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जस्टिन ट्रूडो ने किया कनाडा को नेट ज़ीरो करने का वादा

लेकिन कनाडा का इतिहास रहा है इस दिशा में लक्ष्य निर्धारित कर उसे हासिल ना कर पाने का। 1992 से आज तक कनाडा अपना एक भी जलवायु लक्ष्य पूरा नहीं कर पाया।

आज, 2050 तक नेट-ज़ीरो ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन तक पहुंचने का संकल्प करते हुए, अमेरिका के पड़ोसी देश कनाडा ने जापान और दक्षिण कोरिया सहित, अन्य नेट ज़ीरो के लिए प्रतिबद्ध प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं की बढ़ती संख्या में अपनी शुमार कर ली।

यह खबर आज सुबह तब आयी जब कनाडा की लिबरल सरकार ने एक नया कानून, बिल- C12: कनाडाई नेट-ज़ीरो उत्सर्जन जवाबदेही अधिनियम (कैनेडियन नेट ज़ीरो एमिशन्स एकाउंटेबिलिटी एक्ट), पेश किया, जो पारित होने पर, 2050 तक कनाडा को नेट-ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन करने के लिए प्रतिबद्ध करेगा। कानून कनाडा को उत्सर्जन में कटौती के लिए राष्ट्रीय पंचवर्षीय अंतरिम लक्ष्यों को निर्धारित करने के लिए कानूनी ढांचा भी बनाता है, जिसमे 2030 के लिए पहला लक्ष्य निर्धारित किया गया है।

यह घटनाक्रम इस लिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि कनाडा के पड़ोसी अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प ने जहाँ पेरिस समझौते से अमेरिका को बाहर कर दिया था, वहीँ अमेरिकी राष्ट्रपति इलेक्ट जो बिडेन ने वादा किया है कि अमेरिका 2050 तक नेट ज़ीरो हो जायेगा। साथ ही चीन ने 2060 तक कार्बन न्यूट्रल होने का वादा किया है।

अब हालाँकि कनाडा 2050 तक कार्बन न्यूट्रल होने का लक्ष्य रखकर एक नेतृत्व सा दिखा तो रहा है, लेकिन कनाडा का इतिहास रहा है लक्ष्य निर्धारित कर हासिल ना कर पाने का। 1990 के दशक की शुरुआत से, कनाडा ने अभी तक एक एकल निर्धारित उत्सर्जन कटौती लक्ष्य को पूरा नहीं किया है। पेरिस में COP21 में, कनाडा ने 2030 तक 2005 के स्तर से उत्सर्जन में 30 प्रतिशत की कटौती करने की प्रतिबद्धता जताई – पूर्व कंजरवेटिव सरकार द्वारा उसी वर्ष पहले निर्धारित किया गया लक्ष्य। 2019 के संघीय चुनाव में, लिबरल्स ने लक्ष्य को बढ़ाने का वादा किया, लेकिन कनाडा 2030 के लक्ष्य को 77 मिलियन टन से चूकने वाला है, जो के एक वर्ष में 16 मिलियन यात्री कारों से उत्सर्जन के बराबर होगा।

कनाडा के जलवायु विशेषज्ञों ने इस नए कानून का स्वागत किया, जिसमे पहली बार एक कनाडाई सरकार द्वारा उत्सर्जन में कटौती के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए वर्तमान और भविष्य की सरकारों को जिम्मेदार ठहराने के लिए कदम उठाए गए हैं। लेकिन, कानून में कुछ प्रमुख तत्व गायब हैं जैसे यह सुनिश्चित करने के उपाय कि सरकार कई वर्षों के समय में कार्रवाई की आवश्यकता के बजाय महत्वाकांक्षी कार्रवाई पहले दिखाए। उदाहरण के लिए, कानून में 2025 के लिए लक्ष्य निर्धारित करने की आवश्यकता नहीं है। यह लक्ष्य प्राप्त करने के लिए कर्तव्य के बजाय कार्यों या प्रगति पर रिपोर्ट करने के लिए सरकार के कर्तव्य पर ज़्यादा ध्यान केंद्रित करता है।

पारित होने से पहले, कानून की हाउस ऑफ कॉमन्स में एक दूसरी रीडिंग होगी, फिर वो एक समिति के सामने पेश होगा, संभावना है कि यह पर्यावरण और स्थायी विकास पर स्थायी समिति (स्टैंडिंग कमिटी ऑन एनवायरोमेन्ट एंड सस्टेनेबल डेवलपमेंट) होगी, और फिर यह सीनेट जायेगा, और दोने में से किसी भी जगह पर इसे संशोधित किया जा सकता है। कनाडाई जलवायु विशेषज्ञ बिल में सुधार की मांग करेंगे, लेकिन पिछले पांच वर्षों में दुर्भाग्यपूर्ण प्रवृत्ति रही है कि विधायी प्रक्रिया के दौरान पर्यावरण बिल कमजोर हो जाते हैं। क्योंकि लिबरल सरकार वर्तमान में अल्पसंख्यक है, लिबरलों को सदन के माध्यम से कानून पारित करने के लिए कम से कम एक एनडीपी (NDP) या ब्लॉक के समर्थन की आवश्यकता होगी।

न्यूजीलैंड, डेनमार्क और यूनाइटेड किंगडम सहित अन्य देशों में कानून हैं जो अल्पकालिक और दीर्घकालिक (छोटे और लम्बे समय के) लक्ष्यों को बंधनकारक बनाते हैं। यूके के क्लाइमेट चेंज एक्ट ने दीर्घकालिक जलवायु लक्ष्य और पांच साल के अंतरिम लक्ष्यों को कानूनी रूप से बाध्यकारी बना दिया। यूनाइटेड किंगडम का उत्सर्जन 1990 के बाद से 45 प्रतिशत कम हो गया और 2008 में जलवायु परिवर्तन अधिनियम के पारित होने के बाद सबसे अधिक गिरावट आई, जबकि कनाडा का उत्सर्जन उसी अवधि में 21 प्रतिशत बढ़ गया।

कार्बन न्यूट्रलिटी के लिए लक्ष्य करना सही दिशा में एक कदम है और जी 7 और जी 20 दोनों में 2021 के लिए नेट-ज़ीरो एजेंडा के आसपास वैश्विक गति से मेल खता है, लेकिन जैसा कि अन्य देशों की कार्बन न्यूट्रलिटी प्रतिज्ञाओं के साथ है, कनाडा का इस लक्ष्य को प्राप्त कर पाना इस पर निर्भर करता है कि वह अपने 2030 उत्सर्जन लक्ष्य को बढ़ाए और अपने एनडीसी (NDC) को अपडेट करे। नया कानून कहता है कि अधिनियम लागू होने के छह महीने के भीतर एक नया 2030 लक्ष्य निर्धारित किया जाना चाहिए। क्षितिज पर पेरिस समझौते की वर्षगांठ के साथ, अगले कुछ हफ्तों के भीतर कनाडा को कई जलवायु घोषणाएं करने की उम्मीद है जिसमें लंबे समय से प्रतीक्षित नई जलवायु योजना, ग्रीन रिकवरी निवेश और संभावित रूप से, एक नया एनडीसी (NDC) विकसित करने पर एक अपडेट शामिल हैं।

पिछले पांच वर्षों में, लिबरल प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के अधीन, कनाडा ने जलवायु पर एक मिश्रित रुख दिया है। हालाँकि प्रधान मंत्री ट्रूडो ने जलवायु कार्रवाई के महत्व के बारे में बार-बार बात की है, लेकिन उन्होंने अल्बर्टा आयल सेंड्स (तेल रेत) को भी चैंपियन किया है। (कनाडा में, 1990 और 2018 के बीच, तेल और गैस क्षेत्र कार्बन प्रदूषण का सबसे तेजी से बढ़ने वाला स्रोत था, जिसका मुख्य कारण कार्बन-सघन आयल सेंड्स (तेल रेत) उत्पादन में वृद्धि है। 2017 में, तेल और गैस देश के ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के 27 प्रतिशत के लिए जिम्मेदार थे।)

• कोविड-19 आर्थिक सुधार प्रयासों के हिस्से के रूप में, कनाडा ने स्वच्छ ऊर्जा के लिए USD $ 7.95 मिलियन की तुलना में जीवाश्म ईंधन का समर्थन करने के लिए कम से कम $ 14.3 बिलियन अमरीकी डालर के लिए प्रतिबंधिता का वचन दिया है। कोविड-19 से पहले भी, सभी जी20 देशों में से कनाडा ने जीवाश्म ईंधन के लिए सार्वजनिक वित्त में प्रति जीडीपी (GDP) के आधार पर सबसे अधिक खर्च किया।

• राष्ट्रपति-इलेक्ट जो बिडेन के साथ अपने पहले आह्वान में प्रधान मंत्री ट्रूडो ने न केवल जलवायु परिवर्तन पर चर्चा की, उन्होंने कीस्टोन एक्सएल पाइपलाइन का मुद्दा भी उठाया, जो संयुक्त राज्य अमेरिका में क्रूड (कच्चे) आयल सेंड्स (तेल रेत) को ले जाएगा।

• 2018 में, जब किंडर मॉर्गन, ट्रांस माउंटेन पाइपलाइन के मालिकों ने पाइपलाइन मार्ग (टीएमएक्स/TMX परियोजना) का विस्तार करने की योजना को त्याग दिया, तो कनाडा सरकार ने इसे खरीदने के लिए $ 3.4 बिलियन अमरीकी डालर खर्च किए।

नया कानून 2050 तक नेट ज़ीरो उत्सर्जन प्राप्त करने के उपायों और क्षेत्रीय रणनीतियों सहित सलाह देने के लिए एक नेट ज़ीरो सलाहकार समूह के लिए योजना देता है। कनाडा के जलवायु विशेषज्ञ चाहते हैं कि सलाहकार समूह सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक और तकनीकी दिमाग का प्रतिनिधित्व करें, जो के लक्ष्य, बजट और योजनाओं पर सलाह देंगे और साथ-साथ स्वतंत्र रूप से निगरानी रक्खें और प्रगति पर सरकार को रिपोर्ट करें।

कार्बन मूल्य निर्धारण लिबरल जलवायु कार्रवाई का एक महत्वपूर्ण स्तंभ रहा है। एक शेष बाधा यह है कि ओंटारियो, अल्बर्टा और सस्केचेव्न संघीय कार्बन मूल्य के लिए अदालत में चुनौतियों का अनुसरण कर रहे हैं, जो वर्तमान में $ 30 टन प्रति टन है और जिसके 2022 तक $ 50 टन प्रति टन तक बढ़ने की उम्मीद है। सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई सितंबर में हुई और यह अज्ञात है कि प्रांतों के दावे, कि संघीय सरकार अपने अधिकार क्षेत्र से परे गया है, पर निर्णय कब आएगा।

क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क कनाडा की कार्यकारी निदेशक, कैथरीन अब्रू ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा, “आज कनाडा ने खाली जलवायु लक्ष्यों को स्थापित करने और उन तक पहुंचाने में विफल रहने के अपने चक्र को तोड़ने में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया। हालांकि, इस विधेयक को वास्तव में वर्तमान सरकारों के साथ-साथ भविष्य की सरकारों द्वारा हमारी जलवायु प्रतिबद्धताओं के लिए जवाबदेह बनाने के लिए विधायी प्रक्रिया के माध्यम से आगे बढ़ने के लिए बहुत सारे काम किए जाने हैं ताकि कनाडा कभी भी एक और जलवायु वादा नहीं तोड़े।”

मुन्ना राजा

मुन्ना राजा धरमपुरा के,
सचमुच के हैं राजा |
जिसका चाहें ढोल बजा दें ,
जिसका चाहें बाजा |

पांच बजे सोकर उठते हैं ,
ब्रश मंजन करते हैं “
सारे काम फ़टाफ़ट करके ,
फिर कसरत करते हैं |
ताल ठोककर कहते हैं फिर,
कुश्ती लड़ले आजा |

कौन लडे अब उस मोटू से ,
सब डरते हैं भाई |
जो भी उससे लड़ा अभी तक ,
सबने टांग तुड़ाई |
टांग देख लो कल्लूजी की ,
टूटी ताजा -ताजा |

नाक तोड़ दी रामूजी की ,
मोहनजी की जांघ |
काम सभी मुन्ना के होते ,
बिलकुल ऊँट पटांग |
खुली छूट है सबसे कहते ,
आजा हाथ तुड़ाजा |

शौक जिन्हें होता तुड़वाता ,
हाथ पैर मुन्ना से,
लट्टू जैसा उन्हें घुमा वह,
देता है गन्नाके |
कहता है जिसको पिटना हो,
खुला हुआ दरवाजा।

गंगा हितों की अनदेखी के मार्ग

अरुण तिवारी

नदियों के अविरल-निर्मल पक्ष की अनदेखी करते हुए उनकी लहरों पर व्यावसायिक सवारी के लिए जलमार्ग प्राधिकरण। पत्थरों के अवैध चुगान व रेत के खनन के खेल में शामिल खुद शासन-प्रशासन के नुमाइंदे। गंगा की ज़मीन पर पटना की राजेन्द्र नगर परियोजना। लखनऊ में गोमती के सीने पर निर्माण। दिल्ली में यमुना की ज़मीन पर विद्युत संयंत्र, अक्षरधाम, बस अड्डा, मेट्रो अड़्डा, रिहायशी-व्यावसायिक इमारतें आदि आदि। प्रकृति विरुद्ध ऐसे कृत्यों के दुष्परिणाम हम समय-समय पर भुगतते रहते हैं; बावज़ूद इसके शासन-प्रशासन द्वारा खुद अपने तथा समय-समय पर अदालतों द्वारा तय मानकों, क़ानूनों, आदेशों व नियमों की धज्जियां उड़ाने के काम जारी हैं। इसकी ताज़ा बानगी दो ख़ास सड़क परियोजनायें हैं: चारधाम और गंगा एक्सप्रेस-वे।

चारधाम ऑल वेदर रोड : मानकों की अनदेखी

बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री – उत्तराखण्ड चारधाम यात्रा के मुख्य तीर्थ यही हैं। ये चारों धाम क्रमशः अलकनंदा, मंदाकिनी, भगीरथी और यमुना के उद्गम क्षेत्र में स्थित हैं। चारों धामों को आपस में जोड़ने वाली सड़कों पर वाहनों की गति तेज करने के लिए चारधाम ऑल वेदर रोड परियोजना नियोजित की गई है। परियोजना के नियोजक, परियोजना की सड़कों को 12 मीटर चौड़ा करने की जिद्द पर अडे़ हैं, जबकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर गठित श्री रवि चोपड़ा की अध्यक्षता वाली हाईपावर कमेटी ने चारधाम ऑल वेदर रोड परियोजना की सड़कों की चौड़ाई को 5.5 मीटर तक सीमित करने की सिफारिश की है। इस सिफारिश का आधार, केन्द्रीय सड़क परिवहन मंत्रालय द्वारा 23 मार्च, 2018 को जारी एक परिपत्र है। जबकि केन्द्र सरकार ने अपने ही परिपत्र को यह कहते हुए नकार दिया है कि परिपत्र भविष्य की परियोजनाओं पर लागू होता है, चारधाम ऑल वेदर रोड परियोजना पर नहीं।

हिमालयी हितों पर भारी निजी हित

पूछने लायक सवाल है कि यदि परिपत्र में दिए मानकों का मंतव्य पर्यावरणीय क्षति को न्यून करना है तो फिर उन्हे लागू करने के लिए वर्तमान और भविष्य में भेद करने का औचित्य ? ऐसे में सत्तारुढ़ दल पर किसी खास के हितों के लिए पर्यावरणीय हितों की अनदेखी का आरोप लगे तो क्या ग़ल़त है ? गौरतलब है कि शासन ने ऐसा सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह याद दिलाने के बावजूद किया कि चारधाम ऑल वेदर रोड परियोजना, एक निर्माणाधीन परियोजना है और परिपत्र के मानक यहां भी लागू होते हैं। इतना ही नहीं, चारधाम परियोजना को शासन के मनचाहे तरीके से निर्मित कराने के लिए कमेटी अध्यक्ष हस्ताक्षरित रिपोर्ट पर गौर करने की बजाय, कुछ सदस्यों द्वारा अलग से रिपोर्ट पेश कराने का खेल खेला गया।….और अब शासन, संवैधानिक कायदों की धज्जियां उड़ाते हुए हाईपावर कमेटी के संचालन में लगातार अनैतिक हस्तक्षेप कर रहा है। उत्तराखण्ड शासन भी पर्यावरण संबंधी मानकों व वैज्ञानिक आधारों की बजाय, बहुमत-अल्पमत आधारित राय का राग अलाप रहा है; मामला विचाराधीन होने के बावज़ूद निर्माण कार्य को जारी रखे हुए है। श्रीनगर गढ़वाल से मुनि की रेती तक के नदी तटीय क्षेत्रों पर कुछ प्रतिबंध संबंधी अधिसूचना जारी कर ज़रूर दी गई है, किंतु निर्माता एजेन्सियां भी निर्माण के दौरान मलवे को नदी भूमि पर डंप करने से नहीं चूक रही। वन क़ानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए दरख्तों को काटने से भी उन्हे कोई परहेज नहीं है। जल-विद्युत परियोजनाओं के निर्माण तथा संचालन के दौरान हिमालयी हितों की अनदेखी पहले से जारी है ही।
यह उत्तराखण्ड की सरकार ही है, जो अपने ही प्रदेश में जन्मी यमुना-गंगा को जीवित मानने वाले अपने ही प्रदेश के हाईकोर्ट के आदेश के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई। क्या प्रकृति हितैषी कदमों को दलों के आने-जाने अथवा कारपोरेट स्वार्थों से प्रभावित होना चाहिए ? नहीं, किंतु भागीरथी घाटी को पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील घोषित करने वाली अधिसूचना के मूल मंतव्य की अनदेखी कर तैयार ज़ोनल मास्टर प्लान इसी रवैये का प्रदर्शन है। राज्य के एकमात्र शिवालिक हाथी रिजर्व संबंधी लागू अधिसूचना को भी रद्द करने की तैयारी की ख़बरें भी अख़बारों में है। क्या हम यह बर्दाश्त करें कि ये सभी न तो वर्ष उत्तराखण्ड आपदा-2012 के कारण हुए भयावह नुकस़ान के कारणों से कुछ सीखने को राजी हैं और न ही भूगर्भीय प्लेटों में बढ़ती टकराहटों से संभावित विध्वंसों की आहटों से ? तिस पर मज़ाक करता यह बयान कि शासन गंगा की अविरलता-निर्मलता सुनिश्चित करने के लिए संकल्पबद्ध है !!

दुःखद है कि गंगा का उपहास सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है। गोमती किनारे लखनऊ के बाद, अब मथुरा में राया नगर बसाने के बहाने यमुना रिवरफ्रंट योजना को क्या कहें ? गोमुख की चाहे एक बूंद, प्रयागराज न पहुंचती हो, लेकिन राजनैतिक बयान गोमुख से प्रयागराज को सड़क मार्ग से जोड़ने के शासकीय इरादे पर अपनी पीठ ठोंक रहे हैं। इस इरादे को पूरा करने के लिए गंगा एक्सप्रेस-वे परियोजना को ज़मीन पर उतारने का काम शुरु हो गया है।

पुनः प्रस्तुत गंगा एक्सप्रेस-वे

गौर कीजिए कि गंगा एक्सप्रेस-वे का प्रस्ताव पहली बार वर्ष 2007 में अस्तित्व में आया था। तब इसका रूट नोएडा से बलिया तक 1047 किलोमीटर लंबा था। सर्वप्रथम इसे उत्तर प्रदेश के सिंचाई विभाग द्वारा बाढ़ रोकने के उपाय के रूप में प्रस्तावित किया गया था। विरोध होने पर लोक निर्माण विभाग ने इसे सड़क के रूप में प्रस्तावित किया था। गंगा-यमुना एक्सप्रेस-वे प्राधिकरण बाद में अस्तित्व में आया। कर्जदाता विश्व बैंक ने इसमें खास रुचि दिखाई। कालातंर में गंगा एक्सप्रेस-वे को गंगा के लिए नुक़सानदेह मानते हुए उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट द्वारा इसकी पर्यावरणीय मंजूरियों को रद्द कर दिया गया। इसके साथ ही इसका काम ठ्प्प पड़ गया।

अब योगी सरकार ने गंगा से 10 कि.मी. की दूरी पर निर्मित करने के बदलाव के साथ गंगा एक्सप्रेस-वे परियोजना को पुनः प्रस्तुत कर दिया है। मुआवजा राशि को भी पहले से कई गुना ज्यादा कर दिया गया है। गंगा एक्सप्रेस-वे का ताज़ा प्रस्ताव फिलहाल उत्तर प्रदेश में उत्तराखण्ड सीमा से लेकर वाया मेरठ, प्रयागराज, वाराणसी, बलिया तक प्रस्तावित है। ऊंचाई 08 से 10 मीटर, लेन फिलहाल 06, आगे चलकर 08। कुल 12 चरण, सम्पन्न करने का लक्ष्य वर्ष 2024। परियोजना की कमान, अब उत्तर प्रदेश एक्सप्रेस-वे औद्योगिक विकास प्राधिकरण (यूपीडा) के हाथ है। यूपीडा एक्सप्रेस वे तथा उसके दोनो ओर 130-130 मीटर चौड़ी लेन के अलावा भविष्य में उद्योगों को भी स्थापित करने के लिए भी अतिरिक्त भूमि अधिग्रहित करेगा। गंगा प्रवाह के पांचों राज्यों की परियोजनाओं पर निगाह डालें तो कह सकते हैं कि असल इरादा, गंगा एक्सप्रेस-वे को गंगा जलमार्ग के साथ जोड़कर दिल्ली से हावड़ा तक व्यापारिक व औद्योगिक लदान-ढुलान को बेरोकटोक गति प्रदान करना तो है ही, जल-संकटग्रस्त उद्योगों को गंगा का मनचाहे उपयोग की छूट देना भी है।

बुनियादी प्रश्न: तीन आधार

बुनियादी प्रश्न है कि क्या योगी सरकार द्वारा किए गए बदलाव मात्र से विरोध के वे सभी आधार खत्म हो गए, जिनकी बिना पर उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट ने गंगा एक्सप्रेस-वे परियोजना की पर्यावरणीय मंजूरी को रद्द कर दिया था ?

याद कीजिए कि शुरुआती प्रस्ताव के विरोध के तीन मुख्य आधार थे :
पहला, यदि गंगा एक्सप्रेस-वे निर्माण का मकसद बाढ़ नियंत्रण है तो बाढ़ नियंत्रण के ज्यादा सस्ते व सुरक्षित विकल्प मौजूद हैं। शासन को उन्हे अपनाना चाहिए। गंगा के ऊंचे तट की ओर नगर बसे हैं। निचले तट की ओर एक्सप्रेस-वे बना देने से गंगा दोनो ओर से बंध जाएगी; लिहाजा, बाढ़ का वेग बढे़गा। भूमिगत् जल के रिसाव में तीव्रता आएगी। परिणामस्वरूप, कटान और नुक़सान…दोनो बढेंगे। ऊंचे तट भी टूटेंगे। बसावटें हिलने को मज़बूर होंगी। एक्सप्रेस-वे बाढ़ के दुष्प्रभाव कम करने की बजाय, बढ़ाएगा।

विरोध का दूसरा आधार यह था कि अधिग्रहित भूमि तो किसान के हाथ से जाएगी ही; एक्सप्रेस-वे बनने से मृदा क्षरण, बालू जमाव में तेज़ी आएगी। इस कारण एक्सप्रेस-वे और गंगा के बीच की हजारों एकड़ बेशकीमती उपजाऊ भूमि दलदली क्षेत्र में तब्दील होने से किसान अपनी शेष भूमि पर भी खेती नहीं कर सकेगा। जाहिर है कि ऐसी भूमि के गैर-कृषि उपयोग की कोशिशें होंगी। काशी हिंदू विश्वविद्यालय, सिविल इंजीनियरिंग विभाग में गंगा प्रयोगशाला के संस्थापक प्रो. यू के चौधरी का निष्कर्ष था कि यदि गंगा एक्सप्रेस-वे बना तो अगले एक दशक बाद उत्तर प्रदेश करीब एक लाख एकड़ भूमि का कृषि योग्य रकबा खो देगा। आबादी बढ़ रही है। ऐसे में उत्तर प्रदेश में खेती योग्य रकबे में लगातार हो रही घटोत्तरी और मौसमी बदलावों के कारण उपज उत्पादन से नई चुनौतियां पैदा होंगी ही। इस तरह गंगा एक्सप्रेस-वे उपज और आय में कमी का वाहक साबित होगा। यह घातक होगा।

विरोधियों द्वारा पेश तीसरा प्रश्न यह था कि यदि मक़सद सड़क निर्माण है, तो सड़क को गंगा किनारे-किनारे बनाने की जिद्द क्यों ? कृपया इसे कहीं और ले जाइए। पहले राजमार्गों को बेहतर बनाइए। उनसे जुड़ी अन्य छोटी सड़कों को बेहतर कीजिए, गंगा एक्सप्रेस-वे की ज़रूरत ही नहीं बचेगी।

पर्यावरण विशेषज्ञ चिंतित थे कि एक्सप्रेस-वे पर चलने वाली गाड़ियों लगातार छोड़ी जाने वाली गैसों के कारण वाष्पीकरण की रफ्तार बढ़ेगी। गंगाजल की मात्रा घटेगी। गंगाजल में ऑक्सीजन की मात्रा घटेगी। चूंकि गंगा एक्सप्रेस-वे के किनारे औद्योगिक व संस्थागत इकाइयों का निर्माण प्रस्तावित है; अत़ जहां वे एक ओर जहां जल-निकासी करेंगी, वहीं दूसरी ओर उनके मलीन बहिस्त्राव व ठोस कचरे के चलते गंगा, शोषण-प्रदूषण का शिकार मात्र बनकर रह जाएगी। भूले नहीं कि भारत देश में ऐसा नहीं होने की गारंटी न कभी दी जा सकी है और हमारे रवैये के चलते न निकट भविष्य में देना संभव भी नहीं होगा।

विरोध का एक अन्य आधार, किसी वजह से परियोजना के बाधित हो जाने पर अधिग्रहित की गई भूमि के विकासकर्ता की हो जाने की शर्त थी। कम मुआवजे को लेकर भी विरोध था। तत्कालीन मायावती सरकार द्वारा आंदोलन के दमन की कोशिशें हुईं। परिणामस्वरूप हुई मौत .व अन्य नुक़सान भी विरोध को आगे ले जाने का आधार बनी।

लालच के खिलाफ खड़ा विज्ञान

गौर करने योग्य विरोधाभासी तथ्य यह है कि गंगा एक्सप्रेस-वे को लेकर धरना-प्रदर्शन इस बार भी है, किंतु इस बार मकसद कृषि भूमि अथवा गंगा के पर्यावरण की सुरक्षा नहीं है। बिजनौर, बुलन्दशहर, फर्रुखाबाद आदि ज़िलों के प्रदर्शनकारियों की मांग हैं कि गंगा एक्सप्रेस-वे उनके इलाके से होकर जाना चाहिए। वजह, अधिक मुआवजे का लालच है। इसे चाहे ज़माने का फेर कहें या मुद्दे की बजाय, दलों के पक्ष-विपक्ष अनुसार अपना रवैया बदलने की बढ़ती जन-प्रवृत्ति; वैज्ञानिक तथ्य इसके पक्ष में नहीं है।

वैज्ञानिक तथ्य कह रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में गंगा बाढ़ क्षेत्र की अधिकतम चौड़ाई – 28 किलोमीटर दर्ज है। खासकर, प्रयागराज में यमुना व फर्रुखाबाद में रामगंगा के मिलने तथा हरिद्वार के बाद के इलाके में गंगा बाढ़ क्षेत्र में बढोत्तरी होती है। गंगा बाढ़ क्षेत्र की सबसे अधिक – 42 मीटर की चौड़ाई बिहार के मुंगेर इलाके के बाद का प्रवाह मार्ग है। यह तथ्य, आई आई टी समूह द्वारा किए गए अध्ययन का हिस्सा है, जिसने राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण के लिए पर्यावरण प्रबंधन योजना तैयार की। उक्त तथ्य के आइने में विचार करना चाहिए कि योगी सरकार द्वारा गंगा एक्सप्रेस-वे को गंगा से मात्र 10 किलोमीटर की दूरी पर प्रस्तावित करना, आइने की अनदेखी है या नहीं ?

गुड गवर्नेन्स की दरकार

मुआवजा राशि को छोड़ दें तो तथ्य यह है कि गंगा एक्सप्रेस-वे का विरोध करते पर्यावरणीय और कृषि हितैषी अन्य आधार, वर्ष 2007 की तुलना में आज ज्यादा प्रासंगिक हैं। प्रश्न यह है कि क्या इसके बावजूद भी हम गंगा एक्सप्रेस-वे को इसके प्रस्तावित स्वरूप में स्वीकार करें ? शुरुआती प्रस्ताव का विरोध करने वालों में शामिल जल बिरादरी, कृषि भूमि बचाओ मोर्चा, फाॅरवर्ड ब्लाॅक, भाकपा (माक्र्सवादी), समेत जैसे ज़मीनी संगठनों व नागरिकों को तो इस पर विचार करना ही चाहिए। खासकर, भारतीय जनता पार्टी विधायक दल के तत्कालीन नेता ओम् प्रकाश सिंह को इस प्रश्न का जवाब अवश्य देना चाहिए; चूंकि सोनिया गांधी, अटल जी, जनेश्वर मिश्र, अमरसिंह, राजबब्बर समेत उत्तर प्रदेश के कई तत्कालीन सांसदों को पत्र लिखकर उन्होने भी गंगा एक्सप्रेस-वे परियोजना को रोकने की गुहार लगाई थी।

यदि तंत्र खुद अपने द्वारा तय मानकों, आदेशों आदि की अनदेखी करने लगे और लोक को लालच हो जाए; ऐसे में नदियों के लोकतांत्रिक अधिकारों की सुरक्षा तो खतरे में पड़ेगी ही। कहना न होगा कि भारत की नदियों की अविरलता-निर्मलता को आज पर्यावरणीय समझ से ज्यादा, गुड गवर्नेन्स की दरकार है। निजी स्वार्थों के लिए प्रकृति हितैषी तथ्यों की अनदेखी न होने पाए; लोकतंत्र के चारों स्तंभों को मिलकर यह सुनिश्चित करना चाहिए। लोकतंत्र की मांग यही है। क्या हम पूरी करेंगे ?गंगा हितों की अनदेखीयदि तंत्र खुद अपने द्वारा तय मानकों, आदेशों आदि की अनदेखी करने लगे और लोक को लालच हो जाए; ऐसे में नदियों के लोकतांत्रिक अधिकारों की सुरक्षा तो खतरे में पड़ेगी ही। कहना न होगा कि भारत की नदियों की अविरलता-निर्मलता को आज पर्यावरणीय समझ से ज्यादा, गुड गवर्नेन्स की दरकार है। निजी स्वार्थों के लिए प्रकृति हितैषी तथ्यों की अनदेखी न होने पाए; लोकतंत्र के चारों स्तंभों को मिलकर यह सुनिश्चित करना चाहिए। लोकतंत्र की मांग यही है। क्या हम पूरी करेंगे ?

UP-MP में लव जिहाद कानून लाने की तैयारियां तेज

लव जिहाद का मुद्दा चर्चा में बना ही रहता है क्योंकि यह किसी राज्य, क्षेत्र या देश का मामला नहीं है बल्कि यह एक विश्वव्यापी मुद्दा है। जहाँ पर भी मुस्लिम समाज अल्पसंख्यक है वहाँ की बहुसंख्यक आबादी अक्सर यह आरोप लगाती रहती है कि मुस्लिम युवक हमारी बेटियों को बहकाकर विवाह कर लेते हैं, फिर उनका धर्मपरिवर्तन करके उन्हें अपने धर्म में शामिल कर लेते हैं। जहाँ मुस्लिम बहुसंख्यक है वहाँ लव-जिहाद के मुद्दे को उठाने की हिम्मत कोई कर ही नहीं सकता इसलिये यह मुद्दा मुस्लिम अल्पसंख्यक आबादी वाले देशों का ही है। 

लव जिहाद पर कानून बनाने की मांग तेज होती जा रही है। अभी केन्द्र सरकार ने तो इस मामले में कुछ नहीं कहा है पर भाजपा शासित राज्यों में इसकी शुरुआत हो चुकी है। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक हो या गुजरात सब इस पर कानून बनाने के लिए मसौद तैयार करने में लग गए हैं। वहीं कांग्रेस शासित राज्य अन्य राज्यों द्वारा इस तरह का कानून लाने का विरोध कर रहे हैं।

उत्तर प्रदेश के बाद अब कई बीजेपी शासित राज्यों ने कहा है कि वे भी लव जिहाद के लिए कानून बनाएंगे। अब छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का बयान आया है। उन्होंने कहा है, “भाजपा के कई नेताओं के परिवारवालों ने दूसरे धर्म में शादी की है। मैं उन भाजपा नेताओं से पूछना चाहता हूं कि क्या ये शादियां भी लव जिहाद की परिभाषा के अंतर्गत आएंगी?”

राजनीतिक चर्चाओं में लव जिहाद कहे जाने वाले मामले को ही गैर कानूनी धर्मांतरण माना जाएगा और ऐसे मामले में दोषी पाए जाने पर 5 से 10 साल की सजा का प्रावधान किया जा सकता है। मध्य प्रदेश सरकार ने अपने प्रस्तावित बिल में पांच साल की सजा का प्रावधान किया है। देश के अन्य राज्य भी इस तरह का कानून बनाने की तैयारी है। आम बोलचाल में लव जिहाद कहे जाने वाले मामलों में बहला-फुसलाकर, झूठ बोलकर या जबरन धर्मांतरण कराते हुए अंतर धार्मिक विवाह किए जाने की घटनाओं को शामिल किया जाता है। प्रस्तावित कानून सभी धर्मों के लोगों पर समान रूप से लागू होगा। 

आपको बता दें कि उत्तर प्रदेश के गृह विभाग ने लव जिहाद के खिलाफ प्रस्तावित कानून का मसौदा तैयार कर लिया है। यह मसौदा परीक्षण के लिए विधायी विभाग को भेज दिया गया है। इसे संभवत: अगली कैबिनेट बैठक में पेश किया जा सकता है। विभाग ने कानून का जो मसौदा तैयार किया है उसमें ‘लव जिहाद’ शब्द का जिक्र नहीं है। इसे गैर कानूनी धर्मांतरण निरोधक बिल कहा जा रहा है।

अशोक गहलोत ने कहा ‘लव जिहाद’ का शब्द बीजेपी ने गढ़ा है

राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने ‘लव जिहाद’ को लेकर शुक्रवार को भारतीय जनता पार्टी पर निशाना साधा था। उन्होंने कहा था, यह शब्द भाजपा ने देश को बांटने व सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने के लिए गढ़ा है। वहीं, भाजपा नेताओं ने गहलोत पर पलटवार करते हुए उनपर वोट बैंक की राजनीति करने का आरोप लगाया। गहलोत ने इस बारे में ट्वीट में लिखा कि लव जिहाद शब्द भाजपा ने देश को बांटने व सांप्रदायिक सद्भाव को बिगाड़ने के लिए गढ़ा है। शादी-विवाह व्यक्तिगत आजादी का मामला है जिसपर लगाम लगाने के लिए कानून बनाना पूरी तरह से असंवैधानिक है और यह किसी भी अदालत में टिक नहीं पाएगा। प्रेम में जिहाद का कोई स्थान नहीं है।

एक ओर जहां शादी के नाम पर महिलाओं के कथित धर्मांतरण पर रोक लगाने के लिए बीजेपी शासित कई राज्य कानून बनाने पर विचार कर रहे हैं, वहीं उत्तराखंड सरकार प्रदेश में ऐसी शादियों को प्रोत्साहित कर रही है। इसके लिए किसी अन्य जाति या धर्म के व्यक्ति से शादी करने वालों को 50,000 रुपये की प्रोत्साहन राशि दी जाती है।

प्रदेश के समाज कल्याण विभाग के अधिकारियों ने बताया कि यह प्रोत्साहन राशि कानूनी रूप से पंजीकृत अंतरधार्मिक विवाह करने वाले सभी कपल्स को दी जाती है। अंतरधार्मिक विवाह किसी मान्यता प्राप्त मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर या देवस्थान में संपन्न होना चाहिए। उन्होंने बताया कि अंतरजातीय विवाह करने पर प्रोत्साहन राशि पाने के लिए कपल में से पति या पत्नी किसी एक का भारतीय संविधान के अनुच्छेद 341 के अनुसार, अनुसूचित जाति का होना आवश्यक है।

हालांकि प्रोत्साहन राशि बांटे जाने पर मचे बवाल के बाद प्रदेश सरकार ने शनिवार को कहा कि इस मामले में जारी आदेश को ठीक करने की कार्रवाई की जा रही है। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के सलाहकार आलोक भट्ट ने सोशल मीडिया में जारी एक बयान में कहा है कि संशोधन की कार्रवाई में समय लगेगा मगर इस आदेश को ठीक कर दिया जाएगा। उत्तराखंड सरकार के अंतरधार्मिक विवाह करने वाले दंपतियों को पचास हजार रुपए की प्रोत्साहन राशि दिए जाने के मामले ने तब तूल पकड़ लिया जब टिहरी के समाज कल्याण अधिकारी ने इस संबंध में जानकारी देने के लिए एक प्रेस नोट जारी किया।

उत्तर प्रदेश में लव जिहाद पर जल्द ही सख्त कानून बनाया जाएगा। इसको लेकर योगी सरकार उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्मांतरण प्रतिषेध अध्यादेश-2020 लाएगी। इसके तहत जबरन धर्मांतरण पर पांच साल तथा सामूहिक धर्मांतरण कराने के मामले में 10 साल तक की सजा का प्रावधान किए जाने की तैयारी है। यह अपराध गैरजमानती होगा। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने आपराधिक मानसिकता जबरन धर्मांतरण के मामले को लेकर कड़ा कानून बनाने की घोषणा की थी, जिसके बाद गृह विभाग ने लव जिहाद को लेकर अध्यादेश का मसौदा तैयार किया है।

मसौदे में जबरन, प्रलोभन देकर या विवाह के जरिये धर्म परिवर्तन कराने को अपराध की श्रेणी में रखने की बात कही गई है। कपटपूर्वक धर्म परिवर्तन के मामलों में आरोपी को ही साबित करना होगा कि ऐसा नहीं हुआ। फिलहाल, न्याय विभाग इस पर मंथन कर रहा है। पूर्व में विधि आयोग ने जबरन धर्मांतरण पर रोकथाम कानून बनाने के लिए यूपी फ्रीडम ऑफ रिलिजन बिल-2019 का प्रस्ताव शासन को सौंपा था। आयोग ने दूसरे राज्यों में लागू कानून की बारीकियों को देखते हुए अपना प्रस्ताव बनाया था।

बर्मा की वर्तमान रोहिंग्या समस्या के पीछे भी लव जिहाद की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। बौद्ध नेता अशीन विराथू का आरोप है कि मुस्लिम युवक उनकी लड़कियों को अपने प्रेमजाल में फँसाकर शादियाँ कर लेते हैं और ज्यादा बच्चे पैदा करके आबादी बढ़ाकर जनसंख्या संतुलन बिगाड़ रहे हैं। बौद्ध समाज को सारी दुनिया में सबसे अहिंसक और शान्त स्वभाव का माना जाता है लेकिन यही समाज बर्मा में विराथू के नेतृत्व में रोहिंग्याओं के खिलाफ हिंसक हमले कर रहा है। यूरोप में भी कट्टरवादी ईसाई संगठन मुस्लिमों पर कुछ ऐसा ही आरोप लगा रहे हैं। लव-जिहाद सिर्फ भारत में प्रचलित शब्द नहीं है। यह किसी न किसी रूप में सारी दुनिया में देखने को मिल रहा है।

देखा जाये तो लव जिहाद अपने आप में सही शब्द नहीं है क्योंकि जहाँ जिहाद होता है वहाँ लव के लिये कोई जगह नहीं होती और जहाँ लव होता है वहां जिहाद की कोई जरूरत ही नहीं है। इस्लामिक धारणा के अनुसार जिहाद पवित्र शब्द हो सकता है लेकिन वर्तमान में जिहाद का मतलब मासूम और निर्दोष महिलाओं, पुरूषों और बच्चों का शोषण-उत्पीडऩ तथा बर्बर हत्याएँ करना ही है। दुनिया भर में इस्लाम फैलाने के लिये दनदनाते घूम रहे आतंकवादी मासूम लोगों की हत्याएं जिहाद के नाम पर ही कर रहे हैं। अमेरिका में हुआ लोन वुल्फ हमला करने वाला आतंकवादी अल्लाह-हू-अकबर का नारा लगाकर मासूम बच्चों को अपने ट्रक से कुचल रहा था। 

इसी जिहाद का एक हिस्सा है लव जिहाद। भारत में इसे हिंदू संगठनों का बेमतलब का हो हल्ला करार दिया जाता है जबकि सच यह है कि इससे कहीं पहले यूरोप में लड़कियों ने यह मामला उठाया है कि उन्हें गलत तरीके से फँसाकर शादियाँ की गई हैं और उसके बाद उनका जबरन धर्म-परिवर्तन किया गया है। अक्सर इसे हल्के में लिया जाता है और कहा जाता है कि ये कोरी बकवास है जबकि मेरा मानना है कि सच से आँखें चुराने से सच झूठ नहीं हो जाता है। लव-जिहाद एक ऐसा सच है जिससे इन्कार करना मूर्खता ही होगी लेकिन यह भी एक सच है कि हिंदू-मुस्लिम युवक और युवतियों के बीच होने वाले सारे प्रेम-विवाहों को लव-जिहाद का नाम नहीं दिया जा सकता। एक सच यह भी है कि कौन सा प्रेम विवाह लव-जिहाद नहीं है, इसकी पहचान करना भी मुश्किल है। 

अगर मुस्लिम युवकों को धर्म ज्यादा प्यारा है तो उन्हें हिंदू लड़कियों से दूर रहना चाहिये। हिंदू संगठन भी इसलिये इन प्रेम विवाहों के खिलाफ है कि इस तरह से हिंदुओं की आबादी कम करने का प्रयास चल रहा है। केरल में ऐसे कई संगठन है जो सुनियोजित तरीके से धर्म परिवर्तन करवा रहे हैं और लव-जिहाद भी इसमें से एक तरीका है जिससे इस्लाम धर्म में लोगों को परिवर्तित किया जा रहा है। किसी भी व्यक्ति को लालच देकर या धमकाकर धर्म परिवर्तन कराना कानूनी रूप से भी गलत है और धार्मिक रूप से भी। मुस्लिम विद्वान भी यह कहते हैं कि किसी भी गलत तरीके से धर्मपरिवर्तन उचित नहीं है।

अन्त में यही कहा जा सकता है कि लव-जिहाद के बेहद कम मामले हैं लेकिन फिर भी यह चिन्ता का विषय है क्योंकि चाहे कितने ही कम मामले क्यों न हो लेकिन इनसे दोनों समुदायों के बीच नफरत की दीवार खड़ी हो रही है। मुस्लिम समाज को आगे आकर ऐसे मामलों का विरोध करना चाहिये और ऐसे मुस्लिम संगठनों की गतिविधियों के बारे में सरकार को सूचना उपलब्ध करवानी चाहिये। हिंदू मुस्लिम भाईचारे को चोट पहुँचाकर थोड़े से लोगों का धर्म परिवर्तन कराना कोई उपलब्धि नहीं है। इस देश का भविष्य हिंदू-मुस्लिम समाज के प्रेम और विश्वास पर टिका हुआ है लेकिन कुछ लोग इसे सुनियोजित तरीके से चोट पहुँचा रहे हैं। उदारवादी और सही सोच के मुस्लिमों की चुप्पी के कारण सारे विश्व में इस्लाम बदनाम हो रहा है।आतंकवादी और कट्टरवादी मुस्लिमों के कारण आज पूरे विश्व में मुसलमानों को शक की नजर से देखा जा रहा है। यही समय है जब मुस्लिम समाज को गलत को गलत कहना सीखना होगा। दूसरे धर्म के व्यक्ति से प्रेम और विवाह हिम्मत का काम है लेकिन कुछ लोगों के कारण ऐसे व्यक्ति शक के घेरे में रहते हैं। सबसे जरूरी बात यह है कि प्रेम में सारा त्याग महिलाओं से नहीं माँगा जाना चाहिये। यदि किसी हिंदू या मुस्लिम युवक को दूसरे धर्म की युवती से प्रेम होता है तो उसे अपना धर्म बदलकर युवती का धर्म स्वीकार करना चाहिये। तभी ये साबित हो पायेगा कि उसका प्रेम सच्चा है। सच्चा प्रेम त्याग नहीं माँगता बल्कि त्याग करता है। जब युवक अपना धर्म प्रेम के लिये छोडऩे की हिम्मत दिखायेंगे, तब पता चलेगा कि उनका समाज उनके साथ कैसा व्यवहार करता है ?  

बीती अपने आप पर

बैठ न सौरभ हार के, रखना इतना ध्यान !
चलने से राहें खुले, हो मंजिल का भान !!

सुख में क्या है ढूंढ़ता, तू अपनी पहचान !
संघर्षों में जो पले, बनते वही महान !!

संबंध स्वार्थ से जुड़े, कब देते बलिदान !
वक्त पड़े पर टूटते, शोक न कर नादान !!

आंधी या बरसात हो, सहते एक समान !
जीवन पथ पर वो सदा, रचते नए विधान !!

भूल गए हम साधना, भूल गए है राम !
मंदिर मस्जिद फेर में, उलझे आठों याम !!

रहे सदा तू एक सा, करना मत ये ख्याल !
धन-तन सभी बिखेर दे,आया एक बवाल !!

औरों की जब बात हो, करते लाख बवाल !
बीती अपने आप पर, भूले सभी सवाल !!

नरमेध आकांक्षी मगधराज जरासंध

—विनय कुमार विनायक
मगध साम्राज्य के संस्थापक
जरासंध के पिता बृहद्रथ ने
अपने पिता वसु के वसुमति
नाम की नगरी को गिरिव्रज
मां गिरि के नाम किया था!

आगे चलकर यह बार्हद्रथपुर,
मागधपुर,कुशाग्रपुर,श्रषभपुर,
बिम्बिसारपुरी बना नयानगर,
राजगृह था जरासंध का घर
अब राजगीर पर्यटन स्थल!

जरासंध था मगध का राजा
मिश्रित आर्य असुर कुल का,
उनकी दो बेटियां ब्याही गई
आर्य अन्धक यादव कंश से
जो मामा था श्री कृष्ण का!

उस दिनों आर्यों अनार्यों में
ऐसा विवाह प्रचलन में था,
जरासंध जन्मत: था खंडित,
जरा नामक निषाद देवी ने
जरासंध की बदली देहयष्टि!

जरासंध हो गया महा बलिष्ठ
बना नरमेध यज्ञ का आकांक्षी,
कैद किया राजागण छियासी
सौ में मात्र चौदह राजा कम,
कंशहंता कृष्ण हो गए बेदम!

कृष्ण विरोधी शिशुपाल था
सेनापति और निषाद राज
एकलव्य भी बना सहयोगी,
काल यवन से मिल करके
जरासंध ने घेरा कृष्ण को!

कृष्ण ने मथुरा त्याग कर
द्वारिका में शरण ली थी,
याद आ गई बुआ कुन्ती
भाई भीम से द्वन्द लड़ा
जय पाए थे जरासंध पर!

भगवान कृष्ण की युक्ति
और भीमसेन की कुश्ती
वो ऐतिहासिक कदम था
जिससे बंद हुआ नरमेध
राजा बना सुपुत्र सहदेव!

जरासंध पुत्र सहदेव बड़ा
धर्मसहिष्णु शिव उपासक,
मगध का प्रतापी शासक
महाभारत युद्ध लड़ा था,
कृष्ण के पाण्डव पक्ष से!

सबका ईश्वर एक है


सबका ईश्वर एक है,
ईश्वर ने सबको एक बनाया है
ईश्वर की नही कोई जाति
किसने ईश्वर की जाति बनाई?

सबका ईश्वर नेक है,
ईश्वर ने सबको नेक बनाया है
ईश्वर में नहीं कोई बदी
किसने ईश्वर में बदी घुसाई?

सबका ईश्वर विवेक है,
ईश्वर ने सबको विवेक दिया है,
ईश्वर नहीं है अविवेकी
किसने ईश्वर में भरी बुराई?

सबका ईश्वर प्रेम है
ईश्वर ने सबको प्रेम सिखाया है
ईश्वर नहीं है बेवफा
किसने भरी उनमें बेवफाई?

सबका ईश्वर करुण है
ईश्वर ने सबमें करुणा भर दी है
ईश्वर नहीं है हिंसक
किसने उनको हिंसा सिखाई?

सबका ईश्वर सर्वगुणी है
सबको मानव गुण धर्म दिया है
किन्तु अमानुषी कार्य को
ईश्वरीय घोषणा किसने करवाई?

ईश्वर नहीं दस-बीस है
ईश्वर ने ईश्वर नहीं बनाया है
अपने दुष्कर्म की डफली
ईश्वर के नाम किसने बजवाई?

घुप अंधेरे में टिमटिमाया दीपक,रौशनी की आसार!

2020 के बिहार विधान सभा चुनाव में इस बार देश का मुख्य मुद्दा बहुत ही मजबूती के साथ उठाया गया यह एक बहुत बड़ा कदम है क्योंकि जाति और धर्म की परिकरमा करती हुई सियासत की दशा और दिशा जिस तरह से नौकरी एवं रोजगार की ओर मोड़ने का प्रयास किया गया वह देश के मूल ढ़ांचे में सुधार हेतु बहुत बड़ा संकेत है। खास बात यह है कि इस बार के बिहार विधान सभा के चुनाव में नौकरी और रोजगार मुख्य चुनावी मुद्दा रहा। इस मुद्दे को किस राजनीतिक पार्टी ने पहले उठाया और किसने बाद में यह सियासत का विषय है परन्तु देश हित का विषय यह है कि अगर यह मुद्दा धरातल पर अपने मूल अस्तित्व में आ गया और अपने पैर पसार लिए तो देश की तस्वीर बदल सकती है। क्योंकि जीवन-यापन के लिए आर्थिक सशक्तिकरण बहुत ही आवश्यक है। जिससे की देश का विकास होना तय है।

बता दें कि राज्य की नई एनडीए सरकार ने कार्यभार संभालते ही रिक्त पदों को भरने एवं सरकारी नौकरी देने की कार्रवाई शुरू कर दी है। सामान्य प्रशासन विभाग ने सभी विभागों से उनके यहां के खाली पड़े पदों का ब्योरा मांगा है। इस बारे में सभी विभागों के प्रमुखों को भेजे गए पत्र में कहा गया है कि वह जानकारी उपलब्ध कराएं कि उनके यहां स्वीकृत पदों पर संविदा या नियोजन द्वारा कितने लोग काम कर रहे हैं? पहले से नियुक्त लोगों के अलावा कितने पद खाली पड़े हैं जिन पर संविदा के आधार पर नियुक्ति की जानी है? संविदा या नियोजन के लिए प्रक्रियाधीन पदाधिकारियों और कर्मियों की संख्या कितनी है? सरकार ने अपने सभी विभाग के अधिकारियों से कहा है कि रिटायर कर्मियों का संविदा नियोजन छोड़कर अन्य सभी पदों का ब्योरा सर्वोच्च प्राथमिकता देकर तुरंत उपलब्ध कराएं।

सरकार का यह कदम बेरोजगार नौजवानों के लिए घुप अंधेरे में उम्मीद की किरण का आभास होने जैसा है क्योंकि कोरोना के कारण लॉकडाउन ने जिस प्रकार से देश की आर्थिक स्थिति को धाराशायी किया है। उससे देश की 85 प्रतिशत आबादी पूरी तरह से भुखमरी के कगार पर आ गई साथ ही बेरोजगार नौजवानों की खस्ता हालत ने देश को भारी नुकसान पहुँचाया। भुखमरी के कगार पर पहुँच चुके देश की तस्वीर किसी से भी छिपी हुई नहीं है। परन्तु अबतक शासन और सत्ता ने इस ओर देखना भी उचित नहीं समझा था। आँख मूँदे हुए सियासत की तस्वीर पूरे देश के सामने है। पूरे देश में जिस प्रकार से भुखमरी फैली है आज लोग दो जून की रोटी के लिए दिन-रात संघर्ष कर रहे हैं। देश की यह स्थिति किसी से भी छिपी हुई नहीं है। देश की इतनी बदतर हालत कैसे हो गई…? यह बड़ा सवाल है। क्या यह स्थिति एक दो दिन में अथवा एक दो साल में उत्पन्न हो गई…? नहीं ऐसा कदापि नहीं है। यह कोई जादू नहीं है जोकि तुरंत अपना रूप बदलकर सामने आकर खड़ा हो गया। देश की भुखमरी की समस्या स्वतंत्रता के बाद से ही देश के ढ़ांचे के साथ लिपटी हुई है। ऐसा क्यों है…? यह बड़ा सवाल है। इसके पीछे मुख्य कारण यह है कि विधानसभा से लेकर लोकसभा तक फर्राटा भरने वाली सियासत लगातार कुर्सी की परिकरमा करती रही। जो भी राजनेता सत्ता की कुर्सी पर विराजमान हो जाता वह कुर्सी को मजबूती के साथ पकड़कर कुर्सी से चिपके रहने के लिए पूरी कोशिश करता रहता। यदि शब्दों को सरल करके कहा जाए तो शायद गलत नहीं होगा कि देश की सत्ता पर विराजमान जिम्मेदारों ने सत्य में भुखमरी की ओर ध्यान देने की जरूरत ही नहीं समझी। गरीबी और भुखमरी के मुद्दे को चुनाव के समय ही अलादीन के चिराग से जिन की भाँति निकाल लिया जाता रहा और चुनाव समाप्त होते ही फिर इस मुद्दे को संभालकर उसी बोतल नुमा चिराग में आगामी चुनाव के लिए रख दिय़ा जाता रहा। इसी कारण देश में इस मुद्दे पर मजबूती के साथ कार्य नहीं हो पाया इस कारण आज देश की तस्वीर इतनी दयनीय हो गई। देश का मध्यक्रम नया गरीब हो गया और जो पहले से गरीब था वह और गरीब हो गया।

इसका मुख्य कारण एक यह भी है कि जाति और धर्म की परिकरमा करती हुई सियासत ने देश के वास्तविक मुद्दे का गला ही घोंट दिया जिससे कि वास्तविक मुद्दे की साँसे थम गईं। जाति-धर्म का मुद्दा जोरो पर पूरे देश में फैलने लगा। जिससे नेताओं को इच्छानुसार खुला मैदान मिल गया। फिर क्या था देश के राजनेताओं ने जनता को अपने सियासी जाल में फंसाकर उलझा दिया जिससे कि देश की जनता धर्म और धार्मिक स्थानों में फंसकर रह गई और आर्थिक मुद्दे से भटक गई जिससे की आर्थिक स्थिति बद से बदतर होती चली गई।

अतः राजनीति की बदलती हुई दिशा देश के भविष्य के लिए किसी संजीवनी से कम नहीं है इसलिए कि जिस कार्य को सदियों पहले किया जाना चाहिए था उस कार्य को किया ही नहीं गया। जबकि देश के ढ़ांचे को मजबूती के साथ खड़ा करने के लिए आर्थिक सशक्तिकरण होना बहुत जरूरी है। इतिहास साक्षी है विश्व के मानचित्र में कुछ देश ऐसे भी हैं जोकि भारत के बाद स्वतंत्र हुए परन्तु आज आर्थिक स्थिति में वह विश्व के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे हैं जोकि हमारे लिए बहुत शर्म की बात है। जबकि हम ऐसा कर पाने में पीछे रह गए जोकि चिंता का विषय है। हमारे देश के नीतिकारों को इस ओर ध्यान देने की बहुत सख्त जरूरत है। कहते हैं कि जब जागो तभी सवेरा। अगर हमारे जिम्मेदार अभी भी जाग जाएं और अपनी आंखें खोल कर देश की वास्तविक समस्या को देख लें और धर्म जाति के चक्र से बाहर निकलकर आर्थिक नीति को चुनावी आधार बनाकर कार्य किया जाए तो देश के थके और हाँफते हुए प्राण को बड़ी संजीवनी प्राप्त हो सकती है।   

काबुल में टिकी रहें फौजें

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

अमेरिका के ट्रंप प्रशासन ने घोषणा की है कि वह अपनी सेना के 2500 जवानों को अफगानिस्तान से वापस बुलवाएगा। यह काम क्रिसमिस के पहले ही संपन्न हो जाएगा। जिस अफगानिस्तान में अमेरिका के एक लाख जवान थे, वहां सिर्फ 2 हजार ही रह जाएं तो उस देश का क्या होगा ? ट्रंप ने अमेरिकी जनता को वादा किया था कि वे अमेरिकी फौजों को वहां से वापस बुलवाकर रहेंगे क्योंकि अमेरिका को हर साल उन पर 4 बिलियन डाॅलर खर्च करना पड़ता है, सैकड़ों अमेरिकी फौजी मर चुके हैं और वहां टिके रहने से अमेरिका को कोई फायदा नहीं है। 2002 से अभी तक अमेरिका उस देश में 19 बिलियन डाॅलर से ज्यादा पैसा बहा चुका है। ट्रंप का तर्क है कि अमेरिकी फौजों को काबुल में अब टिकाए रखने का कोई कारण नहीं है, क्योंकि अब तो सोवियत संघ का कोई खतरा नहीं है, पाकिस्तान से पहले-जैसी घनिष्टता नहीं है और ट्रंप के अमेरिका को दूसरों की बजाय खुद पर ध्यान देना जरुरी है। ट्रंप की तरह ओबामा ने भी अपने चुनाव-अभियान के दौरान फौजी वापसी का नारा दिया था लेकिन राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने इस मामले में काफी ढील दे दी थी लेकिन ट्रंप ने फौजों की वापसी तेज करने के लिए कूटनीतिक तैयारी भी पूरी की थी। उन्होंने जलमई खलीलजाद के जरिए तालिबान और काबुल की गनी सरकार के बीच संवाद कायम करवाया और इस संवाद में भारत और पाकिस्तान को भी जोड़ा गया। माना गया कि काबुल सरकार और तालिबान के बीच समझौता हो गया है लेकिन वह कागज पर ही अटका हुआ है। अमल में वह कहीं दिखाई नहीं पड़ता। आए दिन हिंसक घटनाएं होती रहती हैं। इस समय नाटो देशों के 12 हजार सैनिक अफगानिस्तान में हैं। अफगान फौजियों की संख्या अभी लगभग पौने दो लाख है जबकि उसके-जैसे लड़ाकू देश को काबू में रखने के लिए करीब 5 लाख फौजी चाहिए। मैं तो चाहता हूं कि बाइडन-प्रशासन वहां अपने, नाटो और अन्य देशों के 5 लाख फौजी कम से कम दो साल के लिए संयुक्तराष्ट्र की निगरानी में भिजवा दे तो अफगानिस्तान में पूर्ण शांति कायम हो सकती है। ट्रंप को अभी अपना वादा पूरा करने दें (25 दिसंबर तक)। 20 जनवरी 2021 को बाइडन जैसे ही शपथ लें, काबुल में वे अपनी फौजें डटा दें। हालांकि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान पहली बार काबुल पहुंचे हैं लेकिन तालिबान को काबू करने की उनकी हैसियत ‘ना’ के बराबर है। बाइडन खुद अमेरिकी फौजों की वापसी के पक्ष में बयान दे चुके हैं लेकिन उनकी वापसी ऐसी होनी चाहिए कि अफगानिस्तान में उनकी दुबारा वापसी न करना पड़े। यदि अफगानिस्तान आतंक का गढ़ बना रहेगा तो अमेरिका सहित भारत-जैसे देश भी हिंसा के शिकार होते रहेंगे।

ओवैसी की देश विरोधी राजनीति और देश की सज्जन शक्ति

हमारे देश के लिए बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि यदि सरकारें अच्छा काम करती हैं तो उनका कुछ लोग विरोध करते हैं , परंतु उनके विरोध को शांत करने के लिए सरकार के समर्थन में सड़कों पर उतरना गलत माना जाता है । जबकि देश की मुख्यधारा में विश्वास रखने वाली देश की बड़ी आबादी को अपनी रोजी-रोटी से कुछ अलग हटकर सरकार के राष्ट्रवादी दृष्टिकोण और नीतियों का समर्थन करने के लिए भी सड़कों पर उतरना चाहिए । जिससे सरकार को निर्णय लेने में तो सुविधा होगी ही साथ ही देशद्रोही या राष्ट्रवाद का विरोध करने वाली शक्तियों का मनोबल तोड़ने में भी सहायता मिलेगी ।
देश की सज्जन शक्ति अर्थात मुख्यधारा में विश्वास रखने वाले राष्ट्रवादी लोग जब इस प्रकार की नीरसता का प्रदर्शन कर अपनी रोजी-रोटी तक अपने आपको सीमित रखते हैं तब राष्ट्रविरोधी शक्तियों को समाज में अराजकता उत्पन्न करने और सरकार के राष्ट्रवादी निर्णय में अड़ंगा डालकर अपनी देशद्रोही मांगों को मनवाने में सफलता मिल जाती है।
लोकतांत्रिक शासन प्रणाली कहने के लिए तो सबसे अच्छी शासन प्रणाली है, परंतु इसमें भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर संवैधानिक अधिकारों की आड़ में देशद्रोही कार्य को भी लोग संविधान सम्मत ठहराने का प्रयास करते देखे जाते हैं। यदि कमजोर इच्छाशक्ति का कोई ‘बेअसरदार सरदार’ शासन कर रहा हो तो निश्चय ही ऐसी राष्ट्रद्रोही शक्तियों का मनोबल दिन दूना रात चौगुना बढ़ता जाता है।
अब समाचार आया है कि  हैदराबाद से सांसद और एआईएमआईएम चीफ असदुद्दीन ओवैसी  ने कहा है कि अगर देश में नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर बनाने का शेड्यूल तय हो चुका है तो जल्द ही इसके विरोध का भी शेड्यूल फाइनल किया जाएगा। उन्होंने कहा कि नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स अर्थात एनआरसी का पहला चरण नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर है। एक खबर का लिंक शेयर करते हुए  ओवैसी ने लिखा, “एनपीआर एनआरसी की ओर पहला कदम है। भारत के गरीबों को इस प्रक्रिया में मजबूर नहीं किया जाना चाहिए जिसके परिणामस्वरूप उन्हें ‘संदिग्ध नागरिक’ के रूप में चिह्नित किया जा सकता है। यदि एनपीआर के काम के शेड्यूल को अंतिम रूप दिया जा रहा है, तो इसका विरोध करने के लिए कार्यक्रम को भी अंतिम रूप दिया जाएगा।”
यहां पर यही बात स्पष्ट करना हमारा उद्देश्य है कि यदि ओवैसी को सरकार के किसी ऐसे संभावित निर्णय का विरोध करने का संविधानिक अधिकार प्राप्त है तो देश के उन कोटि-कोटि लोगों को सरकार के इस प्रकार के निर्णय का स्वागत करने और उनके समर्थन में सड़क पर उतरने का भी उतना ही अधिकार है जितना ओवैसी को विरोध करने का है । यह तब और भी अधिक आवश्यक हो जाता है जब देश इस समय जनसंख्या विस्फोट की स्थिति में पहुंच चुका है और देश में प्रतिदिन बेरोजगारों व भुखमरी में रहने वाले गरीब लोगों की संख्या में वृद्धि होती जा रही है।
यह ध्यान रखना चाहिए कि मुस्लिम जनसंख्या देश में जिस प्रकार प्रतिदिन बढ़ती जा रही है उससे अगले 40 वर्ष में भारतवर्ष संसार का सबसे बड़ा ऐसा देश होगा जहां मुस्लिम आबादी सबसे अधिक रह रही होगी । हम किसी संप्रदाय विशेष के विरोध की बात नहीं कर रहे हैं और ना ही सांप्रदायिक आधार पर किसी व्यक्ति का विरोध होना चाहिए , परंतु सत्य और तथ्य यही है कि मुस्लिम आबादी आज भी जहां जहां पर है वहीं वहीं पर हिंसा, अत्याचार ,खून खराबा मारकाट ,लूट, डकैती और बलात्कार की घटनाएं अधिक होती हैं । इतना ही नहीं लव जिहाद के नाम पर जिस प्रकार हिन्दुओं की बहू बेटियों के साथ अत्याचार हो रहे हैं उन सबसे यह स्पष्ट होता है कि जब 40 वर्ष बाद देश में सबसे अधिक मुसलमान रह रहे होंगे तब क्या स्थिति होगी ?
जनसंख्या की वर्तमान दर यदि निरंतर बनी रहती है तो देश में बेरोजगारी, भुखमरी ,गरीबी आदि इतनी बढ़ जाएंगी कि इसकी संभाले नहीं संभल ही जाएगी तब अराजकता होगी और उस अराजकता से जो खून खराबा देश में फैलेगा उससे देश को उभरने में सदियों लग जाएंगी। वास्तव में वही स्थिति जनसंख्या विस्फोट की होती है । जिसमें सरकार असहाय हो जाती है और समाज अराजकता का शिकार बन जाता है।
हिंदू महासभा और सभी ऐसे राष्ट्रवादी हिंदूवादी राजनीतिक दल देश में जनसंख्या विस्फोट से बचने के लिए जनसंख्या नियंत्रण के लिए कानून लाने की मांग कई दशकों से करते चले आए हैं, परंतु कांग्रेस की छद्म धर्मनिरपेक्षवादी सरकारों ने इस ओर कभी ध्यान नहीं दिया । अब केंद्र की मोदी सरकार को इस ओर निश्चित ही ध्यान देना चाहिए । यदि केंद्र की मोदी सरकार ऐसा कोई कानून लाती है तो हमारा स्पष्ट मानना है कि उस समय हिंदू महासभा सहित अन्य सभी राष्ट्रवादी हिंदूवादी राजनीतिक दलों को सरकार का समर्थन करने के लिए सड़क पर उतरना चाहिए ।
यदि एनआरसी का विरोध करने के लिए कुछ राजनीतिक दल सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से समाज विरोधी लोगों को अपना समर्थन दे सकते हैं और सरकार को अस्थिर कर सत्ता में आने का षड्यंत्र रच सकते हैं तो देश के राष्ट्रवादी हिंदूवादी राजनीतिक दलों या सामाजिक संगठनों को ऐसा करने का अधिकार क्यों नहीं ? निश्चित रूप से यदि अच्छी बातों का विरोध करने का अधिकार संविधान ने राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों को प्रदान किया है तो अच्छे निर्णयों का समर्थन करने के लिए सड़क पर उतरने का अधिकार भी सभी राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों को प्राप्त है। ऐसे समय में किसी भी प्रकार की ओच्छी राजनीति न करके राष्ट्रवादी सरकार के मजबूत निर्णयों का समर्थन कर देश में राष्ट्रवाद को बल प्रदान करना ही देश की सबसे बड़ी सेवा होती है। देश की सज्जन शक्ति यदि इस प्रकार के निर्णय लेने के लिए मन बना ले तो निश्चय ही देश विरोधी लोगों को सरकार के सही निर्णयों में अड़ंगा डालकर अपनी मांगों को मनवाने का अवसर प्राप्त नहीं हो पाएगा । देश की सज्जन शक्ति दु:खी भी केवल इसलिए रहती है कि वह सही समय पर अपने लिए काम करने वालों का मनोबल बढ़ाने के लिए आगे नहीं आती।
हमें आशा करनी चाहिए कि यदि इस बार ओवैसी किसी प्रकार की ओछी राजनीति करते हुए सड़क पर उतरेंगे तो देश की सज्जन शक्ति भी उसका प्रतिकार करने के लिए सड़क पर आकर यह आवाज लगायेगी कि हम सरकार के राष्ट्रवादी निर्णय के साथ हैं और जो लोग इस प्रकार के निर्णय का विरोध कर रहे हैं वह देशद्रोही और राष्ट्र विरोधी हैं।

हाफिज सईद पर नौटंकी

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान की जमात-उद-दावा के सरगना हाफिज सईद को 10 साल की जेल की सजा हो गई है। वह पहले से ही लाहौर में 11 साल की जेल काट रहा है। अब ये दोनों सजाएं साथ-साथ चलेंगी। ये सजाएं पाकिस्तान की ही अदालतों ने दी हैं। क्यों दी हैं ? क्योंकि पेरिस के अंतरराष्ट्रीय वित्तीय कोश संगठन ने पाकिस्तान का हुक्का-पानी बंद कर रखा है। उसने पाकिस्तान का नाम अपनी भूरी सूची में डाल रखा है, क्योंकि उसने सईद जैसे आतंकवादियों को अभी तक छुट्टा छोड़ रखा था। हाफिज सईद की गिरफ्तारी पर अमेरिका ने लगभग 75 करोड़ रु. का इनाम 2008 में घोषित किया था लेकिन वह 10-11 साल तक पाकिस्तान में खुला घूमता रहा। किसी सरकार की हिम्मत नहीं हुई कि वह उसे गिरफ्तार करती। दुनिया के मालदार मुल्कों के आगे पाकिस्तान के नेता भीख का कटोरा फैलाते रहे लेकिन मुफ्त के 75 करोड़ रु. लेना उन्होंने ठीक नहीं समझा। क्यों नहीं समझा ? इसीलिए कि हाफिज सईद तो उन्हीं का खड़ा किया गया पुतला था। जब मेरे-जैसा घनघोर राष्ट्रवादी भारतीय पत्रकार उसके घर में बे-रोक-टोक जा सकता था तो पाकिस्तान की पुलिस क्यों नहीं जा सकती थी ? अमेरिका ने जो 75 करोड़ रु. का पुरस्कार रखा था, वह भी किसी ढोंग से कम नहीं था। यदि वह उसामा बिन लादेन को उसके गुप्त ठिकाने में घुसकर मार सकता था तो सईद को पकड़ना उसके लिए कौनसी बड़ी बात थी ? लेकिन सईद तो भारत में आतंक फैला रहा था। अमेरिका को उससे कोई सीधा खतरा नहीं था। अब जबकि खुद पाकिस्तान की सरकार का हुक्का-पानी खतरे में पड़ा तो देखिए, उसने आनन-फानन सईद को अंदर कर दिया। सईद की यह गिरफ्तारी भी दुनिया को एक ढोंग ही मालूम पड़ रही है। सईद और उसके साथी जेल में जरुर रहेंगे लेकिन इमरान-सरकार के दामाद की तरह रहेंगे। अब उनके खाने-पीने, दवा-दारु और आने-जाने का खर्चा भी पाकिस्तान सरकार ही उठाएगी। उन्हें राजनीतिक कैदियों की सारी सुविधाएं मिलेंगी। आंदोलनकारी कैदी के रुप में मैं खुद कई बार जेल काट चुका हूं। जेल-जीवन के आनंद का क्या कहना ? भारत में आतंकवाद फैलाकर इन तथाकथित जिहादियों ने, पाकिस्तानी फौज और सरकार की जो सेवा की है, उसका पारितोषिक अब उन्हें जेल में मिलेगा। ज्यों ही पाकिस्तान भूरी से सफेद सूची में आया कि ये आतंकवादी रिहा हो जाएंगे। पाकिस्तानी आतंकवादियों के कारण पाकिस्तान सारी दुनिया में ‘नापाकिस्तान’ बन गया है और भारत और अफगानिस्तान से ज्यादा निर्दोष मुसलमान पाकिस्तान में मारे गए हैं। पाकिस्तान यदि जिन्ना के सपनों को साकार करना चाहता है और शांतिसंपन्न राष्ट्र बनना चाहता है तो उसे इन गिरफ्तारियों की नौटंकी से आगे निकलकर आतंकवाद की नीति का ही परित्याग करना चाहिए।

दूसरा अभिमन्यु: चन्द्रशेखर ‘आजाद’ नाम पिता ‘स्वाधीन’

—विनय कुमार विनायक
मां जगरानी और पंडित सीताराम का लाला,
बड़ा ही जिगरा, हिम्मतवाला, वीर मतवाला,

वो रोबीला, मूंछोंवाला, छैल छबीला चंदूबाबा,
आजादी का दीवाना, सरदार भगत का साथी,

चन्द्रशेखर ‘आजाद’ नाम पिता का ‘स्वाधीन’
पता मत पूछो उनका, पूछ लो सिर्फ मंजिल,

राजगुरु, बटुकेश्वर दत्त, राम प्रसाद ‘बिस्मिल’
सबके सब आजादी के दीवाने, लोहे के दिल!

भारत के बेटे कुंवारे, मौत मंगेतर थी जिनकी,
रंग गेरुआ सर पे कफनी बांधे, हाथ में संगीन!

वे चले सब सीना ताने, मृत्यु से रास रचाने,
खून से मांग भरके, आजादी की दुल्हन लाने!

दुल्हन तो आई मगर, दुल्हे सब गए छीन,
मां पड़ी उदास, पिता स्वाधीन, दीन, मलीन!

तेईस जुलाई उन्नीस सौ छःमें मध्यप्रदेश के,
झाबुआ के भाबरा गांव का ये बावरा सलोना!

ऐसा था महावीर, ना रोक सका अंग्रेजों का
शमशीर, ना बांध सका, अंग्रेजी लौह जंजीर,

सुनकर उन्नीस सौ उन्नीस के अमृतसर के
जलियांवाला बाग का भीषण खूनी नरसंहार,

इस तेरस वर्षीय बालक ने ठाना था मन में,
एक दूसरा अभिमन्यु बन जाने का विचार!

बच्चों की सेना ले कूद पड़े आजादी रण में,
उन्नीस सौ बीस के असहयोग आंदोलन में!

गिरफ्तार हुआ चौदह वर्षीय दूजा अभिमन्यु,
पन्द्रह बेंत मारने की अंग्रेजों ने सजा दे दी!

पहली बेंत की मार से, पीठ की चमड़ी छिली,
हर बेंत पे निकली भारत मां जय की बोली!

कसम खाई थी मन में मिले जीत या मौत,
किया नहीं स्वीकार जीते जी बालक ने हार!

उन्नीस सौ बाईस की चौरा चौरी की घटना से
गांधीजी ने असहयोग आंदोलन को वापस लिए

आजाद, भगतसिंह, रामप्रसाद बिस्मिल सरीखे
युवाओं ने गांधी-नेहरू के कांग्रेस को छोड़ दी!

युवा बिस्मिल,सान्याल,योगेश का उन्नीस सौ
चौबीस में हिन्दुस्तान प्रजातांत्रिक संघ बना!

आजाद नौ अगस्त पचीस में हो गए शामिल
काकोरीकांड में, पकड़े गए असफाक-बिस्मिल!

सन सत्ताईस में सरफरोशी की तमन्ना में झूले
बिस्मिल,असफाक,रोशनसिंह, लाहिड़ी फांसी पे!

पर आजाद तो आजाद बाज सा मंडरा जा मिले
सत्तरह दिसंबर अठाईस में भगतसिंह,राजगुरु से!

लाल लाजपत के हत्यारे सैंडर्स को गोली मार,
राजगुरु,भगतसिंह,चन्द्रशेखर आजाद हुए फरार!

आजाद के नेतृत्व में भगतसिंह, बटुकेश्वर ने
उन्नीस सौ उनतीस में एसेंब्ली में बम फोड़े!

भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव की फांसी को
रोक सके नहीं गांधी-नेहरू,आजाद भी घिर पड़े!

अल्फ्रेड पार्क इलाहाबाद में नाट बाबर ने घेरा,
पड़ा अभिमन्यु को गोरों के चक्रव्यूह का फेरा!

किन्तु टूटे रथ का पहिया नहीं, अबके हाथ में
बंदूक और गोली,,मुख में वंदेमातरम की बोली!

चलती रही तड़-तड़ गोली, बचा अंत में एक ही
कनपटी में गोली मार बलिदान हो गए खुद ही!

सत्ताईस फरवरी उन्नीस सौ इकतीस पुण्यतिथि,
चौबीस वर्षीय मां के रणवांकुरे की ये आपबीती!
—विनय कुमार विनायक
दुमका, झारखण्ड-814101.