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पाकिस्तान को हराना भी है और मिटाना भी है

वर्तमान में भारत-पाकिस्तान की सीमा पर जिस प्रकार के हालात बने हुए हैं ,उनके दृष्टिगत सारे देश की मांग यही है कि पाकिस्तान को इस बार पाठ पढ़ा ही देना चाहिए। प्रधानमंत्री श्री मोदी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि भारत की सेना ही यह तय करेगी कि उसे पाकिस्तान को किस प्रकार, कब , कहां और कैसे पाठ पढ़ाना है ? इस समय दोनों ओर ही सोशल मीडिया पर वाक युद्ध छिड़ा हुआ है। कागजी शेर कागजी बम फोड़ने में लगे हुए हैं। इस समय युद्ध को लेकर सोशल मीडिया पर गंभीर चिंतन नहीं आ रहा है। भावुकता के बयान सोशल मीडिया पर दिखाई दे रहे हैं। देश के प्रधानमंत्री को क्या करना चाहिए या सेना को क्या करना चाहिए और किस प्रकार हम अपने देश की कम से कम हानि करके भी शत्रु को सही रास्ते पर ला सकते हैं ?- ऐसा चिंतन निकलता हुआ दिखाई नहीं दे रहा।
ऐसा तो नहीं कहा जा सकता कि हमारे देश के रणनीतिकारों ने कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं किया होगा। निश्चित रूप से लक्ष्य निर्धारण का कार्य किया जा चुका है- ऐसा माना जा सकता है। क्योंकि बिना लक्ष्य के कभी भी कोई भारत जैसा गंभीर देश किसी दिशा में आगे बढ़ने का निर्णय नहीं कर सकता। फिर भी मीडिया में इस प्रकार के लेख स्पष्ट रूप से आने चाहिए कि यदि हम इस समय पाकिस्तान के साथ युद्ध करते हैं तो वह किस लक्ष्य को लेकर किया जाएगा ? क्या हमारा लक्ष्य आतंकी ठिकानों को समाप्त करना मात्र होगा या पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर को जितना होगा या पाकिस्तान के टुकड़े करना हमारा लक्ष्य होगा या पाकिस्तान में घुसकर पाकिस्तान को पाकिस्तान की औकात दिखाना हमारा उद्देश्य होगा ?
सर्वप्रथम पाकिस्तान पोषित आतंकवाद के संदर्भ में हमें यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि यह आतंकवाद कल परसों की बात नहीं है। जिस समय पाकिस्तान का जन्म भी नहीं हुआ था, उस समय से ही भारत इस प्रकार के इस्लामिक आतंकवाद को झेलता आ रहा है। पाकिस्तान का जन्म ही इस बात को लेकर हुआ था कि उसे भारत को समाप्त करने के लिए एक शिविर के रूप में प्रयोग किया जाएगा। आज पाकिस्तान के बड़े अधिकारी या कोई नेता जब यह कहता है कि हम पिछले 30 वर्ष से आतंकवाद का गंदा काम करते आ रहे हैं तो इसका अभिप्राय यह नहीं है कि पाकिस्तान के नेताओं का हृदय परिवर्तन हो गया है और उन्होंने सच को स्वीकार कर लिया है। वास्तव में ऐसा कहना केवल समस्या की वास्तविकता से ध्यान बंटाना माना जाना चाहिए । ऐसा कहकर वे यह दिखाना चाहते हैं कि हम गलती स्वीकार कर रहे हैं और आगे से ठीक रहेंगे। जबकि भारत को पाकिस्तान के पिछले इतिहास पर चिंतन करना चाहिए। जिस समय पाकिस्तान के साथ लाल बहादुर शास्त्री जी युद्ध कर रहे थे तो युद्ध हारने के बाद रूस द्वारा आहूत की गई ताशकंद बैठक में हुए ताशकंद समझौता के समय पाकिस्तान की तब भी यही भाषा थी कि अब कभी हम भारत के साथ युद्ध नहीं करेंगे। ऐसा कहकर पाकिस्तान तब हमारे देश के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी से भारत द्वारा जीते गए क्षेत्र को वापस लेने में सफल हो गया था। हमारे प्रधानमंत्री ने बड़े भारी दिल से रूस के दबाव में आकर उस दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिए थे।
6 वर्ष पश्चात ही 1971 में पाकिस्तान ने भारत के साथ फिर युद्ध करने की हिमाकत की। उस समय पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने हमारे देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के सामने नाक रगड़ते हुए यह कहा था कि “मैडम ! इस बार छोड़ दो। अब हम कभी भारत की ओर पैर करके भी नहीं सोएंगे ।” यह कहकर ही वह चालाक भुट्टो भारत से अपनी 93 हजार की गिरफ्तार सेना छुड़वा कर ले गया था। जबकि यह सही समय था, जब हम 93 हजार सेना के बदले में पाकिस्तान से अपना कश्मीर वापस ले सकते थे। यह वही भुट्टो था जो युद्ध से पहले कहा करता था कि भारत से हम 1000 वर्ष तक युद्ध लड़ेंगे। युद्ध के बाद अपनी औकात मालूम होते ही उसने रंग बदल दिया था, और हमारे देश की प्रधानमंत्री के सामने गिड़गिड़ाकर अपना उल्लू सीधा कर गया था। इतना ही नहीं, 1999 में कारगिल के समय में भी इसी पाकिस्तान ने अमेरिका के तलवे चाटकर युद्ध विराम के लिए भारत को मनवा लिया था । तब भी इसने लगभग यही भाषा बोली थी कि गलती हो गई और आगे से अब और नहीं करेंगे।
कुल मिलाकर पहली बात तो यह है कि हम पाकिस्तान की किसी भी प्रकार की गिड़गिड़ाहट पर ध्यान न दें। इसकी गिड़गिड़ाहट में भी धोखा होता है। हम सब एकता का परिचय दें और एक ही लक्ष्य को निर्धारित कर अपने देश की सरकार व सेना के पीछे आकर खड़े हो जाएं। दूसरे, इस बार हम सबका मनोयोग केवल एक होना चाहिए कि पाकिस्तान को हराना भी है और मिटाना भी है। उसके जितने टुकड़े हो सकते हैं कर दिए जाने चाहिए। तीसरे,अपना पीओके वापस लेना है।
हमारा ऐसा मानने का एक ही कारण है कि पाकिस्तान और उसके नेता भली प्रकार जानते हैं कि इतिहास हमेशा विजेता का होता है । यदि वह भारत को मिटाने की योजना पर यदि कुछ काम कर रहा है तो बहुत सोच समझकर कर रहा है। वह जानता है कि जो जीतेगा वही मुकद्दर का सिकंदर कहलाएगा। उनकी सोच बड़ी साफ है कि काम करते रहो, जिस दिन लक्ष्य प्राप्त कर लोगे अर्थात जिस दिन हिंदुस्तान का इस्लामीकरण करने में सफल हो जाओगे, उस दिन इतिहास भी अपना होगा और भूगोल भी अपना होगा। वह जानते हैं कि किस प्रकार भारत का मूर्ख बनाकर उन्होंने अपना देश प्राप्त कर लिया था ! उन्हें यह भी पता है कि जब एक बार कोई क्षेत्र देश के रूप में अपने पास आ जाता है तो फिर उसे भारत उल्टा नहीं ले पाता। यहां तक कि कश्मीर से आजादी के बाद भी मुसलमानों ने यदि हिंदुओं को भगा दिया था तो आज तक भारत की सरकारें वहां पर पलायन कर गए कश्मीरी पंडितों का पुनर्वास नहीं करा पाई हैं।
इधर हम हैं कि विदेशियों से भरपूर ताकत के साथ लड़ने के उपरांत भी मनोवांछित फल प्राप्त नहीं कर पाए। हमने पुरुषार्थ भी किया, पराक्रम भी दिखाया। परंतु मनोवांछित फल प्राप्त नहीं कर पाए। इसका कारण है कि हमारा अभियान हम सबका अभियान बनकर आगे नहीं बढ़ा । हम भूल गए कि कभी महाराणा कुंभा ने जातिवाद को मिटाने के लिए चित्तौड़ में एक सभा आयोजित कर सभी क्षत्रिय जातियों को अपने नाम के सामने लिखने के लिए ‘राजपूत’ शब्द दिया था ।उनका यह चिंतन भारतीय समाज को एकता के सूत्र में बांधने के लिए आया था, जातिवाद और गोत्रवाद को मिटाने के लिए आया था, परंतु हमने क्या किया ? हमने ‘ राजपूत’ भी एक जाति बना दी और आज हम सभी क्षत्रिय जाति के होकर भी आपस में लड़ रहे हैं। कोई किसी को गद्दार बता रहा है तो कोई किसी को गद्दार बता रहा है ? हम कल भी अपने सांझा शत्रु को सब का शत्रु नहीं मान रहे थे और आज भी हम वही भूल कर रहे हैं। जातियों की जूतियों में हमने दाल बांटनी छोड़ी नहीं है।
इसी प्रकार कभी संभाजी ने भी संगमेश्वर में एक बैठक आहूत कर वहां पर यह निर्णय लिया था कि सब मिलकर मुगल विहीन भारत बनाएंगे। 28 मार्च 1737 को मुगलों से भारत को छीनकर शिवाजी के वंशज अपने संकल्प में सफल भी हो गए, परंतु हमारे ही लोगों ने उन्हें मराठा समझकर निपटाने का काम करना आरंभ कर दिया। अपने ही लोगों ने संभाजी महाराज की औरंगजेब से दर्दनाक हत्या करवा दी। इस प्रकार मुगल विहीन भारत बनाने का सपना संभाजी के साथ ही विदा हो गया। आज भी यदि किसी नेता के द्वारा ऐसा कहीं संकल्प व्यक्त किया जाता है कि हम मुगलों के वंशज अर्थात उस विचारधारा के लोगों का सफाया करेंगे जो भारत को तोड़ना चाहते हैं या भारत का इस्लामीकरण करना चाहते हैं तो उसे दबाने वाले अधिकांश वे चेहरे होते हैं, जिन्हें हम अपना मानते हैं । कदाचित यही वह स्थिति है जो भारत के लिए सर्वथा प्रतिकूल कही जा सकती है। इस सबके उपरांत भी हमें आज एकजुट होने की आवश्यकता है। भारत के पराक्रमी इतिहास को स्मरण कर आज उस सोच से भारत को मुक्त करना है जो मुगलिया सोच कहलाती है। आतंकवाद भारत की जमीन पर विदेशी मानसिकता और विदेशी सोच की देन है। जिसे मिटाना समय की आवश्यकता है। सनातन तभी फूलफल सकता है जब प्रत्येक प्रकार का आतंकवाद और जिहाद समाप्त होगा।

डॉ राकेश कुमार आर्य

भारत ने मिसाइल नहीं ‘मिसाल’ दागी है

भारत ने पहलगाम आतंकी हमले का प्रतिशोध लेकर न केवल पाकिस्तान को बल्कि सारे संसार को यह दिखा दिया है कि वह विकल्पविहीन संकल्प का धनी राष्ट्र है। उसका एक ही संकल्प है – पौरुष। उसका एक ही विकल्प है – पराक्रम। उसके लिए एक ही लक्ष्य है – राष्ट्रीय एकता। भारत के राजनीतिक दलों ने देश की सरकार के पीछे खड़े होकर भी संसार को यह दिखा दिया है कि उन सबके लिए राष्ट्र प्रथम है। अब राजनीति नहीं राष्ट्र नीति का समय है और जब राष्ट्रनीति की बात आ रही हो तो ‘ हम सब एक हैं।’
भारत ने अपने पौरुष और पराक्रम का परिचय देते हुए पाकिस्तान के 9 आतंकी ठिकानों पर एक साथ मिसाइलें दागी और आतंकी पाकिस्तान को यह दिखा दिया कि यदि वह भारत के नागरिकों पर भविष्य में फिर हमला कराएगा तो भारत पाकिस्तान को जहन्नुम की आग में धकेल देगा। आज का भारत वह भारत है जो अपने किसी भी नागरिक की आतंकी हमले में की गई हत्या की तेरहवीं होने से पहले प्रतिशोध लेने की क्षमता रखता है। नई संकल्प शक्ति और ऊर्जा से भरा हुआ राष्ट्र आज अपनी सशस्त्र सेनाओं पर गर्व और गौरव की अनुभूति कर रहा है। साथ ही अपने देश के यशस्वी – तेजस्वी प्रधानमंत्री श्री मोदी के नेतृत्व पर भी अपने आप को गौरवान्वित अनुभव करता है। कांग्रेस के नेता जयराम रमेश ने सारी राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्रनीति के प्रति भारत के अटूट राजनीतिक और सांस्कृतिक मूल्य में आस्था व्यक्त करते हुए ठीक ही कहा है कि “समय एकता और एकजुटता का है।” इसी प्रकार असदुद्दीन ओवैसी ने भी हमारी राष्ट्रीय एकता के प्रति अपनी निष्ठा को अच्छे शब्द प्रदान किए हैं।
आज हम सबको यह समझना होगा कि भारत ने पहलगाम के आतंकी हमले का प्रतिशोध लेते हुए पाकिस्तान स्थित आतंकी ठिकानों पर मिसाइल नहीं दागी हैं बल्कि भारत ने लंबे भविष्य के लिए एक मिसाल दागी है । आने वाली पीढ़ियां इस मिसाल को अपने लिए मिसाइल के रूप में काम में लेंगी। भारत ने यह भी सिद्ध किया है कि वह “सत्यमेव जयते ” की परंपरा में विश्वास रखने के उपरांत भी “शस्त्रमेव जयते ” में भी विश्वास रखता है। वह बुद्ध का देश होकर भी युद्ध को भी आवश्यक मानता है और जब यह युद्ध आतंकियों ,देश के शत्रुओं तथा देश की एकता और अखंडता को तार-तार करने वाली शक्तियों के विरुद्ध हो रहा हो तो सारा राष्ट्र ‘एक’ होकर खड़ा होता है । इसी को खूबसूरत शब्दों में भारत के लोग “अनेकता में एकता” के रूप में प्रस्तुत करते हैं और समय आने पर यह भी दिखा देते हैं कि हमारी अनेकताएं किस प्रकार किसी एक विशेष मोड़ पर आकर एकता में परिवर्तित हो जाती हैं ?
सारे राष्ट्र ने अपनी एकता और एकजुटता का परिचय देते हुए अपने सभी शत्रुओं को यह दिखा दिया है कि हम वीर महाराणा प्रताप, शिवाजी, शेखर और नेताजी सुभाष चंद्र बोस की क्रांतिकारी विचारधारा में विश्वास रखने वाले उनके समर्पित सिपाही हैं। अबसे 54 वर्ष पहले जब 1971 में देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व में देश ने पाकिस्तान को तोड़कर बांग्लादेश का निर्माण करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी तो उस समय मेरे अग्रज स्वर्गीय प्रोफेसर विजेंद्र सिंह आर्य जी ने एक कविता लिखी थी। उसकी ये पंक्तियां आज के संदर्भ में बहुत ही सार्थक हैं :-

“मित्र को हैं हम फूल से कोमल,
शत्रु को फौलाद हैं हम।
वीर शिवा, शेखर, राणा की
वही वज्र औलाद हैं हम।।

आज हमने 26/ 11 का प्रतिशोध लेकर उस घटना में मारे गए लोगों की आत्मिक शांति के लिए समझो शांति यज्ञ संपन्न किया है । इसके साथ ही भारत की संसद पर हुए हमले में बलिदान हुए अपने सैनिकों को सारे राष्ट्र ने आज विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित कर उनके प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित की है। पाकिस्तान को आज के भारत के संदर्भ में यह ध्यान रखना चाहिए कि :-

हम कर देते हैं सर्जिकल भी, इतिहास हमें बतलाता है।
‘सिंदूर’ की कीमत क्या होती है, खोल खोल समझाता है।।
नहीं मिसाइलें दागी हमने, सच में दागी एक मिसाल है।
सारी दुनिया देख रही है भारत कितना महान विशाल है।।

    प्रधानमंत्री श्री मोदी ने इस कार्यवाही को अपनी ओर से ' ऑपरेशन सिंदूर' का नाम दिया है। 'ऑपरेशन सिंदूर' के माध्यम से नव ऊर्जा और राष्ट्रभक्ति की भावना से भरे भारत देश ने आज यह भी सिद्ध कर दिया है कि वह विजयदशमी का पर्व ऐसे ही नहीं मनाता है। उसकी परंपरा के वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक कारण और प्रभाव हैं । ऑपरेशन सिंदूर के माध्यम से हमने पाकिस्तान को बताया है कि एक चुटकी सिंदूर का मूल्य क्या है और इसके लिए उसे क्या भुगतान करना है ? 
 हमने आतंकवादियों के खात्मे के लिए श्रीराम और श्री कृष्ण जी के 'सफाई अभियान' को नई गति दी है। उनके प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करते हुए स्पष्ट किया है कि हम सचमुच में आपके उत्तराधिकारी हैं । हम आतंकवादियों का, देश - धर्म और संस्कृति के शत्रुओं का और उन सभी शक्तियों का विनाश करके ही दम लेंगे जो हमारे वैदिक संस्कृति का विनाश करने पर तुली हुई हैं।
पहलगाम आक्रमण में हमने अपने जिन बहन भाइयों को खोया है, उनकी आत्मा की शांति के लिए आज सारे राष्ट्र ने मिलकर शांति यज्ञ संपन्न किया है। आज पहली बार लगा है कि जो लोग आतंकी हमले में मारे जाते हैं, उनके साथ देश कैसे खड़ा हो जाता है ? एक साथ सैकड़ों आतंकवादियों को जहन्नुम की आग में धकेलकर भारत के पराक्रम ने पहलगाम आतंकी हमले में मारे गए अपने सभी देशबंधु - भगिनियों को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित की है। अब से पहले पाकिस्तान हमसे आतंकी घटनाओं के सबूत मांगा करता था। अब हमने अपने पराक्रम के सबूत पाकिस्तान को दे दिए हैं। वह चाहे तो इन सबूतों को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को भी दिखा सकता है। यदि वह ऐसा करता है तो भी हमको गर्व होगा।

इस सब के उपरांत भी हम सबको अभी और भी अधिक सावधान रहना होगा। मानवता बनाम आतंकवाद के इस युद्ध में अभी हमें कई संभावित परिस्थितियों से गुजरना होगा। हम अपनी एकता का परिचय देते हुए अपनी सशस्त्र सेनाओं के साथ साथ अपने प्रधानमंत्री के हाथ मजबूत कर प्रत्येक समस्या और प्रत्येक स्थिति से पर विजय प्राप्त करेंगे । इस एक संकल्प के साथ हमको आगे बढ़ना होगा।

डॉ राकेश कुमार आर्य

कालजयी सृजक रवींद्रनाथ टैगोर

डॉ घनश्याम बादल

‘गुरुदेव’ के नाम से विख्यात कवि लेखक संगीतकार एवं बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी तथा राष्ट्रगान जन गण मन के रचयिता और भारत के पहले नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ टैगोर ने साहित्य, शिक्षा, संगीत, कला, रंगमंच और शिक्षा के क्षेत्र में अपनी बहुमुखी प्रतिभा से वह स्थान प्राप्त किया है जो विरले ही प्राप्त कर पाते हैं । अपने मानवतावादी दृष्टिकोण के चलते रविंद्र बाबू को विश्वकवि का दर्जा दिया गया है । 

पहले विश्व कवि 

 टैगोर सही मायनों में भारत से पहले विश्वकवि हैं । उनके काव्य के मानवतावाद ने उन्हें दुनिया भर में पहचान दिलाई। दुनिया की अनेक भाषाओं में उनकी रचनाओं का अनुवाद हुआ । टैगोर की रचनाएं बांग्ला साहित्य में एक नई शैली एवं चिंतन लेकर आई।

आठ साल के रवि बने कवि

7 मई 1861 को कोलकाता में जन्मे, माता पिता की तेरहवीं संतान  रवींद्रनाथ टैगोर ने बचपन में ही ‘होनहार बिरवान के होत चिकने पात’ की उक्ति को चरितार्थ करते हुए आठ वर्ष की उम्र  में पहली कविता लिखकर अपने कवि हृदय होने का परिचय दिया तो  मात्र 16 वर्ष की उम्र में उनकी पहली प्रथम रचना एक लघु कथा के रूप में प्रकाशित हुई । एक दर्जन से अधिक उपन्यासों में चोखेर बाली, घरे बाहिरे, गोरा आदि शामिल हैं। रवींद्रनाथ टैगोर के उपन्यासों में मध्यमवर्गीय समाज  का बहुत नज़दीकी से यथार्थपरक चित्रण किया गया है। टैगोर का कथा साहित्य  क्लासिक साहित्य में बहुत ऊंचा स्थान रखता है। समीक्षकों के अनुसार उनकी कृति ‘गोरा’ एक अद्भुत रचना है और आज भी इसकी प्रासंगिकता बनी हुई है। 

बहुमुखी प्रतिभा 

 रवींद्रनाथ टैगोर की रचनात्मक प्रतिभा कविताओं एवं संगीत में सबसे ज्यादा मुखरित हुई । उनकी कविताओं में नदी और बादल की अठखेलियों से लेकर अध्यात्म तक के विभिन्न विषयों को बखूबी उकेरा गया है तो उपनिषद जैसी भावनाएं भी  अभिव्यक्त हुई हैं। साहित्य की शायद ही कोई शाखा हो जिनमें उनकी रचनाएं नहीं हों। उन्होंने कविता, गीत, कहानी, उपन्यास, नाटक विधाओं में प्रमुख रूप से रचना की। टैगोर की कई कृतियों के अंग्रेजी अनुवाद के बाद पूरा विश्व उनकी प्रतिभा से परिचित हुआ। उनके नाटक मुख्यतया सांकेतिक हैं ,डाकघर, राजा, विसर्जन आदि इसके प्रमाण हैं। 

पहले नोबेल पुरस्कार विजेता 

 भारत के पहले नोबेल पुरस्कार विजेता टैगोर दुनिया के संभवत: एकमात्र ऐसे कवि हैं जिनकी रचनाओं को दो देशों ने अपना राष्ट्रगान बनाया। भारत का राष्ट्रगान ‘जन गण मन’ तथा बांग्लादेश का राष्ट्रगान ‘आमार सोनार बांग्ला’ रविंद्र नाथ टैगोर की ही कलम से निकले हैं। रवींद्र ने दो हजार से अधिक गीतों की रचना की। उनका रवींद्र संगीत बांग्ला संस्कृति का अभिन्न अंग बन गया है। टैगोर की  प्रमुख  रचनाओं में गीतांजलि, गोरा एवं घरे बाईरे प्रमुख हैं । ‘गुरुदेव’ की कविताओं  में  एक अनूठी लय है। वर्ष 1877 में उनकी रचना ‘भिखारिन’ खासी चर्चित रही। उन्हें बंगाल का सांस्कृतिक उपदेशक भी कहा जाता है।

यूं हुआ गीतांजलि का अनुवाद 

1913 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले रवींद्र आरंभिक दौर में कोलकाता और उसके आसपास के क्षेत्र तक ही सीमित रहे लेकिन ‘गीतांजलि’ पर नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद उनकी ख्याति विश्वव्यापी हो गई. उनको अपनी जिस पुस्तक गीतांजलि पर साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला, उसकी कहानी भी बड़ी रोचक है।  51 वर्ष की उम्र में रवींद्रनाथ टैगोर अपने बेटे के साथ इंग्लैंड गए और इस यात्रा ने रवींद्रनाथ टैगोर का आभामंडल ही बदल दिया। समुद्री मार्ग से जाते समय उन्होंने अपने कविता संग्रह ‘गीतांजलि’ का अंग्रेजी अनुवाद करना प्रारंभ किया। गीतांजलि का अनुवाद करने के पीछे उनका कोई उद्देश्य नहीं था केवल समय काटने के लिए कुछ करने की गर्ज से उन्होंने गीतांजलि का अनुवाद एक नोटबुक में लिखना शुरू किया और यात्रा समाप्त होते-होते उन्होंने इस अनुवाद को पूरा भी कर दिया । अनुवाद करते समय टैगोर को किंचित भी आभास नहीं था कि वें एक महान कार्य करने जा रहे हैं ।

अगर खो जाता वह सूटकेस 

 लंदन में जहाज से उतरते समय उनका पुत्र उस सूटकेस को जहाज में ही भूल गया जिसमें वह नोटबुक रखी थी। इस ऐतिहासिक कृति की नियति में किसी बंद सूटकेस में लुप्त होना नहीं लिखा था। वह सूटकेस जिस व्यक्ति को मिला, उसने स्वयं उस सूटकेस को रवींद्रनाथ टैगोर तक अगले ही दिन पहुंचा दिया।  लंदन में टैगोर के अंग्रेज मित्र चित्रकार रोथेंस्टिन को जब यह पता चला कि गीतांजलि को स्वयं रवींद्रनाथ टैगोर ने अनुवादित किया है तो उन्होंने उसे पढ़ने की इच्छा जाहिर की। गीतांजलि पढ़ने के बाद रोथेंस्टिन ने अपने मित्र डब्ल्यू.बी. यीट्स को गीतांजलि के बारे में बताया और नोटबुक उन्हें भी पढ़ने के लिए दी। इसके बाद जो हुआ, वह इतिहास है। यीट्स ने स्वयं गीतांजलि के अंग्रेजी के मूल संस्करण का प्रस्तावना लिखा। सितंबर सन् 1912 में गीतांजलि के अंग्रेजी अनुवाद की कुछ सीमित प्रतियां इंडिया सोसायटी के सहयोग से प्रकाशित की गई। लंदन में गीतांजलि की जमकर  सराहना हुई। जल्द ही गीतांजलि के शब्द माधुर्य ने संपूर्ण विश्व को सम्मोहित कर लिया। पहली बार भारतीय मनीषा की झलक पश्चिमी जगत ने देखी। गीतांजलि के प्रकाशित होने के एक साल बाद सन् 1913 में रवींद्रनाथ टैगोर को नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। टैगोर  पहले ऐसे भारतीय थे जिन्होंने पूर्वी और पश्चिमी दुनिया के मध्य सेतु बनने का कार्य किया था।

रवींद्र संगीत के सृजक 

 टैगोर केवल भारत के ही नहीं, समूचे विश्व के साहित्य, कला और संगीत के एक महान प्रकाश स्तंभ हैं । 1901 में शांति निकेतन की स्थापना कर गुरु-शिष्य परंपरा को नया आयाम देने वाले ‘गुरुदेव’ ने 2,000 से अधिक गीत लिखे  जिनका संगीत संयोजन इतना अद्भुत है कि इन्हें ‘रवींद्र संगीत’ के नाम से जाना गया । उनका लिखा ‘एकला चालो रे’ गाना गांधीजी को विशेष पसंद था। 

देश के लिए लौटा दिया नाइटहुड 

 रवींद्रनाथ को 1915 में नाइटहुड की उपाधि दी गई लेकिन जलियांवाला बाग कांड की खिलाफत में उन्होंने उसे लौटा दिया। रवींद्रनाथ ने अमेरिका, ब्रिटेन, जापान, चीन सहित दर्जनों देशों की यात्राएं की थी। 7 अगस्त 1941 को देहावसान से पहले ही  उनके रचना संसार ने उन्हें एक कालजयी महान विभूति के रूप में अमर कर दिया था। 

7 मई को रवींद्र जयंती पर उन्हें शत-शत नमन। 

डॉ घनश्याम बादल

सड़कों पर नमाज पढ़ना सामाजिक सौहार्द के लिए खतरनाक 

गौतम चौधरी 

अभी हाल ही में सड़क पर नमाज पढ़ने को लेकर प्रशासन ने दिशा निर्देश जारी किया है। दरअसल, मेरठ पुलिस ने चेतावनी दी है कि सड़क पर नमाज पढ़ने वालों का पासपोर्ट और ड्राइविंग लाइसेंस कैंसिल किया जा सकता है। पुलिस अधिकारियों ने कहा कि लोग मस्जिद या फिर ईदगाह में नमाज पढ़ें। सड़क पर नमाज नहीं पढ़ी जानी चाहिए। 

उत्तर प्रदेश की मेरठ पुलिस ने ईद से पहले सड़क पर नमाज पढ़ने वालों को चेतावनी दी और सड़क पर नमाज पढ़ने को गैरवाजिब बताया। एक रिपोर्ट के मुताबिक, इसमें कहा गया है कि अगर कोई सड़क पर नमाज पढ़ते हुए पाया जाएगा तो उसका पासपोर्ट और ड्राइविंग लाइसेंस दोनों जब्त कर लिए जाएंगे। मेरठ के पुलिस अधीक्षक आयुष विक्रम सिंह ने कहा कि ईद की नमाज मस्जिदों या फिर ईदगाहों में अदा की जानी चाहिए। किसी को भी सड़कों पर नमाज नहीं पढ़नी चाहिए। 

मेरठ पुलिस ने सड़कों पर नमाज को प्रतिबंधित कर एक नयी बहस छेड़ दी है। यदि इसे इस्लामिक चश्में से देखा जाए तो भी यह जायज नहीं है। एक बार लखनउ स्थित उत्तर प्रदेश विधानसभा की सामने वाली सड़क के बीचोबीच एक युवक ने नमाज पढ़ना प्रारंभ कर दिया था। उन दिनों इस मामले को लेकर बड़ी बहस हुई थी। इसी बहस के दौरान देवबंदी उलेमाओं ने भी इस प्रकार की नमाज का विरोध किया था। देवबंद के तत्कालीन मुफ्ती अहमद ने बाकायदा बयान जारी कर कहा था कि इस प्रकार की नमाज को किसी कीमत पर जायज नहीं ठहराया जा सकता है। 

कई इस्लामिक पवित्र ग्रंथों में सड़कों पर बैठने, आपस में बात करने और सड़कों को अवरुद्ध करने को नाजायज बताया गया है। यहां तक कि एक स्थान पर तो यह भी लिखा है कि सड़कों पर पड़े किसी प्रकार के अवरोधकों, जैसे-पत्थर आदि को हटाना धर्म के अनुकूल कार्य है। यहां तक कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति सड़क पर बैठता है तो उसे अपनी नजर नीची करके रखनी चाहिए। ऐसे में सड़क को बाधित कर नमाज पढ़ना इस्लामिक कृत्य कैसे हो सकता है। 

इसका एक पक्ष यह भी है कि इससे सामाजिक सौहार्द बिगड़ता है। भारत इस्लामिक देश नहीं है। न ही यहां शरिया को कानून का दर्जा प्राप्त है। भारत बहुसांस्कृतिक एवं बहुपांथिक देश है। यहां मुसलमानों के अलावा और कई समुदाय के लोग रहते हैं। यदि मुसलमान सड़कों पर नमाज पढ़ने लगेंगे और उन्हें छूट दे दी जाएगी तो ऐसे ही हिन्दू भी अपने धार्मिक कार्य सड़कों पर करने की कोशिश करेंगे। यहां बड़ी संख्या में ईसाई भी रहते हैं। वे भी ऐसा करने की सोचेंगे। जैन, बौद्ध, सिख आदि भी ऐसा ही कुछ करना चाहेंगे. तब उस सड़क का क्या होगा? फिर कहीं एक ही साथ सब सड़क पर उतर आए तो आपसी गतिरोध स्वाभाविक रूप से होगा। यह गतिरोध संघर्ष में भी बदल सकता है। 

सड़कों को आम लोगों के लिए बनाया गया है। सड़कें यातायात के लिए है, इबादत   के लिए नहीं है। इबादत के लिए इबादतगाह है। इबादत वहीं होनी चाहिए जहां उसका स्थान है। यदि ऐसा नहीं होता है तो इबादत की व्यवस्था खंडित होती है। दुनिया के किसी भी धर्म में सड़कों पर इबादत करने का कोई विधान नहीं है। दूसरी बात यह है कि यह भारतीय कानून के अनुसार गैर कानूनी भी है। इसलिए मुसलमानों को इस मामले में संयम बरतने की जरूरत है। साथ ही मुस्लिम संगठनों को चाहिए कि इस विषय पर वह अपना संदेश प्रसारित करे। यदि ऐसा नहीं करता है तो इससे भ्रम की स्थिति उत्पन्न होगी और सामाजिक सौहार्द कमजोर होगा। 

गौतम चौधरी

जब न्याय बिकने लगे और सेवक राजा बनने लगें — खतरे में है लोकतंत्र का संतुलन

अशोक कुमार झा


भारतीय लोकतंत्र का ढांचा तीन मज़बूत स्तंभों—विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका—पर खड़ा है। ये तीनों मिलकर देश को चलाते हैं, संविधान की आत्मा को ज़िंदा रखते हैं और आम नागरिक को न्याय, सुरक्षा व समृद्धि का भरोसा दिलाते हैं लेकिन आज यही स्तंभ एक-दूसरे से टकरा रहे हैं, खींचतान   के हालात पैदा कर रहे हैं और इस महान लोकतंत्र की जड़ों को खोखला कर रहे हैं।
सच कहें तो अब ये स्तंभ सेवक नहीं, शासक बनने की होड़ में हैं।
जनता जिन्हें चुनकर संसद भेजती है, वे कानून बनाते हैं। कार्यपालिका उन कानूनों को ज़मीन पर लागू करती है। न्यायपालिका का काम है—संविधान की रक्षा और जनता को समयबद्ध न्याय। लेकिन आज संसद के हर कदम पर न्यायपालिका अपनी टिप्पणी और व्याख्या थोप रही है। कोई भी नीति लागू हो, अदालतों की दखलअंदाज़ी सामने आ जाती है। यह संविधान का संतुलन नहीं, बल्कि टकराव की शुरुआत है।


लेकिन असली सवाल इससे भी बड़ा है: क्या देश में न्याय खरीदा और बेचा जा रहा है?
हां, और यह कड़वा सच है।
आज भारत में न्याय की पहुंच उसी तक है जिसके पास धन है। गरीब आदमी न तो महंगे वकील कर सकता है, न ही सालों तक केस लड़ सकता है। सैकड़ों निर्दोष लोग जेलों में सड़ रहे हैं, सिर्फ इसलिए कि वे अपनी बेगुनाही साबित नहीं कर पाए। 30, 40, 50 साल बाद जब न्यायालय कहता है कि “आप निर्दोष हैं”, तब तक उनका जीवन, परिवार, सम्मान—सब कुछ बर्बाद हो चुका होता है।


ये कैसा न्याय है, जो ज़िंदगी छीनकर इज़्ज़त लौटाता है?


जिन अदालतों में न्याय मिलना चाहिए, वहीं आज दलाल, बिचौलिए और भ्रष्टाचार का बोलबाला है। कितने ही न्यायालयों में पेशकार से लेकर वकीलों तक का खेल चलता है, और न्यायमूर्ति को इसकी भनक तक नहीं होती। देश की न्यायपालिका सुधार की ज़रूरत पर सोचने की बजाय संसद के बनाए क़ानूनों की “जांच-पड़ताल” में लगी रहती है।


और तो और, अब अदालतें महामहिम राष्ट्रपति और राज्यपालों तक को आदेश देने लगी हैं।


क्या यह संवैधानिक मर्यादा का उल्लंघन नहीं है? क्या न्यायपालिका संविधान और देश से ऊपर हो चुकी है? यह वही देश है जहाँ संविधान साफ़ कहता है कि राष्ट्रपति सर्वोच्च पद है। फिर कौन-सा अधिकार है जो न्यायालय को राष्ट्रपति को आदेश देने की छूट देता है?


आज की स्थिति यह है कि जनता का भरोसा इन तीनों संस्थाओं से उठता जा रहा है। लोग कहने लगे हैं—न संसद पर भरोसा है, न अफसरशाही पर, और अब न ही न्यायपालिका पर। यह लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है।


जब सेवक राजा बनने लगें और राजा—जनता—को न्याय के लिए तरसना पड़े, तो समझिए लोकतंत्र संकट में है।


अब समय आ गया है कि इन संस्थाओं को मर्यादा में रहकर काम करना सीखना होगा। जनता की सेवा में बनी व्यवस्थाएं अगर खुद को ही सर्वोपरि समझने लगें, तो संविधान का कोई मतलब नहीं रह जाता।


हमें इस गिरते संतुलन को संभालना होगा। संविधान को बचाना होगा। कानून को उसकी मूल भावना के साथ लागू करना होगा। लोकतंत्र को उसकी आत्मा के साथ जिंदा रखना होगा।


यह देश जनता का है—गरीबों का, मज़लूमों का, मेहनतकशों का।
यह देश किसी संस्था की जागीर नहीं, बल्कि 140 करोड़ लोगों की उम्मीदों का नाम है।


अगर अब नहीं जागे, तो न संविधान बचेगा, न लोकतंत्र।

प्रधानमंत्री द्वारा सेना को पाक के ख़िलाफ़ खुली छूट देने के मायने

संदीप सृजन

पहलगाम में हुए आतंकी हमले में 26 पर्यटकों की जान चली गई. इसके बाद से भारत-पाक तनाव चरम पर है । इस हमले के बाद भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक उच्चस्तरीय बैठक में सशस्त्र बलों को पाकिस्तान के ख़िलाफ़ कार्रवाई के लिए खुली छूट देने की घोषणा की। इस कदम ने न केवल भारत में बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी व्यापक चर्चा को जन्म दिया है।

प्रधानमंत्री द्वारा सेना को खुली छूट देने का अर्थ है कि भारतीय सशस्त्र बलों को आतंकवाद के ख़िलाफ़ कार्रवाई के लिए पूर्ण सामरिक और तकनीकी स्वायत्तता प्रदान की गई है। इसका मतलब यह है कि सेना को यह तय करने की आजादी है कि कार्रवाई का समय, स्थान, लक्ष्य और तरीका क्या होगा। यह स्वायत्तता केवल सैन्य अभियानों तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें खुफिया जानकारी के आधार पर त्वरित निर्णय लेने और सीमा पार आतंकी ठिकानों पर हमला करने की क्षमता भी शामिल है।

यह नीति पहलगाम हमले के जवाब में सामने आई जिसे भारत ने पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा से जोड़ा है। इस हमले ने भारत में जनता के बीच गुस्से को भड़काया और सरकार पर कठोर कार्रवाई की मांग को बढ़ाया। प्रधानमंत्री का यह बयान कि आतंकवाद को करारा जवाब देना हमारा राष्ट्रीय संकल्प है और सेना को लक्ष्य, समय और तरीका तय करने की स्वतंत्रता देना, भारत की आतंकवाद के प्रति जीरो टॉलरेंस नीति को दर्शाता है।

हालांकि यह पहली बार नहीं है जब भारत ने आतंकवाद के जवाब में सेना को खुली छूट दी हो। 2016 में उरी हमले और 2019 में पुलवामा हमले के बाद भी भारत ने पाकिस्तान के ख़िलाफ़ कठोर कार्रवाई की थी। उरी हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (Pok) में सर्जिकल स्ट्राइक की जिसमें आतंकी ठिकानों को नष्ट किया गया। इसके बाद, पुलवामा हमले के जवाब में भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान के बालाकोट में आतंकी शिविरों पर हवाई हमला किया।

इन दोनों घटनाओं में सेना को सरकार से स्पष्ट निर्देश और स्वायत्तता प्राप्त थी, जिसके परिणामस्वरूप भारत ने अपनी सैन्य शक्ति और आतंकवाद के खिलाफ दृढ़ इच्छाशक्ति का प्रदर्शन किया। 2020 में गलवान घाटी में चीन के साथ हुई झड़प के दौरान भी सेना को इसी तरह की स्वतंत्रता दी गई थी जिसने भारत की सीमाओं की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

खुली छूट का सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव यह है कि सेना अब बिना राजनीतिक या नौकरशाही हस्तक्षेप के त्वरित कार्रवाई कर सकती है। यह विशेष रूप से सीमा पार आतंकवाद के मामलों में महत्वपूर्ण है जहां समयबद्ध प्रतिक्रिया महत्वपूर्ण होती है। इस घोषणा ने पाकिस्तान में खलबली मचा दी है। पाकिस्तानी नेताओं और मीडिया ने 24-36 घंटों के भीतर भारत द्वारा हमले की आशंका जताई थी। कुछ पाकिस्तानी अधिकारियों ने अपने परिवारों को विदेश भेज दिया है और सेना में सामूहिक इस्तीफों की खबरें भी सामने आई हैं। यह दर्शाता है कि भारत की यह नीति न केवल सैन्य बल्कि मनोवैज्ञानिक स्तर पर भी प्रभावी है।

भारत की सेना किसी भी समय सीमा पार आतंकी ठिकानों पर हमला कर सकती है। यह हमला सर्जिकल स्ट्राइक, हवाई हमले, या किसी नए तरीके से हो सकता है। पाकिस्तान ने पहले ही सीमा पर टैंक तैनात किए हैं और अपने हवाई क्षेत्र को बंद कर दिया है हालांकि, उसकी सेना में मनोबल की कमी और आंतरिक अस्थिरता भारत के लिए लाभकारी हो सकती है। संयुक्त राष्ट्र और अन्य देश इस तनाव को कम करने की कोशिश कर सकते हैं हालांकि, भारत ने स्पष्ट किया है कि उसकी कार्रवाई आतंकवाद के खिलाफ होगी जिसके लिए उसे वैश्विक समर्थन मिलने की संभावना है।

प्रधानमंत्री द्वारा सेना को पाकिस्तान के ख़िलाफ़ खुली छूट देना एक साहसिक और रणनीतिक कदम है जो भारत की आतंकवाद के प्रति कठोर नीति को दर्शाता है। यह कदम न केवल सैन्य स्तर पर बल्कि राजनयिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव डाल रहा है हालांकि, इसके साथ क्षेत्रीय अस्थिरता और युद्ध का जोखिम भी जुड़ा है। भारत को अपनी कार्रवाइयों में संतुलन बनाए रखना होगा ताकि वह आतंकवाद के ख़िलाफ़ प्रभावी ढंग से लड़ सके, साथ ही व्यापक युद्ध से बच सके। यह नीति भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा और संप्रभुता की रक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है लेकिन इसके दीर्घकालिक परिणाम क्षेत्रीय और वैश्विक गतिशीलता पर निर्भर करेंगे।

संदीप सृजन

रिंकू घोष की  दिलकश अदाओं से फैंस का बढ़ा पारा 

शशिकांत सिंह

बढ़ती गर्मी के साथ  अभिनेत्री रिंकू घोष  ने भी अपनी दिलकश अदाओं से फैंस का पारा बढ़ा दिया है । भोजपुरी इंडस्ट्री में रिंकू घोष का नाम खूब मशहूर है। उन्होंने साउथ और बॉलीवुड सहित भोजपुरी फिल्मों में भी अपनी एक्टिंग का परचम लहराया। बॉलीवुड की ड्रीम गर्ल से तो आप सभी वाकिफ होंगे लेकिन भोजपुरी इंडस्ट्री में भी एक ड्रीम गर्ल है जिसका नाम है रिंकू घोष।

जी हां, रिंकू घोष को भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री में ड्रीम गर्ल के नाम से जाना जाता है। रिंकू भोजपुरी की कई हिट फिल्मों में बतौर नायिका काम कर चुकी है। साथ ही उन्होंने  भोजपुरी मेगास्टार मनोज तिवारी,रविकिशन और दिनेश लाल यादव निरहुआ जैसे कई बड़े स्टार के साथ के साथ स्क्रीन भी शेयर किया है लेकिन बीते कुछ समय से रिंकू इंडस्ट्री से गायब थीं हालांकि एक बार फिर से उन्होंने भोजपुरी सिनेमा जगत में अपनी वापसी की है। रिंकू भोजपुरी की ऐसी एक्ट्रेस हैं जो मिस मुंबई का खिताब अपने नाम कर चुकी हैं। उन्होंने भोजपुरी फिल्म सुहागन बनाद सजना हमार के साथ इंडस्ट्री में कदम रखा था। फिर एक के बाद एक उन्होंने हिट फिल्मों की लाइन लगा दी जिसमें’दरोगा बाबू आई लव यू ‘, ‘ बलिदान ‘, ‘ सात सहेलियां ‘, ‘ रखवाला ‘ और ‘ नगीना और ‘विदाई प्रमुख थी।

रिंकू घोष  भोजपुरी के साथ ही हिंदी और तेलुगू भाषा की फिल्मों में भी काम कर चुकी है। इसके अलावा रिंकू ने कई टीवी शो में भी काम किया है। दरअसल रिंकू कुछ सालों से भोजपुरी फिल्मों से गायब थीं। ऐसे में लोग उन्हें काफी मिस कर रहे थे लेकिन रिंकू ने फिर से सालों बाद बाद कमबैक किया है। उन्होंने एक इंटरव्यू के दौरान बताया कि वह शादी करके पति के साथ विदेश में सेटल हो गई थी और कुछ साल उन्होंने अपनी शादीशुदा जिंदगी को दिया। बता दें कि रिंकू ने अमित दत्ता रॉय से शादी की है जो, ओमान में एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करते हैं। फिलहाल रिंकू घोष की अपकमिंग फिल्म है रेशम की डोरी जिसका निर्माण अमित गुप्ता और महेश उपाध्याय के बैनर कैप्टन इंटरटेनमेंट और एसआरवी प्रोडक्शन हाउस की ओर से शत्रुघन गोश्वामी के निर्देशन में किया जारहा है जिसमें रिकू घोष के नायक है जय ।

शशिकांत सिंह

ये कैसा ट्रोल, जिसका नहीं है कोई मोल ?

जम्मू-कश्मीर के पहलगाम हमले में (22 अप्रैल को हुए आतंकी हमले में) अपने पति, भारतीय नौसेना के लेफ्टिनेंट विनय नरवाल को खोने वाली हिमांशी नरवाल को हाल ही में ट्रोल्स ने निशाना बनाया। दरअसल, वह लगातार शांति की अपील कर रही थी और उन्होंने पत्रकारों के सामने यह बात कही थी कि-‘हम नहीं चाहते कि लोग मुसलमानों या कश्मीरियों के ख़िलाफ़ जाएं। हम शांति चाहते हैं और केवल शांति। बेशक, हम न्याय चाहते हैं, जिन्होंने ग़लत किया है उन्हें सज़ा मिलनी चाहिए।’ यह बहुत ही अफसोसजनक है कि हिमांशी को ट्रोलर्स ने बुरी तरह से निशाना बनाया। कितनी बड़ी बात है कि मुसलमानों या कश्मीरियों के खिलाफ नफरत न फैलाने की अपील करने वाली हिमांशी नरवाल को ट्रोलर्स द्वारा निशाना बनाया गया और उन पर अभद्र टिप्पणियां की गईं, यहां तक कि उन्हें हिंसा की धमकियां भी दी गईं। हिमांशी नरवाल ही नहीं, एक बच्ची से दरिंदगी के खिलाफ सड़क पर उतरे लोगों की मर्यादाहीन भाषा पर एतराज जताने वाली शैला नेगी को भी अभद्र टिप्पणियों और धमकियों का सामना करना पड़ा। यहां पाठकों को यह बताता चलूं कि नैनीताल में मचे बवाल(मुस्लिमों को गाली दे रहे प्रदर्शनकारियों से भिड़ने पर) के बीच एक स्थानीय महिला शैला नेगी का वीडियो सोशल मीडिया पर काफी वायरल हुआ, जिसमें शैला नेगी प्रदर्शनकारियों से सीधे भिड़ती हुई नजर आतीं हैं, वीडियो के वायरल होने के बाद शैला नेगी को रेप तक की धमकी दी गई। बहरहाल,इससे बड़ी बात भला और क्या हो सकती है कि सोशल मीडिया आज धमकियों का प्लेटफार्म बन चुका है। वास्तव में, सोशल मीडिया पर आज किसी को भी ट्रोल करना, किसी व्यक्ति विशेष पर ऊल-जलूल और अभद्र टिप्पणियां करना, धमकियां देना, जो भी मन में आए वह कंटेंट डाल देना जैसी बातें आम हो चली हैं। यह बहुत ही शर्मनाक व अफसोसनाक बात है। कहना ग़लत नहीं होगा कि आज के समय में हम पाश्चात्य संस्कृति में जीने लगे हैं और भारतीय संस्कृति और इसके नैतिक मूल्यों, आदर्शों और प्रतिमानों को लगातार भूलते चले जा रहे हैं।सच तो यह है कि सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव के साथ ही आज हमारे समाज से नैतिक मूल्यों में निरंतर गिरावट देखी जा रही है। आज सोशल मीडिया के अत्यधिक उपयोग से लोगों में सहानुभूति की कमी, साइबर बुलिंग(बिना किसी डर के दूसरों को निशाना बनाना) और व्यक्तिगत जीवन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। लोग अब अपनी निजता का सम्मान नहीं करते हैं और दूसरों की भावनाओं की बिल्कुल भी परवाह नहीं करते हैं कि वे एक सार्वजनिक स्टेज(मंच) पर क्या कह रहे हैं और वास्तव में उन्हें क्या कहना चाहिए और क्या नहीं कहना चाहिए तथा इसका समाज और देश पर क्या और किस कदर प्रभाव पड़ सकता है? वास्तव में होना तो यह चाहिए कि सोशल मीडिया पर हम दूसरों के प्रति सम्मान और सहानुभूति दिखाएं, और उनके विचारों का सम्मान करें। सोशल मीडिया पर ग़लत सूचनाओं, जानकारी को शेयर ना करें और सोशल मीडिया पर अपने समय को सीमित करते हुए हम व्यक्तिगत जीवन को प्राथमिकता दें। हम जानते हैं कि आज के समय में सोशल मीडिया अभिव्यक्ति का एक शक्तिशाली उपकरण है जो हमारे जीवन में, समाज और देश में कई सकारात्मक बदलाव ला सकता है, लेकिन हमें इसका उपयोग सावधानीपूर्वक और नैतिक रूप से करना चाहिए, ताकि हमारे नैतिक मूल्यों में गिरावट न आए और दूसरों की भावनाओं को ठेस न पहुंचे। आज सोशल मीडिया पर सच्चाई और ईमानदारी की कमी सी हो गई है। हमारी यह आदत सी हो गई है कि आज हम सोशल मीडिया पर अक्सर अपनी निजी जानकारी साझा करते हैं, जो हमारी निजता का उल्लंघन कर सकती है। यह नैतिक मूल्यों के विघटन का एक उदाहरण है, क्योंकि निजता किसी भी समाज के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। आज सोशल मीडिया पर अक्सर हिंसा और अभद्र भाषा का प्रसार होता है, जो हमारे समाज व देश के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकता है। सोशल मीडिया मंच पर हमें अपने विचारों को और मान्यताओं को दूसरों पर थोंपने का कोई अधिकार नहीं है, क्यों कि सामाजिक समानता समाज के लिए महत्वपूर्ण है। आज हम अपने स्वार्थों को भुनाने के लिए सोशल मीडिया पर नैतिक मूल्यों को, हमारे आदर्शों को, हमारी सनातन संस्कृति को लगातार त्याग रहें हैं,जो ठीक नहीं है। आज ट्रोलर्स सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर ऐसा बर्ताव करते हैं, जिसके सामने कोई नियम-कायदा, नैतिकता या मर्यादा नहीं टिकती। हिमांशी नरवाल और शैला नेगी  इसी ट्रेंड का शिकार हुई। होना तो यह चाहिए था कि इन दोनों का(हिमांशी नरवाल और शैला नेगी का) हमारा समाज साथ देता, लेकिन हुआ बिल्कुल इसके उलट। हमारे देश के संविधान ने सभी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार दिया है। यहां पाठकों को बताता चलूं कि भारतीय संविधान, अनुच्छेद 19 के तहत, प्रत्येक नागरिक को वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है। यह अधिकार भाषण, लेखन, मुद्रण, दृश्य प्रतिनिधित्व या किसी अन्य माध्यम से अपने विचारों, राय और विचारों को व्यक्त करने की स्वतंत्रता का हकदार है, लेकिन इस आजादी का एक निश्चित दायरा है, एक सीमा है। वास्तव में हमारी अभिव्यक्ति किसी दूसरे की स्वतंत्रता और गरिमा पर चोट करने वाली बिलकुल भी नहीं होनी चाहिए। आज सोशल मीडिया पर कोई भी कंटेंट डाला जाता है, बिना किसी डर और भय के। दरअसल, सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग करते हुए कई लोग इस बात को भूल जाते हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का एक निश्चित दायरा है,एक सीमा है, गरिमा है। वास्तव में ट्रोलर्स को अपनी बात रखने, अपनी अभिव्यक्ति देने की अपनी आजादी तो नजर आती है, लेकिन इस अभिव्यक्ति के दौरान उन्हें सामने वाले के अधिकार और उसकी गरिमा, नैतिकता आदि का ध्यान नहीं रहता। यह बात ठीक है कि किसी व्यक्ति विशेष की बातों से सहमत या असहमत हुआ जा सकता है, लेकिन इसे व्यक्त करने का तरीका शालीन, सभ्य व नैतिकता को ध्यान में रखने वाला होना चाहिए। वास्तव में सोशल मीडिया पर कंटेंट जानकारी परक, अच्छा, प्रासंगिक, विशिष्ट, मर्यादित होना चाहिए। कहना ग़लत नहीं होगा कि सोशल मीडिया पर अमर्यादित और अभद्र भाषा का इस्तेमाल तो बिल्कुल भी स्वीकार्य नहीं है। हमें यह याद रखना चाहिए कि सोशल मीडिया का दायरा बहुत ही व्यापक है और जब हम कोई बात ऐसे मंच पर कहते हैं तो यह बहुत दूर तक फैलती है, जाती है, क्यों कि इसकी पहुंच समस्त विश्व में है। इसलिए सोशल मीडिया इस्तेमाल करते समय हर किसी को इसके प्रभाव और पहुंच को लेकर हमेशा सतर्क व पूर्ण जागरूक रहना चाहिए। ऐसा भी नहीं है कि हिमांशी नरवाल और शैला नेगी को सोशल मीडिया पर सपोर्ट करने वाले लोग नहीं हैं लेकिन दुखद बात यह है कि ग़लत चीजों को सपोर्ट करने वाले लोग आज कहीं अधिक नजर आते हैं। आज जरूरत इस बात की है कि सोशल मीडिया के सही उपयोग, प्रयोग पर गाइडलाइंस बनाईं जाएं और सख़्ती की जाए।सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को अपनी सामग्री पर निगरानी रखने और गलत सूचना को रोकने के लिए कदम उठाने चाहिए। साथ ही साथ,आम आदमी को भी यह चाहिए कि वे सोशल मीडिया के सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं को समझें।

सुनील कुमार महला,

‘कृष 4’ के ‘विजन’ को ऊंचाइयों तक ले जाएंगे ऋतिक रोशन

सुभाष शिरढोनकर

ऋतिक रोशन अब ‘कृष 4’ से डायरेक्शन में डेब्यू करने जा रहे हैं। इसकी अनाउंसमेंट उनके फिल्म मेकर पिता राकेश रोशन ने हाल ही में की। इस अनाउंसमेंट के बाद ‘कृष 4’ को लेकर फैंस की एक्साइटमेंट काफी बढ  चुकी है। इसके साथ ही लंबे वक्‍त से चल रही उन अटकलों को भी विराम लगा चुका है कि आखिर ‘कृष 4’ को कौन डायरेक्‍ट करेगा ?  

कृष फ्रेंचाइज़ी ने ऋतिक रोशन को इंडियन फिल्‍म इंडस्‍ट्री के सबसे बड़े सितारों में से एक बना दिया।  अब  इस मच अवेटेड फ्रेंचाइजी के अगले पार्ट ‘कृष 4’ की तैयारी शुरू चुकी है। यह फायनल हो चुका है कि ऋतिक रोशन न केवल इसमें सुपर हीरो के किरदार में नजर आएंगे बल्कि वहीं इस फिल्म के डायरेक्‍शन की कमान भी संभालेंगे।

कृष फ्रैंचाइजी की शुरुआत साल 2003 की फिल्म ‘कोई मिल गया’ से हुई थी। जिसमें प्रीति जिंटा, ऋतिक रोशन, रेखा ने अहम किरदार निभाया था।

इसके 3 साल बाद फिल्म का स्पिन ऑफ सीक्वेंस ‘कृष’ रिलीज किया गया । जिसमें कृष का परिचय करवाया गया था। इस फिल्म में ऋतिक ने रोहित और कृष्णा (कृष) का डबल रोल निभाया था।

इसके 7 साल बाद 2013 में कृष फ्रैंचाइजी की तीसरी फिल्म ‘कृष 3’ रिलीज हुई थी। इसके बाद से ही हर कोई ‘कृष 4’  का इंतजार कर रहा है। रोशन परिवार एक लंबे वक्‍त से इस पर काम शुरू करने के मूड़ में था। लेकिन राकेश रोशन की अस्‍वस्‍थता के कारण फिल्‍म का काम डिले होता गया।

ऐसे में ऋतिक ने अपने करीबी दोस्त सिद्धार्थ आनंद को इस फिल्‍म के लिए प्रोडक्शन पार्टनर का काम सौंपा । लेकिन कुछ समय बाद ही खबर आई कि 700 करोड़ के मेगा बजट के कारण सिद्धार्थ आनंद के बैनर मार्फ्लिक्स फिल्म्स ने खुद को इस प्रोजेक्ट से अलग कर लिया ।

जब रोशन्‍स ने दूसरे स्टूडियो तलाशने शुरू किए तब बजट ज्यादा होने के कारण कोई स्टूडियो इस पर काम करने के लिए तैयार नहीं हुआ। ऐसे में खबरें आने लगी कि फिल्‍म ठंडे बस्‍ते में जा चुकी है। लेकिन उन खबरों पर प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए राकेश रोशन ने कहा था कि फिल्म की अनाउंसमेंट जल्द की जाएगी।

और अब ऋतिक रोशन के डायरेक्‍शन डेब्‍यू में इस फिल्‍म को शुरू करने की खबर आने पर फिल्‍मी दुनिया से जुड़ी अनेक सेलिब्रिटीज ने ऋतिक को शुभ कामनाएं दी हैं।

जाने माने फिल्‍म मेकर सुभाष घई ने इस खबर पर अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए कहा है, ‘मुझे यकीन है कि ऋतिक एक निर्देशक के रूप में भी बेहतरीन काम करेंगे. मेरा आशीर्वाद हमेशा उनके साथ रहेगा।’  

 ऋतिक रोशन ने इन शुभ कामनाओं के लिए सभी का शुक्रिया करते हुए कहा है कि उनके होम प्रोडक्‍शन की कृष फ्रेंचाइजी ने दुनिया भर के दर्शकों का मनोरंजन किया है। इसलिए अब इसके अगले चैप्टर को लेकर  वह पहले से अधिक जिम्‍मेदारी महसूस कर रहे हैं। उन्‍हैं लगता है कि अपने फैंस और शुभ चिंतकों के शुभाशीष की बदौलत वे अपने इस विज़न को और ज्यादा ऊंचाइयों तक ले जा सकेंगे।

ऋतिक रोशन को उनकी मैग्नेटिक स्क्रीन प्रेजेंस और काम के प्रति डेडीकेशन के लिए जाना जाता है।  साल 2000 में उन्‍होंने ‘फिल्म कहो न प्यार है’ से बॉलीवुड डेब्यू किया था।

10 करोड़ रुपए के बजट में बनी इस फिल्‍म ने 347 करोड़ रुपए का कलेक्शन किया। इतना ही नहीं उनकी इस फिल्‍म को गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड्स (2002) में शामिल किया गया था क्योंकि फिल्म ने अलग-अलग कैटेगरी में कुल 92 अवॉर्डस अपने नाम किए थे। इस फिल्म के लिए ऋतिक को फिल्मफेयर अवॉर्ड फॉर बेस्ट एक्टर और फिल्मफेयर अवॉर्ड फॉर बेस्ट डेब्यू मिला था।

ऋतिक रोशन अपनी इस पहली ही फिल्म से रातोंरात बॉलीवुड सुपरस्टार बन गए। उनकी डांस स्किल, एक्टिंग और बॉडी सबकी चर्चाएं फैंस के बीच होने लगी थीं।    

ऋतिक रोशन आखिरी बार दीपिका पादुकोण और अनिल कपूर संग फिल्म ‘फाइटर’ में नजर आए थे। जो एक बड़ी हिट साबित हुई थी। उसके बाद से ही उनके फैंस उनकी आने वाली फिल्मों का इंतजार कर रहे है।

ऋतिक रोशन की आने वाली फिल्मों में ‘वॉर 2’ है। इस फिल्म में जूनियर एनटीआर भी अहम किरदार में नजर आएंगे।

सुभाष शिरढोनकर

“सोशल मीडिया पर देशविरोध का कारोबार: अभिव्यक्ति की आज़ादी या एजेंडा मार्केटिंग?”

(पेआउट के बदले देशविरोध? अब नहीं चलेगा!) 

सोशल मीडिया पर ‘पेआउट’ लेकर भारत को बदनाम करने वालों की अब खैर नहीं। IT एक्ट 2000 और डिजिटल मीडिया एथिक्स कोड 2021 के तहत सरकार ने सख़्त रुख अपनाया है। अब देशविरोधी कंटेंट पर न तो चुप्पी होगी, न छूट। अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर अफवाह फैलाने और एजेंडा चलाने वालों पर कानूनी शिकंजा कसेगा। ये तय नहीं होगा कि आप किस पार्टी के समर्थक हैं, बल्कि ये देखा जाएगा कि आपके विचार भारत की अखंडता के साथ हैं या उसके खिलाफ़। अब पोस्ट से पहले सोचिए – देश पहले है, लोकप्रियता नहीं!

-प्रियंका सौरभ

आज सोशल मीडिया एक ऐसा हथियार बन चुका है, जिसकी धार किसी तलवार से कम नहीं। यह धार विचारों की है, भावनाओं की है और सबसे खतरनाक — अफ़वाहों की भी। अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर पिछले कुछ वर्षों में एक ऐसा अघोषित बाजार खड़ा हो गया है, जहाँ ‘पेआउट’ के बदले पोस्ट तैयार होती हैं, देश की छवि बिगाड़ी जाती है और एक सुनियोजित रणनीति के तहत राष्ट्रविरोधी एजेंडे को “न्यूज़”, “ऑपिनियन” और “न्याय” का नाम देकर परोसा जाता है।

लेकिन अब चेतावनी जारी हो चुकी है।

“Standing Committee on Information Technology” के हालिया कार्यालय ज्ञापन (Office Memo) ने इस दिशा में गंभीर कदम उठाने की मंशा स्पष्ट कर दी है। अब सिर्फ़ देखा नहीं जाएगा — अब कार्रवाई होगी। आईटी एक्ट 2000 और डिजिटल मीडिया एथिक्स कोड 2021 के तहत ऐसे सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स और ‘इन्फ्लुएंसर्स’ पर शिकंजा कसा जाएगा, जो देश के खिलाफ़ कंटेंट फैलाकर माहौल खराब करने में लगे हैं।

अभिव्यक्ति बनाम विध्वंस

देश में विचारों की आज़ादी संविधान से संरक्षित है। लेकिन क्या यह आज़ादी इतनी खुली हो कि कोई भी कुछ भी कह दे, और जब सवाल उठे तो ‘डेमोक्रेसी’, ‘फ्री स्पीच’ और ‘डिसेंट’ की आड़ ले ले? क्या राष्ट्रविरोधी कंटेंट को भी अभिव्यक्ति का हिस्सा मान लेना चाहिए?

जब कोई युवा “जॉब नहीं है” कहता है, वह जायज़ पीड़ा है। लेकिन जब वही सोशल मीडिया पर लिखता है — “भारत को जलना चाहिए”, “हिंदुस्तान नर्क है”, “देश तो फासीवादी बन चुका है”, तो ये राय नहीं रह जाती — यह एक सुनियोजित अफवाह बन जाती है, जिसे राजनीतिक या विदेशी ताकतें और हवा देती हैं।

इसलिए अब ये तय नहीं होगा कि पोस्ट करने वाला किस पार्टी का समर्थक है, अब ये तय होगा कि पोस्ट का असर राष्ट्र पर क्या है।

‘पेआउट पत्रकारिता’ का बढ़ता जाल

आजकल कुछ ‘फ्रीलांस’ और ‘इन्फ्लुएंसर्स’ सोशल मीडिया पर हर मुद्दे पर “ज्ञान” दे रहे हैं। लेकिन इन ज्ञानियों के पीछे अक्सर छिपी होती है पेआउट की रणनीति। एक खास विचारधारा के तहत वीडियो बनाए जाते हैं — किसी पर आरोप मढ़ा जाता है, किसी की छवि बिगाड़ी जाती है और अंत में क्लाइमेक्स यह कि “भारत अब रहने लायक नहीं बचा।”

ये सब उस एजेंडा मार्केटिंग का हिस्सा है जहाँ भारत की छवि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर धूमिल की जाती है — खासकर मानवाधिकार, मुस्लिम विरोध, दलित उत्पीड़न जैसे संवेदनशील विषयों पर। इनकी टाइमिंग भी देखिए — जब UN में कोई भारत पर चर्चा होनी होती है, जब विदेशी रिपोर्ट्स आती हैं, ठीक उन्हीं दिनों ये ‘भारत-विरोधी अभियान’ सोशल मीडिया पर तेज़ हो जाते हैं।

क्या देशद्रोह की पहचान पार्टी से होगी?

बहस का एक हास्यास्पद बिंदु यह भी है कि लोग यह तय करने की कोशिश करते हैं कि कोई विचार देशविरोधी है या नहीं, इस आधार पर कि पोस्ट करने वाला व्यक्ति भाजपा समर्थक है या कांग्रेस का आलोचक। लेकिन क्या भारत की अखंडता की पहचान दल से होनी चाहिए? क्या राष्ट्रहित को भी राजनीतिक चश्मे से देखा जाएगा?

नहीं। अब समय है कि देश और दल के बीच की लकीर स्पष्ट की जाए।

राष्ट्र सबसे ऊपर है — न कि विचारधारा, जाति, धर्म या दल।

जो पोस्ट भारत की सीमाओं पर, उसके सैनिकों पर, उसकी न्याय व्यवस्था या लोकतांत्रिक संस्थानों पर बेबुनियाद आरोप लगाकर उन्हें अस्थिर करने का काम करती है — वो राष्ट्रविरोध है। और अब सरकार ने स्पष्ट कर दिया है — ऐसे कंटेंट को पेल दिया जाएगा, एकदम से तात्कालिक।

IT एक्ट और डिजिटल संहिता: अब छूट नहीं

आईटी एक्ट 2000 और डिजिटल मीडिया एथिक्स कोड 2021 अब सिर्फ़ किताबों तक सीमित नहीं रहेंगे। जो लोग यह मानकर चल रहे थे कि ऑनलाइन की दुनिया ‘नो रूल्स जोन’ है, उन्हें अब ज़मीनी हकीकत से रूबरू होना होगा।

इन कानूनों के तहत:

राष्ट्रविरोधी सामग्री साझा करने पर प्लेटफॉर्म को नोटिस और कंटेंट हटाने का निर्देश

फर्जी न्यूज़ फैलाने पर आपराधिक मामला दर्ज

पेड प्रमोशन को खुलकर दर्शाना अनिवार्य

भारत विरोधी ‘ट्रेंड्स’ को बढ़ावा देने पर आर्थिक जुर्माना और बैन तक की कार्रवाई

इन कानूनी प्रावधानों को अब सरकार सख्ती से लागू करने जा रही है।

देश है कोई स्टोरी पिच नहीं!

भारत कोई प्रोडक्ट नहीं है जिसे ‘इंटरनैशनल आउटलुक’ में बेचने के लिए बदनाम किया जाए। यह देश करोड़ों लोगों की आस्था, आत्मा और संघर्ष से बना है। कोई भी व्यक्ति अगर यह सोचता है कि वो एक ट्वीट या एक रील के ज़रिए देश को नीचा दिखा सकता है, तो वह बहुत बड़ी भूल कर रहा है।

सोशल मीडिया पर चल रही यह “राष्ट्र-विरोधी आउटसोर्सिंग” अब नहीं चलेगी।

कलम अब ज़िम्मेदार हो

साहित्य, पत्रकारिता, मीडिया और सोशल स्पेस — ये सब लोकतंत्र की रीढ़ हैं। लेकिन जब यही प्लेटफॉर्म विदेशी एजेंडों या राजनीतिक नफ़रत से ग्रस्त हो जाएं, तो उन्हें शुद्ध करना ही राष्ट्र की सुरक्षा का हिस्सा बन जाता है।

अब समय आ गया है कि कलम भी ज़िम्मेदारी के साथ चले।

हर पोस्ट से पहले, हर ट्वीट से पहले, हर वीडियो से पहले खुद से पूछिए — क्या ये मेरे देश के पक्ष में है या विपक्ष में?

अगर जवाब स्पष्ट नहीं है — तो पोस्ट मत कीजिए।

समापन में एक बात और —

ये देश बहस से नहीं डरता। लेकिन साजिश से चुप नहीं रहेगा।

अब वो दौर खत्म हो चुका है जब राष्ट्र को गाली देकर लोग ‘लोकप्रियता’ कमा लेते थे।

अब जवाब मिलेगा – कड़ा, कानूनी और तत्काल।

जेनेरिक दवाएं लिखने के कानूनी आदेश का उजाला

-ललित गर्ग –

सुप्रीम कोर्ट ने डॉक्टरों को मरीजों के लिए जेनेरिक दवाइयां लिखने एवं किसी विशेष कंपनी की दवाइयां न लिखने की नसीहत देकर न केवल गरीब मरीजों को राहत पहुंचाई है बल्कि चिकित्सा क्षेत्र में व्याप्त मनमानी, मूल्यहीनता, रिश्वत एवं अनैतिकता पर अंकुश लगाने की दिशा में सराहनीय एवं प्रासंगिक पहल की है। सुप्रीम कोर्ट से पहले राजस्थान उच्च न्यायालय ने भी ऐसा ही फैसला सुनाया था। सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की पीठ संदीप मेहता, विक्रम नाथ और संजय करोल ने दवा कंपनियों से जुड़ी याचिका की सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की है। इस याचिका में दवा कंपनियों पर मनमानी एवं रिश्वतखोरी का आरोप लगाया गया था। ऐसे में सर्वाेच्च न्यायालय ने कहा कि अगर पूरे देश में इस फैसले का पालन हो, तो इससे अहम सुधार हो सकता है। मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा-डॉक्टरों पर अक्सर दवा कंपनियों से रिश्वत लेने का आरोप लगता है। ऐसे में अगर डॉक्टर जेनेरिक दवाएं लिखेंगे, तो उनपर लगने वाले इल्जाम का मुद्दा भी हल हो जाएगा। ऐसा करने से एक बड़ी आबादी को सस्ती एवं अचूक दवाओं का लाभ मिल सकेगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जेनेरिक दवाइयांे को जनव्यापी बनाने की दिशा में सार्थक पहल की है। पूरी दुनिया में जेनेरिक दवाइयांे को ज्यादा स्वीकार्य बनाने के लिए व्यापक स्तर पर काम हो रहा है, लेकिन दवा माफिया इसमें बाधाएं खड़ी कर रहा है। सर्वोच्च न्यायालय की सक्रियता से दवा कंपनियों व चिकित्सकों के अपवित्र गठबंधन को तोड़ा जा सकता है, जो बड़ी आबादी की एक बड़ी समस्या का सटीक समाधान होगा।
निश्चित ही डॉक्टर अगर सिर्फ जेनेरिक दवाएं लिखें तो दवा कंपनियों की रिश्वतखोरी बंद हो सकती है। शीर्ष अदालत उस याचिका पर सुनवाई कर रही थी जिसमें फार्मास्युटिकल मार्केटिंग की समान संहिता पर कानून बनने तक दवा कंपनियों की अनैतिक विपणन प्रथाओं को नियंत्रित करने के दिशा-निर्देश की मांग की गई थी। भारत में किफायती जेनेरिक दवाओं का उत्पादन एवं प्रचलन एक जीवन रेखा है, लेकिन इसके गुणवत्ता के आश्वासन को मजबूत करने के साथ डाक्टरों की मनमानी पर नियंत्रण करना होगा, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय की पहल एक रोशनी बनेगा। आज जबकि देश में लाइफ़स्टाइल से जुड़ी बीमारियां तेज़ी से बढ़ रही हैं, जैसे-जैसे चिकित्सा-विज्ञान का विकास हो रहा है, नयी-नयी बीमारियां एवं उनका महंगा इलाज एवं महंगी दवाइयां बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। इसलिये जेनेरिक दवाओं पर भरोसा और दुनिया में इसकी मांग, दोनों में इज़ाफ़ा हुआ है। मोदी सरकार ने जेनेरिक दवाओं को ज्यादा स्वीकार्य बनाने एवं सर्वसुलभ कराकर एक अभिनव स्वास्थ्य क्रांति का सू़त्रपात किया है।
जेनेरिक दवाएं, जो ब्रांडेड दवाओं का सस्ता विकल्प होती हैं, वही सक्रिय तत्व (एक्टिव इंग्रेडिएंट) रखती हैं और उतनी ही प्रभावी होती हैं। फिर भी, इनका उपयोग भारत में अपेक्षाकृत कम है, क्योंकि डॉक्टरों पर कोई बाध्यकारी कानून नहीं है। हालांकि, भारतीय मेडिकल काउंसिल ने डॉक्टरों को जेनेरिक दवाएं लिखने के लिए दिशा-निर्देश जारी किए हैं, लेकिन ये बाध्यकारी नहीं, एक स्वैच्छिक संहिता है, जिसका पालन डाक्टर अपनी मर्जी से करते हैं। कोर्ट ने दवा कंपनियों की अनैतिक मार्केटिंग पर तत्काल रोक लगाने के लिए दिशा-निर्देश जारी करने की आवश्यकता पर बल दिया। कोर्ट की यह टिप्पणी स्वास्थ्य क्षेत्र की दिशा में एक अहम कदम हो सकता है। यहीं नहीं, आम जनता को सस्ती और सुलभ दवाओं का भी मार्ग प्रशस्त हो सकता है। भारत में दवा उद्योग एक विशाल और जटिल क्षेत्र है, जहां दवा कंपनियां अक्सर अपने मुनाफे को बढ़ाने के लिए अनैतिक तरीकों का सहारा लेती हैं। ये कंपनियां डॉक्टरों को मुफ्त उपहार, विदेश यात्राएं, महंगे रात्रिभोज और अन्य प्रलोभन देकर अपनी ब्रांडेड दवाओं को प्रचारित करने के लिए प्रेरित करती हैं। नतीजतन, डॉक्टर कई बार मरीजों को ऐसी दवाएं लिखते हैं, जो न केवल महंगी होती हैं, बल्कि कई बार अनावश्यक भी होती हैं। इसका सीधा असर मरीजों की जेब और स्वास्थ्य पर पड़ता है।
सस्ती जेनेरिक दवाओं के प्रचलन को बाधिक करने की रणनीति एक वैश्विक समस्या है। भारत में जेनेरिक दवाओं की शुरूआत मोदी सरकार ने की। वैसे 2004 और 2013 के बीच अमेरिकी स्वास्थ्य प्रणाली को इससे लगभग 1.5 ट्रिलियन डॉलर की बचत हुई है। जेनेरिक कैंसर जैसी अनेक असाध्य बीमारियों की दवाओं की समय पर उपलब्धता ने ऐसे कई रोगियों की सामर्थ्य को बढ़ा दिया है। जबकि इसके विपरीत अनेक परिजनों के गंभीर व असाध्य रोगों की महंगी दवाओं एवं इलाज की वजह से लाखों लोग गरीबी की दलदल में डूब गए। कोरोना संकट के दौरान भी लोगों द्वारा घर, जमीन व जेवर बेचकर अपनों की जान बचाने की कोशिश की खबरें मीडिया में तैरती रही। लेकिन सामान्य दिनों में दवा कंपनियों की मिलीभगत व दबाव में लिखी जाने वाली महंगी दवाइयां भी गरीबों के लिये बड़ी समस्या बनती रही हैं। इसके बावजूद कि बाजार में उसी साल्ट वाली गुणवत्ता की जेनेरिक दवा सहज उपलब्ध है। कुछ समय पहले केंद्र सरकार की ओर से जेनेरिक दवाइयां लिखने की अनिवार्यता के निर्देश का अच्छा-खासा विरोध हुआ, जिसके चलते निर्णय वापस लेना पड़ा था। अब इसी चिंता को देश की शीर्ष अदालत ने अभिव्यक्त किया है, जो गरीबों को सस्ती दवाओं से इलाज का रास्ता सुगम बना देगी। जिससे गरीबों के जीवन में एक स्वास्थ्य उजाला होगा।
विडम्बना एवं दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि दवा-कम्पनियां तरह-तरह के प्रलोभन व परोक्ष-अपरोक्ष लाभ देकर चिकित्सकों पर महंगी दवा लिखने का दबाव बनाती हैं, मानो सारे नैतिक मूल्यों को ताक पर रखकर धनार्जन ही एकमात्र कर्म रह गया है। जिसकी कीमत उन लोगों को चुकानी पड़ती है, जो महंगी दवा खरीदने में सक्षम नहीं होते। ऐसे में वे कर्ज लेकर या अपने रिश्तेदारों से मदद लेकर किसी तरह गंभीर रोगों से ग्रस्त मरीजों का इलाज कराते हैं। इस खर्च के दबाव के चलते परिजनों को भी तमाम कष्ट उठाने पड़ते हैं। गाहे-बगाहे सरकारों ने दवा कंपनियों की बेलगाम मुनाफाखोरी रोकने को कदम उठाने की घोषणाएं तो कीं, लेकिन दवा माफिया के दबाव में समस्या का सार्थक समाधान नहीं निकल पाया। डॉक्टरों की तरफ से भी यदि इस दिशा में सहयोग मिलने लगे तो इस समस्या का समाधान किसी सीमा तक संभव हो सकता है। लेकिन विडंबना है कि ऐसा हो नहीं पा रहा है। एक संकट यह भी है कि दवा कंपनियों द्वारा प्रचार किया जाता है कि जेनेरिक दवाइयां रोग के उपचार में पर्याप्त रूप से सक्षम नहीं होती, यह बात आम जनता में गहरे से बिठायी हुई है।
दवा कंपनियों की अनैतिक प्रथाएं केवल आर्थिक शोषण तक सीमित नहीं हैं, ये मरीजों के स्वास्थ्य और जान को भी खतरे में डालती हैं। महंगी दवाओं के प्रचार के कारण कई बार गरीब मरीज इलाज से वंचित रह जाते हैं। यदि जेनेरिक दवाओं को अनिवार्य किया जाए, तो न केवल दवाओं की कीमतें कम होंगी, बल्कि स्वास्थ्य सेवाएं भी अधिक समावेशी और सुलभ बनेंगी। निस्संदेह, सरकारों को इस दिशा में गंभीरता से सोचना होगा कि जेनेरिक दवाइयों को प्रोत्साहन देने के उसके प्रयास क्यों सिरे नहीं चढ़ते। एक वजह यह भी है कि दवा कंपनियों की लॉबी खासी ताकतवर होती है और साम-दाम-दंड-भेद की नीति का उपयोग करके अपने उत्पादों का विपणन करने में सफल हो जाती है। निस्संदेह, लंबे उपचार व असाध्य रोगों के इलाज में दवाओं की कीमत एक प्रमुख घटक होता है। यदि दवा नियंत्रित दामों में मिल सके तो उनकी बड़ी चिंता खत्म हो सकती है। निस्संदेह, दवाओं की कीमत हमारी चिकित्सा सेवाओं के लिये एक बड़ी चुनौती बनी हुई है।
सरकार को चाहिए कि गांव से लेकर शहरों तक जेनेरिक दवाओं के मेडिकल स्टोर बड़ी संख्या में खोले जाएं। गरीब-अनपढ़ मरीजों को जागरूक करके जेनेरिक दवाइयों के उपयोग को प्रोत्साहित करना होगा। मरीजों के परिजनों को विश्वास दिलाया जाना चाहिए कि जेनेरिक दवाइयां भी उसी साल्ट से बनी होती हैं, जिससे महंगी ब्रांडेड दवाइयां बनी होती हैं। निश्चित रूप से डॉक्टरों का भी फर्ज बनता है कि वे अपने ऋषिकर्म का दायित्व निभाते हुए गरीब मरीजों को अधिक से अधिक जेनेरिक दवाइयां लिखना शुरू करें। यह उनके लिये भी परोपकार एवं पुण्य के काम जैसा होगा। 

रवीन्द्रनाथ टैगोर: रोशनी जिनके साथ चलती थी

रवीन्द्रनाथ टैगोर जयन्ती – 7 मई, 2025
 – ललित गर्ग –

भारत का राष्ट्र-गान ‘जन गण मन’ और बाँग्लादेश का राष्ट्रीय गान ‘आमार सोनार बांङ्ला’ के रचयिता एवं भारतीय साहित्य के नोबेल पुरस्कार विजेता रवीन्द्रनाथ टैगोर की जन्म जयंती हर साल 7 मई को मनाई जाती है। वे एक महान एवं विश्वविख्यात कवि, लेखक, साहित्यकार, दार्शनिक, समाज सुधारक और चित्रकार थे। उन्हें बांग्ला साहित्य के माध्यम से भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नयी जान फूँकने वाले युगदृष्टा, युगस्रष्टा एवं युग-निर्माता माना जाता है। रवींद्रनाथ टैगोर को उनकी अनूठी, हृदयस्पर्शी एवं आध्यात्मिक रचनाओं के लिए लोग गुरुदेव कहकर पुकारते हैं। उनका जन्मदिन केवल जन्म का जश्न मनाने के लिए नहीं है, बल्कि उनके विचारों और मूल्यों को याद करने और उनके सद्भाव, संपूर्णता और अखंडता के आदर्शों और आकांक्षाओं के अमूल्य योगदान का सम्मान करने का भी एक अवसर है। टैगोर एक ऐसे दिव्य एवं अलौकिक व्यक्ति एवं समाजक्रांति के प्रेरक थे, रोशनी जिनके साथ चलती थी।
रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म 7 मई 1861 को कोलकाता के जोड़ासांको ठाकुरबाड़ी में हुआ। उनके पिता देवेन्द्रनाथ टैगोर और माता शारदा देवी थीं। उनकी आरम्भिक शिक्षा प्रतिष्ठित सेंट जेवियर स्कूल में हुई। उन्होंने बैरिस्टर बनने की इच्छा में 1878 में इंग्लैंड के ब्रिजटोन में पब्लिक स्कूल में नाम लिखाया फिर लन्दन विश्वविद्यालय में कानून का अध्ययन किया किन्तु 1880 में बिना डिग्री प्राप्त किए ही स्वदेश लौट आए। सन् 1883 में मृणालिनी देवी के साथ उनका विवाह हुआ। टैगोर परिवार बंगाल पुनर्जागरण के समय अग्रणी था। उन्होंने साहित्यिक पत्रिकाओं का प्रकाशन किया; बंगाली और पश्चिमी शास्त्रीय संगीत एवं रंगमंच और पटकथाएं वहां नियमित रूप से प्रदर्शित हुईं थीं। टैगोर के सबसे बड़े भाई द्विजेंद्रनाथ एक दार्शनिक और कवि थे एवं दूसरे भाई सत्येंद्रनाथ कुलीन और पूर्व में सभी यूरोपीय सिविल सेवा के लिए पहले भारतीय नियुक्त व्यक्ति थे। एक भाई ज्योतिरिंद्रनाथ, संगीतकार और नाटककार थे एवं इनकी बहिन स्वर्णकुमारी उपन्यासकार थीं। टैगोर ने लगभग 2,230 गीतों की रचना की। रवींद्र संगीत बाँग्ला संस्कृति का अभिन्न अंग है। टैगोर के संगीत को उनके साहित्य से अलग नहीं किया जा सकता। उनकी अधिकतर रचनाएं तो अब उनके गीतों में शामिल हो चुकी हैं। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की ध्रूवपद शैली से प्रभावित ये गीत मानवीय भावनाओं एवं संवेदनाओं के अलग-अलग रंग प्रस्तुत करते हैं।
गुरुदेव टैगोर की कविताओं में हमें अस्तित्व के असीम सौन्दर्य, प्रकृति और भक्ति के दर्शन होते हैं। उनकी बहुत-सी कविताएं प्रकृति के सौन्दर्य से जुड़ी हैं। गुरुदेव ने जीवन के अंतिम दिनों में चित्र बनाना शुरू किया। इसमें युग का संशय, मोह, क्लान्ति और निराशा के स्वर प्रकट हुए हैं। मनुष्य और ईश्वर के बीच जो चिरस्थायी सम्पर्क है, उनकी रचनाओं में वह अलग-अलग रूपों में उभरकर सामने आया। टैगोर और महात्मा गाँधी के बीच राष्ट्रीयता और मानवता को लेकर हमेशा वैचारिक मतभेद रहा। जहां गांधी पहले पायदान पर राष्ट्रवाद को रखते थे, वहीं टैगोर मानवता को राष्ट्रवाद से अधिक महत्व देते थे। लेकिन दोनों एक दूसरे का बहुत अधिक सम्मान करते थे। एक समय था जब शान्ति निकेतन आर्थिक कमी से जूझ रहा था और गुरुदेव देश भर में नाटकों का मंचन करके धन संग्रह कर रहे थे, उस समय गांधीजी ने टैगोर को एक बड़ी राशि का अनुदान का चेक दिया था।
टैगोर के कई गीतों और कहानियों ने मानव चेतना को बदलने और कार्य करने के लिए साहस और प्रतिबद्धता को प्रेरित किया। उन्होंने कला का अभ्यास कला के लिए नहीं किया, न ही आत्म-अभिव्यक्ति के तरीके के रूप में और कम से कम मनोरंजन के लिए तो कत्तई नहीं किया, बल्कि उनकी कला भी नये मानव एवं नये विश्व की संरचना से प्रेरित थी। उनकी कला जीवन के गहरे अर्थ को स्पष्ट करने और आत्मा को ठीक करने की पेशकश थी। अपने शिल्प के उस्ताद के रूप में, टैगोर ने कविता की शुद्धता को जीने के उद्देश्य के साथ जोड़ा। उन्होंने न केवल अपने जीवन में मृत्यु, अवसाद और निराशा के कारण अनुभव किए गए दुख और पीड़ा को ठीक किया, बल्कि उन्होंने भारतीय समाज के भीतर अन्याय और असमानता के घावों को भरने के लिए भी काम किया। उन्होंने उन्नत कृषि, अच्छे स्कूलों, आरामदायक आर्थिक स्थितियों और बेहतर जीवन स्तर के माध्यम से मानव समुदायों के बाहरी विकास के लिए काम किया, लेकिन साथ ही उन्होंने आत्मा के नवीनीकरण, आत्मा की देखभाल, हृदय को पोषण और कल्पना को पोषित करने के माध्यम से आंतरिक विकास पर जोर दिया। वे एक ऐसे पुरुषार्थी पुरुष का महापुरुष के रूप में जाना पहचाना नाम है, जिन्होंने हर इंसान के महान् बनने का सपना संजोया और उसके लिये उनके हाथ में सुनहरे सपनों को साकार होने की जीवनशैली भी सौंपी।
टैगोर गहन आध्यात्मिक एवं साधक पुरुष थे, उन्होंने अध्यात्म के गहन रहस्यों को उद्घाटित किया। उनके अनुसार मौन की भाषा शब्दों की भाषा से किसी भी रूप में कमजोर नहीं होती, बस उसे समझने वाला चाहिए। जिस प्रकार शब्दों की भाषा का शास्त्र होता है, उसी प्रकार मौन का भी भाषा विज्ञान होता है। मौन को समझा तो जा सकता है, पर समझाया नहीं जा सकता। संभवतः इसीलिए रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था कि मौन अनंत की भाषा है। टैगोर अध्यात्म एवं विज्ञान के समन्वयक थे। टैगोर ने विज्ञान, प्रौद्योगिकी और भौतिक कल्याण के साथ आध्यात्मिक विकास की आवश्यकता व्यक्त की। एक के बिना दूसरा एक पैर पर चलने जैसा है। वे आध्यात्मिक-वैज्ञानिक व्यक्तित्व निर्माण के प्रेरक थे। इस संतुलित और समग्र विश्वदृष्टि की अब पहले से कहीं अधिक आवश्यकता है, क्योंकि यह हमारे और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक स्थायी और लचीले भविष्य के लिए एक अनिवार्य आवश्यकता एवं शर्त है। शुद्ध तर्क और शुद्ध भौतिकवाद उतने ही विनाशकारी हैं, जितने कि विशुद्ध रूप से व्यक्तिगत मोक्ष की खोज। टैगोर ने विज्ञान और तर्क के माध्यम से सत्य की खोज करते हुए शब्दों और कर्मों में शाश्वत ज्ञान और कालातीत मूल्यों को व्यक्त किया। टैगोर का विश्वदृष्टि तर्क और धर्म, आत्मा और पदार्थ की एकता को देखना और उन्हें एक साथ नृत्य करने देना है। यह एक बड़ी दृष्टि है जहाँ विज्ञान आध्यात्मिकता का पूरक है, कला पारिस्थितिकी का पूरक है और स्वतंत्रता समानता का पूरक है।
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने हमें नस्ल, रंग, धर्म, सम्प्रदाय, भाषा और राष्ट्र की अपनी क्षुद्र पहचान से ऊपर उठने और अपनी सामान्य मानवता के साथ पहचान बनाने का आग्रह किया। उन्होंने मानवता की एकता और स्वतंत्रता, न्याय और शांति के सर्वाेपरि महत्व की घोषणा करते हुए अमेरिका से रूस, चीन से अर्जेंटीना तक समूचे विश्व की अथक यात्रा की। उन्होंने अपने लाखों देशवासियों को अपने संकीर्ण स्वार्थ को त्यागने और राष्ट्रीयता, समानता, एकजुटता और नैतिकता को अपनाने के लिए अपने जातिगत पूर्वाग्रहों को दूर करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने आत्म-भोग को त्याग दिया और सामाजिक विभाजन को दूर करने के लिए अथक प्रयास किया। विशेष रूप से उन्होंने विज्ञान और अध्यात्म के बीच की खाई को भरने की कोशिश की। रबीन्द्रनाथ टैगोर प्रेरणाएं इतनी विविधमुखी थी कि उनसे जीवन का कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं रहा। चाहे वह आपसी संबंध हो, सामाजिक संबंध हो, आर्थिक संबंध हो या राजनीतिक संबंध हो- हर तरह के जीवन को उन्होंने प्रेरक बनाने का उपक्रम किया। वे कभी घटना से, कभी शब्दों से, कभी क्रिया से, कभी पत्रों से, तो कभी किसी उदाहरण या संस्मरण से व्यक्ति की चेतना को झकझोर कर आदर्श और ज्ञान के प्रति अनुराग और जोश जगाते थे। वे इस कला में निष्णात थे कि कब किसको किन शब्दों में उचित प्रेरणा दी जाए।
रवीन्द्रनाथ टैगोर के पुरुषार्थी जीवन की एक पहचान थी गत्यात्मकता। वे अपने जीवन में कभी कहीं रुके नहीं, झुके नहीं। प्रतिकूलताओं के बीच भी अपने अपने लक्ष्य का चिराग सुरक्षित रखा। इसलिए उनकी हर सांस अपने दायित्वों और कर्तव्यों पर चौकसी रखती थी। खून पसीना बनकर बहता था। रातें जागती थी। दिन संवरते थे। प्रयत्न पुरुषार्थ बनते थे और संकल्प साधना में ढलते थे। यही कारण है कि आज उनके प्रयत्नों से न केवल भारतीय समाज बल्कि विश्व मानवता का जीवन प्रेरक बना है, सार्थक बना है और वे सभी उस महामानव को तहेदिल से याद करते हैं।