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संघर्षशील व्यक्तित्व, बेजोड़ राजनैतिज्ञ मनोहर लाल

पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर लाल के जन्मदिन पर विशेष

हरियाणा की राजनीति के चौथे बड़े लाल मनोहर लाल का आज जन्मदिन है। हरियाणा की सत्ता को दो बार संभालने वाले मनोहर लाल खट्टर वर्तमान में केंद्रीय स्तर की राजनीति में बड़ा नाम है। भाजपा के वरिष्ठ और निष्ठावान कार्यकर्ताओं में उनका नाम विशेष रूप से लिए जाता है। वर्तमान में मोदी सरकार में केंद्रीय ऊर्जा, आवास और शहरी मामलों के मंत्री के रूप में दायित्व संभाले हुए है।

     मूल रूप से रोहतक जिले के निन्दाणा गांव में 5 मई 1954 जन्मे मनोहर लाल का परिवार पाकिस्तान से आकर यहां बसा था। बाद में परिवार ने पास के ही गांव बनियानी में खेती की जमीन खरीद ली और वहीं रिहायश कर ली। विस्थापित परिवारों की तरह इनके परिवार को भी शुरुआत में आजीविका के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी। बताया जाता है कि उनके पिता और दादा को शुरुआती दिनों में मजदूरी तक करनी पड़ी थी। हर पिता की तरह मनोहर लाल के पिता हरबंस लाल ने भी बेटे को अच्छी शिक्षा प्रदान की। वो तो चाहते थे कि पढ़ाई के साथ साथ खेती में भी उनका सहयोग कर इसे आगे बढ़ाए। पर उनकी इच्छा चिकित्सा क्षेत्र में जाने की थी। वे एक मेधावी छात्र थे। रोहतक के नेकीराम कॉलेज से पढ़ाई सम्पन्न कर मेडिकल एंट्रेंस एग्जाम की तैयारी के लिए एक रिश्तेदार के पास दिल्ली चले गए। उनके उन रिश्तेदार की दिल्ली के सदर बाजार में कपड़े की दुकान थी।

    एक इंटरव्यू में उन्होंने खुद बताया था कि – ‘रोहतक मेडिकल कॉलेज में एक नंबर से वे चूक गये थे। दाखिला नहीं होने पर उन्होंने एम्स और आर्म्ड फोर्स मेडिकल कॉलेज में दाखिले के लिए काफी तैयारी की, लेकिन बात नहीं बन पाई। डोनेशन पर प्राइवेट कॉलेज में एडमिशन पर परिवार सहमत नहीं था। पिता जी का कहना था कि इतने रुपयों में तो तुम अपना काम शुरू कर सकते हो। इसके बाद पिताजी से 15 हजार रुपए लेकर दिल्ली के सदर बाजार में कपड़े की दुकान की शुरुआत की। दिल्ली में रहते-रहते उनका आरएसएस से जुड़ाव हो गया। ऐसा नहीं है कि संघ से जुड़ाव उनका बड़ी आसानी से ही गया। एक कर्मठ स्वयंसेवक के रूप में अपने आपको साबित करने के लिए उन्होंने संघ की रीति नीति का कड़ाई से पालन किया। दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाई दौरान उनका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ 1977 में संपर्क हुआ। 1979 में विश्व हिंदू परिषद की सभा में उनकी मुलाकात संघ के वरिष्ठ पदाधिकारियों और परिषद के संतों से हुई। धीरे-धीरे संघ के प्रति उनका लगाव बढ़ता गया। संघ के साथ साथ अपने व्यापार में भी लगातार संघ में सक्रिय रहे। जब संघ के लिए पूरा समय देने का मन बना तो छोटे भाई को व्यापार सौंप निकल लिए। विभिन्न दायित्वों का निर्वहन करते हुए पूर्णकालिक प्रचारक बने। शुरुआत में उनके परिजनों को लगता था कि दो तीन साल में वापस लौट आयेंगे। तीन साल पूरा होने के बाद पिता जी ने अक्सर कहना शुरू कर दिया कि अब घर लौट आओ, लेकिन वह हर बार मना कर देता। मनोहर लाल भाई-बहनों में बड़े थे तो शादी का दबाव भी उन पर बढ़ रहा था। पिता जी को मनाकर छोटे भाई की शादी करा दी। तब मनोहर लाल को लगा कि अब पिता जी समझ जाएंगे कि वो लौटना नहीं चाहता, लेकिन वे लगातार लौटने के लिए कहते रहे। मनोहर लाल जी ने एक बार बताया कि एक दिन उन्होंने कठोर मन से पिता जी से कह दिया कि आपके पांच बेटे हैं। आप नहीं सोच सकते कि आपके पांच नहीं चार ही बेटे हैं।

   उनके जीवन का एक और बड़ा वाक्या है जो उनकी बेबाकी को दिखाता है।1994 में जगाधरी में संघ शिक्षा वर्ग चल रहा था। अंतिम दिन उस समय के सरसंघचालक रज्जू भैया का सम्बोधन था। इसी दौरान तत्कालीन प्रांत प्रचारक जी मनोहर लाल के पास से गुजरे। उन्होंने मनोहर लाल से कहा, हम सोच रहे हैं कि आपको भाजपा में संगठन मंत्री के रूप में भेजा जाए। उन्होंने साधारण रूप में कहा तो तो मनोहर लाल भी बोल पड़े कि सीटी आपको दे दूं या प्रार्थना करा लूं। उन्होंने कहा कि इतनी भी क्या जल्दी है। तब मनोहर लाल ने कहा कि जल्दी नहीं है, पर आपको भी ये बात बताने के लिए अभी ही समय मिला था क्या।’

जब मनोहर लाल को भाजपा का संगठन महामंत्री बनाया गया। पार्टी पर डेढ़ लाख रुपए का कर्जा था। उन्होंने पार्टी अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी का थैली भेंट कार्यक्रम करवाया। कार्यक्रम से प्रदेश भाजपा को करीब साढे तीन लाख रुपए मिले और लोन चुकता हो गया। 1999 में हरियाणा में ‌भाजपा और हरियाणा विकास पार्टी के गठबंधन की सरकार थी। बंसीलाल मुख्यमंत्री थे। मुलाकात न करने पर उन्हें बात बात चुभ गई। उन्होंने कसम खाई कि जब तक सरकार नहीं गिरेगी, तब तक दाढ़ी नहीं कटाएंगे। सरकार गिरने के बाद ही उन्होंने दाढ़ी कटवाई। हरियाणा 2014 में लोकसभा चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष के रूप में काम करते हुए हरियाणा में भाजपा को 10 में से सात लोकसभा सीटों पर जीत दिलवाने का काम किया। इस जीत के बाद वह हरियाणा में सक्रिय हुए और इसी साल अक्टूबर में विधानसभा चुनाव में उन्होंने भाजपा को सत्ता में लाने का काम किया। पहली बार विधायक बने मनोहर लाल लगातार 10 साल मुख्यमंत्री रहे।

नरेंद्र मोदी से भी उनका संपर्क काफी पुराना है। 1996 में नरेंद्र मोदी हरियाणा के प्रभारी बनाए गए। इसी दौरान उनकी मुलाकात खट्‌टर से हुई। खुद मोदी ने एक सभा में बताया था कि वे जब हरियाणा के प्रभारी थे तो मनोहर लाल की बाइक पर पीछे बैठकर घूमते थे। विभिन्न राज्यों के प्रभारी के रूप में भी दायित्व का निर्वहन किया। दस वर्ष तक मुख्यमंत्री रहकर 12 मार्च 2024 को उन्होंने इस्तीफा दे दिया। अगले ही दिन 13 मार्च को मनोहर लाल को करनाल से उम्मीदवार घोषित किया गया। चुनाव जीतने के बाद मोदी सरकार 3.0 में उन्हें ऊर्जा, आवास और शहरी मामलों का मंत्री बनाया गया। वे अपने पैतृक आवास को दान कर चुके हैं। पारदर्शी और डिजिटल प्रशासन (ई-गवर्नेंस), कृषि और किसान कल्याण,शिक्षा और कौशल विकास, स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा,मुख्यमंत्री अंत्योदय परिवार उत्थान योजना, बिना पर्ची- बिना खर्ची नौकरी के लिए उनके कार्य चर्चा में रहे हैं। स्वस्थ रहें। राष्ट्रकार्य करते रहे। यहीं शुभकामनाएं हैं।

त्वं जीव शतं वर्धमानः। जीवनं तव भवतु सार्थकम्।।

सुशील कुमार ‘नवीन‘, हिसार

पानी को हथियार बनाने की भारत की अभूतपूर्व रणनीति

संदीप सृजन

पहलगाम में 22 अप्रैल 2025 में हुए आतंकी हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव चरम पर पहुंच गया। इस हमले के जवाब में भारत सरकार ने सैन्य कार्रवाई के बजाय एक अनूठी और रणनीतिक नीति अपनाई, पाकिस्तान को पानी की आपूर्ति पर नियंत्रण। भारत ने 1960 की सिंधु जल संधि को निलंबित करने का ऐलान किया जिसे कई विशेषज्ञ एक ‘जल युद्ध’ की शुरुआत के रूप में देख रहे हैं।

सिंधु जल संधि, जिसे 1960 में भारत और पाकिस्तान के बीच विश्व बैंक की मध्यस्थता में हस्ताक्षरित किया गया था, दोनों देशों के बीच जल बंटवारे का एक महत्वपूर्ण समझौता है। इस संधि के तहत, छह नदियों-सिंधु, झेलम, चिनाब, रावी, ब्यास, और सतलज-के जल को बांटा गया। पूर्वी नदियां (रावी, ब्यास, सतलज) भारत के नियंत्रण में दी गईं जबकि पश्चिमी नदियां (सिंधु, झेलम, चिनाब) मुख्य रूप से पाकिस्तान के लिए निर्धारित की गईं। यह संधि दो युद्धों (1947 और 1965) के बावजूद दोनों देशों के बीच सहयोग का प्रतीक रही।

पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था और कृषि के लिए सिंधु नदी प्रणाली अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह देश की 90% से अधिक कृषि भूमि को सिंचित करती है और इसके बिना पाकिस्तान में खाद्य सुरक्षा और आर्थिक स्थिरता खतरे में पड़ सकती है। दूसरी ओर, भारत, जो इन नदियों का ऊपरी हिस्सा नियंत्रित करता है, हमेशा से इस संधि का पालन करता रहा है, भले ही दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ता रहा।

पहलगाम में हुए आतंकी हमले में 26 निर्दोष नागरिकों की जान गई, हमला पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी संगठनों द्वारा किया गया। इस घटना के बाद भारत सरकार ने त्वरित और सख्त कदम उठाए। जहां पहले भारत ने उरी (2016) और पुलवामा (2019) हमलों के बाद सर्जिकल स्ट्राइक और एयर स्ट्राइक जैसे सैन्य कदम उठाए थे, इस बार उसने एक गैर-सैन्य, लेकिन रणनीतिक रूप से प्रभावी रास्ता चुना- पानी की आपूर्ति पर नियंत्रण।

भारत ने सिंधु जल संधि को निलंबित करने की घोषणा की और कहा कि वह पश्चिमी नदियों (सिंधु, झेलम, चिनाब) के पानी का अधिकतम उपयोग करेगा। जल शक्ति मंत्री सी.आर. पाटिल ने स्पष्ट किया कि सरकार का लक्ष्य यह सुनिश्चित करना है कि पाकिस्तान को एक बूंद पानी न मिले। इसके अलावा, भारत ने अटारी बॉर्डर को बंद कर दिया, पाकिस्तानी राजनयिकों को निष्कासित किया और भारतीय हवाई क्षेत्र में पाकिस्तानी उड़ानों पर प्रतिबंध लगा दिया। ये कदम स्पष्ट रूप से यह संदेश देते हैं कि भारत अब आतंकवाद के खिलाफ कठोर और दीर्घकालिक नीतियां अपनाएगा।

पानी को हथियार बनाने की भारत की रणनीति का यह कदम कई मायनों में अभूतपूर्व है। परमाणु शक्ति संपन्न दोनों देशों के बीच सैन्य टकराव से परमाणु युद्ध का खतरा बना रहता है। भारत ने इस जोखिम से बचने के लिए एक ऐसी रणनीति अपनाई, जो न केवल प्रभावी है बल्कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए भी स्वीकार्य हो सकती है। पानी को हथियार बनाना एक ऐसी रणनीति है जो पाकिस्तान की आर्थिक और सामाजिक संरचना पर गहरा प्रभाव डाल सकती है।

पाकिस्तान पहले से ही जल संकट से जूझ रहा है। विश्व बैंक और अन्य अंतरराष्ट्रीय संगठनों के अनुसार, पाकिस्तान दुनिया के सबसे अधिक जल-संकटग्रस्त देशों में से एक है। जनसंख्या वृद्धि, खराब जल प्रबंधन, और जलवायु परिवर्तन ने इस समस्या को और गंभीर बना दिया है। यदि भारत पश्चिमी नदियों के पानी को रोकता है या उसका मार्ग बदलता है तो पाकिस्तान में कृषि, पेयजल आपूर्ति, और जलविद्युत उत्पादन पर गंभीर संकट आ सकता है।

भारत की यह रणनीति कई स्तरों पर काम करती है। पानी की कमी से पाकिस्तान की कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान होगा। यह देश की खाद्य सुरक्षा को खतरे में डालेगा और सामाजिक अशांति को बढ़ावा दे सकता है। भारत ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वह आतंकवाद को बर्दाश्त नहीं करेगा। पानी जैसे संसाधन का उपयोग करके भारत ने पाकिस्तान को बिना सैन्य टकराव के कठोर संदेश दिया है। यह कदम भारत के पड़ोसी देशों, विशेष रूप से चीन को भी यह संदेश देता है कि भारत अपने संसाधनों का उपयोग रणनीतिक रूप से करने में सक्षम है।

सिंधु, झेलम, और चिनाब नदियां भारत के नियंत्रण में हैं, और इनका पानी पाकिस्तान में बहता है। हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि पानी को पूरी तरह रोकना तकनीकी रूप से चुनौतीपूर्ण है। भारत के पास वर्तमान में पर्याप्त बांध और जलाशय नहीं हैं जो पश्चिमी नदियों के विशाल जल प्रवाह को रोक सकें। आजतक की ओपन-सोर्स इंटेलिजेंस टीम के अनुसार, पाकिस्तान में बहने वाले पानी को रोकने के लिए भारत को भाखड़ा नांगल जैसे 22 बड़े बांधों की आवश्यकता होगी। हालांकि भारत मौजूदा बुनियादी ढांचे का उपयोग करके पानी के प्रवाह को सीमित कर सकता है। गर्मी के मौसम में, जब पाकिस्तान में पानी की मांग सबसे अधिक होती है, भारत पानी की मात्रा को कम कर सकता है। इसके अलावा, भारत नई परियोजनाओं पर काम शुरू कर सकता है, जैसे कि जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में जलाशयों का निर्माण, जो लंबी अवधि में पानी के उपयोग को बढ़ाएगा।

भारत का यह कदम अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए भी एक महत्वपूर्ण संदेश है। विश्व बैंक, जो इस संधि का मध्यस्थ है, और संयुक्त राष्ट्र जैसे संगठन इस स्थिति पर नजर रख रहे हैं। पाकिस्तान ने भारत के कदम को अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन बताया है और विश्व बैंक से हस्तक्षेप की मांग की है। हालांकि, भारत का तर्क है कि पहलगाम हमले जैसे आतंकी कृत्यों के बाद वह संधि का पालन करने के लिए बाध्य नहीं है। अमेरिका, ब्रिटेन, और अन्य पश्चिमी देशों ने पहलगाम हमले की निंदा की है और भारत को आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई का समर्थन दिया है। तुलसी गबार्ड जैसे अमेरिकी नेताओं ने भारत को आतंकियों को न्याय के कटघरे में लाने में मदद का आश्वासन दिया है। इससे भारत की स्थिति कूटनीतिक रूप से मजबूत होती है।

भारत का यह कदम दोनों देशों के बीच तनाव को और बढ़ा सकता है क्योंकि पानी की कमी से पाकिस्तान की पहले से ही कमजोर अर्थव्यवस्था और खराब हो सकती है। इससे सामाजिक अशांति और राजनीतिक अस्थिरता बढ़ सकती है। हालांकि दोनों देश परमाणु युद्ध से बचना चाहते हैं, सीमा पर छोटे-मोटे संघर्ष बढ़ सकते हैं। अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण दोनों देश बातचीत की मेज पर आ सकते हैं, लेकिन इसके लिए पाकिस्तान को आतंकवाद के खिलाफ ठोस कदम उठाने होंगे।

भारत सरकार का सिंधु जल संधि को निलंबित करने का फैसला एक साहसिक और रणनीतिक कदम है, जो बम-गोलों के बजाय पानी को हथियार बनाता है। यह कदम न केवल पाकिस्तान को आर्थिक और सामाजिक दबाव में डाल सकता है, बल्कि वैश्विक मंच पर भारत की स्थिति को भी मजबूत करता है। हालांकि, इस रणनीति के साथ कई चुनौतियां भी जुड़ी हैं, जैसे कि तकनीकी सीमाएं और अंतरराष्ट्रीय दबाव। भविष्य में, यह देखना दिलचस्प होगा कि भारत इस रणनीति को कैसे लागू करता है और पाकिस्तान इसका जवाब कैसे देता है। एक बात स्पष्ट है-भारत ने यह साबित कर दिया है कि वह आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में नए और प्रभावी तरीके अपनाने से नहीं हिचकिचाएगा।

संदीप सृजन

क्या किसी की भूख की तस्वीर लेना जरूरी है?

 “सोशल मीडिया युग में करुणा की कैद”

सोशल मीडिया के युग में भलाई और करुणा अब मौन संवेदनाएँ नहीं रहीं, वे कैमरे के फ्रेम में क़ैद होती जा रही हैं। आज अधिकांश मदद ‘लाइक्स’ और ‘फॉलोवर्स’ के लिए की जाती है, न कि सच्ची इंसानियत से। सहायता अब एक ‘कंटेंट’ बन चुकी है और ज़रूरतमंद की गरिमा अक्सर इस प्रदर्शन की भेंट चढ़ जाती है। यह लेख हमें आत्मपरीक्षण की ओर ले जाता है—क्या हम वाकई मदद कर रहे हैं या बस सोशल मीडिया पर नेकी की तस्वीर गढ़ रहे हैं?

– प्रियंका सौरभ

आज का युग ‘डिजिटल करुणा’ का युग बन चुका है, जहाँ इंसानियत, परोपकार, और सहानुभूति जैसे मूल्य अब मौन संवेदनाओं की बजाय कैमरे की फ्लैश में दर्ज होते हैं। पहले जहाँ “नेकी कर दरिया में डाल” की परंपरा जीवित थी, अब वह बदलकर “नेकी कर, सोशल मीडिया पर डाल” हो चुकी है। इस लेख के माध्यम से हम इसी प्रवृत्ति की साहित्यिक और सामाजिक समीक्षा करेंगे।

भलाई की भावना मनुष्य की सबसे पवित्र प्रवृत्तियों में से एक है। यह वह स्वाभाविक मानवीय गुण है जो हमें संवेदना, दया, और परस्पर सहयोग की ओर प्रेरित करता है। किन्तु आज के समय में यह गुण मंच पर आ चुका है—एक ऐसा मंच जहाँ तालियाँ हैं, टिप्पणियाँ हैं, और सबसे ज़रूरी, एक कैमरा है जो हर क्षण को “दृश्य” बनाता है।

एक समय था जब कोई वृद्ध भूखा दिखता, तो राह चलते लोग बिना कुछ कहे, बिना देखे, उसे कुछ खाने को दे जाते थे। आज वही द्रश्य होता है, लेकिन कैमरा पहले निकाला जाता है। भूखे की थाली से ज़्यादा अहमियत उस एंगल की होती है, जिसमें वह थाली दिखाई दे। सेवा अब सीधी नहीं रही, वह एक स्क्रिप्टेड ऐक्ट में बदल गई है।

आधुनिक मानव की आत्मा अब लाइक्स, शेयर, कमेंट्स की भूखी हो चली है। किसी की मदद करने के बाद हमें तसल्ली तब मिलती है, जब कोई कहे, “वाह, आप तो बड़े नेकदिल हैं।” पहले मदद करने के बाद मन को जो संतोष मिलता था, अब वह ‘फॉलोवर्स बढ़ने’ के संतोष से बदला जा चुका है।

यह न केवल इंसानियत की आत्मा को खरोंचता है, बल्कि मदद पाने वाले की गरिमा को भी आहत करता है। वह व्यक्ति जिसे मदद मिली है, उसकी ज़रूरतें तो पूरी होती हैं, लेकिन उसकी निजता, उसकी आत्मसम्मान की परतें एक-एक कर सोशल मीडिया के सामने उतार दी जाती हैं।

सोचिए, अगर कोई कैमरा न हो, कोई दर्शक न हो, कोई ताली बजाने वाला न हो—क्या तब भी आप वही मदद करेंगे? यह प्रश्न हमारे भीतर झाँकने की ज़रूरत को इंगित करता है। करुणा यदि सच्ची है, तो वह गुमनाम रहेगी। यदि उसमें प्रदर्शन है, तो वह करुणा नहीं—डिजिटल ब्रांडिंग है।

आज कई बार लगता है कि सहायता करना एक स्क्रिप्टेड इवेंट बन चुका है। वीडियो में सबसे पहले मदद मिलने वाले व्यक्ति की दयनीय स्थिति को दिखाया जाता है, फिर सहायता प्रदान की जाती है, और अंत में किसी नायक की तरह मददकर्ता का चेहरा। यह सब इतनी सफाई से किया जाता है कि वीडियो फिल्म जैसी लगती है—संगीत के साथ, टाइटल के साथ, और अंत में एक गूढ़-सा संदेश।

इस सारी प्रवृत्ति में सबसे अधिक पीड़ित होती है नैतिकता। किसी की ज़रूरत को दिखावा बना देना उस व्यक्ति के अस्तित्व पर हमला है। एक भूखे की भूख अगर कैमरे में रिकॉर्ड न हो तो क्या उसका दुख कम है? क्या दया केवल तभी योग्य है जब वह पब्लिक डोमेन में हो?

यह नई नैतिकता सिर्फ दूसरों के सामने दिखने के लिए जीती है। अब ‘कृपा’ भी एक मुद्रा बन गई है—जिसे दिखाना पड़ता है, गिनाना पड़ता है। स्वार्थरहित सेवा का स्थान स्वार्थयुक्त प्रदर्शन ने ले लिया है।

यह सब सुनकर अब साहित्यकार की लेखनी व्यंग्य से भर जाती है। कल्पना कीजिए एक दृश्य—एक व्यक्ति सड़क किनारे बेहोश पड़ा है। एक ‘सोशल वॉरियर’ आता है, और उसके साथ उसका कैमरामैन। सबसे पहले कुछ तस्वीरें, फिर एक वीडियो: “हमने इनको उठाया, पानी पिलाया, एंबुलेंस बुलाई” और फिर कैप्शन: “हम सब मिलकर बदलाव ला सकते हैं”।

कमेंट्स आते हैं—”वाह भाई साहब, आप तो फरिश्ता हैं।” किसी को यह नहीं सूझता कि क्या वह व्यक्ति कैमरे में आना चाहता था? क्या उसे अपने जीवन की सबसे कमजोर अवस्था में पब्लिकली दिखाया जाना चाहिए था?

आज नेकी भी एक पूंजी बन गई है। इसका बाजार भाव बन गया है। जो जितनी ज्यादा भलाई करता है (या कहें, दिखाता है), उसका सामाजिक रेटिंग उतना ही ऊँचा हो जाता है। कई बार यह भलाई राजनीतिक होती है, कभी कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (CSR) के तहत होती है, और कभी व्यक्तिगत ब्रांड निर्माण के लिए।

ऐसे में वास्तविक करुणा कहाँ छिप जाती है? क्या वह अब केवल कविता में जीवित रह गई है? क्या वह अब सिर्फ कबीर और तुलसी के दोहों में ही साँस लेती है?

सोचने का समय आ गया है। मदद करने वाला बड़ा है या मदद पाने वाला? यदि कोई भूखा है, तो क्या उसकी भूख की तस्वीर लेना जरूरी है? क्या उसकी सहमति जरूरी नहीं? यदि हम उसे मदद देते समय उसकी पीड़ा को ‘कंटेंट’ बना दें, तो क्या हम वास्तव में सहायता कर रहे हैं या उसका उपभोग कर रहे हैं?

आज जब भलाई की तस्वीरें सोशल मीडिया पर तैरती हैं, तो कहीं-न-कहीं वे समाज को एक नई दिशा दे रही हैं—एक ऐसी दिशा जहाँ सेवा भी दिखावे का अंग बन चुकी है। यह आवश्यक है कि हम पुनः आत्मपरीक्षण करें।

भलाई मौन होती है, और उसका असर चुपचाप दिलों में उतरता है। यदि हमें सच में इस समाज को बेहतर बनाना है, तो जरूरत है कि हम बिना कैमरे, बिना मंच, और बिना स्वार्थ के किसी की मदद करें। नेकी कोई तस्वीर नहीं, वह तो संवेदना की वह रेखा है जो दिल से दिल तक जाती है—बिना कोई सबूत माँगे।

लेखक: प्रियंका सौरभ

जब व्यक्तिगत संबंध बन जाएं राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रश्न


अशोक कुमार झा

पहलगाम में हुए अमानवीय आतंकी हमले ने देश को हिला दिया। 26 निर्दोष लोगों की हत्या केवल आंकड़ा नहीं, बल्कि आतंकवाद के उस चेहरों की याद है जो बार-बार हमारी धरती पर खून बहाते हैं। इस हमले के तुरंत बाद, भारत सरकार ने पाकिस्तानी नागरिकों को देश छोड़ने का निर्देश जारी किया—और इसी बीच एक ऐसा खुलासा हुआ जिसने सुरक्षा व्यवस्था की नींव तक को झकझोर दिया।
केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल (CRPF) ने अपने 41वीं बटालियन में तैनात जवान मुनीर अहमद को सेवा से बर्खास्त कर दिया। कारण—उन्होंने एक पाकिस्तानी नागरिक मेनल खान से विवाह किया और उसकी जानकारी छुपाई। विवाह वीडियो कॉल के माध्यम से हुआ और महिला ने वीज़ा अवधि समाप्त होने के बाद भी भारत में रहना जारी रखा। अहमद ने इसकी सूचना विभागीय अधिकारियों को नहीं दी। पहली नजर में यह मामला एक निजी निर्णय लगता है, लेकिन जब गहराई से देखा जाए तो यह सीधे राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ता है।


राष्ट्रीय सुरक्षा के विरुद्ध गुप्त संबंध
यह कोई मामूली चूक नहीं थी। जब कोई जवान सुरक्षा बल का हिस्सा बनता है, तो उसकी जिम्मेदारी सिर्फ बंदूक उठाने तक सीमित नहीं रहती। वह देश के संविधान, सीमाओं और जन-जीवन की सुरक्षा की शपथ लेता है। इस शपथ में पारदर्शिता, ईमानदारी और राष्ट्रहित सर्वोपरि होते हैं।
ऐसे में पाकिस्तानी नागरिक से विवाह को छिपाना सिर्फ सेवा शर्तों का उल्लंघन नहीं, बल्कि सुरक्षा व्यवस्था में संभावित सेंध की भूमिका निभा सकता है। अहमद का यह कृत्य कई सवाल खड़े करता है—क्या वह पाकिस्तानी एजेंसियों के संपर्क में आ सकते थे? क्या उन्होंने जानबूझकर सूचनाएं छिपाईं या वे किसी “हनी ट्रैप” का शिकार हुए?


सीमा पार विवाह और खुफिया खतरे
भारत की खुफिया एजेंसियाँ लंबे समय से चेतावनी देती रही हैं कि पाकिस्तान अपने खुफिया नेटवर्क को मजबूत करने के लिए डिजिटल माध्यमों, सोशल मीडिया और रोमांटिक संपर्कों का प्रयोग कर रहा है। विशेष रूप से सेना और अर्द्धसैनिक बलों के जवान इन जालों के प्रमुख लक्ष्य होते हैं।
हनी ट्रैप केवल फिल्मों की कहानी नहीं रह गया बल्कि जमीनी हकीकत बन चुका है। इस्लामाबाद और रावलपिंडी की खुफिया मशीनरी “डिजिटल विवाह”, “सांस्कृतिक मेलजोल”, और “सोशल मीडिया मित्रता” के रास्ते सुरक्षा तंत्र में घुसपैठ के तरीके तलाश रही है।
कानून, अनुशासन और नीति की कसौटी पर बर्खास्तगी
CRPF ने यह कार्रवाई उस प्रावधान के तहत की है जिसमें यह माना जाता है कि जांच से राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा हो सकता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 311(2)(b) के अंतर्गत, बिना जांच के भी सरकारी कर्मचारी को बर्खास्त किया जा सकता है, यदि यह आवश्यक समझा जाए।
यह निर्णय एक मिसाल बनकर उभरा है। यह साफ कर दिया गया है कि किसी भी कीमत पर राष्ट्रीय सुरक्षा से समझौता नहीं होगा, चाहे वह व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर ही क्यों न हो।


सवाल जवान पर नहीं, पूरी व्यवस्था पर
इस पूरे मामले में केवल मुनीर अहमद को दोषी ठहराना समस्या का स्थायी समाधान नहीं होगा। हमें यह पूछना होगा—क्या हमारी सुरक्षा एजेंसियों के पास जवानों की डिजिटल गतिविधियों की निगरानी के पर्याप्त संसाधन हैं? क्या उन्हें विवाह, विदेशी संपर्क और सोशल मीडिया व्यवहार के संबंध में समय-समय पर प्रशिक्षित किया जाता है?
क्या प्रत्येक अर्द्धसैनिक बल के भीतर एक “साइबर इंटेलिजेंस निगरानी सेल” अनिवार्य नहीं होनी चाहिए?
यदि इस तरह के मामलों की समय रहते पहचान न हो तो परिणाम अत्यंत घातक हो सकते हैं।


राजनीति नहीं, राष्ट्रनीति ज़रूरी
महत्वपूर्ण यह है कि इस विषय पर कोई भी धार्मिक, जातीय या सांप्रदायिक चश्मा न लगाया जाए। यह मामला मुसलमान या हिन्दू का नहीं, बल्कि एक जवान के कर्तव्य और उसकी विफलता का है। यह चर्चा भारतीय और पाकिस्तानी नागरिकता, व राष्ट्रहित के लिहाज़ से होनी चाहिए, न कि मज़हबी पूर्वग्रहों से।
इसमें कहीं कोई शंका नहीं कि अधिकांश सुरक्षाकर्मी ईमानदारी और देशभक्ति की मिसाल हैं लेकिन यदि एक भी कड़ी कमजोर होती है, तो पूरी श्रृंखला खतरे में पड़ सकती है।


अब समय आ गया है व्यापक सुधार करने का
इस घटना से सबक लेते हुए अब आवश्यकता है कि:

1.  सभी सुरक्षाबलों में विदेश संपर्कों की घोषणा अनिवार्य की जाए।

2.  डिजिटल संवादों और विवाहों के लिए विभागीय स्वीकृति प्रक्रिया बने।

3.  प्रत्येक बल में साइबर निगरानी सेल और मनोवैज्ञानिक परामर्श व्यवस्था हो।

4.  प्रत्येक जवान को साल में एक बार “राष्ट्रीय सुरक्षा आचरण प्रशिक्षण” दिया जाए।

इस एक जवान की चूक से राष्ट्रीय सुरक्षा को जो खतरा हुआ, वह आगे और गहरा हो सकता है, यदि हमने समय रहते सचेत कदम न उठाए।
राष्ट्र सबसे पहले है, और उसकी सुरक्षा के लिए हर बलिदान स्वीकार्य होना चाहिए.

अशोक कुमार झा

भारत की वाटर स्ट्राइक का पाकिस्तान पर असर!

सुनील कुमार महला


जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में आतंकी हमले के बाद भारत ने सिंधु जल संधि को स्‍थगित करने के बाद अब चिनाब नदी पर बने बग‍लिहार बांध के माध्‍यम से पानी के प्रवाह को रोक दिया है। वास्तव में कूटनीतिक तौर पर पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए भारत की ओर से उठाया गया यह सबसे बड़ा कदम माना जा रहा है। अब पाकिस्तान को निश्चित ही इससे सबक मिल सकेगा। कहना ग़लत नहीं होगा कि भारत की ओर की गई यह ‘वाटर स्ट्राइक’ पाकिस्तान को बुरी तरह से तोड़ कर रख देगी। इतना ही नहीं, सूत्रों के हवाले से यह भी सामने आ रहा है कि भारत झेलम नदी पर बने किशनगंगा बांध को लेकर भी इसी तरह के कदम उठाने की योजना बना रहा है।

हाल फिलहाल चिनाब प्रवाह को रोकने से एक ओर जहां पर पाकिस्‍तान का कृषि उत्‍पादन और बिजली बनाने की क्षमता प्रभावित होगी, वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान में इससे पीने के पानी की समस्या पैदा होगी तथा अनेक लोगों की आजीविका भी संकट में आ जाएगी। दरअसल,पाकिस्तान की लगभग 80% से अधिक कृषि भूमि सिंधु, झेलम और चिनाब नदियों पर ही निर्भर है। सिंधु नदी प्रणाली से उसे कुल मिलाकर 93% पानी मिलता है, जिसका वह उपयोग खेती, पीने के पानी और बिजली उत्पादन के लिए करता है। ऐसे में भारत द्वारा पानी रोकने का फैसला पाकिस्तान के लिए बहुत बड़ा झटका है। दूसरे शब्दों में कहें तो पाकिस्तान की जल-आधारित अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार सिंधु नदी ही है क्योंकि इसी की मदद से पाकिस्तान 93% पश्चिमी नदियों के पानी का इस्तेमाल करता है और 80% कृषि भूमि इसी जल पर निर्भर है। वास्तव में पाकिस्तान के हजारों-लाखों लोगों की रोजी-रोटी(आजीविका), शहरों का जल आपूर्ति नेटवर्क और हाइड्रो पावर उत्पादन इसी प्रणाली पर टिका हुआ है।

सिंधु जल समझौते पर, साल 1960 में भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान ने हस्ताक्षर किये थे। दरअसल, यह विश्व बैंक की मध्यस्थता में हुआ एक ऐतिहासिक करार था और इसका उद्देश्य भारत और पाकिस्तान के बीच जल संसाधनों को लेकर भविष्य में टकराव से बचना था। गौरतलब है कि इस संधि के अंतर्गत रावी, सतलुज, ब्यास का अधिकार भारत को मिला तथा सिंधु, चिनाब, झेलम का नियंत्रण पाकिस्तान को सौंपा गया था हालांकि, इसके तहत भारत को सीमित सिंचाई, विद्युत उत्पादन और घरेलू उपयोग की छूट मिली।

बहरहाल, उल्लेखनीय है कि भारत ने इससे पहले साल 1965, 1971(भारत पाकिस्तान युद्ध) और 1999(कारगिल युद्ध) की लड़ाइयों के बावजूद कभी सिंधु जल संधि को सस्पेंड नहीं किया था, यहां तक कि पुलवामा हमले के बाद भी इस संधि को भारत द्वारा जारी रखा गया था, लेकिन इस बार केंद्र सरकार ने पाकिस्तान के समक्ष यह स्पष्ट कर दिया है कि भारत सरकार की आतंकवाद के प्रति नीति ‘शून्य सहनशीलता'(जीरो टोलरेंस) की है और अब आतंकी हमलों पर नरमी नहीं बरती जाएगी तथा रणनीतिक संसाधनों का इस्तेमाल भी हथियार के रूप में किया जा सकता है। यहां पाठकों को यह भी बताता चलूं कि बगलिहार बांध दोनों पड़ोसियों के बीच लंबे समय से विवाद का विषय रहा है, और पाकिस्तान इस मामले में विश्व बैंक की मध्यस्थता की मांग भी कर चुका है।पाकिस्तान को किशनगंगा बांध को लेकर भी खासकर झेलम की सहायक नदी नीलम पर इसके प्रभाव के कारण आपत्ति है। कहना ग़लत नहीं होगा कि भारत द्वारा सिंधु जल संधि के निलंबन के बाद चिनाब नदी का पानी रोकना हो, आयात पर रोक हो, मेल व पार्सल सेवाओं का निलंबन हो या पाकिस्तानी जहाजों पर प्रतिबंध, ये सब दर्शाते हैं कि अब भारत पाकिस्तान को एक सुविचारित व प्रबल/सख्त नीति के तहत हर तरह से कमजोर कर रहा है और सीधे युद्ध की बजाय यह पाकिस्तान पर एक कड़ा प्रहार है। भारत के इस कदम के बाद पाकिस्तान में हड़कंप मच गया है और पाकिस्तानी नेताओं ने इसे ‘जंग का ऐलान’ बताया है। यहां तक कि पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो जरदारी ने तो यहां तक कहा है कि , ‘या तो सिंधु नदी में हमारा पानी बहेगा या उनका खून।’ इतना ही नहीं, भारत द्वारा बगलिहार डैम से पानी रोकने के बाद पाकिस्तान के उप-प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री इशाक डार ने भी संसद में यह बात कही है कि-‘यदि भारत सिंधु जल संधि के तहत पाकिस्तान के पानी के साथ कोई छेड़छाड़ करता है, तो यह युद्ध के समान होगा।’ उन्होंने यह भी कहा कि-‘ यह 24 करोड़ पाकिस्तानी नागरिकों की जिंदगी का मामला है और पाकिस्तान इस पर माकूल जवाब देगा।’इतना ही नहीं , इस संबंध में डार ने  सऊदी अरब, यूएई, चीन, तुर्की समेत कई देशों के विदेश मंत्रियों से बात कर पाकिस्तान का पक्ष भी रखा है।

भारत ने बिलावल भुट्टो के बयान पर कड़ी प्रतिक्रिया दी है और यह बात कही है कि आतंकवाद का समर्थन करने वालों को अब खामियाजा भुगतना होगा। बहरहाल, पाठकों को बताता चलूं कि पहलगाम आतंकी हमले को लेकर एनआईए की शुरुआती जांच में पाकिस्तान के हाथ होने के प्रमाण मिले हैं और भारत ने अब पाकिस्तान से सीधे युद्ध की बजाय सिंधु, चिनाब का जल रोकने समेत अनेक सख्त फैसले लिए हैं,जो पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था की रीढ़ को तोड़ने के लिए काफी हैं। भारत की ओर से ये कार्रवाइयां राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति भारत की दृढ़ता को तो दिखाती ही हैं, इनके जरिये पाकिस्तान को यह भी स्पष्ट संदेश दिया गया है कि उसे आतंकवाद को पनाह देने की कीमत चुकानी पड़ेगी। पहलगाम हमले के बाद पाकिस्तान लगातार नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर सीजफायर का लगातार उल्लंघन कर रहा है और इससे उसकी बौखलाहट साफ़ नज़र आ रही है कि वह कदर घबराया हुआ है। उल्लेखनीय है कि पाकिस्तानी सेना ने 24 अप्रैल से शुरू हुए इन सीजफायर उल्लंघनों को कुपवाड़ा और बारामूला से लेकर पुंछ, नौशेरा और अखनूर तक अंज़ाम दिया है और भारतीय सेना ने हर बार मुंहतोड़ जवाब देते हुए यह संदेश भी दिया है कि भारत किसी भी हाल और परिस्थितियों में अपनी संप्रभुता और सुरक्षा से कोई समझौता नहीं करेगा और आतंकियों और आतंकवाद को मुंहतोड़ जवाब देगा। पाकिस्तान एक ओर तो भारत को उकसाने के लिए शाहीन, गजनवी और अब्दाली जैसी मिसाइलों का परीक्षण कर रहा है, वहीं दूसरी तरफ, उसके मंत्री और अधिकारी लगातार भारत पर परमाणु हमले की भी गीदड़भभकियां दे रहे हैं।

कहना ग़लत नहीं होगा कि आज पाकिस्तान का असली चेहरा पूरी दुनिया के सामने आ चुका है और यह साबित हो चुका है कि पाकिस्तान दुनिया का एक ऐसा राष्ट्र है जो आतंकवाद और आतंकियों(जिहादी मानसिकता)को प्रश्रय देता आया है और वह पूर्णतया विदेशी कर्ज पर निर्भर है। अंत में यही कहूंगा कि यह ठीक है कि पहलगाम हमले के बाद से भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ अनेक सख्त और कड़े कदम उठाए हैं,जो पाकिस्तान को आर्थिक और कूटनीतिक, दोनों स्तरों पर क्षति पहुंचाने वाले हैं, लेकिन यह भी सत्य है कि प्रत्यक्ष-परोक्ष तौर पर भारत को भी इसका कुछ न कुछ नुकसान अवश्य पहुंचेगा। पहलगाम हमले के बाद भारत के लोगों का गुस्सा अभी उफान पर है।इस संबंध में हाल ही में दिल्‍ली में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान हमारे देश के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने यह बात कही है कि-‘ दुश्‍मन को उसी की भाषा में जवाब मिलेगा।’ उन्होंने कहा है कि-‘ मेरा दायित्‍व है कि अपनी सेना के साथ मिलकर देश की ओर आंख उठाने वालों को मुंहतोड़ जवाब दूं।’ इस दौरान उन्‍होंने देशवासियों को आश्‍वस्‍त करते हुए यह बात कही है कि -‘प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में आप(भारत के देशवासी)जो चाहते हैं, वह अवश्य होगा।’

सुनील कुमार महला

बलात्कार, ब्लैकमेल और ‘सबाब’

गजेन्द्र सिंह

अभी मई 2025 में भोपाल की घटनाएं, जहाँ मुस्लिम युवकों द्वारा संगठित रूप से हिन्दू लड़कियों को फंसाकर बलात्कार किया गया, वीडियो बनाकर ब्लैकमेल किया, रोजे रखवाए, बुर्का पहना कर फोटो खिंचवाया, इस तरह के घृणित कृत्य समाज को झकझोरने वाले  हैं। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार मो फरमान ने इकबाले बयान में कहा कि मुझे कोई पछतावा नहीं है, मुझे “सबाब” मिला। ये घृणित कृत्य तब और भी कठोर हो जाते है जब युवा अपराधों को धर्म के आयतो से न्ययोचित ठहराते है।  क्या सच में मुस्लिम युवाओं को हिन्दू महिलाओं के साथ बलात्कार करने पर सबाब मिलता है ? क्या किसी  भारतीय मौलवी, धर्मगुरु और इस्लामिक स्कॉलर ने इस युवा की बात का तथ्यात्मक खंडन  किया ?

1992, अजमेर में 11 से 20 साल की उम्र की 250 हिंदू छात्राएं फारूक और नफीस चिश्ती के नेतृत्व में  सामूहिक बलात्कार और ब्लैकमेलिंग की शिकार हुईं । ब्यावर जिले में मुस्लिम युवकों द्वारा हिंदू नाबालिग लड़कियों का शोषण और ब्लैकमेल किया गया, जिसका बिजयनगर पुलिस थाने में मामले दर्ज किया गया। हाल ही में उत्तराखंड में 74 वर्षीय मौलवी द्वारा एक 12  वर्षीय हिन्दू बच्ची के साथ बलात्कार करना,  1992 के अजमेर कांड से लेकर उत्तराखंड में एक मौलवी द्वारा नाबालिग बच्ची से बलात्कार तक, कई ऐसे मामले रहे हैं जहाँ पीड़ित पक्ष ने धार्मिक कट्टरता,  सामूहिक और व्यवस्थागत शोषण की पीड़ा झेली है। यह न केवल पीड़ितों के लिए अमानवीय है बल्कि  समाज की उस चुप्पी को भी उजागर करता है जो इन अपराधों के प्रति केवल “धार्मिक तुष्टिकरण” या “राजनीतिक सुविधा” के कारण खामोश रहती है।

बेशक, अपराध कानून के दायरे में आते हैं और हर दोषी को न्यायिक प्रक्रिया के माध्यम से सज़ा मिलनी चाहिए लेकिन जब अपराध के पीछे धार्मिक पहचान, धार्मिक शिक्षा या धार्मिक ग्रंथों की विकृत व्याख्या एक कारक बन जाती है, तब यह केवल कानून का विषय नहीं रह जाता  बल्कि सामाजिक, धार्मिक और वैचारिक नेतृत्व की जिम्मेदारी बन जाती है कि वे सामने आएं और स्पष्ट प्रतिक्रिया दें।

जिस तरह की महिलाओं और बच्चियों के साथ लगातार हो रहे अपराध पर सोशल मीडिया के माध्यम से इस्लामिक स्कॉलर, मौलवी और अन्य धर्म उपदेशकों द्वारा इसे 72 हूरो और इस्लाम और कुरान की आयतों के नाम पर जायज और इस्लाम परस्त ठहराया जा रहा है। क्या सच में ये  इस्लाम के नाम पर पाखंड नहीं है ? क्या ये  युवाओं के मन में घृणा और भ्रम  पैदा नहीं करता है?

वहीं, कुछ चिंतकों का यह भी मत है कि जिन अपराधों को इस्लाम और कुरान के नाम पर वैध ठहराया जाता है, उनके मूल में इस्लामिक  शिक्षा की कुछ व्याख्याएं, मदरसों में दी जा रही कट्टर शिक्षा, सोशल मीडिया पर प्रसारित इस्लामिक स्कॉलर्स के भाषण, 72 हूरों की अवधारणा और बहुविवाह जैसी परंपराएं हैं जो लगातार नई पीढ़ी को भ्रमित  और उग्र बना रही हैं।

जहाँ सोशल मीडिया पर इस्लामिक स्कॉलर्स या कुछ मौलवियों द्वारा अपराधों का समर्थन, कुछ प्रगतिशील विचारधारा के लोगो द्वारा तुष्टिकरण किया जाता है, वहीं समाज के प्रभावशाली वर्ग की चुप्पी और सोशल मीडिया के माध्यम से दोहरे मापदंड  क्या  आत्मघाती नहीं है ? हर बार जब कोई अपराध धर्म के नाम पर होता है, अथवा धर्म से उसे न्ययोचित किया जाता है तो सम्पूर्ण समुदाय और धर्म के अनुयायी क्या कटघरे में खड़े नहीं होते? क्या सामूहिक दोषारोपण से सामाजिक समरसता को क्षति अनुयायी नहीं पहुँचती ?  क्या  धार्मिक, सामाजिक और वैचारिक नेतृत्व को सामने आकर स्पष्ट और सशक्त प्रतिक्रिया देने की जरुरत नहीं है ?  क्या धर्मगुरुओं को यह जिम्मेदारी लेनी चाहिए कि वे न केवल देशविरोधी कृत्यों का स्पष्ट रूप से विरोध करें बल्कि धर्म की सही व्याख्या करें और देश के प्रति सम्मान को भी उजागर करें, ताकि नई पीढ़ी उसका अनुसरण कर सके और धार्मिक मूल्यों की सच्ची भावना बनी रहे।

अपराध को व्यक्ति की ज़िम्मेदारी मानकर देखा जाता रहा है किन्तु जब अपराध सामूहिक रूप से संगठित हों, और उनमें धार्मिक पहचान या विचारधारा की भूमिका दिखे, तब पूरे समुदाय के बुद्धिजीवी वर्ग और धार्मिक नेतृत्व को सामने आकर यह कहना होगा — “यह हमारे धर्म की आत्मा नहीं है।”

मदरसों, धार्मिक संस्थानों  की जिम्मेदारी केवल धार्मिक शिक्षा तक सीमित नहीं होनी चाहिए बल्कि उस शिक्षा की मानवीय व्याख्या, संवेदनशीलता और नैतिकता का प्रशिक्षण भी होना चाहिए। धर्म को डर या भ्रम का उपकरण न बनाकर करुणा, समानता और सह-अस्तित्व का आधार बनाया जाना चाहिए।

जब समाज का प्रभावशाली वर्ग — चाहे वह मीडिया हो, बुद्धिजीवी हों या राजनेता — इन घटनाओं पर केवल राजनीतिक लाभ-हानि के चश्मे से प्रतिक्रिया देता है या चुप रहता है, तब यह चुप्पी ही सबसे बड़ा अपराध बन जाती है। यह न केवल युवाओं को भ्रमित करती है, बल्कि अपराधियों को यह संदेश भी देती है कि उनके पास धार्मिक तुष्टिकरण का कवच है।

गजेंद्र सिंह

उत्तेजना फैलाते विचार

शिवानन्द मिश्रा

“उन्हें मार डालो… उन्हें नष्ट कर दो… उन्हें मिटा दो… अब केवल युद्ध की आवश्यकता है…”

आजकल ऐसे लेख, विचार, सलाह सभी जगह छाए हुए हैं। प्रिंट मीडिया, सोशल मीडिया, टेली मीडिया सर्वत्र ऐसे समाचार भरे पड़े हैं। ऐसा ताज मत पहनो जिसके आप हकदार नहीं हैं। फिलहाल, भारत (मोदी सरकार) को किसी भी सैन्य कार्रवाई या पाकिस्तान पर हमला करने की बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं है।

पहलगाम हमला विदेशी शक्तियों द्वारा भारत के खिलाफ एक बहुत बड़ी साजिश का हिस्सा है जो नहीं चाहते कि भारत एक आर्थिक और वैश्विक महाशक्ति के रूप में उभरे।

ये मानना पूर्णतः भूल है कि हमारी सेना या सरकार में मजबूत जवाब देने की शक्ति की कमी है। न ही उनका मनोबल गिराने की कोशिश हो रही है। यहां भारत के खिलाफ “एक अधूरी साजिश” अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रही है।

तर्क यह है कि:

 किसानों के विरोध प्रदर्शन के दौरान, विदेशी ताकतों ने भारत में गृह युद्ध को भड़काने के लिए किसानों और सरकार के बीच अवांछित संघर्ष पैदा करने की कोशिश की। सरकार ने इसे धैर्यपूर्वक संभाला, कुछ मांगों को स्वीकार किया और गृह युद्ध जैसी स्थिति से बच गई।

 सीएए विरोध प्रदर्शन (शाहीन बाग और दिल्ली दंगे) के दौरान विदेशी ताकतों ने फिर से नागरिक अशांति भड़काने की कोशिश की। मोदी की टीम ने स्थिति को चतुराई से संभाला और साजिश को सफल होने से रोका।

. मणिपुर में एक साल तक राष्ट्रविरोधी ताकतों ने भारत को गृहयुद्ध में उकसाने की कोशिश की। भले ही उन्होंने इस मुद्दे को संसद में घसीटा, लेकिन सरकार ने बिना गोली चलाए इसे हल कर दिया।

 छह महीने तक बांग्लादेश में भारत को युद्ध में उकसाने के लिए हिंदुओं की सामूहिक हत्याएं हो रही थीं हालांकि, सरकार ने साजिश को समझा और आवश्यक कार्रवाई करते हुए अराजक स्थिति पैदा होने से पहले ही सम्भल गई। (याद रखें: तब भी, कई लोग पूछ रहे थे, “मोदी कार्रवाई क्यों नहीं कर रहे हैं?”)

 अब, वर्तमान परिदृश्य को समझें:

 दो सप्ताह पहले, अमेरिका ने पाकिस्तान को 400 मिलियन डॉलर की सहायता दी।

 15 दिन पहले, पाकिस्तान के पीएम और सेना प्रमुख ने सऊदी अरब का दौरा किया – क्यों?

 एक महीने पहले, हमास के नेता और शीर्ष पाकिस्तानी आतंकवादी पीओके में मिले थे।

 तीन दिन पहले पाकिस्तान के सेना प्रमुख ने खुलेआम हिंदुओं और मोदी के खिलाफ जहर उगला था।

अब पहलगाम हमले का विश्लेषण। इस घटना पर एक “पूर्वव्यापी कार्रवाई” पर नजर :

 लंबे समय के बाद, आतंकवादियों ने नागरिकों, विशेष रूप से हिंदुओं को निशाना बनाया – क्यों?

हिंदू-मुस्लिम तनाव को भड़काने और भारत में गृहयुद्ध जैसी स्थिति पैदा करने के लिए।

आतंकवादियों ने खुलेआम कहा: “अपने मोदी से कहो कि हम हिंदुओं को मार रहे हैं।”

उन्होंने सेना या पुलिस को क्यों नहीं निशाना बनाया? सीधे मोदी का नाम क्यों लिया?

स्पष्ट रूप से, इसका उद्देश्य हिंदू भावनाओं को ठेस पहुँचाना, भावनात्मक प्रतिक्रियाएँ भड़काना और भारत को युद्ध के लिए उकसाना था।

 हमले के समय अमेरिकी उपराष्ट्रपति भारत की यात्रा पर थे। मोदी सऊदी अरब की यात्रा पर थे। (अंतर्संबंधों पर ध्यान दें।)

 एक प्रभावशाली युवा भारतीय नेता ने एक सप्ताह पहले अमेरिका का दौरा किया।

आदेश और मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए? (भविष्य के भाषणों और कार्रवाइयों से पता चलेगा।)

 यू.एस., कनाडा, जर्मनी, फ्रांस और यू.के. सभी ने भारत से कहा:

“आप जो भी कार्रवाई करेंगे, हम उसका समर्थन करेंगे।” मतलब: वे चाहते हैं कि भारत युद्ध में जाए ताकि भारत की बढ़ती ताकत को कमज़ोर किया जा सके।

 ध्यान दें कि कैसे सभी विपक्षी दल, जिन्होंने पहले बालाकोट हमलों के दौरान “सबूत” की मांग की थी, अब कहते हैं: “हम मोदी द्वारा की गई किसी भी कार्रवाई का समर्थन करते हैं।”

निष्कर्ष: वे चाहते हैं कि मोदी युद्ध में जाएँ, असफल हों और फिर वे सत्ता हथिया लें।

 पाकिस्तान भी धमकी देता है कि पानी के प्रवाह को रोकना “युद्ध की कार्रवाई” के रूप में देखा जाएगा – जिससे भारत संघर्ष में उलझ जाएगा। संक्षेप में:

विदेशी ताकतें, भारत की विपक्षी पार्टियाँ और यहाँ तक कि पाकिस्तान भी चाहता है कि भारत युद्ध में उतर जाए।

उनका अंतिम लक्ष्य: भारत को आंतरिक रूप से कमज़ोर करना, भारत के वैश्विक उत्थान को रोकना और हमें 100 साल की गुलामी में वापस धकेलना है ।

अब सबसे महत्वपूर्ण बात:

स्वर्गीय जनरल बिपिन रावत ने चेतावनी दी थी कि भारत के भीतर एक “हाफ़-फ़्रंट” उभर आया है। देश के भीतर गद्दार विदेशी ताकतों के साथ काम कर रहे हैं।

ये वही तत्व हैं जो किसानों के विरोध प्रदर्शन, सीएए दंगों और सांप्रदायिक हिंसा के पीछे हैं।

अगर मोदी युद्ध में शामिल होते हैं, तो ये ताकतें आंतरिक हिंदू-मुस्लिम दंगे भड़काएँगी, गृहयुद्ध की स्थिति पैदा करेंगी और भारत के विकास को रोक देंगी।

 भारतीय सेना पाकिस्तान, बांग्लादेश और चीन से एक साथ लड़ने में सक्षम है। लेकिन आंतरिक गृहयुद्ध उनके हाथ बाँध देगा। यही तो भारत विरोधी ताकतें चाहती हैं।

समाधान:

 नागरिकों को, युद्ध के लिए अनावश्यक दबाव नहीं बनाना चाहिए। हमें विदेशी मीडिया के दुष्प्रचार में नहीं पड़ना चाहिए। हमें मोदी और सरकार पर भरोसा करना चाहिए कि वे सही समय पर कार्रवाई करेंगे। उन्हें पता है कि क्या रणनीति अपनानी है।

युद्ध के बिना भी भारत पाकिस्तान को परेशान कर सकता है – जैसे, पानी की आपूर्ति बंद करके।

शिवानन्द मिश्रा 

जाति जनगणना और राजनीति 

शम्भू शरण सत्यार्थी

बिहार में चुनाव के मद्देनजर जातिगत जनगणना कराने का सियासी दाव खेला गया. बिहार सरकार ने जातिगत जनगणना कराई भी है और विपक्ष लगातार माँग करते रहा  कि जाति आधारित जनगणना पूरे देश में कराई जाय.भारतीय जनता पार्टी का शीर्ष नेतृत्व यह समझ गया कि जाति आधारित जनगणना का मुद्दा चुनाव में जोर शोर से उठेगा .इसकी वजह से प्रधानमन्त्री  नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई केंद्रीय कैबिनेट की राजनीतिक मामलों की समिति ने आगामी जनगणना के साथ जाति की गिनती कराने का फैसला सुना दिया.सूचना प्रसारण मंत्री अश्विनी वैष्णव ने कहा जनगणना केंद्र के अधिकार क्षेत्र में है लेकिन कुछ राज्यों ने सर्वे के नाम पर ग़ैरपारदर्शी तरीके से जनगणना करा दी जिससे समाज में संदेह पैदा हुआ.

कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने कहा कि बिहार के चुनाव को ध्यान में रखकर सरकार ने जातिगत जनगणना की घोषणा की है. ये बिहार के लिए नया नहीं है, बिहार में जातिगत सर्वे हो चुका है. बिहार में 65% आरक्षण दिया गया है। तेलंगाना में भी आरक्षण दिया जा रहा है.  सुप्रीम कोर्ट में 28 सितंबर 1962 का एक मशहूर केस है -एम आर बालाजी बनाम स्टेट ऑफ मैसूर, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार कहा कि पचास प्रतिशत आरक्षण की सीमा होनी चाहिए.

ऐसा संविधान में नहीं लिखा हुआ है और न ही संविधान निर्माता बाबा साहेब ने ऐसा कहा. 

16 नवंबर 1992 को इंदिरा साहनी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया का एक और महत्वपूर्ण फैसला आया जिसके बाद मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू हुईं. 

ये संविधान की बुनियादी संरचना के खिलाफ नहीं है लेकिन एक शर्त रखी कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ा वर्ग का आरक्षण 50% से अधिक नहीं होगा.

1992 के बाद कई राज्यों ने आरक्षण बढ़ाया, 50% की सीमा को पार किया. तब एक मात्र राज्य तमिलनाडु का आरक्षण कानून को 9वीं सूची में शामिल किया गया.

9वीं सूची का मतलब है कि ये न्यायालय से संरक्षित है, न्यायालय इसमें बदलाव नहीं ला सकते हैं. 

तमिलनाडू में आरक्षण 69% है, लेकिन वो गैर-संवैधानिक नहीं है. वो हमारे संविधान के द्वारा सुरक्षित है.

आरक्षण के 50% की सीमा को हटाने की मांग खरगे जी और राहुल जी ने इसलिए कही क्योंकि सुप्रीम कोर्ट इसे गैर-संवैधानिक कहेगा. 

बिहार में जद यू-आर जे डी की सरकार ने जातिगत सर्वे कराया था और 65% आरक्षण लागू किया जिसे हाई कोर्ट ने खारिज कर दिया, सुप्रीम कोर्ट में मामला अभी लंबित है.

 अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बिहार जाकर आरक्षण के बारे में कुछ भी कहें, लेकिन सच्चाई ये है कि जब तक 50% की सीमा को नहीं हटाया जाएगा, तब तक बिहार में कुछ नहीं हो सकता.  

सामाजिक राजनीतिक विश्लेषक सिद्धार्थ रामु ने कहा कि थोड़ा ठहर कर जश्न मनाइए. जाति जनगणना साध्य नहीं, साधन है. इसका इस्तेमाल दलित, अन्य पिछड़े वर्गों और आदिवासियों के खिलाफ भी हो सकता है- यह दोधारी तलवार है.

बहुजनों की लंबे समय से चली आ रही जाति जनगणना की मांग राजनीतिक और सैद्धांतिक तौर पर पूरी हो गई है. भाजपा के अलाव सभी राजनीतिक शक्तियां इसकी मांग कर रही थीं, अब भाजपा भी सहमत हो गई है, यह बहुजन आंदोलन की एक बड़ी जीत है, यह उन संगठनों-व्यक्तियों की बड़ी जीत है जो करीब दो दशकों से इसके लिए संघर्ष कर रहे थे.

खुशी और जश्न के बीच अनिवार्य तौर पर रेखांकित कर लेना चाहिए. जाति जनगणना अपने आप में भारत के बहुसंख्यक वंचित समुदायों को कुछ दे देगा, ऐसा बिलकुल नहीं. हां, कौन वंचना का शिकार है और किसका देश के संसाधनों और अवसरों पर कब्जा है और वह किसी सामाजिक समूह या वर्ण-जाति का है, यह तथ्य जरूर सामने ला देगा, अगर ठीक से जाति जनगणना हुई तो.

लेकिन जाति जनगणना से सामने आने वाले तथ्यों और उससे निकलने वाले निष्कर्षों का इस्तेमाल दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़े वर्गों के खिलाफ भी किया जा सकता है. 

यह कैसे और किस तरह किया जा सकता है और इसका इस्तेमाल वंचित समूहों के खिलाफ करने के लिए कौन-कौन से तरीके इस्तेमाल किए जा सकते हैं.

पहली बात भारतीय संविधान से लेते हैं, अपनी कमियों-कमजोरियों के बाद भी भारत का संविधान न्यायपूर्ण, समतामूलक, बंधुता आधारित, सबकी स्वतंत्रता और गरिमा का सम्मान करने वाला लोकतांत्रिक भारत बनाने का एक मजबूत आधार मुहैया कराता है लेकिन क्या भारत का संविधान ऐसा करने में सफल हुआ, उत्तर होगा नहीं.

इसकी वजह क्या संविधान की कमी-कमजोरी या खराबी थी, इसका उत्तर है, बिलकुल नहीं, तो वजह क्या थी. इसका जवाब डॉ. आंबेडकर के संविधान संबंधी इस कथन में मिलता है कि संविधान चाहे कितना ही अच्छा क्यों न हो, वह अपने आप में कुछ नहीं कर सकता. सब कुछ निर्भर करता है कि संविधान द्वारा सृजित संवैधानिक संस्थाओं संसद, कार्यपालिका, न्यायपालिका, चुनाव आयोग के नियंत्रकों और संचालकों पर. अच्छे से अच्छे संविधान का उसके नियंत्रक-संचालक बदत्तर से बदत्तर इस्तेमाल कर सकते हैं.

अंबेडकर ने इससे आगे की बात भी कही हैं, उन्होंने यहां तक कहा है कि सापेक्षिक तौर पर खराब संविधान का भी अच्छे लोग अच्छा इस्तेमाल कर सकते हैं.

भारतीय संविधान का इस्तेमाल इसका उदाहरण हैं. सिर्फ एक- दो उदाहरण लेते हैं. इस संविधान का इस्तेमाल करके वी. पी. सिंह कि सरकार ने मंडल कमीशन की रिपोर्टे लागू कर ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण दे दिया, इसी संविधान का दुरूपयोग करके नरेंद्र मोदी की सरकार ने संविधान की भावना-प्रावधानों और आरक्षण के बुनियादी सिद्धांत का उल्लंघन करके आर्थिक आधार पर द्विज-सवर्णों के लिए ई डब्लू एस के नाम पर 10 प्रतिशत आरक्षण दे दिया.

इसी संविधान का इस्तेमाल करके ओबीसी के आरक्षण को करीब 45 वर्षों तक कांग्रेस और उसके पहले की अन्य सरकारों ने रोके रखा. इसी संविधान का इस्तेमाल करके एससी-एसटी एक्ट बना. इस संविधान का इस्तेमाल करके सुप्रीमकोर्ट ने इसे रद्द कर दिया था. ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं.

यह हाल अमेरिकी, फ्रांसीसी, जर्मन और अन्य संविधानों का भी हुआ था. उसी अमेरिकी संविधान का इस्तेमाल करके लंबे समय तक नीग्रों और महिलाओं को वोटिंग के अधिकार से वंचित रखा गया, उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाकर रखा गया और उसी संविधान का इस्तेमाल करके उन्हें वोटिंग का अधिकार मिल गया, समान स्तर के नागरिक का दर्जा प्राप्त हुआ. यही फ्रांस-ब्रिटेन में भी हुआ.

हिटलर ने जर्मनी के संविधान का इस्तेमाल करके फासीवाद ला दिया, लाखों लोगों का कत्लेआम किया. आजकल ट्रंप इसका उदाहरण हैं कि कैसे वे अमेरिकी संविधान का इस्तेमाल कर रहे हैं. 

जैसे भारत के शानदार संविधान का इस्तेमाल द्विज-सवर्ण वर्चस्व बनाए रखने के लिए किया गया है, उसी तरह जाति गणना का भी किया जा सकता है.

मूल बात पर आतें हैं. कैसे जाति जनगणना दोधारी तलवार है, इसका इस्तेमाल सामाजिक और आर्थिक तौर पर वंचित लोगों को उनका हक-हकूक और वाजिब हिस्सेदारी के लिए किया जा सकता है और इसका इस्तेमाल उनके वाजिब हक-हकूक से वंचित रखने के लिए भी किया जा सकता है.

जाति जनगणना कैसे वंचित तबकों को उनका वाजिब हक-हकूक दिलाने वाली चीज बन सकती है?

यह गणना पूरे देश की समग्र तस्वीर क्या है और इसमें अलग-अलग सामाजिक समूहों- वर्गों और जातियों की क्या स्थिति है, इसको सामने लाएगी.

यह सर्वे एक समाजिक समूह की तुलना में दूसरे सामाजिक समूह की क्या स्थिति, एक जाति की तुलना में दूसरे जाति की क्या स्थिति है, इसकी पूरी तस्वीर समाने रखेगा.

बिहार, तेलंगाना और कर्नाटक आदि में हुई जाति जगणगना ने यह साबित किया है कि देश के संसाधनों और अवसरों पर तथाकथित द्विज-सवर्ण जातियों का कब्जा है. 

15 प्रतिशत से भी कम द्विज-सवर्णों और अन्य शासक जातियों ने संपत्ति-संसाधनों, नौकरियों और अन्य अवसरों पर करीब 80 से 60 प्रतिशत तक कब्जा जमा रखा है, अलग-अलग मामलों में यह प्रतिशत अलग-अलग है, लेकिन उनकी आबादी के अनुपात में उनकी हिस्सेदारी 5 गुना, 4 गुना, 3 गुना, दो गुना तक है.

जैसे बिहार के करीब 0.6 प्रतिशत कायस्थों का बिहार की सरकारी नौकरियों के करीब 6 प्रतिशत पर कब्जा है और बिहार की आबादी के करीब 5 प्रतिशत मुसहरों (मांझी ) लोगों की सरकारी नौकरियों में हिस्सेदारी 1 प्रतिशत भी नहीं है.

यह सर्वे गरीबी-अमीरी-मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय समूहों की वास्तविक स्थिति को भी  सामने  लाएगा. गरीब-अमीर के बीच की खाई को प्रस्तुत करेगा. गरीबी-अमीरी की जातिगत स्थिति क्या है, यह भी इस सर्वे से सामने आएगा.

संभावित सर्वे के आधार पर इस देश के सबसे वंचित सामाजिक समूहों और आर्थिक समूहों को एकजुट करके इस बात के लिए संघर्ष चलाया जा सकता है कि उनकी वंचना खत्म हो और उन्हें आबादी के अनुपात में हिस्सेदारी-भागीदारी जीवन के सभी क्षेत्रों में मिले. 

करीब तय सी बात है कि सबसे वंचित समूहों के रूप में दलित, ओबीसी और आदिवासी और उनकी भीतर की जातियां- उपजातियां सामने आंएगी. आदिवासियों में जाति तो नहीं है, लेकिन उनके बीच काफी बंटवारा है.

ये समूह एकजुट होकर अपनी वंचना के खिलाफ और अपने हक-हकूक आबादी के अनुपात में पाने के लिए संघर्ष कर सकते हैं और यह संघर्ष अगर ठीक से चले तो आबादी के अनुपात में हिस्सेदारी-भागीदारी भी हासिल कर सकते हैं.

यह तभी हो सकता है, जब दलित,आदिवासी और अन्य पिछड़ा वर्ग एकजुट होकर सही अर्थों में बहुजन बन जाए और इन बहुजनों के सामाजिक हितों के लिए कोई पार्टी या पार्टियों का गठजोड़ निर्णायक संघर्ष करे. 

ऐसा एजेंडा, पार्टी, ढांचा, नेतृत्व और संघर्ष (कम से कम तमिलनाडु जैसा) जिसमें बहुजनों की सभी जातियों और समूह यह महसूस कर पाएं कि फला पार्टी या पार्टियों का गठजोड़ उनके साथ न्याय कर रहा है, सबसे हितों का समान रूप में प्रतिनिधित्व कर रहा है. 

किसी एक जाति या समूह का विशेषाधिकार और वर्चस्व नहीं कायम हो रहा है. उनके बीच का कोई एक सामाजिक समूह ( दलित,आदिवासी, अन्य पिछड़ा वर्ग या अति पिछड़ा वर्ग) किसी दूसरे समूह का हक नहीं मार रहा है. कोई एक जाति दूसरे जाति का हक नहीं मार रही है.

चूंकि आदिवासियों  को छोड़कर दलित और अन्य पिछड़ा वर्ग विभिन्न जातियों-उपजातियों में बंटा हुआ है. इसलिए यह जरूरी होगा कि अलग-अलग जातियों-उपजातियों को भी लगे कि उनके वाजिब हितों की रक्षा हो रही है. उनका हक कोई दूसरी जाति या उपजाति नहीं मार रही है.

इसके लिए वंचित वर्ग  दलित,आदिवासी और अन्य पिछड़ा वर्ग हितों के लिए पूरी तरह समर्पित पार्टी और नेतृत्व की जरूरत होगी. जिस पार्टी या जिन पार्टियों के गठजोड़ के साथ खड़े होने में  वंचित समूह के भीतर के विभिन्न सामाजिक समूहों और जातियों-उपजातियों को थोड़ा भी शक-सुबहा न हो, उन्हें लगे और वास्तव में हो भी, कि यह पार्टी या पार्टियों का गठजोड़ सभी के हितों के प्रति समान रूप से समर्पित है. 

पार्टी या गठजोड़ किसी एक सामाजिक समूह,जाति या उपजाति को विशेष तरजीह नहीं दे रहा है और न ही बहुसंख्य गरीब मेहनतकश बहुजनों की उपेक्षा कर रहा है.

यह एक बड़ी चुनौती है, लेकिन इस चुनौती  को स्वीकार करके और जमीन पर उताकर ही जाति जनगणना के तथ्यों और निष्कर्षों का इस्तेमाल दलितों,आदिवासियों और अन्य पिछड़ों वर्गों की वंचना को दूर करने और आबादी के अनुपात में उनकी हिस्सेदारी-भागीदारी के लिए किया जा सकता है. इस प्रक्रिया में समतामूल, न्यायपूर्ण, बंधुता आधारित आधुनिक लोकतांत्रिक भारत का सच्चे अर्थों में निर्माण किया जा सकता है.

कैसे जाति जनगणना का इस्तेमाल वंचित समूहों  आदिवासियों, दलितों और ओबीसी और उनके भीतर की विभिन्न जातियों-उपजातियों के खिलाफ किया जा सकता है ?

इस सवाल का जवाब देने से पहले इस तथ्य को रेखांकित कर लेना जरूरी है कि इस देश की द्विज-सवर्ण जातियां और अन्य शासक वर्गी जातियां जैसे गुजरात में पटेल अपने सामूहिक हितों के लिए पूरी तरह संगठित हो गई हैं. यहां तक द्विज-सवर्ण जातियों के भीतर के तीन वर्णों  ब्राह्मणों, क्षत्रिय और वैश्य पूरी तरह अपने सामूहिक हितों या वर्गीय हितों के लिए एकजुट हैं. उनके बीच में वर्तमान समय में कोई आपसी प्रतियगिता नहीं चल रही है. अगर चल भी रही है, तो दलितों,आदिवासियों और अन्य पिछड़ा वर्ग से मुकाबले में पूरी तरह एकजुट हो जाते हैं.

द्विज-वर्ण-जातियां सिर्फ संगठित ही नहीं, उनका देश के दो तिहाई संसाधनों पर कब्जा है. आज की सबसे ताकतवर शक्ति कार्पोरेट उन्हीं से बना है. 

विचारों की दुनिया विश्वविद्यायलों से लेकर मीडिया तक उनका पूरा का पूरा नियंत्रण हैं. देश की संवैधानिक संस्थाओं  नौकरशाही, सुप्रीमकोर्ट, चुनाव आयोग, ईडी, सीबीआई आदि पूरी तरह उनके हाथ में है. तथाकथित चौथा स्तंभ मीडिया पर कार्पोरेट के माध्यम से इनका नियंत्रण ही नहीं, मालिकाना भी है.

यहां तक कि वे राजनीतिक प्रतिधिनित्व के मामले में हमारी जाति का ही व्यक्ति हमारा प्रतिनिधि हो ,यह आग्रह वे छोड़ चुके हैं. पिछले कुछ चुनावों में यूपी में सपा और बसपा ने कई सारे ब्राह्मण उम्मीदवार खड़ा किए, इस उम्मीद में कि ब्राह्मण उन्हें वोट देंगे, लेकिन 10 प्रतिशत ब्राह्मणों ने उन ब्राह्मण उम्मीदवारों को वोट नहीं दिया. उसकी जगह उन्होंने गैर-ब्राह्मण,अधिकत्तर ओबीसी उम्मीदवारों को वोट दिया. यही बात अन्य द्विज-सवर्णों की जातियों के बारे में भी दिखी.

जाति जनगणना के बाद भी वंचित समूहों  दलित, आदिवासी और ओबीसी-बहुजन का मुकाबला इसी संगठित समूह से होगा. यह वंचित समूह उनका मुकाबला अपने वोट की ताकत के आधार पर एक हद तक कर सकता है. 

सवाल यह है कि क्या बहुजन समाज अपनी अपने भीतर के मोटे-मोटे बंटवारों और विभिन्न जातियों-उपजातियों के बीच के बंटवारों को पाटने लायक एजेंडा तैयार कर पाएगा ? 

ऐसी पार्टी या पार्टियों का गठजोड़ प्रस्तुत कर पाएगा, जो सचमुच में सभी बहुजनों का प्रतिनिधित्व करती हों, जिसमें अलग-अलग जातियों और उपजातियों का प्रतिनिधित्व भी शामिल हैं.

फिलहाल इस मामले में वर्तमान स्थिति निराशाजनक है. तमिलनाडु को यदि छोड़ दिया जाए तो बहुजन समाज बुरी तरह विभिन्न सामाजिक समूहों और जातियों में विभाजित है. यह विभाजन कम होने की जगह बढ़ रहा है, इसका सबसे बदत्तर उदाहरण बिहार है जो कभी सामाजिक न्याय का सबसे बड़ा गढ़ रहा है. 

वहां बहुजन पूरी तरह सामाजिक समूहों और जातियों में राजनीतिक तौर पर बंटे हुए हैं. बहुजन गोलबंदी जातियों की गोलबंदी में बदल चुकी है. बहुजनों की विभिन्न जातियां सामूहिक हितों की रक्षा के लिए एकजुट होने की जगह आपस में प्रतियोगिता कर रही हैं, जिसकी आगे की गति भी इसी दिशा में दिखाई दे रही है.

जाति जनगणना सभी जातियों की गणना करेगी और उनकी हिस्सेदारी का तथ्य समाने लाएगी. इस स्थिति का इस्तेमाल  अन्य पिछड़े वर्गों की हजारों जातियों और दलितो के बीच की कई सारी जातियों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करने के लिए किया जा सकता है.

            अगर बहुजन समाज के लोग और इनके नेतृत्वकर्ता नहीं जागे तो आगे आने वाले दिनों में मिला हुआ अधिकार भी धीरे धीरे समाप्त हो जाएगा.

     

सत्ता से सड़क तक का सफर: पाकिस्तान का पूर्व सांसद आज हरियाणा में बेच रहे आइसक्रीम

अशोक कुमार झा

भारत और पाकिस्तान के बीच रिश्ते हमेशा से नाजुक रहे हैं लेकिन हाल ही में कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद से तनाव एक बार फिर चरम पर है। हमले के बाद केंद्र सरकार ने भारत में वीजा पर रह रहे पाकिस्तानी नागरिकों को देश छोड़ने का आदेश जारी किया। इस माहौल के बीच एक अनोखी कहानी सामने आई है—पाकिस्तान के एक पूर्व सांसद की, जो आज हरियाणा की गलियों में आइसक्रीम बेचकर अपनी जिंदगी गुजार रहे हैं।
यह कहानी है डबाया राम की—एक ऐसा नाम, जिसने कभी पाकिस्तान की संसद में शपथ ली थी, और आज अपने परिवार के लिए हर रोज सड़कों पर मेहनत कर रहे हैं।
संघर्षों में पला बचपन
डबाया राम का जन्म 1945 में पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के एक छोटे से गांव में हुआ था। 1947 के विभाजन ने उनके परिवार को ऐसी जगह लाकर छोड़ दिया, जहां अल्पसंख्यक होना ही सबसे बड़ा अपराध बन गया। बंटवारे के बाद कट्टरपंथ बढ़ा और अल्पसंख्यक(हिन्दू और सीख) समुदायों पर अत्याचार आम बात हो गई।
देश के विभाजन की आग ने उनके गांव को भी पूरी तरह झुलसा दिया। हिंदू और सिख परिवारों पर लगातार हमले होते रहे। परंतु उनके परिवार ने उस समय अपना गांव छोड़ने का फैसला नहीं किया, क्योंकि वहां उनकी खेती थी, जड़ें थीं, पूर्वजों की स्मृतियां थीं।
लेकिन समय के साथ दबाव भी बढ़ता चला गया। स्कूलों में हिंदू बच्चों के साथ हमेशा भेदभाव किये जाते थे। साथ ही मंदिरों पर हमले और आए दिन मिलती धमकियां उनकी जिंदगी का आम हिस्सा बन गया था, जो डबाया राम बचपन से ही यह सब देखते हुए और झेलते हुए वहाँ उसी माहौल में बड़ा हुआ था।
उसके परिवार पर भी कई बार ऐसा दबाव डाला जाता रहा कि वे अपना धर्म(हिन्दू धर्म) छोड़ दें और इस्लाम अपना लें। लेकिन उनके परिवार ने हर बार यह दबाव अस्वीकार किया और अपने विश्वास पर अडिग रहा।
एक साधारण से किसान का बेटा ने अपने गाँव में ईमानदारी और सच्चाई की राह पर चलते हुए पाकिस्तान जैसे देश में अपने समुदाय के लिए एक मजबूत आवाज बनाकर उभरा और समय के साथ अपने हक की लड़ाई को जारी रखा। जिससे उसकी लोकप्रियता धीरे-धीरे स्थानीय समुदायों में बढ़ने लगी और यही लोकप्रियता उसे राजनीति के गलियारों तक ले गई।

निर्विरोध सांसद बनना: एक ऐतिहासिक क्षण
1988 में पाकिस्तान में नेशनल असेंबली का चुनाव हुआ जिसमें अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षित सीट पर उसे उम्मीदवारी मिली थी। चूंकि वे समुदाय में इतने ज्यादा लोकप्रिय थे कि उसके खिलाफ किसी और उम्मीदवार ने नामांकन ही नहीं किया, जिस कारण वह बिना किसी विरोध के वहाँ का सांसद चुन लिया गया।

फिर पाकिस्तानी संसद में पहुँचने के बाद उसने काफी बहादुरी से वहाँ अल्पसंख्यकों (हिन्दू और सिखों) के अधिकारों की वकालत करता रहा। उस समय वहाँ पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (PPP) उभार पर थी और बेनजीर भुट्टो के नेतृत्व में देश में लोकतंत्र की नई उम्मीदें जगी थीं। डबाया राम ने भी संसद में अपना समर्थन बेनजीर भुट्टो को दिया जिसके बाद वे पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बनीं थी लेकिन राजनीति की चकाचौंध हमेशा सुरक्षित भविष्य की गारंटी नहीं देती । अल्पसंख्यक होने का दंश डबाया राम को लगातार झेलना पड़ा। उनके परिवार के खिलाफ सामाजिक भेदभाव और अत्याचार थमने का नाम नहीं ले रहा था।
फिर समय ऐसा आ गया कि पाकिस्तान में सत्ता की नजदीकी भी उसकी ढाल नहीं बन सकी। जैसे-जैसे कट्टरपंथ बढ़ा, उनके परिवार पर हमले बढ़ते चले गये। फिर एक समय ऐसा आया जब गांव में उनका घर ही असुरक्षित हो गया।
उस समय ऐसा वक्त था, जब राजनीति के भीतर रहकर भी वे अपने समुदाय को सुरक्षा और सम्मान नहीं दिला पा रहे थे। वहाँ बढ़ती असहिष्णुता, धमकियों और हिंसा ने उनके सपनों को इतना कुचल डाला था कि एक सांसद की कुर्सी पर बैठा व्यक्ति भी खुद को सुरक्षित महसूस नहीं कर पा रहा था।

पलायन: आखिरी विकल्प
1999 में एक रात कुछ चरमपंथी युवकों ने उनके घर पर पत्थरबाजी करने के साथ में धमकियाँ दिया कि “या तो इस्लाम अपनाओ या मरने के लिए तैयार रहो”। इस भयानक घटना ने उसके परिवार को मानसिक रूप से तोड़ कर रख दिया। हालांकि कोई जानमाल का नुकसान नहीं हुआ, लेकिन यह स्पष्ट हो गया था कि अब वहां जीना मुश्किल हो गया है।
यह उसके लिए एक बहुत बड़ा निर्णायक क्षण था कि वह अपने परिवार को बचाने के लिये वहाँ से भाग जाये या अपने और अपने परिवार के जानमाल का जोखिम लेकर वहीं संघर्ष करता रहे। और अंत में उसने पूरे परिवार के साथ भारत आने का निश्चय किया। फिर लंबी कानूनी प्रक्रियाओं और संघर्षों के बाद उसे वीजा प्राप्त हो सका, जिससे वह 13 परिवारों के साथ 35 लोग किसी तरह भारत पहुंच सके। फिर हरियाणा आकर रोहतक में कुछ वर्ष काटने के बाद फतेहाबाद जिले के रतनगढ़ गांव में बस गए।

भारत में संघर्ष की नई कहानी
अब भारत आ जाने के बाद भी उसकी चुनौतियां कम नहीं हुई थीं। शुरू में गांव के कुछ लोग पाकिस्तान से आए इस परिवार से ऐसे ही दूरी बनाकर रखते थे और सभी को शक की निगाहों से देखा जाता था। धीरे धीरे स्थानीय लोगों के बीच विश्वास अर्जित करने में भी समय लगा लेकिन अपनी मेहनत, ईमानदारी और सरल स्वभाव के कारण गांव वालों का दिल जीत पाने में कामयाब हो पाया।
इसके अलावा पुलिस वेरिफिकेशन, वीजा एक्सटेंशन, फिर नागरिकता के लिए आवेदन जैसे मामलों को लेकर हर कदम पर सरकारी दफ्तरों के हमेशा चक्कर लगाने पड़े। उसके बाद नागरिकता पाने के लिए लंबी कानूनी प्रक्रिया से गुजरना पड़ा। आज उनके परिवार के छह सदस्यों को भारतीय नागरिकता मिल चुकी है, जबकि शेष लोगों ने आवेदन दे रखा है।

सत्ता के शिखर से साधारण जिंदगी तक सफर
एक समय था जब डबाया राम पाकिस्तान की संसद में बैठकर देश के भविष्य पर चर्चा किया करता था और आज का समय है जब वह हरियाणा की गलियों में आइसक्रीम बेचकर अपने परिवार का भरण-पोषण कर रहा है। आज फतेहाबाद के रतनगढ़ गांव में उनका छोटा सा ठेला स्थानीय बच्चों के बीच लोकप्रिय बना हुआ है।
आज उसके चेहरे पर कोई शिकवा नहीं दिखता। बल्कि उसकी आंखों में संघर्ष की गहराई है, लेकिन साथ ही एक संतोष भी है कि आज वह अपने पूरे परिवार के साथ एक स्वतंत्र माहौल में सांस ले रहा है। आज उसका कहना है कि “यहां कम से कम डर नहीं है। मेहनत करते हैं, तो पेट भरता है। पाकिस्तान में तो जीने का भी डर था।”
इतने दिनों बाद आज फिर क्यों आये चर्चा में
कश्मीर के पहलगाम में हुए भीषण आतंकी हमले के बाद जब सरकार ने वीजा पर रह रहे पाकिस्तानी नागरिकों को देश छोड़ने का निर्देश दिया, तब उसका परिवार भी उस जांच के घेरे में आ गया। उसे भी पुलिस द्वारा पूछताछ के लिए बुलाया गया लेकिन जांच में कुछ संदिग्ध नहीं पाया गया और उसे गांव लौटने की अनुमति दे दी गई।

आज उसका कहना है कि अब उसका पाकिस्तान से कोई नाता नहीं रहा। “हम भारतीय हैं और यहीं रहना चाहते हैं।” उसका यह भाव उसके संघर्ष और समर्पण को बखूबी बयान करता है।

वर्तमान संघर्ष: सम्मान से जीने की जद्दोजहद
आज उसकी उम्र 80 साल हो चुकी है। उसका शरीर भी अब पहले जैसा मजबूत नहीं रहा लेकिन उसकी हिम्मत आज भी जवानी जैसी ही है। वह आज भी गांव के गलियों में अपना आइसक्रीम ठेला चलाता है और बच्चों के बीच वह आज भी उसी ‘आइसक्रीम अंकल’ के नाम से ही जाना जाता है।

उनकी पत्नी भी गांव में महिलाओं के साथ कढ़ाई-बुनाई का काम करती हैं। उनके बेटे मजदूरी या छोटी-मोटी नौकरियां करते हैं। उसका कहना है कि , “आज हमारे पास ज्यादा कुछ नहीं है लेकिन जितना भी है, वह अपना है। यहां डर नहीं है। यहां मेहनत करने पर रोटी मिलती है और इज्जत भी। पाकिस्तान में हम सांस भी गिन-गिन कर लेते थे।”

गांव वालों की राय
रतनगढ़ गांव के सरपंच का कहना है, “डबाया राम जी बहुत भले आदमी हैं। कभी किसी से लड़ाई-झगड़ा नहीं किया। गांव में सब उनका सम्मान करते हैं। बच्चों को देखते ही आइसक्रीम फ्री में भी दे देते हैं कई बार।”
उस गांव के ही एक युवक बताते हैं, “हमें तो जब पता चला कि वे पाकिस्तान के सांसद रहे हैं, तो यकीन ही नहीं हुआ। इतने साधारण इंसान हैं कि कोई घमंड नहीं दिखता।”
बातचीत : जब डबाया राम ने साझा किए अपने जज्बात
प्रश्न: पाकिस्तान छोड़ने का फैसला आपके लिए कितना कठिन था?
डबाया राम:
बहुत कठिन था। जन्मभूमि कोई ऐसे ही नहीं छोड़ता लेकिन जब जीना ही मुश्किल हो जाए, तो इंसान को अपनी और अपने परिवार की जान बचाने के लिए फैसले लेने पड़ते हैं। हमने अपने आत्मसम्मान के लिए पाकिस्तान छोड़ा था।
प्रश्न: संसद में बैठने के बाद सड़क पर आइसक्रीम बेचना… यह बदलाव आपको कैसा महसूस कराता है?
डबाया राम:
पहले कुछ दिन भारी लगे। पर धीरे-धीरे समझ आ गया कि असली सम्मान कुर्सी से नहीं, मेहनत से मिलता है। आज जब मैं बच्चों को मुस्कुराते हुए आइसक्रीम देते देखता हूं, तो लगता है कि मेरी जिंदगी बेकार नहीं गई।
प्रश्न: आज भी पाकिस्तान से कोई संबंध या याद जुड़ी हुई है?
डबाया राम:
नहीं। अब वहां से कोई नाता नहीं। जो कुछ भी था, वह पीछे छूट गया। अब हमारा भविष्य और हमारी पहचान भारत से जुड़ी है।
प्रश्न: आपकी नई पीढ़ी के लिए क्या संदेश देना चाहेंगे?
डबाया राम:
मेहनत से बड़ा कोई धर्म नहीं है। जहां इज्जत मिले, वहां मेहनत करो, देशभक्त बनो और कभी अपनी जड़ें मत भूलो। सम्मान के लिए कुर्बानी देने से डरना नहीं चाहिए।
डबाया राम की कहानी अकेली नहीं है। बंटवारे के बाद पाकिस्तान में बचे हिंदू, सिख, ईसाई समुदायों ने दशकों तक भेदभाव और हिंसा झेली है और भारत आने वाले ये लोग अपने साथ जख्मों की विरासत और नई उम्मीदों का सपना लाते हैं। यह कहानी सिर्फ एक व्यक्ति की कहानी नहीं है।

आज जब हम अपनी स्वतंत्रता और लोकतंत्र का जश्न मनाते हैं, तब डबाया राम जैसे लोगों का संघर्ष हमें याद दिलाता है कि आजादी का मूल्य कितना बड़ा है। उन्होंने सत्ता खो दी लेकिन आत्मसम्मान नहीं खोया। वे आज भी लड़ रहे हैं—इज्जत के साथ जीने की लड़ाई। भले ही आज वे किसी कुर्सी पर नहीं, बल्कि समाज के दिलों पर जरूर राज कर रहे हैं—एक ऐसी मिसाल बनकर, जो पीढ़ियों तक याद की जाएगी।
डबाया राम की दास्तां सत्ता, संघर्ष, और सम्मान की अनूठी गाथा है, जो हमें सिखाती है कि असली शक्ति कुर्सी से नहीं, आत्मसम्मान और मेहनत से आती है। सत्ता चाहे छिन जाए लेकिन जो दिलों पर राज करता है, उसका मुकाम कभी छोटा नहीं होता।
यह सत्ता, संघर्ष, और पहचान की कहानी है। यह दिखाती है कि सत्ता का रुतबा अस्थायी होता है परंतु मेहनत और आत्मसम्मान का रास्ता हमेशा स्थायी होता है। कुर्सियां बदलती रहती हैं लेकिन मेहनत और इज्जत से जीने वाला इंसान हमेशा इतिहास में अपनी जगह बना ही लेता है।

अशोक कुमार झा

नेशनल हेराल्ड केस में बढ़ी सोनिया एवं राहुल की “मुश्किल”

प्रदीप कुमार वर्मा

देश के बहुत चर्चित नेशनल हेराल्ड मामले में कांग्रेस की पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी एवं लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी की मुश्किल बढ़ती जा रहीं हैं। दिल्ली की राउज एवेन्यू कोर्ट ने शुक्रवार को सोनिया गांधी और राहुल गांधी को नेशनल हेराल्ड मनी लॉन्ड्रिंग मामले में नोटिस जारी किया है। पिछले करीब एक दशक से चल रहे इस मामले में प्रवर्तन निदेशालय की जांच तथा चार्ज सीट पेश करने के बाद नोटिस जारी करने का काम हुआ है। कोर्ट ने प्रवर्तन निदेशालय द्वारा मनी लॉन्ड्रिंग रोकथाम अधिनियम के तहत दाखिल चार्ज सीट पर संज्ञान लेने से पूर्व यह बताने के लिए नोटिस जारी किए हैं कि चार्ज सीट पर संज्ञान क्यों ना लिया जाए? भारतीय जनता पार्टी  के नेता सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा दायर एक निजी आपराधिक शिकायत से शुरू हुआ यह मामला अब सुर्खियों में है। आजादी से पहले पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा शुरू किए गए नेशनल हेराल्ड अखबार से जुड़े इस मामले में कथित तौर पर करीब 2 हजार करोड रुपए के हेर-फेर के आरोप हैं। 

          नई दिल्ली के राउज एवेन्यू कोर्ट के विशेष न्यायाधीश विशाल गोगने द्वारा सोनिया एवं राहुल गांधी के साथ-साथ सैम पित्रोदा, सुमन दुबे, सुनील भंडारी, यंग इंडिया और डोटेक्स मर्केंटाइल को नोटिस जारी किया है। इस मामले में कोर्ट ने अगली सुनवाई के लिए 8 मई की तारीख तय की है। वर्ष 2014 में नेशनल हेराल्ड का मामला तब सामने आया जब भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने इस संबंध में शिकायत दर्ज कराते हुए कांग्रेस नेताओं पर धोखाधड़ी के आरोप लगाए। भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा जून 2014 में दायर एक निजी आपराधिक शिकायत से शुरू इस मामले में आरोप लगे कि नेशनल हेराल्ड अखबार से जुड़ी कंपनी एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड (एजेएल) के अधिग्रहण और वित्तीय अनियमितताओं में कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने आपराधिक साजिश रची है। इसके बाद में ईडी ने इस मामले की औपचारिक जांच 2021 में शुरू की थी।

         ईडी के अनुसार इस मामले का केंद्र नेशनल हेराल्ड अखबार की मूल कंपनी एजेएल और यंग इंडियन नामक एक गैर-लाभकारी कंपनी है। यंग इंडियन में सोनिया गांधी और राहुल गांधी की 38-38 प्रतिशत हिस्सेदारी है। जांच एजेंसी का यह भी दावा है कि यंग इंडियन को इस तरह बनाया गया, ताकि एजेएल की 2 हजार करोड़ रुपये से अधिक की रियल एस्टेट संपत्तियों पर अप्रत्यक्ष नियंत्रण हासिल किया जा सके। ईडी का आरोप है कि कांग्रेस पार्टी ने एजेएल को लगभग 90 करोड़ रुपये का बिना ब्याज वाला कर्ज दिया, जिसे बाद में यंग इंडियन को केवल 50 लाख रुपये में ट्रांसफर कर दिया गया। इस प्रक्रिया से यंग इंडियन ने एजेएल ने दिल्ली, लखनऊ और मुंबई में मौजूद मूल्यवान संपत्तियों पर नियंत्रण हासिल कर लिया। ईडी का कहना है कि इस व्यवस्था से लगभग 988 करोड़ रुपये की मनी लॉन्ड्रिंग हुई।  कांग्रेस पार्टी ने इन आरोपों को सिरे से खारिज करते हुए इसे राजनीतिक साजिश करार दिया है।

      कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने हाल ही में नई दिल्ली में पार्टी नेताओं को संबोधित करते हुए केंद्र सरकार पर जांच एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगाया। खड़गे ने कहा कि सोनिया और राहुल गांधी के नाम को इस मामले में जानबूझकर घसीटा जा रहा है, लेकिन पार्टी इस “बदले की भावना” से डरने वाली नहीं है। इससे पूर्व भी राहुल और सोनिया गांधी का नाम होने के बाद कांग्रेस पार्टी इस मामले में देशव्यापी विरोध प्रदर्शन कर एड की कार्रवाई को बदले की भावना से उठाया गया कदम करार दे चुकी है। यही नहीं अंदर खाने कांग्रेस में अभी भी इस संबंध में एक बड़ा आंदोलन करने की रणनीति पर काम चल रहा है। देश के चर्चित नेशनल हेराल्ड मामले के अतीत पर गौर करें तो पता चलता है कि 20 नवंबर 1937 को एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड (एजेएल) की स्थापना के साथ इसका कंपनी के रूप में पंजीकरण हुआ। 

           इसके बाद में 9 सितंबर 1938 को जवाहर लाल नेहरू ने नेशनल हेराल्ड अखबार शुरू किया। इसी क्रम में वर्ष1962-63: में आईटीओ के पास बहादुर शाह जफर मार्ग पर एजेएल को 0.3365 एकड़ भूमि आवंटित की गई। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक 22 मार्च 2002 को मोती लाल वोरा को एजेएल का चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर बनाया गया। इसके बाद में वर्ष 2008 में एजेएल को भारी नुकसान के बाद अखबार का संचालन बंद कर दिया गया।  दिसंबर 2010 एजेएल पर कांग्रेस के 90 करोड़ रुपये बकाया होने की खबर सामने आई। तब 29 दिसंबर 2010 रजिस्ट्रार ऑफ कंपनीज के पास मौजूद दस्तावेजों के अनुसार एजेएल के शेयरधारकों की संख्या 1057 थी। 26 फरवरी 2011 को कांग्रेस ने एजेएल को 90 करोड़ रुपये ऋण दिया।ओर 2011 में यंग इंडिया लिमिटेड ने 90 करोड़ रुपये की वसूली के अधिकार को प्राप्त करने के लिए एजेएल को मात्र 50 लाख रुपये का भुगतान किया। यंग इंडिया ने इस कर्ज को माफ कर दिया और एजेएल पर यंग इंडिया नियंत्रण हो गया।

        वहीं, 1 नवंबर 2012 को सुब्रमण्यम स्वामी ने पटियाला हाउस कोर्ट में निजी शिकायत दर्ज की। इस पर 2 नवंबर 2012 को कांग्रेस ने सफाई दी कि कांग्रेस ने नेशनल हेराल्ड अखबार को फिर से चलाने के लिए एजेएल को ऋण दिया था। वर्ष 2014 में ईडी ने सुब्रमण्यम स्वामी के निजी शिकायत पर ट्रायल कोर्ट के संज्ञान लेने के बाद प्रकरण में मनी लॉन्ड्रिंग का पता लगाने के लिए मामले की जांच शुरू की। 26 जून 2014 को अदालत ने सोनिया और राहुल गांधी को आरोपित के रूप में समन किया ओर 19 दिसंबर 2015 को पटियाला हाउस की मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट ने सोनिया व राहुल गांधी को नियमित जमानत दी।वहीं, वर्ष 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने कांग्रेस नेताओं के खिलाफ कार्रवाई रद करने से इनकार किया। उधर,5 अक्टूबर 2016 को भूमि एवं विकास आफिस ने एजेएल को नोटिस जारी किया और कहा कि एजेएल की संपत्ति का इस्तेमाल प्रेस के कामों के लिए नहीं किया जा रहा है। 

      अक्टूबर 2018 में दिल्ली हाई कोर्ट ने एजेएल को बहादुर शाह जफर मार्ग पर स्थित हेराल्ड हाउस को खाली करने का आदेश दिया। 1 जून 2022 ईडी ने सोनिया गांधी और राहुल गांधी को पेश होने का नोटिस भेजा। इस मामले में गांधी परिवार को एक बहुत बड़ा झटका तब लगा जब प्रवर्तन निदेशालय नें ६४ करोड़ रूपए की सम्पत्ति को स्थायी रूप से कुर्क कर दिया। ये सम्पत्तियाँ हरियाणा के पंचकुला में हैं।

इस मामले को भाजपा जहां केंद्रीय एजेंटीयों के बेहतर कामकाज का परिणाम मान रही है। वहीं, कांग्रेस का कहना है कि यह बदले की भावना से उठाया गया कदम है। इस मामले में दोनों से ईडी ने पूछताछ की थी। अब नई दिल्ली की रॉाउस एवेन्यू कोर्ट द्वारा सोनिया और राहुल को नोटिस जारी करने के बाद उनकी मुश्किल है और बढ़ती दिखाई पड़ रही है।

                बताते चलें कि यह चर्चित मामला आजादी से पूर्व शुरू हुए एक बड़े अखबार नेशनल हेराल्ड से जुड़ा है। आजादी से पूर्व वर्ष 1938 में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने इसकी स्थापना की। तब इस अखबार का मालिकाना हक एसोसिएटेड जर्नल लिमिटेड के पास था जो दो और अखबार छापती थी। ये अखबार थे हिंदी में नवजीवन और उर्दू में कौमी आवाज। वर्ष  1956 में एसोसिएटेड जर्नल लिमिटेड को गैर व्यावसायिक कंपनी के तौर पर स्थापित किया गया और कंपनी एक्ट धारा 25 से कर मुक्त कर दिया गया। इसके बाद में  कंपनी धीरे-धीरे घाटे में चली गई। कंपनी पर 90 करोड़ का कर्ज भी चढ़ गया। इसी बीच साल 2008 में वित्तीय संकट के बाद इसे बंद करना पड़ा, जहां से इस विवाद की शुरुआत हुई। इसके बाद में नेशनल हेराल्ड मामले में यंग इंडिया कंपनी का समावेश हुआ, जिसमें राहुल और सोनिया गांधी की भागीदारी बताई जाती है।

प्रदीप कुमार वर्मा

अव्वल आने की होड़ में छात्रों की आत्महत्याएं चिन्ताजनक

ललित गर्ग

टॉपर संस्कृति के दबाव एवं अव्वल आने की होड़ में छात्रों के द्वारा तनाव, अवसाद, कुंठा में आत्महत्या कर लेना एक गंभीर समस्या है। यह दुर्भाग्यपूर्ण एवं चुनौतीपूर्ण है कि हमारी छात्र प्रतिभाएं आसमानी उम्मीदों, टॉपर संस्कृति के दबाव व शिक्षा तंत्र की विसंगतियों के चलते आत्मघात की शिकार हो रही हैं। हाल ही में लगातार हो रही छात्रों की दुखद मौतें जहां शिक्षा प्रणाली अतिश्योक्तिपूर्ण प्रतिस्पर्धा पर प्रश्न खड़े करती है, वहीं विचलित भी करती हैं। इनमें राजस्थान स्थित कोटा के नीट के परीक्षार्थी और मोहाली स्थित निजी विश्वविद्यालय में फोरेंसिक साइंस का एक छात्र शामिल था। पश्चिम बंगाल के आई आई टी खड़गपुर में सिविल इंजीनियरिंग विभाग के तीसरे वर्ष के छात्र मोहम्मद आसिफ कमर का शव उनके हॉस्टल रूम में फंदे से लटका मिला। भुवनेश्वर के कीट में कम समय में दूसरी नेपाली छात्रा की मौत से विश्वविद्यालय की छवि और भारत के विदेशी छात्रों को आकर्षित करने के प्रयासों पर सवाल उठ रहे हैं। नीट के पेपर के तनाव में नूपुर ने नीट पेपर के एक दिन पहले फांसी लगाकर जान देना एवं मौत को गले लगाना हमारी घातक प्रणालीगत विफलता एवं टॉपर संस्कृति की आत्महंता सोच को ही उजागर करती है। निश्चित रूप से छात्र-छात्राओं के लिये घातक साबित हो रही टॉपर्स संस्कृति में बदलाव लाने के लिए नीतिगत फैसलों की सख्त जरूरत है। राजस्थान सरकार की ओर से प्रस्तावित कोचिंग संस्थान (नियंत्रण और विनियमन) विधेयक इस दिशा में बदलावकारी साबित हो सकता है। लेकिन केन्द्र सरकार को भी ऐसे ही कदम उठाने होंगे ताकि छात्रों में आत्महत्या की समस्या के दिन-पर-दिन विकराल होते जाने पर अंकुश लग सके। यह शिक्षाशास्त्रियों, समाज एवं शासन व्यवस्था से जुड़े हर एक व्यक्ति के लिए चिंता का विषय होना चाहिए।
कोचिंग संस्थानों की बढ़ती बाढ़ एवं गलाकाट प्रतिस्पर्धा में छात्र किस हद तक जानलेवा घातकता का शिकार हो रहे हैं। यह दुखद ही है कि सुनहरे सपने पूरा करने का ख्वाब लेकर कोटा गए चौदह छात्रों ने इस साल आत्महत्याएं की हैं। विडंबना यह है कि बार-बार चेतावनी देने के बावजूद कोचिंग संस्थानों के संरचनात्मक दबाव, उच्च दांव वाली परीक्षाओं, गलाकाट स्पर्धा, दोषपूर्ण कोचिंग प्रथाएं और सफलता की गारंटी के दावों का सिलसिला थमा नहीं है। यही वजह है कि हाल ही में केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण यानी सीसीपीए ने कई कोचिंग संस्थानों को भ्रामक विज्ञापनों और अनुचित व्यापारिक प्रथाओं के चलते नोटिस दिए हैं। दरअसल, कई कोचिंग संस्थान जमीनी हकीकत के विपरीत शीर्ष रैंक दिलाने और चयन की गारंटी देने के थोथे एवं लुभावने वायदे करते रहते हैं। निस्संदेह, इस तरह के खोखले दावे अक्सर कमजोर छात्रों और चिंतित अभिभावकों के लिये एक घातक चक्रव्यूह बन जाते हैं। छात्रों को अनावश्यक प्रतिस्पर्धा के लिये बाध्य करना और योग्यता को अंकों के जरिये रैंकिंग से जोड़ना कालांतर में अन्य छात्रों को निराशा के भंवर में फंसा देता है। वास्तव में सरकार को ऐसा पारिस्थितिकीय तंत्र विकसित करना चाहिए, जो विभिन्न क्षेत्रों में रुचि रखने वाले युवाओं के लिये पर्याप्त संख्या में रोजगार के अवसर पैदा कर सके। वास्तव में हमें युवाओं को मानसिक रूप से सबल बनाने की सख्त जरूरत है, तभी भारत सशक्त होगा, विकसित होगा।
पारिवारिक दबाव, शैक्षिक तनाव और पढ़ाई में अव्वल आने की महत्वाकांक्षा ने छात्रों के एक बड़े वर्ग को गहरे मानसिक अवसाद में डाल दिया है। युवाओं को भी सोचना होगा कि जिंदगी दोबारा नहीं मिलती। इसे यूं ही तनाव में आकर ना गंवाएं, बल्कि जिंदगी में आने वाली कठिनाइयों का डटकर मुकाबला करें। पढ़ाई में असफल रहने के कारण कुछ बच्चों पर मानसिक दबाव बढ़ रहा है। हर परिवार की अपने बच्चों से ज्यादा अपेक्षाएं होती हैं। अधिकतर युवा जिंदगी में आने वाली समस्याओं को बर्दाश्त नहीं कर पाते और वे अपनी बात किसी से साझा तक नहीं करते। प्रतिभागियों को बताया जाना चाहिए कि कोई भी परीक्षा जीवन से बड़ी नहीं होती। छात्रों की आत्महत्या की घटनाएं तथाकथित समाज एवं राष्ट्र विकास एवं शिक्षा की विडम्बनापूर्ण एवं त्रासद तस्वीर को बयां करती है। आत्महत्या शब्द जीवन से पलायन का डरावना सत्य है जो दिल को दहलाता है, डराता है, खौफ पैदा करता है, दर्द देता है। प्रतिष्ठित तकनीकी संस्थानों, उच्च शिक्षा संस्थानों एवं कोंचिंग संस्थानों में आत्महत्या की बढ़ती घटनाएं हमारी चिन्ता का सबब बनना चाहिए।
वैसे छात्रों की आत्महत्या कोई नई बात नहीं है, ऐसी खबरें हर कुछ समय बाद आती रहती हैं। रिकॉर्ड बताते हैं कि पिछले एक दशक में कोचिंग संस्थानों में ही नहीं, आईआईटी जैसे संस्थानों में ही 52 छात्र आत्महत्या कर चुके हैं। यह संख्या इतनी छोटी भी नहीं कि ऐसे मामलों को अपवाद मानकर नजरअंदाज कर दिया जाए। बेशक ऐसे हर मामले में अवसाद का कारण कुछ अलग रहा होगा, वे अलग-अलग तरह के दबाव होंगे, जिनके कारण ये छात्र-छात्राएं आत्महत्या के लिए बाध्य हुए होंगे। ऐसे संस्थानों में जहां भविष्य की बड़ी-बड़ी उम्मीदें उपजनी चाहिए, वहां अगर दबाव और अवसाद अपने लिए जगह बना रहे हैं और छात्र-छात्राओं को आत्महंता बनने को विवश कर रहे हैं तो यह एक काफी गंभीर मामला है। शैक्षणिक दबावों के चलते छात्रों में आत्महंता होने की घातक प्रवृत्ति का तेजी से बढ़ना हमारे नीति-निर्माताओं के लिये चिन्ता का कारण बनना चाहिए। क्या विकास के लम्बे-चौडे़ दावे करने वाली भारत सरकार ने इसके बारे में कभी सोचा? क्या विकास में बाधक इस समस्या को दूर करने के लिये सक्रिय प्रयास शुरु किए?
विचित्र है कि जो देश दुनिया भर में अपनी संतुलित जीवनशैली एवं अहिंसा के लिये जाना जाता है, वहां के शिक्षा-संस्थानों में हिंसा का भाव पनपना एवं छात्रों के आत्महंता होते जाने की प्रवृत्ति का बढ़ना अनेक प्रश्नों को खड़ा कर रहा है। ऐसे ही अनेक प्रश्नों एवं खौफनाक दुर्घटनाओं के आंकड़ों ने शासन-व्यवस्था के साथ-साथ समाज-निर्माताओं को चेताया है और गंभीरतापूर्वक इस विडम्बनापूर्ण एवं चिन्ताजनक समस्या पर विचार करने के लिये जागरूक किया है, लेकिन क्या कुछ सार्थक पहल होगी? बहुत जरूरी है कि कोचिंग संस्थान अपनी कार्यशैली एवं परिवेश में आमूल-चूल परिर्वतन करें ताकि छात्रों पर बढ़ते दबावों को खत्म किया जा सके। फिलहाल जरूरी यह भी है कि इन संस्थानों में एक ऐसे तंत्र को विकसित किया जाए, जो निराश, हताश और अवसादग्रस्त छात्रों के लगातार संपर्क में रहकर उनमें आशा का संचार कर सके, उन्हें सकारात्मकता के संस्कार दे सके। इसके लिए स्थाई तौर पर कुछ मनोवैज्ञानिकों एवं विशेषज्ञों की सेवाएं भी ली जा सकती हैं।
छात्रों के सिर पर परीक्षा का तनाव एवं अव्वल आने की दोड़ प्रतिस्पर्धा के दौर में और भी बढ़ गयी है। आज रोजगार के अवसर लगभग समाप्त हैं। ग्रेजुएशन कर चुकने वाला छात्र केवल किसी दफ्तर में ही अपने लिये सम्भावनायें तलाशता है। लेकिन नौकरी नहीं मिलती। बेरोजगारी अवसाद की ओर ले जाती है और अवसाद आत्महत्या में त्राण पाता है। लेकिन कोचिंग संस्थानों एवं शिक्षा के उच्च संस्थान में अवसाद पसरा है और उसके कारण छात्र यदि आत्महत्या करते हैं, तो यह इस उच्च शैक्षणिक संस्थानों एवं कोचिंग संस्थानों के भाल पर बदनुमा दाग है। यह माना जाता है कि देश की सबसे प्रखर प्रतिभाएं इन्हीं कोचिंग संस्थानों में पहुंचती हैं, जहां लगातार हो रही आत्महत्या की खबरें यह तो बताती ही हैं कि कोचिंग संस्थानों में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा, साथ ही वे बहुत से बच्चों और उनके अभिभावकों के सपने को तो तोड़ते ही हैं लेकिन उनकी उम्मीद की सांसों को ही छीन लेते हैं। बहुत जरूरी है कि कोचिंग संस्थान अपनी कार्यशैली एवं परिवेश में आमूल-चूल परिर्वतन करें ताकि छात्रों पर बढ़ते दबावों को खत्म किया जा सके, इन दबावों के कारण ही कुछ छात्र आत्महत्या जैसे कदम उठाने को मजबूर हो जाते हैं। जब छात्रों में अव्वल आने की मनोवृत्ति, कैरियर एवं बी नम्बर वन की दौड़ सिर पर सवार होती हैं और उसे पूरा करने के लिये साधन, क्षमता, योग्यता एवं परिस्थितियां नहीं जुटा पाते हैं तब कुंठित, तनाव एवं अवसादग्रस्त व्यक्ति को अन्तिम समाधान आत्महत्या में ही दिखता है। इनदिनों शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ती प्रतिस्पर्धा एवं अभिभावकों की अतिशयोक्तिपूर्ण महत्वाकांक्षाओं के कारण आत्महत्या की घटनाएं अधिक देखने को मिल रही है।

तीर्थ भारतवर्ष की आत्मा हैं

चार धाम यात्रा शुरू

डॉ.वेदप्रकाश

    तीर्थ भारतवर्ष की आत्मा हैं। प्रयागराज महाकुंभ के बाद चार धाम यात्रा शुरू हो चुकी है। भारतवर्ष के आत्म तत्व, जीवन तत्व, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक तत्व एवं समग्रता में यदि भारत को जानना है तो तीर्थ एक महत्वपूर्ण माध्यम हैं।  भारतभूमि समग्रता में देवभूमि है। यहां के कण कण में दिव्यता और भव्यता विद्यमान है। साक्षात प्रजापिता ब्रह्मा ने इस सृष्टि की रचना की है। हिमालय भगवान शिव का वास है तो क्षीरसागर में स्वयं भगवान विष्णु विराजते हैं। यही कारण है कि भारत की मूल चेतना आध्यात्मिक है। यहां न केवल मनुष्य अपितु जड़-चेतन सभी में परमात्मा का वास मानकर सभी के कल्याण की कामना की गई है। यही कारण है कि वैदिक चिंतन वसुधैव कुटुंबकम का उद्घोष करता है तो सर्वे भवंतु सुखिनः की कामना भी करता है। इसी प्रकार के मंत्र और उद्घोष यहां जन मन में संस्कार और विचार का निर्माण करते हैं।

यहां समष्टि कल्याण के लिए कहीं देव नदियां हैं, कहीं पर्वत हैं तो कहीं ऋषि, मुनि, संत और साधक निरंतर साधनारत रहते हैं। इस साधना के अथवा तप के बल से वह स्थान तीर्थ बनता चला जाता है। भारत में तीर्थ यात्रा की परंपरा अनादि है। समाज जीवन के लोग समय-समय पर ऐसे तप स्थलों अथवा तीर्थों पर जाकर साधनारत संतों के दर्शन करते हैं और उनके उपदेशों से ऊर्जा और सन्मार्ग का संदेश प्राप्त कर पुन: सांसारिक जीवन में जाकर अपने कार्य व्यापारों को पूरा करते हैं। विभिन्न तिथियां एवं पर्व उत्सवों पर स्वच्छ और निर्मल नदियों में स्नान सामान्य नहीं है अपितु उसमें संत और देव कृपा की दिव्यता विद्यमान रहती है।

तीर्थों की यह परंपरा स्वयं को पावन करने की परंपरा है। सर्वविदित है कि भारतीय ज्ञान, अध्यात्म एवं पूजा पद्धतियों पर अनेक बार हमले होते रहे हैं। विभिन्न मंदिरों के विध्वंश के बाद भी सनातन और अध्यात्म में जन आस्था बनी रही। परिणामस्वरूप  वे स्थान पुनः अधिकाधिक दिव्यता और भव्यता के साथ पुनर्स्थापित हो रहे हैं। श्रीअयोध्या जी में बना भव्य और दिव्य श्रीराम मंदिर इस बात का प्रमाण है। आदि शंकराचार्य ने प्रश्नोत्तर रतनमालिका नामक रचना में लिखा है- किं तीर्थमपि च मुख्यम् ? अर्थात तीर्थ में मुख्य क्या है? अथवा तीर्थ यात्रा का महत्व क्या है? इसका उत्तर देते हुए वे लिखते हैं- चित्तमलं यन्निवर्तयति। अर्थात तीर्थ वह है जो मन की अशुद्धता को दूर करता है। यहां ध्यान रहे तीर्थ यात्रा केवल भौतिक यात्रा नहीं है अपितु यह मन की शुद्धि और वासनाओं से मुक्ति प्राप्त करना है।

इतिहास प्रसिद्ध है कि केरल के कालड़ी में जन्मे आदि शंकराचार्य ने अद्वैत वेदांत दर्शन और सनातन धर्म की रक्षा के लिए हजारों वर्ष पूर्व उत्तर में ज्योर्तिमठ बद्रीनाथ, दक्षिण में श्रृंगेरी पीठ,पश्चिम में शारदा पीठ तो पूर्व में गोवर्धन पीठ की स्थापना की। उन्होंने देश के विभिन्न स्थानों पर अपनी यात्राओं के माध्यम से जन जागरण के साथ-साथ मठ और पीठों की स्थापना की। उन्होंने वहां साधना की जिससे वे स्थान आध्यात्मिक केंद्र अथवा तीर्थ बन गए। आज भी इन तीर्थों पर प्रतिदिन लाखों श्रद्धालु पहुंचते हैं। ध्यान रहे तीर्थ वहीं है जहां ऋषि, मुनि एवं संत समाज साधनारत हैं। तीर्थों को तीर्थत्व संतों की साधना से ही मिलता है।

श्रीरामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास ने अनेक स्थानों पर तीर्थराज प्रयाग के महत्व का उद्घाटन किया है-
सकल कामप्रद तीरथराऊ।
बेद बिदित जग प्रगट प्रभाऊ।।
वनवास के समय अयोध्या से निकलने के बाद श्रीराम, लक्ष्मण और सीता जी तीर्थराज प्रयाग सहित कई नदियों पर स्नान करते हैं और दिव्यता का अनुभव करते हैं। हाल ही में मां गंगा आरती के समय परमार्थ निकेतन ऋषिकेश के अध्यक्ष पूज्य स्वामी चिदानंद सरस्वती जी ने अपने उद्बोधन में कहा है कि- भारत की आत्मा तीर्थों में बसती है और तीर्थ वह हैं जो हमें पवित्र कर देते हैं, तीर्थ वही हैं जो हममें दिव्यता भरते हैं, तीर्थ वही हैं जो हमें तार देते हैं, तीर्थ में आने का यही मंतव्य है कि जीवन तीर्थ बने… तीर्थ हमें भीतर से जोड़ते हैं। विगत दिनों प्रयागराज स्थित संगम पर महाकुंभ समाप्त हुआ है जिसमें संत समाज के साथ-साथ देश विदेश के लगभग 67 करोड़ श्रद्धालुओं ने श्रद्धा और आस्था की डुबकी लगाई है। वहां पहुंचने वाला प्रत्येक व्यक्ति हर-हर गंगे, हर हर महादेव, जय प्रयागराज जैसे उद्घोष करता दिखाई दिया। हजारों संत लंबे समय तक निराहार रहकर साधनारत रहे। continued.

 अक्षय तृतीया के बाद से गंगोत्री, यमुनोत्री, बद्रीनाथ व केदारनाथ की चार धाम यात्रा शुरू हो चुकी है। देवभूमि उत्तराखंड स्थित ये चारों धाम अपनी दिव्यता-भव्यता, सकारात्मक ऊर्जा के लिए और साक्षात ईश्वर का वास होने से जगत प्रसिद्ध हैं। प्रतिवर्ष की भांति इस वर्ष भी यहां करोड़ों श्रद्धालु तीर्थ दर्शन के लिए पहुंचेंगे। ध्यान रहे जैसे-जैसे भौतिकता बढ़ रही है संसाधनों की अधिकता और अधिकाधिक पाने की महत्वाकांक्षा ने व्यक्ति के मानस को अशांत कर दिया है, ऐसे में स्वयं के और समूची मानवता के कल्याण हेतु तीर्थों का महत्व समझने, तीर्थ करने और तीर्थ बनने की आवश्यकता है।


डॉ.वेदप्रकाश