार्मिक पार्टियाँ बल्कि वहाँ पनाह पा रहे अनेक आतंकी संगठन भी समय समय पर इस नारे का इस्तेमाल करते हैं। परन्तु यदि हम पाकिस्तान के गठन की घोषित मंशा और इस्लामी कलमे को पाकिस्तान के नाम के साथ इस्तेमाल करने की हक़ीक़त को देखें तो हमें सब कुछ उल्टा नज़र आता है। हक़ीक़त तो यह है कि पाकिस्तान ने अपने वजूद में आते ही सिवाय नफ़रत,हिंसा,क्षेत्रवाद,फ़िरक़ा परस्ती,भ्रष्टाचार,अल्पसंख्यकों पर ज़ुल्म व आतंकवाद के सिवा दुनिया को कुछ दिया ही नहीं। अन्यथा प्रकृतिक सम्पदाओं से परिपूर्ण 1971 से पहले के इस भूभाग को आज दुनिया में आर्थिक व राजनैतिक रूप से इतना कमज़ोर व अलग थलग न रहना पड़ता। 

पाकिस्तान की सत्ता एक तरफ़ तो पाकिस्तान का मतलब ला इलाहा इल्लललाह बताते हैं दूसरी तरफ़ इसी देश की सेना लगभग 30 लाख बंगाली मुसलमानों की हत्या कर देती है। जब पाकिस्तान ला इलाहा इल्लललाह के नारे के साथ अलग हुआ तो क्या कारण था कि बांग्लादेश का गठन यानी क्षेत्रवाद इस्लामी नारे पर भारी पड़ गया? यह आख़िर कैसा इस्लाम है तो कैसा ला इलाहा इल्लल लाह? इसी पाकिस्तान पर 40 लाख अफ़ग़ानी मुसलमानों का आरोप है। और इसी ‘अल्लाह वाली ‘ पाकिस्तानी सेना पर दो लाख से अधिक बलूचों की हत्या का भी इलज़ाम है ? आरोप तो यह भी है कि पाकिस्तानी सेना बलूच लोगों के घरों में आग लगाती है, उनके खेतों और बाग़ों को नष्ट करती है, और बलोची युवाओं को अपहृत कर उनकी आंखें, दिल, और गुर्दे जैसे अंग बेच देती है। क्या यही पाकिस्तान के अस्तित्व में आने का मक़सद था ? आज पाकिस्तान पर बलूचिस्तान में पाकिस्तानी सेना द्वारा “जातीय सफ़ाया” और “नरसंहार” करने जैसा संगीन इलज़ाम है। ज़ियाउलहक़ के शासनकाल में उर्दन में 10 हज़ार फ़िलिस्तीनी एक ही रात में मारने का आरोप इसी पेशेवर पाक सेना पर है। यह कैसा इस्लामी देश है ? इसी पाकिस्तान पर भारतीय कश्मीर में गत छः दशकों से आतंकवाद व अशांति फैलाने का आरोप है। भारत में जगह जगह आतंकवादी हमले कराने जैसा अमानवीय व ग़ैर इस्लामी काम पाकिस्तान करता रहा है। मस्जिदों से लेकर दरगाहों,इमामबारगाहों व धार्मिक जुलूसों पर आत्मघाती हमले करने वाले हमलावरों की पैदावार तैय्यार करने वाला पाकिस्तान जब यह कहे कि पाकिस्तान का मतलब,ला इलाहा इल्लललाह,तो इससे बढ़कर अफ़सोसनाक व शर्मनाक बात और क्या हो सकती है ? इसी नफ़रत की सियासत ने ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो को फांसी के फंदे तक पहुंचा दिया। कल पाकिस्तान ने जिन तालिबानों की सरपरस्ती की थी वही आज पाकिस्तान के लिये बड़ी चुनौती बन चुके हैं। अफ़ग़ानिस्तान में भी चार लाख लोगों की हत्या का इलज़ाम पाकिस्तान पर है। कहना ग़लत नहीं होगा कि स्वयं को लाइलाहा इल्लल्लाह का झंडाबरदार बताने वाले पाकिस्तान जैसे देश ने जितने मुसलमानों की हत्या की उतनी हत्याएं किसी अन्य मुस्लिम राष्ट्र ने नहीं की । 

             उसके बावजूद बड़ा आश्चर्य होता है जब पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल आसिम मुनीर आज भी द्विराष्ट्र सिद्धांत की बात को दोहराते हुए हिंदू और मुसलमान को जीवन के हर पहलू में भिन्न बताते हैं। यदि हिन्दू मुसलमानों से भिन्न हैं तो बंगाली मुसलमान तो एक थे ? शिया,अहमदिया,बरेलवी तो ला इलाहा इल्लललाह कहते हैं ? इनके प्रति क्या व्यवहार है पाकिस्तानी सत्ता व सेना का ? यदि पाकिस्तान की नीयत में खोट न होती तो 1971 जैसा ऐतिहासिक अपमान पाकिस्तानी सेना को सहन न करना पड़ता। आज दुनिया में पाकिस्तान की पहचान आतंकवाद के केंद्र के रूप में हो चुकी है। उसके बाद तुर्रा यह कि भारत जैसे पड़ोसी देश को परमाणु हमले की धमकी देता रहता है। भारत में धार्मिक उन्माद फैलाने के नित्य नए हथकंडे अपनाता है। हक़ीक़त तो यह है कि भारत में हिंदू और मुसलमान उतने भिन्न नहीं हैं जितने कि पाकिस्तान में मुसलमानों के ही विभिन्न वर्ग ‘ला इलाहा इल्लल अल्लाह’ कहने वालों के ही दुश्मन बने हुए हैं। 

              यह सच है कि दक्षिणपंथी विचारधारा के दल आज सत्ता में हैं परन्तु फिर भी महात्मा गाँधी का यह देश यहाँ के बहुसंख्य हिन्दू समाज के चलते तथा भारतीय संविधान की वजह से आज भी दुनिया का सबसे बड़ा धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। 1947 के पहले भी समग्र भारतीय मुसलमानों ने किसी मुसलमान को अपना नेता स्वीकार नहीं किया और आज भी यहाँ के मुसलमान देश के विभिन्न धर्मनिरपेक्ष दलों को अपना समर्थन देते हैं। मुसलमानों पर आने वाले किसी भी संकट के समय भारतीय धर्मनिरपेक्ष हिन्दू व सिख सभी उनके साथ खड़े होते हैं। ख़ुद अटल बिहारी वाजपेयी कह चुके हैं कि भारत की धर्मनिरपेक्षता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या भाजपा जैसे संगठनों के कारण नहीं, बल्कि हिंदू समुदाय की सहिष्णु और समावेशी प्रकृति के कारण बनी हुई है। गोया वर्तमान समय में अनेक संकटों के बावजूद भारत, मुसलमानों के लिये सबसे सुरक्षित देश है। यहाँ कुछ भी हुआ हो परन्तु ऑपरेशन लाल मस्जिद जैसी घटना कभी नहीं घटी। इसलिए आज का सबसे बड़ा सवाल यही है कि जिस देश की नीति और नीयत सब कुछ ‘नापाक’ हो फिर भी उसे ‘पाकिस्तान ‘ कहना कितना मुनासिब होगा ?

बदलते युग का नया तमाशा: संस्कारों की सिसकियाँ

(समाज में बदलती नैतिकता, रिश्तों की उलझन और तकनीक के नए असर पर)

समाज में अब बेटी की निगरानी नहीं, दादी और सास की होती है। तकनीक और आज़ादी के इस युग में रिश्तों की परिभाषा बदल गई है। जहाँ पहले लड़कियों की सुरक्षा सबसे बड़ी चिंता थी, अब वही महिलाएं अपनी आज़ादी के साथ नई दुनिया की खोज में हैं। पुरुषों की निगरानी पर स्त्रियाँ भी चौकस हो गई हैं। रिश्ते अब उम्र और संस्कार से नहीं, टेक्स्टिंग फ्रिक्वेंसी से तय होते हैं। यह व्यंग्य समाज के बदलते चेहरे को हँसते-हँसते सोचने पर मजबूर करता है — आखिर अब कौन भागेगा?

– प्रियंका सौरभ

कभी सामाजिक डर और परिवार की इज्जत की चिंता बेटियों की निगरानी का आधार हुआ करती थी। ये वो दौर था जब बेटी की सादगी, उसके रहन-सहन पर कड़ी नजर रखी जाती थी। मोहल्ले के चौपाल में सबसे बड़ा मुद्दा यही होता था कि “लड़की भाग गई,” जैसे कोई बड़ी दुर्दशा हुई हो। आज का जमाना अलग है। आज तकनीक और आज़ादी के ज़माने में चौकसी की दिशा ही बदल चुकी है। अब निगाहें बेटियों पर नहीं, बल्कि दादी, सास, भाभी, और काकी पर टिक गई हैं। यही नहीं, अब “कौन भागा?” यह सवाल बेटियों के लिए नहीं, बल्कि घर की “अनुभवी महिलाओं” के लिए बन गया है। यह नया सामाजिक हकीकत है, जिसमें हंसी-ठिठोली के बीच गंभीर सवाल भी छिपे हैं।

कुंवारी नहीं, कुलवधुएँ फरार हैं!

एक समय था जब समाज में कुंवारी लड़कियों का भागना गंभीर मामला माना जाता था। वह भागना कहीं कोई भटकाव नहीं, बल्कि “इज्जत” का संकट होता था। माँ-बाप, रिश्तेदार, मोहल्ला — हर कोई इसी चर्चा में मशगूल रहता। पर आज स्थिति पूरी तरह बदल गई है। आज बेटियाँ करियर बना रही हैं, आत्मनिर्भर बन रही हैं। पढ़ाई, नौकरी, प्रतियोगिता की भागदौड़ में उनकी “भागना” के मायने ही बदल गए हैं। मगर घर की “अनुभवी महिलाएँ” — यानी माँ, भाभी, काकी, दादी — व्हाट्सएप पर “मिसिंग यू माई सनशाइन” के स्टेटस लगाकर, ‘लोकेशन ऑफ’ कर फ़िक्र से दूर कहीं निकल जाती हैं। कहीं बाहर घूमने, दोस्तों से मिलने, तो कहीं नए-नए ‘फ्लर्ट’ की खोज में।

यह स्थिति देखना है तो बहुत ही हास्यास्पद और एक बार सोचने पर चिंताजनक भी है। जो पीढ़ी संस्कारों की किताबें पढ़ाकर लड़कियों को संभालती थी, वही अब खुद संस्कारों को नया अर्थ दे रही है।

चारित्रिक उलटफेर का युग

वह दौर याद करें जब “संस्कार” का मतलब था संयम, पाबंदी, और परम्परागत नैतिकता। आज की दादी इंस्टाग्राम और फेसबुक पर अपनी फोटो शेयर करती है, योगा के बजाय ‘यार’ के साथ मिलने चली जाती है। भाभी सिर्फ पारिवारिक रीति-रिवाज नहीं निभाती, बल्कि ‘लीडर’ की तरह अपने दोस्ती और डेटिंग लाइफ को सेलिब्रेट करती है। इन सब बदलावों में परंपराओं का टूटना या फिर उनका नया अवतार — दोनों ही बातें सच हैं। जो पीढ़ी नैतिकता का फण्डामेंटल थी, आज वही ‘गुप्त चैटिंग’, ‘सीक्रेट ट्रिप्स’ और ‘मोडर्न फ्रेंडशिप’ के बीच उलझी हुई दिखती है।

पुरुषों की निगरानी पर स्त्रियों का ‘रिवर्स स्ट्राइक’

पुराने समय में परिवार और समाज में पुरुषों का नियंत्रण और निगरानी महिलाओं पर केंद्रित थी। पति, भाई, पिता के लिए महिलाओं की गतिविधियाँ सबसे महत्वपूर्ण होती थीं। मोबाइल नहीं था तो आंखों की चौकसी, गुप्त बातचीत की जांच। आज की पीढ़ी में यह संतुलन पलट गया है। पति अब मोबाइल पासवर्ड छिपाने के बजाय पूछते हैं — “तुमने किसका मैसेज डिलीट किया?” बेटा घबराकर सोचता है, “माँ कहीं प्यार में तो नहीं पड़ गई?” यानी अब पुरुष भी ‘निगरानी’ की जाल में फंसे हैं। यह ‘रिवर्स स्ट्राइक’ कई बार घर के माहौल को कंफ्यूज़िंग बना देती है। यह वही घर है जहां रिश्तों की पाबंदी होती थी, आज वही रिश्ते ‘टेक्स्टिंग फ्रिक्वेंसी’, ‘लोकेशन शेयरिंग’, और ‘वीडियो कॉल’ की पकड़ में हैं।

नई पीढ़ी की जिम्मेदारी बनाम पुरानी की आज़ादी

जिस बेटी की जिंदगी कभी पहरेदारी का विषय होती थी, आज वही बेटी घर की हर छोटी-बड़ी जिम्मेदारी निभा रही है। EMI के किस्ते से लेकर बच्चों की पढ़ाई तक, हर घर की ‘संचालन’ में वह लगी हुई है। और घर की बुजुर्ग महिलाएँ — सास ‘वेलनेस रिट्रीट’ पर हैं, दादी ‘रील’ बनाती हैं और सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं। जीवन में आज़ादी का मतलब बदल गया है — अब ‘फ्रीडम’ की परिभाषा पुराने संस्कारों से हटकर सोशल मीडिया और डिजिटल दोस्ती तक सीमित है।

रिश्तों की दिशा बदल रही है

रिश्ते अब उम्र, जाति, या सामाजिक स्तर से नहीं, बल्कि ‘इच्छा’ और ‘संपर्क की आवृत्ति’ से जुड़ते हैं। पहले रिश्ते स्थायी होते थे, अब ‘टेक्स्टिंग फ्रिक्वेंसी’, ‘इमोशनल स्टेटस’ और ‘लास्ट सीन ऑन/ऑफ’ ही रिश्तों की डिग्री तय करते हैं। स बदलाव में परिवार के मूल्यों की भी धज्जियां उड़ रही हैं। माता-पिता की भूमिका एक गाइड की बजाय ‘फ्रेंड’ की हो गई है। घर के अंदर अब बेटियों की नहीं, दादियों की निगरानी ज़रूरी हो गई है। यह एक विचित्र सामाजिक उलझन है, जो हमारी ‘आज़ादी’ और ‘संस्कार’ की जुगलबंदी को समझने पर मजबूर करती है।

तकनीक: विकल्प या भ्रम?

तकनीक ने जीवन को आसान बनाने के साथ-साथ रिश्तों को जटिल भी किया है। व्हाट्सएप, फेसबुक, इंस्टाग्राम जैसे प्लेटफ़ॉर्म्स ने संवाद के नए ज़रिया दिए, मगर वे पारिवारिक नज़दीकियों में दूरी भी लाए। जहाँ पहले चाय की प्याली के साथ घंटों बैठकर बातें होती थीं, आज वही बातचीत ‘डबल क्लिक’ और ‘डिलीट’ बटन के बीच सीमित हो गई है। इसके चलते रिश्तों की स्थिरता कम, उलझनें ज़्यादा बढ़ीं।

सामाजिक विडंबना और नया यथार्थ

इस सारे बदलाव का सबसे बड़ा असर यह है कि समाज की पुरानी धारणा — जहां बेटियों की इज्जत और व्यवहार को केंद्र माना जाता था — अब धुंधली पड़ गई है। अब एक ‘अधिकृत’ सवाल यह है कि क्या बेटी भागी है या दादी? क्या परिवार में बेटियों के लिए पहले जैसी पाबंदी रह गई है? या अब ‘जिम्मेदार’ और ‘आजाद’ महिलाएं अपनी जगह ले चुकी हैं? यह सवाल हँसी के साथ-साथ सामाजिक चिंतन का विषय भी है। आज के समय में रिश्ते, परिवार और नैतिकता के नए मायने तलाशने होंगे।

यह समाज की व्यंग्यात्मक तस्वीर हमें हँसाती है, पर साथ ही गंभीर सोच पर मजबूर भी करती है। क्या यह बदलाव आज़ादी का जश्न है, या रिश्तों का पतन? क्या तकनीक ने हमारे विकल्प बढ़ाए हैं, या भ्रम फैला दिया है? और सबसे अहम — अब जब कोई भागे, तो नाम पूछने से पहले बस इतना पूछिए — “उसका लास्ट सीन ऑन था या ऑफ?”

-प्रियंका सौरभ

स्वार्थ की सिलवटें

चेहरों पर मुस्कानें हैं,
पर दिलों में दूरी है।
रिश्ते हैं बस नामों के,
हर सूरत जरूरी है।

हर एक ‘कैसे हो’ के पीछे,
छुपा होता है सवाल,
“तुमसे क्या हासिल होगा?”,
नहीं दिखता कोई हाल।

ईमान यहाँ बोली में है,
नीलाम हर मज़बूरी है।
जो बिक न सका आज तलक,
कल उसकी मजबूरी है।

धर्म, जात, सियासत सब,
अब सौदों की भाषा हैं,
बिकते हैं आदर्श यहाँ,
जैसे रोज़ की आशा हैं।

माँ-बेटा, भाई-बहन,
अब संबंध नहीं भाव हैं,
वसीयत के दस्तख़त बनकर,
टूट गए जो चाव हैं।

जब तक मतलब चलता है,
तब तक ‘तू मेरा अपना’,
जैसे ही बोझ बने,
कहते हैं – “अब तू सपना।”

पर कहीं किसी कोने में,
अब भी कोई रोता है।
बिना मतलब, बिना चाहत,
किसी को बस खोता है।

शायद वहीं से जन्म होगा,
फिर से रिश्तों का मौसम,
जहाँ दिल से दिल मिलेंगे,
न हो कोई सौदा हरदम।

— डॉ सत्यवान सौरभ

भारत बना विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था : नए भारत की नई उपलब्धि

वर्ष 2025 भारत के आर्थिक इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय के रूप में दर्ज हो गया है। अब तक विश्व की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था रहने वाला भारत, जापान को पीछे छोड़ते हुए चौथे पायदान पर पहुँच चुका है। यह उपलब्धि प्रत्येक भारतीय के लिए गर्व और प्रसन्नता का विषय है। देश की अर्थव्यवस्था अब चार ट्रिलियन डॉलर से अधिक की हो चुकी है, जो न केवल हमारी आर्थिक नीतियों की सफलता का प्रमाण है, बल्कि भारत की वैश्विक पहचान को भी नई ऊँचाइयों तक ले जा रहा है।

वर्तमान में अमेरिका, चीन और जर्मनी अर्थव्यवस्था के मामले में भारत से आगे हैं, किंतु विशेषज्ञों का अनुमान है कि आने वाले तीन वर्षों में भारत विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। यह लक्ष्य न केवल संभव है, बल्कि जिस गति से भारत प्रगति कर रहा है, उसे देखकर यह आशा और भी प्रबल हो जाती है। देश के अर्थशास्त्री भविष्यवाणी कर रहे हैं कि वर्ष 2047 तक, जब भारत अपनी स्वतंत्रता की शताब्दी मना रहा होगा, तब तक हमारा देश ‘उच्च आय वाले देशों’ की श्रेणी में शामिल हो सकता है।

पिछले एक दशक में भारत ने आर्थिक, औद्योगिक, तकनीकी और आधारभूत ढांचे के क्षेत्र में जितनी तेज़ी से प्रगति की है, वह उल्लेखनीय है। आधार, यूपीआई, डिजिटल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया जैसी योजनाओं ने न केवल अर्थव्यवस्था को सशक्त किया है, बल्कि आम नागरिक की जीवनशैली को भी आधुनिक और सुविधाजनक बनाया है। निरंतर बढ़ती विदेशी निवेश की संभावनाएँ, मजबूत युवा जनसंख्या और नीतिगत सुधार, भारत को वैश्विक अर्थव्यवस्था का नेतृत्वकर्ता बनाने की दिशा में अग्रसर कर रहे हैं।

यह उपलब्धि केवल आर्थिक आँकड़ों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उस आत्मनिर्भर, सशक्त और विकसित भारत की ओर बढ़ते कदमों का प्रमाण है, जिसकी कल्पना कभी हमारे पूर्वजों ने की थी। आने वाले वर्षों में भारत न केवल आर्थिक महाशक्ति बनेगा, बल्कि विश्व पटल पर अपनी नीति, संस्कृति और मूल्यों के साथ भी एक सशक्त उपस्थिति दर्ज कराएगा।

 – -सुरेश गोयल धूप वाला

अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर उच्छृंखलता मंजूर नहीं

आज का युग सोशल नेटवर्किंग साइट्स का युग है। या यूं कहें कि आज विज्ञान और तकनीक का युग है।सच तो यह है कि हम एआइ चैटबाट के युग में सांस ले रहे हैं। हमारे देश में अभिव्यक्ति की आजादी सबको प्रदान की गई है, लेकिन पिछले कुछ समय से देश और समाज के कुछेक लोगों ने तकनीक और अभिव्यक्ति की आजादी का बहुत ही ग़लत उपयोग किया है। विशेषकर यू ट्यूबर्स-नैतिकता और मर्यादा को तांक पर रखकर कुछ भी ऊल-जुलूल इन माध्यमों पर बेरोकटोक परोस रहे हैं। यू-ट्यूबर्स और फेसबुक पर कंटेंट प्रस्तुतीकरण का तरीका बहुत ही अजीबोगरीब व ग़लत हो गया है। फेसबुक, यूट्यूब पर ज्यादा से ज्यादा लाइक्स, शेयर और कमेंट्स पाने के लिए यूट्यूबर्स और फेसबुक संचालक अपनी मर्यादाएं भूल रहें हैं और उन्हें समाज और देश से कोई भी सरोकार नहीं रहा है। यह ठीक है कि आज का जमाना टैक्नोलॉजी(तकनीक) का है, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि इनके प्रस्तुतीकरण में मर्यादाएं, नैतिकता आखिर क्यों तार-तार हो रही हैं? नैतिकता, आदर्श और मूल्य नाम की तो जैसे आज कोई चीज़ बची ही नहीं है। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर सार्वजनिक रूप से कुछ भी कह देना और बात-बात पर विवाद खड़े कर देना, क्या पत्रकारिता है ? कुछ लोग इसे ‘बोल्डनेस'(साहस, स्पष्टतया) करार देते हैं, तो कुछ लोग इसे ‘फ्रैंकली’ अपनी बात रखना तक कहते हैं, लेकिन सार्वजनिक मंचों पर बात कहने या रखने का भी आखिर कोई तरीका होता है, मर्यादा होती है, नैतिकता होती है, मूल्य और आदर्श होते हैं। बहरहाल, यहां पाठकों को बताता चलूं कि जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में 22 अप्रैल 2025 को हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच सीमा पर तनातनी(युद्ध) के बाद इंटरनेट और न्यूज पर इन दिनों ट्रैवल यूट्यूबर ज्योति मल्होत्रा का नाम बहुत वायरल हो रहा है। गौरतलब है कि हरियाणा के हिसार की रहने वाली ज्योति को पुलिस और भारतीय सुरक्षा एजेंसियों द्वारा पाकिस्तानी जासूस होने के इल्जाम में गिरफ्तार किया गया है। यहां पाठकों को यह भी बताता चलूं कि हिसार की रहने वाली ज्योति अपने यूट्यूब चैनल(ट्रेवल विद जो) पर ट्रैवल वीडियोज बनाती हैं और उन्हें कुछ संदिग्ध पाकिस्तानी ऑफिशियल्स के साथ संबंधों को लेकर गिरफ्तार किया गया है। जानकारी के अनुसार ज्योति पर आरोप है कि अपने वीडियोज के अलावा, ज्योति इंडियन आर्मी से जुड़ी संवेदनशील जानकारी अपने पाकिस्तानी कॉन्टैक्ट्स तक पहुंचाती थीं तथा इसमें लोकेशन डिटेल्स भी शामिल होती थीं। यह भी जानकारी मिलती है कि ज्योति के यू-ट्यूब वीडियोज में भी पाकिस्तान को पॉजिटिव तरीके से प्रमोट किया गया है। खबरों के अनुसार ज्योति मल्होत्रा पाकिस्तान से वापस आने के बाद कश्मीर गई थीं और वहां पर रास्तों, रेलवे ट्रैक और अन्य चीजों के वीडियोज शेयर किए थे। यू-ट्यूब पर करियर बनाने वाली ज्योति व्यूज, लाइक्स और शेयर के चक्कर में साजिश का हिस्सा बन गई। दरअसल, वो भारत के खिलाफ आइएसआइ (पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी) की गहरी साजिश का हिस्सा हो गई। वह भारत के खिलाफ ‘डिजिटल वॉर’ में शामिल बताई जा रही है। शायद यही कारण है कि ज्योति की गिरफ्तारी के बाद अब भारत में उसके खिलाफ जांच जारी है और उसे रिमांड पर लिया गया है। दरअसल , जांच एजेंसियां यह जानना चाहती हैं कि ज्योति मल्होत्रा के पाकिस्तान दौरे पर जो खर्च हुए उसमें उसकी किसने मदद की? सवाल उठना लाजिमी है, क्योंकि उसके पाकिस्तान दौरे पर बेहिसाब पैसे खर्च हुए जो उसकी आमदनी से ज्यादा थे। हालांकि, ज्योति मल्होत्रा के बारे में क्या सच है और क्या झूठ है, यह सब तो गहन जांच पड़ताल के बाद में ही सबके सामने आ पाएगा।बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि आज यू-ट्यूबर्स देश की सुरक्षा की परवाह किए बगैर जानकारियां दूसरे देशों को साझा कर देते हैं और यह देश के लिए कभी भी एक बड़ा खतरा बन सकता है। बहरहाल, पाठकों को बताता चलूं कि भद्दे कमेंट्स (गाली-गलौज) तथा सैक्स संबंधी सवालों के उल्लेख को लेकर पिछले दिनों कुछ यू ट्यूबर्स के विरुद्ध मामले कोर्ट तक पहुंचे। आज विभिन्न यूट्यूबर्स सस्ती लोकप्रियता के चलते ऐसे ऐसे विडियो बेपरवाह पोस्ट कर देते हैं, जिनका कोई ठौर-ठिकाना तक नहीं होता। कंटेंट इतना अश्लील,भद्दा होता है कि क्या कहें? व्यूज और लाइक्स के साथ पैसा कमाने के चक्कर में ऐसे यूट्यूबर्स देश की सुरक्षा तक से खिलवाड़ कर बैठते हैं,जो बहुत ही चिंतनीय विषय है। आज सच के नाम पर यू-ट्यूब पर झूठ का पुलिंदा परोसा जाता है,जिस पर कोई रोक-टोक नहीं दिखती। बवाल मचता है तो ऐसे कंटेंट को या तो सार्वजनिक मंचों से हटा लिया जाता है अथवा माफी मांगकर काम चला लिया जाता है, लेकिन क्या कंटेंट को हटा देना और माफी मांग लेना ही इसका सही हल कहा जा सकता है? इस पर चिंतन-मनन की आवश्यकता है। सच तो यह है कि सच्ची खबर और फेक न्यूज तथा व्यूज में भी तो फर्क होता है। इन यू-ट्यूबरों के चैनलों पर आज न तो कंटेंट काम का मिलता है और न ही ये विश्वसनीयता और प्रामाणिकता पर ही खरे उतरते हैं। जो मन में आया, वही ऊल-जलूल कंटेंट सार्वजनिक मंचों पर जब चाहे डाल दिया जाता है। ख़बरें बतातीं हैं कि पाकिस्तान के लिए जासूसी के आरोप में गिरफ्तार ज्योति मल्होत्रा 3 बार पाकिस्तान जा चुकी है तथा उसने अपनी जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड यात्रा की व्यवस्था तथा बहुत सी जानकारियां दर्शकों के साथ साझा की हैं। ज्योति मल्होत्रा ही नहीं, पिछले दिनों से अन्य कई यूट्यूबर्स के नाम भी सामने आए हैं, जिन पर पाकिस्तान के लिए जासूसी करने के आरोप लगे हैं। बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि आज यू-ट्यूबर्स ने स्वयं को लोकप्रियता के शिखर पर स्थापित करने के लिए  नैतिकता, आदर्शों और मर्यादा का गला घोंट कर रख दिया है।रातों-रात स्टार बनने तथा पैसे कमाने की चाहत इन यू-ट्यूबरों को ऐसे गर्त में धकेल रही है, जो किसी भी लिहाज से, मसलन देश की सुरक्षा के लिहाज से, हमारे देश की सनातन संस्कृति और मूल्यों के लिए ठीक नहीं ठहराया जा सकता है। हमें यह बात अपने जेहन में रखनी चाहिए कि राष्ट्रीय सुरक्षा सबसे ऊपर है और राष्ट्र और समाज से बढ़कर कुछ भी नहीं। हमारे देश की संस्कृति की पूरे विश्व में आज भी खास पहचान है और हमारे मूल्यों और आदर्शों को आज पूरे विश्व में अनुशरण किया जाता है, ऐसे में जब हमारे यहां से ऐसे ऐसे कंटेंट सार्वजनिक मंचों पर परोसे जाएंगे तो हम दूसरों से भला क्या उम्मीद कर सकते हैं ? पाठक जानते हैं कि यू-ट्यूब और फेसबुक सार्वजनिक मंच हैं और आज संपूर्ण विश्व इन मंचों से जुड़ा हुआ है। कोई भी पोस्ट इन मंचों पर पोस्ट की जाती है तो उसके दूरगामी प्रभाव होते हैं, इसलिए यह बहुत ही जरूरी है कि इन मंचों पर प्रामाणिक और विश्वसनीय जानकारी ही पोस्ट की जाए और देश की सुरक्षा का हमेशा ध्यान रखा जाए। वास्तव में नैतिकता का दायरा कभी भी नहीं लांघा जाना चाहिए। अभिव्यक्ति की आजादी का यह मतलब तो कतई नहीं है कि कुछ भी ऊल-जुलूल बेरोकटोक परोस दिया जाए। आज ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ यू ट्यूबर्स ने नकारात्मकता और अश्लील और भद्दे कंटेंट परोसने का जैसा ठेका ले रखा है। यह ठीक है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या वाक स्वतंत्रता किसी व्यक्ति या समुदाय द्वारा अपने मत और विचार को बिना प्रतिशोध, अभिवेचन या दंड के डर के प्रकट कर पाने की स्थिति होती है तथा भारतीय संविधान वाक-स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य की प्रत्याभूति देता है, लेकिन हमें यह याद रखना चाहिए कि इस स्वतंत्रता पर राज्य द्वारा युक्तियुक्त निर्बन्धन इन बातों के संबंध में लगाए जा सकते हैं (क) मानहानि, (ख) न्यायालय-अवमान, (ग) शिष्टाचार या सदाचार, (घ) राज्य की सुरक्षा, (ङ) विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, (च) अपराध-उद्दीपन, (छ) लोक व्यवस्था, (ज) भारत की प्रभुता और अखंडता(16वां संविधान संशोधन 1963 से जोड़ा गया)। बहरहाल, पाठक जानते होंगे कि ध्रुव राठी हो, रणवीर इलाहबादिया हो या पूर्वा मखीजा हो, इन सबके मामले कहीं न कहीं अदालतों तक पहुंचें, क्यों कि नकारात्मक व ऊल-जलूल कंटेंट को परोसा गया। यह ठीक है कि आज तकनीक का युग है, लेकिन तकनीक का कभी भी ग़लत व नकारात्मक इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का भी। कहना ग़लत नहीं होगा कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर उच्छृंखलता हर हाल में नामंजूर है। हमें यह चाहिए कि हम हमारे देश के संवैधानिक और लोकतांत्रिक मूल्यों का पूरी तरह से ध्यान रखें। यहां पाठकों को बताता चलूं कि रणवीर इलाहाबादिया से जुड़े मामले में अश्लीलता के आरोपों पर भी सुप्रीम कोर्ट ने बेहद संतुलित लेकिन धारदार-सख्त टिप्पणी करते हुए यह स्पष्ट किया था कि न तो अश्लीलता के लिए कोई गुंजाइश छोड़ी जानी चाहिए और न ही इसे अभिव्यक्ति की आजादी की राह में आने देना चाहिए। गौरतलब है कि कुछ समय पहले रणवीर इलाहाबादिया को पॉडकास्ट जारी रखने की इजाजत देते हुए माननीय सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि वह नैतिकता और अश्लीलता की सीमा को लांघने की गलती न करें। बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि किसी को भी अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर किसी की भावनाओं को आहत करने, देश और समाज से सौहार्द-सद्भावना को खण्डित करने, बेवजह नफरत, द्वेष एवं घृणा का माहौल बनाने का कोई भी अधिकार नहीं है। अभिव्यक्ति की आजादी की भी अपनी हद और सीमाएं हैं।एआइ चैटबाट और तकनीक के इस युग में नियमों, आदर्शों, हमारे सामाजिक प्रतिमानों और नैतिकता तथा मर्यादाओं का पालन बहुत ही जरूरी व आवश्यक है।

सुनील कुमार महला

जब देश हुआ पहले: विदेश में ओवैसी और थरूर ने रखा भारत का पक्ष


अशोक कुमार झा

7 मई 2025 को हिंदुस्तान ने ऑपरेशन सिंदूर के माध्यम से एक स्पष्ट संदेश दे दिया — अब आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई केवल सीमाओं तक सीमित नहीं रहेगी, बल्कि उसकी जड़ तक पहुंच कर उसका समूल नाश किया जाएगा। इससे पहले 3 मई को अमरनाथ यात्रा मार्ग पर पहल्गाम में हुए नरसंहार ने देश की आत्मा को झकझोर दिया। महिलाओं और नवविवाहितों के खून से सनी घाटी ने पूरे देश को एक कर दिया।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उसी क्षण देश को यह संकेत दिया कि अब भारत संयम के मार्ग से हटकर निर्णायक कार्रवाई करेगा। उसी रणनीति का विस्तार अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी हुआ—जहां 7 देशों में भेजे गए 7 सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल (All-Party Delegations) ने भारत की कूटनीति का वह चेहरा दिखाया जो वर्षों बाद इस प्रकार एकजुट दिखाई पड़ा।
अमेरिका, बहरीन, फ्रांस, रूस, जापान, जर्मनी और ब्राजील में भेजे गए इन डेलीगेशनों का मकसद था—भारत की स्थिति स्पष्ट करना, पाकिस्तान का असली चेहरा उजागर करना और वैश्विक समर्थन जुटाना।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता डॉ. शशि थरूर और एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी—दो ऐसे नेता जिन्होंने नरेंद्र मोदी सरकार की नीतियों पर अक्सर कटाक्ष किए हैं—अब वही नेता विदेशों में खड़े होकर भारत सरकार के ऑपरेशन सिंदूर की खुले मंच पर सराहना कर रहे थे।


थरूर की अमेरिका में हुंकार:
शशि थरूर ने न्यूयॉर्क में कहा— “मैं सरकार के लिए नहीं, विपक्ष के लिए काम करता हूं लेकिन पहलगाम के बाद जिस तरह सरकार ने त्वरित और निर्णायक कार्रवाई की, वह भारत की संप्रभुता की रक्षा का स्पष्ट प्रमाण है। आतंकवाद अब और बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।”
उन्होंने यह भी जोड़ा कि अमेरिका जैसे देश को यह समझना होगा कि भारत भी 9/11 जैसा ही दर्द झेल रहा है और उसे वैसी ही निर्णायक एकजुटता की ज़रूरत है। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र प्रतिनिधियों और अमेरिकी सांसदों से स्पष्ट शब्दों में कहा कि: “आतंकवाद मानवता का दुश्मन है—और पाकिस्तान उसका पालनहार।”


ओवैसी की बहरीन में खरी-खरी:
बहरीन में प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा बने ओवैसी ने पाकिस्तानी चरमपंथ और आतंकी प्रशिक्षण शिविरों का पर्दाफाश करते हुए कहा—
“हमारे मतभेद राजनीति तक हैं, देशहित में हम सब एक हैं। पाकिस्तान को FATF की ग्रे सूची में लाने में बहरीन हमारा साथ दे।”
उन्होंने बहरीन के शासकों से अपील करते हुए कहा कि: “हमारी नवविवाहिता महिलाओं को आतंकवाद ने विधवा बना दिया है। पाकिस्तान आतंक को ट्रेनिंग और पैसा दे रहा है। यह मानवता के खिलाफ युद्ध है।”

ऐसे क्षण विरले आते हैं जब कोई राष्ट्र अपनी राजनीतिक सीमाओं को पार कर एक स्वर में बोलता है। इतिहास गवाह है कि 1977 में अटल बिहारी वाजपेयी जब विदेश मंत्री बन UNGA पहुंचे तो उनसे पूछा गया कि क्या वह इंदिरा गांधी की विदेश नीति की आलोचना करेंगे। जवाब में अटल जी ने कहा: “इंदिरा गांधी से मेरा विरोध देश में है, विदेश में नहीं।”
इसी तरह जब मोरारजी देसाई ने इंदिरा गांधी को अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व करने भेजा, तो उन्होंने कहा था – “यहां इंदिरा गांधी नहीं, भारत की आवाज बोल रही है।”
2025 में वह ऐतिहासिक लम्हा एक बार फिर दोहराया गया, जब विपक्ष और सत्ता, हिंदू और मुसलमान, दक्षिण और उत्तर—सभी एक स्वर में बोले कि भारत अब आतंकवाद नहीं सहेगा।

इन डेलीगेशनों का मकसद केवल एकजुटता दिखाना नहीं था, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की स्थिति को स्पष्ट करना भी था:

·  FATF (Financial Action Task Force) में पाकिस्तान को फिर से ग्रे सूची में लाने की मांग

·  UNSC में आतंक को समर्थन देने वाले राष्ट्रों के खिलाफ प्रतिबंधात्मक प्रस्तावों की मांग

·  G20 और SCO जैसी वैश्विक संस्थाओं में आतंक-प्रेरक राष्ट्रों की अलग पहचान की वकालत

भारत ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अब यदि कोई राष्ट्र आतंक का समर्थन करता है—चाहे वह फंडिंग हो, लॉजिस्टिक्स हो या प्रचार तंत्र—तो उसे वैश्विक मंचों पर बेनकाब किया जाएगा।


 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मासिक कार्यक्रम ‘मन की बात’ में स्पष्ट कहा: “ऑपरेशन सिंदूर पर पूरा देश गर्व करता है। हमें आतंकवाद के खिलाफ निर्णायक बनना ही होगा। हमारी सरकार ने देश के नागरिकों की सुरक्षा के लिए हर कदम उठाया है।”


जनता ने भी इस एकजुटता को सराहा। सोशल मीडिया से लेकर आमजन तक, एक ही भावना उभरी—“अब और नहीं”। जनता को यह भरोसा मिला कि नेता चाहे किसी दल से हों, जब बात देश की हो, वे एक साथ खड़े होते हैं।

एकजुट भारत की नई कूटनीतिक भाषा
यह प्रतिनिधिमंडल न केवल आतंकवाद के खिलाफ भारत की रणनीति का हिस्सा था, बल्कि यह एक नए भारत की परिकल्पना है—जहां विचारधाराएं, धर्म और दलों से ऊपर उठकर राष्ट्रीय हित की बात होती है।
भारत ने साबित कर दिया कि अब वह केवल पीड़ित राष्ट्र नहीं, बल्कि प्रभावी प्रतिकारक है। यह विदेश नीति की भाषा में एक नया अध्याय है—जहां शक्ति, नीति और एकता का संगम दिखाई देता है।


ऑपरेशन सिंदूर – सिर्फ सैन्य कार्रवाई नहीं, कूटनीतिक संदेश भी
7 मई 2025 को अंजाम दिए गए ऑपरेशन सिंदूर ने सिर्फ आतंकियों के खिलाफ सैन्य स्तर पर कार्रवाई नहीं की, बल्कि इससे बड़ा संदेश अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को दिया गया—भारत अब रक्षात्मक नहीं, आक्रामक नीति पर चलेगा।
सेना की इस कार्रवाई में LoC पार कर आतंकियों के ट्रेनिंग कैंप तबाह किए गए, और यह कार्रवाई बिल्कुल उसी अंदाज़ में की गई, जैसा 2016 में सर्जिकल स्ट्राइक और 2019 में बालाकोट एयर स्ट्राइक के दौरान हुआ था। फर्क सिर्फ इतना था कि इस बार पूरा राजनीतिक वर्ग—विपक्ष से लेकर सहयोगी दलों तक—एक स्वर में भारत की नीति के साथ खड़ा दिखा।
यह भी पहली बार हुआ कि भारतीय सेना की रणनीतिक कार्रवाई के ठीक बाद सरकार ने डिप्लोमैटिक ब्रिगेड को एक साथ सक्रिय कर दिया। विदेश मंत्रालय ने जहां दुनियाभर के 45 से अधिक देशों को अलग-अलग ब्रीफ़िंग  दी, वहीं 7 देशों में सांसदों का प्रत्यक्ष दौरा, एक नया वैश्विक मॉड्यूल बन गया।

असदुद्दीन ओवैसी का इस प्रतिनिधिमंडल में जाकर भारत का पक्ष रखना न सिर्फ राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण था बल्कि इससे एक सांस्कृतिक और सामाजिक संदेश भी गया— “आतंकवाद का कोई मज़हब नहीं होता, और भारत के मुसलमान पाकिस्तान के इस चरमपंथी चेहरे को नकारते हैं।”
ओवैसी ने बहरीन में कहा: “जो मजहब इंसानियत सिखाता है, वह आतंक नहीं सिखा सकता। पाकिस्तान न सिर्फ आतंकियों को समर्थन देता है, बल्कि इस्लाम की गलत व्याख्या करके दुनिया भर के मुसलमानों को गुमराह करता है।”


इस वक्तव्य का भारत के भीतर भी बड़ा प्रभाव पड़ा। देश के मुसलमानों ने ओवैसी के रुख को एक ‘Responsible Muslim Leadership’ के रूप में देखा, और पहली बार ऐसा हुआ कि कश्मीर और सीमांत राज्यों से मुसलमानों ने सोशल मीडिया पर आतंक के खिलाफ खुले समर्थन में पोस्ट लिखे।


विपक्ष का आत्मनिरीक्षण और नई भूमिका
2024 के आम चुनावों के बाद विपक्ष एक बार फिर से बिखरा हुआ और असंगठित माना जा रहा था लेकिन इस प्रतिनिधिमंडल की भूमिका में विपक्ष ने यह सिद्ध किया कि वह सत्ता के खिलाफ भले लड़ता हो लेकिन देश के खिलाफ नहीं खड़ा हो सकता।
कांग्रेस, टीएमसी, एआईएमआईएम, सीपीआई, एनसीपी, डीएमके, और आम आदमी पार्टी जैसे दलों के प्रतिनिधियों ने विदेश में जिस संयम और देशप्रेम से भारत की बात रखी, उसने विपक्ष को एक संवेदनशील और ज़िम्मेदार राष्ट्रवादी विपक्ष के रूप में स्थापित किया।
यह एक राजनीतिक पुनर्जन्म की भूमिका हो सकती है:
शशि थरूर, मनीष तिवारी, दिनेश त्रिवेदी, असदुद्दीन ओवैसी जैसे नेताओं ने यह सिद्ध किया कि जब उद्देश्य राष्ट्र का हो तो विपक्ष सत्तापक्ष का सहयोगी बन जाता है, प्रतिद्वंद्वी नहीं।


अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया—भारत को मिला समर्थन
इन प्रतिनिधिमंडलों के दौरों का प्रभाव साफ दिखाई देने लगा है:

·  बहरीन और UAE ने पाकिस्तान को “चरमपंथ को बंद करने” की सलाह दी

·  अमेरिका के सीनेट में भारत के समर्थन में एक प्रस्ताव पेश किया गया

·  फ्रांस ने कहा कि वह पाकिस्तान को सैन्य सहायता पर पुनर्विचार करेगा

·  जापान और जर्मनी ने आतंक के खिलाफ भारत के रुख की सराहना की

·  रूस ने भारत के ऑपरेशन सिंदूर को “टारगेटेड डिफेंस स्ट्राइक” कहकर समर्थन दिया

इन सभी प्रतिक्रियाओं से स्पष्ट हो गया कि भारत की कूटनीति ने ग्लोबल कॉमनसेंस को प्रभावित किया है। दुनिया अब आतंक के मामलों में पाकिस्तान के दावों पर नहीं, भारत की सच्चाई पर यकीन कर रही है।


इस अभियान में भारतीय मीडिया और डिजिटल डिप्लोमेसी की भी बड़ी भूमिका रही। विदेश मंत्रालय ने #OperationSindoor और #IndiaAgainstTerror जैसे हैशटैग्स के माध्यम से दुनियाभर में भारत की स्थिति स्पष्ट की।
 ट्वीटर (अब X) पर ओवैसी और थरूर के वीडियो लाखों बार देखे गए
 फ्रांस, जापान और अमेरिका में प्रदर्शन हुए जिनमें लोगों ने भारत के प्रति समर्थन जताया
 30+ अंतरराष्ट्रीय अखबारों में ऑपरेशन सिंदूर और पहलगाम हमले पर भारत की प्रतिक्रिया प्रमुख खबर बनी


क्या यह नई वैश्विक नीति की शुरुआत है?
सवाल उठता है—क्या यह डेलीगेशन मॉडल भविष्य में हिंदुस्तान की विदेश नीति का हिस्सा बनेगा? क्या यह केवल एक प्रतिक्रिया थी या नई नीति का संकेत?
विशेषज्ञों का मानना है कि—
“यह घटना भारत के लिए डिप्लोमेसी में ‘Soft Power + Strategic Messaging’ मॉडल की शुरुआत है। अब सिर्फ राजदूत नहीं, सांसद, कलाकार, खिलाड़ी भी देश की आवाज बनेंगे।”
यह विदेश नीति की जनभागीदारी मॉडल की नींव है जहां लोकतंत्र का हर स्तंभ राष्ट्रीय रुख को विश्व मंच पर रखेगा।
भाग 13: “मोदी की कूटनीति + विपक्ष की दृढ़ता” = भारत की नई शक्ति संरचना
यह वक्त स्पष्ट करता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तीव्र और स्पष्ट विदेश नीति तथा विपक्ष के कुछ प्रमुख नेताओं की दूरदर्शिता और राष्ट्रप्रेम ने मिलकर एक ऐसा नया स्वरूप रचा है, जो संभवतः नेहरू-इंदिरा युग के बाद की सबसे प्रभावशाली राष्ट्रीय एकता की मिसाल है।


मोदी सरकार की कूटनीति:
सरकार ने पहले ही दिन से यह स्पष्ट किया कि आतंकवाद अब सिर्फ सुरक्षा समस्या नहीं है, यह विदेश नीति का केंद्र बिंदु है।

·  UN, SCO, G20, FATF जैसे मंचों पर भारत ने पाकिस्तान को बेनकाब करने की रणनीति अपनाई

·  पहली बार, मल्टी-पार्टी प्रतिनिधिमंडलों के माध्यम से न्यायसंगत देशव्यापी भावना को वैश्विक स्वरूप दिया गया

·  सरकार ने यह भी प्रदर्शित किया कि भारत अब ‘Reactive Nation’ नहीं, ‘Strategic Nation’ है

विपक्ष की भूमिका:
थरूर, ओवैसी, मनीष तिवारी, आदि नेताओं ने यह समझा कि यदि आज वे सरकार के साथ खड़े नहीं हुए, तो वे लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व से चूक जाएंगे।
इस आत्मचिंतन के परिणामस्वरूप विपक्ष ने पहली बार अपने मतभेदों को ‘घर की बातें’ मानकर विदेश में एकता का चेहरा दिखाया।


अंतरराष्ट्रीय कानून और भारत की नई पैरवी
अब तक भारत का दृष्टिकोण आत्म-संयम पर आधारित रहा, लेकिन ऑपरेशन सिंदूर के बाद यह स्पष्ट हुआ कि भारत अब सिर्फ आतंकी कार्रवाई का जवाब ही नहीं देगा, बल्कि उसके प्रायोजक राष्ट्रों को अंतरराष्ट्रीय नियमों के तहत कठघरे में खड़ा करेगा।
भारत ने जो मांगें उठाई:

1.  FATF से पाकिस्तान को फिर से ग्रे लिस्ट में डालने की अपील

2.  UNSC में आतंक को समर्थन देने वाले देशों पर प्रतिबंध लागू करने की मांग

3.  ICJ में पाकिस्तान के खिलाफ सबूत सहित याचिका देने की तैयारी

4.  Interpol से आतंकियों की गिरफ्तारी में सहयोग का प्रस्ताव

यह पहली बार है कि भारत ने सुरक्षा नीति + अंतरराष्ट्रीय कानून को जोड़कर एक ‘डिफेंस-जस्टिस मॉडल’ प्रस्तुत किया है।
 भाग 15: युवाओं के लिए संदेश—राजनीति से ऊपर राष्ट्र
सभी कॉलेज परिसरों, डिजिटल मंचों और छात्र संघों में इस घटनाक्रम ने एक नई विचारधारा को जन्म दिया है।
युवा अब यह समझने लगे हैं कि नेता की पहचान उसकी पार्टी से नहीं, देश के प्रति उसकी प्रतिबद्धता से होती है।
 देशभर में युवाओं की प्रतिक्रियाएं:

·  दिल्ली विश्वविद्यालय: “ओवैसी ने पहली बार एक राष्ट्रनायक जैसा व्यवहार किया”

·  JNU: “थरूर का संयमित और तार्किक दृष्टिकोण प्रेरणादायक”

·  BHU और AMU: “भारत की विदेश नीति अब सिर्फ नौकरशाहों की बात नहीं, जनभावना की अभिव्यक्ति बन गई है”

 यह स्पष्ट संकेत है कि अगली पीढ़ी की राजनीतिक चेतना विचारधारा के ऊपर राष्ट्रीय एकता को प्राथमिकता देने वाली होगी।


अब आगे क्या?—नीति सुझाव और भविष्य की संभावनाएं

1.  सर्वदलीय विदेश नीति मंच (All-Party Foreign Policy Council):
एक स्थायी निकाय बने, जिसमें विपक्षी दलों के प्रतिनिधियों को विदेश नीति विमर्श में भागीदार बनाया जाए।

2.  राष्ट्रीय सुरक्षा संवाद (National Security Dialogue):
हर बड़ी सैन्य कार्रवाई के बाद संसद और प्रमुख दलों के बीच गोपनीय संवाद हो।

3.  ‘एक देश, एक विदेश रुख’ (One Nation, One Voice Abroad):
हर अंतरराष्ट्रीय मुद्दे पर भारत की एक आवाज हो—भले संसद में मतभेद रहे हों।

4.  डिजिटल कूटनीति नेटवर्क (Digital Diplomacy Grid):
युवा सांसदों, पत्रकारों और सोशल मीडिया प्रभावितों की टीम तैयार कर, भारत की विदेश नीति को आधुनिक माध्यमों से प्रचारित किया जाए।

अंतिम भाग (भाग 17): ऐतिहासिक दृष्टिकोण—जब इतिहास ने दोहराया खुद को
2025 का यह घटनाक्रम स्वतंत्र भारत के इतिहास में 1971 की बांग्लादेश मुक्ति संग्राम, 1998 के पोखरण परमाणु परीक्षण, और 2016-2019 के स्ट्राइक जैसी राष्ट्रीय चेतना की नई लहर जैसा माना जा सकता है।
 1971 में इंदिरा गांधी ने विरोध के बावजूद देश को नई दिशा दी
 1998 में वाजपेयी सरकार ने अमेरिका के विरोध के बावजूद राष्ट्रहित में फैसला किया
 2025 में मोदी सरकार और विपक्ष दोनों ने एकजुट होकर आतंकवाद के खिलाफ मोर्चा खोला
यह घटना भविष्य में पाठ्यपुस्तकों, कूटनीतिक प्रशिक्षण, और राष्ट्रीय संवाद के उदाहरण के रूप में दर्ज होगी।
जब राष्ट्र बना धर्म, और एकता बनी शक्ति
भारत की राजनीति में बहुत कुछ गलत हो सकता है—विकास पर विवाद, शिक्षा पर बहस, धर्म पर ध्रुवीकरण—लेकिन जब बात देश की सुरक्षा, सम्मान और अखंडता की हो, तब भारत एकजुट होता है।
2025 में भारत ने यही करके दिखाया। और यह सिर्फ एक सरकार की जीत नहीं है—यह हर नागरिक, हर सैनिक, हर मतदाता की जीत है।
 
‘भारत पहले’ – नई राष्ट्रीय चेतना का उदय
देश आज उस मुकाम पर खड़ा है, जहां विचारधाराएं भिन्न हो सकती हैं, लेकिन राष्ट्रवाद की भावना साझा है।
ओवैसी का बहरीन में पाकिस्तान के खिलाफ बोलना, थरूर का अमेरिका में सरकार की रणनीति का समर्थन करना, और अटल-इंदिरा की परंपरा का पुनर्जीवन—यह सब दर्शाता है कि:
“राजनीति का अंतिम उद्देश्य भारत होना चाहिए—न कि सत्ता।”
2025 के इस निर्णायक क्षण में भारत ने दुनिया को बता दिया है कि यह देश एक विचार है, एक संकल्प है, और एकजुटता की शक्ति है।

अशोक कुमार झा

पाकिस्तान परस्ती के पीछे क्या है अमेरिकी कूटनीति

·       डॉ ब्रजेश कुमार मिश्र

22 अप्रैल 2025 को कश्मीर के पहलगाम स्थित बैसारन घाटी  में पाँच सशस्त्र उग्रवादियों द्वारा किए गए हमले के बाद से ही भारत-पाक के संबंध ऐतिहासिक रूप से सबसे नाजुक मोड़ पर पहुँच गए। भारत द्वारा अपनी वायुसेना के माध्यम से 6-7 मई 2025  की रात को ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के तहत पाकिस्तान और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में 9 आतंकी ठिकानों पर एयर स्ट्राइक की गई। इसमें  प्रतिबंधित आतंकी संगठनों जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-तैयबा और हिज्बुल मुजाहिदीन के मुख्यालयों को निशाना बनाकर विशेष कार्रवाई की गई। इसमें मरकज़ सुब्हान अल्लाहबहावलपुर –जैश-ए-मोहम्मद का ठिकाना, मरकज़ तैयबामुरिदके – लश्कर-ए-तैयबा का मुख्यालय, सरजलटेहड़ा कलां – जैश-ए-मोहम्मद का अड्डा, महमूना जोयासियालकोट – हिज्बुल मुजाहिदीन का ठिकाना, मरकज़ अहले हदीसबरनाला – लश्कर-ए-तैयबा का अड्डा, मरकज़ अब्बासकोटली – जैश-ए-मोहम्मद का केंद्र, मस्कर रहील शहीदकोटली – हिज्बुल मुजाहिदीन का प्रशिक्षण शिविर शवाई नाला कैंपमुजफ्फराबाद – लश्कर-ए-तैयबा का आतंकी शिविर और सैयदना बिलाल कैंपमुजफ्फराबाद – जैश-ए-मोहम्मद का संचालन केंद्र सम्मिलित था।

इसके बाद पाकिस्तान की तरफ से भारत के ख़िलाफ़ ऑपरेशन बुनयान अल मरसूस शुरू किया गया। दोनों ने ही एक-दूसरे के ड्रोन और मिसाइल मार गिराने का दावा किया।  नियंत्रण रेखा पर भी भारत और पाकिस्तान के बीच भारी गोलाबारी हुई। जब यह संघर्ष युद्ध की तरफ बढ़त दिख रहा था तभी 10 मई की शाम 5 बजे दोनों देशों ने सभी तरह की सैन्य कार्रवाई रोकने की घोषणा कर दी। इस सीजफायर को लेकर अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के गलियारों में एक बहस छिड़ी की आखिर सीजफायर हुआ कैसे? डोनाल्ड ट्रम्प के द्वारा एक के बाद एक दावे किए गए कि इसमें अमेरिका की बड़ी भूमिका है। पाकिस्तान की तरफ से भी इसका समर्थन किया गया, हालांकि भारत सरकार ने इसका खंडन किया। बहरहाल सीजफायर किन परिस्थियों में हुआ, यह एक गूढ प्रश्न तो है ही, साथ ही एक विशेष प्रश्न यह भी है कि लगभग तीन दिन तक चले इस संघर्ष के दौरान अमेरिका का रूख पाकिस्तान परस्त क्यों था? दूसरे शब्दों में सब कुछ जानते बूझते अमेरिका का रुझान पाकिस्तान की ओर क्यों है?

यह प्रश्न बड़ा ही संजीदा है और इसका जवाब तारीख(इतिहास) में देखने को मिलेगा। पाकिस्तान जब एक अलग मुल्क बना, तभी उसने भारत के विपरीत अमेरिकी ब्लाक से अपने सम्बन्ध स्थापित करने शुरू कर दिए और वह सीटो का सदस्य बन गया। इसका उसे फायदा भी मिला. चूंकि अफगानिस्तान में सोवियत संघ का हस्तक्षेप बढा तो उसे काउंटर करने के मद्देनजर पाकिस्तान को अमेरिका ने हथियार और पैसा देना आरम्भ किया। यहीं से मुजाहिदीन और बाद में तालिबान का जन्म हुआ। अमेरिका के रहमो करम पर इस संगठन ने अफगानिस्तान को सोवियत रूस से मुक्त कराया और खुद सोवियत रूस का विघटन हो गया। अमेरिका ने इसके बाद पाकिस्तान की फंडिंग बंद कर दी। इसके पीछे दो कारण थे 1. अमेरिका का राष्ट्रीय हित और 2. पाकिस्तान का न्यूक्लियर प्रोग्राम। हालांकि 9/11 के बाद परिस्थितियाँ फिर बदलीं और अमेरिका ने अफगानिस्तान में हस्तक्षेप किया और फिर पाकिस्तान को आतंकवाद के खिलाफ लड़ने के निमित्त फंड देना शुरू कर दिया।

2018 में ट्रम्प प्रशासन ने सैन्य सहायता देना बन्द कर दी। 2019 के बाद फिर स्थितियाँ सुधरीं और फरवरी 2020 में अमेरिका और तालिबान के बीच दोहा वार्ता में पाकिस्तान ने बिचौलिया की भूमिका निभाई और वह एक बार फिर से अमेरिका के करीब आ गया। अफगानिस्तान के पतन के बाद अमेरिका अगस्त 2021 में अफगानिस्तान से हट गया परन्तु अभी भी अमेरिका ने कई तरीके से फंडिंग जारी रखी। इस दौर में पाकिस्तान को चीन से भी मदद मिलती रही। चीन ने पाकिस्तान के ग्वादर तक एक गलियारा बना दिया हालांकि अभी तक अरबों डॉलर का निवेश करने के बावजूद चीन को इस गलियारे से कुछ विशेष हासिल नही हुआ है। प्रथम द्रष्टया अमेरिका का पाकिस्तान के तरफ झुकाव का कारण उनका ऐतिहासिक रिश्ता है. बावजूद इसके कुछ और भी महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं जिसके कारण पहलगाव हमले और ऑपरेशन सिंदूर के बाद अमेरिका की पाकिस्तान परस्ती जारी है।

मोटे तौर पर इसके पीछे कुछ कारक भी दिखलायी पड़ते हैं जैसे अफगानिस्तान की निगरानी, चीन का प्रतिकार और भारत को संतुलित करना। अमेरिका अफगानिस्तान से जाने के बाद भी यह नही चाहता है कि एक बार पुनः अफगानिस्तान अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद की शरणस्थली बने। वस्तुतः अमेरिका पाकिस्तान का इस कारण समर्थन करता है ताकि वह अफगानिस्तान की निगरानी कर सके क्योंकि पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आई.एस.आई  की गहरी पैठ तालिबानी नेटवर्क में रही है, अतः अमेरिकी एजेंसी इनका अनवरत लाभ लेने के लिए तत्पर रहती हैं। साथ ही ईरान और रूस के साथ उसके तनावपूर्ण रिश्ते हैं और इनकी निगरानी हवाई माध्यम से ही हो सकती है और इसके लिए पाकिस्तान सबसे अच्छी जगह है। जहाँ तक चीन का प्रश्न है तो अमेरिका यह नही चाहता कि चीन का पाकिस्तान में हस्तक्षेप बढ़े, क्योंकि वर्तमान सदी में चीन लगातार अमेरिका को चुनौती देते हुए अपनी प्रभुता को बढ़ाता जा रहा है। ग्वादर पोर्ट के जरिए चीन की पैठ हिंदमहासागर में बढ़ रही है, इसके लिए उसने काफी पैसा खर्च किया है।

एक और स्थिति जिसका फायदा मौकापरस्त चीन उठा सकता है, यदि पाकिस्तान बहुत अधिक कमजोर हो जाता है तो चीन उसकी संप्रभुता का फायदा उठा सकता है। निःसंदेह यह अमेरिकी हितों के विरुद्ध होगा। शायद यही कारण है कि अमेरिका पाकिस्तान की सेना के ज्यादे करीब है वनिस्पत सरकार के। भारत के साथ अमेरिका अपने संबंधों को संतुलित करने का प्रयास कर रहा है। विगत तीन वर्षों से रूस यूक्रेन युद्द के बीच अमेरिका के लगातार माना करने के बावजूद भारत ने रूस के साथ व्यापारिक रिश्ता कायम किया और युद्ध काल में रूसी तेल का आयातक भी बना। रूस के साथ भारत के सामरिक सम्बन्ध भी हैं यह बात अमेरिका बर्दास्त नही कर सकता। इसी कारण वह पाकिस्तान की तरफ झुका हुआ है।

27 अप्रैल 2025 को इस्लामाबाद में ट्रंप परिवार की 60 प्रतिशत हिस्सेदारी वाली क्रिप्टो करेंसी कंपनी वर्ल्ड लिबर्टी फाइनेंशियल और पाकिस्तान क्रिप्टो काउंसिल के बीच हुए समझौते को इसके पीछे तात्कालिक कारक माना जा सकता है। यह डील पाकिस्तान को क्रिप्टो हब बनाने के उद्देश्य से की गई। खास बात यह है कि पाकिस्तान क्रिप्टो काउंसिल ने बिनांस के विवादास्पद संस्थापक चांगपेंग झाओ को अपना रणनीतिक सलाहकार नियुक्त किया है जिन पर अमेरिका में मनी लॉन्ड्रिंग के आरोप लग चुके हैं। ऐसे में इस समझौते का इस्तेमाल टेरर फंडिंग और काले धन के लिए होगा। चूंकि इस डील में अमेरिकी राष्ट्रपति का परोक्ष रूप से जुड़ाव है अतः हो सकता है कि इसी वजह से भी अमेरिका पाकिस्तान का साथ दे रहा हो।

इस तरह पाकिस्तान की स्वतंत्रता के बाद अमेरिका ने अपने सैन्य और रणनीतिक हितों के लिए उसे भारी सैन्य सहायता दी जिसे पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ और आतंकवादी संगठनों को समर्थन देने में इस्तेमाल किया। भारत ने लगातार इस सहायता की आलोचना की और अमेरिका के तर्कों को खारिज किया। ओसामा बिन लादेन के पाकिस्तान में मारे जाने के बाद अमेरिका को पाकिस्तान की दोहरी नीति का एहसास तो हुआ परन्तु वह अनेक कारणों से पाकिस्तान को फंडिंग करता रहा। एक समय ऐसा भी आया जब अमेरिका पाकिस्तान की तुलना में भारत के बेहद करीब आ गया परन्तु अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के यथार्थवादी सिद्धांत को आधार बनाकर आज अमेरिका का झुकाव भारत की तुलना में पाकिस्तान की तरफ अधिक है। अंततः यह कहना सही होगा कि अमेरिका अपने हितों की पूर्ति के लिए पाकिस्तान से भौगोलिक,रणनीतिक एवं भू-सामरिक दृष्टि से जुड़ा है।

·       डॉ ब्रजेश कुमार मिश्र